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नई दिल्ली. 1 मार्च से बैंकों ने कैश ट्रांजेक्शन पर बड़े चार्ज लगाने का ऐलान कर दिया है जिसके बाद जाहिर तौर पर आपकी चिंताएं बढ़ गई होंगी. बैंकों ने अब नकद लेनदेन (जमा-कैश निकालने) पर कई तरह का चार्ज लगा दिए हैं. लेकिन अगर आप यहां बताई बातों पर अमल करेंगे तो आपको कोई चार्ज नहीं देना पड़ेगा जानें किस तरह आप कैश ट्रांजेक्शन करने के बावजूद पैसे बचा सकते हैं.
ट्रांजेक्शन चार्ज से बचने के उपाय 
नए नियमों के मुताबिक बैंक की शाखा और एटीएम से मिलाकर 1 महीने में 9-10 लेनदेन मुफ्त होते हैं. 5 बार एटीएम से और और 4 बार बैंकों में पैसे निकालने पर आपको कोई चार्ज नहीं लगेगा. तो कुल मिलाकर 9 बार के कैश ट्रांजेक्शन आप फ्री कर सकते हैं और ये काफी हैं. बैंकों ने भी यही दलील दी है कि सामान्य सेविंग्स अकाउंट में इससे ज्यादा लेन-देन नहीं होता. लिहाजा ट्रांजैक्शन फीस से बड़ी तादाद में लोग प्रभावित नहीं होंगे.इसके लिए सबसे बड़ा सुझाव तो ये भी है कि आप कैश में ट्रांजेक्शन करने से बचें और ज्यादातर ऑनलाइन पैसे भेजें या प्राप्त करें. अगर आपको कैश में काम करने की आदत ज्यादा है भी तो भी एक महीने में 5 बार से ज्यादा एटीएम से पैसे ना निकालें. हर बार थोड़ा-थोड़ा कैश निकालने से बेहतर है आप एक बार में ज्यादा कैश निकालें और उसका इस्तेमाल करें.सरकार ने भीम एप और यूपीआई के जरिए ट्रांजेक्शन को बढ़ावा देने के लिए डिजी स्कीम भी लॉन्च की हुई है तो इसके जरिए फ्री में ट्रांजेक्शन भी करें और ईनाम भी जीतें. अब तक हजारों लोग करोड़ रुपये के कैश ईनाम डिजी स्कीम के जरिए जीत चुके हैं. तो आप ऑनलाइन लेनदेन करते हैं तो पेटीएम, फ्रीचार्ज से हटकर सोचें और सरकारी ऑनलाइन पेमेंट सर्विसेज का इस्तेमाल करें.4 ट्रांजेक्शन के बाद 150 रुपये का चार्ज सिर्फ निजी बैंकों ने तय किया है. सरकारी बैंकों में सिर्फ एसबीआई ने ऐसी घोषणा की है और बाकी बैंकों में अभी भी पहले के ही नियम लागू हैं और को-ऑपरेटिव बैंकों में भी आपको फ्री ही कैश जमा करने और निकालने की सुविधा पहले की तरह बदस्तूर मिल रही है तो इन बैंकों में आपके खाते हैं तो उनका ज्यादा इस्तेमाल करें. जानें अलग-अलग बैंकों किस तरह के चार्ज वसूल रहे हैं?
आईसीआईसीआई बैंक के चार्ज
आईसीआईसीआई बैंक में एक एक महीने में पहले चार लेन-देन के लिए कोई शुल्क नहीं लगेगा. उसके बाद प्रति 1,000 रुपये पर 5 रुपये का शुल्क लगाया जाएगा. यह समान महीने के लिए न्यूनतम 150 रुपये होगा. थर्ड पार्टी ट्रांजैक्शन के मामले में सीमा 50,000 रुपये प्रतिदिन होगी. होम ब्रांच के अलावा अन्य शाखाओं के मामले में आईसीआईसीआई बैंक एक महीने में पहली नकद निकासी के लिए कोई शुल्क नहीं लेगा. लेकिन उसके बाद प्रति 1,000 रुपये पर 5 रुपये का शुल्क लेगा. इसके लिए न्यूनतम शुल्क 150 रुपये रखा गया है.
एचडीएफ़सी बैंक के चार्ज
एचडीएफसी बैंक से 4 बार से ज्यादा कैश निकालने पर 150 रुपए फीस अदा करनी होगी. बैंक ने होम ब्रांचेज में भी फ्री कैश ट्रांजैक्शन 2 लाख रुपये की लिमिट लगा दी है. इसके ऊपर कस्टमर्स को न्यूनतम 150 रुपये या 5 रुपये प्रति 1000 रुपये का पेमेंट करना होगा. नॉन-होम ब्रांचेज में मुफ्त लेन-देन 25,000 रुपये है. उसके बाद चार्ज उसी स्तर पर लागू होगा. हालांकि बुजुर्गों और बच्चों के खातों पर किसी तरह का चार्ज नहीं लगाया है और इनमें जमा पर भी कोई चार्ज नहीं लगेगा. कोई दूसरा व्यक्ति यदि आपके खाते में नगद जमा कराना चाहे या निकालना चाहे तो उसके लिए 25 हजार रुपये की सीमा है और वो भी कम से कम 150 रुपये की फीस के साथ
एक्सिस बैंक के चार्ज
कस्टमर्स को हर महीने 5 ट्रांजैक्शन्स फ्री दिए गए हैं. इसके बाद छठे लेनदेन पर कम से कम 95 रुपए प्रति लेनदेन की दर से चार्ज लगाया जाएगा. नॉन-होम ब्रांच के 5 ट्रांजैक्शन फ्री हैं. बैंक ने एक दिन में कैश जमा करने की सीमा 50,000 रुपये फिक्स की है और इससे ज्यादा के डिपॉजिट पर या 6ठें ट्रांजेक्शन पर हरेक 1000 रुपये पर 2.50 रुपये की दर से या प्रति ट्रांजैक्शन 95 रुपये में से जो भी ज्यादा होगा, चार्ज लिया जाएगा.
एसबीआई के चार्ज
सबसे बड़ा सरकारी बैंकएसबीआई भी एक महीने में 3 बार से ज्यादा कैश ट्रांजेक्शन पर सर्विस चार्ज वसूलेगी. साथ ही बैंक ने तय किया है कि वह व्यावसायिक प्रतिनिधि और पीओएस से नकदी निकालने पर निर्धारित सीमा के बाद चार्ज लेगा. होम ब्रांच के सेविंग खाते के एटीएम से ग्राहक महीने में 3 बार ही कैश ट्रांजेक्शन फ्री कर पाएंगे. इससे ऊपर के हर ट्रांजेक्शन पर 50 रुपये सर्विस चार्ज लगेगा.
सरकारी बैंकों में अभी भी नहीं है कोई चार्ज
दो प्रमुख सरकारी बैंक पंजाब नेशनल बैंक और बैंक  ऑफ बड़ौदा के अधिकारियों ने साफ किया है कि उनके यहां नगद लेन-देन पर कोई ट्रांजैक्शन फीस नही है. कोई भी बैंक जितना चाहे, जितनी बार चाहे, नगद जमा करा सकता है. 13 मार्च से पैसा निकालने पर कोई पाबंदी नही रहेगी. वहीं केनरा बैंक ने भी कहा है कि वह अपने कस्टमर्स से किसी तरह का चार्ज नहीं वसूलेगा. तो आप चाहें तो इन बैंकों में फभी सेविंग खाता है तो इनका इस्तेमाल कर सकते हैं या नया खाता भी खुलवा सकते हैं.

बैंकों का कहना है कि देश में लेसकैश को बढ़ाने यानी नकद लेन-देन को हतोत्साहित करने के लिए ही नियम बनाए हैं और कि ट्रांजैक्शन फीस का नोटबंदी से कोई लेन-देना नहीं है, ये पहले से ही लागू हैं. सरकार का मानना है कि एटीएम से नकदी निकासी की लागत प्रदर्शन करना चाहिए क्योंकि लोगों को नकदी में लेनदेन की इनबिल्ट कॉस्ट यानी लागत नहीं पता चलती है और कैश में लेनदेन करते रहते हैं जिससे बैंकिंग सिस्टम की भी लागत बढ़ती है. रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने एडीशनल ट्रांजेक्‍शन करने के तौर पर 20 रुपये प्‍लस टैक्‍स को सभी सेंट्रल बैंकों पर लागू किया गया। जिससे कि उनकी सीमा को बढ़ाया जा सके.

अमनदीप
वर्ष 2008 में शुरू हुई वैश्विक मन्दी के बाद दुनिया की पूँजीवादी अर्थव्यवस्था एक ऐसे संकट की चपेट में है जिसमें से यह अभी तक निकल नहीं सकी है और भविष्य में भी निकल सकने की कोई सम्भावना नज़र नहीं आ रही. पर पूँजीपति वर्ग अपने संकट का बोझ हमेशा से आम मेहनतकश लोगों पर डालता आया है. वैसे तो संसार की व्यापक मेहनतकश आबादी पूँजीवादी व्यवस्था में सदा महँगाई, बेरोज़गारी, ग़रीबी, भुखमरी आदि समस्याओं से जूझती रहती है पर मन्दी के दौर में ये समस्याएँ और बड़ी आबादी को अपने शिकंजे में ले लेती हैं. बेरोज़गारों की लाइनें और तेज़ी से लम्बी होती हैं और रोज़गारशुदा आबादी की आमदनी में गिरावट आती है. इसी कारण से आज संसार के सबसे विकसित मुल्कों में भी आम लोगों की हालत दिन-ब-दिन ख़राब होती जा रही है. पूँजीवादी व्यवस्था की बिगड़ती हालत को उजागर करते हुए रोज़ नये आँकड़े सामने आ रहे हैं. ब्रिटेन के नामी अखबार ‘गार्जियन’ की एक ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका, कनाडा, इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया, फ्रांस, इटली, स्पेन और जर्मनी में 2008 के संकट के बाद के ‘मन्द मन्दी’ के दौर में लोगों की, ख़ास तौर पर नौजवानों का जीवन स्तर निरन्तर गिरता जा रहा है. इन मुल्कों में 22 से 35 वर्ष आयु की नौजवान मेहनतकश आबादी बेरोज़गारी और कम वेतन के कारण कर्ज़ों में डूबी हुई है. इन्हीं आठ में से पाँच देशों के नौजवान जोड़ों और परिवारों की आमदनी बाकी वर्गों से 20 फ़ीसदी कम है. जबकि इससे पिछली पीढ़ी के लोग 1970 और 1980 के दशक में औसत राष्ट्रीय आमदनी से कहीं ज़्यादा कमाते थे. युद्धों या प्राकृतिक आपदाओं के बाद, पूँजीवाद के इतिहास में यह शायद पहली बार हुआ है जब नौजवान आबादी की आमदनी समाज के बाकी वर्गों से बहुत नीचे गिरी है.
विकसित मुल्कों के लोग अपने भविष्य को लेकर काफी असुरक्षित महसूस कर रहे हैं. ‘इप्सोस मोरी’ नामक ब्रिटिश एजेंसी के सर्वेक्षण के अनुसार 54 फ़ीसदी लोग यह मानते हैं कि आने वाली पीढ़ी की हालत पिछली पीढ़ी से भी बदतर होगी. इसका कारण है कि एक तरफ तो क़ीमतों और किरायों में निरन्तर वृद्धि हो रही है और दूसरी तरफ व्यापक आबादी के लिए रोज़गार के अवसर और वेतन लगातार कम होते जा रहे हैं. सन् 2013 की एक रिपोर्ट के अनुसार विकसित पूँजीवादी देशों में लगभग 3 करोड़ नौजवान शिक्षा और रोज़गार से वंचित हैं. यूनान जो कि इस रिपोर्ट का हिस्सा नहीं है, उसके हालात तो और भी भयानक हैं. यूनान की 60 फ़ीसदी से भी ज़्यादा नौजवान आबादी बेरोज़गार है. मकान की क़ीमतें पिछले 20 वर्षों में किसी भी और समय से ज़्यादा तेज़ी से बढ़ी हैं. इन देशों में जल्दी ही ऐसे लोगों की गिनती 50 फ़ीसदी से ज़्यादा हो जायेगी जिनके पास अपना घर नहीं है. इस आर्थिक तंगी का असर लोगों के सामाजिक जीवन में भी दिख रहा है. 1980 के मुकाबले एक औरत विवाह करने के लिए 7.1 वर्ष ज़्यादा इन्तज़ार करती है और बच्चा पैदा करने की औसत आयु 4 वर्ष बढ़ गयी है. ज़्यादातर लोग यह जानकर परेशान हैं कि वह सारी उम्र काम करके भी कर्ज़दार रहेंगे और अपना घर नहीं खरीद सकेंगे.
आम तौर पर पूँजीपति वर्ग अपना मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए सापेक्षिक रूप से मज़दूरों और अन्य कामगारों के वेतन कम करता है. उदाहरण के लिए मज़दूरों का वेतन बढ़ाये बिना जब उनके द्वारा तैयार माल की क़ीमत बढ़यी जाती है तो सापेक्षिक रूप में उनका वेतन कम कर दिया जाता है. पर अमेरिका और इटली में निरपेक्ष तौर पर भी वेतन कम हुआ है. अमेरिका में औसत मज़दूरी 1979 में 29,638 यूरो से गिरकर 2010 में 27,757 यूरो हो गयी. फ्रांस, अमेरिका और इटली में नौजवान मेहनतकश लोगों की आमदनी पैंशन ले रहे रिटायर वर्ग से कम है.
‘गार्जियन’ अख़बार के लेखकों ने जिस तरह ये आँकड़े पेश किये हैं, उन्होंने लोगों के ग़ुस्से को ग़रीबी, बेरोज़गारी और ख़राब होती जीवन स्थितियों के लिए ज़िम्मेदार इस आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था से हटाकर इनके मुकाबले पेंशन पर जी रहे रिटायर वर्ग की ओर मोड़ने की कोशिश की है. उन्होंने ‘यूरोपीय केंद्रीय बैंक’ के प्रमुख मारियो द्राघी के हवाले से कहा है कि ”कई देशों में सख़्त श्रम क़ानून पक्की नौकरियों और ज़्यादा वेतन वाले कुछ पुराने लोगों को बचाने के लिए बनाये गये हैं. इसका नुकसान नौजवानों को होता है. जो कम वेतन और ठेके पर काम करने के लिए मजबूर हैं और मन्दी की हालतों में सबसे पहले बेरोज़गार होते हैं”. पक्की नौकरियाँ, ज़्यादा वेतन और सभी के लिए उच्च जीवन स्तर की माँग करने के बजाय नौजवानों को पेंशन ले रहे रिटायर वर्ग के ख़िलाफ़ भड़काया जा रहा है.
यह कोई नयी घटना नहीं है. मौजूदा लुटेरी व्यवस्था इसी तरह काम करती है. आर्थिक संकट के दौर में यह घटना और तेज़ हो जाती है और ज़्यादा स्पष्ट नज़र आती है. असल में दूसरे विश्व युद्ध के बाद मज़दूर इंकलाब के डर से जो सहूलियतें इन मुल्कों की हुकूमतों ने ‘पब्लिक सेक्टर’ खड़ा करके पिछली पीढ़ियों को दी थीं, उससे विकसित देशों की आम आबादी की बुनियादी ज़रूरतें पूरी हुईं और उनका जीवन स्तर ऊँचा उठा था. पर आज किसी समाजवादी राज और किसी बड़े जन-आन्दोलन की नामौजूदगी की हालत में पूँजीवादी सत्ता आर्थिक संकट से निपटने के लिए जन कल्याण के वे सारे पैकेज, पेंशनें, बेरोज़गारी भत्ते आदि ख़त्म कर रही है और सारे क्षेत्र मुनाफ़ाख़ोर पूँजीपतियों के हाथों में दे रही है. साथ ही इन नीतियों के परिणाम स्वरूप लोगों में पैदा हो रहे आक्रोश को कुचलने के लिए फासीवादियों को सत्ता में तैनात कर रही है.
पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में आर्थिक संकट के कारण पूँजी की अपनी चाल में ही समाये हुए हैं. इस समय विश्व पूँजीवादी-साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था भीषण संकट का शिकार है और इसमें से निकलने की कोई सम्भावना नज़र नहीं आ रही. यह संकट आने वाले समय में और भी गहरा होगा और लोगों की बेचैनी भी बढ़ेगी. इंक़लाबी ताक़तों की कमज़ोरी की हालत में फासीवादियों का उदय हो रहा है. विश्व भर में ये फासीवादी लोगों के ग़ुस्से को धार्मिक अल्पसंख्यकों, कम्युनिस्टों, मज़दूरों और मेहनतकशों के विरुद्ध मोड़ने की कोशिशें कर रहे हैं. आज ज़रूरी है कि इंक़लाबी ताक़तें मज़दूरों और मेहनतकशों को उनके ऐतिहासिक मिशन से परिचित करवाएं. वह मिशन पूँजीवाद को जड़ से मिटाने के लिए समाजवादी इंकलाब करने का है क्योंकि सिर्फ़ समाजवादी व्यवस्था ही लोगों को इस लुटेरी व्यवस्था की मुसीबतों से आज़ाद कर सकती है.

मानव
पिछले 7 जून को विश्व बैंक ने विश्व अर्थव्यवस्था के अपने नये मूल्यांकन में इसकी वृद्धि दर को फिर घटा दिया है. विश्व बैंक ने जनवरी में किये अपने पहले अनुमान 2.9% से कम करके वैश्विक आर्थिक वृद्धि दर 2016 में 2.4% रहने का अनुमान लगाया है. विश्व बैंक के अर्थशास्त्री ऐहान कोजे़ ने कहा, “विश्व अर्थव्यवस्था की हालत नाज़ुक है. वृद्धि दर कमज़ोर स्थिति में है.” विश्व बैंक का यह ताज़ा अनुमान अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय कोष (आई.एम.एफ़.) की ओर से अप्रैल में किये गये 3.2% के अनुमान से भी कम है.
मार्क्सवादी दायरों में तो इस बात की सम्भावना पहले ही ज़ाहिर की जा रही थी कि वैश्विक अर्थव्यवस्था एक नये और गहरे आर्थिक संकट के दहाने पर खड़ी है लेकिन बुर्जुआ अर्थशास्त्री हकीकत से मुँह फेरकर हालत सुधरने के दावे किये जा रहे थे. जब कभी एक-आध महीने के लिए कुछ आँकड़े सकारात्मक नज़र आने लगते तो पूरी तस्वीर के एक छोटे से पहलू के रूप में इसे देखने के बजाय वे फ़ौरन आर्थिक संकट के अन्त की भविष्यवाणी करने लगते. लेकिन मौजूदा समय में जो सच्चाई एकदम सामने है उसे किसी भी तरह नज़रअन्दाज़ नहीं किया जा सकता क्योंकि बात सिर्फ अमेरिका या किसी एक-आध देश की नहीं है, बल्कि पूरी वैश्विक अर्थव्यवस्था की है जिसको आधार बनाकर ऐसे निराशावादी रुझान अब पेश किये जा रहे हैं. चाहे अमेरिका हो या लातिनी अमेरिका, यूरोपीय यूनियन हो या फिर जापान, चीन या अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाएँ, सबकी हालत इस समय पतली है.
और इस सिकुड़ते वैश्विक व्यापार के बीच, वैश्विक स्तर पर पैदा हो रहे अधिशेष मूल्य में से अपना हिस्सा बरकरार रखने के लिए या उसको बढ़ाने के लिए विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बीच आपसी खींचतान भी तीखी होती जा रही है. अपने आर्थिक हितों को ध्यान में रखते हुए सभी देश नये व्यापारिक गँठजोड़ क़ायम कर रहे हैं, अपने लिए वक्ती तौर पर नये सहयोगी ढूँढ़ रहे हैं. नये पैदा हुए इस भू-राजनीतिक तनाव के केन्द्र में विश्व की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएँ, अमेरिका और चीन हैं और बाकी देश इनके इर्द-गिर्द अपने-आप को व्यवस्थित कर रहे हैं.
अमेरिका और चीन के बीच चल रही प्रतिस्पर्धा का सबसे नया इज़हार मई के आखिरी हफ्ते में अमेरिकी अन्तरराष्ट्रीय व्यापार कमीशन की ओर से चीनी इस्पात कम्पनियों के ख़िलाफ़ शुरू की गयी जाँच-पड़ताल है जिसके तहत अमेरिकी इस्पात उद्योग की ओर से यह इल्ज़ाम लगाया गया है कि चीनी इस्पात कम्पनियों ने उनकी गुप्त जानकारियों को चुराया है और चीनी कम्पनियाँ अमेरिकी इस्पात कम्पनियों को नुकसान पहुँचाने के लिए जान-बूझकर अपनी क़ीमतें कम कर रही हैं. जहाँ तक गुप्त जानकारी चोरी करने की बात है, तो सभी बड़ी कम्पनियाँ इस काम में लगी ही रहती हैं, मगर अमेरिका के दूसरे दावे में सच्चाई है. इस समय चीन में इस्पात की अतिरिक्त पैदावार है. एक साल में जितना इस्पात पूरा यूरोप पैदा करता है, उससे ज़्यादा चीन पैदा करता है. सस्ती श्रम-शक्ति के आधार पर चीन ने विशालकाय इस्पात उद्योग खड़ा किया है और यह इस्पात वह अमेरिका में सस्ते दाम पर बेच रहा है. इससे उन अमेरिकी कम्पनियों के लिए मुकाबले में टिके रहने का संकट पैदा हो गया है जो स्थानीय महँगे श्रम पर निर्भर हैं. कई अमेरिकी इस्पात कम्पनियाँ बन्द भी हो चुकी हैं जिसके चलते हजारों अमेरिकियों का रोज़गार छिन गया है. इसी को आधार बनाकर अनेक ”राष्ट्रवादी” ताक़तें और उनके प्रतिनिधि अमेरिका में चुनावों के मौसम को देखते हुए दावा कर रहे हैं कि इन खोये रोज़गारों की वजह पूँजीवादी ढाँचा नहीं बल्कि चीन है. इस सबका एक दूसरा पहलू यह भी है की चीन के इस बड़े इस्पात उद्योग ने पिछले कुछ समय से वैश्विक अर्थव्यवस्था के गहरे आर्थिक संकट में कुछ राहत भी दे रखी थी और साथ ही कई अमेरिकी कम्पनियाँ चीन से आने वाले सस्ते इस्पात पर निर्भर भी हैं.
अमेरिकी कम्पनियों के इस आरोप पर चीनी कम्पनियों ने तीखा जवाब देते हुए कहा है कि अमेरिका विश्व व्यापार संगठन के मुक्त व्यापार के नियमों के ख़िलाफ़ जा रहा है. पूँजी का तर्क यही है कि यह ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफे़ वाले क्षेत्रों की ओर भागती है और सस्ती श्रम-शक्ति अधिक मुनाफे़ की गारंटी है. अमेरिकी कम्पनियाँ और विश्व की सारी कम्पनियाँ यही करती हैं कि जहाँ सस्ते से सस्ता श्रम उपलब्ध हो सकता है वहाँ अपने कारख़ाने स्थानांतरित करके अधिक मुनाफ़ा कमाने की फ़िराक में रहती हैं. अमेरिका की परेशानी का सबब सिर्फ यह है कि उसके वैश्विक प्रभुत्व को अब चीन से चुनौती मिल रही है, अधिशेष मूल्य में उसका हिस्सा चीन हथिया रहा है, इसीलिए अमेरिका चीन के ऊपर इस तरह का दबाव बनाने की कोशिश कर रहा है.
अमेरिका के इस विरोध का दूसरा कारण यह है कि चीन पिछले लम्बे समय से विश्व व्यापर संगठन में बाज़ार अर्थव्यवस्था का दर्जा हासिल करने की कोशिश कर रहा है. यह दर्जा मिलने से चीन बिना किसी रोक-टोक के अपने सस्ते माल को अमेरिका समेत दूसरे देशों में भेज सकेगा (जिसको अर्थशास्त्री ‘डम्पिंग’ भी कहते हैं). अमेरिका चीन को यह दर्जा दिये जाने के ख़िलाफ़ है क्योंकि यह दर्जा मिलने के बाद अमेरिका चीन की इस हरकत के बदले उसके ख़िलाफ़ कोई क़ानूनी कार्रवाई करने की माँग नहीं कर सकेगा. दिलचस्प बात यह है कि अमेरिका के परम्परागत सहयोगी इंग्लैण्ड ने भी चीन की इस दावेदारी का समर्थन किया है. इंग्लैण्ड देख रहा है कि बिगड़ती आर्थिक हालत के मद्देनज़र चीन से उम्मीद रखना अधिक फायदेमन्द है. लन्दन पूरे विश्व की वित्तीय गतिविधियों का केन्द्र है और चीनी निवेशक इस समय भारी मात्रा में विदेशी बांडों और कम्पनियों में निवेश कर रहे हैं. इंग्लैण्ड भी इस मौके का भरपूर फ़ायदा उठाना चाहता है.
व्यापार युद्ध का बढ़ता ख़तरा
वैश्विक स्तर पर अतिउत्पादन के हालात, सिकुड़ रहा व्यापार, गिर रही उत्पादकता और अपनी मन्द अर्थव्यवस्थाओं के चलते वैश्विक स्तर पर अधिशेष मूल्य के बँटवारे को लेकर पूँजीवादी देशों के बीच होड़ तीखी होती जा रही है. अपने देशों के पूँजीपतियों के हितों को ध्यान में रखते हुए विभिन्न देशों की पूँजीवादी सरकारें संरक्षणवादी नीतियों पर चल रही हैं जिसके चलते वैश्विक पैमाने पर व्यापार युद्ध छिड़ने का ख़तरा बढ़ गया है. बिलकुल उसी तरह का जिस तरह का 1929 की महामन्दी के बाद पैदा हुआ था जिसका अन्त दूसरे विश्व युद्ध के महाविनाश के रूप में हुआ. इस व्यापार युद्ध में आज केवल अमेरिका और चीन ही अगुआ नहीं हैं. यदि हम विश्व के बड़े पूँजीवादी देशों की पिछले दो साल की विदेश नीति और कूटनीति को देखें तो पता चलता है कि किस तरह एक व्यवस्थित और योजनाबद्ध तरीके से सभी साम्राज्यवादी देशों की इन नीतियों में बदलाव आया है. चाहे वह अमेरिका की ओर से चीन को घेरने के लिए ट्रांस-पैसिफिक सहकारिता (टीपीपी) के तहत बनाया जाने वाला गँठजोड़ और बदले में चीन की ओर से लातिनी अमेरिका, एशिया और मध्य-पूर्व में विभिन्न सन्धियों के ज़रिए अपना एक अलग गँठजोड़ क़ायम करना हो, चाहे वह इंग्लैण्ड के अन्दर आर्थिक राष्ट्रवाद का फैलाया जा रहा प्रचार हो (जिसकी तीखी अभिव्यक्ति अब इंग्लैण्ड के यूरोपीय यूनियन में रहने या ना रहने को लेकर होने वाले मतदान के रूप में सामने आ रही है). चाहे वह जर्मनी द्वारा पिछले दो साल से लगातार अपने सैन्य खर्चे में बढ़ोत्तरी करना और इसके राजनीतिज्ञों द्वारा लगातार जर्मनी को वैश्विक पटल पर उसकी आर्थिक हैसियत के अनुसार भूमिका निभाने की वकालत करना हो और चाहे जापान द्वारा दूसरे विश्व-युद्ध के बाद अपने संविधान में दर्ज की गयी शान्तिवादी धारा को ख़त्म करना और सैन्य खर्चों में लगातार वृद्धि करना हो. ये सभी घटनाक्रम बड़ी पूँजीवादी शक्तियों के बीच तीखी होती होड़ के नतीजे हैं.
इतिहास का तथ्य यही है कि पूँजीपति वर्ग अपने मुनाफ़े के लिए युद्ध जैसे अपराधों को लगातार अंजाम देता रहा है. आज इसके मुकाबले के लिए और इसे रोकने के लिए गाँधीवादी, शान्तिवादी कार्यक्रमों और अपीलों की नहीं बल्कि एक रैडिकल, जुझारू अमन-पसन्द आन्दोलन की ज़रूरत है जिसकी धुरी में मज़दूर वर्ग के वर्ग-संघर्ष के नये संस्करण होंगे.

मुकेश त्यागी
मई 2014 में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार आई थी तो जनता ख़ासकर नौजवानों को बड़े सपने दिखाये गये थे, वादे किये गये थे – देश का चहुँमुखी विकास होगा, आर्थिक तरक़्क़ी की रफ़्तार तेज़ होगी, हर साल दो करोड़ नौजवानों को रोज़गार मिलेगा. अभी 31 मई को भी सरकार ने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर के बढ़ने की घोषणा द्वारा यही बताने की कोशिश की – बताया गया कि मार्च 2016 में खत्म हुई तिमाही में जीडीपी 7.9% की दर से बढ़ी और पूरे 2015-16 के वित्तीय वर्ष में 7.6% की दर से. टीवी और अख़बारों द्वारा ज़बर्दस्त प्रचार छेड़ दिया गया कि इस सरकार के निर्णायक और साहसी आर्थिक सुधारों की वजह से अर्थव्यवस्था संकट से बाहर आ गयी है; भारत दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था बन गया है और अब तेज़ी से विकास हो रहा है जिससे जनसाधारण के जीवन में भारी समृद्धि आने वाली है. आइये हम इन दावों और तथ्यों को थोड़ा गहराई से जाँचते हैं ताकि इसकी असलियत सामने आ सके.
अगर जीडीपी की वृद्धि की तस्वीर को ध्यान से देखें तो सरकार के जीडीपी में 7.9% वृद्धि के दावे पर ही सवाल उठ रहा है – कुल 221,744 करोड़ रुपये की वृद्धि में सबसे बडा आइटम है ‘गड़बड़ी’ या ‘विसंगतियाँ’ – सारी वृद्धि का 51% यही है; इसे निकाल दीजिये तो यह वृद्धि सिर्फ 3.9% ही रह जाती है. इन ‘गडबड़ियों’ की कोई व्याख्या नहीं दी गयी है. फिर इसको क्या समझा जाये? जीडीपी में वृद्धि के इस दावे पर कैसे भरोसा किया जाये? ख़ुद भारतीय पूँजीपति वर्ग के मुखपत्र ‘इकॉनोमिक टाइम्स’ को भी 3 जून के अपने एक लेख ‘7.6%, भारत सबसे तेज़ वृद्धि वाली अर्थव्यवस्था या सर्वश्रेष्ठ आँकड़ों की हेराफेरी’ में कहना पडा कि ‘’7.6% वृद्धि – नंगा राजा को ख़ुश करने के लिये आँकड़ों की बावली हेराफेरी है’. काफ़ी छीछालेदर के बाद सरकार ने भी बेशर्मी के साथ यह स्वीकार किया कि विकास के दिये गये आँकड़ों में ग़लतियाँ हैं.
एक और पक्ष को देखें तो इस वृद्धि का दूसरा बडा हिस्सा है निजी उपभोग में 127,000 करोड़ का इज़ाफ़ा! लेकिन अगर निजी उपभोग इतनी तेज़ी से बढा है तो ये उपभोग लायक वस्तुएँ आयीं कहाँ से क्योंकि सरकार द्वारा ही प्रस्तुत दूसरे आँकड़े बताते हैं कि इस दौर में औद्योगिक उत्पादन सिर्फ 0.1% बढा है! दुनिया के किसी देश में आजतक ऐसा किसी अर्थशास्त्री ने नहीं पाया कि बगैर औद्योगिक उत्पादन बढ़े ही जीडीपी इतनी तेज़ी से बढ़ जाये. इसी बात को दूसरी तरह से समझते हैं – जीडीपी के आँकड़े यह भी बताते हैं कि स्थायी पूँजीगत निर्माण अर्थात अर्थव्यवस्था में पूँजी निवेश 17 हज़ार करोड़ घट गया है. सवाल उठना लाज़िमी है कि अगर अर्थव्यवस्था में इतना सुधार और तेज़ी है तो सरकार व निजी पूँजीपति दोनों नया पूँजी निवेश क्यों नहीं कर रहे हैं? क्या इसलिये कि उन्हें ख़ुद इस प्रचार की सच्चाई पर भरोसा नहीं? ‘इकॉनोमिक टाइम्स’ इसका मज़ाक उड़ाते हुए कहता है कि ‘निजी उपभोग में आकाश छूने वाली 127,000 करोड़ की वृद्धि दिखायी गयी है. हम ऐसे किसी व्यक्ति को नहीं जानते जिसका उपभोग हाल के दिनों में इतना बढ़ा हो. हो सकता है टीसीए अनन्त (भारत के सांख्यिकी प्रधान) या उसके बॉस जेटली या उसके बॉस के बॉस नरेन्द्र मोदी के ऐसे कुछ दोस्त हों जिनका उपभोग इतना बढा हो’. ऐसे भी देखा जाये तो जब देश में एक तरफ भारी सूखे की स्थिति है, देश के निर्यात में लगातार 15 महीने से गिरावट आ रही है, नौजवानों को नये रोज़गार नहीं मिल रहे हैं, जिनके पास रोज़गार है उनका वेतन महँगाई के मुकाबले नहीं बढ़ रहा है, सभी को मालूम है कि किसानों की आर्थिक दशा बेहद संकट में है, सरकार ख़ुद संसद में बता रही है कि खेतिहर श्रमिकों की मज़दूरी पिछले दो वर्षों से गिर रही है, तब ऐसी स्थिति में देश का ऐसा कौन सा तबका है जिसका उपभोग इतनी तेज़ी से बढ़ गया कि उसकी वजह से जीडीपी में इतना भारी उछाल आया है! इन सवालों के उठने पर ख़ुद प्रधान आँकड़ेबाज़ टीसीए अनन्त को स्वीकार करना पड़ा कि इन आँकड़ों की ‘गुणवत्ता’ में बहुत कमियाँ हैं.
फिर सरकार एक और हैरतअंगेज़ तर्क लेकर आयी कि कृषि में वृद्धि दर 2.3% है – क्या देश के लगभग एक-तिहाई हिस्से में दो साल से चल रहे भयंकर सूखे की स्थिति में कोई इस बात का भरोसा करेगा क्योंकि कृषि में ऐसी वृद्धि सिर्फ अच्छे मानसून के सालों में ही देखी गयी है. लेकिन कुछ दूसरे तथ्यों के आधार पर इस बात को जाँचते हैं. सरकार कहती है कि गेहूँ का उत्पादन बढ़कर 86 लाख टन हुआ है लेकिन मण्डियों में अब तक पिछले वर्ष के 29 लाख टन के मुकाबले 25 लाख टन गेहूँ ही आया है तो फिर बढ़ा हुआ उत्पादन कहाँ गया! कोई कहे कि भारत के किसान एक साल में इतने अमीर हो गये कि अच्छी क़ीमत के इन्तजार में फसल को दबाये बैठे हैं तो उन्हें शायद दिमागी डॉक्टर की ज़रूरत है. कृषि में इस 2.3% वृद्धि को आज की स्थिति में सभी कृषि विशेषज्ञ अविश्वसनीय मान रहे हैं.
एक और तरह से भी स्थिति को समझ सकते हैं – बैंक क्रेडिट (कर्ज़) में वृद्धि पिछले वर्ष 8-9% रही है जिसका भी बडा हिस्सा पर्सनल/हाउसिंग/क्रेडिट कार्ड कर्ज़ का है, औद्योगिक नहीं, बल्कि अप्रैल में तो औद्योगिक कर्ज़ में वृद्धि शून्य है! मतलब ख़ुद भारतीय कारोबारी नया निवेश नहीं कर रहे – उन्हें सरकारी योजनाओं के ऐलान से मतलब नहीं क्योंकि अर्थव्यवस्था की ज़मीनी हालत पर उन्हें भरोसा नहीं है! इसीलिये जीडीपी में स्थायी पूँजी निर्माण 17 हज़ार करोड़ घट गया है अर्थात नये पूँजी निवेश के मुकाबले पूँजी ह्रास (कमी) ज़्यादा है. असल में कोई भी पूँजीपति सरकार के नारों के असर में या किसी झोंक में आकर उद्योग नहीं लगाता. उद्योग लगाने का मकसद होता है अधिक से अधिक मुनाफ़ा. अगर मुनाफे़ का भरोसा न हो तो किसी योजना या नारे की घोषणा से कुछ नहीं होता. इसीलिये प्रधानमंत्री मोदी की मेक इन इंडिया, स्टार्ट अप, स्टैंड अप, आदि सब योजनाएँ तो गयीं पानी में!
दूसरे, अगर अर्थव्यवस्था की तस्वीर इतनी ही चमकदार है तो उद्योगों द्वारा बैंकों से लिये गये कर्ज़ इतनी तेज़ी और भयंकर मात्रा में क्यों डूब रहे हैं? ऐसे संकटग्रस्त कर्ज़ की रकम 8 लाख करोड़ पर पहुँच चुकी है और मॉर्गन-स्टैनले आदि विश्लेषक संस्थाओं के अनुसार 10 लाख करोड़ तक जाने की आशंका है. अगर देश तरक़्क़ी कर रहा है, सबसे तेज़ अर्थव्यवस्था है, जनता के उपभोग में भारी वृद्धि हो रही है, बाज़ार में माँग बढ़ रही है, व्यवसाय तरक़्क़ी कर रहा है तो कॉरपोरेट जगत लिये गये कर्ज़ को दबाकर क्यों बैठा है? यह बात सच है कि इसका एक हिस्सा तो पिछले व वर्तमान शासकों के संरक्षण में विजय माल्या या विनसम डायमंड के जतिन मेहता जैसों के द्वारा की गयी सीधी धोखाधड़ी है जिनको स्वयं सरकारी एजेंसियों के संरक्षण में देश से भाग जाने का मौका दिया गया लेकिन यही पूरी सच्चाई नहीं. ख़ुद रिज़र्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन का कहना है कि इन डूबते कर्ज़ों का मुख्य कारण धोखाधड़ी नहीं बल्कि ‘अर्थव्यवस्था में गम्भीर सुस्ती’ है! अब कौन-सी बात पर विश्वास किया जाये – सबसे तेज़ बढ़ती अर्थव्यवस्था या गम्भीर सुस्ती की शिकार अर्थव्यवस्था?
ख़ुद वित्त मंत्री अरुण जेटली 27 मई को ‘इकॉनोमिक टाइम्स’ में छपे अपने इंटरव्यू में कहते हैं कि ‘हम माँग की अनुपस्थिति में मन्दी के वातावरण में संघर्ष कर रहे हैं और इसलिए क्षमता का विस्तार नहीं हो रहा है. जब अधिक माँग होती है तब ऐसा (क्षमता विस्तार) होता है और भारी मात्रा में रोज़गार सृजित होते हैं’. आह, कितना भी छिपाओ, सच बाहर आ ही जाता है!
अब हम इसे ग़ौर से देखें कि जीडीपी में जो वृद्धि दिखायी दे भी रही है उसका स्रोत क्या है? वह क्या वास्तव में अर्थव्यवस्था के ढाँचे में किसी सुधार की तरफ इशारा करती है या कुछ और? ध्यान से देखें तो इस वृद्धि में मुख्य कारक हैं एक तो तेज़ी से बढते अप्रत्यक्ष कर (सर्विस टैक्स, एक्साइज़, वैट, आदि) – इस सरकार ने सिर्फ पेट्रोलियम पर ही 6 बार टैक्स बढ़ाया है. सर्विस टैक्स भी 2014 के 12.36% से बढ़कर अब 15% हो गया है. इन करों के संग्रह से सब्सिडी घटाकर होने वाली सरकारी आमदनी भी जीडीपी की वृद्धि के रूप में दर्ज की जाती है. लेकिन इसका अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक असर ही पड़ता है क्योंकि ये टैक्स जनता की वास्तविक आमदनी अर्थात उसकी क्रय शक्ति को कम करते हैं और पहले से ही सिकुड़ती माँग से जूझ रही अर्थव्यवस्था में माँग को और कमज़ोर ही करेंगे.
जीडीपी में दिखने वाली वृद्धि (निजी उपभोग) का दूसरा कारक है अर्थव्यवस्था में फुलाया जा रहा नया बुलबुला; जिसके ‘अच्छे दिनों’ की उम्मीद के प्रचार की चकाचौंध में मध्यम वर्ग का मोदी-भक्त हिस्सा फँस रहा है क्योंकि वह इसे हक़ीक़त मान बैठा है! और बुलबुला फूटने पर यह तबका बिलबिलायेगा! असलियत से अच्छी तरह वाकिफ़ पूँजीपति वर्ग तो ना कर्ज़ ले रहा है ना ही नया निवेश कर रहा है लेकिन अच्छे दिनों में आमदनी बढ़ने की उम्मीद लिये मध्यम वर्ग ने अभी से कर्ज़ लेकर खर्च करना शुरू कर दिया है. 2008 के वित्तीय संकट के बाद क्रेडिट कार्ड पर लिया जाने वाला कर्ज़ बहुत घट गया था लेकिन अब फिर से क्रेडिट कार्ड पर कर्ज़ 31% की सालाना दर से बढ़ रहा है जबकि इंडस्ट्री को कर्ज में इज़ाफ़ा ज़ीरो है. मोदी जी के ‘अच्छे दिनों’ की आस में क्रेडिट कार्ड या पर्सनल लोन लेकर खर्च करने वाला यह मध्यम वर्ग समझ नहीं पा रहा है कि यह कर्ज़ा एक दिन वापस करना होगा – लेकिन रोज़गार विहीन वृद्धि के दौर में यह कर्ज़ वापस करने का पैसा आयेगा कहाँ से? 2008-09 के वित्तीय संकट के पिछले कड़वे तजुर्बे को अपने लालच में भूल रहे हैं ये!
रोज़गार : दावे, उम्मीदें और वास्तविकता
आइये अब नौजवानों की रोज़गार की उम्मीदों की वास्तविक स्थिति पर नज़र डालते हैं. कुछ दिन पहले ही हमने ख़बर देखी थी कि कैसे हर वर्ष नये रोज़गार सृजन की दर कम हो रही है और पिछले 8 वर्षों में वर्ष 2015 में अर्थव्यवस्था के आठ सबसे ज़्यादा रोज़गार देने वाले उद्योगों में सबसे कम केवल 1.35 लाख नये रोज़गार ही पैदा हुए. सरकारी लेबर ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार इसके मुकाबले 2013 में 4.19 लाख और 2014 में 4.21 लाख नये रोज़गार सृजित हुए थे. अगर लेबर ब्यूरो के आँकड़ों को ग़ौर से देखें तो दरअसल पिछले साल की दो तिमाहियों यानी अप्रैल-जून और अक्टूबर-दिसम्बर 2015 में क्रमशः 0.43 व 0.20 लाख रोज़गार कम हो गये!
कुछ लोग इसे सिर्फ़ मोदी-नीत भाजपा सरकार की नीतियों की असफलता बता कर रुक जा रहे हैं लेकिन हम और ध्यान से देखें तो यह इस या उस नेता, इस या उस पार्टी का सवाल नहीं है, असल में तो यह पूँजीवादी व्यवस्था के मूल आर्थिक नियमों का नतीजा है. रिजर्व बैंक के एक अध्ययन पर आधारित यह विश्लेषण काबिल-ए-ग़ौर है कि
1999-2000 में अगर जीडीपी 1% बढ़ती थी तो रोज़गार में भी 0.39% का इजाफा होता था. 2014-15 तक आते-आते स्थिति यह हो गयी कि 1% जीडीपी बढ़ने से सिर्फ 0.15% रोज़गार बढ़ता है. मतलब जीडीपी बढ़ने, पूँजीपतियों का मुनाफ़ा बढ़ने से अब लोगों को रोज़गार नहीं मिलता. इसलिए जब कॉरपोरेट मीडिया अर्थव्यवस्था में तेज़ी-खुशहाली बताये तो भी उससे आम लोगों को ख़ुश होने की कोई वजह नहीं बनती.
 रोज़गार की स्थिति पर आँखें खोलने वाले कुछ अन्य तथ्य नीचे दिये गये हैं :
1. संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार 1991-2013 के बीच भारत में 30 करोड़ रोज़गार चाहने वालों में से आधे से भी कम अर्थात 14 करोड़ को ही काम मिल सका.
2. जिनको काम मिला भी उनमें से 60% को साल भर काम नहीं मिलता.
3. कुल रोज़गार में से सिर्फ 7% ही संगठित क्षेत्र में हैं बाकी 93% असंगठित क्षेत्र के कामगारों को न कोई निश्चित मासिक वेतन मिलता है और न ही प्रोविडेंट फंड आदि कोई अन्य लाभ.
4. 2015 में नयी कम्पनियाँ स्थापित होने की दर घटकर 2009 के स्तर पर पहुँच गयी है. अप्रैल 2016 में 2 हज़ार से भी कम नयी कम्पनियाँ रजिस्टर हुईं जबकि पिछले दशक में हर महीने औसतन 6 हज़ार कम्पनियाँ रजिस्टर होती थीं. पूँजीवादी व्यवस्था में नयी कम्पनियाँ नहीं आयेंगी तो रोज़गार कहाँ से मिलेगा?
5. इसके अलावा कम्पनियों का आकार घट रहा है – 1991 में 37% कम्पनियाँ 10 से ज़्यादा लोगों को रोज़गार देतीं थीं लेकिन अब सिर्फ 21% कम्पनियाँ ही ऐसी हैं.

रोज़गार की हालत तो यह हो चुकी है कि आम मज़दूरों और साधारण विश्वविद्यालय-कॉलेजों से पढ़ने वालों को तो रोज़गार की मण्डी में अपनी औकात पहले से ही पता थी, लेकिन अब तो आज तक ‘सौभाग्य’ के सातवें आसमान पर बैठे आईआईटी-आईआईएम वालों को भी बेरोज़गारी की आशंका सताने लगी है और इन्हें भी अब धरने-नारे की ज़रूरत महसूस होने लगी है क्योंकि मोदी जी के प्रिय स्टार्ट अप वाले उन्हें धोखा देने लगे हैं! फ्लिपकार्ट, एल एंड टी इन्फ़ोटेक जैसी कम्पनियों ने हज़ारों छात्रों को जो नौकरी के ऑफ़र दिये थे वे काग़ज़ के टुकड़े मात्र रह गये हैं क्योंकि अब उन्हें ज्वाइन नहीं कराया जा रहा है!
असल में देखें तो निजी सम्पत्ति और मुनाफे़ पर आधारित पूरी पूँजीवादी व्यवस्था ही असाध्य बीमारी की शिकार हो चुकी है; निजी मुनाफे़-सम्पत्ति के लिए सामाजिक उत्पादन का अधिग्रहण करने वाली यह व्यवस्था आज की स्थिति में उत्पादन का और विस्तार नहीं कर सकती. कुल मिलाकर हम पूँजीवादी व्यवस्था के क्लासिक ‘अति-उत्पादन’ के संकट को देख रहे हैं. इस अति-उत्पादन का अर्थ समाज की आवश्यकता से अधिक उत्पादन नहीं है बल्कि एक तरफ 90% जनता ज़रूरतें पूरी न होने से तबाह है, दूसरी ओर आवश्यकता होते हुए भी क्रय-शक्ति के अभाव में ज़रूरत का सामान खरीदने में असमर्थ है. इस लिए बाजार में माँग नहीं है, उद्योग स्थापित क्षमता से काफी कम (लगभग 70%) पर ही उत्पादन कर रहे हैं. अतः न पूँजीपति निवेश कर रहे हैं और न ही रोज़गार पैदा हो रहा है. बल्कि पूँजीपति मालिक अपना मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए और भी कम मज़दूरों से और भी कम मज़दूरी पर ज़्यादा से ज़्यादा काम और उत्पादन कराना चाहते हैं. इसलिए पिछले कुछ समय में देखिये तो आम श्रमिकों के ही नहीं अपने को सफ़ेद कॉलर मानने वाले अभिजात श्रमिकों के भी काम के घण्टों में लगातार वृद्धि हो रही है.
इस संकट से निकलने का कोई तरीका न पिछली मनमोहन सरकार के पास था न अब की मोदी-जेटली की जोड़ी के पास और न ही बहुत से लोगों की उम्मीद आईएमएफ़ वाले रघुराम राजन के पास है, क्योंकि आख़िर इन सबकी नीतियाँ एक ही हैं – पूँजीपति वर्ग की सेवा! और सिर्फ ब्याज की दरें घटाने-बढ़ाने से बाज़ार माँग को नहीं बढ़ाया जा सकता, क्योंकि जिसकी जेब में पैसा है वही ब्याज के बारे में सोच सकता है ना भाई! ग़रीब मज़दूर-किसानों की कंगाली की हालत तो हम पहले से ही जानते हैं लेकिन थोड़ी बेहतर हालत वाले मध्यम वर्गीय लोग जो पहले कुछ बचत कर लेते थे उनकी स्थिति भी अब ऐसी हो गयी है कि बैंकों में जमा होने वाले धन की वृद्धि दर घटकर पिछले 60 सालों में सबसे कम सिर्फ़ 9% पर आ गयी है! अर्थव्यवस्था की ऐसी स्थिति में न नये उद्योग धन्धे लगने वाले हैं, न नये रोज़गार मिलने वाले हैं. यही है ‘अच्छे दिनों’ की हक़ीक़त; बाकी भाषण तो बस भाषण हैं, उनका क्या! उनसे जनता की ज़िन्दगी नहीं सुधरती.


फ़िरदौस ख़ान
देश में आंदोलन न सिर्फ़ उग्र रूप धारण कर रहे हैं, बल्कि अमानवीयता की भी सारी हदें पार कर रहे हैं. हाल के हरियाणा के जाट आंदोलन को ही लें. आंदोलनकारियों ने जहां करोड़ों की सरकारी और निजी संपत्ति को नुक़सान पहुंचाया, वहीं जबरन मुनक नहर का पानी भी रोक दिया, जिससे दिल्ली के बाशिन्दे पानी को तरस गए. रेल और बस यातायात ठप होने से हज़ारों लोगों को परेशानी का सामना करना पड़ा. आंदोलन के दौरान हुई झड़पों में कई लोगों की मौत हो गई, जबकि कई महिलाएं और बच्चे बुरी तरह ज़ख़्मी हो गए. हालात इतने बिगड़ गए कि सेना बुलानी पड़ी. कई शहरों में कर्फ़्यू लगा, जिससे जनजीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ. दरअसल,  कोई भी आंदोलन एक न एक दिन ख़त्म हो ही जाता है.  उस आंदोलन से हुए माली नुक़सान की भरपाई भी कुछ बरसों में हो जाती है, लेकिन जानी नुक़सान की भरपाई कभी नहीं हो पाती.

यह कहना ग़लत न होगा कि देश में आंदोलन के दौरान सरकारी और निजी संपत्ति को नुक़सान पहुंचाए जाने का ’फ़ैशन’ बन गया है. आंदोलनकारी इतने हिंसक हो जाते हैं कि उन्हें जो भी नज़र आता है, उसी को नुक़सान पहुंचाना शुरू कर देते हैं. रेलवे स्टेशनों पर उत्पात मचाते हैं, रेलवे लाइनों को उखाड़ देते हैं, पटरियों पर लेट जाते हैं, बस अड्डों पर जाकर बसों को आग के हवाले कर देते हैं, सरकारी इमारतों और सरकारी वाहनों को आग लगा देते हैं. उनका तांडव यहीं ख़त्म नहीं होता. वे निजी संपत्तियों को भी बहुत नुक़सान पहुंचाते हैं. वे दुकानों में तोड़फोड़ करते हैं और फिर उनमें आग लगा देते हैं.  इससे करोड़ों की सरकारी और ग़ैर सरकारी संपत्ति को नुक़सान पहुंचता है. हाल के जाट आंदोलन की वजह से हरियाणा समेत राज्य के समीपवर्ती पंजाब, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के उद्योग भी ठप हो गए. इन राज्यों के करोबारियों को भी ख़ासा नुक़सान उठाना पड़ा है.  हरियाणा की सीमाएं दिल्ली, पंजाब, राजस्थान और उत्तर प्रदेश से लगती हैं.  कई राष्ट्रीय राजमार्ग और रेल लाइनें हरियाणा से होकर गुज़रती हैं.  इसलिए आंदोलन का असर इन राज्यों पर भी पड़ा है.
उद्योग मंडल (एसोचैम) के मुताबिक़ हरियाणा में जाट आंदोलन की वजह से उत्तर भारत के राज्यों को 34 हज़ार करोड़ रुपये के नुक़सान होने का अनुमान है. पर्यटन क्षेत्र, परिवहन एवं वित्तीय सेवाओं समेत सेवा गतिविधियों को 18 हज़ार करोड़ रुपये के नुक़सान का अनुमान है. इसके अलावा विनिर्माण, बिजली, निर्माण गतिविधियों एवं खाद् वस्तुओं को नुक़सान की वजह से औद्योगिक एवं कृषि कारोबार गतिविधयों को 12 हज़ार करोड रुपये का नुक़सान हुआ है. साथ ही सडक, रेस्तरां, बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन समेत अन्य ढांचागत सुविधाओं को हुए नुक़सान की वजह से 4 हज़ार करोड रुपये का नुकसान हो सकता है.

आंदोलनकारियों ने अमानवीयता की सारी हदें पार कर दीं. उन्होंने हरियाणा की मुनक नहर पर क़ब्ज़ा कर लिया और पानी आपूर्ति रोक दी. ये नहर दिल्ली की जीवनरेखा कही जाती है, क्योंकि 102 किलोमीटर लंबी इस नहर से दिल्ली के 70 फ़ीसद इलाक़ों को पानी की आपूर्ति की जाती है. नहर बंद होने से दिल्ली में पानी के लिए हाहाकार मच गया. बोतल बंद पानी की कालाबाज़ारी शुरू हो गई और पानी दस गुना दाम पर बेचा जाने लगा. इससे पहले यमुना के पानी में अमोनिया की मात्रा ज़्यादा होने की वजह से दिल्लीवासियों को पानी की क़िल्लत का सामना करना पड़ रहा था.

इस आंदोलन से पर्यावरण और वन विभाग को भी नुक़सान हुआ है. हरियाणा वन विभाग के अधिकारियों के मुताबि़क़ आंदोलनकारियों ने हाईवे, राज्य राजमार्गों और संपर्क मार्गों का रास्ता रोकने के लिए सैकड़ों पेड़ काट डाले, जिनकी क़ीमत लाखों रुपये है. ड़्रेन की पटरियों और कच्चे रास्तों तक पर पेड़ काटकर डाले गए.

आंदोलनकारी ये भूल जाते हैं, जिसे वे सरकारी संपत्ति मानकर नुक़सान पहुंचा रहे हैं, वे जनता की संपत्ति है यानी उनकी अपनी संपत्ति है.  ये संपत्ति जनता से लिए गए कई तरह के करों से ही बनाई जाती है. आंदोलनकारी जिस संपत्ति को नु़कसान पहुंचाते हैं, सरकार उस नु़कसान की भरपाई जनता से ही करती है. ऐसे में जनता पर करों का बोझ बढ़ जाता है. आंदोलनकारी एक बार भी ये नहीं सोचते कि वे जिस निजी संपत्ति को नुक़सान पहुंचा रहे हैं, उसे उसके मालिक ने कितनी मुश्किल से कमाया होगा. लोग बरसों अपने ख़ून-पसीने की कमाई से पाई-पाई जोड़कर अपनी दुकान खोलते हैं, कोई कारोबार शुरू करते हैं. अगर किसी वजह से उनका कारोबार बर्बाद हो जाए, तो वे ताउम्र उसकी भरपाई करने में गुज़ार देते हैं.

“अहिंसा परमो धर्मः"  यानी अहिंसा परम धर्म है, में विश्वास करने वाले  राष्ट्रपिता महत्मा गांधी ने अहिंसा के रास्ते पर चलकर अंग्रेज़ों से देश को आज़ाद करा लिया था. दुनिया उनका लोहा मानती है, लेकिन महात्मा गांधी के अपने ही देश के लोग हिंसा के रास्ते पर चल पड़े हैं, जो बेहद चिंता का विषय है. हिंसा किसी भी समस्या का हल नहीं हो सकती. हिंसा नई समस्याओं को ही जन्म देती है. इस हिंसक आंदोलन के और भी कई बुरे नतीजे आने वाले दिनों में सामने आएंगे.


दिलीप रथ
विश्व के दुग्ध उत्पादक देशों में भारत का पहला स्थान है.लाखों ग्रामीण परिवारों के लिए दुग्ध व्यवसाय आय का दूसरा महत्वपूर्ण स्रोत बन गया है.रोजगार प्रदान करने और आय के साधन पैदा करने में दुग्ध व्यवसाय की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हो गई है.वर्ष 2007-08 के दौरान भारत में प्रति दिन दूध की खपत 252 ग्राम थी.पिछले तीन दशकों में योजना के अंत तक दुग्ध उत्पादन की विकास दर करीब 4 प्रतिशत थी जबकि भारत की जनसंख्या की वृध्दि दर लगभग 2 प्रतिशत थी.दुग्ध उत्पादन में वृध्दि के लिए केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा शुरू की गई अनेक योजनाओं के फलस्वरूप यह संभव हो सका है.

स्वतंत्रता के बाद इस दिशा में जो प्रगति हुई है, वह बहुत चमत्कारपूण्र है.तब से दुग्ध उत्पादन में छ: गुनी वृध्दि हुई है.वर्ष 1950-51 में कुल 1 करोड़ 70 लाख टन दूध का उत्पादन होता था जो कि 2007-08 तक 6 गुने से भी अधिक बढक़र 10 करोड़ 48 लाख टन पहुंच गया.देश में सामाजिक-आर्थिक बदलाव लाने में इसे एक महत्त्वपूर्ण साधन के रूप में देखा जाता है.

भारत में दुग्ध व्यवसाय को कृषि के सहायक व्यवसाय के रूप में देखा जाता है.खेती किसानी से बचे कचरे, घास-फूस के इस्तेमाल और परिवार के लोगों के श्रम के जरिये ही इस व्यवसाय की साज-संभाल होती है.देश के करीब 7 करोड़ ग्रामीण परिवार दुग्ध व्यवसाय में लगे हुए हैं.ग्रामीण क्षेत्रों में करीब 70 प्रतिशत मवेशी छोटे, मझौले और सीमान्त किसानों के पास हैं, जिसकी पारिवारिक आमदनी का बहुत बड़ा हिस्सा दूध बेचने से प्राप्त होता है.

सरकार दुग्ध उद्योग क्षेत्र को बढावा देने के लिए अनेक योजनायें चला रही है.दुग्ध व्यवसाय की प्रगति हेतु सरकार सक्रिय सहयोग दे रही है.इसकी शुरूआत 1970 में शुरू किए गए 'आपरेशन्स पऊलड ' योजना के अन्तर्गत आई श्वेत क्रान्ति से हुई.इस योजना ने सहकारी क्षेत्र में दुग्ध व्यवसाय को अपना कर किसानों को अपने विकास का मार्ग प्रशस्त करने में और एक राष्ट्रीय दुग्ध ग्रिड के जरिये देश के 700 से अधिक शहरों और कस्बों में उपभोक्ताओं तक दूध पहुंचाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है.इससे बिचौलिए की आवश्यकता पूरी तरह समाप्त हो गई है और इस कारण हर मौसम में दूध के मूल्यों में जो उतार-चढाव हुआ करता था, वह भी समाप्त हो गया है.सहकारी ढांचे में कारण दुग्ध और उससे बने पदार्थों का उत्पादन और वितरण किसानों के लिए काफी सरल और स्वीकार्य हो गया है.इस कार्यक्रम में राज्यों के 22 सहकारी दुग्ध संघों के तहत 170 दुग्धशालाएं ( मिल्क शेड) शामिल थीं, जिनसे 1 करोड़ 20 लाख कृषक परिवारों को लाभ हुआ.आपरेशन पऊलड के समाप्त होने पर दुग्ध उत्पादन प्रति वर्ष दो करोड़ 12 लाख टन से बढक़र 6 करोड़ 63 लाख टन तक पहुंच गया.इस कार्यक्रम के तहत 265 जिलों को शामिल किया गया था.

तदुपरान्त, सरकार दुग्ध व्यवसाय को लोकप्रिय बनाने और इससे जुड़े पहले छूट गए अन्य क्षेत्रों को सम्मिलित करने के लिए राष्ट्रीय मवेशी (गोधन) और भैंस प्रजनन परियोजना, सघन डेयरी विकास कार्यक्रम, गुणवत्ता संरचना सुदृढीक़रण एवं स्वच्छ दुग्ध उत्पादन, सहकारिताओं को सहायता, डेयरी पोल्ट्री वेंचर कैपिटल फंड, पशु आहार, चारा विकास योजना और पशुधन स्वास्थ्य और रोग नियंत्रण कार्यक्रम जैसी अनेक परियोजनाओं पर काम कर रही है.

राष्ट्रीय मवेशी और भैंस प्रजनन परियोजना पांच -पांच वर्ष के दो चरणों में, दस वर्ष के लिए अक्तूबर 2000 में शुरू की गई थी.इस परियोजना के तहत महत्त्वपूर्ण देसी प्रजातियों के विकास और संरक्षण पर केन्द्रित जननिक उन्नयन को प्रोत्साहित किया जा रहा है.इसके तहत कार्यान्वयन एजेंसियों को अति उन्नत कृत्रिम गर्भाधान सेवाओं को किसानों के दरवाजे तक पहुंचाने के लिए 100 प्रतिशत अनुदान सहायता दी जाती है, सभी प्रजनन योग्य गायों और भैंसों को कृत्रिम गर्भाधान अथवा 10 वर्ष से कम आयु के उच्च प्रजाति के सांडों द्वारा प्राकृतिक रूप से गर्भधारण के लिए लाकर संगठित प्रजनन को प्रोत्साहन दिया जाता है और देसी मवेशियों और भैंसों की नस्ल सुधार का कार्यक्रम हाथ में लिया जाता है.वर्तमान में, 28 राज्य और केन्द्र शासित प्रदेश इस परियोजना में भाग ले रहे हैं.इन राज्यों को 31 जुलाई 2009 तक 5 अरब 4 करोड़ 73 लाख रुपए की वित्तीय सहायता जारी की जा चुकी है.वीर्य उत्पादन, जो 1999-2000 के दौरान 2 करोड़ 20 लाख स्ट्रा था, 2008-09 तक बढ कर 4 करोड़ 60 लाख स्ट्रा हो गया था.इसी अवधि में गर्भाधान की संख्या 2 करोड़ से बढ कर 4 करोड़ 40 लाख तक पहुंच गई.नाबार्ड की प्रभाव विश्लेषण रिपोर्ट के अनुसार, गर्भधारण दर कुल मिलाकर 20 प्रतिशत से बढक़र 35 प्रतिशत हो गई है.

'आपरेशन पऊलड' के कार्यान्वयन के दौरान जो कमियां रह गई थीं उन्हें पूरा करने के लिए 1993-94 में शत-प्रतिशत अनुदान के आधार पर एकीकृत डेयरी विकास कार्यक्रम (आईडीडीपी) नाम से एक नई योजना शुरू की गई.यह योजना उन क्षेत्रों में विशेष रूप से लागू की गई जो, आपरेशन पऊलड में आने से छूट गए थे.इसके साथ ही पहाड़ी और पिछड़े क्षेत्रों में भी इसको अमल में लाया गया.योजना के मुख्य उद्देश्य थे- दुधारू मवेशियों का विकास, तकनीकी सहायता उपलब्ध कराकर दुग्ध उत्पादन में वृध्दि, दूध की सरकारी खरीद और किफायती ढंग से उसका प्रसंस्करण और विपणन, दुग्ध् उत्पादक को उचित मूल्य दिलाना, रोजगार के अतिरिक्त अवसरों का सृजन और अपेक्षाकृत वंचित क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की सामाजिक-आर्थिक और पौष्टिक स्थिति में सुधार.

योजना के आरंभ के बाद 86 परियोजनायें मंजूर की जा चुकी हैं.इनमें से 55 परियोजनाओं पर काम चल रहा है और 31 परियोजनायें पूरी हो चुकी हैं.31 मार्च 2009 तक 25 राज्यों और एक केन्द्र शासित प्रदेश में 207 जिलों में यह योजना लागू थी और इन पर 5 अरब 1 करोड़ 84 लाख रुपए खर्च किये जा चुके थे.इन परियोजनाओं से विभिन्न राज्यों के 26844 गांवों में 18 लाख 79 हजार किसानों को प्रतिदिन 20 लाख 8 हजार लीटर दूध की खरीद और 16 लाख 20 हजार लीटर दूध की बिक्री में मदद मिली है.इस योजना के तहत प्रतिदिन 18 लाख 49 हजार लीटर दुग्ध-शीतलीकरण और 23 लाख 96 हजार लीटर प्रसंस्करण क्षमता का सृजन हुआ है.

इसके अतिरिक्त, सरकार ने ग्रामीण स्तर पर उच्च गुणवत्ता वाले दूध के उत्पादन के लिए गुणवत्ता संरचना सुदृढीक़रण एवं स्वच्छ दूध उत्पादन नाम से एक नई केन्द्र प्रायोजित योजना शुरू की.इसका उद्देश्य दूध दुहने की सही तकनीक के बारे में किसानों को प्रशिक्षण देकर, उन्हें डिटर्जेंट, स्टेनलेस स्टील के बर्तन आदि देकर, मौजूदा प्रयोगशालाओं- सुविधाओं के सुदृढीक़रण, मिलावट की जांच किट, कीटनाशक दवाएं आदि उपलब्ध कराकर ग्रामीण स्तर पर उच्च गुणवत्ता वाले कच्चे दूध का उत्पादन बढाना है, ताकि स्वच्छ दूध का संग्रहण सुनिश्चित किया जा सके.इसके अलावा, इस योजना के तहत गांवों में ही बड़े पैमाने पर दूध ठंडा करने वाली सुविधायें भी मुहैया करायी गईं.आरंभ होने से अब तक (जुलाई 2009), 21 राज्यों और एक केन्द्र शासित प्रदेश में 1 अरब 95 करोड़ 17 लाख रुपए के खर्च से 131 परियोजनायें मंजूर की जा चुकी हैं, जिनमें से केन्द्र का अंश 2 अरब 51 करोड़ 38 लाख रुपए का रहा.योजनान्तर्गत 21 लाख 5 हजार क्षमता के कुल 1362 बृहद दुग्ध प्रशीतक (बल्क मिल्क कूलर्स) लगाये गए हैं.इस योजना के फलस्वरूप कच्चे दूध के शेल्फ लाइफ (घर में दूध को रखना) में वृध्दि हुई है.इससे दूध की पड़ोस के प्रशीतक केन्द्र पर कम खर्च में भेजा जा सकता है.दूध की बरबादी में कमी आई है, जिससे किसानों की आमदनी में बढोतरी हुई है.

ऑपरेशन पऊलड कार्यक्रम के तहत देश के विभिन्न भागों में तीन स्तरों वाली सहकारी डेयरी संरचनायें - ग्राम स्तरीय प्राथमिक सहकारितायें, जिला स्तरीय संघ (यूनियन) और राज्य स्तरीय महासंघ (फेडरेशन) - स्थापित की गई थीं.विभिन्न कारणों से अनेक यूनियनों और फेडरेशनों को नुकसान सहना पड़ा.इन संचित हानियों के कारण दुग्ध उत्पादकों को घोर दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है, जिसका परिणाम यह हुआ है कि इन सहकारी संस्थाओं के सदस्य गरीब किसानों को विलम्ब से और अनियमित भुगतान हो रहा है.दुग्ध संघों के पुनर्वास के लिए जनवरी 2000 में केन्द्रीय क्षेत्र की एक नई योजना-- सहकारिताओं को सहायता शुरू की गई.

केन्द्र और राज्य सरकारें 50-50 प्रतिशत के अनुपात पर अनुदान प्रदान करती हैं.प्रारंभ होने के बाद से 31 जुलाई, 2009 तक 12 राज्यों के 34 दुग्ध संघों के पुनर्वास प्रस्तावों को अनुमोदित किया गया है.ये राज्य हैं -- मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ, क़र्नाटक, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, केरल, महाराष्ट्र, असम, नगालैंड, पंजाब, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु.कुल मिलाकर 23094.13 लाख रुपये की मंजूरी दी गई, जिसमें से केन्द्र का अंश 11566.34 लाख रुपए का था.आरंभ होने के बाद 31 जुलाई, 2009 तक इस योजना के तहत 8939.34 लाख रुपए जारी किये जा चुके हैं.इसके तहत जिन 34 यूनियनों को सहायता दी गई थी उनमें से 17 फिर से अपने पांवों पर खड़ी होकर मुनाफा कमाने लगी हैं.इस योजना की क्रियान्वयन एजेंसी एनडीडीबी की रिपोर्ट में बताया गया है कि अभी भी अनेक यूनियनें हैं जो घाटे में चल रही हैं और विभाग एनडीडीबी द्वारा उनकी सहायता के लिए पेश किए गए प्रस्तावों पर विचार कर रहा है.

इसके अतिरिक्त, असंगठित (दुग्ध व्यवसाय) और पोल्ट्री (मुर्गी पालन) क्षेत्र में संरचनात्मक परिवर्तन लाने के लिए दिसम्बर 2004 में डेयरी और पोल्ट्री के लिए वेंचर कैपिटल फंड नाम से एक व्यापक योजना शुरू की गई.योजना के तहत 50 प्रतिशत ब्याज मुक्त त्रऽण घटक वाले बैंकों को स्वीकार्य प्रस्तावों के अनुसार ग्रामीण शहरी हितग्राहियों को सहायता प्रदान की जाती है.

योजना पर क्रियान्वयन नाबार्ड के माध्यम से किया जाता है और सरकार द्वारा नाबार्ड को जारी की गई राशि को एक रिवाल्विंग (आवर्ती) कोष में रखा जाता है.इस योजना के शुरू होने के बाद से उस पर अमल के लिए नाबार्ड को 122.29 करोड़ रुपए की राशि जारी की जा चुकी है.योजना के तहत उद्यमी को 10 प्रतिशत राशि का योगदान स्वयं करना होता है ओर 40 प्रतिशत राशि का प्रबंध स्थानीय बैंक से कराना होता है.सरकार नाबार्ड के माध्यम से 50 प्रतिशत ब्याज मुक्त त्रऽण प्रदान करती है.सरकार उन किसानों को कृषि कार्यों के लिए त्रऽण पर ब्याज की 50 प्रतिशत राशि की राज सहायता (सब्सिडी) भी देती है जो अपनी किस्तों का नियमित और समय पर भुगतान करते हैं.इस योजना के शुरू होने के बाद 31 जुलाई, 2009 तक 11810 डेयरी और 206 पोल्ट्री इकाइयों को 123.71 करोड़ रुपए की ब्याज मुक्त त्रऽण राशि जारी की जा चुकी है.

पशुआहार और चारे की डेयरी विकास में अहम भूमिका होती है क्योंक दुग्ध उत्पादन की कुल लागत का 60 प्रतिशत अंश पशुआहार और चारे पर खर्च होता है.दसवीं पंचवर्षीय योजना हेतु पशु पालन और दुग्ध व्यवसाय पर कार्यकारी समूह की रिपोर्ट के अनुसार देश में जो चारा उपलब्ध है, वह केवल 46.7 प्रतिशत पशुधन के लिए ही पूरा पड़ता है.अत: विभाग दो योजनाओं पर काम कर रहा है-- (1) केन्द्रीय चारा विकास संगठन और (2) पशु आहार एवं चारा विकास हेतु राज्यों को सहायता की केन्द्र प्रायोजित योजना.

केन्द्रीय चारा विकास संगठन योजना के तहत देश के विभिन्न कृषि जलवायु वाले क्षेत्रों में 7 क्षेत्रीय चारा उत्पादन एवं प्रदर्शन केन्द्रों के अलावा बंगलौर के हेसरघाटा में एक केन्द्रीय चारा बीज उत्पादन प्रक्षेत्र की स्थापना की गई है ताकि पशुआहार और चारे की समस्याओं का समाधान किया जा सके.इसके अलावा, चारा फसलों के परीक्षण के लिए एक केन्द्रीय मिनीकिट कार्यक्रम के लिए भी आर्थिक सहायता दी जा रही है.ये केन्द्र राज्यों की चारा संबंधी जरूरतों को पूरा करने का काम करते हैं.ये केन्द्र किसानों के खेतों पर ही प्रक्षेत्र प्रदर्शनों और किसान मेलों दिवस के माध्यम से प्रसार गतिविधियां भी चलाते हैं.वर्ष 2007-08 के दौरान इन केन्द्रों ने 264.42 टन चारे का उत्पादन किया, 5241 प्रदर्शन किये, 91 प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किये और 81 किसान दिवस मेले आयोजित किये.वर्ष 2008-09 दौरान इन केन्द्रों ने 278.52 टन चारे के बीज का उत्पादन किया, 6854 प्रदर्शन आयोजित किये, 122 प्रशिक्षण कार्यक्रम और 128 किसान दिवस मेले आयोजित किये.देश के पशुधन का बेहतर स्वास्थ्य सुनिश्चित करने के अलावा देश के बाहर से आने वाले रोगों के प्रवेश को रोकने के प्रयास भी किये जा रहे हैं.

पशु आहार और चारा विकास हेतु राज्यों को सहायता की केन्द्र प्रायोजित योजना के तहत राज्यों को चारा और पशु आहार विकास के उनके प्रयासों को सफल बनाने के लिए केन्द्रीय सहायता दी जाती है.योजना के चार घटक हैं, यथा -- चारा ब्लाक निर्माण इकाई, घास मैदान विकास और घास भंडारण, चारा बीज उत्पादन कार्यक्रम और जैव-प्रौद्योगिकी अनुसंधान परियोजना को सहायता देना.

पशुधन ने स्वास्थ्य की देखभाल के लिए देश भर में पशुधन स्वास्थ्य और रोग नियंत्रण की केन्द्र प्रायोजित योजना पर अमल किया जा रहा है.इसके तहत पशु रोग नियंत्रण हेतु राज्यों को सहायता (एएससीएडी) दी जाती है.इस कार्यक्रम में पोंकनी (पशुओं में अतिसार) उन्मूलन (एनपीआरई), व्यवसायगत दक्षता विकास (पीईडी), मुँहपका नियंत्रण और पोंकनी रोग से मुक्ति कार्यक्रम की निगरानी भी शामिल है.

राष्ट्रीय डेयरी योजना और राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (आरकेवीवाई) के रूप मे दो नए प्रयास शुरू किए गए हैं.

राष्ट्रीय डेयरी योजना - वैश्वीकरण और बढती क़्रय शक्ति के कारण दूर्ध और दूध से बने उच्च गुणवत्ता वाले पदार्थोेंं की मांग में वृध्दि हो रही है.भावी मांग को देखते हुए सरकार 2021-22 तक प्रति वर्ष 18 करोड़ टन दूध उत्पादन के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए 17,300 करोड़ रुपए के परिव्यय से राष्ट्रीय डेयरी योजना शुरू करने के बारे में विचार कर रही है.अगले 15 वर्षों में दूध उत्पादन 4 प्रतिशत की दर से बढने अौर कुल दूध उत्पादन में 50 लाख टन की वृध्दि होने का अनुमान है.इस योजना के तहत सरकार प्रमुख दुग्ध उत्पादक क्षेत्रों में दूध का उत्पादन बढाना चाहती है.मौजूदा और नई संस्थागत संरचनाओं के माध्यम से सरकार दूध के उत्पादन, प्रसंस्करण और विपणन ढांचे को सुदृढ आैर विस्तारित करना चाहती है.योजना में प्राकृतिक और कृत्रिम गर्भाधान के जरिए नस्ल सुधार, प्रोटीन और खनिज युक्त मवेशियों का आहार उत्पादन बढाने के लिए संयंत्रों की स्थापना का प्रावधान किया गया है.योजना में मौजूदा 30 प्रतिशत के स्थान पर अतिरिक्त दूध का 65 प्रतिशत संगठित क्षेत्र में खरीदी करने का प्रस्ताव है.इस परियोजना के लिए विश्व बैंक से सहायता प्राप्त करने की योजना है.

कृषि और सम्बध्द क्षेत्रों को बढावा देने के लिए सरकार ने 11वीं योजना के दौरान 25,000 करोड़ रुपए के भारी निवेश से राष्ट्रीय कृषि विकास योजना नाम से एक नई योजना शुरू की है.उन सभी गतिविधियों को जो एएचडी एंड एफ (पशुधन विकास, डेयरी एवं मत्स्यपालन) क्षेत्रों के विकास को आगे बढाने का कार्य करती हैं उन्हें राज्य योजना के तहत 100 प्रतिशत अनुदान दिया जाता है.बशर्ते राज्य सरकार ने कृषि एवं सम्बध्द क्षेत्रों के लिए बजट में आवश्यक आबंटन किया गया हो.आशा है कि इससे इस क्षेत्र में ज्यादा लोगों की भागदारी होगी और 11वीं योजना में एएचडी एंड एफ क्षेत्र के लिए कुल मिलाकर 6-7 प्रतिशत वार्षिक का लक्ष्य प्राप्त करने में मदद मिलेगी, जिसमें डेयरी क्षेत्र का योगदान 5 प्रतिशत और मांस क्षेत्र का योगदान 10 प्रतिशत रहने की आशा है.इन सभी गतिविधियों के फलस्वरूप आशा की जा सकती है कि भारत के विश्व के डेयरी क्षेत्र में एक प्रमुख देश के रूप में उभरेगा.
(लेखक पशुपालन, डेयरी एवं मत्स्यपालन विभाग में संयुक्त सचिव हैं)


विश्व के कुल दुग्ध उत्पादन में 18.5 प्रतिशत के साथ भारत दुग्ध उत्पादन में पहले पायदान पर है.वर्ष 2013-14 के दौरान 137.69 मिलियन टन के मुकाबले 2014-15 के दौरान दूध का वार्षिक उत्पादन 146.3 मिलियन टन रहा.इसमें कुल 6.26 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है.खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के अनुसार, विश्व में दुग्ध उत्पादन में कुल 3.1 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है.वर्ष 2013 में 765 मिलियन टन के मुकाबले वर्ष 2014 में यह 789 मिलियन टन पहुंच गया.
केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने आज संसद में वर्ष 2015-16 की आर्थिक समीक्षा पेश की.उन्होंने जोर देकर कहा कि भारतीय कृषि प्रणाली मुख्य रूप से मिश्रित फसल-पशुधन प्रणाली है.इसमें पशुधन भाग रोजगार उपलब्ध कराकर, पशु एवं खाद तैयार कर कृषि आय को बढ़ा रहा है.

भारत में प्रति व्यक्ति दूध की उपलब्धता 1990-91 में 176 ग्राम प्रतिदिन के मुकाबले वर्ष 2014-15 के दौरान 322 ग्राम प्रतिदिन पहुंच गई है.यह वर्ष 2013 के दौरान विश्व के औसत 294 ग्राम प्रतिदिन की तुलना में अधिक है.यह बढ़ती आबादी के लिए दूध और दुग्ध उत्पादों की उपलब्धता में हुई निरंतर वृद्धि को दर्शाता है.ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि में लगे परिवारों के लाखों लोगों के लिए डेयरी आय का एक महत्वपूर्ण सहायक स्रोत बन गया है.डेयरी उद्योग की सफलता दूध के संग्रह की एकीकृत सहकारी प्रणाली, परिवहन, प्रसंस्करण और वितरण, दूध को उत्पादों एवं पाउडर में परिवर्तित करने, आपूर्तिकर्ताओं और ग्राहकों पर मौसमी प्रभाव को न्यूनतम करने, दूध और दुग्ध उत्पादों के खुदरा वितरण, मुनाफे का किसानों के साथ बंटवारा करने का परिणाम है.यह उत्पादकता बढ़ाने के काम में जुटाता है और अन्य कृषि उत्पादों/उत्पादकों द्वारा इसका अनुसरण किए जाने की आवश्यकता है.

पोल्ट्री क्षेत्र में, सरकार का ध्यान वाणिज्यिक पोल्ट्री उत्पादन बढ़ाने के लिए उपयुक्त नीतियां तैयार करने के अलावा, पारिवारिक पोल्ट्री प्रणाली को मजबूत बनाने पर है.यह आजीविका के मुद्दे पर ध्यान देता है.हाल के वर्षों में अंडा एवं मछली, दोनों के उत्पादन में बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है.2014-15 में अंडा उत्पादन 78.48 बिलियन अंडों के आसपास रहा, जबकि कुक्कुट मांस अनुमानतः 3.04 मिलियन टन रहा.मछली पालन देश के सकल घरेलू उत्पाद का एक प्रतिशत है, जबकि कृषि जीडीपी का 5.08 प्रतिशत है.2014-15 के दौरान कुल मछली उत्पादन 10.16 मिलियन टन था.वर्ष 2015-16 की अंतिम तिमाही के दौरान भी उत्पादन में बढ़ोत्तरी का दौर देखने को मिला.यह अनुमानतः 4.79 मिलियन टन (अनंतिम) है.कृषि क्षेत्र में कृषि और गैर-कृषि गतिविधियों के विविधीकरण के संदर्भ में मुर्गी पालन और पशुधन उत्पादों का आजीविका सुरक्षा बढ़ाने के लिए काफी महत्व है.


नई दिल्ली. देश में कैंसर और एचआईवी के इलाज के काम आने वाली कई जीवन रक्षक दवाओं सहित कुल 74 दवाओं पर सीमा शुल्क छूट ख़त्म कर दी गई है. बताया जा रहा है ऐसा इसलिए किया गया है जिससे घरेलू उत्पादकों को प्रोत्साहन मिल सके. लेकिन, इस फ़ैसले से इन दवाओं के दाम बढ़ने की भी आशंका जताई जा रही है. मेक इन इंडिया अभियान मरीज़ों की मुसीबत बन सकता है.

केंद्रीय उत्पाद एवं सीमाशुल्क बोर्ड (सीबीईसी) ने पिछले सप्ताह 74 दवाओं पर से मूल सीमा शुल्क की छूट वापस लिए जाने की अधिसूचना जारी की. कहा जा रहा है कि यह कदम मेक इन इंडिया अभियान को बढ़ावा देने के मकसद से उठाया गया है. जिन दवाओं पर अब सीमा शुल्क लगाया जाएगा, उनके कैंसर में कीमोथेरेपी और लेजर तकनीक, दिल की धड़कन से जुड़ी समस्याओं, गुर्दे की पथरी, मधुमेह, संक्रमण दूर करने और हड्डी रोग में काम आने वाले दवाएं शामिल हैं.

इसके अलावा बैक्टीरिया से होने वाले संक्रमण, ल्यूकेमिया, एचआईवी या हेपेटाइटिस बी, एलर्जी, गठिया, अल्सर वाले कोलाइटिस की कुछ दवाओं पर भी इसका असर पड़ेगा. खून को पतला करने, ग्लूकोमा, रसायन या कीटनाशकों की विषाक्तता से होने वाले रोग, प्राकृतिक शारीरिक विकास हार्मोन की कमी से बच्चों और वयस्कों को होने वाली समस्याओं से जुड़ी दवाएं भी इस दायरे में आएंगी.

जानकार बताते हैं कि जीवन रक्षक समेत कुछ दवाओं पर से सीमा शुल्क छूट हटाने से भले ही मेक इन इंडिया को बढ़ावा मिले लेकिन मरीजों के लिए यह मुसीबत बन सकता है. एनडीटीवी के मुताबिक, देश के ड्रग कंट्रोलर डॉ जीएन सिंह इस समस्या से वाकिफ हैं. वे स्वास्थ्य मंत्रालय से इस बारे में लगातार बात कर रहे हैं. कोशिशें हैं इन 74 जरूरी दवाओं के दाम न बढ़ाए जाएं.

फ़िरदौस ख़ान
दुनियाभर में हर्बल पदार्थों का चलन तेजी से बढ़ रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक अमेरिका में 33 फीसदी लोग हर्बल पद्धति में विश्वास करते हैं। अमेरिका में आयुर्वेद विश्वविद्यालय खुल रहे हैं और जर्मनी, जापान, आस्ट्रेलिया, अर्जेंटीना, नीदरलैंड, रूस और इटली में भी आयुर्वेद पीठ स्थापित हो रहे हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक विश्व में 62 अरब अमेरिकी डालर के मूल्यों के हर्बल पदार्थों की मांग है और यह मांग वर्ष 2050 तक पांच ट्रिलियन अमेरिकी डालर तक पहुंचने की उम्मीद है। एक अनुमान के मुताबिक चीन द्वारा सलाना करीब 22 हजार करोड़ रुपए के औषधीय पौधों पर आधारित पदार्थों का निर्यात किया जा रहा है. रसायन और उर्वरक मंत्रालय में राज्यमंत्री श्रीकांत जेना के मुताबिक भारतीय उद्योग मानीटरिंग केन्द्र, नवंबर 2009 के अनुसार 2009-10 के दौरान औषधों की बिक्री में 8.7 प्रतिशत वृध्दि की आशा है। 2007-08 के दौरान औषध बाजार का कुल बाजार आकार 78610 करोड़ रुपए था। भावी वर्षों के लिए बाजार के आकार का कोई आधिकारिक प्राक्कलन नहीं किया गया है। लेकिन, चिंता की बात यह है कि औषधीय पौधों की बढ़ती मांग के कारण इनका अत्यधिक दोहन हो रहा है, जिसके चलते हालत यह हो गई है कि औषधीय पौधों की अनेक प्रजातियां लुप्त होने के कगार पर हैं।

औषधीय पौधों के अंधाधुंध दोहन को रोकने के लिए नवम्बर, 2000 में केन्द्र सरकार ने स्वास्थ्य मंत्रालय के तहत मेडिसनल प्लांट बोर्ड का गठन किया था। इस बोर्ड ने भारतीय जलवायु के मद्देनजर 32 प्रकार के ऐसे औषधीय पौधों की सूची बनाई है, जिनकी खेती करके किसान ज्यादा आमदनी हासिल कर सकते हैं। इस प्रकार इन औषधीय पौधें की एक ओर उपलब्धता बढ़ेगी तो दूसरी ओर उनके लुप्त होने का खतरा भी नहीं रहेगा। बढ़ती आबादी और घटती कृषि भूमि ने किसानों की हालत को बद से बदतर कर दिया है। लेकिन, ऐसी हालत में जड़ी-बूटी आधारित कृषि किसानों के लिए आजीविका कमाने का एक नया रास्ता खोलती है।

एक रिपोर्ट के मुताबिक अंतरराष्ट्रीय बाजार में आंवला, अश्वगंधा, सैना, कुरु, सफेद मूसली, ईसबगोल, अशोक, अतीस, जटामांसी, बनककड़ी, महामेदा, तुलसी, ब्राहमी, हरड़, बेहड़ा, चंदन, धीकवर, कालामेधा, गिलोय, ज्वाटे, मरूआ, सदाबहार, हरश्रृंगार, घृतकुमारी, पत्थरचट्टा, नागदौन, शंखपुष्पी, शतावर, हल्दी, सर्पगंधा, विल्व, पुदीना, अकरकरा, सुदर्शन, पुर्नवादि, भृंगराज, लहसुन, काला जीरा और गुलदाऊदी की बहुत मांग है।
भारत में हरियाणा एक ऐसा राज्य है जहां सरकार औषधीय पौधों की खेती को बढ़ावा देने पर खास जोर दे रही है। राज्य में शामलात भूमि पर औषधीय पौधे लगाए जा रहे हैं। इससे पंचायत की आमदनी में बढ़ोतरी होने के साथ-साथ किसानों को औषधीय पौधों की खेती की ओर आकर्षित करने में भी मदद मिलेगी। राज्य के यमुनानगर जिले के चूहड़पुर में चौधारी देवीलाल हर्बल पार्क स्थापित किया गया है। इसका उद्धाटन तत्कालीन राष्टपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम ने किया था।
काबिले गौर है कि डा. कलाम ने भी अपने कार्यकाल में राष्ट्रपति भवन में औषधीय पौधों का बगीचा तैयार करवाया था। हरियाणा में परंपरागत नगदी फसलों की खेती करने वाले किसानों का रुझान अब औषधीय पौधों की खेती की तरफ बढ़ रहा है। कैथल जिले के गांव चंदाना निवासी कुशलपाल सिरोही अन्य फसलों के साथ-साथ औषधीय पौधों की खेती भी करते हैं। इस समय उनके खेत में लेमन ग्रास, गुलाब, तुलसी, अश्वगंधा, सर्पगंधा, धतूरा, करकरा और शंखपुष्पी जैसे अनेक औषधीय पौधे लगे हैं। उनका कहना है कि औषधीय पौधे ज्यादा आमदनी देते हैं। गुलाब का असली अर्क तीन से चार लाख रुपए प्रति लीटर बिकता है।

आयुर्वेद की पढ़ाई कर रहे यमुनानगर जिले के गांव रुलेसर निवासी इरशाद अहमद ने अपने खेत में रुद्राक्ष, चंदन और दारूहरिद्रा के अनेक पौधे लगाए हैं। खास बात यह है कि जहां रूद्राक्ष के वृक्ष चार साल के बाद फल देना शुरू करते हैं, वहीं उनके पौधे महज ढाई साल के कम अरसे में ही फलों से लद गए हैं। इरशाद अहमद के मुताबिक रूद्राक्ष के पौधों को पालने के लिए उन्होंने देसी पद्धति का इस्तेमाल किया है। उन्होंने गोबर और घरेलू जैविक खाद को पौधों की जड़ों में डाला और गोमूत्र से इनकी सिंचाई की। दीमक व अन्य हानिकारक कीटों से निपटने के लिए उन्होंने पौधों पर हींग मिले पानी का छिड़काव किया।

रूद्राक्ष व्यापारी राजेश त्रिपाठी कहते हैं कि रूद्राक्ष एक फल की गुठली है। फल की गुठली को साफ करने के बाद इसे पालिश किया जाता है, तभी यह धारण करने योग्य बनता है। गले का हार या अन्य अलंकरण बनाने के लिए इन पर रंग किया जाता है। आमतौर पर रूद्राक्ष का आकार 1.3 से.मी. तक होता है। ये गोल या अंडाकार होते हैं। इनकी कीमत इनके मुखों के आधार पर तय होती है। अमूमन रूद्राक्ष एक से 21 मुख तक का होता है। लेकिन 1, 18, 19, 20, और 21 मुख के रूद्राक्ष कम ही मिलते हैं। असली रूद्राक्ष की कीमत हजारों से लेकर लाखों रूपए तक आंकी जाती है। इनमें सबसे ज्यादा कीमती रूद्राक्ष एक मुख वाला होता है।

रूद्राक्ष की बढ़ती मांग के चलते आजकल बाजार में नकली रूद्राक्षों की भी भरमार है। नकली रूद्राक्ष लकड़ी के बनाए जाते हैं। इनकी पहचान यह है कि ये पानी में तैरते हैं, जबकि असली रूद्राक्ष पानी में डूब जाता है। गौरतलब है कि भारतीय संस्कृति से रूद्राक्ष का गहरा संबंध है। आध्यात्मिक दृष्टि से भी इसे बहुत महत्वपूर्ण माना गया है। यहां के समाज में मान्यता है कि रूद्राक्ष धारण करने से अनेक प्रकार की बीमारियों से निजात पाई जा सकती है। रूद्राक्ष के प्राकृतिक वृक्ष उत्तर-पूर्वी भारत और पश्चिमी तटों पर पाए जाते हैं। नेपाल में इसके वृक्षों की संख्या सबसे ज्यादा है। ये मध्यम आकार के होते हैं। मई और जून के महीने में इस पर सफेद फूल लगते हैं और सितम्बर से नवम्बर के बीच फल पकते हैं। अब मैदानी इलाकों में भी इसे उगाया जाने लगा है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि औषधीय पौधों की खेती कर किसान प्रति एकड़ दो से ढाई लाख रुपए सालाना अर्जित कर सकते हैं। बस, जरूरत है किसानों को थोड़ा-सा जागरूक करने की। इसमें कृषि विभाग महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। गांवों में कार्यशालाएं आयोजित कर किसानों को औषधीय पौधों की खेती की जानकारी दी जा सकती है। उन्हें बीज व पौधे आदि उपलब्ध कराने के अलावा पौधों की समुचित देखभाल का तरीका बताया जाना चाहिए। लेकिन इस सबसे जरूरी यह है कि किसानों की फसल को सही दामों पर बेचने की व्यवस्था करवाई जाए।


राजेश मल्‍होत्रा
जूट उद्योग का भारत की अर्थव्‍यवस्‍था में महत्‍वपूर्ण स्‍थान है। यह पूर्वी क्षेत्र खासकर पश्‍चि‍म बंगाल के प्रमुख उद्योगों में एक है। स्‍वर्ण रेशा कहा जाने वाला जूट प्राकृति‍क, नवीकरणीय, जैविक और पर्यावरण के अनुकूल उत्‍पाद होने के कारण सुरक्षि‍त पैकेजिंग के सभी मानकों पर खरा उतरता है। ऐसा अनुमान है कि‍ जूट उद्योग संगठि‍त क्षेत्र तथा तृतीयक क्षेत्र एवं संबद्ध गति‍वि‍धि‍यों समेत वि‍वि‍ध इकाइयों में 3.7 लाख लोगों को रोजगार प्रदान करता है और 40 लाख जूट कृषक परि‍वारों को जीवि‍का उपलब्‍ध कराता है। इसके अलावा बड़ी संख्‍या में लोग जूट व्‍यापार से जुड़े हैं।

वैश्‍वि‍क परि‍प्रेक्ष्‍य से भारत कच्‍चे जूट और जूट उत्‍पादों का एक प्रमुख उत्‍पादक है। वि‍श्‍व में वर्ष 2007-08 में जूट, केनाफ और संबद्ध रेशे के  कुल 30 टन उत्‍पादन में भारत की हि‍स्‍सेदारी 18 टन की रही थी। प्रति‍शत के हि‍साब से भारत ने वर्ष 2007-08 में कुल उत्‍पादन का 60 फीसदी उत्‍पादन कि‍या था। जूट और संबद्ध रेशे का उत्‍पादन  वर्ष 2007-08 में वर्ष 2004-05 की तुलना में 25 फीसदी बढ़कर 30 लाख टन हो गया। भारत में इसके उत्‍पादन में 28 फीसदी की वृद्धि‍ हुई और यह 18 लाख टन तक पहुंच गया। 

भारत में 79 समग्र जूट मि‍लें हैं। इन जूट मि‍लों में पश्‍चि‍म बंगाल में 62, आंधप्रदेश में सात, बि‍हार और उत्‍तर प्रदेश में तीन तीन, तथा  असम, उड़ीसा, त्रि‍पुरा एवं छत्‍तीसगढ़ में एक एक मि‍ल है।

जूट क्षेत्र के महत्‍व पर ध्‍यान देते हुए कपड़ा मंत्रालय जूट क्षेत्र को मजबूत एवं उज्‍ज्‍वल बनाने के लि‍ए कई कदम उठा रहा है ताकि‍ यह घरेलू एवं वैश्‍वि‍क बाजार में प्रति‍स्‍पर्धा कर सके और जूट कृषकों को लाभकारी आय मि‍ले। इन उद्देश्‍यों की प्राप्‍ति करने के लि‍ए नई जींस वि‍कास रणनीति‍ पर बल दि‍या गया है जिसके मुख्‍य तत्‍व इस प्रकार हैं-

  • अनुसंधान एवं नयी कि‍स्‍म के बीजों का उत्‍पादन।
  • रेशे निष्‍कर्षण की बेहतर प्रौद्योगि‍की और प्रवि‍धि‍।
  • अनुबंध कृषि‍ को प्रोत्‍साहन।
  • बफर स्‍टाक के माध्‍यम से कच्‍चे जूट के दाम में स्‍थि‍रीकरण।
  • गैर पारंपरि‍क उत्‍पादों के लि‍ए बाजार का वि‍कास।
  • आधुनि‍कीकरण के लि‍ए जूट उद्योग को प्रोत्‍साहन पैकेज।
  • जूट प्रौद्योगि‍की मि‍शन को जारी रखना।
  • कार्बन क्रेडि‍ट हासि‍ल करने के लि‍ए कार्बन उत्‍सर्जन में कमी।

ग्रामीण गरीबों और शि‍ल्‍पकारों की सामाजि‍क समानता और समग्र वि‍कास को ध्‍यान में रखते हुए सरकार जूट के वि‍वि‍ध उत्‍पादों के उत्‍पादन एवं वि‍पणन में लगे  छोटे और मझौले उद्यमों, गैर सरकारी संगठनों और स्‍वयं सहायता समूहों को सहयोग प्रदान करने में तेजी ला रही है। उन्‍हें प्रशि‍क्षण, उपकरण और बाजार संपर्क सुवि‍धा प्रदान की जा रही है । 

एनजीएमसी लि‍मि‍टेड के अंतर्गत जूट मि‍लों की बहाली
इस क्षेत्र में सरकार ने जो एक महत्‍वपूर्ण कदम उठाया है वह है राष्‍ट्रीय जूट वि‍निर्माण नि‍गम (एनजेएमसी) लि‍मि‍टेड के तहत जूट मि‍लों की बहाली। एनेजएमसी एक सार्वजनि‍क उपक्रम है जि‍सके अंतर्गत छह जूट मि‍ले हैं। इन मि‍लों का 1980 के दशक में राष्‍ट्रीयकरण कि‍या गया था। ये सभी छह इकाइयां 6 से लेकर 9 सालों से चल नहीं रही हैं। 

सरकार ने हाल ही में कंपनी के पुनरुद्धार के लि‍ए 1562.98 करोड़ रूपए का पैकेज मंजूर कि‍या है और 6815.06 करोड़ रूपए का ऋण बकाया और ब्‍याज माफ कि‍या है। पुनर्बहाल पैकेज के तहत नि‍गम की तीन इकाइयों को चालू करना है । ये इकाइयां हैं- कोलकाता की कि‍न्‍नि‍सन एवं खरदा तथा बि‍हार में कटि‍हार की राय बहादुर हरदत राय मि‍ल। पुनरुद्धार पैकेज के लि‍ए संसाधन बंद पडी मि‍लों और चालू की गयी मि‍लों के अति‍रि‍क्‍त परि‍संपत्ति‍यों से जुटाये गए। 

मंत्रि‍मंडल के फैसले के आधार पर एनजेएमसी प्रबंधन पुनरूद्धार योजना को लागू करने के लि‍ए जरूरी कदम उठा रहा है। इन मि‍लों के फि‍र से चालू होने से पश्‍चि‍म बंगाल और बि‍हार में 10 हजार से अधि‍क लोगों को प्रत्‍यक्ष रोजगार मि‍लेगा। 

जूट और मेस्‍टा के लि‍ए न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य
कि‍सानों के हि‍त में हर साल कच्‍चे जूट और मेस्‍टा के लि‍ए न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य तय कि‍ए जाते है। वि‍भि‍न्‍न श्रेणि‍यों के मूल्‍य को तय करते समय नि‍म्‍न श्रेणी के जूट को हत्‍सोसाहि‍त कि‍या जाता है और उच्‍च श्रेणी के जूट को प्रोत्‍साहन दि‍या जाता है ताकि‍ कि‍सान उच्‍च श्रेणी के जूट के उत्‍पादन के लि‍ए प्रेरि‍त हों। 

भारतीय जूट नि‍गम कपड़ा मंत्रालय के तहत एक सार्वजनि‍क उपक्रम है और यह कि‍सानों के लि‍ए कच्‍चे जूट के समर्थन मूल्‍य को लागू करवाने का कार्य करता है। 

जूट श्रमि‍कों की कार्यस्‍थि‍ति‍ में सुधार
जूट उद्योग के श्रमि‍कों के लाभ के लि‍ए एक अप्रैल, 2010 को गैर योजना कोष के तहत कपड़ा मंत्रालय के अनुमोदन से नयी योजना शुरु की गयी। जूट क्षेत्र के श्रमि‍कों की कल्‍याण योजना जूट मि‍लों और वि‍वि‍ध जूट उत्‍पादों के उत्‍पादन में लगी छोटी इकाइयों में कार्यरत श्रमि‍कों के संपूर्ण कल्याण एवं लाभ के लि‍ए है। योजना के अंतर्गत मि‍ल क्षेत्र में स्‍वच्‍छता, स्‍वास्‍थ्‍य सुवि‍धाएं और उपयुक्‍त कार्यस्‍थि‍ति‍, छोटे और मझौले जूट वि‍वि‍ध उत्‍पाद इकाइयों को सामाजि‍क आडि‍ट के लि‍ए प्रोत्‍साहन का प्रावधान शामि‍ल है। इसके अंतर्गत राजीव गांधी शि‍ल्‍पी स्‍वास्‍थ्‍य बीमा योजना की तर्ज पर इस क्षेत्र के श्रमि‍कों को बीमा सुवि‍धा प्रदान की जाती है। इसे राष्‍ट्रीय जूट बोर्ड लागू करेगा। 

इसके अलावा मंत्रालय ने कपड़े के क्षेत्र में काम करने वाले कामगारों के कौशल के उन्‍नयन के लि‍ए समेकि‍त कौशल वि‍कास योजना शुरू की है। जूट कामगारों को भी इसमें शामि‍ल कि‍या गया है। सरकार अगले पांच साल में 2360 करोड़ रुपए की कुल लागत से 27 लाख लोगों के कौशल उन्‍नयन का प्रशि‍क्षण देगी। 

राष्‍ट्रीय जूट नीति‍-2005
बदलते वैश्‍वि‍क परि‍दृश्‍य में प्राकृति‍क रेशे के वि‍कास, भारत में जूट उद्योग की कमि‍यां और खूबि‍यां , वि‍श्‍व बाजार में वि‍वि‍ध और नूतन जूट उत्‍पादों की बढ़ती मांग को ध्‍यान में रखकर सरकार ने अपने लक्ष्‍यों और उद्देश्‍यों को पुनर्परि‍‍भाषि‍त करने तथा जूट उद्योग को गति‍ प्रदान करने के लि‍ए राष्‍ट्रीय जूट नीति‍-2005 की घोषणा की।

इस नीति‍ का मुख्‍य उद्देश्‍य भारत में जूट क्षेत्र में वि‍श्‍वस्‍तरीय कला वि‍निर्माण क्षमता, जो पर्यावरण के अनुकूल भी हो,  में मदद कर उसे विनि‍र्माण और निर्यात के लि‍ए वैश्‍वि‍क रूप से प्रति‍स्‍पर्धी बनाना है। इसके तहत सार्वजनि‍क एवं नि‍जी भागीदारी से जूट की खेती में अनुसंधान एवं वि‍कास गति‍वि‍धि‍यों में तेजी लाना है ताकि‍ लाखों जूट कि‍सान अच्‍छे कि‍स्‍म के जूट का उत्‍पादन करें और उनका प्रति‍ हेक्‍टेयर उत्‍पादन बढ़े एवं उन्‍हें आकर्षक दाम मि‍ले। 

जेपीएम अधि‍नि‍यम
जूट पैकेजिंग पदार्थ (पैकेजिंग जिंस में अनि‍वार्य इस्‍तेमाल) अधि‍नि‍यम, 1987 (जेपीएम अधि‍नि‍यम) नौ मई, 1987 को प्रभाव में आया। इस अधि‍नि‍यम के तहत कच्‍चे जूट के उत्‍पादन , जूट पैकेजिंग पदार्थ और इसके उत्‍पादन में लगे लोगों के हि‍त में कुछ खास जिंसों की आपूर्ति एवं वि‍तरण में जूट पैकेजिंग अनि‍वार्य बना दि‍या गया है।

एसएसी की सि‍फारि‍शों के आधार पर सरकार जेपीएम,1987 के अतंर्गत जूट वर्ष 2010-11 के लि‍ए अनि‍वार्य पैकेजिंग के नि‍यमों को तय करेगी , इसके तहत अनाजों और चीनी के लि‍ए अनि‍वार्य पैकेजिंग की शर्त तय की जाएगी। तदनुसार , जेपीएम अधि‍नि‍यम के अंतर्गत सरकारी गजट के तहत आदेश जारी कि‍या जाएगा जो  30 जून, 2011 तक वैध रहेगा।

जूट प्रौद्योगि‍की मि‍शन
सरकार ने जूट उद्योग के सर्वांगीण वि‍कास एवं जूट क्षेत्र की वृद्धि‍ के लि‍ए ग्‍यारहवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान पांच साल के लि‍ए जूट प्रौद्योगि‍की मि‍शन शुरु कि‍या है। 355.5 करोड़ रुपए के इस मि‍शन में  कृषि‍ अनुसंधान एवं बीज वि‍कास, कृषि‍ प्रवि‍धि‍, फसल कटाई और उसके बाद की तकनीकी, कच्‍चे जूट के प्राथमि‍क एवं द्वि‍तीयक प्रस्‍संकरण तथा वि‍वि‍ध उत्‍पाद वि‍कास एवं वि‍पणन व वि‍तरण से संबंधि‍त  चार उपमि‍शन हैं। इन उपमि‍शनों को कपड़ा और कृषि‍ मंत्रालय मि‍लकर लागू कर रहें हैं।

प्रौद्योगि‍की उन्‍नयन कोष योजना
इस योजना का उद्देश्‍य प्रौद्योगि‍की उन्‍नयन के माध्‍यम से  कपड़ा / जूट उद्योग को प्रति‍स्‍पर्धी बनाना तथा उनकी प्रति‍स्‍पर्धात्‍मकता में सुधार लाना और उसे संपोषणीयता प्रदान करना है। जूट  उद्योग के आधुनि‍कीकरण के लि‍ए सरकार ने 1999 से अबतक 722.29 करोड़ रूपए का नि‍वेश कि‍या है।


फ़िरदौस ख़ान
नक़ली और मिलावटी कीटनाशकों की वजह से देश में हर साल करोड़ों रुपये की फ़सलें तबाह हो जाती हैं. इससे किसानों पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ता है, किसान क़र्ज़ लेकर फ़सलें उगाते हैं, फ़सलों को हानिकारक कीटों से बचाने के लिए वे कीटनाशकों का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन नक़ली और मिलावटी कीटनाशक कीटों पर प्रभावी नहीं होते, जिससे कीट और पौधों को लगने वाली बीमारियां फ़सल को नुक़सान पहुंचाती हैं. इसकी वजह से उत्पादन कम होता है या कई बार पूरी फ़सल ही ख़राब हो जाती है. ऐसे में किसानों के सामने अंधेरा छा जाता है. कई मामले तो ऐसे भी सामने आ चुके हैं कि जब किसानों ने फ़सल बर्बाद होने पर आत्महत्या तक कर ली. खेतों में कीटनाशकों के छिड़काव के दौरान किसानों की मौतें होने की ख़बरें भी आए-दिन सुनने को मिलती रहती हैं.

मगर अफ़सोस की बात यह है कि नक़ली कीटनाशक और उर्वरक माफ़िया के ख़िलाफ़ कोई सख्त कार्रवाई नहीं की जाती, जिसकी वजह से नक़ली और मिलावटी कीटनाशकों तथा उर्वरकों का कारोबार तेज़ी से बढ़ रहा है. एक अनुमान के मुताबिक़, इस कारोबार में हर साल तक़रीबन 20 फ़ीसद की बढ़ोतरी हो रही है. देश में कीटनाशकों के इस्तेमाल पर नज़र रखने वाली नई दिल्ली की एग्रोकेमिकल्स पॉलिसी ग्रुप (एपीजी) के आंकड़ों के मुताबिक़, साल 2009 में 1400 करोड़ रुपये के कीटनाशकों की बिक्री हुई, जिसकी वजह से सात हज़ार करोड़ रुपये की फ़सलें तबाह हो गईं. इससे किसानों की हालत बद से बदतर हो गई. नेशनल एकेडमी ऑफ एग्रिकल्चरल साइंसेज के मुताबिक़, देश में हर साल औसतन तीन हज़ार करोड़ रुपये के नक़ली कीटनाशक बेचे जाते हैं, जबकि कीटनाशकों का कुल बाज़ार क़रीब सात हज़ार करोड़ रुपये का है. यहां हर साल तक़रीबन 80 हज़ार टन कीटनाशक बनाए जाते हैं. इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रिकल्चरल रिसर्च (आईसीएआर) की मानें तो देश में इस्तेमाल होने वाले कुल कीटनाशकों में तक़रीबन 40 फ़ीसद हिस्सा नक़ली है. क़ाबिले-ग़ौर है कि बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र आदि राज्यों में नक़ली कीटनाशक बनाने का कारोबार बड़े पैमाने पर होता है. ये कारोबारी नामी गिरामी कंपनियों के लेबल का इस्तेमाल करते हैं. अधिकारियों की मिलीभगत के कारण इन कारोबारियों के ख़िलाफ़ कोई सख्त कार्रवाई नहीं हो पाती है. कभी-कभार निरीक्षण के नाम पर कार्रवाई होती भी है तो इसे छोटे कारोबारियों तक ही सीमित रखा जाता है. अनियमितता पाए जाने पर कीटनाशक और उर्वरक विक्रेताओं के लाइसेंस रद्द कर दिए जाते हैं, लेकिन कुछ समय बाद वे फिर से लाइसेंस बनवा लेते हैं या बिना लाइसेंस के अपना कारोबार करते हैं. इस तरह यह धंधा बदस्तूर जारी रहता है.

दरअसल, उर्वरक ऐसे यौगिक हैं, जो पौधों के विकास में सहायक होते हैं. उर्वरक दो प्रकार के होते हैं, जैविक और अजैविक. जैव उर्वरक कार्बन पर आधारित होते हैं, जिनमें पत्तियों और गोबर के यौगिक शामिल होते हैं. अजैविक उर्वरक में अमूमन अजैविक रसायन होते हैं. उर्वरकों में मौजूद कुछ सामान्य पोषक नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटैशियम हैं. इनमें कैल्शियम, सल्फर और मैगनेशियम जैसे तत्व भी होते हैं. कुछ खास उर्वरकों में बोरोन, क्लोरीन, मैंगनीज, लौह, जिम, तांबा और मोलिबडीनम आदि शामिल होते हैं. उर्वरक पौध की वृद्धि में मदद करते हैं, जबकि कीटनाशक कीटों से पौध की रक्षा करते हैं. कीटनाशकों में रासायनिक पदार्थ या वायरस, बैक्टीरिया आदि होते हैं. इसमें फासफैमीडोन, लिंडेन, फ्लोरोपाइरीफोस, हेप्टालक्लोथर और मैलेथियान जैसे रासायनिक पदार्थ होते हैं. बहुत से कीटनाशक इंसानों के लिए खतरनाक होते हैं. सरकार ने कुछ कीटनाशकों पर पाबंदी लगाई है, इसके बावजूद देश में इनकी बिक्री बेरोकटोक चल रही है.

कीटनाशक विके्रता राजेश कुमार कहते हैं कि किसानों को असली और नक़ली कीटनाशकों और उर्वरकों की पहचान नहीं होती. इसलिए वे विक्रेता पर भरोसा करके कीटनाशक ख़रीद लेते हैं. ऐसा नहीं है कि सभी विक्रेता नक़ली कीटनाशक बेचते हैं, जिन विक्रेताओं को बाज़ार में अपनी पहचान क़ायम रखनी है, वे सीधे कंपनी से माल ख़रीदते हैं. ऐसे कीटनाशक विक्रेताओं की भी कमी नहीं है, जो किसी बिचौलिये से माल ख़रीदते हैं. दरअसल, बिचौलिये ज़्यादा मुना़फ़ा कमाने के फेर में विक्रेताओं को असली की जगह नक़ली कीटनाशक बेचते हैं. नक़ली कीटनाशकों की पैकिंग बिल्कुल ब़डी कीटनाशक कंपनियों की तरह होती है. लेकिन इनकी क़ीमत में फ़र्क़ होता है, जैसे जो असली कीटनाशक तीन सौ रुपये में मिलता है, वही नक़ली कीटनाशक बाज़ार में 150 से 200 रुपये तक में मिल जाता है.

चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि किसानों को रसायनों के अत्यधिक इस्तेमाल से बचना चाहिए. इससे मित्र कीट नष्ट हो जाते हैं. किसान ज़्यादा उपज पाने के लालच में अंधाधुंध कीटनाशकों और उर्वरकों का इस्तेमाल करते हैं, जिसकी वजह से जहां भूमि की उपजाऊ शक्ति ख़त्म हो रही है, वहीं खाद्यान्न भी ज़हरीला हो रहा है. हालत यह है कि फल, सब्ज़ियों से लेकर अनाज तक में रसायनों की मात्रा पाई जा रही है, जो सेहत के लिए बेहद ऩुकसानदेह है. नक़ली और मिलावटी कीटनाशकों तथा उर्वरकों की वजह से कई बार किसानों की मेहनत से उगाई गई फ़सल भी बर्बाद हो जाती है. विश्वविद्यालय द्वारा समय-समय पर शिविर लगाकर किसानों को कीटनाशकों और उर्वरकों के सही इस्तेमाल की जानकारी दी जाती है.

किसानों का कहना है कि वे जितने रुपये के कीटनाशक फ़सलों में इस्तेमाल करते हैं, उन्हें उसका तक़रीबन पांच गुना फ़ायदा मिलता है, लेकिन नक़ली और मिलावटी कीटनाशकों की वजह से उनकी फ़सल बर्बाद हो जाती है. हिसार के किसान राजेंद्र कुमार का कहना है कि बढ़ती आबादी और घटती ज़मीन ने भी किसानों को रसायनों के अत्यधिक इस्तेमाल के लिए मजबूर किया है. पीढ़ी दर पीढ़ी ज़मीन का बंटवारा होने की वजह से किसानों के हिस्से में कम ज़मीन आ रही है. किसान को अपने परिवार का भरण-पोषण करना है, ऐसे में अगर वह ज़्यादा उत्पादन चाहता है, तो इसमें ग़लत क्या है. साथ ही वह यह भी कहते हैं कि बंजर भूमि की समस्या को देखते हुए किसानों को वैकल्पिक तरीक़ा अपनाना चाहिए, जिससे लागत कम आए और उत्पादन भी अच्छा हो. कैथल ज़िले के चंदाना गांव के किसान कुशलपाल सिरोही का मानना है कि जैविक खेती को अपनाकर किसान अच्छी आमदनी हासिल कर सकते हैं. केंद्रीय उर्वरक गुणवत्ता नियंत्रण तथा प्रशिक्षण संस्थान (सीएफक्यूसीटीआई) मुख्य संस्थान है, जो उर्वरक की गुणवत्ता का परीक्षण करता है. हरियाणा के फ़रीदाबाद ज़िले में स्थित इस संस्थान की तीन क्षेत्रीय उर्वरक नियंत्रण प्रयोगशालाएं हैं, जो मुंबई, चेन्नई और कल्याणी में हैं. वैसे इस वक़्त देश में तक़रीबन 67 उर्वरक गुणवत्ता नियंत्रण प्रयोगशालाएं हैं. हर साल तक़रीबन 1,25,205 नमूनों की जांच की जाती है. अमूमन राज्यों में एक या इससे ज़्यादा प्रयोगशालाएं होती हैं. पुडुचेरी को छोड़कर अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम, मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय, दिल्ली, गोवा और सभी संघ शासित राज्यों में एक भी प्रयोगशाला नहीं है. ये राज्य केंद्रीय सेवाओं का इस्तेमाल करते हैं.

बहरहाल, नक़ली कीटनाशकों और उर्वरकों के मामले में बड़ी कंपनियों को भी आगे आना चाहिए, ताकि उनके नाम पर चल रहे गोरखधंधे पर रोक लगाई जा सके. किसानों को भी जागरूक होने की ज़रूरत है, ताकि वे असली और नक़ली में पहचान कर सकें. इसके अलावा किसानों को वैकल्पिक खेती अपनाने पर भी ज़ोर देना चाहिए, ताकि भूमि की उर्वरता बनाए रखने के साथ ही वे अच्छा उत्पादन हासिल कर पाएं.



अमित गुइन
विश्व के कॉफी पारखियों को दिसंबर 2007  में केंद्रीय कॉफी अनुसंधान संस्थान (सीसीआरआई) ने नए किस्म की कॉफी के पौधे चंद्रगिरि के बीज से परिचित कराया था. तभी से 'भूरे सोने' की खुशबू और रंग ने विश्व के विभिन्न भागों के कॉफी प्रेमियों को अपने से बांध लिया है. चंद्रगिरि पौध जब भारत के कॉफी बागानों में व्यावसायिक उत्पादन के लिए इस्तेमाल किया गया, तो उनका अच्छा परिणाम निकला और इसके बीज की भारी मांग होने लगी.

इसके बारे में प्रचलित लोक कथा कुछ इस प्रकार है कि लगभग चार सौ साल पहले एक युवा फकीर बाबा बुदान मक्का की यात्रा पर निकले. यात्रा से थक कर चूर होने के बाद वे सड़क के किनारे एक दुकान पर नाश्ते के लिए रुके. वहां उन्हें काले रंग का मीठा तरल पदार्थ एक छोटे कप में दिया गया. उसे पीते ही युवा फकीर में गजब की ताजगी आ गई. उन्होंने उसे अपने देश ले जाने का निश्चय कर लिया, लेकिन उन्हें जानकारी मिली कि अरब के लोग अपने रहस्यों की कड़ाई से रक्षा करते हैं और स्थानीय कानून उसे अपने साथ ले जाने की अनुमति नहीं देंगे. बाबा ने अरब के कॉफी के पौधे के सात बीज अपने कमर में अपने चोले के नीचे छिपा लिए. स्वदेश लौटने पर बाबा बुदान ने कर्नाटक की चंद्रगिरि पहाड़ियों में बीज को बोया. आज वे सात बीज विभिन्न किस्मों में बदल गए हैं और एक देश में विश्व की तरह-तरह की कॉफी पैदा होने लगी है. चंद्रगिरि की झाड़ियां छोटी किंतु कॉफी की अन्य किस्मों कावेरी और सान रेमन की तुलना में घनी होती हैं. इसके पत्ते बड़े, मोटे और गहरे हरे रंग के होते हैं. कॉफी की यह किस्म अन्य किस्मों के मुकाबले लंबे और मोटे बीज पैदा करती है.
कॉफी उत्पादकों से इस किस्म के पैदाबार के बारे में बहुत उत्साहजनक जानकारी मिली है. इसकी अनुवांशिकी एकरूपता और शुरूआती पैदावार भी अच्छी होती है. इसके अलावा अधिकतर उत्पादक चंद्रगिरि को अपने खेतों में खाली समय की भरपाई के लिए इस्तेमाल करते हैं. यह भी देखा गया है कि अगर खेती के उचित तरीके अपनाए जाएं तो कावेरी एचडीटी और चंद्रगिरि  जैसी विभिन्न घनी झाड़ियों से उपज में कोई विशेष अंतर नहीं पड़ता. चंद्रगिरि  की फलियां अच्छे किस्म की होती हैं और औसतन 70  प्रतिशत फलियां 'ए' स्तर की होती हैं. इनमें से 25-30 प्रतिशत एए स्तर की होती हैं. अन्य किस्मों की तुलना में 'ए' स्तर की फलियां 60-65 प्रतिशत होती हैं  जिनमें से 15-20 प्रतिशत एए स्तर की होती हैं.

अनुसंधानकर्ताओं को यह भी पता चला है कि चंद्रगिरि में बीमारी अन्य किस्मों के मुकाबले बहुत देर से लगती है. इसके अलावा बीमारी की गंभीरता बहुत कम (5 प्रतिशत से भी कम) होती है, लेकिन कॉफी के पौधे के तनों में छिद्र करने वालो सफेद कीटों के मामले में चंद्रगिरि भी अन्य किस्मों की तरह ही है. भारत और दक्षिण एशिया में ये कॉफी के सबसे खतरनाक कीट होते हैं, लेकिन उत्पादन की आदर्श परिस्थितियों यथा समुद्र से 1000 मीटर की ऊंचाई वाले खेतों में कीट लगने की घटनाएं कम होती है. ऐसा इसलिए होता है कि झाड़ियां बहुत घनी और डालियां चारों ओर फैली होती हैं, जिससे सफेद कीट मुख्य तने पर हमला नहीं कर पाते. कीट नियंत्रण के लिए संक्रमित पौधों को नष्ट करना आवश्यक है. कीट प्रबंधन के लिए अन्य उपायों में आवश्यकतानुसार 10 प्रतिशत चूने का उपयोग, फेरोमोन जालों का इस्तेमाल और तने को लपेटने आदि का काम किया जा सकता है.


फ़िरदौस ख़ान
कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने आज सीआईआई के वार्षिक अधिवेशन को संबोधित किया. अपने पूरे भाषण में उन्होंने देश के समग्र विकास पर ज़ोर दिया. उन्होंने कहा कि यह एक आम धारणा है कि भारत को एक देश के रूप में देखा जाता है. अगर हम थोड़ा पीछे यानी सौ दो सौ साल या फिर उससे भी पीछे जाएं, तो पाते हैं कि भारत को एक शक्ति के रूप में देखा जाता था. अगर एक हज़ार-दो हज़ार साल पीछे जाएं, तो हम पाते है कि हमारी ये शक्ति या क्षमता गंगा, यमुना आदि नदियों के किनारे से निकलकर आती थी. इसका कारण है कि उन दिनों यही वह स्थान था, जो शक्ति का केंद्र था. लेकिन आज के दिनों में हमने एक स्थाई ढांचे का निमाण कर लिया और विकास के दौड़ में होड़ लगा रहे हैं. और अपने केंद्र से आगे निकलकर देश के बाहर भी अपने कौशल का प्रदर्शन कर रहे हैं. कारण आपको अपने को निखारने और बढ़ाने का मौक़ा मिला है. और यही बात आपकी तरफ़ से भी आती है. इसका सीधा जबाब है कि आप लोग ही पहली पंक्ति के वे लोग हैं, जो हमारे नेता हैं, हमारे राजदूत हैं. जो देश के बाहर दुनिया को ये बताने का काम करते हैं कि हमारी क्षमता क्या है? मैं अपने यूनिवर्सिटी के दिनों को याद करूं, तो पाता हुं कि उन दिनों आज के भारत के बारे में किसी ने नहीं उम्मीद की थी. बाहर के लोग देश के बारे में मज़ाक़ किया करते थे, लेकिन इधर पिछले कुछ सालों में आपने जो कर दिखाया है, वह वाक़ई क़ाबिले-तारीफ़ है. इसके लिए मैं आप सभी को दिल से धन्यवाद देता हूं कि आपने वह कर दिखाया, जिसके बारे में सोच भी नहीं सकते थे.

कई साल पहले की उस अंधेरी रात के बारे में मैं जब भी सोचता हूं, तो दंग रह जाता हूं, जब मै अपने सहयोगियों के साथ देश को जानने के लिए निकला था. हम लोकमान्य तिलक एक्सप्रेस से यात्रा कर रहे थे. अपने 24 घंटे की जगह 36 घंटे तक चली लंबी यात्रा के दौरान अधिकांश समय अपने सहयात्रियों से बात करता था और और यह जानना चाहता था कि किस तरह हमारे युवा अपने भविष्य को संवारना चाहते हैं और उसके लिए वे क्या कर रहे हैं? इसे जानने के लिए मैं ट्रेन में घूम-घूमकर लोगों से बात कर रहा था. मुझे याद है कि पूर्वांचल के एक युवक गिरीश, जो पेशे से कारपेंटर था और पहली बार अपने गांव से निकलकर मुंबई काम की खोज में जा रहा था. एक अन्य मुस्लिम लड़का भी मुंबई जा रहा था, उससे जब मैंने पूछा कि जब तुम मुंबई पहुंचोगे और तुम्हे वहां काम नहीं मिलेगा, तो तुम क्या करोगो? उसका सीधा-सा जवाब था कि मैं वहां से फिर ट्रेन पकड़ कर बंगलोर चला जाऊंगा. कहीं तो काम मिलेगा ही. ये है भारतीयों का जज़्बा. ये था उनका अवसर तलाशने का दौर जिसमें आशा थी. जबकि सफ़र कर रहे सभी युवा वर्ग संघर्ष के दौर से गुज़र रहे थे, फिर भी उन्हें आशा थी कि काम हो जाएगा. यह एक बहादुरी भरा विचार था. जब हम मुंबई पहुंचे, तो गिरीश के दोस्त उसे लेने आए थे. वे कह रहे थे- चलो सब अच्छा हो जाएगा. और वे उसके साथ चलने लगे. उस समय सुबह के चार बजे थे, मैं भी उसके साथ हो लिया यह देखने के लिए कि वे किस तरह अपने को आगे बढ़ाने की सोच रखते हैं. मानसून के उस मौसम में अपने पैरों को भिंगोते हम मुंबई की गलियों से होते हुए उस जगह पहुंचे, जहां वे रहते थे. एक छोटा-सा कमरा था, जिसमें छह लड़के सोए थे. हमें देखते ही सभी उठकर बैठ गए. ये सभी लड़के गोरखपुर के ही थे और सभी ने उस दौर को झेला था, जिसमें आज गिरीश आया था. सभी ने आग्रह किया कि एक चाय लें और मैंने उस आग्रह को स्वीकार कर लिया. बातचीत के दौरान उनके जज़्बे से रूबरू हुआ. गिरीश की ये कहानी आज किसी एक की नहीं, बल्कि ऐसे हज़ारों हज़ार यवाओं की है, जो अपने भविष्य को संवारने में लगे हैं और उसके लिए रोज़ हर कोई अपने तरीक़े से बिना थके संघर्ष कर रहे हैं और देश को आगे बढ़ा रहे हैं और दुनिया में वे अपना और अपने देश का नाम रौशन कर रहे हैं. एक अरब से अधिक जनसंख्या वाला भारत जिसे विश्व मानव की राजधानी कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी, जहां लाखों लोग घरों से निकलकर विश्व पटल पर अपना स्थान तो बना ही रहे हैं और देश की तरक्की में योगदान कर रहे हैं. और यही महत्त्वपूर्ण जन आंदोलन देश के विकास को गति देने का काम कर रहा है. ये लोग ही इक्कीसवीं सदी के भारत का निर्माण कर रहे हैं. यही वह शक्ति है, जो फ़ैक्ट्रियों में मज़दूर की भूमिका निभा रहे हैं, बाज़ार में उपभोक्ता हैं और तकनीक के वाहक भी हैं. ये युवा टेलेंट आपके व्यवसाय को आगे बढ़ा रहा है और स्टाक मार्केट को संचालित कर रहा है. आज हम न रुकने और थकने वाले मानव शक्ति की उस श्रृंखला के शिखर पर हैं, जो देश के चहुंमुखी विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं और जिसे रोकना दुनिया के लिए नामुमकिन है. लेकिन आज हमारी ये ज़रूरत है कि इस युवा शक्ति को, इनके बौद्धिक कौशल को, इनकी क्षमता को किस तरह बेहतर उपयोग में लाया जाए. किसी एक के लिए नहीं, बल्कि बहुतायत को ध्यान में रखते हुए कुछ बेहतर किया जाए. इसके लिए सबसे पहली चीज़ जो करने की ज़रूरत है वह ये कि यहां वहां काम की तलाश में भागने वाली युवा शक्ति के बेहतर उपयोग की व्यवस्था उसके नज़दीकी क्षेत्रों में किया जाए, जिसके लिए गांवों और शहरों के बीच के संपर्क को और मज़बूत किया जाए. नज़दीक में रोजगार के अवसर उप्लब्ध कराए जाएं. साथ ही गावों, शहरों और देश के अन्य भागों के बीच के संपर्क को मज़बूत किया जाए, ताकि बेहतर उत्पादन सुनिश्चित हो सके. हमें इसके लिए सड़क बनाने की ज़रूरत है. ये सड़कें छोटी नहीं, बल्कि लंबी और मज़बूत होनी चाहिए, ताकि वह बृहद पैमाने पर काम में आ सके. हमें ज़रूरत है रेल मार्ग के नेटवर्क को बढ़ाने की, नए उद्योग लगाने की, बेहतर बिजली की व्यवस्था करने की, ताकि वह हमारे हर कामों में सहायक हो सके. हमारे बच्चों को पढ़ने के लिए रोशनी मिल सके, ताकि वे अपने भविष्य को चमका सकें. हमें ज़रूरत है पोर्ट तैयार करने की, ताकि उत्पादनों को निर्यात करने में सुविधा हो. सरकार अकेले ये सारा काम नहीं कर सकती. हमें ज़रूरत है आपके सहयोग की, ताकि हम साथ मिलकर देश का विकास कर सकें.

दूसरा ये कि बौद्धिक क्षमता का बेहतर उपयोग और उसके विकास और तीव्र संचरण की बेहतर व्यवस्था हो, ताकि उस पर तेज़ी से काम हो सके. यहां भी तकनीकि शिक्षा की उत्तम व्यवस्था हो जिससे कि हमें औद्योगिक विकास को गति देने में मदद मिले, ताकि विदेशी लोग हमारा अनुकरण करना चाहें और कहें कि हमें भारतीयों की तरह बनना है. इसके लिए विश्व स्तर की शिक्षण व्यवस्था की आज ज़रूरत है. हमारी सबसे बड़ी विडंबना ये है कि हमारे पास प्रशिक्षित युवा शक्ति नहीं है जैसा कि लोकमान्य तिलक एक्स. में मैंने पाया था. इसे आप बेहतर ढंग से समझाते हैं, क्योंकि आप ये पाते हैं कि आपको उसे पहले प्रशिक्षित करना पड़ता है. हमारी समस्या रोज़गार की कमी नहीं, बल्कि प्रशिक्षित कामगार की कमी है. क्या वजह है कि एक मां अपने तीव्र बुद्धि बच्चे का किसी अच्छे स्कूल में एडमिशन दिलाने के लिए दुखी रहती है, क्यों मेडिकल कोर्स करने के लिए कोई हारवर्ड यूनिवर्सिटी जाना चाहता है, जबकि लखनऊ मेडिकल कॉलेज की फ़ीस भी वही है? क्यों कोई पायलट बनने के लिए अमेरिका जाना चाहता है और जब डीजीसीए के पास नौकरी के लिए जाता है, तो उसे प्रथमिकता दी जाती है. लेकिन पायलट की ट्रेनिंग लेना और प्लेन उड़ाना दोनों अलग बात है. आपमें से कितने ऐसे हैं, जो उड़ती प्लेन से मेल डाल सकते हैं. क्या वजह है कि हमारे युवा ऐसा करने में अक्षम हैं. क्या कभी आपने इस बारे में सोचा है और इसे सुधारने के लिए कुछ करने की कोशिश की है? क्या कभी आपने शिक्षा तंत्र को बदलने के लिए पहल की है? क्या आपके पास यूनिवर्सिटी के लिए कोई ख़ाका है, भले ही वह आईआईटी हो? नहीं. यूनिवर्सिटी आज एक संस्थान मात्र नहीं रह गई है, वह एक नेटवर्क है जिसका संबंध उद्योगों से जुड़ चुका है.

मैं आपको अपने एक मित्र की कहानी सुनाता हूं, जो कुछ साल पहले अमेरिका से आया था. उसके पास इंजीनियरिंग से संबंधित एक समस्या थी. उसने उसके समाधान के लिए मझसे पूछा कि वे कहां जाए. मैंने उसे आईआईटी जाने कहा. वहां के एक प्रोफ़ेसर ने उसकी समस्या का समाधान कर दिया, जिसके लिए उस महाशय ने कुछ हज़ार रूपये ही लिए. जब वह लौटकर मेरे पास आया, तो वह हैरान था. उसने बताया कि जिस समस्या के लिए अमेरिका में उससे 30 हज़ार डॉर मांगा गया था वह कुछ हज़ार रूपये में ही समाप्त हो गई. वजह उस प्रोफ़ेसर को अपनी क़ीमत का पता नहीं था. ये हाल है हमारे देश के विद्वानों का. जिसे अपनी क़ीमत का कुछ अंदाज़ा नहीं है कि वह कितना महंगा है? उसे नहीं पता होता है कि उसके ज्ञान की बाज़ार में क्या क़ीमत है, वजह वह बाज़ार से कटा है, वह उसे ज्ञान के पैमाने से देखता है. सलिए हमें इसे बदलना होगा.

नौजवानों के लिए बौद्धिक कौशल और उसका संवर्धन नौकारी का एक ज़रिया है. आप लोगों के पास वह क्षमता है, जो नौकरियों का सृजन करने में समर्थ है. और इसके लिए आपको आगे बढ़कर क़दम उठाना पड़ेगा. और इसके साथ ही हमारी ये ज़िम्मेदारी है कि पक्षपातहीन और एक सैद्धांतिक सरकार दें, जो सबके साथ मिलकर काम करे. जैसा कि मैं अनुभव करता हूं कि यह युवा शक्ति भविष्य की एक चुनौती हो सकती है. इसका कारण इनमें प्रशिक्षण का अभाव नहीं, बल्कि बाहर करने की परंपरा है, चाहे वह दलित का हो या आदिवासियों का या मध्यवर्ग का या फिर. हमें इसे रोकना होगा. राष्ट्रपति केनेडी ने कहा था कि समुद्रों में लहरों के उठने से सभी नाव ख़ुद उपर उठ जाते हैं. हमें उसी नाव की व्यवस्था करनी है. लेकिन यहां आधारभूत संरचना क्या है? यह आधारभूत संरचना यूपीए सरकार तैयार कर रही है जिसके तहत सभी परिवारों को जीवन यापन के लिए न्यूनतम ज़रूरतों को पूरा करने के लिए कई लाभकारी योजनाएं चलाई गई हैं. ग़रीब लोगों की सबसे बड़ी समस्या क्या है? उनकी समस्या है उसकी पहचान. आप गांवों में जाइए, वहां हर व्यक्ति एक दूसरे को जनता है, लेकिन जैसे ही वह ग्रामीण अपने गांव से बाहर आता है, वह अपनी पहचान खो देता है. जैसा कि हमने आपसे कहा कि यह पहचानहीनता ही सबसे बड़ी समस्या है. जब हम महिलाओं से बात करते हैं, तो वे कहती हैं कि उनके पास कोई नाव नही है, यानी कोई उपाय नहीं है. लेकिन समाज की ये आधी आवादी न केवल ग़रीब परिवारो की या फिर धनाढ्य परिवारों की बल्कि सभी समुदाय की महिलाएं समाज निर्माण में बहुत बड़ी भूमिका निभाती हैं. वे न केवल नाव को बनाने का काम करती हैं, बल्कि तरंगों का भी सृजन करती हैं. वे जो काम करती हैं, पूरे परिवार का सहारा होता है. हमारा आर्थिक विकास उनके बिना संभव ही नहीं है. हमारा प्रयास है कि आने वाले दिनों में न तो कई पुरुष और न ही कोई महिला बना छत के हों. कहना बहुत आसान है. लेकिन प्रजातंत्र में ग़रीबों के पास बहुत बड़ी ताक़त है और हमें उसे साथ लेकर चलना है. भारत सही मायने में तेज़ी से तभी विकास कर सकता है, जब सभी को साथ लेकर चला जाए चाहे वह इस कमरे के भीतर बैठे हों या फिर यहां से काफ़ी दूर. इस आंदोलन के दो मार्ग हैं, जिनमें पहला विकास के रास्ते पर जा सकता है, तो दूसरा विध्वंस के रास्ते पर. कांग्रेस का विचार है कि हर कोई साथ मिलकर इस विकास यात्रा को तय करें. यूपीए के शासनकाल में भारत तेज़ी से विकास कर रहा है. कारण इस दौरान देश में सामाजिक सौहार्द्र है और हम इसी सामंजस्य को बनाए रखने के लिए प्रयासरत हैं. जब इसमें किसी तरह की राजनीति शामिल होती है, तो इसका विध्वंस के रास्ते पर जाने का ख़तरा बढ़ जाता है. और यह विध्वंस समाज को काफ़ी पीछे धकेल देता है. और विकास बाधित हो जाता है, साथ ही रोज़गार भी प्रभावित होता है. सामूहिक विकास सभी के लिए जीत की स्थिति है. कांग्रेस पार्टी देश में एक ऐसा वातावरण तैयार करने का प्रयास कर रही है, जिससे लोगों को ग़रीबी से निजात मिले, उनका सर्वांगीन विकास हो. यह हमारी विडंबना रही है कि हम एक साथ सभी समस्याओं का समाधान करना चाहते हैं, लेकिन ये भूल जाते हैं कि हर समस्या का अलग-अलग समाधान करना आसान होता है. और कम समय भी लगता है. हरित क्रांति, श्वेत क्रांति आईटी क्रांति आदि आंदोलनों की सफलता इसका उदाहरण है.

यह युवाओं का देश है और उनके विकास के लिए काफ़ी कुछ करना है. अगर हम आईटी क्रांति की बात करें, तो इसमें कालाहांडी ज़िले का ज़िक्र ज़रूरी हो जाता है, जहां एक के बाद एक घरों को जोड़ने की मंशा के साथ इसे शुरू किया गया था, जिसका परिणाम आज आपके सामने है और इसके गवाह सेम पित्रोदा सामने बैठे हैं. सेम पित्रोदा, नंदन नीलकाणी जैसे लोगों ने सरकार के साथ मिलकर समाज के सर्वांगीण विकास के लिए बहुत कुछ किया है और उसे नहीं भुलाया जा सकता है. कांग्रेस ही एक मात्र ऐसी संस्था है, जो सबके हित में काम करती है. यही एकमात्र पार्टी है, जो देश के हित की बात करती है और उसके लिए नीतियों का न केवल निर्माण करती है, बल्कि उसे समाज के निचले स्तर तक पहुंचाने का भी काम करती है. हम उस राजनीतिक संरचना के लिए समर्पित हैं, जिसमें समान रूप से सबके हित की बात की जाती है. आज की ये ज़रूरत है कि एक ऐसे वातावरण को बढ़ावा दिया जाए, जिसमें लघु, मध्यम और बड़ी औद्योगिक इकाइयों को पनपने का समान अवसर मिले तथा समाज के विकास में वे अपना योगदान दे सकें. ऐसे वातावरण की व्यवस्था करनी है, जिसमें व्यवसाय शहरों की गलियों में तो सुरक्षित चले ही, गांवों तक उसे किसी प्रकार का ख़तरे का अनुभव न हो. ऐसे वातावरण के लिए मैं सभी से सहयोग की अपील करता हूं और औद्योगिक घरानों को उपक्रम लगाने और नई नौकरियों के सृजन की अपील करता हूं. इसके लिए हम ऐसे राजनीतिक वातावरण की व्यवस्था करने में लगे हैं, जो सुरक्षा की गारंटी दे, ताकि व्यवसायी वर्ग निर्भय होकर काम कर सकें. मैं यहां इसलिए आया हूं, क्योंकि मुझे विश्वास है कि हम देश के निर्माण में लंबे समय तक साथ चलें. देश को विकास का रफ्तार दे सकें. आइए हम साथ मिलकर एक नए भारत का निर्माण करें. जैसा कि आदिगोदरेज जी ने कहा कि मैंने ग़रीबों के साथ लंबे समय तक काम किया है, लेकिन मैं आपको एक बात साफ़ कर दूं कि भारत के विकास में किसी एक पहलु को ध्यान में रखकर काम नहीं किया जा सकता है. ग़रीब अगर इसके एक पहलु हैं, तो व्यवसायी दूसरे, मध्य वर्ग तीसरा. इन सभी पहलुओं के साथ मिलकर चलने पर ही देश का सर्वांगीण विकास हो सकेगा. आप सभी का मैं तहे-दिल से धन्यवाद करता हूं कि आप यहां आए और मुझे सुना.



भारत का रत्न और आभूषण उद्योग अर्थव्यवस्था का चमकता सितारा है और भारत के निर्यात संबंधी विकास का महत्वपूर्ण आधार है। यह विदेशी मुद्रा अर्जित करने का एक महत्वपूर्ण स्रोत है और एक ऐसा क्षेत्र है जो तेजी से आगे बढ़ रहा है। वित्त वर्ष 2011-12 के दौरान भारत के कुल निर्यात का 14 प्रतिशत रत्न और आभूषणों का निर्यात किया गया। इस उद्योग ने पिछले 4 दशकों में उल्लेखनीय बढ़ोतरी दर्ज की है। 1966-67 में जब रत्न और आभूषण निर्यात संवर्धन परिषद (जीजेईपीसी) की स्थापना की गई थी, तब निर्यात 2 करोड़ 80 लाख अमरीकी डॉलर था जो वित्त वर्ष 2011-12 में बढ़ कर 42.84 अरब अमरीकी डॉलर पर पहुंच गया।
रत्‍न और आभूषण उद्योग के कुल निर्यात का 54 प्रतिशत हीरों का, 38 प्रतिशत स्वर्ण आभूषणों का और 1-1 प्रतिशत रंगीन रत्नों तथा अन्य का निर्यात किया जाता है, कुल हिस्‍से में 4 प्रतिशत बिना तराशे हीरों का निर्यात शामिल हैं। इसके आपूर्तिकर्ताओं और खरीदारों में विभिन्न देश शामिल हैं।
प्रमुख खरीदारों में संयुक्त अरब अमीरात (44 प्रतिशत), हांगकांग (25 प्रतिशत) और अमरीका (12 प्रतिशत) शामिल हैं, जबकि बेल्जियम जो कच्चे माल का कुल 21.55 प्रतिशत आयात करता है, अब तक सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता है।
हीरा: निर्विवाद अग्रणी
उद्योग के विश्वसनीय प्रदर्शन में हीरा सबसे आगे है जो निर्माण क्षेत्र में महत्‍वपूर्ण योगदान देता है। देश भर में करीब 10 लाख लोगों को इसमें रोजगार मिला हुआ है। भारत ने 2011-12 में 23.30 अरब अमरीकी डॉलर मूल्य के काटे गए और तराशे गए हीरों का निर्यात किया।
  इस उद्योग की 50 के दशक में बहुत छोटे स्तर पर शुरुआत हुई और यह पिछले कुछ वर्षों में काटे गए और तराशे गए हीरों के मामले में दुनिया के सबसे बड़े केंद्र के रूप में स्थापति हो गया है। मूल्य के लिहाज से देखा जाए तो दुनिया में आपूर्ति में इसका 60 प्रतिशत और मात्रा के लिहाज से 85 प्रतिशत योगदान है। दुनिया भर में हीरों के आभूषण के प्रत्येक 12 सेटों में से 11 भारत में बनाए जाते हैं। यह काम मुख्य रूप से मुंबई, सूरत और जयपुर में होता है। इसकी सफलता के पीछे विभिन्न कारक हैं जिसमें सबसे प्रमुख भारतीय कारीगरों की दक्षता है। इस उद्योग को स्थापित करने में भारतीय उद्यमियों के अनवरत प्रयासों ने इसकी वृद्धि में उल्‍लेखनीय योगदान दिया है।
  छोटे हीरों के मामले में दुनिया में अपनी धाक जमाने के बाद भारत बड़े पत्थरों को काटने और तराशने में दक्षता हासिल कर रहा है। भारत में हीरा तराशने की प्रक्रिया दुनिया की सर्वश्रेष्ठ फैक्ट्रियों के समकक्ष है और प्रौद्योगिकी के लिहाज से भी वह किसी से पीछे नहीं है। इनमें लेजर मशीनों, कम्प्यूटरीकृत अत्याधुनिक मशीनों का इस्तेमाल किया जा रहा है।
आभूषण: तेजी से उभरता क्षेत्र
   पिछले कुछ समय में दुनिया में आभूषण के निर्यात के क्षेत्र में भारत तेजी से उभरा है। पिछले कुछ दशक में इसकी औसत वृद्धि प्रतिवर्ष करीब 15-20 प्रतिशत रही है। वर्ष 2011-12 में स्वर्ण आभूषणों का निर्यात 16.5 अरब अमरीकी डॉलर पर पहुंच गया, जो 1994-95 में 48 करोड़ 60 लाख अमरीकी डॉलर था।
  हालांकि ब्रांडेड आभूषणों का विकास अभी आरंभिक चरण में है क्योंकि परम्परागत आभूषणों या परिवार के सुनार की अवधारणा का अभी भी वर्चस्व बना हुआ है। गुणवत्ता का आश्वासन देने और जालसाजी रोकने के लिए भारतीय मानक ब्यूरो ने हॉल मार्क वाले आभूषणों की शुरुआत की लेकिन इन्‍हें अपनी जगह बनाने में अभी वक्त लगेगा। भारत के कुछ आभूषण ब्रांडों ने दुनिया के कुछ देशों में अपने कदम बढ़ाए हैं।
रत्न और आभूषण निर्यात संवर्धन परिषद:
   वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय ने 1966 में रत्न और आभूषण निर्यात संवर्धन परिषद की स्थापना की। इसने उद्योग को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, इस समय देश भर में परिषद के 5,300 सदस्य हैं। परिषद उद्योग के प्रसार के लिए अंतर्राष्ट्रीय आभूषण शो सहित अनेक आयोजन करती है। इनमें व्यापार प्रतिनिधिमंडलों को भेजने और उनकी मेजबानी करने, विदेश में विज्ञापनों, प्रकाशनों, दृश्य-श्रव्य/कॉरपोरेट साहित्य, सदस्यों की डायरेक्टरी के जरिए निरंतर छवि निर्माण आदि शामिल हैं।
  सरकार ने इस क्षेत्र की ताकत को पहचानते हुए और रोजगार की संभावनाओं को देखते हुए कुछ महत्वपूर्ण पहल की। उद्योग की जरूरत के मुताबिक कारीगरों के दक्षता स्तर को बढ़ाने के लिए पश्चिम बंगाल में दोमजूर और गुजरात में खंबात में ऐसे दो केंद्र स्थापित किए जा रहे हैं। सरकार आभूषण के क्षेत्र में विविधता को अपनाने के लिए वैश्विक भागीदारी को भी बढ़ावा दे रही है। हीरों और रत्नों की ग्रेडिंग, प्रमाणीकरण, अनुसंधान और विकास, काटने और तराशने के क्षेत्र में दक्षता बढ़ाने तथा भारत में आधुनिक प्रशिक्षण केंद्रों की स्थापना के लिए एंटवर्प वर्ल्ड डायमंड सेंटर के साथ सहयोग किया गया है।
भारत अंतर्राष्ट्रीय आभूषण सप्ताह और भारत अंतर्राष्ट्रीय आभूषण शो:
   आभूषणों के लिए भारत को ‘नवपरिवर्तन और डिजाइन स्थल’ के रूप में बढ़ावा देने के प्रयास में रत्न और आभूषण निर्यात संवर्धन परिषद ने भारत अंतर्राष्ट्रीय आभूषण सप्ताह आयोजित किया। 5 दिन तक चले शानदार शो में भारत के प्रमुख आभूषण डिजाइनरों ने भाग लिया और आभूषण के क्षेत्र में भारत के सर्वश्रेष्ठ डिजाइन, अभिनव प्रयोगों, टेक्नोलॉजी, गुणवत्ता और कारीगरी का नमूना प्रस्तुत किया।
  आभूषण सप्ताह के बाद भारत अंतर्राष्ट्रीय शो का आयोजन किया गया जो एशिया प्रशांत क्षेत्र में दूसरा सबसे बड़ा आभूषण एक्सपो था। इसमें प्रदर्शकों, निर्यातकों, खरीदारों और व्यापारियों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। इसका उद्घाटन केंद्रीय वाणिज्य और उद्योग मंत्री श्री आनंद शर्मा ने 23 अगस्त को किया और इसमें थाइलैंड, इस्राइल, तुर्की, बेल्जियम और संयुक्त अरब अमीरात ने भाग लिया।
प्रगति के पथ पर:
   रत्न और आभूषण का विश्व बाजार आज 100 अरब अमरीकी डॉलर से ज्यादा है। आभूषण बनाने वाले देशों में सिर्फ इटली, चीन, थाइलैंड, अमरीका और भारत का नाम शामिल है। हालांकि भारत हीरे काटने और तराशने की ग्लोबल फैक्ट्री है, पर एंटवर्प और बेल्जियम की गलियों में भी यहूदी और गुजराती व्‍यापारी इस काम में लगे हुए हैं। मुबई में दुनिया का सबसे बड़ा हीरा सर्राफा स्थापित किया गया है, जो अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप है और उम्मीद है कि भारत एशिया के बाजार में हीरों का प्रमुख व्यापारी बन जाएगा।


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