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फ़िरदौस ख़ान
बहुत कम लोग जानते हैं कि सिने जगत की मशहूर अभिनेत्री एवं ट्रेजडी क्वीन के नाम से विख्यात मीना कुमारी शायरा भी थीं. मीना कुमारी का असली नाम महजबीं बानो था. एक अगस्त, 1932 को मुंबई में जन्मी मीना कुमारी के पिता अली बक़्श पारसी रंगमंच के जाने-माने कलाकार थे. उन्होंने कई फ़िल्मों में संगीत भी दिया था. उनकी मां इक़बाल बानो मशहूर नृत्यांगना थीं. उनका असली नाम प्रभावती देवी था. उनका संबंध टैगोर परिवार से था यानी मीना कुमारी की नानी रवींद्र नाथ टैगोर की भतीजी थीं, लेकिन अली बक़्श से विवाह के लिए प्रभावती ने इस्लाम स्वीकार कर लिया था. मीना कुमारी ने छह साल की उम्र में एक फ़िल्म में बतौर बाल कलाकार काम किया था. 1952 में प्रदर्शित विजय भट्ट की लोकप्रिय फ़िल्म बैजू बावरा से वह मीना कुमारी के रूप में जानी गईं. 1953 तक मीना कुमारी की तीन हिट फ़िल्में आ चुकी थीं, जिनमें दायरा, दो बीघा ज़मीन एवं परिणीता शामिल थीं. परिणीता से मीना कुमारी के लिए एक नया दौर शुरू हुआ. इसमें उनकी भूमिका ने भारतीय महिलाओं को ख़ासा प्रभावित किया था. इसके बाद उन्हें ऐसी फ़िल्में मिलने लगीं, जिनसे वह ट्रेजडी क्वीन के रूप में मशहूर हो गईं. उनकी ज़िंदगी परेशानियों के दौर से ग़ुजर रही थी. उन्हें मशहूर फ़िल्मकार कमाल अमरोही के रूप में एक हमदर्द इंसान मिला. उन्होंने कमाल से प्रभावित होकर उनसे विवाह कर लिया, लेकिन उनकी शादी कामयाब नहीं रही और दस साल के वैवाहिक जीवन के बाद 1964 में वह कमाल अमरोही से अलग हो गईं. कहा यह भी गया कि औलाद न होने की वजह से उनके रिश्ते में दरार पड़ने लगी थी.
1966 में बनी फ़िल्म फूल और पत्थर के नायक धर्मेंद्र से मीना कुमारी की नज़दीकियां बढ़ने लगी थीं. मीना कुमारी उस दौर की कामयाब अभिनेत्री थीं, जबकि धर्मेंद्र का करियर ठीक से नहीं चल रहा था. लिहाज़ा धर्मेंद्र ने मीना कुमारी का सहारा लेकर ख़ुद को आगे बढ़ाया. उनके क़िस्से पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगे, जिसका असर उनकी शादीशुदा ज़िंदगी पर पड़ा. अमरोहा में एक मुशायरे के दौरान किसी युवक ने मीना कुमारी पर कटाक्ष करते हुए एक ऐसा शेअर पढ़ा, जिस पर मुशायरे की सदारत कर रहे कमाल अमरोही भड़क गए.

कमाल अमरोही ने मीना कुमारी की कई फ़िल्मों का निर्देशन किया, जिनमें पाकीज़ा भी शामिल है. पाकीज़ा के निर्माण में सत्रह साल लगे थे, जिसकी वजह मीना कुमारी से उनका अलगाव था. यह कला के प्रति मीना कुमारी का समर्पण ही था कि उन्होंने बीमारी की हालत में भी इस फ़िल्म को पूरा किया. पाकीज़ा में पहले धर्मेंद्र को लिया गया था, लेकिन कमाल अमरोही ने धर्मेंद्र को फ़िल्म से बाहर कर उनकी जगह राजकुमार को ले लिया. 1956 में शुरू हुई पाकीज़ा 4 फ़रवरी, 1972 को रिलीज़ हुई और उसी साल 31 मार्च को मीना कुमारी चल बसीं. फ़िल्म हिट रही, कमाल अमरोही अमर हो गए, लेकिन मीना कुमारी ग़ुरबत में मरीं. अस्पताल का बिल उनके प्रशंसक एक डॉक्टर ने चुकाया. मीना कुमारी ज़िंदगी भर सुर्ख़ियों और विवादों में रहीं. कभी शराब पीने की आदत को लेकर, तो कभी धर्मेंद्र के साथ संबंधों को लेकर. मीना कुमारी ने अपने अकेलेपन में शराब और शायरी को अपना साथी बना लिया था. वह नज़्में लिखती थीं, जो उनकी मौत के बाद नाज़ नाम से प्रकाशित हुईं-
मेरे महबूब
जब दोपहर को
समुंदर की लहरें
मेरे दिल की धड़कनों से हमआहंग होकर उठती हैं तो
आफ़ताब की हयात आफ़री शुआओं से मुझे
तेरी जुदाई को बर्दाश्त करने की क़ुव्वत मिलती है…

मीना कुमारी की ग़ज़लों में मुहब्बत है, शोख़ी है. वह कहती हैं-
रूह का चेहरा किताबी होगा
जिस्म का रंग अनाबी होगा
शरबती रंग से लिखूं आंखें
और अहसास शराबी होगा
चश्मे-पैमाने से टपका आंसू
कोई बेचारा सवाबी होगा...

धर्मेंद्र ने भी करियर की बुलंदियों पर पहुंचने के बाद मीना को अकेला छोड़ दिया. कभी मुड़कर भी उनकी तरफ़ नहीं देखा. मीना उम्र भर मुहब्बत पाने के लिए तरसती रह गईं-
मुहब्बत
बहार की फूलों की तरह मुझे
अपने जिस्म के रोएं-रोएं से
फूटती मालूम हो रही है
मुझे अपने आप पर एक
ऐसे बजरे का गुमान हो रहा है, जिसके
रेशमी बादबान
तने हुए हों और जिसे
पुरअसरार हवाओं के झोंके
आहिस्ता-आहिस्ता दूर-दूर
पुरसुकून झीलों
रौशन पहाड़ों और
फूलों से ढके हुए गुमनाम जज़ीरों
की तऱफ लिए जा रहे हों,
वह और मैं
जब ख़ामोश हो जाते हैं तो हमें
अपने अनकहे, अनसुने अल्फ़ाज़ में
जुगनुओं की मानिंद रह-रहकर चमकते दिखाई देते हैं,
हमारी गुफ़्तगू की ज़ुबान
वही है जो
दरख्तों, फूलों, सितारों और आबशारों की है,
ये घने जंगल
और तारीक रात की गुफ़्तगू है जो दिन निकलने पर
अपने पीछे
रौशनी और शबनम के आंसू छोड़ जाती है, महबूब
आह
मुहब्बत…

कमाल अमरोही से निकाह करके भी उनका अकेलापन दूर नहीं हुआ और वह शराब में डूब गईं. एक बार जब दादा मुनि अशोक कुमार उनके लिए दवा लेकर पहुंचे तो उन्होंने कहा, दवा खाकर भी मैं जीऊंगी नहीं, यह जानती हूं मैं. इसलिए कुछ तंबाक़ू खा लेने दो, शराब के कुछ घूंट गले के नीचे उतर जाने दो. मीना कुमारी का यह जवाब सुनकर दादा मुनि कांप उठे. मीना कुमारी की उदासी उनकी नज़्मों में भी उतर आई थी-
दिन गुज़रता नहीं
रात काटे से भी नहीं कटती
रात और दिन के इस तसलसुल में
उम्र बांटे से भी नहीं बंटती
अकेलेपन के अंधेरे में दूर-दूर तलक
यह एक ख़ौफ़ जी पे धुआं बनके छाया है
फिसल के आंख से यह क्षण पिघल न जाए कहीं
पलक-पलक ने जिसे राह से उठाया है
शाम का उदास सन्नाटा
धुंधलका देख बढ़ जाता है
नहीं मालूम यह धुआं क्यों है
दिल तो ख़ुश है कि जलता जाता है
तेरी आवाज़ में तारे से क्यों चमकने लगे
किसकी आंखों की तरन्नुम को चुरा लाई है
किसकी आग़ोश की ठंडक पे है डाका डाला
किसकी बांहों से तू शबनम उठा लाई है…

बचपन से जवानी तक या यूं कहें कि ज़िंदगी के आख़िरी लम्हे तक उन्होंने दुश्वारियों का सामना किया-
आग़ाज़ तो होता है अंजाम नहीं होता
जब मेरी कहानी में वो नाम नहीं होता,
जब ज़ुल्फ़ की कालिख में घुल जाए कोई राही
बदनाम सही लेकिन गुमनाम नहीं होता,
हंस-हंस के जवां दिल के हम क्यों न चुनें टुकड़े
हर शख्स की क़िस्मत में ईनाम नहीं होता,
बहते हुए आंसू ने आंख से कहा थम कर
जो मय से पिघल जाए वो जाम नहीं होता,
दिन डूबे या डूबे बारात लिए कश्ती
साहिल पे मगर कोई कोहराम नहीं होता…

मीना कुमारी की ज़िंदगी एक सच्चे प्रेमी की तलाश में ही गुज़र गई. अकेलेपन का दर्द उनकी रचनाओं में समाया हुआ है :-
चांद तन्हा है आसमां तन्हा
दिल मिला है कहां-कहां तन्हा,
बुझ गई आस, छुप गया तारा
थरथराता रहा धुंआ तन्हा,
ज़िंदगी क्या इसी को कहते हैं
जिस्म तन्हा है और जां तन्हा,
हमसफ़र कोई गर मिले भी कभी
दोनों चलते रहे कहां तन्हा,
जलती-बुझती सी रोशनी के परे
सिमटा-सिमटा सा एक मकां तन्हा,
राह देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जाएंगे ये जहां तन्हा…




फ़िरदौस ख़ान
हिंदी सिनेमा के पहले सुपर स्टार राजेश खन्ना अब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन अपने सशक्त अभिनय के ज़रिये उन्होंने कामयाबी की जो बुलंदियां हासिल कीं, वह हर किसी को नसीब नहीं हो पाती हैं. 29 दिसंबर, 1942 को पंजाब के अमृतसर में जन्मे राजेश खन्ना का असली नाम जतिन खन्ना था. उन्हें बचपन से ही अभिनय का शौक़ था. फिल्मों में उनके आने का क़िस्सा बेहद रोचक है. युनाइटेड प्रोड्यूसर्स और फिल्मफेयर के बैनर तले 1965 में नए अभिनेता की खोज के लिए एक प्रतियोगिता आयोजित की गई. इसमें दस हज़ार लड़कों में से आठ लड़के फाइनल मुक़ाबले तक पहुंचे, जिनमें एक राजेश खन्ना भी थे. आख़िर में कामयाबी का सेहरा राजेश खन्ना के सिर बंधा. अगले साल ही उन्हें फिल्म आख़िरी ख़त में काम करने का मौक़ा मिल गया. इसके बाद उन्होंने राज़, बहारों के सपने, औरत के रूप आदि कई फिल्में कीं, लेकिन कामयाबी उन्हें 1969 में आई फिल्म आराधना से मिली. इसके बाद एक के बाद एक 14 सुपरहिट फिल्में देकर उन्होंने हिंदी फिल्मों के पहले सुपरस्टार के तौर पर अपनी पहचान क़ायम कर ली. राजेश खन्ना ने फिल्म आनंद में एक कैंसर मरीज़ के किरदार को पर्दे पर जीवंत कर दिया था. इसमें मरते व़क्त आनंद कहता है-बाबू मोशाय, आनंद मरा नहीं, आनंद मरते नहीं. इस फिल्म में राजेश खन्ना द्वारा पहने गए गुरु कुर्ते ख़ूब मशहूर हुए. लड़के उन जैसे बाल रखने लगे.

उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि उस ज़माने में अभिभावकों ने अपने बेटों के नाम राजेश रखे. फिल्म जगत में उन्हें प्यार से काका कहा जाता था. जब वह सुपरस्टार थे, तब एक कहावत बड़ी मशहूर थी-ऊपर आक़ा और नीचे काका. कहा जाता है कि अपने संघर्ष के दौर में भी वह महंगी गाड़ियों में निर्माताओं से मिलने जाया करते थे. वह रूमानी अभिनेता के तौर पर मशहूर हुए. उनकी आंखें झपकाने और गर्दन टेढ़ी करने की अदा के लोग दीवाने थे, ख़ासकर ल़डकियां तो उन पर जान छिड़कती थीं. राजेश खन्ना लड़कियों के बीच बेहद लोकप्रिय हुए. लड़कियों ने उन्हें ख़ून से ख़त लिखे, उनकी तस्वीरों के साथ ब्याह रचाए, अपने हाथ पर उनका नाम गुदवा लिया. कहा जाता है कि कई लड़कियां तो अपने तकिये के नीचे उनकी तस्वीर रखा करती थीं. कहीं राजेश खन्ना की सफ़ेद रंग की कार रुकती थी, तो लड़कियां कार को चूमकर गुलाबी कर देती थीं. निर्माता-निर्देशक उनके घर के बाहर कतार लगाए खड़े रहते थे और मुंहमांगी क़ीमत पर उन्हें अपनी फिल्मों में लेना चाहते थे.

राजेश खन्ना ने तक़रीबन 163 फिल्मों में काम किया. इनमें से 128 फ़िल्मों में उन्होंने मुख्य भूमिका निभाई, जबकि अन्य फ़िल्मों में भी उनका किरदार बेहद अहम रहा. उन्होंने 22 फ़िल्मों में दोहरी भूमिकाएं कीं. उन्हें तीन बार फ़िल्म फेयर के सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार से नवाज़ा गया. ये पुरस्कार उन्हें फ़िल्म सच्चा झूठा (1971),  आनंद (1972) और अविष्कार (1975) में शानदार अभिनय करने के लिए दिए गए. उन्हें 2005 में फ़िल्मफ़ेयर के लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड से सम्मानित किया गया. उनकी फ़िल्मों में बहारों के सपने, आराधना, दो रास्ते, बंधन, सफ़र, कटी पतंग, आन मिलो सजना, आनंद, सच्चा झूठा, दुश्मन, अंदाज़, हाथी मेरे साथी, अमर प्रेम, दिल दौलत दुनिया, जोरू का ग़ुलाम, मालिक, शहज़ादा, बावर्ची, अपना देश, मेरे जीवन साथी, अनुराग, दाग़, नमक हराम, अविष्कार, अजनबी, प्रेम नगर, हमशक्ल, रोटी, आप की क़सम, प्रेम कहानी, महा चोर, महबूबा, त्याग, पलकों की छांव में, आशिक़ हूं बहारों का, छलिया बाबू, कर्म, अनुरोध, नौकरी, भोला भाला, जनता हवलदार, मुक़ाबला, अमर दीप, प्रेम बंधन, थोड़ी सी बेवफ़ाई, आंचल,  फिर वही रात, बंदिश, क़ुदरत, दर्द, धनवान, अशांति, जानवर, धर्म कांटा, सुराग़, राजपूत, नादान, सौतन अगर तुम न होते, अवतार, नया क़दम, आज का एमएलए राम अवतार, मक़सद, धर्म और क़ानून, आवाज़, आशा ज्योति, ऊंचे लोग, नया बकरा, मास्टर जी, दुर्गा, बेवफ़ाई, बाबू, हम दोनों, अलग-अलग, ज़माना, आख़िर क्यों, निशान, शत्रु, नसीहत, अंगारे, अनोखा रिश्ता, अमृत गोरा, आवारा, बाप, अवाम, नज़राना, विजय, पाप का अंत, मैं तेरा दुश्मन, स्वर्ग, रुपये दस करोड़, आ अब लौट चलें, प्यार ज़िंदगी है और क्या दिल ने कहा आदि शामिल हैं.

राजेश खन्ना नब्बे के दशक में राजीव गांधी के कहने पर सियासत में आ गए. उन्होंने 1991 में नई दिल्ली से कांग्रेस की टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ा. उन्होंने भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी को कड़ी चुनौती दी थी, लेकिन मामूली अंतर से हार गए. आडवाणी ने यह सीट छोड़ दी और अपनी दूसरी सीट गांधीनगर से अपना प्रतिनिधित्व बनाए रखा. सीट ख़ाली होने पर उपचुनाव में वह एक बार फिर खड़े हुए और भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे फ़िल्म अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा को भारी मतों से शिकस्त दी. उन्होंने 1996 में तीसरी बार इसी सीट से चुनाव लड़ा, लेकिन भाजपा नेता जगमोहन से हार गए. इसके बाद हर बार चुनाव के मौक़े पर वह कांग्रेस उम्मीदवारों के पक्ष में प्रचार के लिए दिल्ली आते रहे. उन्होंने 1994 में एक बार फिर ख़ुदाई फ़िल्म से परदे पर वापसी की, लेकिन उन्हें ख़ास कामयाबी नहीं मिल पाई. इसके अलावा अपने बैनर तले उन्होंने जय शिव शंकर नामक फिल्म शुरू की थी, जिसमें उन्होंने पत्नी डिम्पल को साइन किया. फ़िल्म आधी बनने के बाद रुक गई और आज तक रिलीज नहीं हुई. कभी अक्षय कुमार भी इस फ़िल्म में काम मांगने के लिए राजेश खन्ना के पास गए थे, लेकिन राजेश खन्ना से उनकी मुलाक़ात नहीं हो पाई. बाद में वह राजेश खन्ना के दामाद बने.

राजेश खन्ना की कामयाबी में संगीतकार आरडी बर्मन और गायक किशोर का अहम योगदान रहा. उनके बनाए और राजेश पर फ़िल्माये ज़्यादातर गीत हिट हुए. किशोर कुमार ने 91 फ़िल्मों में राजेश खन्ना को आवाज़ दी, तो आरडी बर्मन ने उनकी 40 फ़िल्मों को संगीत से सजाया. राजेश खन्ना अपनी फ़िल्मों के संगीत को लेकर हमेशा सजग रहते थे. वह गाने की रिकॉर्डिंग के वक़्त स्टुडियो में रहना पसंद करते थे. मुमताज़ और शर्मिला टैगोर के साथ उनकी जो़ड़ी को बहुत पसंद किया गया. आशा पारेख और वहीदा रहमान के साथ भी उन्होंने काम किया. एक दौर ऐसा भी आया जब ज़ंजीर और शोले जैसी फ़िल्में हिट होने लगीं. दर्शक रूमानियत की बजाय एक्शन फ़िल्मों को ज़्यादा पसंद करने लगे तो राजेश खन्ना की फ़िल्में पहले जैसी कामयाबी से महरूम हो गईं. कुछ लोगों का यह भी मानना रहा कि राजेश खन्ना अपनी सुपर स्टार वाली इमेज से कभी बाहर नहीं आ पाए. वह हर वक़्त ऐसे लोगों से घिरे रहने लगे, जो उनकी तारीफ़ करते नहीं थकते थे. अपने अहंकार की वजह से उन्होंने कई अच्छी फ़िल्में ठुकरा दीं, जो बाद में अमिताभ बच्चन की झोली में चली गईं. उनकी आदत की वजह से मनमोहन देसाई, शक्ति सामंत, ऋषिकेश मुखर्जी और यश चोपड़ा ने उन्हें छोड़कर अमिताभ बच्चन को अपनी फ़िल्मों में लेना शुरू कर दिया.

राजेश खन्ना की निजी ज़िंदगी में भी काफ़ी उतार-च़ढाव आए. उन्होंने पहले अभिनेत्री अंजू महेन्द्रू से प्रेम किया, लेकिन उनका यह रिश्ता ज़्यादा वक़्त तक नहीं टिक पाया. बाद में अंजू ने क्रिकेट खिलाड़ी गैरी सोबर्स से सगाई कर ली. इसके बाद 1973 में उन्होंने डिम्पल कपा़डिया से प्रेम विवाह किया. डिम्पल और राजेश में ज़्यादा अच्छा रिश्ता नहीं रहा. बाद में दोनों अलग-अलग रहने लगे. उनकी दो बेटियां हैं टि्‌वंकल और रिंकी. मगर अलग होने के बावजूद डिम्पल से हमेशा राजेश खन्ना का साथ दिया. आख़िरी वक़्त में भी डिम्पल उनके साथ रहीं. टीना मुनीम भी राजेश खन्ना की ज़िंदगी में आईं. एक ज़माने में राजेश खन्ना ने कहा था कि वह और टीना एक ही टूथब्रश का इस्तेमाल करते हैं. वह अपनी हर फ़िल्म में टीना मुनीम को लेना चाहते थे. उन्होंने टीना मुनीम के साथ कई फ़िल्में कीं.

राजशे खन्ना ने अमृतसर के कूचा पीपल वाला की तिवाड़ियां गली में स्थित अपने पैतृक घर को मंदिर के नाम कर दिया था. उनके माता-पिता की मौत के बाद कई साल तक इस मकान में उनके चाचा भगत किशोर चंद खन्ना भी रहे, उनकी मौत के बाद से यह मकान ख़ाली पड़ा था. यहां के लोग आज भी राजेश खन्ना को बहुत याद करते हैं. राजेश खन्ना पिछले काफ़ी दिनों से बीमार चल रहे थे. 18 जुलाई,  2012 को उन्होंने आख़िरी सांस ली. राजेश खन्ना का कहना था कि वह अपनी ज़िंदगी से बेहद ख़ुश हैं. दोबारा मौक़ा मिला तो वह फिर राजेश खन्ना बनना चाहेंगे और वही ग़लतियां दोहराएंगे, जो उन्होंने की हैं. उनकी मौत से उनके प्रशंसकों को बेहद तकली़फ़ पहुंची. हिन्दुस्तान ही नहीं पाकिस्तान और अन्य देशों के बाशिंदों ने भी अपने-अपने तरीक़े से उन्हें श्रद्घांजलि अर्पित की.


फ़िरदौस ख़ान
एक ज़माने से देश के कोने-कोने से युवा हिंदी सिनेमा में छा जाने का ख़्वाब लिए मुंबई आते रहे हैं. इनमें से कई खु़शक़िस्मत तो सिनेमा के आसमान पर रौशन सितारा बनकर चमकने लगते हैं, तो कई नाकामी के अंधेरे में खो जाते हैं. लेकिन युवाओं के मुंबई आने का यह सिलसिला बदस्तूर जारी रहता है. एक ऐसे ही युवा थे संजीव कुमार, जो फ़िल्मों में नायक बनने का ख़्वाब देखा करते थे. और इसी ख़्वाब को पूरा करने के लिए वह चल पड़े एक ऐसी राह पर, जहां उन्हें कई मुश्किलों का सामना करना था. मगर अपने ख़्वाब को पूरा करने के लिए वह मुश्किल से मुश्किल इम्तिहान देने को तैयार थे. उनकी इसी लगन और मेहनत ने उन्हें हिंदी सिनेमा का ऐसा अभिनेता बना दिया, जो ख़ुद ही अपनी मिसाल है.

संजीव कुमार का जन्म 9 जुलाई, 1938 को मुंबई में हुआ था. उनका असली नाम हरि भाई ज़रीवाला था. उनका पैतृक निवास सूरत में था. बाद में उनका परिवार मुंबई आ गया. उन्हें बचपन से फ़िल्मों का काफ़ी शौक़ था. वह फ़िल्मों में नायक बनना चाहते थे. अपने इस सपने को पूरा करने के लिए उन्होंने रंगमंच का सहारा लिया. इसके बाद उन्होंने फ़िल्मालय के एक्टिंग स्कूल में दाख़िला ले लिया और यहां उन्होंने अभिनय की बारीकियां सीखीं. उनकी क़िस्मत अच्छी थी कि उन्हें 1960 में फ़िल्मालय बैनर की फ़िल्म हम हिंदुस्तानी में काम करने क मौक़ा मिल गया. फ़िल्म में उनका किरदार तो छोटा-सा था, वह भी सिर्फ़ दो मिनट का, लेकिन इसने उन्हें अभिनेता बनने की राह दे दी.

1965 में बनी फ़िल्म निशान में उन्हें बतौर मुख्य अभिनेता काम करने का सुनहरा मौक़ा मिला. यह उनकी ख़ासियत थी कि उन्होंने कभी किसी भूमिका को छोटा नहीं समझा. उन्हें जो किरदार मिलता, उसे वह ख़ुशी से क़ुबूल कर लेते. 1968 में प्रदर्शित फ़िल्म शिकार में उन्हें पुलिस अफ़सर की भूमिका मिली. इस फ़िल्म में मुख्य अभिनेता धर्मेंद्र थे, लेकिन संजीव कुमार ने शानदार अभिनय से आलोचकों का ध्यान अपनी तरफ़ खींचा. इस फ़िल्म के लिए उन्हें सहायक अभिनेता का फ़िल्मफ़ेयर अवॊर्ड मिला. 1968 में प्रदर्शित फ़िल्म संघर्ष में छोटी भूमिका होने के बावजूद वह छा गए. इस फ़िल्म में उनके सामने महान अभिनेता दिलीप कुमार भी थे, जो उनकी अभिनय प्रतिभा के क़ायल हो गए थे. उन्होंने फ़िल आशीर्वाद, राजा और रंक और अनोखी रात जैसी फ़िल्मों में अपने दमदार अभिनय की छाप छोड़ी. 1970 में प्रदर्शित फ़िल्म खिलौना भी बेहद कामयाब रही. इस फ़िल्म ने संजीव कुमार को बतौर अभिनेता स्थापित कर दिया. इसी साल प्रदर्शित फ़िल्म दस्तक में सशक्त अभिनय के लिए वह सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाज़े गए. फिर 1972 में प्रदर्शित फ़िल्म कोशिश में उन्होंने गूंगे बहरे का किरदार निभाकर यह साबित कर दिया कि वह किसी भी तरह की भूमिका में जान डाल सकते हैं. इस फ़िल्म को संजीव कुमार की महत्वपूर्ण फ़िल्मों में शुमार किया जाता है. फ़िल्म शोले में ठाकुर के चरित्र को उन्होंने अमर बना दिया.

उन्होंने 1974 में प्रदर्शित फ़िल्म नया दिन नई रात में नौ किरदार निभाए. इसमें उन्होंने विकलांग, नेत्रहीन, बूढ़े, बीमार, कोढ़ी, हिजड़े, डाकू, जवान और प्रोफ़ेसर का किरदार निभाकर अभिनय और विविधता के नए आयाम पेश किए. उन्होंने फ़िल्म आंधी में होटल कारोबारी का किरदार निभाया, जिसकी पत्नी राजनीति के लिए पति का घर छोड़कर अपने पिता के पास चली जाती है. इसमें उनकी पत्नी की भूमिका सुचित्रा सेन ने निभाई थी. इस फ़िल्म के लिए संजीव कुमार को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया. अगले ही साल 1977 में उन्हें फ़िल्म अर्जुन पंडित के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला.

उनकी अन्य फ़िल्मों में पति पत्नी, स्मगलर, बादल, हुस्न और इश्क़, साथी, संघर्ष, गौरी, सत्यकाम, सच्चाई, ज्योति, जीने की राह, इंसाफ़ का मंदिर, ग़ुस्ताख़ी माफ़, धरती कहे पुकार के, चंदा और बिजली, बंधन, प्रिया, मां का आंचल, इंसान और शैतान, गुनाह और क़ानून, देवी, दस्तक, बचपन, पारस, मन मंदिर, कंगन, एक पहेली, अनुभव, सुबह और शाम, सीता और गीता, सबसे बड़ा सुख, रिवाज, परिचय, सूरज और चंदा, मनचली, दूर नहीं मंज़िल, अनामिका, अग्नि रेखा, अनहोनी, शानदार, ईमान, दावत, चौकीदार, अर्चना, मनोरंजन, हवलदार, आपकी क़सम, कुंआरा बाप, उलझन, आनंद, धोती लोटा और चौपाटी, अपने रंग हज़ार, अपने दुश्मन, आक्रमण, फ़रार, मौसम, दो लड़कियां, ज़िंदगी, विश्वासघात, पापी, दिल और पत्थर, धूप छांव, अपनापन, अंगारे, आलाप, ईमान धर्म, यही है ज़िंदगी, शतरंज के खिलाड़ी, मुक्ति, तुम्हारे लिए, तृष्णा डॊक्टर, स्वर्ग नर्क, सावन के गीत, पति पत्नी और वो, मुक़द्दर, देवता, त्रिशूल, मान अपमान, जानी दुश्मन, घर की लाज, बॊम्बे एट नाइट, हमारे तुम्हारे, गृह प्रवेश, काला पत्थर, टक्कर, स्वयंवर, पत्थर से टक्कर, बेरहम, अब्दुल्ला, ज्योति बने जवाला, हम पांच कृष्ण, सिलसिला, वक़्त की दीवार, लेडीज़ टेलर, चेहरे पे चेहरा, बीवी ओ बीवी, इतनी सी बात, दासी, विधाता, सिंदूर बने ज्वाला, श्रीमान श्रीमती, नमकीन, लोग क्या कहेंगे, खु़द्दार, अय्याश, हथकड़ी, सुराग़, सवाल, अंगूर, हीरो और यादगार शामिल हैं. उन्होंने पंजाबी फ़िल्म फ़ौजी चाचा में भी काम किया. कई फ़िल्में उनकी मौत के बाद प्रदर्शित हुईं, जिनमें बद और बदनाम, पाखंडी, मेरा दोस्त मेरा दुश्मन, लाखों की बात, ज़बरदस्त, राम तेरे कितने नाम, बात बन जाए, हाथों की लकीरें, लव एंड गॊड, कांच की दीवर, क़त्ल, प्रोफ़ेसर की पड़ौसन और राही शामिल हैं. संजीव कुमार के दौर में हिंदी सिनेमा में दिलीप कुमार, धर्मेंद्र, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन और शम्मी कपूर जैसे अभिनेताओं का बोलबाला था. इन अभिनेताओं के बीच संजीव कुमार ने अपनी अलग पहचान क़ायम की. उन्होंने अभिनेता और सहायक अभिनेता के तौर पर कई यादगार भूमिकाएं कीं.

वह आजीवन अविवाहित रहे. हालांकि कई अभिनेत्रियों के साथ उनके प्रसंग सुर्ख़ियों में रहे. कहा जाता है कि पहले उनका रुझान सुलक्षणा पंडित की तरफ़ हुआ, लेकिन प्यार परवान नहीं चढ़ पाया. इसके बाद उन्होंने हेमा मालिनी से विवाह करना चाहा, लेकिन वह अभिनेता धर्मेंद्र को पसंद करती थीं, इसलिए यहां भी बात नहीं बन पाई. हेमा मालिनी ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर पहले से शादीशुदा धर्मेंद्र से शादी कर ली. धर्मेंद्र ने भी इस विवाह के लिए इस्लाम क़ुबूल किया था. यह कहना ग़लत न होगा कि ज़िंदगी में प्यार क़िस्मत से ही मिलता है. अपना अकेलापन दूर करने के लिए संजीव कुमार ने अपने भतीजे को गोद ले लिया. संजीव कुमार के परिवाए में कहा जाता था कि उनके परिवार में बड़े बेटे के दस साल का होने पर पिता की मौत हो जाती है, क्योंकि उनके दादा, पिता और भाई के साथ ऐसा हो चुका था. उनके साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. जैसे ही उनका भतीजा दस साल का हुआ 6 नवंबर, 1985 को दिल का दौरा पड़ने से उनकी मौत हो गई. यह महज़ इत्तेफ़ाक़ था या कुछ और. ज़िंदगी के कुछ रहस्य ऐसे होते हैं, जो कभी सामने नहीं आ पाते.

बहरहाल, अपने अभिनय के ज़रिये संजीव कुमार खु़द को अमर कर गए. जब भी हिंदी सिनेमा और दमदार अभिनय की बात छिड़ेगी, उनका नाम ज़रूर लिया जाएगा. (लेखिका स्टार न्यूज़ एजेंसी में संपादक हैं)   


फ़िरदौस ख़ान
हिंदी सिनेमा की प्रतिभाशाली अभिनेत्री नूतन को अभिनय विरासत में मिला था. उनकी मां शोभना सामर्थ हिंदी सिनेमा की प्रसिद्ध अभिनेत्री थीं. नूतन भी अपने अद्भुत अभिनय के लिए जानी जाती हैं. उनकी सुजाता, बंदिनी, मैं तुलसी तेरे आंगन की, सीमा, सरस्वती चंद्र और मिलन आदि फ़िल्मों ने उन्हें भारतीय सिनेमा की महान अभिनेत्रियों के समकक्ष लाकर खड़ा कर दिया. नूतन का जन्म 4 जून, 1936 को मुंबई में हुआ था. उनके पिता का नाम कुमारसेन सामर्थ था. घर में फ़िल्मी माहौल था. वह अपनी मां के साथ शूटिंग पर जाती थीं. रफ़्ता-रफ़्ता उनका रुझान भी फ़िल्मों की तरफ़ हो गया. वह भी बड़ी होकर अपनी मां की तरह ही मशहूर अभिनेत्री बनना चाहती थीं. उन्होंने बतौर बाल कलाकार 1950 में फ़िल्म नल दमयंती से अपने करियर की शुरुआत की. इसके साथ ही उन्होंने अखिल भारतीय सौंदर्य प्रतियोगिता में हिस्सा लिया. उनकी क़िस्मत के सितारे बुलंदी पर थे. नतीजतन, उन्हें मिस इंडिया का ख़िताब मिला. मगर फ़िल्मी दुनिया ने उन्हें कोई ख़ास तवज्जो नहीं दी. उनकी मां शोभना सामर्थ भी उन्हें अभिनेत्री बनाना चाहती थीं, इसलिए उन्होंने अपने दोस्त मोतीलाल से बात की. मोतीलाल की सिफ़ारिश पर नूतन को फ़िल्म हमारी बेटी में काम करने का मौक़ा मिल गया. इस फ़िल्म का निर्देशन शोभना सामर्थ ने किया था. इसके बाद नूतन ने फ़िल्म हमलोग, शीशम, नगीना, पर्बत, लैला मजनूं और शबाब में अभिनय किया, लेकिन इससे उन्हें वह कामयाबी नहीं मिली, जिसकी उन्हें उम्मीद थी.

फिर 1950 में उनकी फ़िल्म सीमा प्रदर्शित हुई. फ़िल्म बेहद कामयाब रही. इस फ़िल्म के लिए जहां नूतन ने सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फ़िल्मफ़ेयर हासिल किया, वहीं हिंदी सिनेमा में अपने लिए एक ख़ास मुक़ाम भी बना लिया. यह फ़िल्म उनकी सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों में शुमार की जाती है. वह हर तरह की भूमिकाएं बड़ी सहजता से कर लेती थीं. 1956 में प्रदर्शित फ़िल्म बारिश में उन्होंने काफ़ी बोल्ड सीन दिए. इसके बाद 1957 में प्रदर्शित फ़िल्म दिल्ली का ठग में उन्होंने स्विमिंग कॉस्ट्यूम पहनकर सबको चौंका दिया. इसकी वजह से उनकी बहुत आलोचना हुई. इससे वह थो़डी परेशान भी हुईं, मगर वह जानती थीं कि अभिनय क्षमता के दम पर ही वह इस फ़िल्मी दुनिया में टिकी हुई हैं. उन्होंने अपना अभिनय सफ़र जारी रखा. फिर 1958 में उनकी फ़िल्म सोने की चिड़िया प्रदर्शित हुई. फ़िल्म बेहद कामयाब रही और नूतन हिंदी सिनेमा में छा गईं. अगले ही साल 1959 में प्रदर्शित उनकी फ़िल्म सुजाता में उनके मार्मिक अभिनय ने उनकी बोल्ड अभिनेत्री की छवि को बदल दिया. सुजाता में उन्होंने अछूत कन्या का किरदार निभाया. इसके लिए भी उन्हें फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार से नवाज़ा गया. 1963 में प्रदर्शित फ़िल्म बंदिनी उनके करियर की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों में शामिल है. नूतन ने इस फ़िल्म में जितना सशक्त अभिनय किया है, वैसा अभिनय किसी और फ़िल्म में देखने को नहीं मिला. यह हिंदी सिनेमा की उन सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों में से एक है, जिसके बिना हिंदी सिनेमा का इतिहास अधूरा है. इस फ़िल्म के लिए भी नूतन को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला. ऐसा नहीं है कि नूतन ने सिर्फ़ संजीदा अभिनय ही किया है. उन्होंने रूमानी और हंसमुख किरदार भी निभाए हैं. फ़िल्म छलिया और सूरत में उनके निभाए किरदार इस बात का सबूत हैं कि वह किसी भी तरह की भूमिका को ब़खूबी निभा सकती थीं.

1967 में प्रदर्शित फ़िल्म मिलन के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया. यह फ़िल्म पूर्व जन्म की कहानी पर आधारित थी. 1968 में प्रदर्शित फ़िल्म सरस्वती चंद्र की कामयाबी ने उन्हें फ़िल्म दुनिया की बुलंदी पर पहुंचा दिया. इसके बाद 1973 में आई फ़िल्म सौदागार में भी उन्होंने यादगार अभिनय से दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया. सुधेंदु रॉय द्वारा निर्देशित फ़िल्म में नायक की भूमिका अमिताभ बच्चन ने निभाई थी.

सत्तर के दशक तक नूतन का फ़िल्मी करियर चढ़ाव पर रहा, जबकि अस्सी के दशक में उन्होंने चरित्र भूमिकाएं निभानी शुरू कर दीं. ख़ास बात यह रही कि उनके अभिनय का जलवा बरक़रार रहा. फ़िल्म मैं तुलसी तेरे आंगन की और मेरी जंग में सशक्त अभिनय के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री का पुरस्कार मिला. फ़िल्म कर्मा में भी उनके अभिनय को सराहा गया. इस फ़िल्म में उनके साथ अभिनय सम्राट दिलीप कुमार थे. उन्होंने अपने वक़्त के तक़रीबन सभी नामी अभिनेताओं के साथ काम किया. फ़िल्म अना़डी में उनके नायक राज कपूर थे तो फ़िल्म बंदिनी में अशोक कुमार. फ़िल्म पेइंग गेस्ट में देवानंद उनके नायक बने.

हिंदी सिनेमा में कामयाबी की बुलंदियों तक पहुंची नूतन कभी मां से मुक़ाबला नहीं करना चाहती थीं. यही वजह थी कि उन्होंने फ़िल्म रामराज्य के रीमेक में सीता की भूमिका निभाने से साफ़ इंकार कर दिया था. प्रकाश पिक्चर्स के बैनर तले बनी फ़िल्म राम राज्य में उनकी मां ने सीता की भूमिका निभाई थी. निर्देशक विजय भट्ट इस फ़िल्म का रीमेक बनाना चाहते थे. उस वक़्त वह शोभना सामार्थ को नायिका सीता की भूमिका में नहीं ले सकते थे, क्योंकि वह उम्र की ढलान पर थीं. वह चाहते थे कि कोई कुशल अभिनेत्री इस किरदार को निभाए. विजय भट्ट को लगा कि नूतन सीता की भूमिका बेहतर तरीक़े से निभा सकती हैं. उन्होंने नूतन से मुलाक़ात की और अपना प्रस्ताव रखा, लेकिन नूतन ने इसे नामंज़ूर कर दिया. वह मानती थीं कि चूंकि पहली फ़िल्म में उनकी मां ने सीता की भूमिका निभाई है, इसलिए उनके लिए यह किरदार सही नहीं रहेगा, क्योंकि लोग दोनों के अभिनय की तुलना करने लगेंगे और ऐसा करना मुनासिब नहीं होगा. आख़िरकार बीना राय को सीता की भूमिका दी गई. मगर फ़िल्म फ्लॉप हो गई.

उनकी फ़िल्मों में हमारी बेटी, नगीना, हमलोग, शीशम, पर्बत, लैला मजनूं, शबाब, सीमा, हीर, बारिश, पेइंग गेस्ट, ज़िंदगी या तूफ़ान, चंदन, दिल्ली का ठग, कभी अंधेरा कभी उजाला, सोने की चिड़िया, आख़िरी दाव, अना़डी, कन्हैया, सुजाता, बसंत, छबीली, छलिया, मंज़िल, सूरत और सीरत, बंदिनी, दिल ही तो है, तेरे घर के सामने, चांदी की दीवार, रिश्ते नाते, छोटा भाई, दिल ने फिर याद किया, दुल्हन एक रात की, लाट साहब, मिलन, गौरी, सरस्वती चंद्र, भाई बहन, मां और ममता, देवी, महाराजा, यादगार, अनुराग, ग्रहण, सौदागर, एक बाप छह बेटे, मैं तुलसी तेरे आंगन की, साजन बिना सुहागन, साजन की सहेली, जियो और जीने दो, रिश्ता काग़ज़ का, यह कैसा फ़र्ज़, युद्ध, पैसा ये पैसा, मेरी जंग, सजना साथ निभाना, कर्मा, नाम, मैं तेरे लिए, क़ानून अपना अपना, मुजरिम, नसीबवाला और इंसानियत आदि शामिल है.

नूतन सादगी और सौंदर्य का अद्भुत संगम थीं. उन्होंने 19 अक्टूबर, 1959 को लेफ्टिनेंट कमांडर रजनीश बहल से विवाह कर लिया. उनके बेटे मोहनीश बहल भी अभिनेता हैं और हिंदी फ़िल्मों में काम करते हैं. नूतन की बहन तनुजा और भतीजी काजोल भी हिंदी सिनेमा की मशहूर अभिनेत्रियों में शामिल हैं. 21 फ़रवरी, 1991 को कैंसर से नूतन की मौत हो गई. मीना कुमारी की तरह नूतन को भी साहित्य में दिलचस्पी थी. वह कविताएं भी लिखा करती थीं. भले ही आज वह हमारे बीच में नहीं हैं, लेकिन अपने सशक्त अभिनय के लिए वह हमेशा याद की जाएंगी.


फ़िरदौस ख़ान
मशहूर शायर एवं गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी का असली नाम असरारुल हसन ख़ान था. उनका जन्म एक अक्टूबर, 1919 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जनपद में हुआ था. उनके पिता पुलिस विभाग में उपनिरीक्षक थे. मजरूह ने दरसे-निज़ामी का कोर्स किया. इसके बाद उन्होंने लखनऊ के तकमील उल तिब कॉलेज से यूनानी पद्धति की डॉक्टरी की डिग्री हासिल की. फिर वह हकीम के तौर पर काम करने लगे, मगर उन्हें यह काम रास नहीं आया, क्योंकि बचपन से ही उनकी दिलचस्पी शेरो-शायरी में थी. जब भी मौक़ा मिलता, वह मुशायरों में शिरकत करते. उन्होंने अपना तख़ल्लुस मजरूह रख लिया. शायरी से उन्हें ख़ासी शोहरत मिली. वह मजरूह सुल्तानपुरी के नाम से विख्यात हुए.

उन्होंने अपना हकीमी का काम छोड़ दिया. एक मुशायरे में उनकी मुलाक़ात मशहूर शायर जिगर मुरादाबादी से हुई. 1945 में वह एक मुशायरे में शिरकत करने मुंबई गए, जहां उनकी मुलाक़ात फ़िल्म निर्माता ए आर कारदार से हुई. कारदार उनकी शायरी पर फ़िदा थे. उन्होंने मजरूह सुल्तानपुरी से अपनी फ़िल्म में गीत लिखने की पेशकश की, लेकिन मजरूह ने इससे इंकार कर दिया, क्योंकि वह फ़िल्मों के लिए गीत लिखने को अच्छा नहीं मानते थे. जब मजरूह ने जिगर मुरादाबादी को यह बात बताई, तो उन्होंने सलाह दी कि वह फ़िल्मों के लिए गीत लिखें, इससे उन्हें शोहरत के साथ-साथ दौलत भी हासिल होगी. मजरूह सुल्तानपुरी को जिगर मुरादाबादी की बात पसंद आ गई और फिर उन्होंने फ़िल्मों में गीत लिखना शुरू कर दिया. मशहूर संगीतकार नौशाद ने मजरूह सुल्तानपुरी को एक धुन सुनाई और उनसे उस धुन पर एक गीत लिखने को कहा. मजरूह ने उस धुन पर गेसू बिखराए, बादल आए झूम के, गीत लिखा. इससे नौशाद ख़ासे प्रभावित हुए और उन्होंने उन्हें अपनी नई फ़िल्म शाहजहां के लिए गीत लिखने की पेशकश कर दी. मजरूह ने हर दौर के संगीतकारों के साथ काम किया. वह वामपंथी विचारधारा से ख़ासे प्रभावित थे. वह प्रगतिशील लेखक आंदोलन से भी जुड़ गए थे. उन्होंने 1940 के दशक में मुंबई में एक नज़्म माज़-ए-साथी जाने न पाए, पढ़ी थी. तत्कालीन सरकार ने इसे सत्ता विरोधी क़रार दिया था. सरकार की तरफ़ से उन्हें माफ़ी मांगने को कहा गया, लेकिन उन्होंने इंकार कर दिया. नतीजतन, उन्हें डेढ़ साल मुंबई की ऑर्थर रोड जेल में बिताने पड़े. उनका कहना था-
मैं अकेला ही चला था जानिबे-मंज़िल मगर
लोग आते गए और कारवां बनता गया

मजरूह भले ही फ़िल्मों के लिए गीत लिखते रहे, लेकिन उनका पहला प्यार ग़ज़ल ही रही-
मिली जब उनसे नज़र बस रहा था एक जहां
हटी निगाह तो चारों तरफ़ थे वीराने

उन्होंने शायरी को महज़ मोहब्बत के जज़्बे तक सीमित न रखकर उसमें ज़िंदगी की जद्दोजहद को भी शामिल किया. उन्होंने ज़िंदगी को आम आदमी की नज़र से भी देखा और एक दार्शनिक के नज़रिये से भी. जेल में रहने के दौरान 1949 में लिखा उनका फ़िल्मी गीत-एक दिन बिक जाएगा माटी के मोल… ज़िंदगी की सच्चाई को बयान करता है. बक़ौल बेकल उत्साही, मजरूह एक ऐसे शायर थे, जिनके कलाम में समाज का दर्द झलकता था. उन्हें एक हद तक प्रयोगवादी शायर और गीतकार भी कहा जा सकता है. उन्होंने अवध के लोकगीतों का रस भी अपनी रचनाओं में घोला था. इससे पहले शायरी की किसी और रचना में ऐसा नहीं देखा गया था. उन्होंने फ़िल्मी गीतों को साहित्य की बुलंदियों पर पहुंचाने में अहम किरदार निभाया. 1965 में प्रदर्शित फ़िल्म ऊंचे लोग का यह गीत इस बात की तस्दीक करता है-
एक परी कुछ शाद सी, नाशाद-सी
बैठी हुई शबनम में तेरी याद की
भीग रही होगी कहीं कली-सी गुलज़ार की
जाग दिल-ए-दीवाना

1993 में उन्हें सिनेमा जगत के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से नवाज़ा गया. यह पुरस्कार पाने वाले वह पहले गीतकार थे. इसके अलावा 1965 में वह फ़िल्म दोस्ती में अपने गीत-चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे… के लिए फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए. मजरूह सुल्तानपुरी ने चार दशकों से भी ज़्यादा अरसे तक क़रीब तीन सौ फ़िल्मों के लिए तक़रीबन चार हज़ार गीत लिखे. मजरूह ने 24 मई, 2000 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया, लेकिन उनकी शायरी ने उन्हें अमर बना दिया.


फ़िरदौस ख़ान
लफ़्ज़ों के जादूगर और हर दिल अज़ीज़ शायर साहिर का असली नाम अब्दुल हयी साहिर था, लेकिन उन्होंने इसे बदल कर साहिर लुधियानवी रख लिया था. उनका जन्म 8 मार्च, 1921 में लुधियाना के एक जागीरदार घराने में हुआ था. उनके पिता बेहद अमीर थे. घर में किसी चीज़ की कमी नहीं थी, लेकिन माता-पिता के अलगाव के बाद वह अपनी मां के साथ रहे और इस दौरान उन्हें ग़ुरबत में दिन गुज़ारने पड़े. उन्होंने लुधियाना के ख़ालसा हाईस्कूल से दसवीं की. गवर्नमेंट कॉलेज से 1939 में उन्हें निकाल दिया गया था. बाद में इसी कॉलेज में वह मुख्य अतिथि बनकर आए थे. यहां से संबंधित उनकी नज़्म बहुत मशहूर हुई-
इस सर ज़मीन पे आज हम इक बार ही सही
दुनिया हमारे नाम से बेज़ार ही सही
लेकिन हम इन फ़िज़ाओं के पाले हुए तो हैं
गर यहां नहीं तो यहां से निकाले हुए तो हैं...

1943 में वह लाहौर आ गए और उसी साल उन्होंने अपना पहला कविता संग्रह तलखियां शाया कराया, जो बेहद लोकप्रिय हुआ और उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई. इसके बाद 1945 में वह प्रसिद्ध उर्दू पत्र अदब-ए-लतीफ़ और शाहकार लाहौर के संपादक बन गए. बाद में वह द्वैमासिक पत्रिका सवेरा के भी संपादक बने. इस पत्रिका में उनकी एक नज़्म को पाकिस्तान सरकार ने अपने ख़िलाफ़ बग़ावत मानते हुए उनके विरुद्ध वारंट जारी कर दिया. 1949 में उन्होंने लाहौर छोड़ दिया और दिल्ली आ गए. यहां उनका दिल नहीं लगा और वह मुंबई चले आए. वहां वह उर्दू पत्रिका शाहराह और प्रीतलड़ी के संपादक बने. इसी साल उन्होंने फ़िल्म आज़ादी की राह के लिए गीत लिखे. संगीतकार सचिन देव बर्मन की फ़िल्म नौजवान के गीत ठंडी हवाएं लहरा के आएं…ने उन्हें प्रसिद्धि दिलाई. इसके बाद उन्होंने मुड़कर नहीं देखा. उन्होंने सचिन देव बर्मन के अलावा, एन दत्ता, शंकर जयकिशन और ख़य्याम जैसे संगीतकारों के साथ काम किया. साहिर एक रूमानी शायर थे. उन्होंने ज़िंदगी में कई बार मुहब्बत की, लेकिन उनका इश्क़ कभी परवान नहीं चढ़ पाया. वह अविवाहित रहे. कहा जाता है कि एक गायिका ने फ़िल्मों में काम पाने के लिए साहिर से नज़दीकियां बढ़ाईं और बाद में उनसे किनारा कर लिया. इसी दौर में साहिर ने एक ख़ूबसूरत नज़्म लिखी-
चलो इक बार फिर से
अजनबी बन जाएं हम दोनों
चलो इक बार फिर से…
न मैं तुमसे कोई उम्मीद रखूं दिलनवाज़ी की
न तुम मेरी तरफ़ देखो ग़लत अंदाज़ नज़रों से
न मेरे दिल की धड़कन लड़खड़ाए मेरी बातों से
न ज़ाहिर हो तुम्हारी कशमकश का राज़ नज़रों से
चलो इक बार फिर से…

साहिर ने फ़िल्मी दुनिया में भी अपनी शायरी का कमाल दिखाया. उनके गीतों और नज़्मों का जादू सिर चढ़कर बोलता था. उनका नाम जिस फ़िल्म से जु़ड जाता था, उसमें वह सर्वोपरि होते थे. वह किसी के सामने नहीं झुकते थे, चाहे वह लता मंगेशकर हों या फिर सचिन देव बर्मन. वह संगीतकार से ज़्यादा मेहनताना लेते थे और ताउम्र उन्होंने इसी शर्त पर फ़िल्मों में गीत लिखे. हर दिल अज़ीज़ इस शायर ने कभी घुटने नहीं टेके, न शायरी में और न सिनेमा में. उनकी आन-बान-शान किसी फ़िल्मी सितारे से कम न थी. उन्हें भी फ़िल्मी सितारों की तरह चमचमाती महंगी गाड़ियों का शौक़ था. अपनी फ़ितरत की वजह से वह आलोचनाओं का भी शिकार रहे. वह अपने गीत को समूची फ़िल्म कृति से भारी समझते थे और इस बात को वह डंके की चोट पर कहते भी थे. यश चोपड़ा की फ़िल्म कभी-कभी के गीतों को याद कीजिए. फ़िल्म की शुरुआत में ही साहिर के दो गीत रखे गए, जो बेहद लोकप्रिय हुए-
कभी-कभी मेरे दिल में ख़्याल आता है
कि जैसे तुझको बनाया गया है मेरे लिए
तू अबसे पहले सितारों में बस रही थी कहीं
तुझे ज़मीं पे बुलाया गया है मेरे लिए…

मैं पल दो पल का शायर हूं
पल दो पल मेरी जवानी है
पल दो पल मेरी हस्ती है
पल दो पल मेरी कहानी है…

साहिर सिर्फ़ अपने लिए ही नहीं, दूसरों के लिए भी सिद्धांतवादी थे. वह लाहौर में साहिर साक़ी नामक एक मासिक उर्दू पत्रिका निकालते थे. पत्रिका घाटे में चल रही थी. साहिर की हमेशा यह कोशिश रहती थी कि कम ही क्यों न हो, लेकिन लेखक को उसका मेहनताना ज़रूर दिया जाए. एक बार वह ग़ज़लकार शमा लाहौरी को वक़्त पर पैसे नहीं भेज सके. शमा लाहौरी को पैसों की सख्त ज़रूरत थी. वह ठंड में कांपते हुए साहिर के घर पहुंच गए. साहिर ने उन्हें चाय बनाकर पिलाई. इसके बाद उन्होंने खूंटी पर टंगा अपना महंगा कोट उतारा और उन्हें सौंपते हुए कहा, मेरे भाई, बुरा न मानना, लेकिन इस बार नक़द के बदले जिंस में मेहनताना क़ुबूल कर लो. ऐसे थे साहिर. 25 अक्टूबर, 1980 को दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया, लेकिन अपनी शायरी की बदौलत वह गीतों में आज भी ज़िंदा हैं. उनकी महान रचनाओं ने उन्हें अमर कर दिया है. रहती दुनिया तक लोग उनके गीत गुनगुनाते रहेंगे.

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी
कामुकता के कारण लिंगभेद पैदा होता है, अत: लिंगभेद को जानने का सबसे प्रभावी तरीका यही है कि कामुकता का गंभीरता से मूल्यांकन किया जाए. मेकनिन ने रेखांकित किया है कि लिंगों के बीच में विषमता का प्रधान कारण कामुकता है. मीडिया में स्त्रियों के विज्ञापन देखकर पहले यह कहा जा सकता था कि स्त्री का समर्पित रूप ही आदर्श रूप था. किन्तु हाल के वर्षों में स्त्री की स्वायत्त या स्वतंत्र छवि भी सामने आयी है,स्त्री और पुरूष के बीच में समानता का संदेश देने वाले विज्ञापन भी आए हैं. इसके बावजूद स्त्री का समर्पित रूप आज भी सबसे ज्यादा आकर्षित करता है, मुख्यधारा के विज्ञापनों में इसका वर्चस्व है. विज्ञापनों के माध्यम से जो मुख्य संदेश संप्रेषित किया जा रहा है कि स्त्री का मुख्य लक्ष्य है पुरूष को आकर्षित करना. पुरूषों के इस्तेमाल की वस्तुओं में जो कामुक औरत दिखाई जाती है उसकी कामुक अपील मर्द के साथ संबंध बनाते हुए सामने आती है. इसी तरह औरतों के इस्तेमाल वाली वस्तुओं के विज्ञापनों में रूपायित स्त्री कामुकता का लक्ष्य है मर्द को आकर्षित करना. विज्ञापन यह बताता है कि स्त्री और पुरूष आपस में कैसे व्यवहार करें. साथ ही हम यह भी सोचते हैं कि वे कैसे व्यवहार करें.
पितृसत्तात्मक समाज में विज्ञापनों के जरिए हैट्रोसेक्सुअल मर्द परिप्रेक्ष्य में इमेज बनायी जाती है. इस परिप्रेक्ष्य में स्त्री को शारीरिक आकर्षण के साथ जोड़कर पेश किया जाता है. मर्द की पहचान इस संकेत से होती है कि उसके साथ कितनी आकर्षक स्त्रियां जुड़ी हैं. जो औरत शारीरिक तौर पर जितनी आकर्षक होगी उसके सहयोगी मर्द की उतनी ही प्रतिष्ठा होगी. फलत: मीडिया की स्त्री इमेजों और कामुकता से अंतत: पुरूष लाभान्वित होता है. यही वजह है कि कामुकता लिंगभेद की धुरी है, पुंसवादी वर्चस्व का आधार है. मीडिया में समर्पित कामुक औरत का रूपायन जेण्डर हायरार्की की सृष्टि करता है.
विज्ञापनों के अध्ययन की पहली पूर्वधारणा(हाइपोथिस) है -कामुक औरत को समर्पित और आश्रित रूप में पेश किया जाए. भारत में विज्ञापनों में स्त्री इमेज में हिन्दू स्त्री की इमेज ही चारों ओर छायी हुई है.अन्य अल्पसंख्यक समुदाय की स्त्रियों का रूपायन तकरीबन गायब है. कभी-कभार टीकाकरण अभियान के समय अल्पसंख्यक औरत नजर आ जाती है.
सवाल उठता है कि हिन्दू औरत की कामुकता का केन्द्र में बने रहना क्या अल्पसंख्यक स्त्रियों के लिए शुभ लक्षण है ? क्या इससे साम्प्रदायिक भेदभाव बढ़ता है ?
मीडिया के संदर्भ में दूसरी पूर्वधारणा यह है कि हिन्दू औरत अल्पसंख्यक औरत की तुलना में प्रभुत्वशाली और स्वतंत्र होती है. भारत की विशेषता है कि यहां का समूचा मीडिया मूलत: हिन्दू मीडिया है. यहां पर अल्पसंख्यकों का पक्षधर मीडिया गायब है. हिन्दू मीडिया में नमूने के मुस्लिम अभिनेता/ अभिनेत्रियों को देखकर हमें यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि भारत का मीडिया धर्मनिरपेक्ष है.
मीडिया के हिन्दुत्ववादी पूर्वाग्रहों को उसकी प्रस्तुतियों के समग्र फ्लो के संदर्भ में देखा जाना चाहिए.
हमें इस सवाल पर विचार करना चाहिए कि भारतीय सिनेमा ने कितनी फिल्में इस्लामिक संस्कृति की थीम या मुसलमानों की जीवन शैली पर पेश कीं ? कितनी फिल्में हिन्दुओं की संस्कृति और देवी-देवताओं पर पेश कीं ? जो मुस्लिम कलाकार मीडिया में नजर आते हैं वे कितना अल्पसंख्यक समाज का चित्रण करते हैं ?
दिलीप कुमार से लेकर शाहरूख खान तक की पूरी फिल्मी पीढ़ी हिन्दू कथानकों और जीवनशैली के चित्रण से भरी है.फिल्म उद्योग में अनेक मुस्लिम अभिनेताओं और अभिनेत्रियों के होने के बावजूद हमें मुस्लिम समाज की न्यूनतम जानकारी तक नहीं है. हिन्दू और मुस्लिम समाज के बीच विगत 60 सालों में बेगानापन बढ़ा है. इस बेगानेपन को मीडिया तोड़ सकता था,किन्तु ऐसा नहीं हुआ. मीडिया में हिन्दू औरत का दर्द,उत्पीडन,शोषण,कामुक रूप तो बार-बार और प्रत्येक क्षण सामने आता है किन्तु मुस्लिम औरत की कामुकता, शोषण, वैषम्य, दर्द, सुख आदि को हम देख ही नहीं पाते.
मुस्लिम औरत के बारे में हम खास किस्म के स्टीरियोटाईप से कभी-कभार दो-चार होते हैं, हिन्दुओं में भी ऊँची जाति की औरतें ही मीडिया का पर्दा घेरे हुए हैं. ऊँची जाति का सवर्ण विमर्श ही प्रमुखता से दोहराया जा रहा है. इसी तरह अल्पसंख्यक मीडिया में भी अल्पसंख्यक स्त्री की इमेज एकसिरे से अनुपस्थित है. समग्रता में देखें तो मध्यवर्गीय हिन्दू ऑडिशंस के बाजार को केन्द्र में रखकर मीडिया में स्त्री इमेजों का रूपायन हो रहा है.
मीडिया में खासकर फिल्मों में सारी दुनिया में यह देखा गया है कि अभिनय के क्षेत्र में स्त्रियों की तुलना में मर्द ज्यादा उम्र तक अभिनय करते हैं. हॉलीवुड फिल्मों के बारे में किए गए अनुसन्धान बताते हैं कि औरतों की अभिनय उम्र तीस साल के आसपास जाकर खत्म हो जाती है जबकि मर्द की औसत अभिनय उम्र चालीस साल है. टीवी में बूढ़े चरित्रों का नकारात्मक रूपायन युवाओं में बढ़ी हुई उम्र के कलाकारों के प्रति आकर्षण घटा रहा है. टीवी पर बूढ़ी उम्र के स्त्री चरित्रों का कम आना या उनकी नकारात्मक प्रस्तुति के कारण भी प्रौढ़ स्त्री चरित्रों का प्रयोग घटा है.
मीडिया में मर्द की सफलता का पैमाना इस बात से तय होता है कि वह क्या करता है ? जबकि औरत की सफलता का पैमाना उसके लुक से तय होता है.मर्द की तुलना में औरत का शारीरिक तौर पर आकर्षक होना ज्यादा महत्वपूर्ण है. सौन्दर्य और जवानी को स्त्री के साथ जोड़कर देखा जाता है, इसके कारण ही स्त्री की ज्यादा उम्र को नकारात्मक तत्व के रूप में लिया जाता है. मर्द की उम्र उसकी सफलता और ज्ञान या अनुभव के रूप में देखी जाती है जबकि स्त्री ज्योंही अपनी जवानी के दौर को पार कर जाती है.उसका सौन्दर्य खण्डित मान लिया जाता है. वह सामाजिक तौर पर या कार्य क्षेत्र में अपना सामाजिक मूल्य खो देती है.
समाचारों में स्त्री एंकर या प्रवाचिका मूलत: अपनी एपीयरेंस के कारण बनी रह पाती है. जबकि मर्द एंकर को अनुभव और विशेषज्ञता के आधार पर देखा जाता है. मर्द का चेहरा झुर्रियों रहित,सफेद बालों वाला भी आकर्षक माना जाता है,जबकि औरत को एक सामान्य स्टैण्डर्ड के हिसाब से युवापन को दर्शाना होता है. टीवी पत्रकारिता पर यदि मर्द और औरत के लिए एक ही मानक लागू किया जाए तो ज्यादातर मर्द बेरोजगार हो जाएंगे. कार्य क्षेत्र की प्रस्तुतियों में टीवी चरित्रों में स्त्रियां कुछ ही किस्म के काम करती नजर आती हैं. तुलनात्मक रूप से मातहत पदों पर काम करती नजर आती हैं. जबकि मर्द व्यापक क्षेत्र में काम करता नजर आता है ,कर्ता के रूप में नजर आता है. अपने पद पर काम करते हुए औरतें यदि अपनी क्षमता का इस्तेमाल करती हैं तो उन्हें खतरों का सामना करना पड़ता है, यहां तक कि नौकरी जाने का भी खतरा रहता है.
सफल स्त्री चरित्र हमेशा अस्थिर, चंचल, जड़ से कटे हुए, स्त्रीत्व और मर्दानगी से विच्छिन्न नजर आते हैं. इस तरह के स्त्री चरित्रों के माध्यम से यह संदेश दिया जाता है कि यदि आप असली औरत हैं तो रीयल में जो कार्य है उसे नहीं कर सकती हैं. यदि रीयल कार्य कर लेती हैं तो रीयल औरत नहीं है. जबकि इस तरह का वर्गीकरण मर्द चरित्रों के संदर्भ में पेश नहीं किया जाता.
(लेखक वामपंथी चिंतक और कलकत्‍ता वि‍श्‍ववि‍द्यालय के हि‍न्‍दी वि‍भाग में प्रोफेसर हैं)


तनवीर जाफ़री
मीडिया को समाज का दर्पण माना जाता है. हमारे भारतीय लोकतंत्र मे तो इसे गैर संवैधानिक तरीक़े से ही सही परंतु इसकी विश्वसनीयता तथा जि़म्मेदारी के आधार पर इसे लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की संज्ञा से नवाज़ा गया है. अख़बारों में छपने वाली खबरें अथवा रेडियो या टीवी पर प्रसारित होने वाले समाचार या इस पर दिखाई जाने वाली विभिन्न विषयों की वार्ताएं अथवा बहस आम लोगों पर अपना महत्वपूर्ण प्रभाव छोड़ती हैं. मीडिया का हमारे समाज में इतना महत्व है कि देश में शांति बनाए रखने या अशांति फैलाने में भी यह अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है. परंतु बड़े अफ़सोस की बात है कि आज यही मीडिया अपने कर्तव्यों और ज़िम्मेदारियों से विमुख होता दिखाई दे रहा है. और मात्र अपनी टीआरपी बढ़ाने अर्थात् टेलीवीज़न रेटिंग प्वाईंटस अर्जित करने के मक़सद से या व्यवसायिक दृष्टिकोण से मीडिया का दुरुपयोग किया जाने लगा है. टेलीविज़न के क्षेत्र में ख़ासतौर से इस प्रकार की प्रवृति बहुत तेज़ी से पनपती देखी जा रही है.
    पिछले दिनों राजधानी दिल्ली में एक प्रतिष्ठित मीडिया हाऊस द्वारा अपना एक वार्षिक कार्यक्रम आयोजित किया गया. उस कार्यक्रम मे टीवी जगत की एक ऐसी प्रसिद्ध परंतु बदनाम शिख्सयत को सम्मानित किया गया जो रिश्वतख़ोरी तथा घोटालों में संदिग्ध तो था ही साथ-साथ उस पर एक महिला के संबंध में ग़लत रिपोर्ट प्रसारित कराए जाने का भी आरोप था. अफ़सोस की बात तो यह है कि ऐसे संदिग्ध पत्रकार को महिलाओं के क्षेत्र में अच्छी रिपोर्टिंग किए जाने के लिए ही सम्मानित किया गया. सोशल मीडिया में इस पत्रकार को सम्मानित किए जाने की काफी आलोचना की गई. कुछ लोगों ने तो इस विषय पर यहां तक लिखा कि उसके सम्मानित होने से तो गोया सम्मान से ही विश्वास उठ गया है. वैसे भी इलेक्ट्रानिक मीडिया पहले की तुलना में अब ऐसी कई बातों को लेकर अपनी विश्वसनीयता खोता जा रहा है. टीवी चैनल्स संचालित करना तो गोया एक तमाशा सा बन गया है. यदि कोई धनाढ्य व्यक्ति अपराधी गतिविधियों में या घोटालों में शामिल होता है और टीवी चैनल्स उसकी करतूतों को बेनक़ाब करते हैं तो वही व्यक्ति अपने धनबल से अपना टीवी चैनल चलाकर स्वयं मीडिया परिवार का हिस्सा बन जाता है और शत-प्रतिशत व्यवसायिक तरीके से अपने चैनल को चलाने लगता है. उसे इस बात की क़तईफ़िक्र नहीं होती कि जिस पेशे को उसने शुरु किया है वह लोकतंत्र का चौथा स्तंभ भी कहा जाता है और उसके पेशे के अपने कर्तव्य तथा कुछ ज़िम्मेदारियां भी हैं.
    आजकल कई नए-नए क्षेत्रीय टीवी चैनल्स में जिस स्तर पर पत्रकारों की भर्ती की जा रही है वह पैमाना तो बहुत हैरान करने वाला है. चैनल के संचालक या संपादक अथवा निदेशक यह भी नहीं देख रहे हैं कि जिस व्यक्ति के हाथों में वे अपने चैनल का लोगो लगा हुआ माईक थमा रहे हैं वह अपराधी है, सट्टेबाज़ है, अनपढ़ है उसे किसी विशिष्ट व्यक्ति से सवाल पूछना तो दूर उसे पत्रकारिता की एबीसीडी भी नहीं आती. आजकल ऐसे चैनल अपने पत्रकारों को तनख़्वाह अथवा पारिश्रमिक के नाम पर तो कुछ भी नहीं देते बजाए इसके उसी पत्रकार से कैमरा ख़रीदने को कहते हैं तथा उसके पास कार अथवा मोटरसाईकल है या नहीं यह भी सुनिश्चित करते हैं. शैक्षिक योग्यता तो पूछी ही नहीं जाती. ज़रा सोचिए ऐसा पत्रकार किसी मीडिया हाऊस से जुडऩे के बाद अपनी हेकड़ी बघारते हुए ब्लैकमेलिंग या सिर्फ़ पैसा कमाने के लिए लोगों को  डराने-धमकाने का काम करेगा या नहीं? ऐसे कथित पत्रकारों से भला मीडिया के सम्मान तथा उसके कर्तव्यों व ज़िम्मेदारियों को निभाने की उम्मीद भी क्या की जा सकती है जो पत्रकार पत्रकारिता के विषय में कुछ जानता ही न हो? और जो पत्रकार पत्रकारिता की समझ रखते भी हैं वे भी अपने स्वामियों के इशारे पर कुछ ऐसा कर दिखाने की कोशिश करते हैं ताकि जनता उनके चैनल की तरफ़ आकर्षित हो और उनके चैनल की तथा किसी कार्यक्रम विशेष की टीआरपी बढ़ती रहे. इसके लिए चाहे उन्हें ‘रस्सीका सांप’ क्यों न बनाना पड़े वे इससे भी नहीं हिचकिचाते. उदाहरण के तौर पर इन दिनों देश में असहिष्णुता जैसे विषय को लेकर एक फ़ुज़ूल की बहस छेड़ दी गई है. टीवी चैनल्स में मानो परस्पर प्रतिस्पर्धा हो गई है कि कौन सा चैनल किस मशहूरफ़िल्मी हस्ती से सहिष्णुता व असहिष्णुता के विषय पर कुछ ऐसा बयान ले ले जो उसके लिए ब्रेकिंग न्यूज़ बन जाए.फ़िल्मोद्योग के लोग बेशक आम लोगों की ही तरह संवेदनशील होते हैं. इनमें कई बड़े कलाकार ऐसे भी हैं जो समय-समय पर दान,चंदा अथवा सहयोग देकर जनकल्याण संबंधी कार्य भी करते रहते हैं. परंतु इसमें भी कोई शक नहीं कि यह वर्ग एक व्यवसायिक वर्ग है. इन्हें देश व समाज की चिंताओं से पहले यही देखना होता है कि इनकी फ़िल्में  हिट हो रही हें अथवा नहीं. इनकी सफलता व असफलता का पैमाना इनकी फ़िल्मों की लोकप्रियता पर ही निर्भर करता है. लिहाज़ा इसमें कोई दो राय नहीं कि प्राय: इन लोगों को समाज का हर वर्ग प्रिय तथा एक समान दिखाई देता है. इनके लिए धर्म-जात,क्षेत्र या वर्ग आदि की कोई अहमियत नहीं होती. इनके लिए सभी इनके सम्मानित दर्शक व प्रशंसक होते हैं. परंतु पिछले कुछ दिनों से यह देखा जा रहा है कि कुछ विशेष अभिनेताओं से असहिष्णुता संबंधी प्रश्र पूछकर टी वी चैनल्स द्वारा अपनी तो टीआरपी बढ़ाई जा रही है परंतु ऐसा कर इन कलाकारों के लिए मुसीबतें खड़ी की जा रही हैं. किसी धर्म विशेष से जुड़ा कोई अभिनेता यदि इस विषय पर अपने मन की या अपने परिवार की कोई बात सामने रख देता है तो टीवी एंकर गला फाड़-फाड़ कर उस की बातों को एक अपराधपूर्ण बात की तरह पेश करता है. परंतु यही बात अगर किसी अन्य धर्म का व्यक्ति कहे तो उसपर चर्चा भी नहीं होती.टीवी चैनल्स का आख़िर यह कौन सा पैमाना है?
    इसी प्रकार हमारे देश में यदि आतंकवाद से जुड़ा या किसी आतंकवादी संगठन से संबंध रखने का कोई संदिग्ध व्यक्ति पकड़ा जाता है तो टीवी चैनल्स इतना शोर मचाते हैं गोया दुनिया का सबसे बड़ा अपराधी पकड़ गया हो. हालांकि गिरफ़्तार किया गया कोई भी व्यक्ति प्रारंभिक दौर में केवल संदिग्ध ही होता है. परंतु टीवी चैनल्स उस की गिरफ़्तारी की ख़बर इस तरह पेश करते हैं गोया गिरफ़्तारी के समय ही अदालत ने उसे अपराधी क़रार दे दिया हो. परंतु यदि कोई अमन-शांति व भाईचारे की ख़बरें समाज से निकलती हैं उनपर यही चैनल ध्यान नहीं देते. गोया विवादित अथवा क्राईम संबंधी खबरें चीख़-चीख़ कर सुनाने से इनको अपनी  लोकप्रियता बढ़ती नज़र आती है और अपने चैनल की टीआरपी बुलंदी पर जाती दिखाई देती है. इन दिनों आतंकवाद के नाम पर आईएस अर्थात् इस्लामिक स्टेट से जुड़ी ख़बरें लगभग प्रतिदिन प्रत्येक चैनल पर किसी न किसी राष्ट्रीय अथवा अंतर्राष्ट्रीय समाचार के संदर्भ में सुनाई देती हैं. जैसे हमारे देश में कहीं आईएस का झंडा लहराया गया, कोई व्यक्ति आईएस से संबंधित नेटवर्क का हिस्सा नज़र आया, कोई आईएस के लिए भर्ती करने का आरोपी दिखाई दिया तो कोई आईएस के लिबास में नज़र आया आदि.
    एक और ख़बर अक्सर सुनने में आती है कि आतंकवादियों के कुकर्मों की आलोचना तथा इसका विरोध अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा ठीक ढंग से नहीं किया जाता. यहां तक कि पिछले दिनों अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने भी इसी आशय का बयान दिया था जिसे लेकर मीडिया में ख़ूब चर्चा हुई थी. परंतु पिछले दिनों देश की सबसे प्रमुख सूफ़ी दरगाह अजमेर शरीफ़ में होने वाले सालाना उर्स के दौरान लाखों मुसलमानों की मौजूदगी में देश के लगभग सत्तर हज़ार भारतीय मुस्लिम मौलवियों ने आईएसआईएस,तालिबान,अलक़ायदा तथा अन्य कई आतंकी संगठनों के विरुद्ध एक फतवा जारी करते हुए कहा कि यह आतंकी संगठन इस्लामी संगठन नहीं हैं बल्कि यह संगठन मानवता के लिए एक बड़ा खतरा हैं. यहां न केवल देश के सत्तर हज़ार मौलवियों व मुफ़्तियों ने फ़तवा जारी किया बल्कि इससे संबंधित एक फ़ार्म पर लाखों मुसलमानों से दस्तख़त भी करवाए गए जिसमें सभी ने एक स्वर से इन आतंकवादी संगठनों को ग़ैर इस्लामी बताया,इनकी गतिविधियों को ग़ैर इंसानी कऱार दिया तथा पेरिस पर हुए आतंकवादी हमले सहित दुनिया में हर स्थान पर होने वाले आतंकी हमलों की घोर निंदा की गई. परंतु इतनी बड़ी ख़बर पर ध्यान देना किसी टीवी चैनल ने ज़रूरी नहीं समझा. बड़े आश्चर्य की बात है कि आतंकवाद का एक संदिग्ध तो किसी टीवी चैनल के लिए उसकी टीआरपी बढ़ाने का कारक बन जाता है परंतु सत्तर हज़ार मौलवियों द्वारा एक स्वर से आतंकवाद व आतंकवादी गतिविधियों के विरुद्ध फ़तवा जारी करना इन्हीं टीवी चैनल्स के लिए कोई अहमियत नहीं रखता? इसे आख़िर टी वी पत्रकारिता का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या कहा जा सकता है? क्या यह इसका प्रमाण नहीं है कि टीवी पत्रकारिता अपने कर्तव्यों व अपनी ज़िम्मेदारियों से मुंह मोडक़र केवल अपनी टीआर पी को बढ़ाए जाने के एकसूत्रीय एजेंडे पर अमल कर रही है?

लेखक का परिचय

वरिष्ठ पत्रकार, समीक्षक और कॊलम लेखक तनवीर जाफ़री वर्तमान में हरियाणा साहित्य अकादमी के सदस्य है. बेबाक लेखन के लिए जाने जाते हैं. लेखन के अलावा सांप्रदायिक सौहार्द कायम करन के सामाजिक कामों में भी सक्रिय हैं.



फ़िरदौस ख़ान
बहुमुखी संगीत प्रतिभा के धनी मोहम्मद रफ़ी का जन्म 24 दिसंबर, 1924 को पंजाब के अमृतसर ज़िले के गांव मजीठा में हुआ. संगीत प्रेमियों के लिए यह गांव किसी तीर्थ से कम नहीं है. मोहम्मद रफ़ी के चाहने वाले दुनिया भर में हैं. भले ही मोहम्मद रफ़ी साहब हमारे बीच में नहीं हैं, लेकिन उनकी आवाज़ रहती दुनिया तक क़ायम रहेगी. साची प्रकाशन द्वारा प्रकाशित विनोद विप्लव की किताब मोहम्मद रफ़ी की सुर यात्रा मेरी आवाज़ सुनो मोहम्मद रफ़ी साहब के जीवन और उनके गीतों पर केंद्रित है. लेखक का कहना है कि मोहम्मद रफ़ी के विविध आयामी गायन एवं व्यक्तित्व को किसी पुस्तक में समेटना मुश्किल ही नहीं, बल्कि असंभव है, फिर भी अगर संगीत प्रेमियों को इस पुस्तक को पढ़कर मोहम्मद रफ़ी के बारे में जानने की प्यास थोड़ी-सी भी बुझ जाए तो मैं अपनी मेहनत सफल समझूंगा. इस लिहाज़ से यह एक बेहतरीन किताब कही जा सकती है.

मोहम्मद ऱफी के पिता का नाम हाजी अली मोहम्मद और माता का नाम अल्लारखी था. उनके पिता ख़ानसामा थे. रफ़ी के बड़े भाई मोहम्मद दीन की हजामत की दुकान थी, जहां उनके बचपन का काफ़ी वक़्त गुज़रा. वह जब क़रीब सात साल के थे, तभी उनके बड़े भाई ने इकतारा बजाते और गीत गाते चल रहे एक फ़क़ीर के पीछे-पीछे उन्हें गाते देखा. यह बात जब उनके पिता तक पहुंची तो उन्हें काफ़ी डांट पड़ी. कहा जाता है कि उस फ़क़ीर ने रफ़ी को आशीर्वाद दिया था कि वह आगे चलकर ख़ूब नाम कमाएगा. एक दिन दुकान पर आए कुछ लोगों ने ऱफी को फ़क़ीर के गीत को गाते सुना. वह उस गीत को इस क़दर सधे हुए सुर में गा रहे थे कि वे लोग हैरान रह गए. ऱफी के बड़े भाई ने उनकी प्रतिभा को पहचाना. 1935 में उनके पिता रोज़गार के सिलसिले में लाहौर आ गए. यहां उनके भाई ने उन्हें गायक उस्ताद उस्मान ख़ान अब्दुल वहीद ख़ान की शार्गिदी में सौंप दिया. बाद में रफ़ी ने पंडित जीवन लाल और उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली खां जैसे शास्त्रीय संगीत के दिग्गजों से भी संगीत सीखा.

मोहम्मद रफ़ी उस वक़्त के मशहूर गायक और अभिनेता कुंदन लाल सहगल के दीवाने से और उनके जैसा ही बनना चाहते थे. वह छोटे-मोटे जलसों में सहगल के गीत गाते थे. क़रीब 15 साल की उम्र में उनकी मुलाक़ात सहगल से हुई. हुआ यूं कि एक दिन लाहौर के एक समारोह में सहगल गाने वाले थे. रफ़ी भी अपने भाई के साथ वहां पहुंच गए. संयोग से माइक ख़राब हो गया और लोगों ने शोर मचाना शुरू कर दिया. व्यवस्थापक परेशान थे कि लोगों को कैसे ख़ामोश कराया जाए. उसी वक़्त रफ़ी के बड़े भाई व्यवस्थापक के पास गए और उनसे अनुरोध किया कि माइक ठीक होने तक रफ़ी को गाने का मौक़ा दिया जाए. मजबूरन व्यवस्थापक मान गए. रफ़ी ने गाना शुरू किया, लोग शांत हो गए. इतने में सहगल भी वहां पहुंच गए. उन्होंने रफ़ी को आशीर्वाद देते हुए कहा कि इसमें कोई शक नहीं कि एक दिन तुम्हारी आवाज़ दूर-दूर तक फैलेगी. बाद में रफ़ी को संगीतकार फ़िरोज़ निज़ामी के मार्गदर्शन में लाहौर रेडियो में गाने का मौक़ा मिला. उन्हें कामयाबी मिली और वह लाहौर फ़िल्म उद्योग में अपनी जगह बनाने की कोशिश करने लगे. उस दौरान उनकी रिश्ते में बड़ी बहन लगने वाली बशीरन से उनकी शादी हो गई. उस वक़्त के मशहूर संगीतकार श्याम सुंदर और फ़िल्म निर्माता अभिनेता नासिर ख़ान से रफ़ी की मुलाक़ात हुई. उन्होंने उनके गाने सुने और उन्हें बंबई आने का न्यौता दिया. ऱफी के पिता संगीत को इस्लाम विरोधी मानते थे, इसलिए बड़ी मुश्किल से वह संगीत को पेशा बनाने पर राज़ी हुए. रफ़ी अपने भाई के साथ बंबई पहुंचे. अपने वादे के मुताबिक़ श्याम सुंदर ने रफ़ी को पंजाबी फ़िल्म गुलबलोच में ज़ीनत के साथ गाने का मौक़ा दिया. यह 1944 की बात है. इस तरह रफ़ी ने गुलबलोच के सोनियेनी, हीरिएनी तेरी याद ने बहुत सताया गीत के ज़रिये पार्श्वगायन के क्षेत्र में क़दम रखा. रफ़ी ने नौशाद साहब से भी मुलाक़ात की. नौशाद ने फ़िल्म शाहजहां के एक गीत में उन्हें सहगल के साथ गाने का मौक़ा दिया. रफ़ी को सिर्फ़ दो पंक्तियां गानी थीं-मेरे सपनों की रानी, रूही, रूही रूही. इसके बाद नौशाद ने 1946 में उनसे फ़िल्म अनमोल घड़ी का गीत तेरा खिलौना टूटा बालक, तेरा खिलौना टूटा रिकॉर्ड कराया. फिर 1947 में फ़िरोज़ निज़ामी ने रफ़ी को फ़िल्म जुगनूं का युगल गीत नूरजहां के साथ गाने का मौक़ा दिया. बोल थे- यहां बदला वफ़ा का बेवफ़ाई के सिवा क्या है. यह गीत बहुत लोकप्रिय हुआ. इसके बाद नौशाद ने रफ़ी से फ़िल्म मेला का एक गीत ये ज़िंदगी के मेले गवाया. इस फ़िल्म के बाक़ी गीत मुकेश से गवाये गए, लेकिन रफ़ी का गीत अमर हो गया. यह गीत हिंदी सिनेमा के बेहद लोकप्रिय गीतों में से एक है. इस बीच रफ़ी संगीतकारों की पहली जोड़ी हुस्नलाल-भगतराम के संपर्क में आए. इस जोड़ी ने अपनी शुरुआती फ़िल्मों प्यार की जीत, बड़ी बहन और मीना बाज़ार में रफ़ी की आवाज़ का भरपूर इस्तेमाल किया. इसके बाद तो नौशाद को भी फ़िल्म दिल्लगी में नायक की भूमिका निभा रहे श्याम कुमार के लिए रफ़ी की आवाज़ का ही इस्तेमाल करना पड़ा. इसके बाद फ़िल्म चांदनी रात में भी उन्होंने रफ़ी को मौक़ा दिया. बैजू बावरा संगीत इतिहास की सिरमौर फ़िल्म मानी जाती है. इस फ़िल्म ने रफ़ी को कामयाबी के आसमान तक पहुंचा दिया. इस फ़िल्म में प्रसिद्ध शास्त्रीय गायक उस्ताद अमीर खां साहब और डी वी पलुस्कर ने भी गीत गाये थे. फ़िल्म के पोस्टरों में भी इन्हीं गायकों के नाम प्रचारित किए गए, लेकिन जब फिल्म प्रदर्शित हुई तो मोहम्मद रफ़ी के गाये गीत तू गंगा की मौज और ओ दुनिया के रखवाले हर तरफ़ गूंजने लगे. रफ़ी ने अपने समकालीन गायकों तलत महमूद, मुकेश और सहगल के रहते अपने लिए जगह बनाई. रफ़ी के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने तक़रीबन 26 हज़ार गाने गाये, लेकिन उनके तक़रीबन पांच हज़ार गानों के प्रमाण मिलते हैं, जिनमें ग़ैर फ़िल्मी गीत भी शामिल हैं. देश विभाजन के बाद जब नूरजहां, फ़िरोज़ निज़ामी और निसार वाज्मी जैसी कई हस्तियां पाकिस्तान चली गईं, लेकिन वह हिंदुस्तान में ही रहे. इतना ही नहीं, उन्होंने सभी गायकों के मुक़ाबले सबसे ज़्यादा देशप्रेम के गीत गाये. रफ़ी ने जनवरी, 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के एक माह बाद गांधी जी को श्रद्धांजलि देने के लिए हुस्नलाल भगतराम के संगीत निर्देशन में राजेंद्र कृष्ण रचित सुनो सुनो ऐ दुनिया वालों, बापू की ये अमर कहानी गीत गाया तो पंडित जवाहर लाल नेहरू की आंखों में आंसू आ गए थे. भारत-पाक युद्ध के वक़्त भी रफ़ी ने जोशीले गीत गाये. यह सब पाकिस्तानी सरकार को पसंद नहीं था. शायद इसलिए दुनिया भर में अपने कार्यक्रम करने वाले रफ़ी पाकिस्तान में शो पेश नहीं कर पाए. ऱफी किसी भी तरह के गीत गाने की योग्यता रखते थे. संगीतकार जानते थे कि आवाज़ को तीसरे सप्तक तक उठाने का काम केवल ऱफी ही कर सकते थे. मोहम्मद रफ़ी ने संगीत के उस शिखर को हासिल किया, जहां तक कोई दूसरा गायक नहीं पहुंच पाया. उनकी आवाज़ के आयामों की कोई सीमा नहीं थी. मद्धिम अष्टम स्वर वाले गीत हों या बुलंद आवाज़ वाले याहू शैली के गीत, वह हर तरह के गीत गाने में माहिर थे. उन्होंने भजन, ग़ज़ल, क़व्वाली, दशभक्ति गीत, दर्दभरे तराने, जोशीले गीत, हर उम्र, हर वर्ग और हर रुचि के लोगों को अपनी आवाज़ के जादू में बांधा. उनकी असीमित गायन क्षमता का आलम यह था कि उन्होंने रागिनी, बाग़ी, शहज़ादा और शरारत जैसी फ़िल्मों में अभिनेता-गायक किशोर कुमार पर फ़िल्माये गीत गाये.

वह 1955 से 1965 के दौरान अपने करियर के शिखर पर थे. यह वह व़क्त था, जिसे हिंदी फ़िल्म संगीत का स्वर्ण युग कहा जा सकता है. उनकी आवाज़ के जादू को शब्दों में बयां करना नामुमकिन है. उनकी आवाज़ में सुरों को महसूस किया जा सकता है. उन्होंने अपने 35 साल के फ़िल्म संगीत के करियर में नौशाद, सचिन देव बर्मन, सी रामचंद्र, रोशन, शंकर-जयकिशन, मदन मोहन, ओ पी नैयर, चित्रगुप्त, कल्याणजी-आनंदजी, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, सलिल चौधरी, रवींद्र जैन, इक़बाल क़ुरैशी, हुस्नलाल, श्याम सुंदर, फ़िरोज़ निज़ामी, हंसलाल, भगतराम, आदि नारायण राव, हंसराज बहल, ग़ुलाम हैदर, बाबुल, जी एस कोहली, वसंत देसाई, एस एन त्रिपाठी, सज्जाद हुसैन, सरदार मलिक, पंडित रविशंकर, उस्ताद अल्ला रखा, ए आर क़ुरैशी, लच्छीराम, दत्ताराम, एन दत्ता, सी अर्जुन, रामलाल, सपन जगमोहन, श्याम जी-घनश्यामजी, गणेश, सोनिक-ओमी, शंभू सेन, पांडुरंग दीक्षित, वनराज भाटिया, जुगलकिशोर-तलक, उषा खन्ना, बप्पी लाह़िडी, राम-लक्ष्मण, रवि, राहुल देव बर्मन और अनु मलिक जैसे संगीतकारों के साथ मिलकर संगीत का जादू बिखेरा.

रफ़ी साहब ने 31 जुलाई, 1980 को आख़िरी सांस ली. उन्हें दिल का दौरा पड़ा था. जिस रोज़ उन्हें जुहू के क़ब्रिस्तान में दफ़नाया गया, उस दिन बारिश भी बहुत हो रही थी. उनके चाहने वालों ने उन्हें नम आंखों से विदाई दी. लग रहा था मानो ऱफी साहब कह रहे हों-
हां, तुम मुझे यूं भुला न पाओगे
जब कभी भी सुनोगे गीते मेरे
संग-संग तुम भी गुनगुनाओगे…


फ़िरदौस ख़ान
शहरीकरण ने लोक मानस से बहुत कुछ छीन लिया है. चौपालों के गीत-गान लुप्त हो चले हैं. लोक में सहज मुखरित होने वाले गीत अब टीवी कार्यक्रमों में सिमट कर रह गए हैं. फिर भी गांवों में, पर्वतों एवं वन्य क्षेत्रों में बिखरे लोक जीवन में अभी भी इनकी महक बाक़ी है. हरियाणा, राजस्थान, पंजाब, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड एवं उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में पारंपरिक लोकगीतों और लोककथाओं के बिंब-प्रतिबिंब देखे जा सकते हैं, जबकि मौजूदा आधुनिक चकाचौंध के दौर में शहरों में लोकगीत अपना अस्तित्व खोते जा रहे हैं. संचार माध्यमों के अति तीव्र विकास एवं यातायात की सुविधा के चलते प्रियतम की प्रतीक्षा में पल-पल पलकें भिगोती नायिका अब केवल प्राचीन काव्यों में ही देखी जा सकती है. सारी प्रकृति संगीतमय है. इसके कण-कण में संगीत बसा है. मनुष्य भी प्रकृति का अभिन्न अंग है, इसलिए संगीत से अछूता नहीं रह सकता. साज़ और सुर का अटूट रिश्ता है. साज़ चाहे जैसे भी हों, संगीत के रूप चाहे कितने ही अलग-अलग क्यों न हों, अहम बात संगीत और उसके प्रभाव की है. जब कोई संगीत सुनता है तो यह सोचकर नहीं सुनता कि उसमें कौन से वाद्यों का इस्तेमाल हुआ है या गायक कौन है या राग कौन सा है या ताल कौन सी है. उसे तो केवल संगीत अच्छा लगता है, इसलिए वह संगीत सुनता है यानी असल बात है संगीत के अच्छे लगने की, दिल को छू जाने की. संगीत भारतीय संस्कृति का अहम हिस्सा है. भारतीय संस्कृति का प्रतिबिंब लोकगीतों में झलकता है. यह देश की सांस्कृतिक धरोहर होने के साथ-साथ प्रचार-प्रसार का सशक्त माध्यम भी है.

लोकगीत जनमानस को लुभाते रहे हैं. 80 वर्षीय कुमार का कहना है कि वर्षा ऋतु का आख्यान गीत आल्हा कभी जन-जन का कंठहार होता था. वीर रस से ओतप्रोत आल्हा जनमानस में जोश भर देता था. कहते हैं कि अंग्रेज़ अपने सैनिकों को आल्हा सुनवाकर ही जंग के लिए भेजा करते थे. हरियाणा के कलानौर में लोकगीत सुनाकर लोगों का ध्यान आकर्षित कर रहे राजस्थान के चुरू निवासी लोकगायक वीर सिंह कहते हैं कि लोकगायकों में राजपूत, गूजर, भाट, भोपा, धानक एवं अन्य पिछड़ी जातियों के लोग शामिल हैं. वे रोज़ी-रोटी की तलाश में अपना घर-बार छोड़कर दूरदराज़ के शहरों एवं गांवों में निकल पड़ते हैं. वह बताते हैं कि लोकगीत हर मौसम एवं हर अवसर विशेष पर अलग-अलग महत्व रखते हैं. इनमें हर ऋतु का वर्णन मनमोहक ढंग से किया जाता है. दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद चांदनी रात में चौपालों पर बैठे किसान ढोल-मंजीरे की तान पर उनके लोकगीत सुनकर झूम उठते हैं. फ़सल की कटाई के वक़्त गांवों में काफ़ी चहल-पहल देखने को मिलती है. फ़सल पकने की ख़ुशी में किसान कुसुम-कलियों से अठखेलियां करती बयार, ठंडक और भीनी-भीनी महक को अपने रोम-रोम में महसूस करते हुए लोक संगीत की लय पर नाचने लगते हैं. वह बताते हैं कि किसान उनके लोकगीत सुनकर उन्हें बहुत-सा अनाज दे देते हैं, लेकिन वह पैसे लेना ज़्यादा पसंद करते हैं. अनाज को उठाकर घूमने में उन्हें काफ़ी परेशानी होती है. वह कहते हैं कि युवा वर्ग सुमधुर संगीत सुनने के बजाय कानफोड़ू संगीत को ज़्यादा महत्व देता है. शहरों में अब लोकगीत-संगीत को चाहने वाले लोग नहीं रहे. दिन भर गली-मोहल्लों की ख़ाक छानने के बाद उन्हें बामुश्किल 50 से 60 रुपये ही मिल पाते हैं. उनके बच्चे भी बचपन से ही इसी काम में लग जाते हैं. चार-पांच साल की खेलने-पढ़ने की उम्र में उन्हें घड़ुवा, बैंजू, ढोलक, मृदंग, पखावज, नक्कारा, सारंगी एवं इकतारा आदि वाद्य बजाने की शिक्षा शुरू कर दी जाती है. यही वाद्य उनके खिलौने होते हैं.

दस वर्षीय बिरजू ने बताया कि लोकगीत गाना उसका पुश्तैनी पेशा है. उसके पिता, दादा और परदादा को भी यह कला विरासत में मिली थी. इस लोकगायक ने पांच साल की उम्र से ही गीत गाना शुरू कर दिया था. इसकी मधुर आवाज़ को सुनकर किसी भी मुसाफ़िर के क़दम ख़ुद ब ख़ुद रुक जाते हैं. इसके सुर एवं ताल में भी ग़ज़ब का सामंजस्य है. मानसिंह ने इकतारे पर हीर-रांझा, सोनी-महिवाल, शीरी-फ़रहाद एवं लैला-मजनूं के क़िस्से सुनाते हुए अपनी उम्र के 55 साल गुज़ार दिए. उन्हें मलाल है कि सरकार और प्रशासन ने कभी लोकगायकों की सुध नहीं ली. काम की तलाश में उन्हें घर से बेघर होना पड़ता है. उनकी जिंदगी ख़ानाबदोश बनकर रह गई है. ऐसे में दो वक़्त की रोटी का इंतज़ाम करना पहाड़ से दूध की नहर निकालने से कम नहीं है. उनका कहना है कि दयनीय आर्थिक स्थिति के कारण बच्चे शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवाओं से महरूम रहते हैं. सरकार की किसी भी जनकल्याणकारी योजना का लाभ उन्हें नहीं मिलता. साक्षरता, प्रौढ़ शिक्षा, वृद्धावस्था पेंशन एवं इसी तरह की अन्य योजनाओं से वे अनजान हैं. वह कहते हैं कि रोज़गार की तलाश में दर-दर की ठोंकरे खाने वाले लोगों को शिक्षा की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है. अगर रोज़गार मिल जाए तो उन्हें पढ़ना भी अच्छा लगेगा. वह बताते हैं कि लोक संपर्क विभाग के कर्मचारी कई बार उन्हें सरकारी समारोह या मेले में ले जाते हैं और पारिश्रमिक के नाम पर 200 से 300 रुपये तक दे देते हैं, लेकिन इससे कितने दिन गुज़ारा हो सकता है. आख़िर रोज़गार की तलाश में भटकना ही उनकी नियति बन चुका है.

कई लोक गायकों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाई. भूपेन हजारिका और कैलाश खैर इसकी बेहतरीन मिसालें हैं. असम के सादिया में जन्मे भूपेन हजारिका ने बचपन में एक गीत लिखा और दस साल की उम्र में उसे गाया. बारह साल की उम्र में उन्होंने असमिया फिल्म इंद्रमालती में काम किया था. उन्हें 1975 में सर्वोत्कृष्ट क्षेत्रीय फिल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार, 1992 में सिनेमा जगत के सर्वोच्च पुरस्कार दादा साहब फाल्के सम्मान से नवाज़ा गया. इसके अलावा उन्हें 2009 में असोम रत्न और संगीत नाटक अकादमी अवॉर्ड और 2011 में पद्मभूषण जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया गया. कैलाश खैर ने भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाई और लोकगीतों को विदेशों तक पहुंचाया, मगर सभी लोक गायक भूपेन हजारिका और कैलाश खैर जैसे क़िस्मत वाले नहीं होते. ऐसे कई लोक गायक हैं, जो अनेक सम्मान पाने के बावजूद बदहाली में ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं. राजस्थान के थार रेगिस्तान की खास पहचान मांड गायिकी को बुलंदियों तक पहुंचाने वाली लोक गायिका रुक्मा उम्र के सातवें दशक में बीमारियों से लड़ते-लड़ते ज़िंदगी की जंग हार गईं. विगत 20 जुलाई, 2011 को उनकी मौत के साथ ही मांड गायिकी का एक युग भी समाप्त हो गया. थार की लता के नाम से प्रसिद्ध रुक्मा ज़िंदगी के आख़िरी दिनों तक पेंशन के लिए कोशिश करती रहीं, लेकिन यह सरकारी सुविधा उन्हें नसीब नहीं हुई. वह मधुमेह और ब्लड प्रेशर से पीड़ित थीं, लेकिन पैसों की कमी के कारण वक़्त पर दवाएं नहीं ख़रीद पाती थीं. उनका कहना था कि वह प्रसिद्ध गायिका होने का ख़ामियाज़ा भुगत रही हैं. सरकार की तरफ़ से उन्हें कोई आर्थिक सहायता नहीं मिली. हालत इतनी बदतर है कि बीपीएल में भी उनका नाम शामिल नहीं है. विधवा और विकलांग पेंशन से भी वह वंचित हैं. सरकारी बाबू सोचते हैं कि हमें किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं है.

रुक्मा ने विकलांग होते हुए भी देश-विदेश में सैकड़ों कार्यक्रम पेश कर मांड गायिकी की सरताज मलिका रेशमा, अलनजिला बाई, मांगी बाई और गवरी देवी के बीच अपनी अलग पहचान बनाई. बाड़मेर के छोटे से गांव जाणकी में लोक गायक बसरा खान के घर जन्मी रुक्मा की सारी ज़िंदगी ग़रीबी में बीती. रुक्मा की दादी अकला देवी एवं माता आसी देवी थार इलाक़े की ख्यातिप्राप्त मांड गायिका थीं. गायिकी की बारीकियां उन्होंने अपनी मां से ही सीखीं. केसरिया बालम आओ नी, पधारो म्हारे देस…उनके इस गीत को सुनकर श्रोता भाव विभोर हो उठते थे. उन्होंने पारंपरिक मांड गायिकी के स्वरूप को बरक़रार रखा. उनका मानना था कि पारंपरिक गायिकी से खिलवाड़ करने से उसकी नैसर्गिक मौलिकता ख़त्म हो जाती है. विख्यात रंगमंच कर्मी मल्लिका साराभाई ने उनके जीवन पर डिस्कवरी चैनल पर वृत्तचित्र प्रसारित किया था. विदेशों से भी संगीत प्रेमी उनसे मांड गायिकी सीखने आते थे. ऑस्ट्रेलिया की सेरहा मेडी ने बाडमेर के गांव रामसर में स्थित उनकी झोपड़ी में रहकर उनसे संगीत की शिक्षा ली और फिर गुलाबी नगरी जयपुर के जवाहर कला केंद्र में आयोजित थार महोत्सव में मांड गीत प्रस्तुत कर ख़ूब सराहना पाई. रुक्मा की ज़िंदगी के ये यादगार लम्हे थे. अब उनकी छोटी बहू हनीफ़ा मांड गायिकी को ज़िंदा रखने की कोशिश कर रही हैं. एक तरफ़ सरकार कला संस्कृति के नाम पर बड़े-बड़े समारोहों का आयोजन कर उन पर करोड़ों रुपये पानी की तरह बहा देती है, वहीं दूसरी तरफ़ देश की कला-संस्कृति को विदेशों तक फैलाने वाले कलाकारों को ग़ुरबत में मरने के लिए छोड़ देती है.

क़ाबिले-गौर है कि लोकगीत गाने वालों को लोक गायक कहा जाता है. लोकगीत से आशय है लोक में प्रचलित गीत, लोक रचित गीत और लोक विषयक गीत. कजरी, सोहर और चैती आदि लोकगीतों की प्रसिद्ध शैलियां हैं. त्योहारों पर गाए जाने वाले मांगलिक गीतों को पर्व गीत कहा जाता है. ये गीत रंगों के पावन पर्व होली, दीपावली, छठ, तीज एवं अन्य मांगलिक अवसरों पर गाए जाते हैं. विभिन्न ऋतुओं में गाए जाने वाले गीतों को ऋतु गीत कहा जाता है. इनमें कजरी, चतुमार्सा, बारहमासा, चइता और हिंडोला आदि शामिल हैं. इसी तरह अलग-अलग काम-धंधे करने वालों के गीतों को पेशा गीत कहा जाता है. ये गीत लोग काम करते वक़्त गाते हैं, जैसे गेहूं पीसते समय महिलाएं जांत-पिसाई, छत की ढलाई करते वक़्त थपाई और छप्पर छाते वक़्त छवाई गाते हैं. इसी तरह गांव-देहात में अन्य कार्य करते समय सोहनी और रोपनी आदि गीत गाने का भी प्रचलन है. विभिन्न जातियों के गीतों को जातीय गीत कहा जाता है. इनमें नायक और नायिका की जाति का वर्णन होता है. इसके अलावा कई राज्यों में झूमर, बिरहा, प्रभाती, निर्गुण और देवी-देवताओं के गीत गाने का चलन है. ये गीत क्षेत्र विशेष की सांस्कृतिक धरोहर हैं, जिनसे वहां के बारे में जानकारी प्राप्त होती है.


फ़िरदौस ख़ान
हिंदी सिनेमा की सशक्त अभिनेत्री स्मिता पाटिल को उनकी जीवंत और यादगार भूमिकाओं के लिए जाना जाता है. उन्होंने पहली ही फ़िल्म से अपनी अभिनय प्रतिभा का लोहा मनवा दिया था, लेकिन ज़िंदगी ने उन्हें ज़्यादा वक़्त नहीं दिया. स्मिता पाटिल का जन्म 17 अक्टूबर, 1955 को महाराष्ट्र के पुणे में हुआ था. उनके पिता शिवाजीराव पाटिल महाराष्ट्र सरकार में मंत्री थे. उनकी माता सामाजिक कार्यकर्ता थीं. उनकी शुरुआती शिक्षा मराठी माध्यम के एक स्कूल से हुई थी. कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद वह मराठी टेलीविजन में बतौर समाचार वाचिका काम करने लगीं. ख़ूबसूरत आंखों वाली सांवली सलोनी स्मिता पाटिल का हिंदी सिनेमा में आने का वाक़िया बेहद रोचक है. एक दिन प्रसिद्ध फ़िल्म निर्माता-निर्देशक श्याम बेनेगल ने उन्हें टीवी पर समाचार पढ़ते हुए देखा. वह स्मिता के नैसर्गिक सौंदर्य और समाचार वाचन से प्रभावित हुए बिना न रह सके. उन दिनों वह अपनी फ़िल्म चरणदास चोर बनाने की तैयारी कर रहे थे. स्मिता पाटिल में उन्हें एक उभरती अभिनेत्री दिखाई दी. उन्होंने स्मिता पाटिल से मुलाक़ात कर उन्हें अपनी फ़िल्म में एक छोटा-सा किरदार निभाने का प्रस्ताव दिया, जिसे उन्होंने क़ुबूल कर लिया. हालांकि यह एक बाल फ़िल्म थी. फ़िल्म में न केवल स्मिता पाटिल के अभिनय की बेहद सराहना हुई, बल्कि इस फ़िल्म ने समानांतर सिनेमा को स्मिता के रूप में एक नया सितारा दे दिया. और फिर यहीं से उनका अभिनय का सफ़र शुरू हो गया, जो उनकी मौत तक जारी रहा. श्याम बेनेगल ने एक बार कहा था, मैंने पहली नज़र में ही समझ लिया था कि स्मिता पाटिल में ग़ज़ब की स्क्रीन उपस्थिति है और जिसका इस्तेमाल रूपहले पर्दे पर किया जा सकता है.

1975 स्मिता ने श्याम बेनेगल की फ़िल्म निशांत में काम किया. इसके बाद 1977 में उनकी भूमिका और मंथन जैसी कामयाब फ़िल्में प्रदर्शित हुईं. 1978 में उन्हें फ़िल्म भूमिका में सशक्त अभिनय करने के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के तौर पर नेशनल फ़िल्म अवॉर्ड से नवाज़ा गया. इस फ़िल्म में उन्होंने 30-40 के दशक में मराठी रंगमच से जुड़ी अभिनेत्री हंसा वाडेकर की निजी ज़िंदगी को रूपहले पर्दे पर जीवंत कर दिया था. इसी साल यानी 1978 में ही उन्हें मराठी फ़िल्म जॅत रे जॅत के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड दिया गया. इसके बाद 1981 में उन्हें फ़िल्म चक्र के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फ़िल्मफ़ेयर और नेशनल फ़िल्म अवॉर्ड दिया गया. 1980 में प्रदर्शित इस फ़िल्म में स्मिता पाटिल ने झुग्गी-झोंपड़ी में रहने वाली महिला का किरदार निभाया था. स्मिता पाटिल ने समानांतर सिनेमा के साथ-साथ व्यवसायिक सिनेमा में भी अपनी अभिनय प्रतिभा के जलवे बिखेरे. जहां उनकी बाज़ार, भीगी पलकें, अर्थ, अर्ध सत्य और मंडी जैसी कलात्मक फ़िल्में सराही गईं, वहीं दर्द का रिश्ता, आख़िर क्यों, ग़ुलामी, अमृत और नज़राना, नमक हलाल और शक्ति जैसी व्यवसायिक फ़िल्में भी लोकप्रिय हुईं. 1985 में आई उनकी फ़िल्म मिर्च-मसाला ने उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति दिलाई. सौराष्ट्र की आज़ादी से पहले की पृष्ठभूमि पर बनी यह फ़िल्म उस दौर की सामंतवादी व्यवस्था के बीच पिसती एक महिला के संघर्ष को दर्शाती है. दुग्ध क्रांति पर बनी उनकी फ़िल्म मंथन के कुछ दृश्य आज भी टेलीविजन पर देखने को मिल जाते हैं.  इस फ़िल्म के निर्माण के लिए गुजरात के तक़रीबन पांच लाख किसानों ने अपनी मज़दूरी में से दो-दो रुपये फ़िल्म निर्माताओं को दिए थे. स्मिता पाटिल की दूसरी फ़िल्मों की तरह यह भी कामयाब साबित हुई. स्मिता पाटिल ने महान फ़िल्मकार सत्यजीत रे के साथ भी काम किया. उन्होंने मुंशी प्रेमचंद की कहानी पर आधारित टेली़फ़िल्म सद्‌गति में दमदार अभिनय कर इसे ऐतिहासिक बना दिया. स्मिता पाटिल को भारतीय सिनेमा में उनके  योगदान के लिए 1985 में पदमश्री से सम्मानित किया गया.

उन्होंने शादीशुदा अभिनेता राज बब्बर से प्रेम विवाह किया. उनके लिए राज बब्बर ने अपनी पत्नी नादिरा ज़हीर को छोड़ दिया था. स्मिता पाटिल अपनी नई ज़िंदगी से बहुत ख़ुश थीं, लेकिन क़िस्मत को शायद कुछ और ही मंज़ूर था. बहुत कम उम्र में वह इस दुनिया को छोड़ गईं. बेटे प्रतीक को जन्म देने के कुछ दिनों बाद 13 दिसंबर, 1986 को उनकी मौत हो गई. उनकी मौत के बाद 1988 में फ़िल्म वारिस प्रदर्शित हुई, जो उनकी यादगार फ़िल्मों में से एक है. अभिनेत्री रेखा ने इस फ़िल्म में स्मिता पाटिल के लिए डबिंग की थी.

हिंदी सिनेमा में स्मिता पाटिल की प्रतिद्वंद्विता शबाना आज़मी से थी. स्मिता पाटिल की तरह शबाना आज़मी भी श्याम बेनेगल की ही खोज थीं. स्मिता पाटिल और शबाना आज़मी के बीच मुक़ाबले की बातें काफ़ी चर्चित हुईं. फ़िल्म अर्थ और मंडी में दोनों अभिनेत्रियों ने साथ-साथ काम किया. दोनों फ़िल्मों की समीक्षकों ने ज़्यादा सराहना की. स्मिता पाटिल का मानना था कि उनकी भूमिका में काफ़ी बदलाव किया गया था. इसके बाद ही उन्होंने व्यवसायिक फ़िल्मों का रुख़ कर लिया. शुरू में उन्हें काफ़ी परेशानी का सामना करना पड़ा, लेकिन उन्होंने ख़ुद को वक़्त के हिसाब से ढाल लिया. नतीजतन, उनकी व्यवसायिक फ़िल्में भी बेहद कामयाब रहीं. स्मिता पाटिल के साथ शक्ति और नमक हलाल जैसी फ़िल्मों में करने वाले अभिनेता अमिताभ बच्चन का कहना है कि स्मिता जी कमर्शियल फ़िल्में करने से हिचकिचाती थीं. वह नाचने-गाने में असहज महसूस करती थीं. जब भी वह इस तरह की कोई फ़िल्म करती थीं ख़ुद को पूरी तरह से निर्देशक के हाथों में सौप देती थीं. अमिताभ बच्चन उनकी महानता और सादगी के भी क़ायल रहे हैं. बक़ौल अमिताभ बच्चन, शक्ति की शूटिंग के दौरान हम फ़िल्म के कुछ हिस्से चेन्नई में फ़िल्मा रहे थे. स्मिता जी मेरे पास आईं और बोलीं, नमक हलाल करने के बाद लोग मुझे पहचानने लगे हैं. मुझे लगता है कि यह स्मिता जी की महानता थी, जो वह यह बात कह रही थीं, क्योंकि वह तो हिंदी सिनेमा का एक जाना माना नाम थीं.

स्मिता पाटिल की सादगी ही उन्हें ख़ास बनाती थी. स्मिता पाटिल के साथ फ़िल्म गमन में काम करने वाले नाना पाटेकर कहते हैं कि मैं और स्मिता एक दूसरे से काफ़ी हंसी-मज़ाक़ किया करते थे. मैं उसे काली-कलूटी कहकर चिड़ाता था, तो वह मुझे कहती थी कि ये काला रंग ही तो उसकी ख़ासियत है, तभी तो लोग उसे प्यार करते हैं. फ़िल्म निर्माता-निर्देशक महेश भट्ट स्मिता पाटिल का ज़िक्र करते हुए कहते हैं कि स्मिता पाटिल सुंदर और साहसी थीं. उनके ललाट पर ही शायद दुर्भाग्य लिखा था. मैं इसे खुलेआम स्वीकार करना चाहता हूं कि उनके आकस्मिक निधन से मैं कभी उबर नहीं पाया. नियति का खेल देखें कि वह मां बनीं. उन्होंने एक शिशु को जन्म दिया. एक जीवन देने के साथ ही वह मौत की आग़ोश में चली गईं. ग़म और कुछ नहीं के बीच मैं ग़म को अपनाना चाहूंगी, स्मिता पाटिल ने मेरी आत्मकथात्मक फ़िल्म अर्थ की कहानी सुनने के बाद मुझे यह नोट भेजा था. उसमें उन्हें एक पागल अभिनेत्री की भूमिका निभानी थी. तमाम विकल्पों के बीच उन्होंने उस फ़िल्म के लिए हां की थी. उसकी एक ही वजह थी कि उस किरदार से उन्हें सहानुभूति हुई थी. सहानुभूति की वजह यही हो सकती है कि उन दिनों वह स्वयं शादीशुदा राज बब्बर के साथ ख़तरनाक रिश्ते को जी रही थीं. अपने पास प्रेमी को रखने की चाह और एक घर तो़ड़ने के अपराध की भावना के बीच वह झूल रही थीं. इस भूमिका में इतना विषाद है कि इसे निभाने से मुझे राहत मिलेगी, अर्थ का पहला दृश्य करने के बाद उन्होंने कहा था. हम लोग एक पंचसितारा होटल के कमरे में उस दृश्य की शूटिंग कर रहे थे. इस दृश्य में वह अपने दुर्भाग्य और अवैध संबंध का रोना रो रही थीं. अर्थ का सेट उनके लिए आईना था, जिसमें वह अपने दर्दनाक वर्तमान की झलक देख रही थीं. वह हर दिन सुबह खेल के मैदान में जा रहे बच्चे के उत्साह के साथ सेट पर आती थीं और पिछले दिन अपने प्रेमी के साथ गुज़रे अनुभव और पीड़ा को कैमरे के सामने उतार देती थीं. प्रकृति ने उन्हें अकेलेपन का क़ीमती उपहार दिया था. इस अकेलेपन ने ही उनकी कला को जन्म दिया था. वह प्राय: कहा करती थीं, इस इंडस्ट्री में हर व्यक्ति अकेला है. एक रात मैं थोड़ी देर से घर लौटा तो मेरी बीवी ने बताया कि लिविंग रूम में कोई मेरा इंतज़ार कर रहा है. कमरे में दाख़िल होने के बाद मैंने देखा कि स्मिता पाटिल मेरी तरफ़ पीठ किए खड़ी थीं और बड़े ग़ौर से अपनी हथेली निहार रही थीं. वह रो रही थीं. उन्होंने अपनी हथेली मेरी तरफ़ ब़ढाते हुए कहा, क्या आपने मेरी हथेली में जीवनरेखा देखी है? यह बहुत छोटी है. मैं ज़्यादा दिनों तक ज़िंदा नहीं रहूंगी. उसके बाद उन्होंने जो बात कहीं, वह मैं अपनी अंतिम सांस तक नहीं भूल सकता. उन्होंने आगे कहा कि महेश, मरने का डर सबसे बड़ा डर नहीं होता. जीने का डर मरने से बड़ा होता है. वह मेरे सामने रात भर पत्तों की तरह कांपती रहीं. शायद अपनी मौत के बारे में सोच कर वह घबरा रही थीं. सुबह होने पर वह अपने घर लौटीं. सुबह की नीम रोशनी में पूरी तरह से टूटी हुई, लड़खड़ाते क़दमों से अपनी कार की तरफ़ जाती उनकी छवि आज भी मेरे दिमाग़ में कौंधती है. वह बहुत सुंदर दिख रही थीं. मुझे यह मानने में कोई गुरेज़ नहीं है कि अर्थ में जो भावनात्मक उबाल मैं दिखा पाया था, वह स्मिता की निजी ज़िंदगी के ईंधन के बिना मुमकिन नहीं होता.

हिंदी के अलावा मराठी, गुजराती, तेलुगू, बांग्ला, कन्ऩड और मलयालम फ़िल्मों में भी काम किया. उनकी हिंदी फ़िल्मों में चरणदास चोर, निशांत, मंथन, कोंद्रा, भूमिका, गमन, द नक्सलिटाइस, आक्रोश, सद्‌गति, अल्बर्ट पिंटो को ग़ुस्सा क्यों आता है, चक्र, तजुर्बा, भीगी पलकें, बाज़ार, दिल-ए-नादान, नमक हलाल, बदले की आग, शक्ति, सुबह, मंडी, अर्थ, चटपटी, घुंघरू, दर्द का रिश्ता, हादसा, क़यामत, अर्धसत्य, पेट प्यार और पाप, शपथ, क़ानून मेरी मुट्ठी में, मेरा दोस्त मेरा दुश्मन, गिद्ध, तरंग, फ़रिश्ता, शराबी, आनंद और आनंद, आज की आवाज़, रावण, क़सम पैदा करने वाले की, जवाब,  आख़िर क्यों, हम दो हमारे दो, ग़ुलामी,  मेरा घर मेरे बच्चे, अंगारे, कांच की दीवार, दिलवाला, आपके साथ, अमृत, तीसरा किनारा, अनोखा रिश्ता, दहलीज़, सूत्रधार, नज़राना, शेर शिवाजी, देवशिशु, इंसानियत के दुश्मन, मिर्च मसाला, डांस डांस, राही, अवाम, ठिकाना, आकर्षण, हम फ़रिश्ते नहीं, वारिस, गलियों का बादशाह और सितम आदि शामिल हैं.

भले ही आज स्मिता पाटिल हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन अपनी फ़िल्मों के ज़रिये वह हमेशा अपने प्रशंसकों के बीच रहेंगी. बहरहाल, इस साल के शुरू में अभिनेता और कांग्रेस सांसद राज बब्बर ने कहा था कि अब वह ए बुक ऑफ पैन नामक किताब लिखने वाले हैं, जिसमें वह अपने और स्मिता पाटिल के प्रेम के बारे में भी लिखेंगे.


फ़िरदौस ख़ान
दक्षिण भारत की कई अभिनेत्रियों ने हिंदी सिनेमा में अपने अभिनय की अपिट छाप छो़डी है. उनके सौंदर्य, नृत्य कौशल और अभिनय ने हिंदी सिनेमा के दर्शकों का मन मोह लिया और वे यहां भी उतनी ही कामयाब हुईं, जितनी दक्षिण भारतीय फिल्मों में. इन अभिनेत्रियों की लंबी फेहरिस्त है, जिनमें से एक नाम है वैजयंती माला का. वैजयंती माला में वह सब था, जो उन्हें हिंदी सिनेमा में बुलंदियों तक पहुंचा सकता था. बेहतरीन अभिनेत्री होने के साथ-साथ वह भरतनाट्यम की भी अच्छी नृत्यांगना रही हैं. फिल्म आम्रपाली में उनके नृत्य को शायद ही कोई भुला पाए. उनका अंदाज़ निराला रहा है. उन्होंने शास्त्रीय नृत्य के साथ वेस्टर्न डांस को मिलाकर नई नृत्य कला पेश की, जिसे दूसरी अभिनेत्रियों ने भी अपनाया.

वैजयंती माला का जन्म 13 अगस्त, 1936 को दक्षिण भारत के राज्य तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई में एक आयंगर परिवार में हुआ था. उनकी मां वसुंधरा देवी तमिल फ़िल्मों की एक प्रसिद्ध नायिका रही हैं. वैजयंती माला का बचपन धार्मिक माहौल में बीता. उनकी परवरिश उनकी नानी यदुगिरी देवी ने की. उन्हें अपने पिता एमडी रमन से बेहद लगाव रहा. क़रीब पांच साल की उम्र में वैजयंती माला को यूरोप जाने का मौक़ा मिला. मैसूर के महाराज के सांस्कृतिक दल में उनकी मां, पिता और नानी साथ गईं. यह 1940 का वाक़िया है. वेटिकन सिटी में वैजयंती माला को पोप के सामने नृत्य करने का मौक़ा मिला. उन्होंने अपने नृत्य प्रदर्शन से सबका मन मोह लिया. पोप ने एक बॉक्स में चांदी का मेडल देकर बच्ची की हौसला अ़फजाई की. इस दल ने पोप के सामने भी प्रदर्शन किया. वैजयंती माला ने गुरु अरियाकुडी रामानुज आयंगर और वझूवूर रमिआह पिल्लै से भरतनाट्यम सीखा, जबकि कर्नाटक संगीत की शिक्षा मनक्कल शिवराजा अय्यर से ग्रहण की.

तेरह साल की उम्र से ही उन्होंने स्टेज शो करने शुरू कर दिए थे. पहले स्टेज शो के दौरान उनके साथ एक ब़डा हादसा हो गया था, इसके बावजूद उन्होंने शानदार नृत्य प्रदर्शन करके यह साबित कर दिया कि वह हालात का मुक़ाबला करना जानती हैं. हुआ यूं कि 13 अप्रैल, 1949 को तमिल नववर्ष के दिन उनके नृत्य का कार्यक्रम था. इसके लिए एक ब़डा घर लिया गया और वहां एक स्टेज बनाया गया. स्टेज का जायज़ा लेते व़क्त वैजयंती माला का पैर वहां पड़े बिजली के नंगे तार से छू गया, जिससे वह झुलस गईं. लेकिन साहसी वैजयंती माला ने जख्मी पैर और दर्द की परवाह किए बिना नृत्य प्रदर्शन किया और उनके चेहरे पर उनकी तकली़फ ज़रा भी नहीं झलकी. अगले दिन के अ़खबारों में उनके नृत्य कौशल और साहस की सराहना करती हुई खबरें और तस्वीरें प्रकाशित हुईं. एक अ़खबार ने लिखा-वरूगिरल वैजयंती यानी यही है वैजयंती. उनके नृत्य के एक के बाद एक कार्यक्रमों का आयोजन होने लगा. उन्हीं दिनों चेन्नई के गोखले हॉल में आयोजित नृत्य समारोह में एवीएम प्रोडक्शन के मालिक एवी ययप्पा चेटियार और एमवी रमन भी मौजूद थे. कार्यक्रम के बाद ययप्पा चेटियार ने उन्हें अपनी तमिल फिल्म वजकई में काम करने का प्रस्ताव दिया, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया. दरअसल, निर्देशक एमवी रमन को अपनी फिल्म वजकई के लिए एक नए चेहरे की तलाश थी. फ़िल्म हिट रही. इसे तेलगू में जिवीथम और हिंदी में बहार नाम से बनाया गया. मीडिया ने उन्हें वैजयंती द डांसिंग स्टार नाम दिया. इस दौरान उन्होंने कई क्षेत्रीय फिल्मों में काम किया, लेकिन पहली फिल्म जैसी कामयाबी नहीं मिली. इस दौरान वह नृत्य प्रदर्शन भी करती रहीं.

अचानक एक दिन उन्हें फिल्म नागिन का प्रस्ताव मिला. इसके लिए वह मुंबई आ गईं. उन्होंने सांपों के साथ काम करके सबको चौंका दिया, लेकिन फिल्म को प्रदर्शन के फौरन बाद कामयाबी नहीं मिली. कुछ व़क्त बाद इसी फिल्म को देखने के लिए दर्शक सिनेमाघरों में उम़डने लगे. 1954 में बनी फ़िल्म नागिन उनकी पहली हिट फ़िल्म थी. जिस व़क्त वैजयंती माला हिंदी सिनेमा में आईं, उस व़क्त सुरैया, मधुबाला, नरगिस और मीना कुमारी आदि अभिनेत्रियां सिने पटल पर छाई हुई थीं. वैजयंती माला को इनके बीच ही अपनी अलग पहचान बनानी थी, जो बेहद ही चुनौतीपूर्ण काम था. उन्होंने अपने अभिनय और नृत्य कला के बूते यह साबित कर दिया कि वह भी किसी से कम नहीं हैं. 1955 में बनी फिल्म देवदास में उन्होंने चंद्रमुखी के किरदार को कालजयी बना दिया. 1956 में आई उनकी फिल्म नया दौर में भी उन्होंने शानदार अभिनय किया. इस फिल्म को कई अवॉर्ड मिले. दिलीप कुमार के साथ उनकी जो़डी को दर्शकों ने खूब पसंद किया. नया दौर हिंदी सिनेमा की बेहतरीन फिल्मों में शुमार की जाती है.

उनकी 1956 में न्यू डेल्ही, 1957 में कठपुतली, आशा और साधना, 1958 में मधुमति, 1959 में पैग़ाम, 1961 में गंगा-जमुना, 1964 में संगम और लीडर, 1966 में आम्रपाली और सूरज, 1967 में ज्वैलीथी़फ, 1968 में संघर्ष और 1969 में प्रिंस आई. उन्होंने बंगाली फिल्मों में भी काम किया. उनकी एक ब़डी खासियत यह भी थी कि उनके डायलॉग डब नहीं करने प़डते थे.वह पहली ऐसी दक्षिण भारतीय अभिनेत्री थीं, जिन्होंने हिंदी फिल्मों में अपने डायलॉग खुद बोलने के लिए हिंदी सीखी. उन्हें 1956 में फ़िल्म देवदास के लिए पहली बार सर्वश्रेष्ठ सहअभिनेत्री का फ़िल्म़फेयर पुरस्कार मिला. इसके बाद 1958 में फ़िल्म मधुमती के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के फ़िल्म़फेयर अवॉर्ड से नवाज़ा गया. फिर 1961 में फ़िल्म गंगा-जमुना और 1964 में फ़िल्म संगम के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फ़िल्म़फेयर अवॉर्ड मिला. इसके अलावा 1996 में उन्हें फ़िल्म़फेयर लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड देकर सम्मानित किया गया.

अपने करियर की बुलंदी पर ही उन्होंने विवाह करने का ऐलान कर दिया. उन्होंने डॉ. चमन लाल बाली को अपने जीवन साथी के रूप में चुना. डॉ. बाली राजकपूर के फैमिली डॉक्टर थे. तमिल फिल्म नीलाबू की शूटिंग के दौरान वैजयंती माला डल झील में डूबते-डूबते बचीं थीं. इलाज के लिए उन्हें डॉ. बाली के पास लाया गया. डॉ. बाली ने उनकी अच्छी देखभाल की. इसी दौरान उनका झुकाव डॉ. बाली के प्रति ब़ढता गया और वह उनसे प्रेम करने लगीं. डॉ. बाली रावलपिंडी के थे और वैजयंती शुद्ध दक्षिण भारतीय आयंगर परिवार से थीं. इसलिए उनके परिवार वाले रिश्ते के लिए राज़ी नहीं थे, लेकिन उनकी नानी के द़खल के बाद 10 मार्च, 1968 को उनका विवाह आयंगर विवाह पद्धति से संपन्न हुआ. वह एक बेटे की मां बनीं. उनकी ज़िंदगी में खुशियों का यह दौर उस व़क्त थम गया, जब उनके पति की तबीयत खराब रहने लगी. उनकी एक बार सर्जरी हो चुकी थी. एक रात उनकी तबीयत इतनी ज़्यादा बिग़डी कि फिर कभी वह स्वस्थ नहीं हो पाए. ऐसा व़क्त भी आया, जब डॉ. बाली के परिवार ने वैजयंती माला और उनके पुत्र को जायदाद से बेद़खल कर दिया. वैजयंती माला ने चार साल तक मुक़दमा लड़ा और जीत हासिल की. अब वह फिर से अपने करियर की शुरुआत करना चाहती थीं. 1989 के चुनाव के दौरान राजीव गांधी ने उन्हें अपनी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ने के लिए आमंत्रित किया, जिसे उन्होंने क़ुबूल कर लिया. उन्होंने चुनाव ल़डा और 1.5 लाख वोटों से जीत दर्ज की. इसके बाद वह दो बार राज्यसभा से सांसद रहीं. 1995 में अन्नामलाई विश्वविद्यालय ने उन्हें डॉक्टर की उपाधि से नवाज़ा. वह खुद को अभिनेत्री से ज़्यादा नृत्यांगना मानती हैं. वह नाट्यालय अकादमी की आजीवन अध्यक्ष हैं.

प्रसिद्ध अभिनेत्री मीना कुमारी की आज बरसी है. आज ही के दिन 1972 में इस महान अभिनेत्री ने आखिरी सांस ली थी.  मीना कुमारी को ट्रेजडी क्वीन के नाम से जाना जाता है. दुखांत फिल्मों में उनकी यादगार भूमिकाओं के लिए उन्हें यह नाम दिया गया था.

मीना कुमारी का असली नाम माहजबीं बानो था. उनके पिता अली बक्श भी फिल्मों में और पारसी रंगमंच के एक मंजे हुये कलाकार थे और उन्होंने कुछ फिल्मों में संगीतकार का भी काम किया था. उनकी मां प्रभावती देवी (बाद में इकबाल बानो) भी एक मशहूर नृत्यांगना और अदाकारा थीं. उनका संबंध टैगोर परिवार से था. माहजबीं ने पहली बार किसी फिल्म के लिए छह साल की उम्र में काम किया था. उनका नाम मीना कुमारी विजय भट्ट की लोकप्रिय फिल्म 'बैजू बावरा' पड़ा. मीना कुमारी की शुरुआती फिल्में ज़्यादातर पौराणिक कथाओं पर आधारित थीं. मीना कुमारी के आने के साथ भारतीय सिनेमा में नई अभिनेत्रियों का एक खास दौर शुरू हुआ था जिसमें नरगिस, निम्मी, सुचित्रा सेन और नूतन शामिल थीं.

1953 तक मीना कुमारी की तीन सफल फिल्में आ चुकी थीं जिनमें : दायरा, दो बीघा ज़मीन और परिणीता शामिल थीं. परिणीता से मीना कुमारी के लिये एक नया युग शुरु हुआ. परिणीता में उनकी भूमिका ने भारतीय महिलाओं को खास प्रभावित किया था चूंकि इस फिल्म में भारतीय नारियों के आम जिदगी की तकलीफ़ों का चित्रण करने की कोशिश की गई थी. लेकिन इसी फिल्म की वजह से उनकी छवि सिर्फ़ दुखांत किरदार करने वाले की होकर सीमित हो गई.

मीना कुमारी की शादी मशहूर फिल्मकार कमाल अमरोही के साथ हुई जिन्होंने मीना कुमारी की कुछ मशहूर फिल्मों का निर्देशन किया था, लेकिन उनकी शादी कामयाब नहीं रही मीना अमरोही से 1964 में अलग हो गईं. शर्मीली मीना के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं कि वे कवियित्री भी थीं, लेकिन कभी भी उन्होंने अपनी कवितायें छपवाने की कोशिश नहीं की. उनकी लिखी कुछ उर्दू की कवितायें नाज़ के नाम से बाद में प्रकाशित हुईं.
पेश है मीना कुमारी की चंद नज़्में

टुकड़े-टुकड़े दिन बीता, धज्जी-धज्जी रात मिली
जितना-जितना आंचल था, उतनी ही सौगात मिली

रिमझिम-रिमझिम बूंदों में, ज़हर भी है और अमृत भी
आंखें हंस दीं दिल रोया, यह अच्छी बरसात मिली

जब चाहा दिल को समझें, हंसने की आवाज़ सुनी
जैसे कोई कहता हो, ले फिर तुझको मात मिली

मातें कैसी घातें क्या, चलते रहना आठ पहर
दिल-सा साथी जब पाया, बेचैनी भी साथ मिली

होंठों तक आते आते, जाने कितने रूप भरे
जलती-बुझती आंखों में, सादा सी जो बात मिली


चांद तन्हा है, आसमां तन्हा

दिल मिला है कहां-कहां तन्हा
बुझ गई आस, छुप गया तारा
थरथराता रहा धुआं तन्हा।
ज़िन्दगी क्या इसी को कहते हैं।
जिस्म तन्हा है और जां तन्हा।
हमसफ़र कोई मिल गया जो कहीं
दोनों चलते रहे यहां तन्हा
राह देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जाएंगे यह जहां तन्हा


दिन गुज़रता नज़र नहीं आता
रात काटे सेभी नहीं कटती
रात और दिन के इस तसलसुल में
उम्र बांटे से भी नहीं बंटती
अकेलेपन के अंधेरे में दूर-दूर तलक
यह एक खौफ़ जी पे धुआं बनके छाया है
फिसल के आंख से यह छन पिघल न जाए कहीं
पलक-पलक ने जिस राह से उठाया है
शाम का यह उदास सन्नाटा
धुंधलका, देख बढ़ता जाता है
नहीं मालूम यह धुंआ क्यों है
दिल तो कुश है कि जलता जाता है
तेरी आवाज़ में तारे से क्यों चमकने लगे
किसकी आंखों के तरन्नुम को चुरा लाई है
किसकी आगोश की ठंडक पे है डाका डाला
किसकी बांहों से तू शबनम उठा लाई है



मुसर्रत पे रिवाजों का सख्त पहरा है,
न जाने कौन-सी उम्मीदों पे दिल ठहरा है
तेरी आंखों में झलकते हुए इस गम की क़सम
ए दोस्त दर्द का रिश्ता बहुत ही गहरा है


वक़्त ने छीन लिया हौसला-ए-जब्ते सितम
अब तो हादिसा-ए- ग़म पे तड़प उठता है दिल
हर नए ज़ख्म पे अब रूह बिलख उठती है
होंठ अगर हंस भी पड़े आंख छलक उठती है
ज़िन्दगी एक बिखरता हुआ दर्दाना है
ऐसा लगता है कि अब ख़त्म पर अफ़साना है

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी
अमेरिकी समाज पोर्न में पूरी तरह पोर्न में डूब चुका है. समाज को पोर्न में डुबाने में बहुराष्ट्रीय मीडिया कंपनियां और कारपोरेट हाउस सबसे आगे हैं. हमारे देश में जो लोग अमेरिकीकरण के काम में लगे हैं उन्हें यह ध्यान रखना होगा कि भारतीय समाज का अमरीकीकरण करने का अर्र्थ है पोर्न में डुबो देना. पोर्न में डूब जाने का अर्थ है संवेदनहीन हो जाना. अमेरिकी समाज क्रमश: संवेदनहीनता की दिशा में आगे जा रहा है. संवेदनहीनता का आलम यह है कि समाज में बेगानापन बढ रहा है. जबकि सामाजिक होने का अर्थ है कि व्यक्ति सामाजिक संबंध बनाए, संपर्क रखे, एक-दूसरे के सुख-दुख में साझेदारी निभाएं. अमेरिकी समाज में वे ही लोग प्रभावशाली हैं जिनके पास वित्तीय सुविधाएं हैं, पैसा है. उनका ही मीडिया और कानून पर नियंत्रण है. मनोवैज्ञानिकों के यहां पोर्न और वेश्यावृत्ति एक ही कोटि में आते हैं. पोर्न वे लोग देखते हैं जो दमित कामेच्छा के मारे हैं. अथवा जीवन में मर्दानगी नहीं दिखा पाए हैं. वे लोग भी पोर्न ज्यादा देखते हैं जो यह मानते हैं कि पुरूष की तुलना में औरत छोटी, हेय होती है.ये ऐसे लोग हैं जो स्त्री के भाव, संवेदना, संस्कार, आचार- विचार, नैतिकता आदि किसी में भी आस्था नहीं रखते अथवा इन सब चीजों से मुक्त होकर स्त्री को देखते हैं. पोर्न देखने वाला अपने स्त्री संबंधी विचारों को बनाए रखना चाहता है. वह औरत को वस्तु की तरह देखता है. उसे समान नहीं मानता. पोर्न ऐसे भी लोग देखते हैं जो पूरी तरह स्त्री के साथ संबंध नहीं बना पाते.स्त्री के सामने अपने को पूरी तरह खोलते नहीं है. संवेदनात्मक अलगाव में जीते है. संवेदनात्मक अलगाव में जीने के कारण ही इन लोगों को पोर्न अपील करता है. पोर्न देखने वालों में कट्टर धर्मिक मान्यताओं के लोग भी आते हैं जो यह मानते हैं कि औरत तो नागिन होती है, राक्षसनी होती है. पोर्न का दर्शक अपने विचारों में अयथार्थवादी होता है. उसके यहां मर्द और वास्तव औरत के बीच विराट अंतराल होता है. जिस व्यक्ति को पोर्न देखने की आदत पड़ जाती है वह इससे सहज ही अपना दामन बचा नहीं पाता. पोर्न को देखे विना कामोत्तेजना पैदा नहीं होती. वह लगातार पोर्न में उलझता जाता है. अंत में पोर्न से बोर हो जाता है तो पोर्न के दृश्य उत्तेजित करने बंद कर देते हैं. इसके बाद वह पोर्न दृश्यों को अपनी जिन्दगी में उतारने की कोशिश करता है. यही वह बिन्दु है जहां से स्त्री का कामुक उत्पीडन, बलात्कार आदि की घटनाएं तेजी से घटने लगती हैं.यह एक सच है कि शर्म के मारे 90 फीसदी बलात्कार की घटनाओं की रिपोर्टिंग तक नहीं होती. अमेरिकी समाज में एक-तिहाई बलात्कारियों ने बलात्कार की तैयारी के लिए पोर्न की मदद ली. जबकि बच्चों का कामुक शोषण करने वालों की संख्या 53 फीसदी ने पोर्न की मदद ली.पोर्न की प्रमुख विषयवस्तु होती है निरीह स्त्री पर वर्चस्व.
पोर्न का इतिहास बड़ा पुराना प्राचीन ग्रीक समाज से लेकर भारत,चीन आदि तमाम देशों में पोर्न रचनाएं रची जाती रही हैं. किन्तु सन् 1800 के पहले तक पोर्न सामाजिक समस्या नहीं थी.किन्तु सन् 1800 के बाद से आधुनिक तकनीकी विकास, प्रिण्टिंग प्रेस, फिल्म, टीवी, इंटरनेट आदि के विकास के साथ-साथ जनतंत्र और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के उदय ने पोर्न को एक सामाजिक समस्या बना दिया है. मीडिया ने पोर्न और सेक्स को टेबू नहीं रहने दिया है. आज पोर्न सहज ही उपलब्ध है. सामान्य जीवन में पोर्नको जनप्रिय बनाने में विज्ञापनों की बड़ी भूमिका है. विज्ञापनों के माध्यम दर्शक की कामुक मानसिकता बनी है. कल तक जो विज्ञापन की शक्ति थी आज पोर्न की शक्ति बन चुकी है.आज पोर्न संगीत वीडियो से लेकर फैशन परेड तक छायी हुई है. वे वेबसाइड जो एमेच्योर पोर्न के नाम पर आई उनमें सेक्स के दृश्य देख्रकर लों में पोर्न के प्रति आकर्षण बढ़ा. स्कूल-कॉलज पढ़ने जाने वाली लड़कियां बड़े पैमाने ट्यूशन पढ़ने के बहाने अपने घर से निकलती थी. और छुपकर पोन्र का आनंद लेती थीं.इसके लिए वे वेबकॉम का इस्तेमाल करती थीं. वेबकास्ट की तकनीक का इस्तेमाल करने के कारण कम्प्यूटर पर प्रतिदिन अनेकों नयी वेबसरइट आने लगीं. लाइव शो आने लगे.इनमें नग्न औरत परेड करती दिखाई जाती है,सेक्स करते दिखाई जाती है. पोर्न के निशाने पर युवा दर्शक हैं. फे्रडरिक लेन (थर्ड) ने ”ऑवसीन प्रोफिटस:दि इंटरप्रिनर्स ऑफ पोर्नोग्राफी इन दि साइबर एज” में लिखा है कि पोर्न के विकास में वीसीआर और इंटरनेट तकनीक ने केन्द्रीय भूमिका अदा की है.

सामान्य तौर पर अमेरिकी मीडिया पर नजर डालें तो पाएंगे कि सन् 1999 में अमेरिका में उपभोक्ता पत्रिकाओं की बिक्री और विज्ञापन से होने वाली आमदनी 7.8 विलियन डालर थी,टेलीविजन 32 .3विलियन डालर, केबल टीवी 45..5 विलियन डालर, पेशेवर और शैक्षणिक प्रकाशन 14.8विलियन डालर, वीडियो किराए से वैध आमदनी 200 विलियन डालर सन् 2000 में आंकी गयी. विज्ञान इतिहासकार मैकेजी के अनुसार विश्व के सकल मीडिया उद्योग की आमदनी 107 ट्रिलियन डालर सन् 2000 में आंकी गयी. यानी पृथ्वी पर रहने वाले प्रति व्यक्ति 18000 हजार डालर. हेलेन रेनॉल्ड ने लिखा कि अमेरिका में सन् 1986 में सेक्स उद्योग में पचास लाख वेश्याएं थीं. जनकी सालाना आय 20 विलियन डालर थी. एक अनुमान के अनुसार सन् 2003 तक सारी दुनिया में कामुक (इरोटिका) सामग्री की बिक्री 3 विलियन डालर तक पहुँच जाने का अनुमान लगाया गया.फरवरी 2003 में ‘विजनगेन’ नामक संस्था ने अनुमान व्यक्त किया कि सन् 2006 तक ऑनलाइन पोर्न उद्योग 70 विलियन डालर का आंकडा पार कर जाएगा.
विशेषज्ञों में यह सवाल चर्चा के केन्द्र में है कि आखिरकार कितनी संख्या में पोर्न वेबसाइट हैं. एक अनुमान के अनुसार तीस से लेकर साठ हजार के बीच में पोर्न वेबसाइट हैं. ओसीएलसी का मानना है कि 70 हजार व्यावसायिक साइट हैं. इसके अलावा दो लाख साइट शिक्षा की आड़ में चलायी जा रही हैं. कुछ लोग यह मानते हैं कि वयस्क सामग्री अरबों खरबों पन्नों में है. सन् 2003 में ‘डोमेनसरफर’ द्वारा किए गए एक सर्वे से पता चला कि एक लाख सडसठ हजार इकहत्तर वेवसाइट ऐसी हैं जिसमें सेक्स पदबंध शामिल है. बत्तीस हजार नौ सौ बहत्तर में गुदा (अनल) पदबंध शामिल है. उन्नीस हजार दो सौ अडसठ में एफ (संभोग) पदबंध शामिल है. चार सौ सात में स्तन, तिरपन हजार चौरानवे में पोर्न, उनतालीस हजार चार सौ पिचानवे में एक्सएक्सएक्स पदबंध शामिल है. ‘अलटाविस्टा’ के अनुसार पोर्न के तीस लाख पन्ने हैं. असल संख्या से यह आंकड़ा काफी कम है. अकेले गुगल के ‘हिटलर’ सर्च में 1.7मिलियन पन्ने हैं. जबकि ‘कित्तिन’ में 1.2 मिलियन पन्ने हैं. ‘डाग’ में 17मिलियन पन्ने हैं.’सेक्स’ में 132 मिलियन पन्ने हैं. सन् 2003 में गुगल में 126 मिलियन पोर्न पन्ने थे. वयस्क उद्योग में कितने लोग काम करते हैं. इसका सारी दुनिया का सटीक आंकडा उपलब्ध नहीं है, इसके बावजूद कुछ आंकड़े हैं जो आंखें खोलने वाले हैं. आस्टे्रलिया इरोज फाउण्डेशन के अनुसार आस्ट्रेलिया में छह लाख छियालीस हजार लोग के वयस्क वीडियो के पता संकलन में थे.तकरीबन 250 दुकानें थीं जिनका सालाना कारोबार 100 मिलियन डालर था.इसके अलावा 800 वैध और 350 अवैध वेश्यालय, आनंद सहकर्मी, मेसाज पार्लर थे. सालाना 12 लाख लोग सेक्स वर्कर के यहां जाते हैं. यह आंकडा खाली आस्ट्रेलिया का है. इसी तरह वेब पर जाने वाले दस में चार लोग सेक्स या पोर्न वेब पर जरूर जाते हैं.

सेक्स उद्योग के आंकड़ों के बारे में एक तथ्य यह भी है कि इसके प्रामाणिक आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं. इस क्षेत्र के बारे में अलग-अलग आंकड़े मिलते हैं. ”केसलॉन एनालिस्टिक प्रोफाइल: एडल्ट कंटेंट इण्डस्ट्रीज ” में आंकडों के इस वैविध्य को सामने रखा. सन् 2002 में एक प्रमोटर ने अनुमान व्यक्त किया कि वयस्क अंतर्वस्तु उद्योग 900 विलियन डालर का है. एक अन्य प्रमोटर ने कहा कि अकेले अमेरिका में ही इसका सालाना कारोबार 10 विलियन डालर का है. एक अन्य अमेरिकी कंपनी ने कहा कि वयस्क वीडियो उद्योग में सालाना 5 विलियन की वृद्धि हो रही है.
(लेखक, वामपंथी चिंतक और कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर हैं)



फ़िरदौस ख़ान
भारत गांवों का देश है. गांवों में ही हमारी लोक कला और लोक संस्कृति की पैठ है. लेकिन गांवों के शहरों में तब्दील होने के साथ-साथ हमारी लोककलाएं भी लुप्त होती जा रही हैं. इन्हीं में से एक है लोक संगीत. संगीत हमारी ज़िंदगी का एक अहम हिस्सा बन चुका है. संगीत के बिना ज़िंदगी का तसव्वुर करना भी बेमानी लगता है. संगीत को इस शिखर तक पहुंचाने का श्रेय बोलती फ़िल्मों को जाता है. इससे पहले फ़िल्मों में संगीत का इस्तेमाल तो होता था, लेकिन तकनीकी तौर पर रिकॉर्ड नहीं बनाए जा सकते थे. फ़िल्मों में संगीत की शुरुआत 1931 में बनी फ़िल्म आलम आरा से हुई. यह देश की पहली बोलती फ़िल्म थी. फ़िल्म के निर्देशक अर्देशिर ईरानी ने सिनेमा में ध्वनि के महत्व को समझते हुए पहली बार रिकॉर्ड मशीन का इस्तेमाल किया. यह फ़िल्म 14 मार्च, 1931 को मुंबई के मैजेस्टिक सिनेमा में प्रदर्शित हुई. फ़िल्म इतनी लोकप्रिय हुई कि पुलिस को भीड़ पर क़ाबू पाने के लिए मदद बुलानी पड़ी थी. इसका संगीत फ़िरोज़ मिस्त्री ने दिया था. इसमें आवाज़ देने के लिए उस वक़्त तरन ध्वनि तकनीक का इस्तेमाल किया गया. फ़िल्म के गीतों के बारे में कहा जाता है कि उनकी धुनों का चुनाव अर्देशिर ईरानी ने किया था. गीतों के चुनाव के बाद उनके फ़िल्मांकन की समस्या रही होगी. उसकी कोई मिसाल ईरानी के सामने नहीं थी और न ही बूम जैसा कोई ध्वनि उपकरण था. सारे गाने टैनार सिंगल सिस्टम कैमरे की मदद से सीधे फ़िल्म पर ही रिकॉर्ड होने थे और यह काम काफ़ी मुश्किल था. इस फ़िल्म में स्वर देकर डब्ल्यूए ख़ान पहले स्वर देने वाले गायक बने. अफ़सोस की बात है कि इस फ़िल्म के गाने रिकॉर्ड नहीं किए जा सके. फ़िल्म में कुल सात गाने थे. इनमें से एक गीत फ़क़ीर का किरदार निभाने वाले अभिनेता वज़ीर मुहम्मद ख़ान ने गाया था. गीत के बोल थे- ’दे दे ख़ुदा के नाम पे प्यारे, ताक़त है अगर देने की’. यह हिंदी सिनेमा का पहला गाना था. एक और गाने के बारे में एलवी प्रसाद ने अपने संस्मरण में लिखा है- वह गीत सितारा की बहन अलकनंदा ने गाया था. इसके बोल थे-’बलमा कहीं होंगे’.

फ़िल्म के संगीत में सिर्फ़ तीन वाद्य यंत्रों तबला, हारमोनियम और वायलिन का इस्तेमाल किया गया था. फ़िल्म के लिए अमेरिका से टैनार साउंड सिस्टम मंगवाया गया. उसके साथ उपकरण का प्रशिक्षण देने के लिए विलफ़ोर्ड डेमिंग नाम के साउंड इंजीनियर आए थे. अर्देशिर और उनके सहयोगी रुस्तम भड़ूचा ने उनसे रिकॉर्डिंग की बारीकियां सीखीं और फ़िल्म की रिकॉर्डिंग की. इस फ़िल्म के साथ ही भारतीय फ़िल्म जगत में पार्श्व गायिकी और पार्श्व संगीत का एक ऐसा दौर शुरू हुआ, जो आज तक भारतीय फ़िल्म की जान है. यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फ़िल्म संगीत की पहचान बना हुआ है. फ़िल्मों में ज़्यादा से ज़्यादा गाने देने की होड़ लग गई. अयूब ए ख़ान और मास्टर निसार जैसे संगीतकारों का मुक़द्दर चमक उठा. फ़िल्म ’लैला मजनूं’ में 22 गाने थे और फ़िल्म ’शकुंतला’ में 42 गाने रखे गए थे. फ़िल्म ’इंद्रसभा’ में 71 गाने थे, जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है. दरअसल, फ़िल्में संगीत से ही चलती थीं. इन फ़िल्मों की कहानी महज़ दो गीतों के बीच की जगह भरने के लिए होती थी. ’इंद्रसभा’ के संगीतकार नागरदास बहुत प्रसिद्ध हुए थे. बक़ौल सुप्रसिद्ध फ़िल्म निर्देशक श्याम बेनेगल, आलम आरा सिर्फ़ एक सवाक फ़िल्म नहीं थी, बल्कि यह बोलने और गाने वाली फ़िल्म थी, जिसमें बोलना कम और गाना ज़्यादा था. इस फ़िल्म में कई गीत थे और इसने फ़िल्मों में गाने के ज़रिये कहानी को कहे जाने या बढ़ाए जाने की परंपरा शुरू की.

फ़िल्मों में पार्श्व गायन की शुरुआत संगीतकार आरसी बोराल की फ़िल्म ’धूप छांव’ से हुई. इस फ़िल्म के पार्श्व गायक केसीडे थे, जिन्होंने ’आज मेरे घर मोहन आया’ गाना गाया था. 1934 में केदारनाथ शर्मा की फ़िल्म ’देवदास’ आई, जो अपने मधुर संगीत की वजह से बहुत लोकप्रिय हुई. इसमें केएल सहगल ने पार्श्व गायन के साथ-साथ देवदास का किरदार निभाया था. फ़िल्म ’क़िस्मत’ का गाना- ’दूर हटो ऐ दुनिया वालों ! हिंदुस्तान हमारा है’, बहुत लोकप्रिय हुआ. संगीतकार नौशाद ने अपनी फ़िल्मों में शास्त्रीय संगीत का बखू़बी इस्तेमाल किया. इसके साथ ही उन्होंने उत्तर प्रदेश के लोकगीतों का बेहतरीन इस्तेमाल कर कर्णप्रिय धुनें तैयार कीं. बाद में कई संगीतकारों ने इसे आगे बढ़ाते हुए देश के विभिन्न हिस्सों के लोक संगीत पर आधारित धुनें बनाईं. नौशाद की फ़िल्म ’रतन’ के गाने ’अंखिया मिला के, जिया भरमा के चले नहीं जाना’ ने तो धूम मचा दी थी. 1945 के बाद के दौर में प्रेमकथा पर आधारित फ़िल्में बनीं. संगीत की धुनों में भी बदलाव आया. साथ ही इस बात पर भी ज़ोर दिया जाने लगा कि पार्श्व में नायक-नायिका की आवाज़ मिलती-जुलती गायक-गायिकाओं की ली जाए. उस वक़्त के गायकों में केएल सहगल, मुहम्मद रफ़ी, मुकेश, तलत महमूद और गायिकाओं में नूरजहां और सुरैया थीं. 1950 से 1960 तक का दशक न केवल शास्त्रीय संगीत पर आधारित धुनों के लिए मशहूर हुआ, बल्कि इस दौर में फ़िल्मों में ग़ज़लों और लोकगीतों का भी इस्तेमाल हुआ. नौशाद की फ़िल्म ’मुग़ले-आज़म’ ने तो अपने मधुर सगीत के लिए सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए. इसके सभी गाने शास्त्रीय संगीत पर आधारित थे.

अनिल विश्वास की फ़िल्म तराना में तलत महमूद द्वारा गाई ग़ज़ल ’सीने में सुलगते हैं अरमां, आंखों में उदासी छाई है’, राग यमन में थी. लोकगीतों का इस्तेमाल भी फ़िल्मों में एक नई शैली की शुरुआत थी. एसडी बर्मन ने पहली बार फ़िल्म ’तलाश’ में बंगाल के भटियाली लोकगीत का इस्तेमाल किया. उन्होंने फ़िल्म ’गाईड’ में यहां कौन है तेरा, मुसाफ़िर जाएगा कहां’ और फ़िल्म ’सुजाता’ के गीत ’सुन मेरे बंधु रे, सुन मेरे मीत’, में लोकधुनों को अपनाया. संगीतकार ओपी नैयर ने अपनी फ़िल्मों में पंजाबी धुनों का खू़ब इस्तेमाल किया. फ़िल्म ’फागुन’ में आशा भोंसले की आवाज़ में गाया गया गाना ’एक परदेसी मेरा दिल ले गया’, बहुत लोकप्रिय हुआ. 1975 में बनी फ़िल्म ’प्रतिज्ञा’ का मुहम्मद रफ़ी का गाया गाना ’मैं जट यमला पगला दीवाना’ आज भी पसंद किया जाता है. फ़िल्म ’नया दौर’  का गाना ’ ये देश है वीर जवानों का’ भी ख़ासा मशहूर हुआ.
इस फ़िल्म की हीर ’उठ नींद से मिर्ज़ेया जाग जा’ भी बहुत मशहूर हुई. फ़िल्म ’मिलन’ के गीत ’सावन का महीना, पवन करे सोर’ से भी माटी की महक आती है. संगीतकार शंकर जयकिशन का संगीतबद्ध फ़िल्म ’तीसरी क़सम’ का गाना ’ पान खाय सैंया हमार भी’ लोकप्रिय गीत है.
 संगीत में बदलाव के इस दौर में संगीतकारों ने पश्चिमी संगीत की धुनों का भी इस्तेमाल किया. संगीतकार ओपी नैयर ने ये है ’बॉम्बे मेरी जान’, सी रामचंद्र ने ’गोरे-गोरे ओ बांके छोरे, शोला जो भड़के’ और ’ईना मीना डीका’ जैसे गानों को संगीत दिया.

किशन धवन की मुंशी प्रेमचंद की दो बैलों की कथा पर आधारित फ़िल्म ’हीरा मोती’ का गीत ’कौन रंग हीरा, कौन रंग मोती’ भी प्रचलित लोकगीत है. फ़िल्म ’गोदान’ का गीत ’पुरबा के झोंकवा में आयो रे संदेसवा’ भी लोक संगीत पर आधारित है.
फ़िल्म ’लावारिस’ का गीत ’मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है’ और फ़िल्म ’सिलसिला’ का होली का गीत ’रंग बरसे भीगे चुनरवाली रंग बरसे’ भी लोकगीतों से ही प्रभावित हैं. पहले दोनों ही फ़िल्मों में इन गीतों के गीतकार के तौर पर हरिवंश राय बच्चन का नाम दिया गया था, लेकिन बाद में हटा लिया गया. जेपी दत्ता की फ़िल्म ’उमराव जान’ में जावेद अख़्तर द्वारा पेश किया गया गीत ’अगले जन्म मोहे बिटिया न कीजौ’ भी मशहूर लोकगीत है, जिसके रचयिता अमीर खु़सरो हैं. इसी तरह फ़िल्म ’ग़ुलामी’ का गीत ’ज़िहाले मस्ती मक़म बरंजिश’ भी फ़ारसी के गीत से प्रेरित है. फ़िल्म ’लम्हे’ का गीत ’मोरनी बागा में बोले आधी रात मा’ राजस्थानी लोक संगीत से प्रभावित है. इसके अलावा शम्मी कपूर और ओपी नैयर ने फ़िल्मों में याहू नामक नई शैली का इस्तेमाल किया. फ़िल्म ’जंगली’ में शंकर जयकिशन द्वारा निर्देशित मुहम्मद रफ़ी का गाया गाना ’चाहे कोई मुझे जंगली कहे याहू’ बहुत लोकप्रिय हुआ. इसके बाद आया दौर किशोर कुमार की नई शैली यूडली का. फ़िल्म ’आराधना’ और ’अमर प्रेम’ आदि के गानों में यूडली का इस्तेमाल किया गया. इन फ़िल्मों का संगीत एसडी बर्मन ने दिया. वक़्त के साथ-साथ फ़िल्म संगीत में भी बदलाव आता गया. फ़िल्मों से शास्त्रीय संगीत लुप्त होता गया और इसकी जगह पर चोली और खंडाला जैसे गाने आ गए. लेकिन कई संगीतकारों ने अच्छी धुनें तैयार कीं. फिल्म ’लेकिन’, ’रुदाली’, ’दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे’, ’दिल तो पागल है’, ’दिल से’, ’साजन’ और ’कुछ-कुछ होता है’ ’फ़ना’ आदि फ़िल्मों का संगीत सुमधुर और कर्णप्रिय रहा. फ़िल्म ’दिल्ली छह’ के गीत ’सैंया छेड़ देवे, ननद चुटकी लेवे, ससुराल गेंदा फूल’ छत्तीसगढ़ का लोकगीत है. इस लोकगीत को सबसे पहले 1972 में रायपुर की जोशी बहनों ने गाया था. गंगाराम शिवारे के लिखे इस गीत को भुलवाराम यादव ने अपनी आवाज़ दी थी. फ़िल्म ’पीपली लाइव’ का महंगाई डायन खाय जात है, भी लोक संगीत पर आधारित है. अनुराग कश्यप की फ़िल्म ’गैंग्स ऑफ वासेपुर-2’ का लोकगीत ’तार बिजली से पतले हमारे पिया’ बिहार और झारखंड में विवाह के मौक़े पर गाया जाता है. इस गीत को गाने वाली वाली बिहार की जानी मानी लोक गायिका पदमश्री शारदा सिन्हा का कहना है कि फ़िल्मों से लोक संगीत को बड़ा मंच मिलता है और जिन फ़िल्मों में मूल लोक संगीत को अपनाया गया है, उनमें से ज़्यादातर फ़िल्में कामयाब रही हैं. सोहेल ख़ान की फ़िल्म ’मैंने प्यार किया’ के गीत ’कहे तोसे सजना’ के ज़रिये हिंदी सिनेमा में प्रवेश करने वाली लोक गायिका शारदा सिन्हा के गीतों में लोकसंगीत और शास्त्रीय संगीत का सम्मिश्रण है. उनका गाया फ़िल्म ’हम आपके हैं कौन’ का गीत ’बाबुल जो तुमने सिखाया’ भी ख़ासा लोकप्रिय हुआ था. मौजूदा संगीत का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा कि नए लोग प्रतिभावान हैं, लेकिन उनमें से ज़्यादातर की गायिकी पर बाज़ार हावी है. नए गीतों के बोल उन्हें अच्छे नहीं लगते और लोक संगीत के नाम पर भी रीमिक्स परोसा जा रहा है. उनमें शुद्धता का अभाव है. हालांकि स्थानीय स्तर पर लोक संगीत की कई अल्बम आए दिन रिलीज़ होती रहती हैं. लोकगायकों की अल्बमों में ठेठ लोक संगीत की महक बरक़रार रहती है, लेकिन नए गायकों की अल्बमों में लोक संगीत की शुद्धता की कमी खलती है.

गांवों और क़स्बों में आज भी लोक संगीत का बड़ा महत्व है. मांगलिक कार्यों में महिलाएं आंचलिक गीत गाती हैं. लोक संगीत के बिना कोई भी उत्सव पूरा नहीं हो पाता है. आज भी सरकारी योजनाओं के प्रचार-प्रसार के लिए जनसंपर्क विभाग लोक गायकों की मदद लेता है. मगर शहरों में लोक संगीत की जगह फ़िल्मी गीत लेते जा रहे हैं. लेकिन यह कहना ग़लत न होगा कि फ़िल्में लोक संगीत के प्रचार-प्रसार का बेहतर ज़रिया साबित हो सकती हैं. इन गीतों में ही हमारी संस्कृति की आत्मा बसी है.


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