फ़िरदौस ख़ान
भारत दवाओं का एक ब़डा बाज़ार है. यहां बिकने वाली तक़रीबन 60 हज़ार ब्रांडेड दवाओं में महज़ कुछ ही जीवनरक्षक हैं. बाक़ी दवाओं में ग़ैर ज़रूरी और प्रतिबंधित भी शामिल होती हैं. ये दवाएं विकल्प के तौर पर या फिर प्रभावी दवाओं के साथ मरीज़ों को ग़ैर जरूरी रूप से दी जाती हैं. स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण के लिए गठित संसद की स्थायी समिति की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, दवाओं के साइड इफेक्ट की वजह से जिन दवाओं पर अमेरिका, ब्रिटेन सहित कई यूरोपीय देशों में प्रतिबंधित लगा हुआ है, उन्हें भारत में खुलेआम बेचा जा रहा है. समिति ने कहा कि इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि दवा बनाने वाली कंपनियों, कुछ चिकित्सकों और नियामक संगठनों के कई अधिकारियों के बीच मिलीभगत है. इसलिए कई दवाओं की जांच किए बिना उन्हें मानव परीक्षण के लिए मंज़ूरी दी जा रही है. इनकी वजह से आए दिन लोगों की मौत हो रही है. तीन विवादस्पद दवाएं पीफ्लोकेसील, होम्पलोकेसीन और स्परफ्लोकेसीन के तो दस्ताव़ेज तक ग़ायब हैं. स्थायी समिति के सदस्य डॉ. संजय जायसवाल का कहना है कि क्लीनिकल परीक्षण के मुद्दे पर हमने सरकार को स्थायी समिति की ओर से पत्र लिखकर दवा परीक्षण और घटिया दवाओं की बिक्री को अनदेखा करने पर सख्त ऐतराज़ जताया है.
क़ाबिले-ग़ौर है कि प्रतिबंधित दवाओं में शरीर को नुक़सान पहुंचाने वाले तत्व होते हैं. इसलिए विकसित देश इनकी बिक्री पर पाबंदी लगा देते हैं. ऐसे में दवा कंपनियां ग़रीब और विकासशील देशों की सरकारों पर दबाव बनाकर वहां अपनी प्रतिबंधित दवाओं के लिए बाज़ार तैयार करती हैं. इन दवाओं का परीक्षण भी इन्हीं देशों में किया जाता है. अंतराष्ट्रीय क्लीनिकल परीक्षण और शोध का बाज़ार तक़रीबन 20 अरब डॉलर का है. भारत में यह बाज़ार तक़रीब दो अरब डॉलर का है और दिनोदिन इसमें त़ेजी से ब़ढोत्तरी हो रही है. ज़्यादातर नई दवाओं का आविष्कार अमेरिका, जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस और स्विटजरलैंड जैसे विकसित देशों में होता है, लेकिन ये देश अपने देश के लोगों पर दवाओं का परीक्षण न करके ग़रीब और विकासशील देशों के लोगों को अपना शिकार बनाते हैं. इनमें एशियाई देश भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, श्रीलंका और अफ्रीकी देश शामिल हैं.
हालांकि क्लीनिकल परीक्षण से संरक्षण प्रदान करने और इसके नियमन के लिए 1964 में हेलसिंकी घोषणा-पत्र पर भारत समेत दुनिया के सभी प्रमुख देशों ने हस्ताक्षर किए थे. इस घोषणा-पत्र में छह बार संशोधन भी किए गए. घोषणा-पत्र में क्लीनिकल परीक्षण के लिए आचार संहिता का पालन करने के साथ यह सुनिश्चित करने की बात कही गई है कि लोगों पर इसका प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़े और क्लीनिकल परीक्षण से होने वाले मुना़फे से ऐसे लोगों को वंचित नहीं किया जाए, जिन पर दवाओं का परीक्षण किया गया हो. दवाओं का परीक्षण दबाव और लालच देकर नहीं कराया जाए, लेकिन इस पर असरदार तरीक़े से अमल नहीं किया जा रहा है. साल 2008 से 2011 के बीच भारत में क्लीनिकल परीक्षण के दौरान 2031 लोगों की मौत हुई है. 2008 में क्लीनिकल परीक्षण के दौरान 288 लोगों की जान जान चुकी है, जबकि 2009 में 637 लोगों, 2010 में 668 लोगों और 2011 में 438 लोगों की मौत हुई थी. हाल में मध्य प्रदेश में भोपाल गैस हादसे के पीडि़तों और इंदौर में कई मरीज़ों पर ग़ैर क़ानूनी तरीक़े से दवा परीक्षण के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सख्त ऐतराज़ जताते हुए मध्य प्रदेश सरकार और केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर जवाब देने को कहा था. एक ग़ैर सरकारी संगठन ने जनहित याचिका दायर कर मध्य प्रदेश समेत देश भर में ग़ैर क़ानूनी तरीक़े से दवा परीक्षण के आरोप लगाए हैं. भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन और भोपाल ग्रुप फॉर इंफॉर्मेशन एंड एक्शन के प्रतिनिधियों द्वारा ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया से सूचना का अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी में यह बात सामने आई थी कि भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर (बीएमएचआरसी) में 2004 से 2008 के बीच विभिन्न बीमारियों से पीड़ित 279 मरीज़ों पर दवाओं का परीक्षण किया गया है. इनमें से 13 मरीज़ों की दवा परीक्षण के बाद बीमारी बढ़ने से मौत हो गई. मरने वालों में से 12 गैस पीड़ित थे. देश भर में दवा परीक्षण के दौरान में चार साल में 2031 लोगों मौत हुई है. इनमें से केवल 22 मामलों में ही मुआवज़ा दिया गया है, जबकि बाक़ी लोगों के परिवार वाले आज तक इंसा़फ की राह देख रहे हैं.
दरअसल, हमारे देश की लचर क़ानून व्यवस्था का फायदा उठाते हुए दवा निर्माता कंपनियां ग़रीब मरीज़ों को मुफ्त में इलाज कराने का झांसा देकर उन पर दवा परीक्षण करती हैं. ग़रीब लोग ठगे जाने पर इनके खिला़फ आवाज़ भी नहीं उठा पाते. पिछले दिनों तक़रीबन 13 हज़ार दवाओं के परीक्षण भारत में किए गए. भारत प्रतिबंधित दवाओं का भी ब़डा बाज़ार है. विदेशों में प्रतिबंधित एक्शन 500, निमेसूलाइड और एनालजिन जैसी दवाएं भारत में ज़्यादा बिकने वाली दवाओं में शामिल हैं. फिनलैंड, स्पेन और पुर्तगाल आदि देशों ने निमेसूलाइड के जिगर पर हानिकारक प्रभाव की रिपोर्टों के मद्देनज़र इस पर पाबंदी लगाई हुई है. इतना ही नहीं, बांग्लादेश में भी यह दवा प्रतिबंधित है. इसके अलावा दवाओं के साइड इफेक्ट से भी लोग बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं. अनेक दवाएं ऐसी हैं जो फायदे की बजाय नुक़सान ज़्यादा पहुंचाती हैं. कुछ दवाएं रिएक्शन करने पर जानलेवा तक साबित हो जाती हैं, जबकि कुछ दवाएं मीठे ज़हर का काम करती हैं. क़ब्ज़ की दवा से पाचन तंत्र प्रभावित होता है. सर्दी, खांसी, ज़ुकाम, सरदर्द और नींद न आने के लिए ली जाने वाली एस्प्रीन में सालि सिलेट नामक रसायन होता है, जो श्रवण केंद्रीय के ज्ञान तंतु पर विपरीत प्रभाव डालता है. कुनेन का अधिक सेवन कर लेने पर व्यक्ति बहरा हो सकता है. ये दवाएं एक तरह से नशे का काम करती हैं. नियमित रूप से एक ही दवा का इस्तेमाल करते रहने से दवा का असर कम होता जाता है और व्यक्ति दवा की मात्रा में बढ़ोतरी करने लगता है. दवाओं में अल्कोहल का भी अधिक प्रयोग किया जाता है, जो फेफड़ों को नुक़सान पहुंचाती है.
अधिकांश दवाएं शरीर के अनुकूल नहीं होतीं, जिससे ये शरीर में घुलमिल कर खाद्य पदार्थों की भांति पच नहीं पाती हैं. नतीजतन, ये शरीर में एकत्रित होकर स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालती हैं. दवाओं में जड़ी-बूटियों के अलावा खनिज लोहा, चांदी, सोना, हीरा, पारा, गंधक, अभ्रक, मूंगा, मोती और संखिया आदि का इस्तेमाल किया जाता है. इसके साथ ही कई दवाओं में अफ़ीम, जानवरों का रक्त और चर्बी आदि का भी इस्तेमाल किया जाता है. सर्लें तथा एंटीबायोटिक दवाओं के लंबे समय तक सेवन से स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है. चिकित्सकों का कहना है कि मेक्साफार्म, प्लेक्वान, एमीक्लीन, क्लोरोक्लीन और नियोक्लीन आदि दवाएं बहुत ख़तरनाक हैं. इनके ज़्यादा सेवन से जिगर और तिल्ली बढ़ जाती है, स्नायु दर्द होता है, आंखों की रोशनी कम हो सकती है, लकवा मार सकता है और कभी-कभी मौत भी हो सकती है. दर्द, जलन और बुख़ार के लिए दी जाने वाली ऑक्सीफेन, बूटाजोन, एंटीजेसिक, एमीडीजोन, प्लेयर, बूटा प्रॉक्सीवोन, जेक्रिल, मायगेसिक, ऑसलजीन, हैडरिल, जोलांडिन और प्लेसीडीन आदि दवाएं भी ख़तरनाक हैं. ये ख़ून में कई क़िस्म के विकार उत्पन्न करती हैं. ये दवाएं स़फेद रक्त कणों को ख़त्म कर देती हैं. इनसे अल्सर हो जाता है तथा साथ ही जिगर और गुर्दे ख़राब हो जाते हैं. एचआईवी मरीज़ों को दी जाने वाली दवा इफेविरेंज से नींद नहीं आना, पेट दर्द और चक्कर आने लगते हैं. नेविरापिन से खून की कमी हो जाती है, आंख में धुंधलापन, मुंह का अल्सर आदि रोग हो जाते हैं. मिर्गी के लिए दी जाने वाली फेनिटोइन और कार्बेमेजीपिन से मुंह में छाले और खाने की नली में जख्म हो जाते हैं. डायबिटीज के लिए दिए जाने वाले इंसुलिन से खुजली की शिकायत हो जाती है. कैंसर के लिए दी जाने वाली पेक्लीटेक्सिल से मिर्गी के दौरे पड़ने लगते हैं और कीमोथैरेपी की दवा साइक्लोसपोरिन से शरीर में खून की कमी हो जाती है और त्वचा भी संक्रमित होती है. चमड़ी के संक्रमण के लिए दी जाने वाली एजीथ्रोमाइसिन से पेट संबंधी समस्या पैदा हो जाती है. एलर्जी के लिए दी जाने वाली स्रिटेजीन से शरीर में ददोड़े प़ड जाते हैं. मेक्लिजीन से डायरिया हो जाता है. एंटीबायोटिक सेफट्राइजोन और एम्पीसिलीन से सांस की नली में सूजन आ जाती है. नॉरफ्लोक्सेसिन और ओफ्लोक्सेसिन से खुजली हो जाती है. टीबी के लिए दी जाने वाली इथेमबूटोल से आंखों की नसों में कमज़ोरी आ जाती है. मानसिक रोगी को दी जाने वाली हेलोपेरीडॉल से शरीर में अकड़न, जोड़ों में दर्द और बेहोशी की समस्या पैदा हो जाती है. इसी तरह दर्द निवारक दवा आईब्रूफेन, एस्प्रिन, पैरासिटामॉल से शरीर में सूजन आ जाती है. एक र्फार्मास्टि के मुताबिक़, स्टीरॉयड और एनाबॉलिक्स जैसे डेकाडयराबोलिन, ट्राइएनर्जिक आदि दवाएं पौष्टिक आहार कहकर बेची जाती हैं, जबकि प्रयोगों ने यह साबित कर दिया है कि इनसे बच्चों की हड्डियों का विकास रुक जाता है. इनके सेवन से लड़कियों में मर्दानापन आ जाता है. उनका मासिक धर्म अनियमित या बहुत कम हो जाता है. उनके चेहरे पर दा़ढीनुमा बाल उगने लगते हैं और कई बार उनकी आवाज़ में भारीपन भी आ जाता है. जलनशोथ आदि से बचने के लिए दी जाने वाली चाइमारोल तथा खांसी रोकने के लिए दी जाने वाली बेनाड्रिल, एविल, केडिस्टिन, साइनोरिल, कोरेक्स, डाइलोसिन और एस्कोल्ड आदि दवाएं स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालती हैं. इसी तरह एंसिफैड्रिल आदि का मस्तिष्क पर बुरा असर पड़ता है. एक चिकित्सक के मुताबिक़, दवाओं के दुष्प्रभाव का सबसे बड़ा कारण बिना शारीरिक परीक्षण किए हुए दी जाने वाली दवाओं की निर्धारित मात्रा से अधिक ख़ुराक है. अनेक चिकित्सक अपनी दवाओं का जल्दी प्रभाव दिखाने के लिए प्राइमरी की बजाय थर्ड जेनेरेशन दे देते हैं, जो अक्सर कामयाब तो हो जाती हैं, लेकिन दूसरे असर छोड़ जाती हैं. दवाओं के साइड इफेक्ट भी होते हैं, जिनसे अन्य बीमारियां पैदा हो जाती हैं. जयपुर के सवाई मानसिंह मेडिकल कॉलेज के एडवर्स ड्रग रिएक्शन मॉनिटरिंग सेंटर (एएमसी) द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक़, पिछले डे़ढ साल में 40 दवाओं के साइड से 445 मरीज़ प्रभावित हुए हैं. इनमें गंभीर बीमारियां एचआईवी, कैंसर, डायबिटीज और टीबी से लेकर बु़खार और एलर्जी के लिए दी जाने वाली दवाएं शामिल हैं. मरीज़ों ने ये दवाएं लेने के बाद पेट दर्द, सरदर्द, एनीमिया, बु़खार, त्वचा संक्रमण और सूजन आदि की शिकायतें कीं.
स्वास्थय विशेषज्ञों का कहना है कि डॉक्टर को चाहिए कि वे दवा के बारे में मरीज़ को ठीक से समझाएं, मरीज़ की उम्र और उसके वज़न के हिसाब से दवा लिखे तथा दवा का कोई भी दुष्प्रभाव होने पर फौरन डॉक्टर को सूचित करे. मरीज़ों को चाहिए कि वे हमेशा डॉक्टर की सलाह से ही पर्ची पर दवा लें, अप्रशिक्षित लोगों और दवा विक्रेताओं के कहने पर किसी भी दवा का इस्तेमाल न करें. सरकार को भी चाहिए कि वह डॉक्टरों को सेंटर पर सूचना देने के लिए पाबंद करे, अस्पतालों में पोस्टर, बैनर और कार्यशालाओं के माध्यम से जागरूकता कार्यक्रम आयोजित करे. किसी भी दवा के दुष्प्रभाव मिलने पर उन्हें प्रतिबंधित करने की स़िफारिश की जाती है. किसी भी अस्पताल या सेंटर से दवा से दुष्प्रभाव और नुक़सान की रिपोर्ट को सीडी एससीओ नई दिल्ली को भेजा जाता है. यहां पर पूरे देश के सभी राज्यों से रिपोर्टें आती हैं. इसके बाद विशेषज्ञों की ड्रग टेक्नीकल एडवाइजरी बोर्ड (डीटीएबी) और ड्रग कंसल्टेटिव कमेटी के सदस्यों द्वारा इसका विस्तृत रूप से अध्ययन करने के बाद इसे ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीसीजीआई) को उस दवा की रिपोर्ट भेजी जाती है. इसके बाद केंद्र सरकार से मंज़ूरी लेकर ग़ज़ट नोटिफिकेशन करते हैं. देश में पहले ही स्वास्थ्य सेवाएं बदहाल हैं. राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की योजनाओं का लाभ भी जनमानस तक नहीं पहुंच पाया है. केंद्र सरकार के नियंत्रक महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट में भी केंद्र की योजनाओं को ठीक तरीक़े से लागू न किए जाने पर नाराज़गी जताई जा चुकी है. ऐसे में मरीज़ों के साथ खिलवा़ड किया जाना बेहद गंभीर और चिंता का विषय है. देश भर के सरकारी अस्पतालों में महिला चिकित्सकों की कमी है. डिस्पेंसरियों के पास अपने भवन तक नहीं हैं. आयुर्वेदिक डिस्पेंसरियां चौपाल, धर्मशाला या गांव के किसी पुराने मकान के एकमात्र कमरे में चल रही हैं. अधिकांश जगहों पर बिजली की सुविधा भी नहीं है. न तो पर्याप्त संख्या में नए स्वास्थ्य केंद्र खोले गए हैं और न मौजूदा सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा किया गया है. राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के मानकों के मुताबिक़ एक ऑपरेशन थियेटर, सर्जरी, सुरक्षित गर्भपात सेवाएं, नवजात देखभाल, बाल चिकित्सा, ब्लड बैंक, ईसीजी परीक्षण और एक्सरे आदि की सुविधाएं मुहैया कराई जानी थीं. इसके अलावा अस्पतालों में दवाओं की भी पर्याप्त आपूर्ति नहीं की जाती. स्वास्थ्य केंद्रों में हमेशा दवाओं का अभाव रहता है. चिकित्सकों का आरोप है कि सरकार द्वारा दवाएं समय पर उपलब्ध नहीं कराई जातीं. उनका यह भी कहना है कि डिस्पेंसरियों द्वारा जिन दवाओं की मांग की जाती है, अकसर उनके बदले दूसरी दवाएं मिलती हैं. घटिया स्तर की दवाएं मुहैया कराए जाने के भी आरोप लगते रहे हैं. ऐसे में सरकार की स्वास्थ्य संबंधी योजनाएं नौ दिन चले अढाई कोस नामक कहावत को ही चरितार्थ करती नज़र आती हैं. हालांकि स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण के लिए गठित संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट पर कार्रवाई करते हुए स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने दवाओं को मंज़ूरी प्रदान करने की प्रक्रिया में अनियमितता की जांच के लिए एक विशेषज्ञ पैनल का गठन किया है. स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा जारी बयान में कहा गया है कि तीन सदस्यीय समिति क्लीनिकल परीक्षण के बिना नई दवाओं को दी गई मंज़ूरी की वैज्ञानिक और वैधानिक आधार पर जांच करने के बाद सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपेगी. वह मंज़ूरी प्रक्रिया में प्रणालीगत सुधार के लिए सुझाव पेश करेगी और दवा नियंत्रक कार्यालय की कार्यप्रणाली को बेहतर करने के लिए भी सुझाव देगी.
स्वस्थ नागरिक किसी देश की सबसे बड़ी पूंजी होते हैं. हमें इस बात को समझना होगा. देश में स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने के साथ-साथ प्रतिबंधित दवाओं पर सख्ती से रोक लगाने और ग़ैर क़ानूनी रूप से मरीज़ों पर किए जा रहे दवा परीक्षणों पर भी रोक लगानी होगी. इसके अलावा दवाओं के उत्पादन को प्रोत्साहित करना होगा. इसके कई फ़ायदे हैं, पहला लोगों को रोजगार मिलेगा, दूसरा मरीज़ों को वाजिब क़ीमत में दवाएं मिल सकेंगी और तीसरा फायदा यह है कि मरीज़ विदेशी दवाओं के रूप में ज़हर खाने से बच जाएंगे.
इलाज से परहेज़ बेहतर है
लोगों को अपने स्वास्थ्य के प्रति काफ़ी सचेत रहने की ज़रूरत है, वरना एक बीमारी का इलाज कराते-कराते वे किसी दूसरी बीमारी का शिकार हो जाएंगे. शरीर में स्वयं रोगों से मुक्ति पाने की क्षमता है. बीमारी प्रकृति के साधारण नियमों के उल्लंघन की सूचना मात्र है. प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाए रखने से बीमारियों से छुटकारा पाया जा सकता है. प्रतिदिन नियमित रूप से व्यायाम करने तथा पौष्टिक भोजन लेने से मानसिक और शारीरिक संतुलन बना रहता है. यही सेहत की निशानी है. हार्ट केयर फाउंडेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. केके अग्रवाल का कहना है कि स्वस्थ्य रहने के लिए ज़रूरी है कि लोग अपनी सेहत का विशेष ध्यान रखें जैसे अपना ब्लड कोलेस्ट्रॉल 160 एमजी प्रतिशत से कम रखें. कोलेस्ट्ररॉल में एक प्रतिशत की भी कमी करने से हार्ट अटैक में दो फ़ीसदी कमी होती है. अनियंत्रित मधुमेह और उच्च रक्तचाप से हार्ट अटैक का खतरा बढ़ जाता है, इसलिए इन पर क़ाबू रखें. कम खाएं, ज़्यादा चलें. नियमित व्यायाम करना स्वास्थ्य के लिए अच्छा है. सोया के उत्पाद स्वास्थ्य के लिए फ़ायदेमंद होते हैं. खुराक में इन्हें ज़रूर लिया जाना चाहिए. जूस की जगह फल का सेवन करना बेहतर होता है. ब्राउन राइस पॉलिश्ड राइस से और स़फेद चीनी की जगह गुड़ लेना कहीं अच्छा माना जाता है. फाइबर से भरपूर खुराक लें. शराब पीकर कभी भी गाड़ी न चलाएं. गर्भवती महिलाएं तो शराब बिल्कुल न पिएं. इससे होने वाले बच्चे को नुक़सान होता है. साल में एक बार अपने स्वास्थ्य की जांच ज़रूर करवाएं. ज़्यादा नमक से परहेज़ करें.