फ़िरदौस ख़ान
दुनिया भर में आबादी लगातार बढ़ रही है. आबादी को रहने के लिए घर भी चाहिए और पेट भरने के लिए अनाज भी. बसावट के लिए जंगल काटे जा रहे हैं, खेतों की जगह बस्तियां बसाई जा रही हैं. ऐसे में लगातार छोटे होते खेत आबादी का पेट कैसे भर पाएंगे.  इंसान को ज़िन्दा रहने के लिए हवा और पानी के अलावा भोजन भी चाहिए. ज़रा सोचिए, जब कृषि भूमि कम हो जाएगी, तब अनाज, फल और सब्ज़ियां कहां से आएंगी. ऐसी हालत में खेतीबाड़ी की ऐसी तकनीक की ज़रूरत होगी, जिससे बिना मिट्टी के भी फ़सलें उगाई जा सकें. काफ़ी अरसे से कृषि वैज्ञानिक ऐसी तकनीक की खोज में जुटे हैं, जिनके ज़रिये उन हालात में भी फ़सलें उगाई जा सकें, जब कृषि योग्य ज़रूरी चीज़ें उपलब्ध न हों. कृषि वैज्ञानिकों की मेहनत का ही नतीजा है कि आज ऐसी कई तकनीक मौजूद हैं, जिनके ज़रिये कम पानी और बंजर ज़मीन में भी फ़सलें लहलहा रही हैं. इतना ही नहीं, अब तो बिना मिट्टी के भी फ़सलें उगाई जा रही हैं. अमेरिका, ऒस्ट्रेलिया, चीन, जापान, इज़राइल, थाइलैंड, कोरिया, इंडोनेशिया और मलेशिया आदि देशों में बिना मिट्टी के सब्ज़ियां उगाई जा रही हैं. इन देशों की देखादेखी और देश भी इस तकनीक को अपना रहे हैं. इस तकनीक के ज़रिये टमाटर, गोभी, बैंगन, भिंडी, करेला, मिर्च, ककड़ी, शिमला मिर्च, खीरा और पालक व अन्य़ पत्तेदार सब्ज़ियों की खेती की जा रही है.

बिना मिट्टी वाली खेती में मिट्टी की जगह ठोस पदार्थ के रूप में बालू, बजरी, धान की भूसी, कंकड़, लकड़ी का चूरा, पौधों का वेस्ट जैसे नारियल का जट्टा, जूट आदि का इस्तेमाल किया जाता है. जूट और नारियल के जट्टे में पानी सोखने की क्षमता ज़्यादा होती है. यह भुरभुरा होता है, जिससे जड़ों को हवा मिलती रहती है. बिना मिट्टी के खेती करने की तकनीक को हाइड्रोपोनिक्स यानी जलकृषि कहा जाता है. जैसा कि नाम से ही ज़ाहिर है, इसमें मिट्टी का इस्तेमाल नहीं किया जाता. मिट्टी की जगह पानी ही खेती की बुनियाद होता है. पौधों को पानी से भरे एक बर्तन में उगाया जाता है. पौधों को बढ़ने के लिए जिन पोषक तत्वों की ज़रूरत होती है, उन्हें पानी में मिला दिया जाता है. पोषक तत्वों और ऑक्सीज़न को पौधों की जड़ों तक पहुंचाने के लिए एक पतली नली का इस्तेमाल किया जाता है. जलकृषि दो तरीक़ों से की जाती है. पहली है घोल विधि और दूसरी माध्यम विधि. घोल विधि के तहत पौधों को पानी से भरे एक बर्तन में रखा जाता है और फिर पोषक तत्वों का घोल प्रवाहित किया जाता है. पौधों की जड़ों तक ऑक्सीज़न और पोषक तत्वों को पहुंचाया जाता है. घोल विधि तीन तरह की है- स्थैतिक घोल विधि, सतत बहाव विधि और एयरोपोनिक्स. स्थैतिक घोल विधि में पौधों को पानी से भरे बर्तन में रखा जाता है और फिर पोषक तत्वों के घोल को धीरे-धीरे नली से प्रवाहित किया जाता है. जब पौधे कम हों, तो यह विधि इस्तेमाल में लाई जाती है. ऐसा होने से जड़ों को ऑक्सीज़न भी मिलती रहती है. सतत बहाव घोल विधि के तहत पोषक तत्वों के घोल को लगातार जड़ों की तरफ़ प्रवाहित किया जाता है. जब बड़े से बर्तन में ज़्यादा पौधे उगाने हों, तो इसका इस्तेमाल करते हैं. इन्हें डीप वाटर विधि भी कहा जाता है. अमूमन एक हफ़्ते बाद जब घोल निर्धारित स्तर से कम हो जाता है, तो पानी और पोषक तत्वों को इसमें मिला दिया जाता है. एयरोपोनिक्स यानी बिना मिट्टी के हवा और नमी वाले वातावरण में फलों, सब्ज़ियों और फूलों की फ़सल उगाना. इस तकनीक के तहत पौधों को प्लास्टिक के पैनल के ऊपर बने छेदों में टिकाया जाता है और उनकी जड़ें हवा में लटका दी जाती हैं. सबसे नीचे पानी का टैंक रखा जाता है, जिसमें घुलने वाले पोषक तत्व डाल दिए जाते हैं. टैंक में लगे पंप के ज़रिये पौधों की हवा में लटकी जड़ों पर पानी का छिड़काव किया जाता है. पानी में मिले पोषक तत्वों से ख़ुराक और हवा से ऑक्सीज़न मिलने की वजह पौधे बड़ी तेज़ी से बढ़ते हैं और काफ़ी कम वक़्त में भरपूर पैदावार देते हैं. कमरे में होने वाली इस खेती में रौशनी के लिए एलईडी बल्ब इस्तेमाल किए जाते हैं.

वर्टिकल फ़ार्मिंग भी एक बेहतर विकल्प है. इसमें मिट्टी की ज़रूरत नहीं होती. वर्टिकल फ़ार्म एक बहुमंज़िला ‘ग्रीन हाउस’ है. इस विधि के तहत कमरों में एक बहु-सतही ढांचा खड़ा किया जाता है, जो कमरे की ऊंचाई के बराबर हिसाब से बनाया जाता है. इसकी दीवारें कांच की होती हैं, जिससे सूरज की रौशनी अंदर तक आती है. वर्टिकल यानी खड़े ढांचे के सबसे निचले ख़ाने में पानी से भरा टैंक रख दिया जाता है. उसमें मछलियां डाली जाती हैं. मछलियों की वजह से पानी में नाइट्रेट की अच्छी ख़ासी मात्रा होती है, जो पौधों के जल्दी बढ़ने में मददगार है. टैंक के ऊपरी ख़ानों में पौधों के छोटे-छोटे बर्तन रख दिए जाते हैं. टैंक से पंप के ज़रिये इस बर्तन तक पानी पहुंचाया जाता है.

जलकृषि में ऐसे पोषक तत्वों का इस्तेमाल किया जाता है, जो पानी में घुलनशील होते हैं. इनका रूप अकार्बनिक और आयनिक होता है. कैल्सियम, मैग्निशियम और पोटैशियम प्राथमिक घुलनशील तत्व हैं. वहीं प्रमुख घोल के रूप में नाइट्रेट, सल्फ़ेट और डिहाइड्रोजन फ़ॊस्फ़ेट इस्तेमाल में लाए जाते हैं. पोटेशियम नाइट्रेट, कैल्सियम नाइट्रेट, पोटेशियम फ़ॊस्फ़ेट और मैग्निशियम सल्फ़ेट रसायनों का भी इस्तेमाल किया जाता है. इसके अलावा आयरन, मैगनीज़, कॉपर, ज़िंक, बोरोन, क्लोरीन और निकल का भी इस्तेमाल होता है. इस तकनीक की ख़ासियत यह है कि इसमें मिट्टी के बिना और कम पानी के इस्तेमाल से सब्ज़ियां उगाई जाती हैं. इसमें मिट्टी का इस्तेमाल नहीं होता, इसलिए इसके ज़रिये छत पर भी खेती की जा सकती है. इस तकनीक की खेती में मेहनत कम लगती है. फ़सल की बुआई के लिए खेतों में जुताई करने और सिंचाई की भी ज़रूरत नहीं है. खरपतवान निकालने की मेहनत से भी आज़ादी है. इसमें पानी भी बहुत कम लगता है. मिसाल के तौर पर मिट्टी वाले खेत में एक किलो सब्ज़ी उगाने में जितने पानी की ज़रूरत होती है, उतने ही पानी में जलकृषि के ज़रिये सौ किलो से ज़्यादा सब्ज़ियां उगाई जा सकती हैं. इसमें खरपतवार नहीं उगते और फ़सल पर नुक़सानदेह कीटों का भी कोई प्रकोप नहीं होता. ऐसे में कीटनाशकों के छिड़काव की मेहनत और ख़र्च दोनों बच जाते हैं. कीटनाशकों का इस्तेमाल न होने की वजह से सब्ज़ियां पौष्टिक तत्वों से भरपूर होती हैं और लम्बे वक़्त तक ताज़ी रहती हैं. ये सब्ज़ियां ऒर्गेनिक सब्ज़ियों जैसी ही होती हैं और इनकी गुणवत्ता भी मिट्टी में उगने वाली फ़सल की तुलना में बेहतर साबित हुई है. ग़ौरतलब है कि सामान्य खेती में कीटनाशकों और रसायनों के अंधाधुंध इस्तेमाल ने फ़सलों को ज़हरीला बना दिया है. अनाज ही नहीं, दलहन, फल और सब्ज़ियां भी ज़हरीली हो चुकी हैं. इनका सीधा असर सेहत पर पड़ रहा है.


इसके अलावा एक और विधि से बहुत कम पानी और कम मिट्टी में भी सब्ज़ियां उगाई जाती हैं. इस विधि का नाम है ट्रे कल्टीवेशन यानी ट्रे में फ़सल उगाना. इसके तहत ट्रे में हरी जाली बिछाई जाती है. फिर उसमें जूट बिछा दिया जाता है. इसके बाद केंचुए की खाद डाली जाती है. फिर इसमें बीज बो दिए जाते हैं. समय-समय पर इसमें पोषक तत्वों का छिड़काव किया जाता है. फिर से ट्रे को जाली से ढक दिया जाता है. जाली से ढकी होने की वजह से पौधे कीट-पतंगों से सुरक्षित रहते हैं. राजस्थान में किसान इस तकनीक को अपना रहे हैं. राज्स्थान में इस तकनीक से खेती हो रही है.

देश के कई हिस्सों में अब बिना मिट्टी के खेती हो रही है. हरियाणा के पानीपत ज़िले के जोशी गांव के किसान अनुज भी बिना मिट्टी के खेती कर रहे हैं. उन्होंने ऒस्ट्रेलिया में बिना मिट्टी वाली खेती देखी और इसका प्रशिक्षण लिया. फिर स्वदेश लौटने पर उन्होंने इस नई तकनीक से खेती शुरू की. वह 15 एकड़ से भी ज़्यादा भूमि पर मिट्टी रहित जैविक खेती कर रहे है.  इस प्रगतिशील किसान का कहना है कि उनके गांव की मिट्टी में खरपतवार बहुत है, जिससे उत्पादन होता है. इसी वजह से उन्होंने मिट्टी रहित खेती की इस तकनीक को अपनाया.  उन्होंने बताया कि इस खेती में मिट्टी की जगह नारियल के अवशेष का इस्तेमाल होता है और इसे छोटी-छोटी थैलियों में डालकर पॊली हाऊस में सब्ज़ी के पौधे उगाए जाते हैं. नारियल के इस अवशेष को खेती के लिए लगातार तीन साल तक इस्तेमाल किया जा सकता है. उन्होंने बताया कि इस तकनीक से लगातार सात महीनों तक सब्ज़ियों की पैदावार होती है. वह हर तीन साल बाद केरल से नारियल के अवशेष मंगवाते हैं. इसका एक बैग तक़रीबन 5 किलो का होता है, जिसकी क़ीमत 30 रुपये है. उन्होंने बताया कि वह टमाटर, शिमला मिर्च, गोभी, मटर और खीरा आदि सब्ज़ियां उगाते हैं. सब्ज़ियों को बेचने के लिए उन्हें बाज़ार जाने की ज़रूरत नहीं पड़ती. व्यापारी ख़ुद उनके फ़ार्म से सब्ज़ियां ख़रीद कर ले जाते हैं. उन्हें सब्ज़ियों की अच्छी क़ीमत मिलती है.
छत्तीसगढ़ के रायपुर में रहने वाले अनिमेष तिवारी अपने घर की छत पर सब्ज़ियां उगाते हैं. वह गोभी, बैंगन,  शिमला मिर्च और चाइनीज़ कैबिज, ब्रोकोली आदि की खेती करते हैं. उन्होंने छत पर एक स्टैंड पर प्लास्टिक के मोटे पाइप रखे हुए हैं, जिनमें थोड़ी-थोड़ी दूरी पर ख़ास आकार में छेद किए गए हैं. वह जालीदार बर्तन में नारियल की भूसी डालते हैं. फिर इसी भूसी में सब्ज़ियों के बीज बो देते हैं. इन बर्तनों में पानी डाला जाता है. जब बीज से छोटे पौधे निकलने लगते हैं, तो बर्तन को प्लास्टिक के पाइप में बने छेद पर फिट कर दिया जाता है. इससे उन्हें काफ़ी मुनाफ़ा हो रहा है.

इस तकनीक के ज़रिये अब चारा भी उगाया जाएगा. कम पानी वाले शुष्क इलाक़ों में उगने वाली सेवण घास की पौध भी इस तकनीक से तैयार की जा चुकी है. राजस्थान के वेटरनरी विश्वविद्यालय के पशुधन चारा संसाधन प्रबंधन एवं तकनीक केंद्र के वैज्ञानिकों ने सेवण के बीजों को बिना मिट्टी के धूप, पानी और पोषक तत्वों का इस्तेमाल करके नियंत्रित तापक्रम पर सात दिन की अवधि में सेवण की पौध तैयार की थी.  वैज्ञानिकों का कहना है कि इस तकनीक से तैयार हुई पौध से चारागाह में सेवण घास को पनपाने और हल्के-फुल्के बीजों की बिजाई में आने वाली मुश्किलों से छुटकारा मिल जाएगा. ग़ौरतलब है कि सेवण घास रेगिस्तानी इलाक़ों के पालतू पशुओं गाय, भैंस, भेड़, बकरी, ऊंट और वन्य पशुओं का पौष्टिक आहार है. सेवण का पौधा एक बार पनपने के बाद बूझे का स्वरूप ले लेता है, जो बहुत लंबे वक़्त तक शुष्क क्षेत्र में पौष्टिक एवं स्वादिष्ट चारे का उत्पादन देने में सक्षम होता है. सेवण के बीज परिपक्व होते ही झड़ कर तेज़ हवा और आंधी में उड़ जाते हैं.

जलकृषि के ज़रिये लगातार पैदावार ली जा सकती है और किसी भी मौसम में सब्ज़ियां उगाई जा सकती हैं. इसमें खेती के आधुनिक उपकरणों की भी कोई ज़रूरत नहीं होती. इस तकनीक की एक बड़ी ख़ासियत यह भी है कि फ़सलें प्राकृतिक आपदाओं जैसे ओलावृष्टि, बेमौसमी बारिश और सूखे से भी बची रहती हैं. किसानों को बिना मिट्टी के खेती की यह तकनीक बहुत पसंद आ रही है. मिट्टी पारंपरिक खेती के मु़क़ाबले इसमें लागत बहुत कम आती है, जबकि मुनाफ़ा ज़्यादा होता है. कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि जिन किसानों की ज़मीन बंजर है, वे जलकृषि को अपनाकर फ़सलें उगा सकते हैं. कृषि विभाग के अधिकारी किसानों को बिना मिट्टी के खेती करने का प्रशिक्षण दे रहे हैं. हरियाणा के किसानों ने तक़रीबन 1800 एकड़ बंजर ज़मीन में पॊली हाउस बनाए हुए हैं.

जलकृषि वक़्त की ज़रूरत है. दुनिया की आबादी तक़रीबन आठ अरब है, जो लगातार बढ़ ही रही है. अगले एक-दो दशक में आबादी बढ़कर नौ अरब होने की संभावना है. आने वाले दो दशकों में खाद्यान्न उत्पादन में 50 फ़ीसद बढ़ोतरी होने पर ही लोगों को भोजन मिल पाएगा. फ़िलहाल दुनिया भर में तक़रीबन 25000 लाख टन खाद्यान्न की पैदावार हो रही है, जो भविष्य़ की बढ़ी आबादी के लिए बहुत कम रहेगी. लगातार जलवायु परिवर्तन, बंजर होती ज़मीन, घटती कृषि भूमि, जल संकट को देखते हुए कृषि के नये तरीक़े अपनाकर ही आबादी के लिए खाद्यान्न जुटाया जा सकेगा.

वर्टिकल फ़ार्मिंग के ज़रिये भी किसान कम जगह में सब्ज़ियां उगा सकते हैं. कम जगह, कम लागत, कम मेहनत में अच्छी पैदावार मुनाफ़े का सौदा है. आज़माकर ज़रूर देखें.


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