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फ़िरदौस ख़ान
देश की एक बड़ी आबादी धीमा ज़हर खाने को मजबूर है, क्योंकि उसके पास इसके अलावा कोई दूसरा चारा नहीं है. हम बात कर रहे हैं भोजन के साथ लिए जा रहे उस धीमे ज़हर की, जो सिंचाई जल और कीटनाशकों के ज़रिये अनाज, सब्ज़ियों और फलों में शामिल हो चुका है. देश के उत्तर-पूर्वी राज्यों में आर्सेनिक सिंचाई जल के माध्यम से फ़सलों को ज़हरीला बना रहा है. यहां भू-जल से सिंचित खेतों में पैदा होने वाले धान में आर्सेनिक की इतनी मात्रा पाई गई है, जो मानव शरीर को नुक़सान पहुंचाने के लिए काफ़ी है. इतना ही नहीं, देश में नदियों के किनारे उगाई जाने वाली फ़सलों में भी ज़हरीले रसायन पाए गए हैं. यह किसी से छुपा नहीं है कि हमारे देश की नदियां कितनी प्रदूषित हैं. कारख़ानों से निकलने वाले कचरे और शहरों की गंदगी को नदियों में बहा दिया जाता है, जिससे इनका पानी अत्यंत प्रदूषित हो गया है. इसी दूषित पानी से सींचे गए खेतों की फ़सलें कैसी होंगी, सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है.

दूर जाने की ज़रूरत नहीं, देश की राजधानी दिल्ली में यमुना की ही हालत देखिए. जिस देश में नदियों को मां या देवी कहकर पूजा जाता है, वहीं यह एक गंदे नाले में तब्दील हो चुकी है. काऱखानों के रासायनिक कचरे ने इसे ज़हरीला बना दिया है. नदी के किनारे सब्ज़ियां उगाई जाती हैं, जिनमें काफ़ी मात्रा में विषैले तत्व पाए गए हैं. इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चर रिसर्च की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, नदियों के किनारे उगाई गई 50 फ़ीसद फ़सलों में विषैले तत्व पाए जाने की आशंका रहती है. इसके अलावा कीटनाशकों और रसायनों के अंधाधुंध इस्तेमाल ने भी फ़सलों को ज़हरीला बना दिया है. अनाज ही नहीं, दलहन, फल और सब्ज़ियों में भी रसायनों के विषैले तत्व पाए गए हैं, जो स्वास्थ्य के लिए बेहद हानिकारक हैं. इसके बावजूद अधिक उत्पादन के लालच में डीडीटी जैसे प्रतिबंधित कीटनाशकों का इस्तेमाल धड़ल्ले से जारी है. अकेले हरियाणा की कृषि भूमि हर साल एक हज़ार करोड़ रुपये से ज़्यादा के कीटनाशक निग़ल जाती है. पेस्टिसाइड्‌स ऐसे रसायन हैं, जिनका इस्तेमाल अधिक उत्पादन और फ़सलों को कीटों से बचाने के लिए किया जाता है. इनका इस्तेमाल कृषि वैज्ञानिकों की सिफ़ारिश के मुताबिक़ सही मात्रा में किया जाए, तो फ़ायदा होता है, लेकिन ज़रूरत से ज़्यादा प्रयोग से भूमि की उर्वरा शक्ति ख़त्म होने लगती है और इससे इंसानों के अलावा पर्यावरण को भी नुक़सान पहुंचता है. चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के कीट विज्ञान विभाग के वैज्ञानिकों ने कीटनाशकों के अत्यधिक इस्तेमाल से कृषि भूमि पर होने वाले असर को जांचने के लिए मिट्टी के 50 नमूने लिए. ये नमूने उन इलाक़ों से लिए गए थे, जहां कपास की फ़सल उगाई गई थी और उन पर कीटनाशकों का कई बार छिड़काव किया गया था. इसके साथ ही उन इलाक़ों के भी नमूने लिए गए, जहां कपास उगाई गई थी, लेकिन वहां कीटनाशकों का छिड़काव नहीं किया गया था. कीटनाशकों के छिड़काव वाले कपास के खेत की मिट्टी में छह प्रकार के कीटनाशकों के तत्व पाए गए, जिनमें मेटासिस्टोक्स, एंडोसल्फान, साइपरमैथरीन, क्लोरो पाइरीफास, क्वीनलफास और ट्राइजोफास शामिल हैं. मिट्टी में इन कीटनाशकों की मात्रा 0.01 से 0.1 पीपीएम पाई गई. इन कीटनाशकों का इस्तेमाल कपास को विभिन्न प्रकार के कीटों और रोगों से बचाने के लिए किया जाता है. कीटनाशकों की लगातार बढ़ती खपत से कृषि वैज्ञानिक भी हैरान और चिंतित हैं. कीटनाशकों से जल प्रदूषण भी बढ़ रहा है. प्रदूषित जल से फल और सब्ज़ियों का उत्पादन तो बढ़ जाता है, लेकिन इनके हानिकारक तत्व फलों और सब्ज़ियों में समा जाते हैं. सब्ज़ियों में पाए जाने वाले कीटनाशकों और धातुओं पर भी कई शोध किए गए हैं. एक शोध के मुताबिक़, सब्ज़ियों में जहां एंडोसल्फान, एचसीएच एवं एल्ड्रिन जैसे कीटनाशक मौजूद हैं, वहीं केडमियम, सीसा, कॉपर और क्रोमियम जैसी ख़तरनाक धातुएं भी शामिल हैं. ये कीटनाशक और धातुएं शरीर को बहुत नुक़सान पहुंचाती हैं. सब्ज़ियां तो पाचन तंत्र के ज़रिए हज़म हो जाती हैं, लेकिन कीटनाशक और धातुएं शरीर के संवेदनशील अंगों में एकत्र होते रहते हैं. यही आगे चलकर गंभीर बीमारियों की वजह बनती हैं. इस प्रकार के ज़हरीले तत्व आलू, पालक, फूल गोभी, बैंगन और टमाटर में बहुतायत में पाए गए हैं. पत्ता गोभी के 27 नमूनों का परीक्षण किया गया, जिनमें 51.85 फ़ीसद कीटनाशक पाया गया. इसी तरह टमाटर के 28 नमूनों में से 46.43 फ़ीसद में कीटनाशक मिला, जबकि भिंडी के 25 नमूनों में से 32 फ़ीसद, आलू के 17 में से 23.53 फ़ीसद, पत्ता गोभी के 39 में से 28, बैंगन के 46 में से 50 फ़ीसद नमूनों में कीटनाशक पाया गया. फ़सलों में कीटनाशकों के इस्तेमाल की एक निश्चित मात्रा तय कर देनी चाहिए, जो स्वास्थ्य पर विपरीत असर न डालती हो. मगर सवाल यह भी है कि क्या किसान इस पर अमल करेंगे. 2005 में सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) ने केंद्रीय प्रदूषण निगरानी प्रयोगशाला के साथ मिलकर एक अध्ययन किया था. इसकी रिपोर्ट के मुताबिक़, अमेरिकी स्टैंडर्ड (सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन) के मुक़ाबले पंजाब में उगाई गई फ़सलों में कीटनाशकों की मात्रा 15 से लेकर 605 गुना ज़्यादा पाई गई. कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि मिट्टी में कीटनाशकों के अवशेषों का होना भविष्य में घातक सिद्ध होगा, क्योंकि मिट्टी के ज़हरीला होने से सर्वाधिक असर केंचुओं की तादाद पर पड़ेगा. इससे भूमि की उर्वरा शक्ति क्षीण होगी और फ़सलों की उत्पादकता भी प्रभावित होगी. मिट्टी में कीटनाशकों के इन अवशेषों का सीधा असर फ़सलों की उत्पादकता पर पड़ेगा और साथ ही जैविक प्रक्रियाओं पर भी. उन्होंने बताया कि यूरिया खाद को पौधे सीधे तौर पर अवशोषित कर सकते हैं. इसके लिए यूरिया को नाइट्रेट में बदलने का कार्य विशेष प्रकार के बैक्टीरिया द्वारा किया जाता है. अगर भूमि ज़हरीली हो गई तो बैक्टीरिया की तादाद प्रभावित होगी. स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि रसायन अनाज, दलहन और फल-सब्ज़ियों के साथ मानव शरीर में प्रवेश कर रहे हैं. फलों और सब्ज़ियों को अच्छी तरह से धोने से उनका ऊपरी आवरण तो स्वच्छ कर लिया जाता है, लेकिन उनमें मौजूद विषैले तत्वों को भोजन से दूर करने का कोई तरीक़ा नहीं है. इसी धीमे ज़हर से लोग कैंसर, एलर्जी, हृदय, पेट, शुगर, रक्त विकार और आंखों की बीमारियों के शिकार हो रहे हैं. इतना ही नहीं, पशुओं को लगाए जाने वाले ऑक्सीटॉक्सिन के इंजेक्शन से दूध भी ज़हरीला होता जा रहा है. अब तो यह इंजेक्शन फल और सब्ज़ियों के पौधों और बेलों में भी धड़ल्ले से लगाया जा रहा है. ऑक्सीटॉक्सिन के तत्व वाले दूध, फल और सब्ज़ियों से पुरुषों में नपुंसकता और महिलाओं में बांझपन जैसी बीमारियां बढ़ रही हैं. हालांकि देश में कीटनाशक की सीमा यानी मैक्सिमम ऐजिड्यू लिमिट के बारे में मानक बनाने और उनके पालन की ज़िम्मेदारी तय करने से संबंधित एक संयुक्त संसदीय समिति का गठन किया जा चुका है, लेकिन इसके बावजूद फ़सलों को ज़हरीले रसायनों से बचाने के लिए कोई ख़ास कोशिश नहीं की जाती. रसायन और उर्वरक राज्यमंत्री श्रीकांत कुमार जेना के मुताबिक़, अगर कीटनाशी अधिनियम, 1968 की धारा 5 के अधीन गठित पंजीकरण समिति द्वारा अनुमोदित दवाएं प्रयोग में लाई जाती हैं तो वे खाद्य सुरक्षा के लिए कोई ख़तरा पैदा नहीं करती हैं. कीटनाशकों का पंजीकरण उत्पादों की जैव प्रभाविकता, रसायन एवं मानव जाति के लिए सुरक्षा आदि के संबंध में दिए गए दिशा-निर्देशों के अनुरूप वृहद आंकड़ों के मूल्यांकन के बाद किया जाता है. केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार स्वीकार कर चुके हैं कि कई देशों में प्रतिबंधित 67 कीटनाशकों की भारत में बिक्री होती है और इनका इस्तेमाल मुख्य रूप से फ़सलों के लिए होता है. उन्होंने बताया कि कैल्शियम सायनायड समेत 27 कीटनाशकों के भारत में उत्पादन, आयात और इस्तेमाल पर पाबंदी है. निकोटिन सल्फेट और केप्टाफोल का भारत में इस्तेमाल तो प्रतिबंधित है, लेकिन उत्पादकों को निर्यात के लिए उत्पादन करने की अनुमति है. चार क़िस्मों के कीटनाशकों का आयात, उत्पादन और इस्तेमाल बंद है, जबकि सात कीटनाशकों को बाज़ार से हटाया गया है. इंडोसल्फान समेत 13 कीटनाशकों के इस्तेमाल की अनुमति तो है, लेकिन कई पाबंदियां भी लगी हैं.
ग़ौरतलब है कि भारत में क्लोरडैन, एंड्रिन, हेप्टाक्लोर और इथाइल पैराथीओन पर प्रतिबंध है. कीटनाशकों के उत्पादन में भारत एशिया में दूसरे और विश्व में 12वें स्थान पर है. देश में 2006-07 के दौरान 74 अरब रुपये क़ीमत के कीटनाशकों का उत्पादन हुआ. इनमें से क़रीब 29 अरब रुपये के कीटनाशकों का निर्यात किया गया. ख़ास बात यह भी है कि भारत डीडीटी और बीएचसी जैसे कई देशों में प्रतिबंधित कीटनाशकों का सबसे बड़ा उत्पादक भी है. यहां भी इनका खूब इस्तेमाल किया जाता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़, डेल्टिरन, ईपीएन और फास्वेल आदि कीटनाशक बेहद ज़हरीले और नुक़सानदेह हैं. पिछले दिनों दिल्ली हाईकोर्ट ने राजधानी में बिक रही सब्ज़ियों में प्रतिबंधित कीटनाशकों के प्रयोग को लेकर सरकार को फलों और सब्ज़ियों की जांच करने का आदेश दिया है. अदालत ने केंद्र और राज्य सरकार से कहा कि शहर में बिक रही सब्ज़ियों की जांच अधिकृत प्रयोगशालाओं में कराई जाए. मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने अपने आदेश में कहा कि हम जांच के ज़रिये यह जानना चाहते हैं कि सब्ज़ियों में कीटनाशकों का इस्तेमाल किस मात्रा में हो रहा है और ये सब्ज़ियां बेचने लायक़ हैं या नहीं. अदालत ने यह भी कहा कि यह जांच इंडियन एग्रीकल्चर रिसर्च इंस्टीट्यूट की प्रयोगशाला या दूसरी प्रयोगशालाओं में की जाए. ये प्रयोगशालाएं नेशनल एक्रेडेशन बोर्ड फोर टेस्टिंग से अधिकृत होनी चाहिए. यह आदेश कोर्ट ने कंज्यूमर वॉयस की उस रिपोर्ट पर संज्ञान लेते हुए दिया है, जिसमें कहा गया है कि भारत में फलों और सब्ज़ियों में कीटनाशकों की मात्रा यूरोपीय मानकों के मुक़ाबले 750 गुना ज़्यादा है. रिपोर्ट में कहा गया है कि क्लोरडैन के इस्तेमाल से आदमी नपुंसक हो सकता है. इसके अलावा इससे खू़न की कमी और ब्लड कैंसर जैसी बीमारी भी हो सकती है. यह बच्चों में कैंसर का सबब बन सकता है. एंड्रिन के इस्तेमाल से सिरदर्द, सुस्ती और उल्टी जैसी शिकायतें हो सकती हैं. हेप्टाक्लोर से लीवर ख़राब हो सकता है और इससे प्रजनन क्षमता पर विपरीत असर पड़ सकता है. इसी तरह इथाइल और पैराथीओन से पेट दर्द, उल्टी और डायरिया की शिकायत हो सकती है. केयर रेटिंग की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में कीटनाशकों के समुचित प्रयोग से उत्पादकता में सुधार आ सकता है. इससे खाद्य सुरक्षा में भी मदद मिलेगी. देश में हर साल कीटों के कारण क़रीब 18 फ़ीसद फ़सल बर्बाद हो जाती है यानी इससे हर साल क़रीब 90 हज़ार करोड़ रुपये की फ़सल को नुक़सान पहुंचता है. भारत में कुल 40 हज़ार कीटों की पहचान की गई है, जिनमें से एक हज़ार कीट फ़सलों के लिए फ़ायदेमंद हैं, 50 कीट कभी कभार ही गंभीर नुक़सान पहुंचाते हैं, जबकि 70 कीट ऐसे हैं, जो फ़सलों के लिए बेहद नुक़सानदेह हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि फ़सलों के नुक़सान को देखते हुए कीटनाशकों का इस्तेमाल ज़रूरी हो जाता है. देश में जुलाई से नवंबर के दौरान 70 फ़ीसद कीटनाशकों का इस्तेमाल किया जाता है, क्योंकि इन दिनों फ़सलों को कीटों से ज़्यादा ख़तरा होता है. भारतीय खाद्य पदार्थों में कीटनाशकों का अवशेष 20 फ़ीसद है, जबकि विश्व स्तर पर यह 2 फ़ीसद तक होता है. इसके अलावा देश में सिर्फ़ 49 फ़ीसद खाद्य उत्पाद ऐसे हैं, जिनमें कीटनाशकों के अवशेष नहीं मिलते, जबकि वैश्विक औसत 80 फ़ीसद है. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारत में कीटनाशकों के इस्तेमाल के तरीक़े और मात्रा के बारे में जागरूकता की कमी है.

ग़ौर करने लायक़ बात यह भी है कि पिछले तीन दशकों से कीटनाशकों के इस्तेमाल को लेकर समीक्षा तक नहीं की गई. बाज़ार में प्रतिबंधित कीटनाशकों की बिक्री भी बदस्तूर जारी है. हालांकि केंद्र एवं राज्य सरकारें कीटनाशकों के सुरक्षित इस्तेमाल के लिए किसानों को प्रशिक्षण प्रदान करती हैं. किसानों को अनुशंसित मात्रा में कीटनाशकों की पंजीकृत गुणवत्ता के प्रयोग, अपेक्षित सावधानियां बरतने और निर्देशों का पालन करने की सलाह दी जाती है. यह सच है कि मौजूदा दौर में कीटनाशकों पर पूरी तरह पाबंदी लगाना मुमकिन नहीं, लेकिन इतना ज़रूर है कि इनका इस्तेमाल सही समय पर और सही मात्रा में किया जाए.

फ़िरदौस ख़ान
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी
आंचल में है दूध और आंखों में पानी
हिन्दी कविता की ये पंक्तियां पारंपरिक भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति को बख़ूबी बयान करती हैं. भारत में ‘यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते’ के आधार पर महिलाओं को देवी की संज्ञा देकर उनका गुणगान किया गया है. लेकिन, आधुनिक समाज में नारी का एक और रूप उभरकर सामने आया है, जहां उसे मात्र भोग की वस्तु बनाकर रख दिया गया है. काफ़ी हद तक इसका श्रेय विज्ञापन जगत को जाता है. मौजूदा दौर में विज्ञापनों में उत्पाद का कम और नारी काया का ज्यादा से ज्यादा प्रदर्शन कर दौलत बटोरने की होड़ मची हुई है.

पुरुषों के द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली शेविंग क्रीम, अंत:वस्त्र, सूट के कपड़े, जूते, मोटर साइकिल, तम्बाक़ू, गुटखा, सिगरेट और शराब तक के विज्ञापनों में नारी को दिखाया जाता है. जबकि, यहां उनकी कोई ज़रूरत नहीं है. इन वस्तुओं का इस्तेमाल मुख्यत: पुरुषों द्वारा किया जाता है. इसके बावजूद इसमें नारी देह का जमकर प्रदर्शन किया जाता है. इसके लिए तर्क दिया जाता है कि विज्ञापन में आर्कषण पैदा करने के लिए नारी का होना बेहद जरूरी है, यानी पुरुषों को गुमराह किया जाता है कि अगर वे इन वस्तुओं का इस्तेमाल करेंगे तो महिलाएं मधुमक्खी की तरह उनकी ओर खिंची चली आएंगी.

ऐसा नहीं है कि विज्ञापन में नारी देह के प्रदर्शन से उत्पाद की श्रेष्ठता और उसके टिकाऊपन में सहज ही बढ़ोतरी हो जाती है या उसकी कीमत में इजाफा हो जाता है. दरअसल, इस प्रकार के विज्ञापन कामुकता को बढ़ावा देकर समाज को विकृत करने का काम करते हैं. शायद इसका अंदाजा उत्पादक विज्ञापनदाताओं को नहीं है या फिर वे लोग इसे समझना ही नहीं चाहते. आज न जाने कितने ही ऐसे विज्ञापन हैं जिन्हें परिवार के साथ बैठकर नहीं देखा जा सकता. अगर किसी कार्यक्रम के बीच ‘ब्रेक’ में कोई अश्लील विज्ञापन आ जाए तो नज़रें शर्म से झुक जाती हैं. परिजनों के सामने शर्मिंदगी होती है. विज्ञापन क्षेत्र से जुड़े लोगों का मानना है कि विज्ञापन को चर्चित बनाने के लिए कई चौंकाने वाली कल्पनाएं गढ़ी जाती हैं.

यह माना जा सकता है कि आज विज्ञापन कारोबार की ज़रूरत बन गए हैं. लेकिन, इसका यह भी मतलब नहीं कि अपने फायदे के लिए महिलाओं की छवि को धूमिल किया जाए. निर्माताओं को चाहिए कि वे अपने उत्पाद को बेहतर तरीके से उपभोक्ताओं के सामने पेश करें. उन्हें उत्पाद की जरूरत के साथ ही उसके फ़ायदे, गुणवत्ता और विशेषता बताएं. लेकिन, निर्माताओं की मानसिकता ही आज बदल गई है. उन्हें लगता है कि वे विज्ञापनों में माडल को कम से कम कपड़े पहनवा कर ही अपने उत्पाद को लोकप्रिय बना सकते हैं. लेकिन, हकीकत में ऐसा कतई नहीं है.

पश्चिम में हुए कई सर्वेक्षणों से यह साबित हो चुका है कि सामान्य दृश्यों वाले विज्ञापन ही उपभोक्ताओं और उत्पाद के बीच बेहतर तालमेल स्थापित करते हैं. दुनिया के बड़े मनोवैज्ञानिक विशेषज्ञों में एक ब्रैंड बुशमन ने अपने अध्ययन में पाया है कि टेलीविजन शो के हिंसक और कामुकता भरे विज्ञापन के प्रदर्शन से विज्ञापित उत्पाद का कोई बेहतर प्रचार नहीं हो पाता. अगर विज्ञापन में ख़ून-ख़राबे वाले दृश्य हों, तो दर्शकों को विज्ञापित उत्पाद का नाम तक याद नहीं रहता. यही हाल यौन प्रदर्शन वाले विज्ञापनों का पाया गया है. आथोवा स्पेस विश्वविद्यालय के स्नातक की छात्रा एंजालिका बआंनक्सी ने हिंसा और यौन प्रदर्शन वाले विज्ञापनों के दर्शकों को 40-45 मिनट तक ऐसे विज्ञापन दिखाए.

इन विज्ञापनों में 18 ऐसे विज्ञापन कुश्ती फेडरेशन, नाइट कल्ब और मिरैकल पेट्स जैसे हिंसक व कामुक शोज के थे. बाद में उन्हें सामान्य तटस्थता वाले विज्ञापन दिखाए गए जिनमें उत्पादों का प्रचार शामिल था. दर्शकों के आकलन में पाया गया कि हिंसा-यौन दृश्यों वाले विज्ञापनों में दर्शकों को उत्पाद का नाम याद रहने की प्रवृत्ति नगण्य पाई गई. उनके मुकाबले सामान्य तटस्थता वाले उत्पाद विज्ञापनों के आंकलन में पाया गया कि दर्शकों में उत्पादों का नाम याद रहने की क्षमता उनसे 17 फ़ीसद ज़्यादा है. यौन दृश्यों वाले विज्ञापनों के मुक़ाबले सामान्य दृश्यों में निहित उत्पादों का नाम याद रखने की उनकी क्षमता 21 फ़ीसदी अधिक देखी गई. निष्कर्ष यह रहा कि हिंसा से जुड़े विज्ञापनों में उत्पादों का नाम याद रहने की उनकी क्षमता जहां 21 फ़ीसद कम हो जाती है, वहीं तटस्थता के विज्ञापनों के मुक़ाबले में यौन विज्ञापनों में स्मरण क्षमता 17 फ़ीसद कम हो जाती है. इन आकलनों में ब्रांड के पहचान की कोई समस्या नहीं रखी गई थी. क्योंकि, सारे उत्पादों के नाम बराबर दिखाए जाते रहे. चाहे वे सामान्य थे, हिंसा वाले दृश्यों के थे या यौन दृश्यों वाले विज्ञापनों के थे.

यह नहीं भूलना चाहिए कि नारी को भारत में एक समय सती प्रथा के नाम पर पति के साथ चिता में जलकर मरने को मजबूर किया गया था. देवदासी प्रथा की आड़ में उनसे वेश्यावृत्ति कराई गई थी. सदियों के बाद महिलाओं में जागरूकता आई है. अब जब वे अपने सम्मानजनक अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं तो ऐसे में देह प्रदर्शन के जरिए उन्हें भोग की वस्तु के रूप में पेश करना अपमानजनक है. यह देश के सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों पर भी कुठाराघात करने के समान है.

एक अनुमान के मुताबिक भारत के तक़रीबन 40 करोड़ लोग टेलीविजन देखते हैं और हर घर में यह आठ से दस घंटे तक चलता है. यानी विज्ञापन देश की क़रीब आधी आबादी को सीधे रूप से प्रभावित करते हैं. इसलिए टेलीविजन पर किस तरह के विज्ञापन दिखाएं इस पर नज़र रखने और नियमों की अवहेलना करने वालों के खिलाफ सख्ती बरतने की जरूरत है. बेहतर समाज के निर्माण के लिए सरकार को अपना दायित्व ईमानदारी के साथ निभाना चाहिए.

फ़िरदौस ख़ान
कालेधन पर रोक लगाने के केंद्र सरकार के नोटबंदी के फ़ैसले के बाद अब सबकी नज़र सियासी दलों के चंदे पर है.  देश की अर्थव्यवस्था में पारदर्शिता के लिए सामाजिक अंकेक्षण की मांग उठ रही है. जब नोटबंदी, कैश लेस ट्रांजेक्शन, सोना, रियल स्टेट में कैश लेस ख़रीद-बिक्री को लेकर आम जनता प्रभावित है, तो फिर जनता द्वारा भरे गए प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष करों से मिली रक़म का इस्तेमाल करने वाले नेताओं और सियासी दलों को भी पारदर्शिता बरतनी होगी.

इस बाबत चुनाव में काले धन का इस्तेमाल रोकने के लिए चुनाव आयोग ने केंद्र सरकार को क़ानून में संशोधन की सिफ़ारिश की है. इसके लिए चुनाव आयोग ने केंद्र सरकार को तीन सुझाव भी दिए हैं. पहला सियासी दलों के दो हज़ार रुपये से ज़्यादा गुप्त चंदा लेने पर रोक लगाई जाए, दूसरा चुनाव न लड़ने वाले सियासी दलों को आयकर से छूट नहीं दी जाए और तीसरा सियासी दल कूपन के ज़रिये चंदा देने वाले लोगों की भी पूरी जानकारी रखें. क़ाबिले-ग़ौर है कि फ़िलहाल गुप्त चंदे पर क़ानूनी रोक नहीं है. जनप्रतिनिधित्व क़ानून 1951 की धारा 29(सी) के तहत 20 हज़ार रुपये से ज़्यादा के चंदे की सूचना चुनाव आयोग को देनी होती है. इससे नीचे की रक़म का कोई ब्यौरा नहीं दिया जाता. आमदनी के मामले में कांग्रेस ने चुनाव आयोग को बताया कि एक दशक में उसे दो-तिहाई रकम 20 हज़ार रुपये से नीचे के चंदे के ज़रिये हुई है, जबकि भारतीय जनता पार्टी ने अपनी 44 फ़ीसद आमदनी को 20 हज़ार रुपये से नीचे की मदद को बताया है. समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के मुताबिक़  उन्हें 20 हज़ार रुपये से ज़्यादा चंदा देने वाला कोई नहीं है, इसलिए उनमें यह दर 100 फ़ीसद है. ऐसे में नियामक एजेंसियां यह पता लगाने में नाकाम रहती हैं कि सियासी दलों के पास आख़िर इतनी बड़ी रक़म कहां से आई है. सियासी दलों को आयकर भरने से भी छूट है. आयकर क़ानून की धारा 13ए के तहत  संपत्ति, चंदा, या दूसरे स्रोतों से हुई आमदनी पर कोई कर नहीं देना पड़ता. कूपन या रसीद के ज़रिये चंदा देने वालों का ब्यौरा देना भी ज़रूरी नहीं है. इस तरह छोटी-छोटी रक़म के कूपनों के ज़रिये कितनी भी रक़म दिखाई जा सकती है. सियासी दल चुनाव आयोग को जिस रक़म का ब्यौरा देते हैं, वह पैसा कॊरपोरेट घरानों से चंदे के तौर पर आता है, जो पूरी तरह आयकर से मुक्त है. इसके अलावा सियासी आरटीआई के दायरे में नहीं आते. सियासी दलों की आमदनी और ख़र्च दोनों ही में पारदर्शिता नहीं होती. चुनाव आयोग भी अपने लेखा विभाग से इसकी जांच नहीं करा सकता. ऐसी हालत में कालेधन को बहुत ही आसानी से सफ़ेद किया जा सकता है. सियासी दलों पर आरोप लग रहे हैं कि नोटबंदी के बाद उनके खातों में एक लाख करोड़ रुपये से ज़्यादा के पुराने नोट जमा हुए हैं. यह भी आरोप है कि बहुत से छोटे सियासी दल 25 फ़ीसद कमीशन पर कालेधन को सफ़ेद बनाने में लगे हैं. साथ ही सियासी गलियारे में चर्चा थी कि नोटबंदी के बाद सियासी दलों के खातों में जमा हुए पुराने नोटों की जांच नहीं होगी. हालांकि विवाद बढ़ने पर राजस्व सचिव हंसमुख अढिया को सफ़ाई देनी पड़ी कि नोटबंदी के बाद कोई भी सियासी दल 500 और 1000 रूपये में चंदा स्वीकार नहीं कर सकता. अगर उन्होंने ऐसा किया, तो उन पर भी कार्रवाई होगी.

ग़ौरतलब है कि चुनावों में कालेधन का ख़ूब इस्तेमाल होता है. चुनाव सुधार के लिए काम करने वाली एजेंसियों का भी यही कहना है कि काला धन सबसे ज़्यादा चुनावों में ही खपता है. क़ाबिले-ग़ौर यह भी है कि सियासी दलों को मिली रियायत का ग़लत फ़ायदा उठाने का मौक़ा मिला रहता है. बड़ी रक़म को ज़्यादा हिस्सों में बांटकर कालेधन को सफ़ेद बनाया जा सकता है. आयकर में छूट हासिल करने के मक़सद से ही ज़्यादतर सियासी दलों का गठन हुआ है. फ़िलहाल देश में 1900 से ज़्यादा सियासी दल हैं, जिनमें से तक़रीबन 1400 सियासी दलों ने किसी भी चुनाव में अपना एक उम्मीदवार भी मैदान में नहीं उतारा. हालत यह है कि पिछले आम चुनाव में महज़ 45 दलों ने ही चुनाव लड़ा. चंदे के कूपन का भी कोई नियम नहीं है. कितने भी कूपन छपवाकर कितनी भी रक़म का चंदा दिखाया जा सकता है.

एसोसिएशन ऑफ़ डेमोक्रेटिक रिफ़ॊर्म्स (एडीआर) की साल 2013 की रिपोर्ट के मुताबिक़ सियासी दलों को 75 फ़ीसद से ज़्यादा चंदा अज्ञात स्रोतों से मिला. पिछले दस सालों में सियासी दलों के चंदे में 478 की बढ़ोतरी हुई. साल 2004 के लोकसभा चुनाव में 38 दलों को 253.46 करोड़ रुपये का चंदा मिला, जो साल 2014 में बढ़कर 1463.63 करोड़ रुपये तक पहुंच गया. पिछले तीन लोकसभा चुनावों में 44 फ़ीसद चंदा नक़दी के तौर पर था. लोकसभा चुनावों के अलावा इस दौरान हुए विधानसभा चुनावों में भी सियासी दलों ने चंदे के तौर पर करोड़ों रुपये जुटाये.  साल 2004 से 2015 के बीच हुए विधानसभा चुनावों में सियासी दलों को 3368.06 करोड़ रुपये मिले. इसमें से 63 फ़ीसद रक़म नक़दी के तौर पर मिली. चुनाव आयोग में जमा किए गए चुनावी ख़र्च के विवरण के मुताबिक़ पिछले तीन लोकसभा चुनाव में क्षेत्रीय दलों में समाजवादी पार्टी, आम आदमी पार्टी, अन्नाद्रमुक, बीजू जनता दल और शिरोमणि अकाली दल को सबसे ज़्यादा चंदा मिला है और इन्हीं दलों ने सबसे ज़्यादा रक़म खर्च भी की है. साल 2004 और 2015 के विधानसभा चुनावों के दौरान क्षेत्रीय दलों समाजवादी पार्टी, आम आदमी पार्टी, शिरोमणि अकाली दल, शिवसेना और तृणमूल कांग्रेस को सबसे ज़्यादा चंदा मिला है और इन्हीं दलों ने सबसे ज़्यादा पैसे ख़र्च किए हैं. एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक़ साल 2014-15 में चुनावी ट्रस्टों ने 177.55 करोड़ चंदे के तौर पर जुटाये हैं और उनमें से 177.40 करोड़ अलग-अलग सियासी दलों को चंदे के रूप में दिए गए.

अफ़सोस की बात है कि अपनी आमदनी के मामले में सियासी दल पारदर्शिता नहीं चाहते. सनद रहे कि केंद्रीय चुनाव आयोग ने जब साल 2013 में पार्टियों को सार्वजनिक संस्था घोषित करते हुए उन्हें सूचना का अधिकार (आरटीआई) के दायरे में लाने का आदेश दिया था, तब कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा और वामदलों से लेकर तक़रीबन सभी बड़े-छोटे दलों ने एक सुर में इसका विरोध किया था. पिछले सरकार केंद्र की भाजपा सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में कहा था कि सियासी दलों को आरटीआई के दायरे में लाने से उनके संचालन पर असर पड़ेगा और सियासी विरोधी भी इसका फ़ायदा उठा सकते हैं. सियासी दल भी इस बात को बख़ूबी जानते हैं कि चुनाव के दौरान कालाधन बाहर आ जाता है. कालेधन के मामले में सख़्ती होने से उनकी आमदनी पर भी इसका असर पड़ेगा. सियासी दलों के इसी विरोध की वजह से ही चुनाव आयोग और लॊ कमीशन के सुझावों की तमाम फ़ाइलें दफ़्तरों में पड़ी धूल फांक रही हैं. चुनाव आयोग ने सियासी दलों के लिए कई और भी सिफ़ारिशें की थीं, जिनमें सियासी दलों को आरटीआई का जवाब देने, उनके दान खातों का ऒडिट करने, एक उम्मीदवार के एक ज़्यादा सीटों से चुनाव लड़ने और निर्दलीय उम्मीदवार के चुनाव लड़ने आदि पर रोक लगाना शामिल है.

दरअसल, कालेधन से जुड़ा मुद्दा चुनावी सुधारों से भी जुड़ा हुआ है. अगर सरकार कालेधन के मामले में वाक़ई गंभीर है, तो उसे चुनाव सुधारों की दिशा में भी सख़्त फ़ैसले लेने होंगे. उसे चुनाव में धन-बल के अत्यधिक इस्तेमाल पर भी पाबंदी लगानी होगी. सियासी दलों को चाहिए कि वे भी कैश लेस चंदा लेना शुरू करें और साथ ही अपनी आमदनी को सार्वजनिक करें. विदेशों की तर्ज़ पर भारत को भी इस दिशा में कारगर क़दम उठाने होंगे. अमेरिका, ब्रिटेन्, जर्मनी, फ़्रांस, ऒस्ट्रेलिया और आयरलैंड आदि देशों ने सियासी दलों को मिलने वाले चंदे पर सख़्त नियम बनाए हुए हैं. सियासी दलों को अपनी आमदनी का ब्यौरा देना होता है. फ़्रांस में चुनाव का सारा ख़र्च सरकार ही वहन करती है.

बहरहाल, कालेधन पर पारदर्शिता बरतने की सारी ज़िम्मेदारी सिर्फ़ जनता की ही नहीं है, सरकार और सियासी दलों को भी अर्थव्यवस्था को पारदर्शी बनाने के अपने दायित्व को पूरी ईमानदारी के साथ निभाना होगा.



फ़िरदौस ख़ान
भारत दवाओं का एक ब़डा बाज़ार है. यहां बिकने वाली तक़रीबन 60 हज़ार ब्रांडेड दवाओं में महज़ कुछ ही जीवनरक्षक हैं. बाक़ी दवाओं में ग़ैर ज़रूरी और प्रतिबंधित भी शामिल होती हैं. ये दवाएं विकल्प के तौर पर या फिर प्रभावी दवाओं के साथ मरीज़ों को ग़ैर जरूरी रूप से दी जाती हैं. स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण के लिए गठित संसद की स्थायी समिति की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, दवाओं के साइड इफेक्ट की वजह से जिन दवाओं पर अमेरिका, ब्रिटेन सहित कई यूरोपीय देशों में प्रतिबंधित लगा हुआ है, उन्हें भारत में खुलेआम बेचा जा रहा है. समिति ने कहा कि इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि दवा बनाने वाली कंपनियों, कुछ चिकित्सकों और नियामक संगठनों के कई अधिकारियों के बीच मिलीभगत है. इसलिए कई दवाओं की जांच किए बिना उन्हें मानव परीक्षण के लिए मंज़ूरी दी जा रही है. इनकी वजह से आए दिन लोगों की मौत हो रही है. तीन विवादस्पद दवाएं पीफ्लोकेसील, होम्पलोकेसीन और स्परफ्लोकेसीन के तो दस्ताव़ेज तक ग़ायब हैं. स्थायी समिति के सदस्य डॉ. संजय जायसवाल का कहना है कि क्लीनिकल परीक्षण के मुद्दे पर हमने सरकार को स्थायी समिति की ओर से पत्र लिखकर दवा परीक्षण और घटिया दवाओं की बिक्री को अनदेखा करने पर सख्त ऐतराज़ जताया है.

क़ाबिले-ग़ौर है कि प्रतिबंधित दवाओं में शरीर को नुक़सान पहुंचाने वाले तत्व होते हैं. इसलिए विकसित देश इनकी बिक्री पर पाबंदी लगा देते हैं. ऐसे में दवा कंपनियां ग़रीब और विकासशील देशों की सरकारों पर दबाव बनाकर वहां अपनी प्रतिबंधित दवाओं के लिए बाज़ार तैयार करती हैं. इन दवाओं का परीक्षण भी इन्हीं देशों में किया जाता है. अंतराष्ट्रीय क्लीनिकल परीक्षण और शोध का बाज़ार तक़रीबन 20 अरब डॉलर का है. भारत में यह बाज़ार तक़रीब दो अरब डॉलर का है और दिनोदिन इसमें त़ेजी से ब़ढोत्तरी हो रही है. ज़्यादातर नई दवाओं का आविष्कार अमेरिका, जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस और स्विटजरलैंड जैसे विकसित देशों में होता है, लेकिन ये देश अपने देश के लोगों पर दवाओं का परीक्षण न करके ग़रीब और विकासशील देशों के लोगों को अपना शिकार बनाते हैं. इनमें एशियाई देश भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, श्रीलंका और अफ्रीकी देश शामिल हैं.

हालांकि क्लीनिकल परीक्षण से संरक्षण प्रदान करने और इसके नियमन के लिए 1964 में हेलसिंकी घोषणा-पत्र पर भारत समेत दुनिया के सभी प्रमुख देशों ने हस्ताक्षर किए थे. इस घोषणा-पत्र में छह बार संशोधन भी किए गए. घोषणा-पत्र में क्लीनिकल परीक्षण के लिए आचार संहिता का पालन करने के साथ यह सुनिश्चित करने की बात कही गई है कि लोगों पर इसका प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़े और क्लीनिकल परीक्षण से होने वाले मुना़फे से ऐसे लोगों को वंचित नहीं किया जाए, जिन पर दवाओं का परीक्षण किया गया हो. दवाओं का परीक्षण दबाव और लालच देकर नहीं कराया जाए, लेकिन इस पर असरदार तरीक़े से अमल नहीं किया जा रहा है. साल 2008 से 2011 के बीच भारत में क्लीनिकल परीक्षण के दौरान 2031 लोगों की मौत हुई है. 2008 में क्लीनिकल परीक्षण के दौरान 288 लोगों की जान जान चुकी है, जबकि 2009 में 637 लोगों, 2010 में 668 लोगों और 2011 में 438 लोगों की मौत हुई थी. हाल में मध्य प्रदेश में भोपाल गैस हादसे के पीडि़तों और इंदौर में कई मरीज़ों पर ग़ैर क़ानूनी तरीक़े से दवा परीक्षण के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सख्त ऐतराज़ जताते हुए मध्य प्रदेश सरकार और केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर जवाब देने को कहा था. एक ग़ैर सरकारी संगठन ने जनहित याचिका दायर कर मध्य प्रदेश समेत देश भर में ग़ैर क़ानूनी तरीक़े से दवा परीक्षण के आरोप लगाए हैं. भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन और भोपाल ग्रुप फॉर इंफॉर्मेशन एंड एक्शन के प्रतिनिधियों द्वारा ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया से सूचना का अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी में यह बात सामने आई थी कि भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर (बीएमएचआरसी) में 2004 से 2008 के बीच विभिन्न बीमारियों से पीड़ित 279 मरीज़ों पर दवाओं का परीक्षण किया गया है. इनमें से 13 मरीज़ों की दवा परीक्षण के बाद बीमारी बढ़ने से मौत हो गई. मरने वालों में से 12 गैस पीड़ित थे. देश भर में दवा परीक्षण के दौरान में चार साल में 2031 लोगों मौत हुई है. इनमें से केवल 22 मामलों में ही मुआवज़ा दिया गया है, जबकि बाक़ी लोगों के परिवार वाले आज तक इंसा़फ की राह देख रहे हैं.
दरअसल, हमारे देश की लचर क़ानून व्यवस्था का फायदा उठाते हुए दवा निर्माता कंपनियां ग़रीब मरीज़ों को मुफ्त में इलाज कराने का झांसा देकर उन पर दवा परीक्षण करती हैं. ग़रीब लोग ठगे जाने पर इनके खिला़फ आवाज़ भी नहीं उठा पाते. पिछले दिनों तक़रीबन 13 हज़ार दवाओं के परीक्षण भारत में किए गए. भारत प्रतिबंधित दवाओं का भी ब़डा बाज़ार है. विदेशों में प्रतिबंधित एक्शन 500, निमेसूलाइड और एनालजिन जैसी दवाएं भारत में ज़्यादा बिकने वाली दवाओं में शामिल हैं. फिनलैंड, स्पेन और पुर्तगाल आदि देशों ने निमेसूलाइड के जिगर पर हानिकारक प्रभाव की रिपोर्टों के मद्देनज़र इस पर पाबंदी लगाई हुई है. इतना ही नहीं, बांग्लादेश में भी यह दवा प्रतिबंधित है. इसके अलावा दवाओं के साइड इफेक्ट से भी लोग बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं. अनेक दवाएं ऐसी हैं जो फायदे की बजाय नुक़सान ज़्यादा पहुंचाती हैं. कुछ दवाएं रिएक्शन करने पर जानलेवा तक साबित हो जाती हैं, जबकि कुछ दवाएं मीठे ज़हर का काम करती हैं. क़ब्ज़ की दवा से पाचन तंत्र प्रभावित होता है. सर्दी, खांसी, ज़ुकाम, सरदर्द और नींद न आने के लिए ली जाने वाली एस्प्रीन में सालि सिलेट नामक रसायन होता है, जो श्रवण केंद्रीय के ज्ञान तंतु पर विपरीत प्रभाव डालता है. कुनेन का अधिक सेवन कर लेने पर व्यक्ति बहरा हो सकता है. ये दवाएं एक तरह से नशे का काम करती हैं. नियमित रूप से एक ही दवा का इस्तेमाल करते रहने से दवा का असर कम होता जाता है और व्यक्ति दवा की मात्रा में बढ़ोतरी करने लगता है. दवाओं में अल्कोहल का भी अधिक प्रयोग किया जाता है, जो फेफड़ों को नुक़सान पहुंचाती है.

अधिकांश दवाएं शरीर के अनुकूल नहीं होतीं, जिससे ये शरीर में घुलमिल कर खाद्य पदार्थों की भांति पच नहीं पाती हैं. नतीजतन, ये शरीर में एकत्रित होकर स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालती हैं. दवाओं में जड़ी-बूटियों के अलावा खनिज लोहा, चांदी, सोना, हीरा, पारा, गंधक, अभ्रक, मूंगा, मोती और संखिया आदि का इस्तेमाल किया जाता है. इसके साथ ही कई दवाओं में अफ़ीम, जानवरों का रक्त और चर्बी आदि का भी इस्तेमाल किया जाता है. सर्लें तथा एंटीबायोटिक दवाओं के लंबे समय तक सेवन से स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है. चिकित्सकों का कहना है कि मेक्साफार्म, प्लेक्वान, एमीक्लीन, क्लोरोक्लीन और नियोक्लीन आदि दवाएं बहुत ख़तरनाक हैं. इनके ज़्यादा सेवन से जिगर और तिल्ली बढ़ जाती है, स्नायु दर्द होता है, आंखों की रोशनी कम हो सकती है, लकवा मार सकता है और कभी-कभी मौत भी हो सकती है. दर्द, जलन और बुख़ार के लिए दी जाने वाली ऑक्सीफेन, बूटाजोन, एंटीजेसिक, एमीडीजोन, प्लेयर, बूटा प्रॉक्सीवोन, जेक्रिल, मायगेसिक, ऑसलजीन, हैडरिल, जोलांडिन और प्लेसीडीन आदि दवाएं भी ख़तरनाक हैं. ये ख़ून में कई क़िस्म के विकार उत्पन्न करती हैं. ये दवाएं स़फेद रक्त कणों को ख़त्म कर देती हैं. इनसे अल्सर हो जाता है तथा साथ ही जिगर और गुर्दे ख़राब हो जाते हैं. एचआईवी मरीज़ों को दी जाने वाली दवा इफेविरेंज से नींद नहीं आना, पेट दर्द और चक्कर आने लगते हैं. नेविरापिन से खून की कमी हो जाती है, आंख में धुंधलापन, मुंह का अल्सर आदि रोग हो जाते हैं. मिर्गी के लिए दी जाने वाली फेनिटोइन और कार्बेमेजीपिन से मुंह में छाले और खाने की नली में जख्म हो जाते हैं. डायबिटीज के लिए दिए जाने वाले इंसुलिन से खुजली की शिकायत हो जाती है. कैंसर के लिए दी जाने वाली पेक्लीटेक्सिल से मिर्गी के दौरे पड़ने लगते हैं और कीमोथैरेपी की दवा साइक्लोसपोरिन से शरीर में खून की कमी हो जाती है और त्वचा भी संक्रमित होती है. चमड़ी के संक्रमण के लिए दी जाने वाली एजीथ्रोमाइसिन से पेट संबंधी समस्या पैदा हो जाती है. एलर्जी के लिए दी जाने वाली स्रिटेजीन से शरीर में ददोड़े प़ड जाते हैं. मेक्लिजीन से डायरिया हो जाता है. एंटीबायोटिक सेफट्राइजोन और एम्पीसिलीन से सांस की नली में सूजन आ जाती है. नॉरफ्लोक्सेसिन और ओफ्लोक्सेसिन से खुजली हो जाती है. टीबी के लिए दी जाने वाली इथेमबूटोल से आंखों की नसों में कमज़ोरी आ जाती है. मानसिक रोगी को दी जाने वाली हेलोपेरीडॉल से शरीर में अकड़न, जोड़ों में दर्द और बेहोशी की समस्या पैदा हो जाती है. इसी तरह दर्द निवारक दवा आईब्रूफेन, एस्प्रिन, पैरासिटामॉल से शरीर में सूजन आ जाती है. एक र्फार्मास्टि के मुताबिक़, स्टीरॉयड और एनाबॉलिक्स जैसे डेकाडयराबोलिन, ट्राइएनर्जिक आदि दवाएं पौष्टिक आहार कहकर बेची जाती हैं, जबकि प्रयोगों ने यह साबित कर दिया है कि इनसे बच्चों की हड्डियों का विकास रुक जाता है. इनके सेवन से लड़कियों में मर्दानापन आ जाता है. उनका मासिक धर्म अनियमित या बहुत कम हो जाता है. उनके चेहरे पर दा़ढीनुमा बाल उगने लगते हैं और कई बार उनकी आवाज़ में भारीपन भी आ जाता है. जलनशोथ आदि से बचने के लिए दी जाने वाली चाइमारोल तथा खांसी रोकने के लिए दी जाने वाली बेनाड्रिल, एविल, केडिस्टिन, साइनोरिल, कोरेक्स, डाइलोसिन और एस्कोल्ड आदि दवाएं स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालती हैं. इसी तरह एंसिफैड्रिल आदि का मस्तिष्क पर बुरा असर पड़ता है. एक चिकित्सक के मुताबिक़, दवाओं के दुष्प्रभाव का सबसे बड़ा कारण बिना शारीरिक परीक्षण किए हुए दी जाने वाली दवाओं की निर्धारित मात्रा से अधिक ख़ुराक है. अनेक चिकित्सक अपनी दवाओं का जल्दी प्रभाव दिखाने के लिए प्राइमरी की बजाय थर्ड जेनेरेशन दे देते हैं, जो अक्सर कामयाब तो हो जाती हैं, लेकिन दूसरे असर छोड़ जाती हैं. दवाओं के साइड इफेक्ट भी होते हैं, जिनसे अन्य बीमारियां पैदा हो जाती हैं. जयपुर के सवाई मानसिंह मेडिकल कॉलेज के एडवर्स ड्रग रिएक्शन मॉनिटरिंग सेंटर (एएमसी) द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक़, पिछले डे़ढ साल में 40 दवाओं के साइड से 445 मरीज़ प्रभावित हुए हैं. इनमें गंभीर बीमारियां एचआईवी, कैंसर, डायबिटीज और टीबी से लेकर बु़खार और एलर्जी के लिए दी जाने वाली दवाएं शामिल हैं. मरीज़ों ने ये दवाएं लेने के बाद पेट दर्द, सरदर्द, एनीमिया, बु़खार, त्वचा संक्रमण और सूजन आदि की शिकायतें कीं.

स्वास्थय विशेषज्ञों का कहना है कि डॉक्टर को चाहिए कि वे दवा के बारे में मरीज़ को ठीक से समझाएं, मरीज़ की उम्र और उसके वज़न के हिसाब से दवा लिखे तथा दवा का कोई भी दुष्प्रभाव होने पर फौरन डॉक्टर को सूचित करे. मरीज़ों को चाहिए कि वे हमेशा डॉक्टर की सलाह से ही पर्ची पर दवा लें, अप्रशिक्षित लोगों और दवा विक्रेताओं के कहने पर किसी भी दवा का इस्तेमाल न करें. सरकार को भी चाहिए कि वह डॉक्टरों को सेंटर पर सूचना देने के लिए पाबंद करे, अस्पतालों में पोस्टर, बैनर और कार्यशालाओं के माध्यम से जागरूकता कार्यक्रम आयोजित करे. किसी भी दवा के दुष्प्रभाव मिलने पर उन्हें प्रतिबंधित करने की स़िफारिश की जाती है. किसी भी अस्पताल या सेंटर से दवा से दुष्प्रभाव और नुक़सान की रिपोर्ट को सीडी एससीओ नई दिल्ली को भेजा जाता है. यहां पर पूरे देश के सभी राज्यों से रिपोर्टें आती हैं. इसके बाद विशेषज्ञों की ड्रग टेक्नीकल एडवाइजरी बोर्ड (डीटीएबी) और ड्रग कंसल्टेटिव कमेटी के सदस्यों द्वारा इसका विस्तृत रूप से अध्ययन करने के बाद इसे ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीसीजीआई) को उस दवा की रिपोर्ट भेजी जाती है. इसके बाद केंद्र सरकार से मंज़ूरी लेकर ग़ज़ट नोटिफिकेशन करते हैं. देश में पहले ही स्वास्थ्य सेवाएं बदहाल हैं. राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की योजनाओं का लाभ भी जनमानस तक नहीं पहुंच पाया है. केंद्र सरकार के नियंत्रक महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट में भी केंद्र की योजनाओं को ठीक तरीक़े से लागू न किए जाने पर नाराज़गी जताई जा चुकी है. ऐसे में मरीज़ों के साथ खिलवा़ड किया जाना बेहद गंभीर और चिंता का विषय है. देश भर के सरकारी अस्पतालों में महिला चिकित्सकों की कमी है. डिस्पेंसरियों के पास अपने भवन तक नहीं हैं. आयुर्वेदिक डिस्पेंसरियां चौपाल, धर्मशाला या गांव के किसी पुराने मकान के एकमात्र कमरे में चल रही हैं. अधिकांश जगहों पर बिजली की सुविधा भी नहीं है. न तो पर्याप्त संख्या में नए स्वास्थ्य केंद्र खोले गए हैं और न मौजूदा सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा किया गया है. राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के मानकों के मुताबिक़ एक ऑपरेशन थियेटर, सर्जरी, सुरक्षित गर्भपात सेवाएं, नवजात देखभाल, बाल चिकित्सा, ब्लड बैंक, ईसीजी परीक्षण और एक्सरे आदि की सुविधाएं मुहैया कराई जानी थीं. इसके अलावा अस्पतालों में दवाओं की भी पर्याप्त आपूर्ति नहीं की जाती. स्वास्थ्य केंद्रों में हमेशा दवाओं का अभाव रहता है. चिकित्सकों का आरोप है कि सरकार द्वारा दवाएं समय पर उपलब्ध नहीं कराई जातीं. उनका यह भी कहना है कि डिस्पेंसरियों द्वारा जिन दवाओं की मांग की जाती है, अकसर उनके बदले दूसरी दवाएं मिलती हैं. घटिया स्तर की दवाएं मुहैया कराए जाने के भी आरोप लगते रहे हैं. ऐसे में सरकार की स्वास्थ्य संबंधी योजनाएं नौ दिन चले अढाई कोस नामक कहावत को ही चरितार्थ करती नज़र आती हैं. हालांकि स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण के लिए गठित संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट पर कार्रवाई करते हुए स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने दवाओं को मंज़ूरी प्रदान करने की प्रक्रिया में अनियमितता की जांच के लिए एक विशेषज्ञ पैनल का गठन किया है. स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा जारी बयान में कहा गया है कि तीन सदस्यीय समिति क्लीनिकल परीक्षण के बिना नई दवाओं को दी गई मंज़ूरी की वैज्ञानिक और वैधानिक आधार पर जांच करने के बाद सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपेगी. वह मंज़ूरी प्रक्रिया में प्रणालीगत सुधार के लिए सुझाव पेश करेगी और दवा नियंत्रक कार्यालय की कार्यप्रणाली को बेहतर करने के लिए भी सुझाव देगी.

स्वस्थ नागरिक किसी देश की सबसे बड़ी पूंजी होते हैं. हमें इस बात को समझना होगा. देश में स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने के साथ-साथ प्रतिबंधित दवाओं पर सख्ती से रोक लगाने और ग़ैर क़ानूनी रूप से मरीज़ों पर किए जा रहे दवा परीक्षणों पर भी रोक लगानी होगी. इसके अलावा दवाओं के उत्पादन को प्रोत्साहित करना होगा. इसके कई फ़ायदे हैं, पहला लोगों को रोजगार मिलेगा, दूसरा मरीज़ों को वाजिब क़ीमत में दवाएं मिल सकेंगी और तीसरा फायदा यह है कि मरीज़ विदेशी दवाओं के रूप में ज़हर खाने से बच जाएंगे.

इलाज से परहेज़ बेहतर है
लोगों को अपने स्वास्थ्य के प्रति काफ़ी सचेत रहने की ज़रूरत है, वरना एक बीमारी का इलाज कराते-कराते वे किसी दूसरी बीमारी का शिकार हो जाएंगे. शरीर में स्वयं रोगों से मुक्ति पाने की क्षमता है. बीमारी प्रकृति के साधारण नियमों के उल्लंघन की सूचना मात्र है. प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाए रखने से बीमारियों से छुटकारा पाया जा सकता है. प्रतिदिन नियमित रूप से व्यायाम करने तथा पौष्टिक भोजन लेने से मानसिक और शारीरिक संतुलन बना रहता है. यही सेहत की निशानी है. हार्ट केयर फाउंडेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. केके अग्रवाल का कहना है कि स्वस्थ्य रहने के लिए ज़रूरी है कि लोग अपनी सेहत का विशेष ध्यान रखें जैसे अपना ब्लड कोलेस्ट्रॉल 160 एमजी प्रतिशत से कम रखें. कोलेस्ट्ररॉल में एक प्रतिशत की भी कमी करने से हार्ट अटैक में दो फ़ीसदी कमी होती है. अनियंत्रित मधुमेह और उच्च रक्तचाप से हार्ट अटैक का खतरा बढ़ जाता है, इसलिए इन पर क़ाबू रखें. कम खाएं, ज़्यादा चलें. नियमित व्यायाम करना स्वास्थ्य के लिए अच्छा है. सोया के उत्पाद स्वास्थ्य के लिए फ़ायदेमंद होते हैं. खुराक में इन्हें ज़रूर लिया जाना चाहिए. जूस की जगह फल का सेवन करना बेहतर होता है. ब्राउन राइस पॉलिश्ड राइस से और स़फेद चीनी की जगह गुड़ लेना कहीं अच्छा माना जाता है. फाइबर से भरपूर खुराक लें. शराब पीकर कभी भी गाड़ी न चलाएं. गर्भवती महिलाएं तो शराब बिल्कुल न पिएं. इससे होने वाले बच्चे को नुक़सान होता है. साल में एक बार अपने स्वास्थ्य की जांच ज़रूर करवाएं. ज़्यादा नमक से परहेज़ करें.

फ़िरदौस ख़ान
नोटबंदी के फ़ैसले के बाद अब सरकार ने बेनामी संपत्तियों और सोने पर सर्जिकल स्ट्राइक करने का मन बनाया है, जो यह अनायास नहीं है. सरकार को पता है कि देश में काला धन नग़दी के रूप में कम, संपत्तियों और आभूषणों के रूप में ज़्यादा है. इसीलिए सरकार ने पिछले दिनों इन पर भी सख़्ती करने का फ़ैसला किया है. बेनामी संपत्तियों के ख़िलाफ़ तो कार्रवाई शुरू भी हो चुकी है. अब बारी सोना रखने वालों की है. ऐसी ख़बर है कि सरकार घरों में सोना रखने की सीमा तय कर सकती है. इस फ़ैसले से जुड़ी ख़बरें पहली बार शुक्रवार को सुनने को मिली थीं, हांकि रात तक वित्त मंत्रालय के आला अफ़सरों के हवाले से इस ख़बर को ग़लत भी साबित कर दिया गया था, मगर अभी तक इसकी आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई है. इसलिए यह सिरे से ख़ारिज नहीं किया जा सकता कि सरकार सोने के ख़िल्दाफ़ सर्जिकल स्ट्राइक नहीं करेगी. ऐसे में मानना चाहिए कि सरकार इस बाबत कभी भी ऐलान कर सकती है. एक तरह से देखा जाए, तो देश में नोटबंदी के फ़ैसले ए बाद रातों रात जिस तरह से सोने की बिक्री हुई है, वह यह साबित करती है कि देश में सोने के रूप में कालेधन का बड़ा भंडार है, जिसे बाहर लाना ज़रूरी है. नोटबंदी के जितना भी काला धन बाहर आया है, उससे भी ज़्यादा लोगों के घरों में है. अगर इसे करंसी में देखें, तो मुश्किल से दो-तीन फ़ीसद करंसी काले धन में शुमार होती है. हक़ीक़त में काला धन जायदाद के तौर पर रहता है. काला धन बेशक़ीमती हीरे-जवाहारात, सोना-चांदी, ज़मीन जायदाद, गगन चुंबी इमारतों, आलीशान कोठियों और बड़े-बड़े कारख़ानों में बदल जाता है, इनमें खप जाता है. सियासत में भी काले धन का ख़ूब इस्तेमाल होता है. यहां ये काला धन चंदे का रूप धर कर सामने आता है.

क़ाबिले-ग़ौर है कि पिछले आठ नवंबर को नोटबंदी के बाद लोगों ने अपने कालेधन को करेंसी से सोने में बदलने का काम शुरू कर दिया था. ख़बरें आ रही थीं कि लोगों ने कालेधन को खपाने के लिए 70 हज़ार रुपये तोला तक सोना ख़रीदा है. सोने और चांदी की बढ़ती मांग की वजह से इन धातुओं की क़ीमतों में बेतहाशा बढ़ोतरी हो गई. बड़े पैमाने पर सोने की ख़रीद की ख़बरों के बाद इस चर्चा ने ज़ोर पकड़ लिया था कि सरकार व्यक्तिगत स्तर पर सोना रखने की सीमा तय करने वाली है. ख़बर है कि फ़िलवक़्त घर में सोना रखने की सीमा तय करने के बारे में सरकार का कोई इरादा नहीं है. अगर सरकार वाक़ई कालेधन को लेकर संजीदा है,  तो उसे सोने की जमाख़ोरी पर पाबंदी लगानी चाहिए. लोग एक सीमा के बाद अपने कालेधन को सोने-चांदी के तौर पर ही जमा करते हैं. महंगाई के इस दौर में महिलाएं भी सोने-चांदी के ज़ेवरात की जगह नक़ली ज़ेवरात को ही पसंद करती हैं. लूटपाट की घटनाओं की वजह से भी सोने के ज़ेवरात पहनने का चलन कम हुआ है. शादी-ब्याह, तीज-त्यौहार जैसे ख़ास मौक़ों पर ही महिलाएं सोने के ज़ेवरात पहनाती हैं. अमूमन कालेधन को ठिकाने लगाने के लिए ही सोना ख़रीदा जाता है. छापा पड़ने पर करोड़ों का सोना पकड़े जाने की ख़बरें आए-दिन सामने आती रहती हैं.

नोटबंदी से पहले सरकार ने बेनाम जायदाद को लेकर सख़्त रवैया अपनाया था. पिछले दिनों गोवा में प्रधानमंत्री ने कहा था कि अब सरकार ऐसी संपत्तियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने जा रही है, जो किसी और व्यक्ति के नाम पर ख़रीदी गई है, क्योंकि बेनामी देश की संपत्ति है. बेनामी संपत्ति उस जायदाद को कहते हैं, जिसका ख़रीददार संपत्ति के लिए के लिए भुगतान तो ख़ुद करता है, लेकिन संपत्ति किसी और के नाम पर ख़रीदता है. ऐसी जायदाद बेनामी कहलाती है.  ये बेनामी जायदाद चल, अचल या वित्तीय दस्तावेज़ों के तौर पर हो सकती है. अमूमन लोग कालेधन को बेनामी जायदाद में लगाते हैं. क़ाबिले-ग़ौर है कि बीते अगस्त माह में संसद में बेनामी सौदा निषेध क़ानून को पारित किया गया था. यह इसके प्रभाव में आने के बाद मौजूदा बेनामी सौदे (निषेध) क़ानून 1988 का नाम बदलकर बेनामी संपत्ति लेन-देन क़ानून 1988 कर दिया गया है. यह क़ानून बीते एक नवंबर से लागू हो गया है. इस क़ानून की वजह से सरकार बेनामी जायदाद को ज़ब्त कर सकती है. इसके तहत बेनामी लेन-देन करने वाले को कम से कम एक साल क़ैद की सज़ा हो सकती है. इस मामले में दोषी व्यक्ति को ज़्यादा से ज़्यादा सात साल की क़ैद और जायदाद की बाज़ार क़ीमत का 25 फ़ीसद तक जुर्माना देने का प्रावधान है. बेनामी जायदाद के मामले में जानबूझकर ग़लत जानकारी देने पर कम से कम छह महीने की क़ैद की सज़ा भी हो सकती है. इस मामले में ज़्यादा से ज़्यादा पांच साल की क़ैद और जायदाद की बाज़ार क़ीमत का 10 फ़ीसद तक का जुर्माना भी हो सकता है.

देखा जाए, तो भारत सोना ख़रीदने वाले देशों में दसवें स्थान पर है. वर्ल्ड गोल्ड काउंसिल (डब्ल्यूसीजी) की तरफ़ से जारी एक रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि हुई है. इस रिपोर्ट के मुताबिक़ सबसे ज़्यादा सोने के भंडार वाले देशों में अमेरिका दुनिया में पहले स्थान पर है. अमेरिका के पास आठ हज़ार 133.5 टन सोना है, जबकि भारत के पास 1.6 टन सोना है. इस फ़ेहरिस्त में जर्मनी दूसरे, इटली तीसरे, फ़्रांस चौथे, रूस पांचवें, चीन छठे, स्विट्ज़रलैंड सातवें, जापान आठवें और नीदरलैंड नौवें स्थान पर है. इस लिहाज़ से देखा जाए, तो भारत में सोने का भंडार इस बात को साबित करता है कि यहां कालेधन के रूप में सोना बड़ी मात्रा में हो सकता है. लिहाज़ा अगर सरकार इस दिशा में क़दम उठाती है, तो वह एक साहसिक क़दम होगा, जिसका जनता निश्चित तौर पर स्वागत करेगी.

फ़िरदौस ख़ान
कहते हैं कि मुहब्बत और अक़ीदत का कोई मुल्क नहीं होता, कोई मज़हब नहीं होता. लेकिन जब बात सियासत की आ जाए, मुल्क की आ जाए, तो मुहब्बत और अक़ीदत के पाक जज़्बे पर सियासत ही भारी पड़ती है.  दरगाह आला हज़रत को लें. आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा ख़ान साहब, जिन्होंने दुनिया को मुहब्बत और भाईचारे का पैग़ाम दिया, अब उन्हीं की दरगाह पर उनके ज़ायरीनों को आने से रोका जा रहा है. दरअसल, भारत-पाक तनाव के मद्देनज़र बरेली में दरगाह आला हज़रत के प्रबंधन ने 24 नवंबर को शुरू हो रहे उर्स में पाकिस्तान के उलेमाओं को शामिल न करने का फ़ैसला किया है. हालांकि मौजूदा हालात को देखते हुए दरगाह प्रबंधन का यह फ़ैसला सही है.

बताया जा रहा है कि पाकिस्तान से छह उलेमाओं की जानिब से उर्स में शिरकत करने की गुज़ारिश आई है, लेकिन दरगाह प्रबंधन ने उन्हें उर्स में शामिल न करने का फ़ैसला किया है. पिछले साल दरगाह प्रबंधन ने पाकिस्तान के 12 उलेमाओं को बुलावा भेजा था, जिसमें से पांच उलेमाओं ने अपनी हाज़िरी दर्ज कराई थी. दरगाह आला हज़रत के उर्स प्रबंधन को ख़ौफ़ है कि अगर किसी ने उसके दावतनामे का ग़लत इस्तेमाल कर किसी कर वीज़ा हासिल कर लिया और देश में कोई वारदात कर दी, तो इससे जानमाल का नुक़सान तो होगा ही, साथ ही दरगाह की भी बदनामी होगी. वैसे भी पाकिस्तान लगातार संघर्षविराम का उल्लंघन कर रहा है, जिससे दोनों मुल्कों के बीच तनाव पैदा हो गया है. दरगाह प्रबंधन का यह भी मानना है कि देश में जब भी कोई आतंकी घटना होती है, तो यहां के मुसलमानों को शक की नज़र से देखा जाता है. इन्हीं सब हालात को देखते हुए दरगाह प्रबंधन को पाकिस्तान के उलेमाओं का बहिष्कार करना पड़ा. ग़ौरतलब है कि तीन दिन तक चलने वाले इस विश्व प्रसिद्ध दरगाह के उर्स में दुनिया भर से ज़ायरीन आते हैं. इस बार भी मॉरीशस, ब्रिटेन, दुबई, ओमान, दक्षिण अफ्रीका, फ्रांस, सऊदी अरब, नीदरलैंड, श्रीलंका, मलावी और जिम्बाब्वे से बड़ी तादाद में उलेमा शिरकत करने के लिए यहां आ रहे हैं.

क़ाबिले-ग़ौर है कि बरेली के सौदागरन मोहल्ले में स्थित दरगाह-ए-आला-हज़रत पर साल भर ज़ायरीनों की भीड़ लगी रहती है. आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा ख़ान फ़ाज़िले का जन्म 4 जून, 1856 को बरेली में हुआ था और 28 अक्टूबर, 1921 को वे इस दुनिया से पर्दा कर गए. लोग उन्हें आला हज़रत के नाम से पुकारते थे. उनके पूर्वज कंधार के पठान थे, जो मुग़लों के शासनकाल में हिंदुस्तान आए थे. आला हज़रत बहुत बड़े मुफ़्ती, आलिम, क़ुरान हाफ़िज़, लेखक, शायर, उलेमा और कई भाषाओं के जानकार थे. उन्होंने कई किताबें लिखीं, जिनमें अद्दौलतुल मक्किया है जिसे उन्होंने महज़ आठ घंटों में हरम-ए-मक्का में लिखा था. इस्लामी क़ानून पर उनकी एक और बेहतरीन किताब फ़तावा रज़्विया है.  

बहरहाल, सरहद पर भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव का असर दोनों देशों की अवाम और उनके रिश्तों पर भी पड़ने लगा है. इससे जहां अवाम रिश्तों में दूरियां बढ़ रही हैं, वहीं कारोबारियों को भी काफ़ी नुक़सान हो रहा है. शादी-ब्याह के लिए लोग अब पाकिस्तान में रहने वाले अपने रिश्तेदारों को बुलावा नहीं भेज रहे हैं और न ही वहां से शादी-ब्याह के दावतनामे आ रहे हैं. इस तनाव की वजह से बहुत से लोग अपनों से नहीं मिल पा रहे हैं. बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के आफ़ताब की पत्नी शाहीना कराची में अपनी बेटी के साथ वापसी का इंतज़ार कर रही है. दिसंबर 2012 में आफ़ताब की शादी कराची की रहने वाली शाहीना कौसर से हुई थी. शाहीना 2013 में मुज़फ़्फ़रपुर आई और वीज़ा बढ़ाते रहने के साथ लांग टर्म वीज़ा के लिए आवेदन दिया. तभी उसकी मां की बीमार हो गई और वह 22 फ़रवरी 2016 को अपनी बेटी को लेकर कराची चली गई. उसने 10 जुलाई को वीज़ा के लिए पाकिस्तान के भारतीय दूतावास में आवेदन दिया था, लेकिन उसे यह कहकर वीज़ा देने ने मना कर दिया गया कि दोनों देशों के बीच रिश्ते ठीक नहीं चल रहे हैं.

भारत-पाक तनाव की वजह से पाकिस्तान से होने वाला कारोबार भी ठप हो गया है. पाकिस्तान के कारोबारी अब भारत से कपास की ख़रीद नहीं कर रहे हैं, जिससे देश के तक़रीबन 82.2 करोड़ डॉलर के कपास उद्योग पर असर पड़ा है. पाकिस्तान भारतीय कपास कारोबारियों के लिए एक बड़ी मंडी है. भारत से कपास का आयात रुकने से पाकिस्तान में कपास के दाम बढेंगे. इससे अमेरिका, ब्राज़ील और अफ़्रीकी देशों के कपास निर्यातकों को ख़ासा मुनाफ़ा होगा. मौजूदा हालात को देखते हुए दोनों ही देशों के व्यापारी नये कारोबारी सौदे भी नहीं कर रहे हैं. साल 2015-16 में पाकिस्तान से भारत को निर्यात घटकर 40 करोड़ डॉलर रह गया, जबकि उससे पहले साल 2014-15 में निर्यात 41.5 करोड़ डॉलर का था. हालांकि इसी अवधि में भारत का पाकिस्तान को निर्यात 27 फ़ीसद बढ़कर 1.8 अरब डॉलर पहुंच गया.

हालांकि अमेरिका व दुनिया के कई अन्य देश चाहते हैं कि भारत और पाकिस्तान के बाच तनाव ख़त्म हो और हालात सामान्य हो जाएं. अलबत्ता, नफ़रत से किसी का भला नहीं होता. यह बात पाकिस्तान को भी समझनी होगी. उम्मीद की जानी चाहिए कि फिर से दोनों देशों के रिश्ते बेहतर होंगे,  मुहब्बत और अक़ीदत की जीत होगी.

राधा मोहन सिंह
भारत की आत्मा गांवों में बसती है, जिसमें जान भरने और अपनी मेहनत से सींचने का काम हमारे किसान भाई करते रहे हैं. देश में कृषि के विकास पर नजर डालें तो आजादी के समय या उसके बाद के दशकों में कृषि की दशा के साथ-साथ खाद्य उत्पादन भी दयनीय अवस्था में था. बढ़ती आबादी, कुदरत की मार, वैज्ञानिक साधनों एवं कृषि अनुसंधानों के अभाव में अनाज उत्पादन इतना कम था कि हम विदेश से अनाज आयात करने को मजबूर थे. आगे चलकर 1960 के दशक में देश में गेहूं और धान जैसे फसलों को केंद्र में रखते हुए वैज्ञानिक उपायों और कृषि अनुसंधानों के जरिए हरित क्रांति का सूत्रपात हुआ, लेकिन इसका दायरा पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के पहले से ही उन्नत जिलों और दक्षिण-पूर्व के तटीय क्षेत्रों तक ही सीमित रहा. बीच के दशकों में तात्काजलीन सरकारों द्वारा खेती के विकास और किसानों के कल्याण की बातें तो बहुत हुईं, यहां तक कि खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने की बात भी हुई, लेकिन उस रफ्तार से काम नहीं किया गया, जिससे कृषि का तीव्र विकास हो, हमारे किसान खुशहाल हों, उनकी आमदनी बढ़े और देश खाद्य सुरक्षा को पूरा करने में समर्थ हो.
माननीय प्रधानमंत्री जी के नेतृत्व में केंद्रीय कृषि एवं किसान मंत्रालय अपने किसान भाइयों के जीवन को खुशहाल बनाने के लिए कई स्तरों पर प्रयास कर रहा है. जब तक किसानों की आमदनी नहीं बढ़ेगी, उन्हें उनके उत्पाद का बेहतर मूल्य नहीं मिलेगा, तब तक उनका जीवन खुशहाल नहीं हो सकता. माननीय प्रधानमंत्री जी ने लक्ष्य रखा है कि मार्च 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करना है. इस दिशा में तेजी से कदम बढ़ाए जा रहे हैं. इसके लिए कृषि, सहकारिता एवं किसान विभाग के अपर सचिव की अध्यक्षता में एक अंतर मंत्रालय समिति का गठन किया गया है. इस समिति ने खरीफ 2016 से अपना काम शुरू कर दिया है. वर्ष 2021-22 तक किसानों/कृषि मजदूरों की आमदनी कैसे दोगुनी हो सकती है और इसके लिए कितनी विकास दर आवश्यक होगी, लक्ष्य पूर्ति के लिए क्या रणनीति हो एवं इससे जुड़े अन्य मुद्दों पर समिति राय देगी. हमारे किसान भाइयों की आमदनी का प्रमुख जरिया खेती-बाड़ी ही है. बढ़ती जनसंख्या की जरूरतों को पूरा करने के लिए फसल का उत्पादन बढ़ाना जरूरी है. इसके लिए केंद्र सरकार ने पूर्वोत्त र राज्यों में दूसरी हरित क्रांति का आगाज किया है. देश के सात राज्यों- असम, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ में दूसरी हरित क्रांति चलाई जा रही है. दूसरी हरित क्रांति सिर्फ अनाज, दलहन व तिलहन तक सीमित नहीं रहेगी. श्वेत क्रांति, नीली क्रांति में भी पूर्वी राज्यों में विकास और उत्पादन की अपार संभावनाएं हैं. सरकार ने दलहन उत्पादन के लिए किसानों को प्रोत्साहित करने के लिए न्यूवनतम समर्थन मूल्य बढ़ाया है, ताकि दलहन की आपूर्ति और खपत के बीच के अंतर को पाटा जा सके. कृषि पर दबाव कम हो और किसान भाइयों की आमदनी बढ़े, इसके लिए गौ पालन, मत्स्य पालन, मुर्गी पालन आदि को भी बढ़ावा दिया जा रहा है.
केवल फसल उत्पादन बढ़े, इतना ही पर्याप्त नहीं है. हमारे किसान भाइयों को फायदा तभी होगा जब उत्पादन बढ़ने के साथ ही उत्पादन लागत कम रहे, उसे उसकी फसल का बेहतर मूल्य मिले, बाजार की सुविधा हो, किसान को सही समय पर खाद व बीज मिले, प्राकृतिक आपदा की स्थिति में राहत का प्रबंध हो और उन्हें फसल बीमा मिले. केंद्र सरकार ने किसानों के कल्याण के लिए कई योजनाएं बनाई हैं, जैसे कि प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना, परंपरागत कृषि विकास योजना, कृषि वानिकी और नीम लेपित यूरिया, राष्ट्रीय कृषि बाजार, किसानों के लिए मोबाइल एप की शुरूआत, कृषि विज्ञान केंद्रों को मजबूत करना, केवीके पोर्टल की शुरूआत, कृषि शिक्षा एवं अनुसंधान को बढ़ावा देना, मेरा गांव, मेरा गौरव योजना की शुरूआत, सूखाग्रस्त क्षेत्रों के लिए दीन दयाल अंत्योबदय मिशन, किसान की जरूरतों के अनुरूप स्टूडेंट रेडी कार्यक्रम शुरू करना आदि कदम उठाए गए हैं. इसके अलावा पशुपालन, डेयरी और चिकित्सा शिक्षा में बदलाव भी किए गये हैं. कृषि के अलावा बागवानी कृषि पर सरकार का पूरा जोर है. बागवानी कृषि हमारे किसान भाइयों की आमदनी बढ़ाने में काफी सहायक है.
हालांकि, हमारी अधिकांश कृषि प्रकृति पर निर्भर है. कभी बाढ़, कभी सूखा, कभी ओला वृष्टि, तो कभी अन्य आपदा. अपने अन्नदाताओं की इसी परेशानी को ध्यान में रखते हुए हमारी सरकार ने ‘प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना’ शुरू की है, ताकि वे खुशहाल हों. सरकार अगले 2-3 वर्षों में 50 फीसदी किसानों को फसल बीमा के दायरे में लाना चाहती है. अभी मात्र 20 फीसदी किसानों को ही फसल बीमा के दायरे में लाया जा सका है. इस योजना की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि हमारे किसान भाई बीमा की कम प्रीमियम राशि चुकाकर अधिक से अधिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं. शेष भार सरकार खुद वहन करेगी. यहां तक कि 90 फीसदी से ज्यादा शेष भार होने पर भी सरकार द्वारा ही वहन किया जाएगा. किसानों को रबी फसलों के लिए 1.5 फीसदी और खरीफ के लिए 2 फीसदी की दर से प्रीमियम देना होगा. इतना ही नहीं, बीमा पर भुगतान की सीमा हटा दी गयी है. खेत से लेकर खलिहान तक किसानों को बीमा सुरक्षा दिए जाने का प्रावधान किया गया है.
प्रधानमंत्री जी ने लक्ष्य रखा है कि हमें प्रति बूंद ज्यादा फसल उगानी है. यह तभी संभव होगा जब प्रत्येक खेत को पानी मिले और सिंचाई की व्यवस्था हो. इसके लिए प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना शुरू की गयी है, जिसे मिशन मोड में चलाया जा रहा है, ताकि सूखे की समस्या का स्थायी समाधान ढूंढा जा सके. इसके लिए देश के सभी जिलों में जिला सिंचाई योजना तैयार करने के लिए राशि दी गई है.
किसान खेती करता था, लेकिन उसे यह पता नहीं होता था कि उसके खेत में कितनी दवा या उर्वरक देना है. इसके लिए सरकार ने देश में पहली बार सॉयल हेल्थ कार्ड स्कीम की शुरूआत की है. इस स्कीेम के तहत फसल उत्पादन के लिए उपयुक्त संस्कृति, पोषक तत्वों की मात्रा का प्रयोग करने और मृदा स्वास्थ्य और उर्वरता में सुधार के लिए देश के सभी 14 करोड़ किसानों को दो वर्ष में सॉयल हेल्थ कार्ड उपलब्ध कराया जाएगा.
देश में अभी तक यूरिया को लेकर मारामारी रहती थी, लेकिन यह पहला वर्ष है जब यूरिया की कोई कमी नहीं है. हमने अपने किसान भाइयों के लिए नीम लेपित यूरिया की व्यवस्था की. इससे किसानों को 100 किलोग्राम की जगह 90 किलोग्राम यूरिया का ही इस्तेमाल करना होगा, जिससे लागत मूल्य में कमी आने के साथ ही अब यूरिया का गलत उपयोग भी नहीं हो पाएगा.  साथ ही सरकार ने पोटाश व डीएपी के दाम भी कम किए हैं. इसके साथ ही मोदी सरकार ने जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए परंपरागत कृषि विकास योजना शुरू की है. 2016-17 के बजट में योजना के माध्यम से 3 साल में 5 लाख एकड़ क्षेत्र में जैविक खेती करने का लक्ष्य रखा गया है. सिक्किम पूरी तरह से जैविक खेती करने वाला राज्य बन गया है.
किसानों को उनके उत्पाद का सही मूल्य मिले, इसके लिए सरकार ने किसानों के लिए राष्ट्रीय कृषि बाजार शुरू किया है. अब कोई भी व्यक्ति अपने घर के नजदीक स्थित राष्ट्रीय कृषि बाजार केन्द्र में जाकर कम्प्यूटर पर देश भर की मंडियों पर नजर डाल सकता है. 14 अप्रैल, 2016 को डॉ. भीमराव अम्बेडकर की 125वीं जयंती पर ई-ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म का पायलट प्रोजेक्ट लांच कर दिया गया है. आजादी का सपना तब पूरा होगा, जब किसान होंगे खुशहाल और इस समय आठ राज्यों की 23 मंडियों में 11 जिंसों की खरीद-बिक्री शुरू हो रही है. अप्रैल 2016 से सितंबर 2016 के मध्य तक 200 मंडियों को ई-ट्रेडिंग सॉफ्टवेयर से जोड़ दिया जाएगा. फिर अक्तूबर, 2016 से 31 मार्च 2017 के मध्य तक 200 मंडियों को इसमें शामिल कर लिया जाएगा. मार्च 2018 तक देश की 585 मंडियों को एक-दूसरे से जोड़ दिया जाएगा.
किसानों को सही समय पर सूचना देने के कृषि एवं किसान कल्यामण मंत्रालय के कई पोर्टल हैं, जिनके जरिए हमारे किसान भाई सूचना प्राप्त कर सकते हैं. भारत सरकार का किसान पोर्टल- http://farmer.gov.in , भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की वेबसाइट http://www.icar.org.in, केवीके की विभिन्न गतिविधियों की जानकारी प्रदान करने एवं उसकी उच्च स्तर पर निगरानी एवं प्रबंधन हेतु बनाए गए पोर्टलhttp://kvk.icar.gov.in/ पर किसानों के लिए योजनाओं की जानकारी उपलब्ध है. विभिन्न तरह के मोबाइल एप मसलन किसान सुविधा एप, पूसा कृषि एप, भुवन ओलावृष्टि एप, फसल बीमा एप, एग्री मार्केट एप, पशु पोषण एप हैं. ये सभी एप्स   www.mkisan.gov.in  के अलावा गूगल प्ले स्टोर से डाउनलोड किए जा सकते हैं.
माननीय प्रधानमंत्री जी की स्टूमडेंट रेडी (Rural Entrepreneurship Awareness Development Yojana) वर्ष 2015 में शुरू हुई थी जो वर्ष 2016-17 से लागू होगी. कृषि स्नातकों में व्यावहारिक अनुभव तथा उद्यमिता कौशल प्राप्त करने के लिए अवसर प्रदान करने हेतु यह एक नया कार्यक्रम है. हमने कृषि विज्ञान के पाठ्यक्रम और विषय-वस्तु में सुधार के लिए गठित पांचवीं डीन कमेटी की सिफारिश को मंजूरी दी है. कृषि-विज्ञान के स्नातक स्तर के पाठ्यक्रम में भारी बदलाव किए गये हैं और इन्हें अब व्यावहारिक अनुभव के साथ व्यावसायिक और रोजगारोन्मुख बना दिया गया है. दो नये केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालयों की स्थापना की गयी है. कृषि विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों की संख्या में भी काफी इजाफा हुआ है. देश के संघीय ढांचे में राज्यों की अहम भूमिका है. कृषि राज्य का विषय है. कृषि व किसान कल्याण का लक्ष्य तभी पूरा हो सकता है, जब राज्यों का पूरा सहयोग मिले और यह मिलता भी रहा है. लक्ष्य प्राप्त करने के लिए भारत के सभी राज्यों को महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी. राज्य सरकार के प्रयासों में और तेजी लाने के उद्देश्य से केन्द्र द्वारा पोषित कई योजनाएं भी समय-समय पर लागू की गईं जिससे कि देश के कृषि उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि हो सके और किसान खुशहाल हो.
सरकार के उपरोक्त सभी कार्यक्रमों व प्रयासों का एकमात्र लक्ष्य है किसान भाइयों की आमदनी को 2022 तक दोगुना करना और इसके लिए जो भी कदम उठाना है, सरकार उसके लिए कृतसंकल्प है. इसी रास्ते पर आगे बढ़ते हुए आजाद भारत में खुशहाल किसान का लक्ष्य पाया जा सकता है.
(लेखक केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री हैं)

फ़िरदौस ख़ान
रेलमंत्री सुरेश प्रभु आए दिन रेलवे को लेकर लुभावने घोषनाएं करते रहते हैं, कभी बच्चों को विशेष सुविधाएं देने की, तो कभी महिलाओं को. वे उस सरकार के रेलमंत्री हैं, जो जनता को बुलेट ट्रेन का सब्ज़ ख़्वाब भी दिखाती रहती है. उसने इसे पूरा करने के लिए देश पर एक बड़े कर्ज़ को बोझ भी डाल दिया है. जनता की ख़ून-पसीने की कमाई से भारत को 50 साल तक जापान के 79 हजार करोड़ रुपये के क़र्ज़ की क़िस्तें चुकानी पड़ेंगी. भूखे को ताज की नहीं रोटी की ज़रूरत होती है. आख़िर ये बात सरकार की समझ में क्यों नहीं आती. या फिर अपने नाम बुलेट ट्रेन दर्ज करवाने के लालच में सरकार ने जनता को क़र्ज़ के बोझ तले दबा डाला? देश में रेल सुविधाओं की हालत कितनी बदतर है, सब जानते हैं. हालांकि सरकार यात्रियों को सुविधाएं मुहैया कराने के तमाम दावे करती है,  लेकिन हक़ीक़त यह है कि यात्री सुविधा के नाम पर सिर्फ़ किराया बढ़ जाता है, जबकि यात्रियों की परेशानी ज्यों की त्यों की बरक़रार रहती हैं. ऐसा इसलिए होता है कि जो काम पहले होना चाहिए, वह काम तो होता ही नहीं, जो बाद में होना चाहिए, उसे तरजीह दी जाती है. बहुत से काम किए ही नहीं जाते, सिर्फ़ ख़ानापूरी ही की जाती है.

देश की आबादी और यात्रियों की तादाद के हिसाब से रेलों की संख्या बहुत कम है. रेल के सामान्य कोच की संख्या भी नहीं बढ़ाई जाती. हालत यह है कि सामान्य डिब्बे यात्रियों से खचाखच भरे रहते हैं और इनमें पैर रखने तक की जगह नहीं होती. लोग रेल के शौचालयों तक में खड़े होकर सफ़र करते देखे जा सकते है. कितने ही यात्री डिब्बों के दरवाज़ों में लटक कर सफ़र करते हैं. यात्री जान की परवाह किए बिना रेल की छत पर भी चढ़ जाते हैं. कई बार हादसों में उनकी जान तक चली जाती है. इसके बावजूद रेलवे कोई बेहतर इंतज़ाम नहीं करता. महिला डिब्बे की हालत भी कुछ अच्छी नहीं है. इनमें पुरुष यात्री घुस जाते हैं, जिससे महिलाओं को काफ़ी परेशानी होती है. अगर कोई महिला यात्री उनका विरोध करती है, तो वे झगड़ना शुरू कर देते हैं. कई बार मामला गाली-गलौच तक पहुंच जाता है.  इसके अलावा महिला डिब्बा कभी आगे लगाया जाता है, तो कभी सबसे पीछे और कभी बीच में. ऐसी हालत में महिलाओं को डिब्बे तक पहुंचने में दिक़्क़त का सामना करना पड़ता है. इस चक्कर में उनकी रेल तक छूट जाती है.

रेलों में सुरक्षा व्यवस्था की हालत भी ख़स्ता ही है. महिलाओं की सुरक्षा का भी कोई ख़ास इंतज़ाम नहीं है. रेलों में आपराधिक घटनाएं होती रहती हैं.  कई मामलों में रेलवे कर्मी और आरपीएफ़ तक शामिल पाए गए हैं. किन्नर व अन्य मांगने वाले लोग भी मुसाफ़िरों को तंग करते देखे जा सकते हैं. पैसे न देने पर वे यात्रियों के साथ अभद्रता पर उतर आते हैं. इन लोगों पर रेलवे प्रशासन को कोई अंकुश नहीं है.

रेलवे में तत्काल टिकट का गोरखधंधा बदस्तूर जारी है. लोगों को शिकायत रहती है कि वे तत्काल टिकट लेने जाते हैं, तो दलालों के आगे उनकी एक नहीं चलती. लोगों को लाइन में लगने के बाद भी टिकट नहीं मिलता, जबकि दलाल काउंटर की बजाय सीधे बुकिंग क्लर्क के केबिन में जाकर टिकट बुक करा लेते हैं और बाद में इन्हें मुंह मांगे दाम पर बेचते हैं. कहने के लिए रेलवे ने सीसीटीवी कैमरे भी लगा रखे हैं, इसके बावजूद दलालों पर कोई शिकंजा नही कसा जाता. वेटिंग टिकट की समस्या से भी यात्री परेशान हैं. ऐसे में दलाल यात्रियों की मजबूरी का भरपूर फ़ायदा उठाते हैं.  दलाल पहले ही टिकट बुक करा लेते हैं, ऐसे में यात्रियों के हिस्से में आए टिकट वेटिंग लिस्ट में रहते हैं. टिकट कंफ़र्म कराने के लिए भी दलाल यात्रियों से अच्छे ख़ासे पैसे लेते हैं.

बर्थ के किराये को लेकर भी असमानता है. मसलन अगर कोई यात्री एसी 2 में सफ़र करता है, तो उसे साइड बर्थ मिल जाने पर भी वही किराया देना पड़ता है, जो इनर बर्थ के मुसाफ़िर देते हैं,  जबकि एसी 2 और एसी 3 दोनों की साइड बर्थ एक समान असुविधाजनक होती हैं. दोनों की ही साइड बर्थ का किराया एक सामान एसी 3 की तरह ही होना चाहिए.
इसके अलावा बुज़ुर्ग यात्रियों के लिए सुविधाजनक बर्थ होनी चाहिए. कंप्यूटरीकृत आरक्षण व्यवस्था में यह इंतज़ाम होना चाहिए कि 60 साल से ज़्यादा के सीनियर सिटिज़न को स्लीपर, एसी 1, 2, 3 सभी जगह लोअर बर्थ ही मिले. ऊपर की बर्थ में बुज़ुर्गों को काफ़ी दिक़्क़त होती है.

प्रीमियम तत्काल में रेलवे का टिकट हवाई जहाज़ से भी महंगा है. मसलन बीते सोमवार को भोपाल एक्सप्रेस से हबीबगंज से दिल्ली का एसी सेकेंड स्लास का किराया 4456  रुपये था, जबकि एयर इंडिया की फ़्लाइट का किराया 3679 रुपये था.
रेल यात्रियों को तीन से पांच गुना ज़्यादा किराया देना पड़ रहा है. जिस स्लीपर क्लास का साधारण किराया 265 रुपये लगता है, प्रीमियम तत्काल में उसके पांच गुना ज़्यादा यानी 1000 रुपये तक चुकाने पड़ सकते हैं. इसी तरह भोपाल एक्सप्रेस में 1500 का एसी टिकट 4500 रुपये में और पुष्पक एक्सप्रेस में 2300 का टिकट 7200 रुपये में यानी तीन गुना ज़्यादा दाम पर मिल रहा है. ग़ौरतलब है कि प्रीमियम तत्काल कोटा अक्टूबर 2014 में शुरू किया गया था. यह टिकट रेल का चार्ट बनने से पहले तक बुक कराया जा सकता है. यह टिकट सिर्फ़ ऑनलाइन ही बुक होता है. इसे रद्द करने पर पैसे नहीं मिलते. इसमें सामान्य तत्काल में स्लीपर किराये पर दूरी के हिसाब से 90 से 175 रुपये ज़्यादा देने पड़ते हैं. इसमें एसी 3 में साधारण किराये से 250 से 300 रुपये और एसी 2 में 300 से 400 रुपये ज़्यादा चुकाने पड़ते हैं. प्रीमियम तत्काल के दाम कम होती सीटों के हिसाब से बढ़ जाते हैं.

सरकार ने स्वच्छता का नारा देते हुए जनता पर कर के तौर पर आर्थिक बोझ डाल दिया है. इसके बाद भी रेलवे स्टेशनों और रेलों में गंदगी कम नहीं हुई. रेलवे स्टेशनों पर कूड़ेदान होने के बावजूद स्टेशनों पर यहां-वहां कूड़ा-कर्कट देखा जा सकता है. स्टेशनों पर पीने के पानी की भी व्यवस्था न के बराबर है.  कहीं पेयजल के प्याऊ बने हैं, तो उनका पानी पीने लायक़ नहीं होता. प्याऊ और उसके आसपास काफ़ी गंदगी होती है. लोग वहीं कुल्ला करते हैं, बर्तन धोते हैं. ऐसे में बोतल बंद पानी बेचने वाली कंपनियों को ख़ूब फ़ायदा होता है.
रेलवे की असली समस्याएं यही हैं, पर रेलमंत्री का इनकी तरफ़ ध्यान नहीं है. वे सिर्फ़ ऐसी घोषणाएं करते हैं, जिनसे उन्हें प्रचार मिले. दरअसल वे यात्रियों को सुविधाएं मुहैया कराने से ज़्यादा प्रचार पाने में यक़ीन करते हैं. किसी ने बच्चे के दूध के लिए उन्हें ट्वीट किया, तो उन्होंने चलती ट्रेन में दूध मुहैया करा दिया और वक़्ती वाहवाही लूट ली. क्या रेल मंत्री को मालूम नहीं कि यात्री हर रोज़ किन परेशानियों से जूझते हैं. यात्रियों को इन परेशानियों से निजात दिलाने के लिए उन्होंने क्या कार्रवाई की ? यह सही है कि बच्चों को दूध मिलना चाहिए. ट्वीट पर यात्रियों की समस्याओं का समाधान होना चाहिए. लेकिन सच यह भी है कि इससे पहले रेलगाड़ियों को वक़्त पर चलाया जाना चाहिए. उनमें साफ़-सफ़ाई की व्यवस्था होनी चाहिए और रेलयात्रियों को सुरक्षा भी मिले. उनकी सीट पर कोई क़ब्ज़ा न कर पाए. सामान्य डिब्बों की संख्या भी बढ़े. मगर ऐसा कुछ नहीं होता, रेल बजट में घोषणाएं करने के बाद भी. रेलमंत्री सुरेश प्रभु वही काम करते हैं, जिससे उनकी तारीफ़ हो. इसलिए रेलवे की समस्याएं बढ़ती चली जा रही हैं.


फ़िरदौस ख़ान
सियासत  के लिहाज़ से देश के सबसे महत्वपूर्ण प्रांत उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने में महज़ कुछ ही महीने रह गए हैं. लेकिन अभी तक कांग्रेस अपने संगठन को मज़बूती से खड़ा तक नहीं कर पाई है.  कभी यहां कांग्रेस जन-जन की पार्टी हुआ करती थी. आज हालत यह है कि पार्टी का बूथ स्तर का संगठन भी उतना मज़बूत नहीं है, जितना होना चाहिए. कांग्रेस को अगर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अच्छे नतीजे हासिल करने हैं, तो इसके लिए उसे बिना वक़्त गंवाये अपने संगठन को मज़बूत करना होगा.  उसे प्रदेश की बागडोर किसी युवा के हाथ में सौंपनी होगी. जतिन प्रसाद और आरपीएन सिंह भी यह ज़िम्मेदारी बख़ूबी निभा सकते हैं. ये दोनों ही पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी के क़रीबी माने जाते हैं.


हालांकि उत्तर प्रदेश चुनाव के मद्देनज़र कांग्रेस ने पार्टी की प्रदेश इकाई में बदलाव करना शुरू कर दिया है. हाल ही में पार्टी के प्रदेश प्रभारी मधुसूदन मिस्त्री को हटाकर ग़ुलाम नबी आज़ाद को प्रभारी बनाया गया है. पार्टी अध्यक्ष निर्मल खत्री को भी बदले जाने के आसार हैं. विधानमंडल के नेता प्रदीप माथुर का बदला जाना भी तय माना जा रहा है.
कांग्रेस में बग़ावत भी थमने का नाम नहीं ले रही है. कांग्रेस के छह विधायकों ने उत्तर प्रदेश राज्यसभा चुनाव में क्रॊस वोटिंग की.  विधायक संजय प्रताप जायसवाल, माधुरी वर्मा, विजय दुबे, मोहम्मद मुसलिम, दिलनवाज़ और नवाब काज़िम अली ख़ान ने पार्टी उम्मीदवार कपिल सिब्बल के ख़िलाफ़ मतदान किया. बाद में राहुल गांधी के निर्देश पर इन सभी विधायकों को निष्कासित कर दिया गया. राहुल गांधी के इस कड़े रुख़ से संगठन को मज़बूती मिलेगी. इस तरह पार्टी के प्रति ईमानदार और आस्थावान नेताओं और कार्यकर्ताओं में अच्छा संदेश जाएगा.

उत्तर प्रदेश चुनाव को लेकर कांग्रेस काफ़ी सतर्क है. चुनावी रण में अपने उम्मीदवारों के नाम तय करने में भी पार्टी काफ़ी सूझबूझ से काम लेना चाहती है. प्रदेश के सभी ज़िलों से 25 तक पैनल भेजे जाने तय किए गए हैं. पार्टी के प्रदेशाध्क्ष निर्मल खत्री ने पत्र जारी कर चुनाव लड़ेने वाले मज़बूत दावेदारों का पैनल ज़िलाध्यक्षों से मांगा हुआ है. जुलाई के पहले हफ़्ते में ही पैनल में से एक नाम पर मुहर लगा दी जाएगी. फिर अगस्त के पहले हफ़्ते में उम्मीदवारों की फ़ेहरिस्त जारी करने तैयारी होगी. फ़िलहाल सिटिंग विधायक वाली सीटों पर  पैनल नहीं बनवाया गया है. छह विधायकों के क्रॊस वोटिंग करने से पार्टी  कशमकश में  है. कांग्रेस विधायकों की सत्यनिष्ठा  को परखने के बाद ही अब टिकट तय करेगी.

कांग्रेस के लिए उत्तर प्रदेश की चुनावी नैया पार करना आसान नहीं है. पार्टी की मुश्किल यह है कि वह पिछले काफ़ी अरसे से उत्तर प्रदेश में कोई ख़ास करिश्मा नहीं दिखा पा रही है. पार्टी के पास नेताओं की एक बड़ी फ़ौज होने के बावजूद कोई ऐसा चेहरा नहीं है, पार्टी कार्यकर्ताओं में जोश भर सके. कांग्रेस के मुक़ाबले समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का संगठन ज़्यादा मज़बूत नज़र आता है. यहां कांग्रेस को ऐसे नेता की ज़रूरत है, जो सीधा जनमानस और ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं से संवाद क़ायम कर सके. यहां समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार पहले से ही तय है, लेकिन भाजपा और कांग्रेस अभी तक यह तय नहीं कर पाई है कि उनका मुख्यमंत्री पर का उम्मीदवार कौन होगा. समाजवादी पार्टी के मुख्यमंत्री आगामी विधानसभा चुनाव में पार्टी की तरफ़ से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे, इसमें कोई शक नहीं है. बहुजन समाज पार्टी में मायावती के अलावा कोई और इस पद का उम्मीदवार नहीं है. भारतीय जनता पार्टी में केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह हैं, जो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं. भाजपा अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य को भी मौक़ा मिल सकता हैं. वह पार्टी के पिछड़े वर्ग का चेहरा हैं. उत्तर प्रदेश में पिछड़े वर्ग का एक बड़ा वोट बैंक है. पहले कांग्रेस, फिर बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी पिछ्ड़े वर्ग के समर्थन की वजह से ही सत्ता तक पहुंच पाई हैं. इनके अलावा भाजपा की तरफ़ से मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी और सांसद योगी आदित्यनाथ के नाम भी लिए जा सकते है. मगर कांग्रेस की तरफ़ से अभी कोई ऐसा चेहरा सामने नहीं आया, जिसे मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया जा सके. क़ाबिले-ग़ौर है कि कभी उत्तर प्रदेश में एकछत्र राज करने वाली कांग्रेस में नारायण दत्त तिवारी के बाद कोई मुख्यमंत्री नहीं बन पाया. वह 1988-1989 तक मुख्यमंत्री रहे.

पिछले दिनों देश के पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में जिस तरह क्षेत्रीय दलों ने बेहतर प्रदर्शन किया है, उसे देखते हुए राष्ट्रीय दलों को यह बात समझ आ गई कि क्षेत्रीय दलों को हल्के में नहीं लिया जा सकता. देश में क्षेत्रीय दलों की महत्ता बढ़ी है. जनता भी अब क्षेत्रीय नेताओं को तरजीह देती है. बाहरी नेताओं के मुक़ाबले क्ष्रेत्रीय नेता अपने इलाक़े की समस्याओं को बेहतर समझते हैं. उन्हें मालूम होता है कि जनता क्या चाहती है. इसके अलावा अपने इलाक़े में उनकी हालत काफ़ी मज़बूत होती है. इलाक़े के कार्यकर्ताओं से भी उनका रिश्ता मज़बूत होता है.

अब कांग्रेस को अपनी चुनावी रणनीति बनाते वक़्त कई बातों को ज़ेहन में रखना होगा. उसे सभी वर्गों का ध्यान रखते हुए अपने पदाधिकारी तक करने होंगे. टिकट बंटवारे में भी एहतियात बरतनी होगी. विधानसभा स्तर के पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं को भी विश्वास में लेना होगा, क्योंकि जनता के बीच तो इन्हीं को जाना है. अगर कांग्रेस ने मुख्यमंत्री पद का मज़बूत उम्मीदवार चुन लिया और बूथ स्तर तक पार्टी संगठन को मज़बूत कर लिया, तो बेहतर नतीजों की उम्मीद की जा सकती है. राहुल गांधी को चाहिए कि वे पार्टी के आख़िरी कार्यकर्ता तक से संवाद करें. उनकी पहुंच हर कार्यकर्ता तक और कार्यकर्ता की पहुंच राहुल गांधी तक होनी चाहिए, फिर कांग्रेस को आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक पाएगा.

फ़िरदौस ख़ान
गंगा-जमुनी तहज़ीब हमारे देश की रूह है. संतों-फ़क़ीरों ने इसे परवान चढ़ाया है. प्रेम और भाईचारा इस देश की मिट्टी के ज़र्रे-ज़र्रे में है.  कश्मीर से कन्याकुमारी तक हमारे देश की संस्कृति के कई इंद्रधनुषी रंग देखने को मिलते हैं. प्राकृतिक तौर पर विविधता है, कहीं बर्फ़ से ढके पहाड़ हैं, कहीं घने जंगल हैं, कहीं कल-कल करती नदियां हैं, कहीं दूर-दूर तक फैला रेगिस्तान है, तो कहीं नीले समन्दर का चमकीला किनारा है. विभिन्न इलाक़ों के लोगों की अपनी अलग संस्कॄति है, अलग भाषा है, अलग रहन-सहन है और उनके खान-पान भी एक-दूसरे से काफ़ी अलग हैं. इतनी विभिन्नता के बाद भी सबमें एकता है, भाईचारा है, समरसता है. लोग एक-दूसरे के सुख-दुख में शामिल होते हैं. देश के किसी भी इलाक़े में कोई मुसीबत आती है, तो पूरा देश इकट्ठा हो जाता है. कोने-कोने से मुसीबतज़दा इलाक़े के लिए मदद आने लगती है. मामला चाहे, बाढ़ का हो, भूकंप का हो या फिर कोई अन्य हादसा हो. सबके दुख-सुख सांझा होते हैं.

लेकिन अफ़सोस की बात है कि पिछले दो सालों में कई ऐसे वाक़ियात हुए हैं, जिन्होंने सामाजिक समरस्ता में ज़हर घोलने की कोशिश की है, सांप्रदायिक सद्भाव को चोट पहुंचाने की कोशिश की है. अमीर और ग़रीब के बीच की खाई को और गहरा करने की कोशिश की है, मज़हब के नाम पर लोगों को बांटने की कोशिश की है, जात-पांत के नाम पर एक-दूसरे को लड़ाने की कोशिश की है. इसके कई कारण हैं, मसलन अमीरों को तमाम तरह की सुविधाएं दी जा रही हैं, उन्हें टैक्स में छूट दी जा रही है, उनके टैक्स माफ़ किए जा रहे हैं, उनके क़र्ज़ माफ़ किए जा रहे हैं. ग़रीबों पर नित-नये टैक्स का बोझ डाला जा रहा है. आए-दिन खाद्यान्न और रोज़मर्रा में काम आने वाली चीज़ों के दाम बढ़ाए जा रहे हैं. ग़रीबों की थाली से दाल तक छीन ली गई. हालत यह है कि अब उनकी जमा पूंजी पर भी आंखें गड़ा ली गई हैं. पाई-पाई जोड़ कर जमा किए गए पीएफ़ और ईपीफ़ पर टैक्स लगा कर उसे भी हड़प लेने की साज़िश की गई. नौकरीपेशा लोगों के लिए पीएफ़ और ईपीएफ़ एक बड़ा आर्थिक सहारा होता है. मरीज़ों को भी नहीं बख़्शा जा रहा है. दवाओं यहां तक कि जीवन रक्षक दवाओं के दाम भी बहुत ज़्यादा बढ़ा दिए गए हैं, ऐसे में ग़रीब मरीज़ अपना इलाज कैसे करा पाएंगे. इसकी सरकार को कोई फ़िक्र नहीं है.  
समाज में हाशिये पर रहने वाले तबक़ों की आवाज़ को भी कुचलने की कोशिश की जा रही है. आदिवासियों को उजाड़ा जा रहा है. जल, जंगल और ज़मीन के लिए संघर्ष करने वाले आदिवासियों को नक्सली कहकर प्रताड़ित करने का सिलसिला जारी है. हद तो यह है कि सेना के जवान तक आदिवासी महिलाओं पर ज़ुल्म ढहा रहे हैं, उनका शारीरिक शोषण कर रहे हैं. दलितों पर अत्याचार बढ़ गए हैं. ज़ुल्म के ख़िलाफ़ बोलने पर दलितों को देशद्रोही कहकर उन्हें सरेआम पीटा जाता है. गाय के नाम पर मुसलमान निशाने पर हैं. अपने हक़ के लिए आवाज़ उठाने पर उन्हें दहशतगर्द क़रार दे दिया जाता है.

आख़िर क्यों हो रहा है ये सब? क्या सिर्फ़ सत्ता के लिए, सत्ता बचाए रखने के लिए? शासन के मामले में समाज में चार तबक़े होते हैं. शासक वर्ग कहता है कि हमें सत्ता चाहिए, बदले में तमाम सुविधाएं लो.
व्यापारी वर्ग कहता है कि हमसे धन लो और तुम शासन करो, लेकिन हमें व्यापार करने दो, हमारी धन-दौलत की सुरक्षा करो. धार्मिक वर्ग कहता है कि तुम शासन करो, बस हमें सुख-सुविधाएं देते रहो, हम जनता को उलझाए रखेंगे, ताकि वह अपने अधिकारों के लिए आवाज़ न उठा सके. और बेचारी जनता वही देखती, सुनती और करती है, जो ये तीनों वर्ग उससे चाहते हैं.

दादरी के अख़्लाक कांड में जिस तरह एक बेक़सूर व्यक्ति पर बीफ़ खाने का इल्ज़ाम लगाकर उसका क़त्ल किया गया, उसने मुसलमानों के दिल में असुरक्षा की भावना पैदा कर दी. उन्हें लगने लगा कि वे अपने देश में ही महफ़ूज़ नहीं हैं. देश के कई हिस्सों में बीफ़-बीफ़ कहकर कुछ असामाजिक तत्वों ने समुदाय विशेष के लोगों के साथ अपनी रंजिश निकाली. जिस तरह मुस्लिम देशों में ईश निन्दा के नाम पर ग़ैर मुसलमानों को निशाना बनाया जाता रहा है, वैसा ही अब हमारे देश में भी होने लगा है.  दरअसल, भारत का भी तालिबानीकरण होने लगा है. दलितों पर अत्याचार के मामले आए-दिन देखने-सुनने को मिलते रहते हैं. आज़ादी के इतने दशकों बाद भी दलितों के प्रति लोगों की सोच में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है. गांव-देहात में हालात बहुत ख़राब हैं. दलित न तो मंदिरों में प्रवेश कर सकते हैं और न ही शादी-ब्याह के मौक़े पर दूल्हा घोड़ी पर चढ़ सकता है. उनके साथ छुआछूत का तो एक लंबा इतिहास है. पिछले दिनों आरक्षण की मांग को लेकर हरियाणा में हुए उग्र जाट आंदोलन ने सामाजिक समरसता को चोट पहुंचाई है. आरक्षण के नाम पर लोग जातियों में बट गए हैं. जो लोग पहले 36 बिरादरी को साथ लेकर चलने की बात करते थे, अब वही अपनी-अपनी जाति का राग आलाप रहे हैं.

अंग्रेज़ों की नीति थी- फूट डालो और राज करो. अंग्रेज़ तो विदेशी थे. उन्होंने इस देश के लोगों में फूट डाली और और एक लंबे अरसे तक शासन किया. उन्हें इस देश से प्यार नहीं था. लेकिन इस वक़्त जो लोग सत्ता में हैं, वे तो इसी देश के वासी हैं. फिर क्यों वे सामाजिक सद्भाव को ख़राब करने वाले लोगों का साथ दे रहे हैं. उन्हें यह क़तई नहीं भूलना चाहिए कि जब कोई सियासी दल सत्ता में आता है, तो वह सिर्फ़ अपनी विचारधारा के मुट्ठी भर लोगों पर ही शासन नहीं करता, बल्कि वह एक देश पर शासन करता है. इसलिए यह उसका नैतिक दायित्व है कि वह उन लोगों को भी समान समझे, जो उसकी विपरीत विधारधारा के हैं. सरकार पार्टी विशेष की नहीं, बल्कि देश की समूची जनता का प्रतिनिधित्व करती है. सरकार को चाहिए कि वह जनता को फ़िज़ूल के मुद्दों में उलझाए रखने की बजाय कुछ सार्थक काम करे. सरकार का सबसे पहला काम देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने और देश में चैन-अमन का माहौल क़ायम रखना है. इसके बाद जनता को बुनियादें सुवाधाएं मुहैया कराना है. बाक़ी बातें बाद की हैं. सुनहरे भविष्य के ख़्वाब देखना बुरा नहीं है, लेकिन जनता की बुनियादी ज़रूरतों को नज़रअंदाज़ करके उसे सब्ज़ बाग़ दिखाने को किसी भी सूरत में सही नहीं कहा जा सकता. बेहतर तो यह होगा कि चुनाव के दौरान जनता से किए गए वादों को पूरा करने का काम शुरू किया जाए.

फ़िरदौस ख़ान
कांग्रेस जन-जन की पार्टी है. कांग्रेस का एक गौरवशाली इतिहास रहा है. कांग्रेस नेताओं की क़ुर्बानियों को यह देश कभी भुला नहीं पाएगा. कांग्रेस नेताओं ने अपने ख़ून से इस धरा को सींचा है. महात्मा गांधी को भला कौन नहीं जानता. देश को आज़ाद कराने के लिए उन्होंने अपनी पूरी ज़िन्दगी क़ुर्बान कर दी. पंडित जवाहरलाल नेहरू, श्रीमती इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने इस देश को संवारा है. कांग्रेस इस देश की माटी में रची-बसी है. जनमानस में कांग्रेस की पैठ है. पीढ़ी-दर-पीढ़ी कांग्रेस की कट्टर समर्थक रही है. इसके बावजूद कांग्रेस ने केंद्र और कई राज्यों की सत्ता गंवाई है. आख़िर क्या वजह है कि कांग्रेस पर मर मिटने वाले लाखों-करोड़ों समर्थकों के बावजूद कांग्रेस सत्ता में वापस नहीं लौट पा रही है?

हालांकि पिछले लोकसभा चुनाव के मुक़ाबले हाल में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का जनाधार बढ़ा है. बाक़ी राज्यों में कांग्रेस ने बेहतर प्रदर्शन किया. आसाम में पिछ्ले लोकसभा चुनाव 29.6 फ़ीसद के मुक़ाबले कांग्रेस को 31.1 फ़ीसद मत मिले. इसी तरह तमिलनाडु में 4.3 के मुक़ाबले 6.6 फ़ीसद, पश्चिम बंगाल में 9.6 के मुक़ाबले 12.1 फ़ीसद और पुडुचेरी में 24.6 फ़ीसद के मुक़ाबले 30.6 फ़ीसद वोट मिले. भारतीय जनता पार्टी की बात करें, तो पिछले लोकसभा चुनाव के मुक़ाबले उसका जनाधार घटा है. हालांकि इसके बावजूद भाजपा आसाम में सरकार बनाने में कामयाब रही है.

भारतीय जनता पार्टी जिसका अपना कोई इतिहास नहीं है, सिवाय इसके कि उसके मातृ संगठन यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कथित कार्यकर्ता ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या की थी. इसके बावजूद भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आई. आख़िर ऐसी कौन-सी बात है जो लोकप्रिय पार्टी कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई और भारतीय जनता पार्टी ने सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया. इसे समझना बहुत आसान है. जो जनता किसी पार्टी को हुकूमत सौंपती है, वही जनता उससे हुकूमत छीन भी सकती है. कांग्रेस नेताओं को यह बात समझनी होगी.

देश की आज़ादी के बाद कांग्रेस सत्ता में आई और कुछ साल पहले तक कांग्रेस की ही हुकूमत रही है. हालांकि आपातकाल और ऒप्रेशन ब्लू स्टार और की वजह से कांग्रेस को नुक़सान भी हुआ. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने इसके लिए सार्वजनिक तौर पर माफ़ी मांगी और अवाम ने उन्हें माफ़ करके सत्ता सौंप दी. कांग्रेस ने फिर से लगातार दस साल तक हुकूमत की. इस दौरान कांग्रेस ने कुछ ऐसे काम किए, जिनसे विरोधियों को उसके ख़िलाफ़ दुष्प्रचार का मौक़ा मिल गया. मसलन इलेक्ट्रोनिक मीटर, जो तेज़ चलते हैं और बिल ज़्यादा आता है. रसोई गैस के सिलेंडरों की संख्या सीमित कर देना. भाजपा ने इसका जमकर फ़ायदा उठाया. कांग्रेस नेता मामले को संभाल नहीं पाए. हालांकि कांग्रेस ने मनरेगा, आर्टीआई और खाद्य सुरक्षा जैसी अनेक ऐसी कल्याणकारी योजनाएं दीं, जिसका सीधा फ़ायदा आम जनता को हुआ. मगर कांग्रेस नेता चुनाव में इनका कोई फ़ायदा नहीं ले पाए. यह कांग्रेस की बहुत बड़ी कमी रही, जबकि भाजपा जनता से कभी पूरे न होने वाले लुभावने वादे करके सत्ता तक पहुंच गई.

क़ाबिले-ग़ौर यह भी है कि सत्ता के मद में चूर कांग्रेस नेता पार्टी कार्यकर्ताओं और जनता से दूर होते चले गए. कांग्रेस की अंदरूनी कलह,  आपसी खींचतान, कार्यकर्ताओं की बात को तरजीह न देना उसके लिए नुक़सानदेह साबित हुआ. हालत यह थी कि अगर कोई कार्यकर्ता पार्टी नेता से मिलना चाहे, तो उसे वक़्त नहीं दिया जाता था. कांग्रेस में सदस्यता अभियान के नाम पर भी सिर्फ़ ख़ानापूर्ति ही की गई. इसके दूसरी तरफ़ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भाजपा को सत्ता में लाने के लिए दिन-रात मेहनत की. मुसलमानों और दलितों के प्रति संघ का नज़रिया चाहे, जो हो, लेकिन उसने भाजपा का जनाधार बढ़ाने पर ख़ासा ज़ोर दिया. संघ और भाजपा ने ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को पार्टी से जोड़ा. अगर कोई सड़क चलता व्यक्ति भी भाजपा कार्यालय चला जाए, तो उससे इस तरह बात की जाती है कि वह ख़ुद को भाजपा का अंग समझने लगता है.

पिछले दिनों उत्तराखंड में ख़ूब तमाशा हुआ. हालत यह हो गई कि अब पश्चिम बंगाल के कांग्रेस विधायकों को अपनी वफ़ादारी का हल्फ़नामा देना पड़ रहा है. पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के विधायको ने 100 रुपये के स्टाम्प पेपर पर लिखकर दस्तख़त किए हैं कि वे कांग्रेस पार्टी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी के प्रति निष्ठा रखेंगे और पार्टी के ख़िलाफ़ की जाने वाली किसी भी गतिविधि में शामिल नहीं होंगे. हल्फ़नामे में यह भी कहा गया है कि वे पार्टी के ख़िलाफ़ कोई नकारात्मक बात नहीं कहेंगे. ऐसे किसी काम को करने की ज़रूरत लगने पर वे पहले ही अपने पद से इस्तीफ़ा दे देंगे. इसमें यह भी लिखा है कि वे पार्टी के दिशा-निर्देशों से बंधे हुए हैं. बताया जा रहा है कि विधायकों से दस्तख़त कराने का फ़ैसला चुनाव के बाद हुई एक बैठक में लिया गया था. बैठक में कांग्रेस की राज्य इकाई के अध्यक्ष अधीर चौधरी, निर्वाचित विधायकों और जिलाध्यक्षों ने भाग लिया था. इस बारे में चौधरी का कहना है कि यह कोई बॉंड नहीं है. हमने किसी पर कोई दबाव नहीं डाला है कि अगर वे शर्तों को नहीं मानेंगे, तो उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई की जाएगी.  सभी ने पार्टी के प्रति वफ़ादारी दिखाने के लिए मर्ज़ी से दस्तख़त किए हैं. बहरहाल, कांग्रेस का यह क़दम उसके लिए फ़ायदेमंद साबित होगा, इसमें शक है.

वफ़ादारी काग़ज़ के टुकड़ों पर तय नहीं होती. यह तो दिल की बात है. कांग्रेस को अपने नेताओं, अपने सांसदों, अपने विधायकों, अपने कार्यकर्ताओं और अपने समर्थकों से ऐसा रिश्ता बनाना चाहिए, जिसे बड़े से बड़ा लालच तोड़ न पाए. इसके लिए कांग्रेस के नेताओं को ज़मीन पर उतरना पड़ेगा. सिर्फ़ सोनिया गांधी, राहुल गांधी या प्रियंका गांधी के कुछ लोगों के बीच चले जाने से कुछ नहीं होने वाला. कांग्रेस के सभी नेताओं को ह्क़ीक़त का सामना करना चाहिए. उन्हें चाहिए कि वे कार्यकर्ताओं की बात सुनें, जो लोग पार्टी के लिए दिन-रात मेहनत करते हैं, जब तक उनकी बात नहीं सुनी जाएगी, उन्हें तरजीह नहीं दी जाएगी, तब तक कांग्रेस अपना खोया मुक़ाम नहीं पा सकती.


फ़िरदौस ख़ान
देश इस वक़्त बहुत बुरे दौर से गुज़र रहा है. अवाम बेहाल है. उसे दोहरी मार पड़ रही है, एक क़ुदरत की मार और दूसरी सरकार की मार. सूखे के हालात बने हुए हैं. देश के बारह राज्यों में सूखे का क़हर बरपा है, जिनमें उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, गुजरात, ओड़िशा, झारखंड, बिहार, हरियाणा और छत्तीसगढ़ शामिल हैं. सूखे की वजह से इन राज्यों के 33 करोड़ लोग बुरी तरह प्रभावित हुए हैं. लोग पानी की बूंद-बूंद के लिए तरस रहे हैं. खेत सूख चुके हैं. नदियां सूखी पड़ी हैं. कुओं का पानी भी नदारद है, तालाब सूखे पड़े हैं, बावड़ियां भी सूखी हैं. नल भी सूने हैं. भूमिगत पानी भी बहुत नीचे चला गया है. किसानों की हालत तो और भी ज़्यादा बुरी है. किसान सूखे से हल्कान हैं. सूखे की वजह से उनकी खेतों में खड़ी फ़सलें सूख गई हैं. सूखे ने खेत तबाह कर दिए और किसानों को बर्बाद कर दिया. हालात इतने बदतर हो गए कि अन्नदाता किसान ख़ुद दाने-दाने को मोहताज हो गए. क़र्ज़ के बोझ तले दबे किसान अपने घरबार छोड़कर दूर-दराज के इलाक़ों में काम की तलाश में निकल रहे हैं. सूखे से बर्बाद हुए किसानों की ख़ुदकुशी करने की ख़बरें भी आ रही हैं.

इतना ही नहीं, रोज़-रोज़ लगातार आसमान छू रही महंगाई ने लोगों का जीना दुश्वार कर दिया है. पहली जून से फिर तेल कंपनियों ने पेट्रोल और डीज़ल के दाम में बढ़ोत्तरी कर दी, पेट्रोल के दामों में 2.58 रुपये और डीज़ल के क़ीमत में 2.26 रुपये की बढ़ोत्तरी की गई है. इससे पहले 16 मई को पेट्रोल और डीज़ल के दामों में इज़ाफ़ा किया गया था. तेल व गैस विपणन कंपनियों ने बिना सब्सिडी वाले रसोई गैस सिलेंडर के दाम में 21 रुपये की बढ़ोतरी की है. आईओसीएल के मुताबिक़ दिल्ली में बिना सब्सिडी वाला 14.2 किलो का रसोई गैस सिलेंडर अब 527.50 रुपये की जगह 548.50 रुपये का मिलेगा. एक महीने में रसोई गैस के दाम में लगातार दो बार में 39 रुपये का इज़ाफ़ा किया गया है. इससे पहले एक मई को इसकी क़ीमत 18 रुपये बढ़ाई गई थी.
कर योग्य सभी सेवाओं पर आधा फ़ीसद की दर से नया कृषि कल्याण उपकर (केकेसी) प्रभावी हो गया. इसके लागू होने से कुल सेवा कर बढ़कर 15 फ़ीसद हो गया है. इसकी वजह से रेस्त्रां में खाना खाना, मोबाइल फ़ोन का इस्तेमाल, हवाई और रेल यात्रा, बैंक ड्राफ़्ट, फ़ंड ट्रांसफ़र के लिए आईएमपीएस, एसएमएस अलर्ट, फ़िल्म देखना, माल ढुलाई, पंडाल, इवेंट, कैटरिंग, आईटी, स्पा-सैलून, होटल जैसी सेवाएं महंगी हो गईं. नई कार, घर, हेल्थ पॉलिसी ले रहे हैं या उसे रीन्यू करा रहे हैं, तो भी बढ़ा हुआ सेवा कर देना पड़ेगा. बढ़ती महंगाई की वजह से लोगों के पास पैसा नहीं है. ऐसे में वे ख़रीददारी नहीं कर पा रहे हैं. बाज़ार में भी मंदी छाई है. दुकानदार दिन भर ग्राहकों की बाट जोहते रहते हैं. छोटे काम-धंधे करने वालों के काम ठप्प होकर रह गए हैं. बेरोज़गारी कम होने की बजाय बढ़ रही है.

जब देश की अवाम त्राहिमाम-त्राहिमाम कर रही है, ऐसे में केंद्र की भाजपा सरकार दो साल पूरे होने पर जश्न मनाते हुए अपनी कथित उपलब्धियां गिनवा रही है. करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाए जा रहे हैं. भाजपा अपने जश्न को लेकर कांग्रेस ही नहीं, बल्कि अपने सहयोगी दल शिवसेना के निशाने पर भी है. शिवसेना का कहना है कि मोदी सरकार महंगाई पर लगाम लगाने, सीमा पार से आतंकवाद को रोकने और इस दौरान शुरू की गई योजनाओं को लोगों तक पहुंचाने में नाकाम रही है. शिवसेना के मुखपत्र ‘सामना’ में लिखे संपादकीय में शिवसेना ने प्रधानमंत्री पर अकसर विदेशी दौरे को लेकर निशाना साधते हुए कहा कि पहले उन्हें फ़ैसला करना होगा कि वह देश में रहते हैं या विदेश में. आम आदमी पार्टी का कहना है कि राजग के दो साल के शासनकाल में केवल ‘भ्रष्टाचार’ और ‘उपद्रव’ हुए. प्रधानमंत्री का कार्यालय महज़ ‘अंतरराष्ट्रीय ट्रैवल एजेंसी’ बनकर रह गया है. कांग्रेस नेता पी चिदंबरम ने भाजपा के दावों के ख़िलाफ़ 'प्रगति की थम गई रफ़्तार, दो साल देश का बुरा हाल' नाम की एक बुकलेट जारी की है. उनका कहना है कि सरकार नये रोज़गार देने और कृषि उत्पादन बढ़ाने में फ़ेल हो गई है. चिदंबरम ने कहा कि देश में मुद्रास्फ़ीति उफ़ान पर है और देश की आर्थिक हालत गंभीर है. ऐसे में सरकार का जश्न मनाना समझ से परे है.

आख़िर अवाम को किन चीज़ों की ज़रूरत होती है. देश में चैन अमन का माहौल हो, रहने को मकान हो, खाने को भोजन हो, पीने को पानी हो, रोज़गार हो.  अपना ख़ुद का काम-धंधा न हो, तो कोई नौकरी ही हो, ताकि ज़िन्दगी आराम से बसर हो सके. इसके साथ ही शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, सड़क, यातायात जैसी बुनियादी सुविधाएं जनता को चाहिए. पिछले दो साल में मज़हब और जाति के नाम पर समाज में वैमन्य बढ़ा है. देश का चैन-अमन प्रभावित हुआ है. इसका सीधा असर रोज़गार पर पड़ा है. दादरी के अख़्लाक हत्याकांड से मज़हबी कटुता बढ़ी, जबकि हरियाणा में जाट आरक्षण को लेकर चले आंदोलन की वजह से जातिगत वैमन्य बढ़ा. इसके अलावा बहुत से कारोबार भी ठप्प हो गए. राशन महंगा हुआ है. दालों की क़ीमत इतनी ज़्यादा बढ़ चुकी है कि ग़रीब और मध्य वर्ग की थाली में अब दाल नज़र नहीं आती. ईंधन और अन्य सुविधाएं भी बहुत महंगी हो चुकी हैं. हालत ये है कि अवाम का जीना दूभर होता जा रहा है.

तक़रीबन ढाई साल पहले जब भाजपा ने जनता को सब्ज़ बाग़ दिखाए थे, तब लोगों को लगता था कि देश में ऐसा शासन आएगा, जिसमें सब मालामाल होंगे, कहीं कोई कमी या अभाव नहीं होगा. मगर जब केंद्र में भाजपा की सरकार बन गई और महंगाई ने अपना रंग दिखाना शुरू किया, तो लोगों को लगा कि इससे तो पहले ही वे सुख से थे. अच्छे दिन आने वाले नहीं, बल्कि जाने वाले थे. ऐसा नहीं है कि अच्छे दिन नहीं आए हैं, अच्छे दिन आए हैं, लेकिन मुट्ठी भर लोगों के लिए.  और इन लोगों का जश्न मनाता तो बनता ही है.


फ़िरदौस ख़ान
उत्तराखंड में सिर्फ़ कांग्रेस की ही जीत नहीं हुई है, बल्कि यहां लोकतंत्र की जीत हुई है, जनता की भावनाओं की जीत हुई है. देवभूमि की जनता ने लोकतांत्रिक तरीक़े से कांग्रेस को चुना था, उसे सत्ता सौंपी थी. लेकिन विपक्ष में बैठी भारतीय जनता पार्टी ने साज़िश करके राज्य में राष्ट्रपति शासन लगवा दिया. कांग्रेस ने हार नहीं मानी और अपना संघर्ष जारी रखा. आख़िरकार जीत सच की ही हुई. राज्य में कांग्रेस फिर से सत्ता में आ गई है. इससे जहां कांग्रेस ख़ेमे में जश्न का माहौल है, वहीं भारतीय जनता पार्टी को बड़ा झटका लगा है और पार्टी की ख़ासी किरकिरी भी हुई है.

सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर कल राज्य विधानसभा में शक्ति परीक्षण कराया गया था, जिससे कांग्रेस सरकार की बहाली तय मानी जा रही थी, सिर्फ़ औपचारिक ऐलान बाक़ी था. सर्वोच्च न्यायालय ने आज शक्ति परीक्षण के नतीजे का ऐलान कर दिया. अदालत ने बताया है कि हरीश रावत के पक्ष में 33 विधायकों ने मतदान किया, जबकि भाजपा के पक्ष में 28 विधायकों ने अपना मत दिया. क़ाबिले-ग़ौर है कि शक्ति परीक्षण के दौरान अध्यक्ष गोविंद सिंह कुंजवाल को छोड़कर सभी 61 विधायकों ने हाथ उठाकर अपने वोट दर्ज कराए. हालांकि मतदान के बाद बाहर आकर कांग्रेस और भाजपा विधायकों ने साफ़ इशारा कर दिया था कि कांग्रेस के पक्ष में 33 और भाजपा के पक्ष में 28 मत पड़े हैं. कांग्रेस और भाजपा दोनों के विधायकों ने कहा कि दोनों दलों के एक-एक विधायक ने क्रॊस मतदान किया. घनसाली से भाजपा विधायक भीम लाल आर्य ने रावत के समर्थन में मतदान किया, जबकि सोमेश्वर से कांग्रेस विधायक ने विश्वास मत के विरोध में अपना वोट दिया था.

अदालत में केंद्र सरकार ने यू टर्न लेते हुए कहा कि राज्य से राष्ट्रपति शासन हटाया जाएगा. इसी के साथ मामले ख़त्म हो गया है, लेकिन अदालत ने कहा है कि मामले की सुनवाई आगे भी जारी रहेगी. अदालत ने केंद्र सरकार को राष्ट्रपति शासन हटाने की मंज़ूरी दे दी है. अदालत ने कहा कि राष्ट्रपति शासन हटने के बाद हरीश रावत बतौर मुख्यमंत्री अपना दायित्व संभाल सकते हैं. साथ ही राष्ट्रपति शासन हटाने के आदेश की प्रति अदालत में रखने का निर्देश दिया. इसके फ़ौरन बाद केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक हुई, जिसमें उत्तराखंड से राष्ट्रपति शासन हटाने की सिफ़ारिश करने का फ़ैसला लिया गया.
 ग़ौरतलब है कि राज्य में 27 मार्च को राष्ट्रपति शासन लगाया गया था, जिसे पहले नैनीताल उच्च न्यायालय की एकल पीठ और फिर दो न्यायाधीशों की पीठ ने हटाने और हरीश रावत को बहुमत साबित करने का निर्देश दिया था. इसे केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी थी. सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले का हल निकालने के लिए विधानसभा में शक्ति परीक्षण कराने का निर्देश दिया था. इस शक्ति परीक्षण में बहुजन समाज पार्टी और पीडीएफ़ ने हरीश रावत का साथ दिया.
हरीश रावत का कहना है कि वह सारी बातें भूलकर नई शुरुआत करेंगे. उन्होंने शक्ति परीक्षण में साथ देने के लिए बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मुख्यमंत्री का भी आभार जताया है.

राज्य में कांग्रेस की जीत पर पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने ख़ुशी ज़ाहिर करते हुए इसे लोकतंत्र की बताया है. कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा है कि भारतीय जनता पार्टी द्वारा राज्य की निर्वाचित सरकार को गिराने की हर मुमकिन कोशिश के बाद उत्तराखंड में लोकतंत्र की जीत हुई है. उम्मीद है कि इस नतीजे से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी पार्ती की हार से सबक़ मिल गया लेंगे. उन्होंने कहा कि देश की जनता हमारे पुरोधाओं द्वारा निर्मित लोकतंत्र नामक संस्था का क़त्ल बर्दाश्‍त नहीं करेगी. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी इसे उत्तराखंड में लोकतंत्र की जीत क़रार दिया है. 


अहमदाबाद (गुजरात). गुजरात की जेलों में 240 मुस्लिम बंदी हिरासत में हैं. इसके बाद 846 दोषी और 1724 अंडरट्रायल हैं. यह पूरे देश के मुस्लिम बंदियों की एक तिहाई संख्या है.
गृह मंत्रालय की ओर से जारी आंकड़ों से यह ख़ुलासा हुआ है. इन आकंड़ों के अनुसार भारत में 82190 मुसलमान जेल और पुलिस हिरासत में हैं. इनमें 21,550 दोषी, 59550 अंडरट्रायल और 658 लॉक अप में हैं. गुजरात में 58.6 लाख मुस्लिम हैं, जो कि वहां की आबादी का 9.7 फ़ीसद है. लेकिन मुस्लिम बंदियों की बात करें, तो यह देश का 36.5 प्रतिशत है. गुजरात के बाद दूसरा नंबर तमिलनाडु का है. यहां पर 220 मुस्लिम बंदी है. उत्‍तर प्रदेश में केवल 45 बंदी हैं, लेकिन यहां पर दोषियों की तादाद 5040 और 17858 अंडरट्रायल हैं. अहम बात है कि आतंकवाद से जूझ रहे जम्‍मू कश्‍मीर में भी केवल 35 बंदी हैं. यहां पर 153 दोषी क़रार और 1125 अंडरट्रायल मुस्लिम हैं.
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का आरोप है कि गुजरात में मुसलमानों को निशाना बनाकर जेल में डाला जा रहा है. आतंकवाद रोधी क़ानूनों का उनके ख़िलाफ़ इस्‍तेमाल किया जा रहा है. हालांकि सरकार और पुलिस ने इससे इनकार किया है. सरकार का कहना है कि किसी व्‍यक्ति को निशाना नहीं बनाया जा रहा.


अफ़रोज़ आलम साहिल
अल्पसंख्यक छात्रों के ऊंची तालीम हासिल करने की उम्मीदों पर पलीता लगता नज़र आ रहा है. इसकी अहम वजह अल्पसंख्यक मंत्रालय और यूजीसी (जो मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अंतर्गत है) की हीला-हवाली या यूं कह लें कि ज़बरदस्त लाल-फीताशाही है या फिर मोदी सरकार की सोची-समझी साज़िश...

देश के अलग-अलग विश्वविद्यालयों में एम.फिल व पीएचडी जैसी ऊंचे दर्जे की पढ़ाई कर रहे सैकड़ों छात्रों की शिकायत है कि यूजीसी ने अल्पसंख्यक छात्रों के लिए सबसे ज़रूरी यह फेलोशिप सितम्बर-अक्टूबर महीने से ही नहीं दी गई है, जिससे अल्पसंख्यक छात्रों की शोध-शिक्षा संकट में आ गई है. इस तरह से सरकार न सिर्फ़ अल्पसंख्यक छात्रों की उम्मीदों पर पानी फेर रही है, बल्कि उनकी ऊंची तालीम पाने की हसरत पर भी कुल्हाड़ी मार दी है.

अल्पसंख्यक मंत्रालय से मिले दस्तावेज़ बताते हैं कि सत्ता में आने के साथ ही मोदी सरकार की मंशा इस अहम फेलोशिप को बंद कर देने की रही. ये दीगर बात है कि इस बार इस फेलोशिप का बजट बढ़ाया ज़रूर गया है और सरकार इस फेलोशिप को मांग-प्रेरित बनाने की बात भी कर रही है.

स्पष्ट रहे कि इस फेलोशिप की शुरूआत यूपीए सरकार ने 2009 में किया था. शोध छात्रों का कहना है इस फेलोशिप के मिलने में कभी कोई समस्या नहीं हुई. लेकिन अब वही छात्र बताते हैं कि 2014 में केन्द्र में सत्ता बदलते ही फेलोशिप के मिलने में दिक्कतें आने लगीं हैं.

दस्तावेज़ बताते हैं कि साल 2009-10 में इस फेलोशिप के लिए सरकार ने 15 करोड़ का बजट रखा गया और 14.90 खर्च किया गया. साल 2010-11 में इस फेलोशिप का बजट बढ़ाकर डबल कर दिया गया. इस बार 30 करोड़ के बजट में 29.98 करोड़ रूपये छात्रों के फेलोशिप में बांट दी गई.

साल 2011-12 में बजट 52 करोड़ हुआ और 51.98 करोड़ खर्च किया गया. साल 2012-13 में बजट 70 करोड़ हो गया और 66 करोड़ की रक़म फेलोशिप में बांट भी दी गई.

साल 2013-14 की भी यही कहानी थोड़ी अलग रही. इस साल इस फेलोशिप के लिए बजट तो 90 करोड़ का रखा गया लेकिन रिलीज़ सिर्फ़ 50.11 करोड़ रखा गया और खर्च 50.02 करोड़ हुआ.

लेकिन साल 2014-15 में सरकार बदलते ही इस फेलोशिप का बजट घटा दिया गया. इस साल इस फेलोशिप की बजट फिर से 50 करोड़ कर दिया गया. लेकिन हैरानी की बात यह है कि रिलीज़ सिर्फ़ 1 करोड़ ही किया गया और उसमें भी खर्च महज़ 12 लाख रूपये ही हुए.

साल 2015-16 की कहानी तो और भी गंभीर है. इस साल इस फेलोशिप के लिए 49.83 करोड़ रखा गया, लेकिन जून 2015 तक के उपलब्ध आंकड़ें बताते हैं कि इस फेलोशिप पर सिर्फ़ 3 लाख रूपये ही खर्च किए गए हैं.

यह अलग बात है कि इस बार इस फेलोशिप पर मोदी सरकार थोड़ी मेहरबान नज़र आ रही है. साल 2016-17 के बजट में इस फेलोशिप का बजट बढ़ाकर 80 करोड़ किया है, लेकिन आगे इसका हश्र देखना दिलचस्प होगा.

आगे के आंकड़ें थोड़े और भी दिलचस्प हैं. अल्पसंख्यक मंत्रालय के आंकड़ें बताते हैं कि सिर्फ़ 756 शोध-छात्रों का चयन किया गया, जिसमें सिर्फ़ 494 मुस्लिम छात्रों को चयनित किया गया है. वहीं इस सूची में 90 क्रिश्चन, 65 सिक्ख, 25 बौद्ध, 20 जैन और 02 पारसी समुदाय से ताल्लुक रखने वाले छात्र हैं.

हालांकि इसके पहले के दस्तावेज़ बताते हैं कि पहले इस फेलोशिप के लिए अधिक मुस्लिम छात्रों का चयन किया जाता था. उदाहरण के तौर पर साल 2011-12 में 533, साल 2010-11 में 532 और 2009-10 में 541 मुस्लिम शोध-छात्रों का चयन किया गया था.

सवाल यह है कि मुस्लिम छात्रों के साथ ही ये भेदभाव क्यों हो रहा है? ये इकलौती ऐसी स्कीम नहीं है. ऐसी कई स्कीमों में अल्पसंख्यक बिरादरी से ताल्लुक़ रखने वाले छात्रों ने यही अंजाम देखा है. क्या यह सोची-समझी रणनीत का हिस्सा है? अगर ये सच है तो अल्पसंख्यकों की पैरोकारी करने वाले नेता व पार्टियों को चाहिए कि वो जल्द से जल्द इस मुद्दे को संसद में उठाए ताकि अपने कैरियर की फ़िक्र कर रहे छात्रों के उम्मीदों को ख़त्म होने से बचाया जा सके.

हालांकि ऐसा नहीं है कि इस मुद्दे पर राजनीति नहीं हुई है. राज्यसभा में भी यह मुद्दा उठ चुका है, लेकिन वहां भी यह मुद्दा सिर्फ़ सवाल-जवाब में उलझा रहा.

महत्वपूर्ण सवाल यह है कि ‘सबका साथ –सबका विकास’ के नारे के साथ जो सरकार अल्पसंख्यकों के शैक्षिक सशक्तिकरण के लाख दावे कर रही है. अब वही सरकार अल्पसंख्यक छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ क्यों कर रही है?

यह कितना अजीब है कि एक तरफ़ तो सरकार अल्पसंख्यकों के शैक्षिक उत्थान की बातें कर रही है, मेक इन इंडिया और स्टार्टअप इंडिया जैसे सपने दिखा रही है, दूसरी तरफ़ छात्रों को मिलने वाले इस महत्वपूर्ण फेलोशिप पर गलत नज़रिए के साथ बंद करने की तैयारी कर रही है.


फ़िरदौस ख़ान
ग़रीब हमेशा अपनी मेहनत की कमाई खाता है. वह किसी से क़र्ज़ लेगा, तो ब्याज़ समेत उसे देगा. ग़रीबों का क़र्ज़ से बहुत पुराना नाता है. घर बनवाना हो, छोटा-मोटा काम-धंधा शुरू करना हो, खेती-किसानी के लिए बीज-खाद ख़रीदनी हो, बैल ख़रीदना हो, शादी-ब्याह हो या फिर इलाज के लिए पैसे की ज़रूरत हो, अमूमन वह अपनी तमाम बड़ी ज़रूरतें क़र्ज़ लेकर ही पूरी करता है. महंगाई के दौर में दिन-रात मेहनत करके वह जो कमाता है, उसमें दो वक़्त की रोटी मिलना भी मुश्किल होता जा रहा है. ऐसे में दूसरे ख़र्च वह कहां से पूरे करेगा. मजबूरन उसे क़र्ज़ लेना पड़ता है. कभी वह किसी साहूकार से क़र्ज़ लेता है, तो कभी किसी बैंक से. साहूकार से लिया क़र्ज़ कभी पूरा नहीं होता. ब्याज़ पर ब्याज़ यानी चक्रवृद्धि ब्याज़ के चंगुल में फंसा व्यक्ति बरसों क़र्ज़ चुकाता रहता है, लेकिन क़र्ज़ है कि कभी ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेता. क़र्ज़ पर उठाई गई रक़म का ब्याज़ चुकाने में उसकी ज़िन्दगी बीत जाती है. पीढ़ी-दर-पीढ़ी क़र्ज़ क़ायम रहता है. एक व्यक्ति क़र्ज़ लेता है और उसकी आने वाली पीढ़ियां क़र्ज़ चुकाने में अपनी ज़िन्दगी बिता देती हैं. साहूकर के क़र्ज़ के चक्कर में व्यक्ति का घर, पशु और खेत सब बिक जाते हैं. आज़ादी के बाद सरकार ने लोगों को साहूकारों के चंगुल से बचाने के लिए बैंकों के ज़रिये क़र्ज़ देना शुरू किया. लेकिन ग़रीबों की ज़िन्दगी में कोई ज़्यादा बदलाव नहीं आया. साहूकार भी ग़रीबों को उनके गहने, घर, खेत वग़ैरह गिरवी रखकर क़र्ज़ देते हैं और बैंक भी ठीक ऐसा ही करते हैं. क़र्ज़ न चुकाने पर साहूकार क़र्ज़दार की गिरवी रखी चीज़ें और जायदाद हड़प कर जाता है और बैंक भी इससे कुछ ज़्यादा अलग नहीं करते. बैंक क़र्ज़दार की जायदाद नीलाम करके अपनी रक़म की भरपाई कर लेते हैं. ऐसे में उसे फिर कभी दोबारा क़र्ज़ नहीं मिल सकता. इतना ही नहीं क़र्ज़ न चुकाने पर क़र्ज़दार सज़ा भी हो सकती है, जिसमें जुर्माना और क़ैद दोनों ही शामिल है.

जब बारिश और ओलों के क़हर या किसी अन्य वजह से किसानों की लहलाती फ़सलें बर्बाद हो जाती हैं, तो क़र्ज़ के बोझ तले दबे किसान मौत को गले लगा लेते हैं. हर साल किसानों द्वारा ख़ुदकुशी करने के मामले सामने आते हैं. किसानों पर किसी को कोई रहम नहीं आता. कोई उनके क़र्ज़ माफ़ नहीं करता, भले ही वे अपनी जान से चले जाएं.

लेकिन अमीरों की बात अलग है. उन्हें सब माफ़ है. देश के अमीर घराने सारी उम्र ऐश की ज़िन्दगी गुज़ारते हैं. अपने बर्थ डे पर करोड़ों रुपये ख़र्च करते हैं, लेकिन क़र्ज़ नहीं चुकाते. इनका बाल-बाल क़र्ज़ में डूबा होता है. सरकार ऐसे उद्योगपतियों के अरबों रुपये के क़र्ज़ ख़ुशी-ख़ुशी माफ़ कर देती है. और वे फिर से नया क़र्ज़ लेकर ऐश की ज़िन्दगी बसर करते हैं.  रिज़र्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने बैंकों के डूबे क़र्ज़ पर चिंता ज़ाहिर करते हुए अपनी शानो-शौकत पर करोड़ों रुपये ख़र्च करने वालों पर तीखी टिप्पणी की थी. उन्होंने किंगफ़िशर एयरलाइंस के मालिक विजय माल्या द्वारा बर्थडे पार्टी में जमकर ख़र्च करने पर बिना नाम लिए कटाक्ष करते हुए कहा था कि गंभीर रूप से क़र्ज़ में डूबे होने के बावजूद ऐसे लोगों को जन्मदिन की बड़ी-बड़ी पार्टियों जैसे फ़िज़ूलख़र्च से बचना चाहिए. इससे ग़लत संदेश जाता है.

एक अंग़्रेज़ी अख़बार को सूचना के अधिकार के तहत रिजर्व बैंक से मिली जानकारी के मुताबिक़
पिछले तीन वित्तीय सालों में (मार्च, 2015 तक) में सार्वजनिक क्षेत्र के 29 बैंकों ने बड़ी कंपनियों के 1,14,182 करोड़ रुपये का क़र्ज़ माफ़ किया है. इनमें से 85 फ़ीसद क़र्ज़ सिर्फ़ पिछले साल के दौरान माफ़ किया गया है. यह रक़म इन तीन सालों के पहले के नौ वित्त वर्षों में माफ़ की गई रक़म से बहुत ज़्यादा है. मार्च, 2012 में कुल 15,551 करोड़ रुपये ख़राब क़र्ज़ के तौर पर फंसे थे, जो पिछले साल बढ़कर 52,542 करोड़ रुपये हो गए थे. साल 2004 से 2012 के बीच इस ख़राब क़र्ज़ में बढ़ोतरी की दर महज़ चार फ़ीसद थी, जो साल 2013 से 2015 के बीच 60 फ़ीसद तक पहुंच गई. इससे पता चलता है कि सरकारी बैंक उद्योगपतियों पर किस हद तक मेहरबान हैं.

इस वक़्त देश के सरकारी बैंकों की हालत बहुत ख़राब है. इसकी सबसे बड़ी वजह है, ख़राब क़र्ज़ (एनपीए) यानी ऐसे क़र्ज़ जिनके मिलने की कोई उम्मीद नहीं है. सरकारी बैंकों में एनपीए (नॉन परफ़ॊर्मिंग एसेट) बढ़कर 4.04 लाख करोड़ रुपये हो गया है. क़र्ज़ डुबोने वालों में 23.70 फ़ीसद बड़े उद्योगों की हिस्सेदारी है, जबकि 31.5 फ़ीसद मझोले उद्योग, 16.8 फ़ीसद छोटे उद्योग, 12.3 फ़ीसद कुटीर उद्योग, 7.9 फ़ीसद कृषि से संबंधित क़र्ज़ और  7.80 फ़ीसद क़र्ज़ शामिल हैं. बैंकों का कुल एनपीए चार लाख करोड़ रुपये का है. इसमें से विलफुल डिफ़ॊल्टर पर 64 हज़ार करोड़ रुपये का क़र्ज़ बक़ाया हैं. देश के 29 सरकारी बैंकों ने 1.14 लाख करोड़ का क़र्ज़ डूबा हुआ मान लिया है. ये क़र्ज़ पिछले तीन सालों में डूबे हैं. पिछले 10 साल के डूबे क़र्ज़ का 50 फ़ीसद पिछले तीन सालों में डूब गया. सितंबर 2015 तक बैंकों का एनपीए 1.74 लाख करोड़ रुपये था. 31 मार्च 2015 तक बैंकों ने 7035 डिफ़ॊल्ट घोषित किए हैं. एक हज़ार मामलों के साथ एबीआई में सबसे ज़्यादा क़र्ज़ डूबे हैं. बैंकों के कुल एनपीए का 40 फ़ीसद यानी 1.20 लाख करोड़ सिर्फ़ 30 बड़े देनदारों ने ही डुबोये हैं.

सरकार अपना वित्तीय घाटा पूरा करने के लिए जनता पर तरह तरह के टैक्स लगाती है, जिससे महंगाई और ज़्यादा बढ़ जाती है. अमीर घराने जिन पैसों से ऐश करते हैं, वे आम जनता से करों के तौर पर वसूला गया पैसा होता है. सरकार को चाहिए कि वे जनता के ख़ून-पसीने की कमाई को अमीरों पर न लुटाये. अगर सरकार को क़र्ज़ माफ़ ही करने हैं, तो उन ग़रीबों और किसानों के क़र्ज़ माफ़ किए जाने चाहिए, जिनके पास खाने तक को नहीं है, जो ग़रीबी और बदहाली से परेशान होकर आत्महत्याएं करने पर मजबूर हैं. क़र्ज़ उन्हीं के माफ़ होने चाहिए, जिन्हें क़र्ज़ माफ़ी की ज़रूरत है.


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