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डॊ. सौरभ मालवीय
फागुन आते ही चहुंओर होली के रंग दिखाई देने लगते हैं. जगह-जगह होली मिलन समारोहों का आयोजन होने लगता है. होली हर्षोल्लास, उमंग और रंगों का पर्व है. यह पर्व फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है. इससे एक दिन पूर्व होलिका जलाई जाती है, जिसे होलिका दहन कहा जाता है. दूसरे दिन रंग खेला जाता है, जिसे धुलेंडी, धुरखेल तथा धूलिवंदन कहा जाता है. लोग एक-दूसरे को रंग, अबीर-गुलाल लगाते हैं. रंग में भरे लोगों की टोलियां नाचती-गाती गांव-शहर में घूमती रहती हैं. ढोल बजाते और होली के गीत गाते लोग मार्ग में आते-जाते लोगों को रंग लगाते हुए होली को हर्षोल्लास से खेलते हैं.  विदेशी लोग भी होली खेलते हैं. सांध्य काल में लोग एक-दूसरे के घर जाते हैं और मिष्ठान बांटते हैं.

पुरातन धार्मिक पुस्तकों में होली का वर्णन अनेक मिलता है. नारद पुराण औऱ भविष्य पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रंथों में भी इस पर्व का उल्लेख है. विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से तीन सौ वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी होली का उल्लेख किया गया है. होली के पर्व को लेकर अनेक कथाएं प्रचलित हैं. सबसे प्रसिद्ध कथा विष्णु भक्त प्रह्लाद की है. माना जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था. वह स्वयं को भगवान मानने लगा था.  उसने अपने राज्य में भगवान का नाम लेने पर प्रतिबंध लगा दिया था. जो कोई भगवान का नाम लेता, उसे दंडित किया जाता था. हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु का भक्त था. प्रह्लाद की प्रभु भक्ति से क्रुद्ध होकर हिरण्यकशिपु ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने भक्ति के मार्ग का त्याग नहीं किया. हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह अग्नि में भस्म नहीं हो सकती. हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि कुंड में बैठे. अग्नि कुंड में बैठने पर होलिका तो जल गई, परंतु प्रह्लाद बच गया. भक्त प्रह्लाद की स्मृति में इस दिन होली जलाई जाती है. इसके अतिरिक्त यह पर्व राक्षसी ढुंढी, राधा कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जन्म से भी संबंधित है. कुछ लोगों का मानना है कि होली में रंग लगाकर, नाच-गाकर लोग शिव के गणों का वेश धारण करते हैं तथा शिव की बारात का दृश्य बनाते हैं. कुछ लोगों का यह भी मानना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था. इससे प्रसन्न होकर गोपियों और ग्वालों ने रंग खेला था.

देश में होली का पर्व विभिन्न प्रकार से मनाया जाता है. ब्रज की होली मुख्य आकर्षण का केंद्र है. बरसाने की लठमार होली भी प्रसिद्ध है. इसमें पुरुष महिलाओं पर रंग डालते हैं और महिलाएं उन्हें लाठियों तथा कपड़े के बनाए गए कोड़ों से मारती हैं. मथुरा का प्रसिद्ध 40 दिवसीय होली उत्सव वसंत पंचमी से ही प्रारंभ हो जाता है. श्री राधा रानी को गुलाल अर्पित कर होली उत्सव शुरू करने की अनुमति मांगी जाती है. इसी के साथ ही पूरे ब्रज पर फाग का रंग छाने लगता है. वृंदावन के शाहजी मंदिर में प्रसिद्ध वसंती कमरे में श्रीजी के दर्शन किए जाते हैं. यह कमरा वर्ष में केवल दो दिन के लिए खुलता है. मथुरा के अलावा बरसाना, नंदगांव, वृंदावन आदि सभी मंदिरों में भगवान और भक्त पीले रंग में रंग जाते हैं. ब्रह्मर्षि दुर्वासा की पूजा की जाती है. हिमाचल प्रदेश के कुल्लू में भी वसंत पंचमी से ही लोग होली खेलना प्रारंभ कर देते हैं. कुल्लू के रघुनाथपुर मंदिर में सबसे पहले वसंत पंचमी के दिन भगवान रघुनाथ पर गुलाल चढ़ाया जाता है, फिर भक्तों की होली शुरू हो जाती है. लोगों का मानना है कि रामायण काल में हनुमान ने इसी स्थान पर भरत से भेंट की थी. कुमाऊं में शास्त्रीय संगीत की गोष्ठियां आयोजित की जाती हैं. बिहार का फगुआ प्रसिद्ध है. हरियाणा की धुलंडी में भाभी पल्लू में ईंटें बांधकर देवरों को मारती हैं. पश्चिम बंगाल में दोल जात्रा निकाली जाती है. यह पर्व चैतन्य महाप्रभु के जन्मदिवस के रूप में मनाया जाता है. शोभायात्रा निकाली जाती है. महाराष्ट्र की रंग पंचमी में सूखा गुलाल खेला जाता है. गोवा के शिमगो में शोभा यात्रा निकलती है और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है. पंजाब के होला मोहल्ला में सिक्ख शक्ति प्रदर्शन करते हैं. तमिलनाडु की कमन पोडिगई मुख्य रूप से कामदेव की कथा पर आधारित वसंत का उत्सव है. मणिपुर के याओसांग में योंगसांग उस नन्हीं झोंपड़ी का नाम है, जो पूर्णिमा के दिन प्रत्येक नगर-ग्राम में नदी अथवा सरोवर के तट पर बनाई जाती है. दक्षिण गुजरात के आदिवासी भी धूमधाम से होली मनाते हैं. छत्तीसगढ़ में लोक गीतों के साथ होली मनाई जाती है.  मध्यप्रदेश के मालवा अंचल के आदिवासी भगोरिया मनाते हैं. भारत के अतिरिक्त अन्य देशों में भी होली मनाई जाती है.

होली सदैव ही साहित्यकारों का प्रिय पर्व रहा है. प्राचीन काल के संस्कृत साहित्य में होली का उल्लेख मिलता है. श्रीमद्भागवत महापुराण में रास का वर्णन है. अन्य रचनाओं में 'रंग' नामक उत्सव का वर्णन है. इनमें हर्ष की प्रियदर्शिका एवं रत्नावली और कालिदास की कुमारसंभवम् तथा मालविकाग्निमित्रम् सम्मिलित हैं. भारवि एवं माघ सहित अन्य कई संस्कृत कवियों ने अपनी रचनाओं में वसंत एवं रंगों का वर्णन किया है. चंद बरदाई द्वारा रचित हिंदी के पहले महाकाव्य पृथ्वीराज रासो में होली का उल्लेख है. भक्तिकाल तथा रीतिकाल के हिन्दी साहित्य में होली विशिष्ट उल्लेख मिलता है. आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर, जायसी, मीराबाई, कबीर और रीतिकालीन बिहारी, केशव, घनानंद आदि कवियों ने होली को विशेष महत्व दिया है. प्रसिद्ध कृष्ण भक्त महाकवि सूरदास ने वसंत एवं होली पर अनेक पद रचे हैं. भारतीय सिनेमा ने भी होली को मनोहारी रूप में पेश किया है. अनेक फिल्मों में होली के कर्णप्रिय गीत हैं.

होली आपसी ईर्ष्या-द्वेष भावना को बुलाकर संबंधों को मधुर बनाने का पर्व है, परंतु देखने में आता है कि इस दिन बहुत से लोग शराब पीते हैं, जुआ खेलते हैं, लड़ाई-झगड़े करते हैं. रंगों की जगह एक-दूसरे में कीचड़ डालते हैं. काले-नीले पक्के रंग एक-दूसरे पर फेंकते हैं. ये रंग कई दिन तक नहीं उतरते. रसायन युक्त इन रंगों के कारण अकसर लोगों को त्वचा संबंधी रोग भी हो जाते हैं. इससे आपसी कटुता बढ़ती है. होली प्रेम का पर्व है, इसे इस प्रेमभाव के साथ ही मनाना चाहिए. पर्व का अर्थ रंग लगाना या हुड़दंग करना नहीं है, बल्कि इसका अर्थ आपसी द्वेषभाव को भुलाकर भाईचारे को बढ़ावा देना है. होली खुशियों का पर्व है, इसे शोक में न बदलें.

आज वेलेंटाइन डे है, यानी मुहब्बत करने वालों का दिन... हमारी दुआ है कि आज के मुक़द्दस रोज़, हर मुहब्बत करने वाले को उसके महबूब के दीदार हों...बहरहाल, यह दिन हमारे लिए भी बहुत ख़ास है... अपने महबूब को समर्पित एक नज़्म...
एक दुआ तुम्हारे लिए...
मेरे महबूब
तुम्हारी ज़िन्दगी में
हमेशा मुहब्बत का मौसम रहे...
मुहब्बत के मौसम के
वही चम्पई उजाले वाले दिन
जिसकी बसंती सुबहें
सूरज की बनफ़शी किरनों से
सजी हों...
जिसकी सजीली दोपहरें
चमकती सुनहरी धूप से
सराबोर हों...
जिसकी सुरमई शामें
रूमानियत के जज़्बे से
लबरेज़ हों...
और
जिसकी मदहोश रातों पर
चांदनी अपना वजूद लुटाती रहे...
तुम्हारी ज़िन्दगी का हर साल
और
साल का हर दिन
और
हर दिन का हर लम्हा
मुहब्बत के नूर से रौशन रहे...
यही मेरी दुआ है
तुम्हारे लिए...
-फ़िरदौस ख़ान

फ़िरदौस ख़ान
सूफ़ियों के लिए बंसत पंचमी का दिन बहुत ख़ास होता है... हमारे पीर की ख़ानकाह में बसंत पंचमी मनाई गई... बसंत का साफ़ा बांधे मुरीदों ने बसंत के गीत गाए... हमने भी अपने पीर को मुबारकबाद दी...

बसंत पंचमी के दिन मज़ारों पीली चादरें चढ़ाई जाती हैं, पीले फूल चढ़ाए जाते हैं... क़व्वाल पीले साफ़े बांधकर हज़रत अमीर ख़ुसरो के गीत गाते हैं...
कहा जाता है कि यह रिवायत हज़रत अमीर ख़ुसरो ने शुरू की थी... हुआ यूं कि हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया (रह) को अपने भांजे सैयद नूह की मौत से बहुत सदमा पहुंचा और वह उदास रहने लगे. हज़रत अमीर ख़ुसरो से अपने पीर की ये हालत देखी न गई... वह उन्हें ख़ुश करने के जतन करने लगे... एक बार हज़रत अमीर ख़ुसरो अपने साथियों के साथ कहीं जा रहे थे... उन्होंने देखा कि एक मंदिर के पास हिन्दू श्रद्धालु नाच-गा रहे हैं... ये देखकर हज़रत अमीर ख़ुसरो को बहुत अच्छा लगा... उन्होंने इस बारे में मालूमात की कि तो श्रद्धालुओं ने बताया कि आज बसंत पंचमी है और वे लोग देवी सरस्वती पर पीले फूल चढ़ाने जा रहे हैं, ताकि देवी ख़ुश हो जाए...
इस पर हज़रत अमीर ख़ुसरो ने सोचा कि वह भी अपने औलिया को पीले फूल देकर ख़ुश करेंगे... फिर क्या था. उन्होंने पीले फूलों के गुच्छे बनाए और नाचते-गाते हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया (रह) के पास पहुंच गए... अपने मुरीद को इस तरह देखकर उनके चेहरे पर मुस्कराहट आ गई... तब से हज़रत अमीर ख़ुसरो बसंत पंचमी मनाने लगे..

डॊ. सौरभ मालवीय
आओ आओ कहे वसंत धरती पर, लाओ कुछ गान प्रेमतान
लाओ नवयौवन की उमंग नवप्राण, उत्फुल्ल नई कामनाएं घरती पर
कालजयी रचनाकार रवींद्रनाथ टैगोर की उक्त पंक्तियां वसंत ऋतु के महत्व को दर्शाती हैं. प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति में ऋतुओं का विशेष महत्व रहा है. इन ऋतुओं ने विभिन्न प्रकार से हमारे जीवन को प्रभावित किया है. ये हमारे जन-जीवन से गहरे से जुड़ी हुई हैं. इनका अपना धार्मिक और पौराणिक महत्व है. वसंत  ऋतु का भी अपना ही महत्व है. भारत की संस्कृति प्रेममय रही है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण वसंत पंचमी का पावन पर्व है. वसंत पंचमी को वसंतोत्सव और मदनोत्सव भी कहा जाता है. प्राचीन काल में स्त्रियां इस दिन अपने पति की कामदेव के रूप में पूजा करती थीं, क्योंकि इसी दिन कामदेव और रति ने सर्वप्रथम मानव हृदय में प्रेम और आकर्षण का संचार किया था. यही प्रेम और आकर्षण दोनों के अटूट संबंध का आधार बना, संतानोत्पत्ति का माध्यम बना.

वसंत पंचमी का पर्व माघ मास में शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन मनाया जाता है, इसलिए इसे वसंत पंचमी कहा जाता है.  माघ माह की अनेक विशेषताएं हैं. इस माह को भगवान विष्णु का स्वरूप माना जाता है. शुक्ल पक्ष में चन्द्रमा अत्यंत प्रबल रहता है. गुप्त नवरात्री सिद्धी,साधना,गुप्त साधनाके लिए मुख्य समय है. उत्तरायण सूर्य अर्थात देवताओं का दिन इस समय सूर्य देव पृथ्वी के अत्यधिक निकट रहते हैं. इस दिन विद्या की देवी सरस्वती की पूजा-अर्चना की जाती है. भारत सहित कई देशों में यह पर्व हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है. इस दिन घरों में पीले चावल बनाए जाते हैं, पीले फूलों से देवी सरस्वती की पूजा की जाती है. महिलाएं पीले कपड़े पहनती हैं. बच्चे पीली पतंगे उड़ाते हैं. विद्या के प्रारंभ के लिए ये दिन शुभ माना जाता है.  कलाकारों के लिए इस दिन का विशेष महत्व है.

प्राचीन भारत में पूरे वर्ष को जिन छह ऋतुओं में विभाजित किया जाता था, उनमें वसंत जनमानस की प्रिय ऋतु थी. इसे मधुमास भी कहा जाता है. इस दौरान सूर्य कुंभ राशि में प्रवेश कर लेता है. इस ऋतु में खेतों में फ़सलें पकने लगती हैं, वृक्षों पर नये पत्ते आ जाते हैं. आम पर की शाख़ों पर बौर आ जाता है. उपवनों में रंग-बिरंगे पुष्प खिलने लगते हैं. चहुंओर बहार ही बहार होती है. रंग-बिरंगी तितलियां वातावरण को और अधिक सुंदर बना देती हैं.

वसंत का धार्मिक महत्व भी है.  वसंत ऋतु का स्वागत करने के लिए माघ मास के पांचवे दिन महोत्सव का आयोजन किया जाता था. इस उत्सव में भगवान विष्णु और कामदेव की पूजा होती थी.  शास्त्रों में वसंत पंचमी को ऋषि पंचमी से उल्लेखित किया गया है, तो पुराणों-शास्त्रों तथा अनेक काव्यग्रंथों में भी अलग-अलग ढंग से इसका चित्रण मिलता है. मान्यता है कि सृष्टि के प्रारंभिक काल में भगवान विष्णु की आज्ञा से ब्रह्मा ने जीवों की रचना की, परंतु इससे वे संतुष्ट नहीं थे. भगवान विष्णु ने अपने कमंडल से जल छिड़का, जिससे एक चतुर्भुजी सुंदर स्त्री प्रकट हुई, जिसके एक हाथ में वीणा तथा दूसरा हाथ वर मुद्रा में था. अन्य दोनों हाथों में पुस्तक एवं माला थी. ब्रह्मा ने देवी से वीणा बजाने का अनुरोध किया. जैसे ही देवी ने वीणा का मधुरनाद किया, वैसे ही संसार के समस्त जीव-जन्तुओं को वाणी प्राप्त हो गई. जलधारा में कोलाहल व्याप्त हो गया. पवन चलने से सरसराहट होने लगी. तब ब्रह्मा ने उस देवी को वाणी की देवी सरस्वती के नाम से पुकारा. सरस्वती को बागीश्वरी, भगवती, शारदा, वीणावादनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों से पूजा जाता है. वे विद्या और बुद्धि प्रदान करती हैं. संगीत की उत्पत्ति करने के कारण वे संगीत की देवी कहलाईं. वसंत पंचमी को उनके जन्मोत्सव के रूप में भी मनाते हैं. ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन करते हुए उल्लेख गया है-
प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु।
अर्थात ये परम चेतना हैं. सरस्वती के रूप में ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं. हममें जो आचार और मेधा है, उसका आधार भगवती सरस्वती ही हैं. इनकी समृद्धि और स्वरूप का वैभव अद्भुत है.

मान्यता है कि वसंत पंचमी के दिन देवी सरस्वती पूजा करने और व्रत रखने से वाणी मधुर होती है, स्मरण शक्ति तीव्र होती है, प्राणियों को सौभाग्य प्राप्त होता है तथा विद्या में कुशलता प्राप्त होती है.
"यथा वु देवि भगवान ब्रह्मा लोकपितामहः।
त्वां परित्यज्य नो तिष्ठंन, तथा भव वरप्रदा।।
वेद शास्त्राणि सर्वाणि नृत्य गीतादिकं चरेत्।
वादितं यत् त्वया देवि तथा मे सन्तुसिद्धयः।।
लक्ष्मीर्वेदवरा रिष्टिर्गौरी तुष्टिः प्रभामतिः।
एताभिः परिहत्तनुरिष्टाभिर्मा सरस्वति।।

अर्थात् देवी! जिस प्रकार लोकपितामह ब्रह्मा आपका कभी परित्याग नहीं करते, उसी प्रकार आप भी हमें वर दीजिए कि हमारा भी कभी अपने परिवार के लोगों से वियोग न हो. हे देवी! वेदादि सम्पूर्ण शास्त्र तथा नृत्य गीतादि जो भी विद्याएं हैं, वे सभी आपके अधिष्ठान में ही रहती हैं, वे सभी मुझे प्राप्त हों. हे भगवती सरस्वती देवी! आप अपनी- लक्ष्मी, मेधा, वरारिष्टि, गौरी, तुष्टि, प्रभा तथा मति- इन आठ मूर्तियों के द्वारा मेरी रक्षा करें.

पुराणों के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ने सरस्वती से प्रसन्न होकर उन्हें वरदान दिया था कि वसंत पंचमी के दिन तुम्हारी भी आराधना की जाएगी. इस तरह भारत के कई हिस्सों में वसंत पंचमी के दिन विद्या की देवी सरस्वती की भी पूजा होने लगी. त्रेता युग में जिस दिन श्रीराम शबरी मां के आश्रम में पहुंचे थे, वह वसंत पंचमी का ही दिन था. श्रीराम ने भीलनी शबरी मां के झूठे बेर खाए थे. गुजरात के डांग जिले में जिस स्थान पर शबरी मां के आश्रम था, वहां आज भी एक शिला है. लोग इस शिला की पूजा-अर्चना करते हैं. बताया जाता है कि श्रीराम यहीं आकर बैठे थे. इस स्थान पर शबरी माता का मंदिर भी है, जहां दूर-दूर से श्र्द्धालु आते हैं.

वसंत पंचमी के दिन मथुरा में दुर्वासा ऋषि के मंदिर पर मेला लगता है. सभी मंदिरों में उत्सव एवं भगवान के विशेष शृंगार होते हैं. वृंदावन के श्रीबांके बिहारीजी मंदिर में बसंती कक्ष खुलता है. शाह जी के मंदिर का बसंती कमरा प्रसिद्ध है. मंदिरों में वसंती भोग रखे जाते हैं और वसंत के राग गाये जाते हैं वसंम पंचमी से ही होली गाना शुरू हो जाता है. ब्रज का यह परम्परागत उत्सव है.
इस दिन हरियाणा के कुरुक्षेत्र जिले के पौराणिक नगर पिहोवा में सरस्वती की विशेष पूजा-अर्चना होती है. पिहोवा को सरस्वती का नगर भी कहा जाता है, क्योंकि यहां प्राचीन समय से ही सरस्वती सरिता प्रवाहित होती रही है. सरस्वती सरिता के तट पर इस क्षेत्र में अनेक प्राचीन तीर्थ स्थल हैं. यहां सरस्वती सरिता के तट पर विश्वामित्र जी ने गायत्री छंद की रचना की थी. पिहोवा का सबसे मुख्य तीर्थ सरस्वती घाट है, जहां सरस्वती नदी बहती है. यहां देवी सरस्वती का अति प्राचीन मंदिर है. इन प्राचीन मंदिरों में देशभर के श्रद्धालु आते हैं. यहां भव्य शोभायात्रा निकलती है.

वसंत पंचमी का साहित्यिक महत्व भी है. इस दिन हिन्दी साहित्य की अमर विभूति महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' का जन्मदिवस भी है. 28 फरवरी, 1899 को जिस दिन निराला जी का जन्म हुआ, उस दिन वसंत पंचमी ही थी. वंसत कवियों की अति प्रिय ऋतु रही है.

हिंदी साहित्य में छायावादी युग के महान स्तंभ सुमित्रानंदन पंत वसंत का मनोहारी वर्णन करते हुए कहते हैं-
चंचल पग दीपशिखा के धर
गृह मग वन में आया वसंत।
सुलगा फागुन का सूनापन
सौंदर्य शिखाओं में अनंत।
सौरभ की शीतल ज्वाला से
फैला उर-उर में मधुर दाह
आया वसंत भर पृथ्वी पर
स्वर्गिक सुंदरता का प्रवाह।

वसंत पंचमी हमारे जीवन में नव ऊर्जा का संचार करती है. ये निरंतर आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है. जिस तरह वृक्ष पुराने पत्तों को त्याग कर नये पत्ते धारण करते हैं, ठीक उसी तरह हमें भी अपने अतीत के दुखों को त्याग कर आने वाले भविष्य के स्वप्न संजोने चाहिए. जीवन निरंतर चलते रहने का नाम है, यही वसंत हमें बताता है.

डॊ.सौरभ मालवीय
युवा देश और समाज की रीढ़ होते हैं. युवा देश और समाज को नए शिखर पर ले जाते हैं. युवा देश का वर्तमान हैं, तो भूतकाल और भविष्य के सेतु भी हैं. युवा देश और समाज के जीवन मूल्यों के प्रतीक हैं.  युवा गहन ऊर्जा और उच्च महत्वकांक्षाओं से भरे हुए होते हैं. उनकी आंखों में भविष्य के इंद्रधनुषी स्वप्न होते हैं. समाज को बेहतर बनाने और राष्ट्र के निर्माण में सर्वाधिक योगदान युवाओं का ही होता है. देश के स्वतंत्रता आंदोलन में युवाओं ने अपनी शक्ति का परिचय दिया था, परंतु देखने में आ रहा है कि युवाओं में नकारात्मकता जन्म ले रही है.  उनमें धैर्य की कमी है. वे हर वस्तु अति शीघ्र प्राप्त कर लेना चाहते हैं. वे आगे बढ़ने के लिए कठिन परिश्रम की बजाय शॊर्टकट्स खोजते हैं. भोग विलास और आधुनिकता की चकाचौंध उन्हें प्रभावित करती है. उच्च पद, धन-दौलत और ऐश्वर्य का जीवन उनका आदर्श बन गए हैं. अपने इस लक्ष्य को प्राप्त करने में जब वे असफल हो जाते हैं, तो उनमें चिड़चिड़ापन आ जाता है. कई बार वे मानसिक तनाव का भी शिकार हो जाते हैं. युवाओं की इस नकारत्मकता को सकारत्मकता में परिवर्तित करना होगा. उन्हें स्वामी विवेकानंद से प्रेरणा लेनी होगी. उल्लेखनीय है कि 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता के कायस्थ परिवार में जन्मे स्वामी विवेकानन्द ने अमेरिका के शिकागो में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन में हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व कर उसे सार्वभौमिक पहचान दिलाई. गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने उनके बारे में कहा था-"यदि आप भारत को जानना चाहते हैं, तो विवेकानन्द को पढ़िये. उनमें आप सब कुछ सकारात्मक ही पाएंगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं."

स्वामी विवेकानन्द के बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था. उनके पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता उच्च न्यायालय के एक प्रसिद्ध अधिवक्ता थे.  उनकी माता भुवनेश्वरी देवी धार्मिक विचारों की घरेलू महिला थीं. वह बाल्यावस्था से ही कुशाग्र बुद्धि के थे. उनके घर में नियमपूर्वक प्रतिदिन पूजा-पाठ होता था. साथ ही नियमित रूप से भजन-कीर्तन भी होता रहता था. परिवार के धार्मिक वातावरण का उन पर भी प्रभाव गहरा पड़ा. वह वे अपने गुरु रामकृष्ण देव से अत्यधिक प्रभावित थे. उन्होंने अपने गुरु से ही यह ज्ञान प्राप्त किया कि समस्त जीव स्वयं परमात्मा का ही अंश हैं, इसलिए मानव जाति की सेवा द्वारा परमात्मा की भी सेवा की जा सकती है.

स्वामी विवेकानन्द के जन्म दिवस पर अर्थात 12 जनवरी को प्रतिवर्ष राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है. उल्लेखनीय है कि विश्व के अधिकांश देशों में कोई न कोई दिन युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है. संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्णयानुसार वर्ष 1985 को अंतरराष्ट्रीय युवा वर्ष घोषित किया गया.  पहली बार वर्ष 2000 में अंतरराष्ट्रीय युवा दिवस का आयोजन आरंभ किया गया था. संयुक्त राष्ट्र ने 17 दिसंबर 1999 को प्रत्येक वर्ष 12 अगस्त को अंतरराष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की थी. अंतरराष्ट्रीय युवा दिवस मनाने का अर्थ है कि सरकार युवा के मुद्दों और उनकी बातों पर ध्यान आकर्षित करे. भारत में इसका प्रारंभ वर्ष 1985 से हुआ, जब सरकार ने स्वामी विवेकानन्द के जन्म दिवस पर अर्थात 12 जनवरी को प्रतिवर्ष राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की. युवा दिवस के रूप में स्वामी विवेकानन्द का जन्मदिवस चुनने के बारे में सरकार का विचार था कि स्वामी विवेकानन्द का दर्शन एवं उनका जीवन भारतीय युवकों के लिए प्रेरणा का बहुत बड़ा स्रोत हो सकता है. इस दिन देश भर के विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में कई प्रकार के कार्यक्रम होते हैं, रैलियां निकाली जाती हैं, विभिन्न प्रकार की स्पर्धाएं आयोजित की जाती है, व्याख्यान होते हैं तथा विवेकानन्द साहित्य की प्रदर्शनियां लगाई जाती हैं.
स्वामी विवेकानंद ने युवाओं का आह्वान करते हुए कठोपनिषद का एक मंत्र कहा था-
 'उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।'
अर्थात उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक कि अपने लक्ष्य तक न पहुंच जाओ.'

भारत एक विकासशील और बड़ी जनसंख्या वाला देश है. यहां आधी जनसंख्या युवाओं की है. देश की लगभग 65 प्रतिशत जनसंख्या की आयु 35 वर्ष से कम है. संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत सबसे बड़ी युवा आबादी वाला देश है. यहां के लगभग 60 करोड़ लोग 25 से 30 वर्ष के हैं. यह स्थिति वर्ष 2045 तक बनी रहेगी. विश्व की लगभग आधी जनसंख्या 25 वर्ष से कम आयु की है. अपनी बड़ी युवा जनसंख्या के साथ भारत अर्थव्यवस्था नई ऊंचाई पर जा सकता है. परंतु इस ओर भी ध्यान देना होगा कि आज देश की बड़ी जनसंख्या बेरोजगारी से जूझ रही है. भारतीय संख्यिकी विभाग द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार देश में बेरोजगारों की संख्या लगातार बढ़ रही है. देश में बेरोजगारों की संख्या 11.3 करोड़ से अधिक है. 15 से 60 वर्ष आयु के 74.8 करोड़ लोग बेरोजगार हैं, जो काम करने वाले लोगों की संख्या का  15 प्रतिशत है. जनगणना में बेरोजगारों को श्रेणीबद्ध करके गृहणियों, छात्रों और अन्य में शामिल किया गया है. यह अब तक बेरोजगारों की सबसे बड़ी संख्या है. वर्ष 2001 की जनगणना में जहां 23 प्रतिशत लोग बेरोजगार थे, वहीं 2011 की जनगणना में इनकी संख्या बढ़कर 28 प्रतिशत हो गई. बेरोजगार युवा हताश हो जाते हैं. ऐसी स्थिति में युवा शक्ति का अनुचित उपयोग किया जा सकता है. हताश युवा अपराध के मार्ग पर चल पड़ते हैं. वे नशाख़ोरी के शिकार हो जाते हैं और फिर अपनी नशे की लत को पूरा करने के लिए अपराध भी कर बैठते हैं. इस तरह वे अपना जीवन नष्ट कर लेते हैं. देश में हो रही 70 प्रतिशत आपराधिक गतिविधियों में युवाओं की संलिप्तता रहती है.

युवाओं के उचित मार्गदर्शन के लिए अति आवश्यक है कि उनकी क्षमता का सदुपयोग किया जाए.  उनकी सेवाओं को प्रौढ़ शिक्षा तथा अन्य सराकारी योजनाओं के तहत चलाए जा रहे अभियानों में प्रयुक्त किया जा सकता है. वे सरकार द्वारा सुनिश्चित लक्ष्यों की प्राप्ति के दायित्व को वहन कर सकते हैं. तस्करी, काला बाजारी, जमाखोरी जैसे अपराधों पर अंकुश लगाने में उनकी सेवाएं ली जा सकती हैं. युवाओं को राष्ट्र निर्माण के कार्य में लगाया जाए. राष्ट्र निर्माण का कार्य सरल नहीं है. यह दुष्कर कार्य है. इसे एक साथ और एक ही समय में पूर्ण नहीं किया जा सकता. यह चरणबद्ध कार्य है. इसे चरणों में विभाजित किया जा सकता है. युवा इस श्रेष्ठ कार्य में अपनी क्षमता और योग्यता के अनुसार भाग ले सकते हैं. ऐसी असंख्य योजनाएं, परियोजनां और कार्यक्रम हैं, जिनमें युवाओं की सहभागिता सुनिश्चत की जा सकती है. युवा समाज में समाजिक, आर्थिक और नवनिर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. वे समाज में प्रचलित कुप्रथाओं और अंधविश्वास को समाप्त करने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं. देश में दहेज प्रथा के कारण न जाने कितनी ही महिलाओं पर अत्याचार किए जाते हैं, यहां तक कि उनकी हत्या तक कर दी जाती है. महिलाओं के प्रति यौन हिंसा से तो देश त्रस्त है. नब्बे साल की वॄद्धाओं से लेकर कुछ दिन की मासूम बच्चियों तक से दुष्कर्म कर उनकी हत्या कर दी जाती है. डायन प्रथा के नाम पर महिलाओं की हत्याएं होती रहती हैं. अंधविश्वास में जकड़े लोग नरबलि तक दे डालते हैं. समाज में छुआछूत, ऊंच-नीच और जात-पांत की खाई भी बहुत गहरी है. दलितों विशेषकर महिलाओं के साथ अमानवीयता व्यवहार की घटनाएं भी आए दिन देखने और सुनने को मिलती रहती हैं, जो सभ्य समाज के माथे पर कलंक समान हैं. आतंकवाद के प्रति भी युवाओं में जागृति पैदा करने की आवश्यकता है. भविष्य में देश की लगातार बढ़ती जनसंख्या का पेट भरने के लिए अधिक खाद्यान्न की आवश्यकता होगी. कृषि में उत्पादन के स्तर को उन्नत करने से संबंधित योजनाओं में युवाओं को लगाया जा सकता है. इससे जहां युवाओं को रोजगार मिलेगा, वहीं देश और समाज हित में उनका योगदान रहेगा.

यदि युवाओं को कोई उपयुक्त कार्य नहीं दिया गया, तब मानव संसाधनों का भारी राष्ट्रीय क्षय होगा. उन्हें किसी सकारात्मक कार्य में भागीदार बनाया जाना चाहिए. यदि इस मानव शक्ति की क्रियाशीलता को देश की विकास परियोजनाओं में प्रयुक्त किया जाए, तो यह अद्भुत कार्य कर सकती है. जब भी किसी चुनौती का सामना करने के लिए देश के युवाओं को पुकारा गया, तो वे पीछे नहीं रहे. प्राकृतिक आपदाओं के समय युवा आगे बढ़कर अपना योगदान देते हैं, चाहे भूकंप हो या बाढ़. युवाओं ने सदैव पीड़ितों की सहायता में दिन-रात परिश्रम किया. युवा देश के विकास का एक महत्वपूर्ण अंग है. युवाओं को देश के विकास के लिए अपना सक्रिय योगदान प्रदान करना चाहिए. समाज को बेहतर बनाने और राष्ट्र निर्माण के कार्यों में युवाओं को सम्मिलित करना अति महत्वपूर्ण है तथा इसे यथाशीघ्र एवं व्यापक स्तर पर किया जाना चाहिए.

महादेवी वर्मा के शब्दों में- ‘‘बलवान राष्ट्र वही होता है,जिसकी तरुणाई सबल होती है, जिसमें मृत्यु को वरण करने की क्षमता होती है, जिसमें भविष्य के सपने होते हैं और कुछ कर गुजरने का जज्बा होता है, वही तरुणाई है.’’

नई दिल्ली. चुनाव आयोग ने पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों की तारीख़ों का ऐलान कर दिया है.  केंद्रीय निर्वाचन आयुक्त नसीम ज़ैदी ने बताया कि देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में चुनाव सात चरणों में करवाया जाएगा, जबकि पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर में चुनाव दो चरणों में होगा. शेष तीनों राज्यों में मतदान एक-एक चरण में ही होगा. गोवा तथा पंजाब में एकमात्र चरण का मतदान 4 फ़रवरी को करवाया जाएगा, जबकि उत्तराखंड में मतदान एक ही चरण में 15 फ़रवरी को होगा. मणिपुर में पहले चरण का मतदान 4 मार्च तथा दूसरे चरण का मतदान 8 मार्च को करवाया जाएगा. उत्तर प्रदेश में सात चरणों में 11, 15, 19, 23, 27 फ़रवरी तथा 4, 8 मार्च को मतदान होगा. सभी राज्यों में मतगणना 11 मार्च को होगी.

ग़ौरतलब है कि इन राज्यों में मौजूदा विधानसभाओं का कार्यकाल 18 मार्च से ही ख़त्म होना शुरू हो रहा है. गोवा, मणिपुर और पंजाब विधानसभाओं का कार्यकाल 18 मार्च को ख़त्म हो रहा है, जबकि उत्तराखंड विधानसभा का कार्यकाल 26 मार्च को  और उत्तर प्रदेश विधानसभा का कार्यकाल 27 मई को ख़त्म हो रहा है.

उत्तर प्रदेश में कुल 403 विधानसभा सीटों के लिए सात चरणों में घोषित चुनाव कार्यक्रम इस प्रकार है.
राज्य में पहले चरण के दौरान 15 ज़िलों की 73 सीटों पर चुनाव के लिए अधिसूचना 17 जनवरी को जारी होगी. नामांकन पत्र भरने की अंतिम तिथि 24 जनवरी होगी, जबकि उनकी जांच के लिए 25 जनवरी का दिन तय किया गया है. नामांकन वापस लिए जाने की अंतिम तारीख़ 27 जनवरी होगी, जबकि मतदान 11 फ़रवरी को करवाया जाएगा. उत्तर प्रदेश में पहले चरण के दौरान जिन 15 ज़िलों में मतदान होगा, उनमें शामली, मुज़फ़्फरनगर, बाग़पत, मेरठ, ग़ाज़ियाबाद, गौतमबुद्ध नगर, हापुड़, बुलंदशहर, अलीगढ़, मथुरा, हाथरस, आगरा, फ़िरोज़ाबाद, एटा और कासगंज शामिल है.

उत्तर प्रदेश  में दूसरे चरण के दौरान 11 ज़िलों की 67 सीटों पर चुनाव के लिए अधिसूचना 20 जनवरी को जारी होगी. नामांकन पत्र भरने की अंतिम तिथि 27 जनवरी होगी, जबकि उनकी जांच के लिए 28 जनवरी का दिन तय किया गया है. नामांकन वापस लिए जाने की अंतिम तारीख़ 30 जनवरी होगी, जबकि मतदान 15 फ़रवरी को करवाया जाएगा. उत्तर में होने वाले दूसरे चरण के दौरान जिन 11 ज़िलों में मतदान होगा, उनमें सहारनपुर, बिजनौर, मुरादाबाद, संभल, रामपुर, बरेली, अमरोहा, पीलीभीत, लखीमपुर खीरी, शाहजहांपुर तथा बदायूं शामिल है.

उत्तर प्रदेश में तीसरे चरण में 12 ज़िलों की 69 सीटों पर चुनाव के लिए अधिसूचना 24 जनवरी को जारी होगी. नामांकन पत्र भरने की अंतिम तिथि 31 जनवरी होगी, जबकि उनकी जांच के लिए 2 फ़रवरी का दिन तय किया गया है. नामांकन वापस लिए जाने की अंतिम तारीख़ 4 फ़रवरी होगी, जबकि मतदान 19 फ़रवरी को करवाया जाएगा. राज्य में तीसरे चरण के तहत 12 ज़िलों फ़र्रुख़ाबाद, हरदोई, कन्नौज, मैनपुरी, इटावा, औरैया, कानपुर देहात, कानपुर नगर, उन्नाव, लखनऊ, बाराबंकी तथा सीतापुर में मतदान होगा.

राज्य में चौथे चरण के दौरान 12 ज़िलों की 53 सीटों पर चुनाव के लिए अधिसूचना 30 जनवरी को जारी होगी. नामांकन पत्र भरने की अंतिम तिथि 6 फ़रवरी जनवरी होगी, जबकि उनकी जांच के लिए 7 फ़रवरी का दिन तय किया गया है. नामांकन वापस लिए जाने की अंतिम तारीख़ 9 फ़रवरी होगी, जबकि मतदान 23 फ़रवरी को करवाया जाएगा. उत्तर प्रदेश में चुनाव के चौथे चरण में जिन 12 ज़िलों में मतदान होने जा रहा है, उनमें प्रतापगढ़, कौशाम्बी, इलाहाबाद, जालौन, झांसी, ललितपुर, महोबा, हमीरपुर, बांदा, चित्रकूट, फतेहपुर और रायबरेली शामिल है.

उत्त प्रदेश में पांचवें चरण में 11 ज़िलों की 52 सीटों पर चुनाव के लिए अधिसूचना 2 फ़रवरी को जारी होगी. नामांकन पत्र भरने की अंतिम तिथि 9 फ़रवरी जनवरी होगी, जबकि उनकी जांच के लिए 11 फ़रवरी का दिन तय किया गया है. नामांकन वापस लिए जाने की अंतिम तारीख़ 13 फ़रवरी होगी, जबकि मतदान 27 फ़रवरी को करवाया जाएगा. उत्तर प्रदेश में पांचवें चरण के तहत 11 ज़िलों में मतदान होगी, जिनमें बलरामपुर, गोंडा, फ़ैज़ाबाद, अम्बेडकर नगर, बहराइच, श्रावस्ती, सिद्धार्थनगर, बस्ती, संत कबीर नगर, अमेठी और सुल्तानपुर  में शामिल है.

उत्तर प्रदेश में छठे चरण में सात ज़िलों की 49 सीटों पर चुनाव के लिए अधिसूचना 8 फ़रवरी को जारी होगी. नामांकन पत्र भरने की अंतिम तिथि 15 फ़रवरी होगी, जबकि उनकी जांच के लिए 16 फ़रवरी का दिन तय किया गया है. नामांकन वापस लिए जाने की अंतिम तारीख़ 18 फ़रवरी होगी, जबकि मतदान 4 मार्च को करवाया जाएगा. राज्य में छठे चरण में सात ज़िलों में मतदान करवाया जा रहा है, जिनमें महाराजगंज, कुशीनगर, गोरखपुर, देवरिया, आज़मगढ़, मऊ और बलिया शामिल हैं.

उत्तर प्रदेश में सातवें तथा अंतिम चरण में सात ज़िलों की 40 सीटों पर चुनाव के लिए अधिसूचना 11 फ़रवरी को जारी होगी. नामांकन पत्र भरने की अंतिम तिथि 18 फ़रवरी होगी, जबकि उनकी जांच के लिए 20 फ़रवरी का दिन तय किया गया है. नामांकन वापस लिए जाने की अंतिम तारीख़ 22 फ़रवरी होगी, जबकि मतदान 8 मार्च को करवाया जाएगा. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के सातवें और अंतिम चरण में भी सात ज़िलों में मतदान की प्रक्रिया संपन्न होगी, जिनमें ग़ाज़ीपुर, वाराणसी, चंदौली, मिर्ज़ापुर, भदोही, सोनभद्र और जौनपुर शामिल हैं हैं.
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव कार्यक्रम
उत्तर प्रदेश के अलावा मणिपुर ऐसा राज्य है, जहां एक से ज़्यादा चरणों में मतदान करवाया जा रहा है. यहां पहले चरण में 38 सीटों पर चुनाव के लिए अधिसूचना 8 फ़रवरी को जारी होगी. नामांकन पत्र भरने की अंतिम तिथि 15 फ़रवरी होगी, जबकि उनकी जांच के लिए 16 फ़रवरी का दिन तय किया गया है. नामांकन वापस लिए जाने की अंतिम तारीख़ 18 फ़रवरी होगी, जबकि मतदान 4 मार्च को करवाया जाएगा.
मणिपुर में दूसरे चरण में 22 सीटों पर चुनाव के लिए अधिसूचना 11 फ़रवरी को जारी होगी. नामांकन पत्र भरने की अंतिम तिथि 18 फ़रवरी होगी, जबकि उनकी जांच के लिए 20 फ़रवरी का दिन तय किया गया है. नामांकन वापस लिए जाने की अंतिम तारीख़ 22 फ़रवरी होगी, जबकि मतदान 8 मार्च को करवाया जाएगा.
मणिपुर विधानसभा चुनाव कार्यक्रम
पंजाब में सभी 117 विधानसभा सीटों पर एक ही चरण में मतदान के लिए अधिसूचना 11 जनवरी को जारी होगी. नामांकन पत्र भरने की अंतिम तिथि 18 जनवरी होगी, जबकि उनकी जांच के लिए 19 जनवरी का दिन तय किया गया है. नामांकन वापस लिए जाने की अंतिम तारीख़ 21 जनवरी होगी, जबकि मतदान 4 फ़रवरी को करवाया जाएगा.
पंजाब विधानसभा चुनाव कार्यक्रम
गोवा में भी सभी 40 विधानसभा सीटों पर चुनाव का कार्यक्रम पूरी तरह पंजाब के साथ चलेगा, यानी अधिसूचना 11 जनवरी को जारी होगी. नामांकन पत्र भरने की अंतिम तिथि 18 जनवरी होगी, उनकी जांच के लिए 19 जनवरी का दिन तय किया गया है. नामांकन वापस लिए जाने की अंतिम तारीख़ 21 जनवरी होगी, जबकि मतदान 4 फ़रवरी को करवाया जाएगा.
गोवा विधानसभा चुनाव कार्यक्रम
पांचवें और अंतिम राज्य उत्तराखंड में सभी 70 सीटों पर एक ही चरण में करवाए जाने वाले मतदान के लिए अधिसूचना 20 जनवरी को जारी होगी. नामांकन पत्र भरने की अंतिम तिथि 27 जनवरी होगी, जबकि उनकी जांच के लिए 28 जनवरी का दिन तय किया गया है. नामांकन वापस लिए जाने की अंतिम तारीख़ 30 जनवरी होगी, जबकि मतदान 15 फ़रवरी को करवाया जाएगा.
उत्तराखंड विधानसभा चुनाव कार्यक्रम
सभी पांचों राज्यों में मतगणना का काम 11 मार्च को एक साथ करवाया जाएगा.  चुनाव अर्ध सैनिक बलों की निगरानी  में होंगे.


सरफ़राज़ ख़ान
विभिन्न संस्कृतियों के देश भारत में एक नहीं दो नहीं, बल्कि अनेक नववर्ष मनाए जाते हैं. यहां के अलग-अलग समुदायों के अपने-अपने नववर्ष हैं. अंग्रेजी कैलेंडर का नववर्ष एक जनवरी को शुरू होता है. इस दिन ईसा मसीह का नामकरण हुआ था. दुनियाभर में इसे धूमधाम से मनाया जाता है.

मोहर्रम महीने की पहली तारीख़ को मुसलमानों का नया साल हिजरी शुरू होता है. मुस्लिम देशों में इसका उत्साह देखने को मिलता है. इस्लामी या हिजरी कैलेंडर, एक चंद्र कैलेंडर है, जो न सिर्फ मुस्लिम देशों में इस्तेमाल होता है, बल्कि दुनियाभर के मुसलमान भी इस्लामिक धार्मिक पर्वों को मनाने का सही समय जानने के लिए इसी का इस्तेमाल करते हैं. यह चंद्र-कैलेंडर है, जिसमें एक वर्ष में बारह महीने, और 354 या 355 दिन होते हैं, क्योंकि यह सौर कैलेंडर से 11 दिन छोटा है इसलिए इस्लामी तारीखें, जो कि इस कैलेंडर के अनुसार स्थिर तिथियों पर होतीं हैं, लेकिन हर वर्ष पिछले सौर कैलेंडर से 11 दिन पीछे हो जाती हैं. इसे हिजरी इसलिए कहते हैं, क्योंकि इसका पहला साल वह वर्ष है जिसमें हज़रत मुहम्मद की मक्का शहर से मदीना की ओर हिज्ऱ या वापसी हुई थी. हिंदुओं का नववर्ष नव संवत्सर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा में पहले नवरात्र से शुरू होता है. इस दिन ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की थी. जैन नववर्ष दीपावली से अगले दिन होता है. भगवान महावीर स्वामी की मोक्ष प्राप्ति के अगले दिन यह शुरू होता है. इसे वीर निर्वाण संवत कहते हैं. बहाई धर्म में नया वर्ष ‘नवरोज’ हर वर्ष 21 मार्च को शुरू होता है. बहाई समुदाय के ज्यादातर लोग नव वर्ष के आगमन पर 2 से 20 मार्च अर्थात् एक महीने तक व्रत रखते हैं. गुजराती 9 नवंबर को नववर्ष ‘बस्तु वरस’ मनाते हैं. अलग-अलग नववर्षों की तरह अंग्रेजी नववर्ष के 12 महीनों के नामकरण भी बेहद दिलचस्प है. जनवरी : रोमन देवता 'जेनस' के नाम पर वर्ष के पहले महीने जनवरी का नामकरण हुआ. मान्यता है कि जेनस के दो चेहरे हैं. एक से वह आगे और दूसरे से पीछे देखता है. इसी तरह जनवरी के भी दो चेहरे हैं. एक से वह बीते हुए वर्ष को देखता है और दूसरे से अगले वर्ष को. जेनस को लैटिन में जैनअरिस कहा गया. जेनस जो बाद में जेनुअरी बना जो हिन्दी में जनवरी हो गया.
फ़रवरी : इस महीने का संबंध लैटिन के फैबरा से है. इसका अर्थ है 'शुद्धि की दावत' . पहले इसी माह में 15 तारीख को लोग शुद्धि की दावत दिया करते थे. कुछ लोग फरवरी नाम का संबंध रोम की एक देवी फेबरुएरिया से भी मानते हैं. जो संतानोत्पत्ति की देवी मानी गई है इसलिए महिलाएं इस महीने इस देवी की पूजा करती थीं.
मार्च : रोमन देवता 'मार्स' के नाम पर मार्च महीने का नामकरण हुआ. रोमन वर्ष का प्रारंभ इसी महीने से होता था. मार्स मार्टिअस का अपभ्रंश है जो आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है. सर्दियों का मौसम खत्म होने पर लोग शत्रु देश पर आक्रमण करते थे, इसलिए इस महीने का नाम मार्च रखा गया.
अप्रैल : इस महीने की उत्पत्ति लैटिन शब्द 'एस्पेरायर' से हुई. इसका अर्थ है खुलना. रोम में इसी माह बसंत का आगमन होता था इसलिए शुरू में इस महीने का नाम एप्रिलिस रखा गया. इसके बाद वर्ष के केवल दस माह होने के कारण यह बसंत से काफ़ी दूर होता चला गया. वैज्ञानिकों ने पृथ्वी के सही भ्रमण की जानकारी से दुनिया को अवगत कराया तब वर्ष में दो महीने और जोड़कर एप्रिलिस का नाम पुनः सार्थक किया गया.
मई : रोमन देवता मरकरी की माता 'मइया' के नाम पर मई नामकरण हुआ. मई का तात्पर्य 'बड़े-बुजुर्ग रईस' हैं. मई नाम की उत्पत्ति लैटिन के मेजोरेस से भी मानी जाती है.
जून : इस महीने लोग शादी करके घर बसाते थे. इसलिए परिवार के लिए उपयोग होने वाले लैटिन शब्द जेन्स के आधार पर जून का नामकरण हुआ. एक अन्य मान्यता के मुताबिक रोम में सबसे बड़े देवता जीयस की पत्नी जूनो के नाम पर जून का नामकरण हुआ.
जुलाई : राजा जूलियस सीजर का जन्म एवं मृत्यु दोनों जुलाई में हुई. इसलिए इस महीने का नाम जुलाई कर दिया गया.
अगस्त : जूलियस सीजर के भतीजे आगस्टस सीजर ने अपने नाम को अमर बनाने के लिए सेक्सटिलिस का नाम बदलकर अगस्टस कर दिया जो बाद में केवल अगस्त रह गया.
सितंबर : रोम में सितंबर सैप्टेंबर कहा जाता था. सेप्टैंबर में सेप्टै लैटिन शब्द है जिसका अर्थ है सात और बर का अर्थ है वां यानी सेप्टैंबर का अर्थ सातवां, लेकिन बाद में यह नौवां महीना बन गया.
अक्टूबर : इसे लैटिन 'आक्ट' (आठ) के आधार पर अक्टूबर या आठवां कहते थे, लेकिन दसवां महीना होने पर भी इसका नाम अक्टूबर ही चलता रहा.
नवंबर : नवंबर को लैटिन में पहले 'नोवेम्बर' यानी नौवां कहा गया. ग्यारहवां महीना बनने पर भी इसका नाम नहीं बदला एवं इसे नोवेम्बर से नवंबर कहा जाने लगा.
दिसंबर : इसी प्रकार लैटिन डेसेम के आधार पर दिसंबर महीने को डेसेंबर कहा गया. वर्ष का बारहवां महीना बनने पर भी इसका नाम नहीं बदला. 

फ़िरदौस ख़ान
वक़्त कभी किसी के लिए नहीं ठहरता... कुछ साल ऐसे हुआ करते हैं, जो यादों के माज़ी को ख़ूबसूरत यादें देकर जाते हैं और कुछ साल अपने में दर्द समेटे होते हैं... ये साल भी जा रहा है, माज़ी को कई ख़ूबसूरत यादों की सौग़ात सौंपकर... कुछ लम्हे मुहब्बत से सराबोर हैं, तो कुछ लम्हों में दर्द समाया है...
अब बस इतना करना है कि ख़ूशनुमा लम्हों को यादों के संदूक़ में क़रीने से सहेज कर रख देना है, अहसास के मख़मली रुमाल में लपेट कर... और दर्द में भीगे लम्हों को किसी ऐसी जगह दफ़न कर देना है, जहां से कभी किसी का गुज़र तक न हो...
मुहब्बत के कुछ लम्हे अपने साथ भी रखने हैं... जिन्हें वक़्त के दरिया में बहते रहना है, ताकि ये जहां-जहां से गुज़रें.... उस धरती की फ़िज़ा को मुहब्बत की ख़ुशबू से महकाते रहें...
(Firdaus Diary)


फ़िरदौस ख़ान
हर साल की तरह यह साल भी बीत रहा है... जल्द ही नया साल शुरू होने वाला है एक नई उम्मीद और एक नई रौशनी की किरन के साथ... हर साल से हम कोई न कोई उम्मीद ज़रूर करते हैं... इस साल जो पाना चाहते थे, अगर वो नहीं मिला, तो यह उम्मीद रहती है कि इस बार नये साल में हमारी ख़्वाहिश ज़रूर पूरी होगी...
हम चाहते हैं कि हर साल यादगार हो... साल में कहीं कुछ ऐसा ज़रूर हो, जो साल को यादगार बना जाए... यादों की किताब में एक और ख़ूबसूरत याद जुड़ जाए... लेकिन हर बार ऐसा नहीं होता... कोई साल बहुत प्यारा होता है, उसमें सबकुछ अच्छा ही अच्छा होता है... घर और ज़िंदगी में कोई नया मेहमान आता... और फिर वह हमारी ज़िंदगी का एक अहम हिस्सा बन जाता है... लेकिन कई बार कोई अपना इस दुनिया से चला जाता है... और उसकी कमी उम्रभर खलती रहती है... लेकिन ज़िंदगी तो यूं ही चलती आई है और यूं ही चलती रहेगी... वक़्त भी पल-दर-पल गुज़रता रहा है और गुज़रता रहेगा...
हमारी कोशिश तो बस यही होनी चाहिए कि ज़िंदगी की किताब में कोई ख़ुशनुमा वर्क़ जोड़ लें...
चलो किसी चेहरे पर मुस्कान बनकर बिखर जाएं...
(Firdaus Diary)


चेहरे के दाग़-धब्बे कम करने के लिए महंगा इलाज करने और महंगे तरीक़े अपनाने की ज़रूरत नहीं है. बिना मेहनत किए भी दाग़-धब्बों को कम किया जा सकता है. दाग़-धब्बे कम करने के कुछ आसान घरेलू तरीक़े पेश हैं, जिन्हें आज़मा कर दाग़-धब्बों को कम किया जा सकता है.
ऐलो वेरा जेल 
ऐलो वेरा जेल के पत्ते को लंबा काटकर शीशे की प्याली में जेल निकाल लें. फिर इसे दाग़-धब्बे वाली जगह पर लगाएं. आधा घंटे बाद पानी से धो लें.
नींबू का रस
शीशे की प्याली में नींबू का रस निचोड़ लें.  फिर इसमें रूई का गोला भिगोकर दाग़-धब्बे वाली जगह पर लगाएं. नींबू को काटकर सीधे भी लगाया जा सकता है. एक घंटे बाद पानी से धो लें. ध्यान रहे कि नींबू का रस लगाने के बाद धूप में न जाएं.
नींबू में जो एसकॉर्बिक एसिड (ascorbic acid) या विटामिन सी होता है, जो वह एन्टी-ऑक्सिडेंट्स के रूप में काम करते हैं और त्वचा में दाग़-धब्बों को दूर करने में मदद करते हैं.
दूध
रात को सोने से पहले रूई के गोले को दूध में भिगोकर दाग़-धब्बे वाली जगह पर लगा लें. रात भर यूं ही छोड़ दें. अगले दिन सुबह गुनगुने गर्म पानी से धो लें.
दूध में लैक्टिक एसिड होता है, जो दाग़-धब्बों को दूर करने में बहुत मदद करता है.
दही
एक कटोरी में दही लें और उसमें आधा नींबू का रस डालकर पेस्ट बना लें. इस पेस्ट को दाग़-धब्बे पर लगाएं. फिर सूखने के बाद गुनगुने पानी से धो लें.
दही में भी लैक्टिक एसिड होता है, जो ब्लीचिंग एजेन्ट का काम करता है.
संतरा
एक कटोरी में दो बड़े चम्मच संतरे का रस लें और उसमें एक चुटकी हल्दी डालकर अच्छी तरह से मिला लें. इस पेस्ट को रात को सोने से पहले चेहरे पर अच्छी तरह से लगा लें और अगली सुबह गुनगुने गर्म पानी से धो लें.
नींबू की तरह ही संतरे के रस में भी ब्लीचिंग का गुण होता है, जो दाग़-धब्बों को दूर करने में मदद करता है.
शहद
शहद को दाग़-धब्बे वाली जगह पर लगाएं.
एक कटोरी में ज़रूरत के अनुसार नींबू का रस या ऑलिव ऑयल लें. उसमें थोड़ा शहद डालकर पेस्ट बना लें. उसके बाद पेस्ट को चेहरे पर लगाएं. 
ज़रूरत के हिसाब से बादाम को भिगोकर पीस लें. उसमें एक छोटा चम्मच नींबू का रस और दूध डालें. उसके बाद थोड़ा-सा शहद डालकर अच्छी तरह से पेस्ट बना लें. पेस्ट को चेहरे पर लगाकर सूखने का बाद पानी से धो लें.

शहद त्वचा की मृत कोशिकाओं (dead cells) को निकालकर रौनक़ लाने में मदद करता है. शहद में एन्जाइम होता है, जो वह त्वचा को मुलायम और आकर्षक बनाने में भी बहुत मदद करता है. अगर आपकी त्वचा संवेदनशील है, तो पहले हाथ पर इसका इस्तेमाल करके देख लें. उसके बाद ही चेहरे पर लगाएं.

ग़ौरतलब है कि इन घरेलू तरीक़ों को कम से कम एक महीना तक लगातार इस्तेमाल करने के बाद ही नतीजा नज़र में आएगा.

डॉ. सौरभ मालवीय
भारतीय जहां जाता है, वहां लक्ष्मी की साधना में लग जाता है. मगर इस देश में उगते ही ऐसा लगता है कि उसकी प्रतिभा कुंठित हो जाती है. भारत जमीन का टुकड़ा नहीं, जीता-जागता राष्ट्रपुरुष है. हिमालय इसका मस्तक है, गौरीशंकर शिखा है, कश्मीर किरीट है, पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं. दिल्ली इसका दिल है. विन्ध्याचल कटि है, नर्मदा करधनी है. पूर्वी और पश्चिमी घाट दो विशाल जंघाएं हैं. कन्याकुमारी इसके चरण हैं, सागर इसके पग पखारता है. पावस के काले-काले मेघ इसके कुंतल केश हैं. चांद और सूरज इसकी आरती उतारते हैं, मलयानिल चंवर घुलता है. यह वन्दन की भूमि है, अभिनन्दन की भूमि है. यह तर्पण की भूमि है, यह अर्पण की भूमि है. इसका कंकर-कंकर शंकर है, इसका बिंदु-बिंदु गंगाजल है. हम जिएंगे तो इसके लिए, मरेंगे तो इसके लिए. यह कथन कवि हृदय राजनेता अटल बिहारी वाजपेयी का है. वह कहते हैं, अमावस के अभेद्य अंधकार का अंतःकरण पूर्णिमा की उज्ज्वलता का स्मरण कर थर्रा उठता है. निराशा की अमावस की गहन निशा के अंधकार में हम अपना मस्तक आत्म-गौरव के साथ तनिक ऊंचा उठाकर देखें.

अटल बिहारी वाजपेयी का जन्म 25 दिसंबर, 1924 को मध्य प्रदेश के ग्वालियर के शिंके का बाड़ा मुहल्ले में हुआ था. उनके पिता पंडित कृष्ण बिहारी वाजपेयी अध्यापन का कार्य करते थे और माता कृष्णा देवी घरेलू महिला थीं. अटलजी अपने माता-पिता की सातवीं संतान थे. उनसे बड़े तीन भाई और तीन बहनें थीं. अटलजी के बड़े भाइयों को अवध बिहारी वाजपेयी, सदा बिहारी वाजपेयी तथा प्रेम बिहारी वाजपेयी के नाम से जाना जाता है. अटलजी बचपन से ही अंतर्मुखी और प्रतिभा संपन्न थे. उनकी प्रारंभिक शिक्षा बड़नगर के गोरखी विद्यालय में हुई. यहां से उन्होंने आठवीं कक्षा तक की शिक्षा प्राप्त की. जब वह पांचवीं कक्षा में थे, तब उन्होंने प्रथम बार भाषण दिया था. लेकिन बड़नगर में उच्च शिक्षा की व्यवस्था न होने के कारण उन्हें ग्वालियर जाना पड़ा. उन्हें विक्टोरिया कॉलेजियट स्कूल में दाखिल कराया गया, जहां से उन्होंने इंटरमीडिएट तक की पढ़ाई की. इस विद्यालय में रहते हुए उन्होंने वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में भाग लिया तथा प्रथम पुरस्कार भी जीता. उन्होंने विक्टोरिया कॉलेज से स्नातक स्तर की शिक्षा ग्रहण की. कॉलेज जीवन में ही उन्होंने राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेना आरंभ कर दिया था. आरंभ में वह छात्र संगठन से जुड़े. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख कार्यकर्ता नारायण राव तरटे ने उन्हें बहुत प्रभावित किया. उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शाखा प्रभारी के रूप में कार्य किया. कॉलेज जीवन में उन्होंने कविताएं लिखनी शुरू कर दी थीं. वह 1943 में कॉलेज यूनियन के सचिव रहे और 1944 में उपाध्यक्ष भी बने. ग्वालियर की स्नातक उपाधि प्राप्त करने के बाद वह कानपुर चले गए. यहां उन्होंने डीएवी महाविद्यालय में प्रवेश लिया. उन्होंने कला में स्नातकोत्तर उपाधि प्रथम श्रेणी में प्राप्त की. इसके बाद वह पीएचडी करने के लिए लखनऊ चले गए. पढ़ाई के साथ-साथ वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्य भी करने लगे. परंतु वह पीएचडी करने में सफलता प्राप्त नहीं कर सके, क्योंकि पत्रकारिता से जुड़ने के कारण उन्हें अध्ययन के लिए समय नहीं मिल रहा था. उस समय राष्ट्रधर्म नामक समाचार-पत्र पंडित दीनदयाल उपाध्याय के संपादन में लखनऊ से मुद्रित हो रहा था. तब अटलजी इसके सह सम्पादक के रूप में कार्य करने लगे. पंडित दीनदयाल उपाध्याय इस समाचार-पत्र का संपादकीय स्वयं लिखते थे और शेष कार्य अटलजी एवं उनके सहायक करते थे. राष्ट्रधर्म समाचार-पत्र का प्रसार बहुत बढ़ गया. ऐसे में इसके लिए स्वयं की प्रेस का प्रबंध किया गया, जिसका नाम भारत प्रेस रखा गया था.

कुछ समय के पश्चात भारत प्रेस से मुद्रित होने वाला दूसरा समाचार पत्र पांचजन्य भी प्रकाशित होने लगा. इस समाचार-पत्र का संपादन पूर्ण रूप से अटलजी ही करते थे. 15 अगस्त, 1947 को देश स्वतंत्र हो गया था. कुछ समय के पश्चात 30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी की हत्या हुई. इसके बाद भारत सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को प्रतिबंधित कर दिया. इसके साथ ही भारत प्रेस को बंद कर दिया गया, क्योंकि भारत प्रेस भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रभाव क्षेत्र में थी. भारत प्रेस के बंद होने के पश्चात अटलजी इलाहाबाद चले गए. यहां उन्होंने क्राइसिस टाइम्स नामक अंग्रेज़ी साप्ताहिक के लिए कार्य करना आरंभ कर दिया.  परंतु जैसे ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर लगा प्रतिबंध हटा, वह पुन: लखनऊ आ गए और उनके संपादन में स्वदेश नामक दैनिक समाचार-पत्र प्रकाशित होने लगा.  परंतु हानि के कारण स्वदेश को बंद कर दिया गया.  इसलिए वह दिल्ली से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र वीर अर्जुन में कार्य करने लगे. यह दैनिक एवं साप्ताहिक दोनों आधार पर प्रकाशित हो रहा था. वीर अर्जुन का संपादन करते हुए उन्होंने कविताएं लिखना भी जारी रखा.

अटलजी को जनसंघ के सबसे पुराने व्यक्तियों में एक माना जाता है. जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लग गया था, तब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भारतीय जनसंघ का गठन किया था. यह राजनीतिक विचारधारा वाला दल था. वास्तव में इसका जन्म संघ परिवार की राजनीतिक संस्था के रूप में हुआ. डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी इसके अध्यक्ष थे. अटलजी भी उस समय से ही इस दल से जुड़ गए. वह अध्यक्ष के निजी सचिव के रूप में दल का कार्य देख रहे थे. भारतीय जनसंघ ने सर्वप्रथम 1952 के लोकसभा चुनाव में भाग लिया. तब उसका चुनाव चिह्न दीपक था. इस चुनाव में भारतीय जनसंघ को कोई विशेष सफ़लता प्राप्त नहीं हुई, परंतु इसका कार्य जारी रहा. उस समय भी कश्मीर का मामला अत्यंत संवेदनशील था. डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अटलजी के साथ जम्मू-कश्मीर के लोगों को जागरूक करने का कार्य किया. परंतु सरकार ने इसे सांप्रदायिक गतिविधि मानते हुए डॉ. मुखर्जी को गिरफ्तार करके जेल भेज दिया, जहां 23 जून, 1953 को जेल में ही उनकी मृत्यु हो गई.  अब भारतीय जनसंघ का काम अटलजी प्रमुख रूप से देखने लगे. 1957 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनसंघ को चार स्थानों पर विजय प्राप्त हुई. अटलजी प्रथम बार बलरामपुर सीट से विजयी होकर लोकसभा में पहुंचे. वह इस चुनाव में 10 हज़ार मतों से विजयी हुए थे. उन्होंने तीन स्थानों से नामांकन पत्र भरा था. बलरामपुर के अलावा उन्होंने लखनऊ और मथुरा से भी नामांकन पत्र भरे थे. परंतु वह शेष दो स्थानों पर हार गए. मथुरा में वह अपनी ज़मानत भी नहीं बचा पाए और लखनऊ में साढ़े बारह हज़ार मतों से पराजय स्वीकार करनी पड़ी. उस समय किसी भी पार्टी के लिए यह आवश्यक था कि वह कम से कम तीन प्रतिशत मत प्राप्त करे, अन्यथा उस पार्टी की मान्यता समाप्त की जा सकती थी. भारतीय जनसंघ को छह प्रतिशत मत प्राप्त हुए थे. इस चुनाव में हिन्दू महासभा और रामराज्य परिषद जैसे दलों की मान्यता समाप्त हो गई, क्योंकि उन्हें तीन प्रतिशत मत नहीं मिले थे. उन्होंने संसद में अपनी एक अलग पहचान बना ली थी. 1962 के लोकसभा चुनाव में वह पुन: बलरामपुर क्षेत्र से भारतीय जनसंघ के प्रत्याशी बने, परंतु उनकी इस बार पराजय हुई. यह सुखद रहा कि 1962 के चुनाव में जनसंघ ने प्रगति की और उसके 14 प्रतिनिधि संसद पहुंचे. इस संख्या के आधार पर राज्यसभा के लिए जनसंघ को दो सदस्य मनोनीत करने का अधिकार प्राप्त हुआ. ऐसे में अटलजी और पंडित दीनदयाल उपाध्याय राज्यसभा में भेजे गए. फिर 1967 के लोकसभा चुनाव में अटलजी पुन: बलरामपुर की सीट से प्रत्याशी बने और उन्होंने विजय प्राप्त की. उन्होंने 1972 का लोकसभा चुनाव अपने गृहनगर अर्थात ग्वालियर से लड़ा था. उन्होंने बलरामपुर संसदीय चुनाव का परित्याग कर दिया था. उस समय श्रीमती इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं, जिन्होंने जून, 1975 में आपातकाल लगाकर विपक्ष के कई नेताओं को जेल में डाल दिया था. इनमें अटलजी भी शामिल थे. उन्होंने जेल में रहते हुए समयानुकूल काव्य की रचना की और आपातकाल के यथार्थ को व्यंग्य के माध्यम से प्रकट किया. जेल में रहते हुए ही उनका स्वास्थ्य ख़राब हो गया और उन्हें अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती कराया गया. लगभग 18 माह के बाद आपातकाल समाप्त हुआ. फिर 1977 में लोकसभा चुनाव हुए, परंतु आपातकाल के कारण श्रीमती इंदिरा गांधी चुनाव हार गईं. विपक्ष द्वारा मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्रित्व में जनता पार्टी की सरकार बनी और अटलजी विदेश मंत्री बनाए गए. उन्होंने कई देशों की यात्राएं कीं और भारत का पक्ष रखा.  4 अक्टूबर, 1977 को उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ के अधिवेशन में हिंदी मंस संबोधन दिया. इससे पूर्व किसी भी भारतीय नागरिक ने राष्ट्रभाषा का प्रयोग इस मंच पर नहीं किया था. जनता पार्टी सरकार का पतन होने के पश्चात् 1980 में नए चुनाव हुए और इंदिरा गांधी पुन: सत्ता में आ गईं. इसके बाद 1996 तक अटलजी विपक्ष में रहे. 1980 में भारतीय जनसंघ के नए स्वरूप में भारतीय जनता पार्टी का गठन हुआ और इसका चुनाव चिह्न कमल का फूल रखा गया. उस समय अटलजी ही भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेता थे. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के पश्चात् 1984 में आठवीं लोकसभा के चुनाव हुए, परंतु अटलजी ग्वालियर की अपनी सीट से पराजित हो गए. मगर 1986 में उन्हें राज्यसभा के लिए चुन लिया गया.

13 मार्च, 1991 को लोकसभा भंग हो गई और 1991 में फिर लोकसभा चुनाव हुए. फिर 1996 में पुन: लोकसभा के चुनाव हुए.  इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में उभरी. संसदीय दल के नेता के रूप में अटलजी प्रधानमंत्री बने. उन्होंने 21 मई, 1996 को प्रधानमंत्री के पद एवं गोपनीयता की शपथ ग्रहण की. 31 मई, 1996 को उन्हें अंतिम रूप से बहुमत सिद्ध करना था, परंतु विपक्ष संगठित नहीं था. इस कारण अटलजी मात्र 13 दिनों तक ही प्रधानमंत्री रहे. इसके बाद वह अप्रैल, 1999 से अक्टूबर, 1999 तक कार्यवाहक प्रधानमंत्री रहे. 1999 के लोकसभा चुनाव में एनडीए को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ और 13 अक्टूबर, 1999 को अटलजी ने प्रधानमंत्री के रूप में पद एवं गोपनीयता की शपथ ली. इस प्रकार वह तीसरी बार प्रधानमंत्री बने और अपना कार्यकाल पूरा किया.

अटल बिहारी वाजपेयी दलगत राजनीति से दूर रहे. उन्होंने विपक्ष की उपलब्धियों को भी खूब सराहा. वर्ष 1971 की बात है. उस समय जनता पार्टी के नेता अटल बिहारी वाजपेयी लोकसभा में विपक्ष के नेता थे और श्रीमती इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं. जब भारत को पाकिस्तान पर 1971 की लड़ाई में विजय प्राप्त हुई थी. पाक के 93 हजार सैनिकों ने भारत की सेना के सामने आत्मसमर्पण किया था, तब अटलजी ने श्रीमती इंदिरा गांधी की तुलना देवी दुर्गा से की थी. इतना ही नहीं, उन्होंने परमाणु शक्ति को देश के लिए अतिआवश्यक बताते हुए परमाणु कार्यक्रम की आधारशिला रखने वाली भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को धन्यवाद दिया. उन्होंने 11 मई, 1998 को पोखरन में पांच परमाणु परीक्षण कराए. उनका कहना है कि दुर्गा समाज की संघटित शक्ति की प्रतीक हैं. व्यक्तिगत और पारिवारिक स्वार्थ-साधना को एक ओर रखकर हमें राष्ट्र की आकांक्षा प्रदीप्त करनी होगी. दलगत स्वार्थों की सीमा छोड्कर विशाल राष्ट्र की हित-चिंता में अपना जीवन लगाना होगा. हमारी विजिगीषु वृत्ति हमारे अन्दर अनंत गतिमय कर्मचेतना उत्पन्न करे.

पत्रकार के रूप में अपना जीवन आरंभ करने वाले अटलजी को कई पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है. राष्ट्र के प्रति उनकी समर्पित सेवाओं के लिए वर्ष 1992 में राष्ट्रपति ने उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया. वर्ष 1993 में कानपुर विश्वविद्यालय ने उन्हें डी लिट की उपाधि प्रदान की. उन्हें 1994 में लोकमान्य तिलक पुरस्कार दिया गया. वर्ष 1994 में श्रेष्ठ सासंद चुना गया तथा पंडित गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कार से सम्मानित किया गया. इसी वर्ष 27 मार्च, 2015 भारत रत्न पुरस्कार से सम्मानित किया गया.

अटलजी ने कई पुस्तकें लिखी हैं, जिनमें कैदी कविराय की कुंडलियां, न्यू डाइमेंशन ऒफ़ एशियन फ़ॊरेन पॊलिसी, मृत्यु या हत्या, जनसंघ और मुसलमान, मेरी इक्यावन कविताएं, मेरी संसदीय यात्रा (चार खंड), संकल्प-काल एवं गठबंधन की राजनीति सम्मिलित हैं.

अटलजी को इस बात का बहुत हर्ष है कि उनका जन्म 25 दिसंबर को हुआ. वह कहते हैं- 25 दिसंबर! पता नहीं कि उस दिन मेरा जन्म क्यों हुआ?  बाद में, बड़ा होने पर मुझे यह बताया गया कि 25 दिसंबर को ईसा मसीह का जन्मदिन है, इसलिए बड़े दिन के रूप में मनाया जाता है. मुझे यह भी बताया गया कि जब मैं पैदा हुआ, तब पड़ोस के गिरजाघर में ईसा मसीह के जन्मदिन का त्योहार मनाया जा रहा था. कैरोल गाए जा रहे थे. उल्लास का वातावरण था. बच्चों में मिठाई बांटी जा रही थी. बाद में मुझे यह भी पता चला कि बड़ा धर्म पंडित मदन मोहन मालवीय का भी जन्मदिन है. मुझे जीवन भर इस बात का अभिमान रहा कि मेरा जन्म ऐसे महापुरुषों के जन्म के दिन ही हुआ.

अटलजी ने कभी हार नहीं मानी. अपनी एक कविता में वह कहते हैं-
टूटे हुए तारों से फूटे वासंती स्वर
पत्थर की छाती में उग आया नव अंकुर
झरे सब पीले पात
कोयल की कुहुक रात
प्राची में अरुणिमा की रेख देख पाता हूं
गीत नया गाता हूं
टूटे हुए सपने की सुने कौन सिसकी
अंतर को चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी
हार नहीं मानूंगा
रार नहीं ठानूंगा
काल के कपाल पर लिखता-मिटाता हूं
गीत नया गाता हूं.

फ़िरदौस ख़ान
कालेधन पर रोक लगाने के केंद्र सरकार के नोटबंदी के फ़ैसले के बाद अब सबकी नज़र सियासी दलों के चंदे पर है.  देश की अर्थव्यवस्था में पारदर्शिता के लिए सामाजिक अंकेक्षण की मांग उठ रही है. जब नोटबंदी, कैश लेस ट्रांजेक्शन, सोना, रियल स्टेट में कैश लेस ख़रीद-बिक्री को लेकर आम जनता प्रभावित है, तो फिर जनता द्वारा भरे गए प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष करों से मिली रक़म का इस्तेमाल करने वाले नेताओं और सियासी दलों को भी पारदर्शिता बरतनी होगी.

इस बाबत चुनाव में काले धन का इस्तेमाल रोकने के लिए चुनाव आयोग ने केंद्र सरकार को क़ानून में संशोधन की सिफ़ारिश की है. इसके लिए चुनाव आयोग ने केंद्र सरकार को तीन सुझाव भी दिए हैं. पहला सियासी दलों के दो हज़ार रुपये से ज़्यादा गुप्त चंदा लेने पर रोक लगाई जाए, दूसरा चुनाव न लड़ने वाले सियासी दलों को आयकर से छूट नहीं दी जाए और तीसरा सियासी दल कूपन के ज़रिये चंदा देने वाले लोगों की भी पूरी जानकारी रखें. क़ाबिले-ग़ौर है कि फ़िलहाल गुप्त चंदे पर क़ानूनी रोक नहीं है. जनप्रतिनिधित्व क़ानून 1951 की धारा 29(सी) के तहत 20 हज़ार रुपये से ज़्यादा के चंदे की सूचना चुनाव आयोग को देनी होती है. इससे नीचे की रक़म का कोई ब्यौरा नहीं दिया जाता. आमदनी के मामले में कांग्रेस ने चुनाव आयोग को बताया कि एक दशक में उसे दो-तिहाई रकम 20 हज़ार रुपये से नीचे के चंदे के ज़रिये हुई है, जबकि भारतीय जनता पार्टी ने अपनी 44 फ़ीसद आमदनी को 20 हज़ार रुपये से नीचे की मदद को बताया है. समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के मुताबिक़  उन्हें 20 हज़ार रुपये से ज़्यादा चंदा देने वाला कोई नहीं है, इसलिए उनमें यह दर 100 फ़ीसद है. ऐसे में नियामक एजेंसियां यह पता लगाने में नाकाम रहती हैं कि सियासी दलों के पास आख़िर इतनी बड़ी रक़म कहां से आई है. सियासी दलों को आयकर भरने से भी छूट है. आयकर क़ानून की धारा 13ए के तहत  संपत्ति, चंदा, या दूसरे स्रोतों से हुई आमदनी पर कोई कर नहीं देना पड़ता. कूपन या रसीद के ज़रिये चंदा देने वालों का ब्यौरा देना भी ज़रूरी नहीं है. इस तरह छोटी-छोटी रक़म के कूपनों के ज़रिये कितनी भी रक़म दिखाई जा सकती है. सियासी दल चुनाव आयोग को जिस रक़म का ब्यौरा देते हैं, वह पैसा कॊरपोरेट घरानों से चंदे के तौर पर आता है, जो पूरी तरह आयकर से मुक्त है. इसके अलावा सियासी आरटीआई के दायरे में नहीं आते. सियासी दलों की आमदनी और ख़र्च दोनों ही में पारदर्शिता नहीं होती. चुनाव आयोग भी अपने लेखा विभाग से इसकी जांच नहीं करा सकता. ऐसी हालत में कालेधन को बहुत ही आसानी से सफ़ेद किया जा सकता है. सियासी दलों पर आरोप लग रहे हैं कि नोटबंदी के बाद उनके खातों में एक लाख करोड़ रुपये से ज़्यादा के पुराने नोट जमा हुए हैं. यह भी आरोप है कि बहुत से छोटे सियासी दल 25 फ़ीसद कमीशन पर कालेधन को सफ़ेद बनाने में लगे हैं. साथ ही सियासी गलियारे में चर्चा थी कि नोटबंदी के बाद सियासी दलों के खातों में जमा हुए पुराने नोटों की जांच नहीं होगी. हालांकि विवाद बढ़ने पर राजस्व सचिव हंसमुख अढिया को सफ़ाई देनी पड़ी कि नोटबंदी के बाद कोई भी सियासी दल 500 और 1000 रूपये में चंदा स्वीकार नहीं कर सकता. अगर उन्होंने ऐसा किया, तो उन पर भी कार्रवाई होगी.

ग़ौरतलब है कि चुनावों में कालेधन का ख़ूब इस्तेमाल होता है. चुनाव सुधार के लिए काम करने वाली एजेंसियों का भी यही कहना है कि काला धन सबसे ज़्यादा चुनावों में ही खपता है. क़ाबिले-ग़ौर यह भी है कि सियासी दलों को मिली रियायत का ग़लत फ़ायदा उठाने का मौक़ा मिला रहता है. बड़ी रक़म को ज़्यादा हिस्सों में बांटकर कालेधन को सफ़ेद बनाया जा सकता है. आयकर में छूट हासिल करने के मक़सद से ही ज़्यादतर सियासी दलों का गठन हुआ है. फ़िलहाल देश में 1900 से ज़्यादा सियासी दल हैं, जिनमें से तक़रीबन 1400 सियासी दलों ने किसी भी चुनाव में अपना एक उम्मीदवार भी मैदान में नहीं उतारा. हालत यह है कि पिछले आम चुनाव में महज़ 45 दलों ने ही चुनाव लड़ा. चंदे के कूपन का भी कोई नियम नहीं है. कितने भी कूपन छपवाकर कितनी भी रक़म का चंदा दिखाया जा सकता है.

एसोसिएशन ऑफ़ डेमोक्रेटिक रिफ़ॊर्म्स (एडीआर) की साल 2013 की रिपोर्ट के मुताबिक़ सियासी दलों को 75 फ़ीसद से ज़्यादा चंदा अज्ञात स्रोतों से मिला. पिछले दस सालों में सियासी दलों के चंदे में 478 की बढ़ोतरी हुई. साल 2004 के लोकसभा चुनाव में 38 दलों को 253.46 करोड़ रुपये का चंदा मिला, जो साल 2014 में बढ़कर 1463.63 करोड़ रुपये तक पहुंच गया. पिछले तीन लोकसभा चुनावों में 44 फ़ीसद चंदा नक़दी के तौर पर था. लोकसभा चुनावों के अलावा इस दौरान हुए विधानसभा चुनावों में भी सियासी दलों ने चंदे के तौर पर करोड़ों रुपये जुटाये.  साल 2004 से 2015 के बीच हुए विधानसभा चुनावों में सियासी दलों को 3368.06 करोड़ रुपये मिले. इसमें से 63 फ़ीसद रक़म नक़दी के तौर पर मिली. चुनाव आयोग में जमा किए गए चुनावी ख़र्च के विवरण के मुताबिक़ पिछले तीन लोकसभा चुनाव में क्षेत्रीय दलों में समाजवादी पार्टी, आम आदमी पार्टी, अन्नाद्रमुक, बीजू जनता दल और शिरोमणि अकाली दल को सबसे ज़्यादा चंदा मिला है और इन्हीं दलों ने सबसे ज़्यादा रक़म खर्च भी की है. साल 2004 और 2015 के विधानसभा चुनावों के दौरान क्षेत्रीय दलों समाजवादी पार्टी, आम आदमी पार्टी, शिरोमणि अकाली दल, शिवसेना और तृणमूल कांग्रेस को सबसे ज़्यादा चंदा मिला है और इन्हीं दलों ने सबसे ज़्यादा पैसे ख़र्च किए हैं. एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक़ साल 2014-15 में चुनावी ट्रस्टों ने 177.55 करोड़ चंदे के तौर पर जुटाये हैं और उनमें से 177.40 करोड़ अलग-अलग सियासी दलों को चंदे के रूप में दिए गए.

अफ़सोस की बात है कि अपनी आमदनी के मामले में सियासी दल पारदर्शिता नहीं चाहते. सनद रहे कि केंद्रीय चुनाव आयोग ने जब साल 2013 में पार्टियों को सार्वजनिक संस्था घोषित करते हुए उन्हें सूचना का अधिकार (आरटीआई) के दायरे में लाने का आदेश दिया था, तब कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा और वामदलों से लेकर तक़रीबन सभी बड़े-छोटे दलों ने एक सुर में इसका विरोध किया था. पिछले सरकार केंद्र की भाजपा सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में कहा था कि सियासी दलों को आरटीआई के दायरे में लाने से उनके संचालन पर असर पड़ेगा और सियासी विरोधी भी इसका फ़ायदा उठा सकते हैं. सियासी दल भी इस बात को बख़ूबी जानते हैं कि चुनाव के दौरान कालाधन बाहर आ जाता है. कालेधन के मामले में सख़्ती होने से उनकी आमदनी पर भी इसका असर पड़ेगा. सियासी दलों के इसी विरोध की वजह से ही चुनाव आयोग और लॊ कमीशन के सुझावों की तमाम फ़ाइलें दफ़्तरों में पड़ी धूल फांक रही हैं. चुनाव आयोग ने सियासी दलों के लिए कई और भी सिफ़ारिशें की थीं, जिनमें सियासी दलों को आरटीआई का जवाब देने, उनके दान खातों का ऒडिट करने, एक उम्मीदवार के एक ज़्यादा सीटों से चुनाव लड़ने और निर्दलीय उम्मीदवार के चुनाव लड़ने आदि पर रोक लगाना शामिल है.

दरअसल, कालेधन से जुड़ा मुद्दा चुनावी सुधारों से भी जुड़ा हुआ है. अगर सरकार कालेधन के मामले में वाक़ई गंभीर है, तो उसे चुनाव सुधारों की दिशा में भी सख़्त फ़ैसले लेने होंगे. उसे चुनाव में धन-बल के अत्यधिक इस्तेमाल पर भी पाबंदी लगानी होगी. सियासी दलों को चाहिए कि वे भी कैश लेस चंदा लेना शुरू करें और साथ ही अपनी आमदनी को सार्वजनिक करें. विदेशों की तर्ज़ पर भारत को भी इस दिशा में कारगर क़दम उठाने होंगे. अमेरिका, ब्रिटेन्, जर्मनी, फ़्रांस, ऒस्ट्रेलिया और आयरलैंड आदि देशों ने सियासी दलों को मिलने वाले चंदे पर सख़्त नियम बनाए हुए हैं. सियासी दलों को अपनी आमदनी का ब्यौरा देना होता है. फ़्रांस में चुनाव का सारा ख़र्च सरकार ही वहन करती है.

बहरहाल, कालेधन पर पारदर्शिता बरतने की सारी ज़िम्मेदारी सिर्फ़ जनता की ही नहीं है, सरकार और सियासी दलों को भी अर्थव्यवस्था को पारदर्शी बनाने के अपने दायित्व को पूरी ईमानदारी के साथ निभाना होगा.

फ़िरदौस ख़ान
विकास का मतलब सिर्फ़ किसी चीज़ या जगह को ख़ूबसूरत बनाना ही नहीं है, बल्कि विकास सुविधाओं में भी विस्तार करता है. देश का सबसे लंबा 'आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस-वे' इसकी एक बेहतरीन मिसाल है. सौंदर्य से परिपूर्ण हरेभरे इस एक्सप्रेस वे पर अत्याधुनिक सुविधाओं की व्यवस्था की गई है. सड़क हादसे या कोई और ज़रूरत पड़ने पर हैलीकॉप्टर का भी इंतज़ाम है. यहां जगह-जगह सीसीटीवी लगाए गए हैं. साथ ही मोर्टल, पैट्रोल पंप और फ़ूड कॊर्नर भी मौजूद हैं. इसकी एक बड़ी ख़ासियत यह भी है कि आपातकाल या जंग के वक़्त यहां पर लड़ाकू विमान उड़ान भर सकते हैं और उन्हें उतारा भी जा सकता है, यानी यह एक्सप्रेस-वे एयरस्ट्रिप की तरह काम करेगा. इस दौरान दोनों तरफ़ से यातायात भी सामान्य रूप से चलता रहेगा.
हाईवे पर बनने वाले इस रनवे को हाई-वे स्ट्रिप और रोड रनवे कहा जाता है. पड़ौसी देश पाकिस्तान, चीन, पोलैंड, स्वीडन, जर्मनी और सिंगापुर में ऐसे रोड रनवे हैं. ग़ौरतलब है कि सड़क के जिस हिस्से का इस्तेमाल रनवे के लिए किया जाता है, उस पर बिजली के खंभे और मोबाइल फ़ोन के टॊवर नहीं लगाए जाते. इस हिस्से पर उन्हीं सुविधाओं मुहैया कराई जाती हैं, जिनकी ज़रूरत हवाई जहाज़ों को होती है.

आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस-वे को यमुना एक्सप्रेस वे और ताज एक्सप्रेस वे के नाम से भी जाना जाता है. यह भारत की सबसे लंबी छह लेन सड़क है. आने वाले वक़्त में तीन किमी लंबी हवाई पटटी के पास (खंभौली-कबीरपुर के बीच) एक्सप्रेस-वे की सड़क को 12 लेन किया जाएगा, ताकि हवाई जहाज़ों की लैंडिंग और टेकऑफ़ के वक़्त यातायात सामान्य रहे. तक़रीबन 13 हज़ार 200 करोड़  करोड़ रुपये की लागत से बने इस एक्सप्रेस-वे के रास्ते में गंगा-जमुना समेत पांच नदियां आती हैं.  370 किलोमीटर लंबा और 110 मीटर चौड़ा यह एक्सप्रेस-वे उन्नाव, कानपुर, हरदोई, औरैया, मैनपुरी, कन्नौज, इटावा और फ़िरोज़ाबाद को आगरा से जोड़ेगा. इस एक्सप्रेस-वे पर 13 बड़े और 52 छोटे पुल बनाए गए हैं. इस पर चार आरओबी भी बने हैं. इसके रास्ते में पड़ने वाले क़स्बों और गांवों के लोगों की सुविधा के लिए इस पर 132 फुट ओवरब्रिज और 59 अंडरपास बनाए गए हैं. इससे लोगों को आवाजाही में किसी भी तरह की कोई परेशानी नहीं होगी. फ़िलहाल इस एक्सप्रेस-वे पर एडवांस ट्रैफिक मैनेजमेंट सिस्टम भी लगाया जाएगा. इसके अलावा साइड बैरीकेटिंग में आधुनिक रिफ़्लेक्टिव पेंट किया जाएगा, जो इसे और ख़ूबसूरत बनाएगा. इससे दुर्घटना और ट्रैफ़िक जाम की समस्या से भी लोगों को निजात मिलेगी.

दरअसल, आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस-वे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का ड्रीम प्रोजेक्ट है. उन्होंने इसमें बहुत दिलचस्पी ली, तभी इसे तक़रीबन 22 महीने में पूरा कर लिया गया. लिछले दिनों वायु सेना के अधिकारियों के साथ कई अन्य अधिकारियों ने एक्सप्रेस-वे का मुआवना किया था. इस पर लड़ाकू विमानों उड़ान भरने और उतरने का अभ्यास भा कराया गया. समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव के 78वें जन्मदिन 21 नवंबर को इस एक्सप्रेस-वे का उद्गाटन किया गया. इस मौक़े पर ग्वालियर से आए मिराज 2000 और बरेली से आने वाले चार सुखोई विमानों ने उड़ान भरी. ये लड़ाकू विमान तक़रीबन 300 किलोमीटर प्रतिघंटे की रफ़्तार से एक्सप्रेस वे को छूकर वापस उड़ गए. उद्घाटन के बावजूद एक्सप्रेस वे आम वाहनों के लिए नहीं खोला गया, क्योंकि अभी तक एक्सप्रेस वे की सेफ़्टी ऑडिट नहीं हुई है. सेफ़्टी ऑडिट का काम पूरा होने के बाद इसे अगले माह दिसंबर में आम लोगों के लिए खोल दिया जाएगा.
इस अत्याधुनिक एक्सप्रेस वे पर वाहनों को तेज़ रफ़्तार से चलने की छूट नही होगी. अधिकतम गति सीमा तोड़ने पर कैमरे से जुड़ा अलार्म बज उठेगा. इसकी जानकारी टोल प्लाज़ा पर भी दी जाएगी और टोल प्लाज़ा से पहले ही वाहन को रोक कर जुर्माना वसूला जाएगा. एक्सप्रेस वे पर वाहनों की रफ़्तार की सीमा तय कर दी गई है. यहां पर हल्के वाहनों की अधिकतम गति 100 और भारी वाहनों की 60 किलोमीटर प्रति घंटा निर्धारित की गई है. इससे तेज़ रफ़्तार में वाहन चलाने पर चालकों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की जाएगी. एक्सप्रेस वे पर अत्याधुनिक नाइट विज़न कैमरे लगाए जा रहे हैं, जो वाहनों की रफ़्तार पर नज़र रखेंगे. दरअसल, सड़क हादसों के मद्देनज़र ऐसा करना बेहद ज़रूरी था. इस एक्सप्रेस पर पर अकसर हादसे होते रहते हैं, जिनमें जान और माल दोनों का ही नुक़सान होता है.

एक्सप्रेस-वे को हवाई पट्टी के तौर पर इस्तेमाल किए जाना वक़्त की ज़रूरत है. आज जब पड़ौसी देश आए-दिन आंखें दिखाते रहते हों, तो ये और भी ज़रूरी हो जाता है. पाकिस्तान की गतिविधियां किसी से छुपी नहीं हैं. चीन से भी अकसर विवाद ही रहता है. ऐसे हालात में देश के सबसे लंबे एक्सप्रेस-वे पर हवाई पट्टी का निर्माण किया जाना एक सराहनीय क़दम है. इससे आने वाले वक़्त में निर्माण कार्यों को लेकर नये आयाम भी स्थापित होंगे.  फ़िलहाल इसे एक अच्छी शुरुआत के तौर पर देखा जा रहा है. जल्द ही देश में ऐसे और एक्सप्रेस-वे बनाने का काम शुरू होगा.


फ़िरदौस ख़ान
देशभर में जवाहरलाल नेहरू के जन्म दिन 14 नवंबर को बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है. नेहरू बच्चों से बेहद प्यार करते थे और यही वजह थी कि उन्हें प्यार से चाचा नेहरू बुलाया जाता था. एक बार चाचा नेहरू से मिलने एक सज्जन आए. बातचीत के दौरान उन्होंने नेहरू जी से पूछा- पंडित जी, आप सत्तर साल के हो गए हैं,  लेकिन फिर भी हमेशा बच्चों की तरह तरोताज़ा दिखते हैं, जबकि आपसे छोटा होते हुए भी मैं बूढ़ा दिखता हूं. नेहरू जी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया- इसके तीन कारण हैं.  पहला, मैं बच्चों को बहुत प्यार करता हूं. उनके साथ खेलने की कोशिश करता हूं., इससे मैं अपने आपको उनको जैसा ही महसूस करता हूं. दूसरा, मैं प्रकृति प्रेमी हूं और पेड़-पौधों, पक्षी, पहाड़, नदी, झरनों, चांद, सितारों से बहुत प्यार करता हूं. मैं इनके साथ में जीता हूं, जिससे यह मुझे तरोताज़ा रखते हैं. तीसरी वजह यह है कि ज़्यादातर लोग हमेशा छोटी-छोटी बातों में उलझे रहते हैं और उसके बारे में सोच-सोचकर दिमाग़ ख़राब करते हैं. मेरा नज़रिया अलग है और मुझ पर छोटी-छोटी बातों का कोई असर नहीं होता. यह कहकर नेहरू जी बच्चों की तरह खिलखिलाकर हंस पड़े.
पंडित जवाहरलाल नेहरू  का जन्म 14 नवंबर 1889 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में हुआ था. वह पंडित मोतीलाल नेहरू और स्वरूप रानी के इकलौते बेटे थे. उनसे छोटी उनकी दो बहनें थीं. उनकी बहन विजयलक्ष्मी पंडित बाद में संयुक्त राष्ट्र महासभा की पहली महिला अध्यक्ष बनीं. उनकी शुरुआती तालीम घर पर ही हुई. उन्होंने 14 साल की उम्र तक घर पर ही कई अंग्रेज़ शिक्षकों से तालीम हासिल की. आगे की शिक्षा के लिए 1905 में जवाहरलाल नेहरू को इंग्लैंड के हैरो स्कूल में दाख़िल करवा दिया गया. इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए वह कैंब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज गए, जहां से उन्होंने प्रकृति विज्ञान में स्नातक उपाधि प्राप्त की. 1912 में उन्होंने लंदन के इनर टेंपल से वकालत की डिग्री हासिल की और उसी साल भारत लौट आए. उन्होंने इलाहाबाद में वकालत शुरू कर दी, लेकिन वकालत में उनकी ख़ास दिलचस्पी नहीं थी. भारतीय राजनीति में उनकी दिलचस्पी बढ़ने लगी और सियासी कार्यक्रमों में शिरकत करने लगे. उन्होंने 1912 में बांकीपुर (बिहार) में होने वाले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में प्रतिनिधि के रूप में हिस्सा लिया लिया. 8 फ़रवरी 1916 को कमला कौल से उनका विवाह हो गया. 19 नवंबर 1917 को उनके यहां बेटी का जन्म हुआ, जिसका नाम इंदिरा प्रियदर्शिनी रखा गया, जो बाद में भारत की प्रधानमंत्री बनीं. इसके बाद उनके यहां एक बेटे का जन्म हुआ, लेकिन जल्द ही उसकी मौत हो गई.

पंडित जवाहरलाल नेहरू  1916 के लखनऊ अधिवेशन में महात्मा गांधी के संपर्क में आए. मगर 1929 में कांग्रेस के ऐतिहासिक लाहौर अधिवेशन का अध्यक्ष चुने जाने तक नेहरू भारतीय राजनीति में अग्रणी भूमिका में नहीं आ पाए थे. इस अधिवेशन में भारत के राजनीतिक लक्ष्य के रूप में संपूर्ण स्वराज्य का ऐलान किया गया. इससे पहले मुख्य लक्ष्य औपनिवेशिक स्थिति की मांग थी. वह जलियांवाला बाग़ हत्याकांड की जांच में देशबंधु चितरंजनदास और महात्मा गांधी के सहयोगी रहे और 1921 के असहयोग आंदोलन में तो महात्मा गांधी के बेहद क़रीब में आ गए और गांधी जी की मौत तक यह नज़दीकी क़ायम रही. कांग्रेस पार्टी के साथ नेहरू का जुड़ाव 1919 में प्रथम विश्व युद्ध के फ़ौरन बाद शुरू हुआ. उस वक़्त राष्ट्रवादी गतिविधियों की लहर ज़ोरों पर थी और अप्रैल 1919 को अमृतसर के नरसंहार के रूप में सरकारी दमन खुलकर सामने आया. स्थानीय ब्रिटिश सेना कमांडर ने अपनी टुकड़ियों को निहत्थे भारतीयों की एक सभा पर गोली चलाने का हुक्म दिया, जिसमें 379 लोग मारे गए और तक़रीबन बारह सौ लोग ज़ख़्मी हुए.

1921 के आख़िर में जब कांग्रेस पार्टी के प्रमुख नेताओं और कार्यकर्ताओं को कुछ प्रदेशों में ग़ैर क़ानूनी घोषित कर दिया गया,  तब पहली बार नेहरू जेल गए. अगले 24 साल में उन्हें आठ बार गिरफ्तार कर जेल भेजा गया. नेहरू ने कुल मिलाकर नौ साल से ज़्यादा वक़्त जेलों में गुज़ारा. अपने मिज़ाज के मुताबिक़ ही उन्होंने अपनी जेल-यात्राओं को असामान्य राजनीतिक गतिविधि वाले जीवन के अंतरालों के रूप में वर्णित किया है.  कांग्रेस के साथ उनका राजनीतिक प्रशिक्षण 1919 से 1929 तक चला. 1923 में और फ़िर 1927 में वह दो-दो साल के लिए पार्टी के महासचिव बने. उनकी रुचियों और ज़िम्मेदारियों ने उन्हें भारत के व्यापक क्षेत्रों की यात्रा का मौक़ा दिया, ख़ासकर उनके गृह प्रदेश संयुक्त प्रांत का,  जहां उन्हें घोर ग़रीबी और किसानों की बदहाली की पहली झलक मिली और जिसने इन महत्वपूर्ण समस्याओं को दूर करने की उनकी मूल योजनाओं को प्रभावित किया. हालांकि उनका कुछ-कुछ झुकाव समाजवाद की ओर था, लेकिन उनका सुधारवाद किसी निश्चित ढांचे में ढला हुआ नहीं था. 1926-27 में उनकी यूरोप और सोवियत संघ की यात्रा ने उनके आर्थिक और राजनीतिक चिंतन को पूरी तरह प्रभावित कर दिया.
वह महात्मा गांधी के कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़े, चाहे असहयोग आंदोलन की बात हो या फिर नमक सत्याग्रह या फिर 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन की बात हो. उन्होंने गांधी जी के हर आंदोलन में बढ़-चढ़कर शिरकत की. नेहरू की विश्व के बारे में जानकारी से गांधी जी काफ़ी प्रभावित थे और इसलिए आज़ादी के बाद वह उन्हें प्रधानमंत्री पद पर देखना चाहते थे. 1920 में उन्होंने उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ ज़िले में पहले किसान मार्च का आयोजन किया. वह 1923 में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के महासचिव चुने गए. गांधी जी ने यह सोचकर उन्हें यह पद सौंपा कि अतिवादी वामपंथी धारा की ओर आकर्षित हो रहे युवाओं को नेहरू कांग्रेस आंदोलन की मुख्यधारा में शामिल कर सकेंगे.

1931 में पिता की मौत के बाद जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस की केंद्रीय परिषद में शामिल हो गए और महात्मा के अंतरंग बन गए. हालांकि 1942 तक गांधी जी ने आधिकारिक रूप से उन्हें अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया था, लेकिन 1930 के दशक के मध्य में ही देश को गांधी जी के स्वाभाविक उत्तराधिकारी के रूप में नेहरू दिखाई देने लगे थे. मार्च 1931 में महात्मा और ब्रिटिश वाइसरॉय लॉर्ड इरविन (बाद में लॉर्ड हैलिफ़ैक्स) के बीच हुए गांधी-इरविन समझौते से भारत के दो प्रमुख नेताओं के बीच समझौते का आभास मिलने लगा. इसने एक साल पहले शुरू किए गए गांधी जी के प्रभावशाली सविनय अवज्ञा आंदोलन को तेज़ी प्रदान की, जिसके दौरान नेहरू को गिरफ़्तार किया गया. दूसरे गोलमेज सम्मेलन के बाद लंदन से स्वदेश लौटने के कुछ ही वक़्त बाद जनवरी 1932 में गांधी को जेल भेज दिया. उन पर फिर से सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने की कोशिश का आरोप लगाया गया. नेहरू को भी गितफ़्तार करके दो साल की क़ैद की सज़ा दी गई.

भारत में स्वशासन की स्थापना की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए लंदन में हुए गोलमेज़ सम्मेलनों की परिणति आख़िरकार 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट के रूप में हुई, जिसके तहत भारतीय प्रांतों के लोकप्रिय स्वशासी सरकार की प्रणाली प्रदान की गई. इससे एक संघीय प्रणाली का जन्म हुआ, जिसमें स्वायत्तशासी प्रांत और रजवाड़े शामिल थे. संघ कभी अस्तित्व में नहीं आया, लेकिन प्रांतीय स्वशासन लागू हो गया.

1930 के दशक के मध्य में नेहरू यूरोप के घटनाक्रम के प्रति ज़्यादा चिंतित थे, जो एक अन्य विश्व युद्ध की ओर बढ़ता प्रतीत हो रहा था. 1936 के शुरू में वह अपनी बीमार पत्नी के इलाज के लिए यूरोप में थे. इसके कुछ ही वक़्त  बाद स्विट्ज़रलैंड के एक सेनीटोरियम में उनकी पत्नी की मौत हो गई. उस वक़्त भी उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि युद्ध की स्थिति में भारत का स्थान लोकतांत्रिक देशों के साथ होगा. हालांकि वह इस बात पर भी ज़ोर देते थे कि भारत एक स्वतंत्र देशों के रूप में ही ग्रेट ब्रिटेन और फ़्रांस के समर्थन में युद्ध कर सकता है.
सितंबर 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ने के बाद जब वाइसरॉय लॉर्ड लिनलिथगो ने स्वायत्तशासी प्रांतीय मंत्रिमंडलों से मशविरा किए बगैर भारत को युद्ध में झोंक दिया, तो इसके ख़िलाफ़ कांग्रेस पार्टी के आलाकमान ने अपने प्रांतीय मंत्रिमंडल वापस ले लिए. कांग्रेस की इस कार्रवाई से राजनीति का अखाड़ा जिन्ना और मुस्लिम लीग के लिए साफ़ हो गया.

अक्तूबर 1940 में महात्मा गांधी जी ने अपने मूल विचार से हटकर एक सीमित नागरिक अवज्ञा आंदोलन शुरू करने का फ़ैसला किया, जिसमें भारत की आज़ादी के अग्रणी पक्षधरों को क्रमानुसार हिस्सा लेने के लिए चुना गया था. नेहरू को गिरफ़्तार करके चार साल की क़ैद की सज़ा दी गई. एक साल से कुछ ज़्यादा वक़्त तक ज़ेल में रहने के बाद उन्हें अन्य कांग्रेसी क़ैदियों के साथ रिहा कर दिया गया. इसके तीन दिन बाद हवाई में पर्ल हारबर पर बमबारी हुई. 1942 में जब जापान ने बर्मा के रास्ते भारत की सीमाओं पर हमला किया  तो इस नए सैनिक ख़तरे के मद्देनज़र ब्रिटिश सरकार ने भारत की तरफ़ हाथ बढ़ाने का फ़ैसला किया. प्रधानमंत्री विन्स्टन चर्चिल ने सर स्टेफ़ोर्ड क्रिप्स को संवैधानिक समस्याओं को सुलझाने के प्रस्तावों के साथ भेजा. सर स्टेफ़ोर्ड क्रिप्स  युद्ध मंत्रिमंडल के सदस्य और राजनीतिक रूप से नेहरू के नज़दीकी और मोहम्मद अली जिन्ना के परिचित थे. क्रिप्स की यह मुहिम नाकाम रही, क्योंकि गांधी जी आज़ादी से कम कुछ भी मंज़ूर करने के पक्ष में नहीं थे.

कांग्रेस में अब नेतृव्य गांधी जी के हाथों में था, जिन्होंने अंग्रेज़ों को भारत छोड़ देने का आह्वान किया. 8 अगस्त 1942 को मुंबई में कांग्रेस द्वारा भारत छोड़ो  प्रस्ताव पारित करने के बाद गांधी जी और नेहरू समेत पूरी कांग्रेस कार्यकारिणी समिति को गिरफ़्तार करके जेल भेज दिया गया. नेहरू 15 जून 1945 को रिहा हुए. लंदन में युद्ध के दौरान सत्तारूढ़ चर्चिल प्रशासन का स्थान लेबर पार्टी की सरकार ने ले लिया था. उसने अपने पहले कार्य के रूप में भारत में एक कैबिनेट मिशन भेजा और बाद में लॉर्ड वेवेल की जगह लॉर्ड माउंटबेटन को तैनात कर दिया. अब सवाल भारत की आज़ादी का नहीं, बल्कि यह था कि इसमें एक ही आज़ाद राज्य होगा या एक से ज़्यादा होंगे. गांधी जी ने बटवारे को क़ुबूल करने से इंकार कर दिया, जबकि नेहरू ने मौक़े की नज़ाकत को देखते हुए  मौन सहमति दे दी. 15 अगस्त 1947 को भारत और पाकिस्तान दो अलग-अलग आज़ाद देश बने. नेहरू आज़ाद भारत के पहले प्रधानमंत्री बन गए.

फिर 1952 में आज़ाद भारत में चुनाव हुए. ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को आधार मान कर बनाए गए भारतीय संविधान के तहत हुआ यह पहला चुनाव था, जिसमें जनता ने मतदान के अधिकार का इस्तेमाल किया. इस चुनाव के वक़्त मतदाताओं की कुल संख्या 17 करोड़ 60 लाख थी, जिनमें से 15 फ़ीसदी साक्षर थे. इस चुनाव में कांग्रेस भारी बहुमत से सत्ता में आई और पंडित जवाहरलाल नेहरू देश के पहले प्रधानमंत्री बने. इससे पहले वह 1947 में आज़ादी मिलने के बाद से अंतरिम प्रधानमंत्री थे. संसद की 497 सीटों के साथ-साथ राज्यों की विधानसभाओं के लिए भी चुनाव हुए.  देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का पहला चुनाव प्रचार भी यादगार है. कहा जाता है कि कांग्रेस का चुनाव प्रचार केवल नेहरू पर केंद्रित था. चुनाव प्रचार के लिए नेहरू ने सड़क, रेल, पानी और हवाई जहाज़ सभी का सहारा लिया. उन्होंने 25,000 मील का सफ़र किया यह सफ़र 18,000 मील हवाई जहाज़ से,  5200 मील कार से, 1600 मील ट्रेन से और 90 मील नाव से किया गया. ख़ास बात यह भी रही कि देशभर में 60  फ़ीसदी मतदान हुआ और पहले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को सबसे ज़्यादा 364 सीटें मिली थीं.

नेहरू के वक़्त एक और अहम फ़ैसला भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का था. इसके लिए राज्य पुनर्गठन क़ानून-1956 पास किया गया. आज़ादी के बाद भारत में राज्यों की सीमाओं में हुआ, यह सबसे बड़ा बदलाव था. इसके तहत 14 राज्यों और छह केंद्र शासित प्रदेशों की स्थापना हुई. इसी क़ानून के तहत केरल और बॉम्बे को राज्य का दर्जा मिला. संविधान में एक नया अनुच्छेद जोड़ा गया, जिसके तहत भाषाई अल्पसंख्यकों को उनकी मातृभाषा में शिक्षा हासिल करने का अधिकार मिला.

1929 में जब लाहौर अधिवेशन में गांधी ने नेहरू को अध्यक्ष पद के लिए चुना था,  तब से 35 बरसों तक 1964 में प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए मौत तक नेहरू अपने देशवासियों के आदर्श बने रहे. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नेहरू का सितारा अक्टूबर 1956 तक बुलंदी पर था, लेकिन 1956 में सोवियत संघ के ख़िलाफ़ हंगरी के विद्रोह के दौरान भारत के रवैये की वजह से उनकी गुटनिरपेक्ष नीति की जमकर आलोचना हुई. संयुक्त राष्ट्र में भारत अकेला ऐसा गुटनिरपेक्ष देश था, जिसने हंगरी पर हमले के मामले में सोवियत संघ के पक्ष में मत दिया. इसके बाद नेहरू को गुटनिरपेक्ष आंदोलन के आह्वान की विश्वनियता साबित करने में काफ़ी मुश्किल हुई. आज़ादी के बाद के शुरूआती बरसों में उपनिवेशवाद का विरोध उनकी विदेश-नीति का मूल आधार था, लेकिन 1961 के गुटनिरपेक्ष देशों के बेलग्रेड सम्मेलन तक नेहरू ने प्रति उपनिवेशवाद की जगह गुटनिरपेक्षता को सर्वोच्च प्राथमिकता देना शुरू कर दिया था. 1962 में लंबे वक़्त से चले आ रहे सीमा-विवाद की वजह से चीन ने ब्रह्मपुत्र नदी घाटी पर हमले की चेतावनी दी. नेहरू ने अपनी गुटनिरपेक्ष नीति को दरकिनार कर पश्चिमी देशों से मदद की मांग की. नतीजतन चीन को पीछे हटना पड़ा. कश्मीर नेहरू के प्रधानमंत्रीत्व काल में लगातार एक समस्या बना रहा, क्योंकि भारत के साथ-साथ पाकिस्तान भी इस पर अपना दावा कर रहा था. संघर्ष विराम रेखा को समायोजित करके इस विवाद को निपटाने की उनकी शुरुआती कोशिशें नाकाम रहीं और 1948 में पाकिस्तान ने कश्मीर पर क़ब्ज़े की कोशिश की. भारत में बचे आख़िरी उपनिवेश पुर्तग़ाली गोवा की समस्या को सुलझाने में नेहरू अधिक भाग्यशाली रहे. हालांकि दिसंबर 1961 में भारतीय सेनाओं द्वारा इस पर क़ब्ज़ा किए जाने से कई पश्चिमी देशों में नराज़गी पैदा हुई, लेकिन नेहरू की कार्रवाई सही थी. हिन्दी-चीनी भाई-भाई का नारा उस वक़्त बेमानी साबित हो गया, जब सीमा विवाद को लेकर 10 अक्तूबर 1962 को चीनी सेना ने लद्दाख़ और नेफ़ा में भारतीय चौकियों पर क़ब्ज़ा कर लिया. नवंबर में एक बार फिर चीन की ओर से हमले हुए. चीन ने एकतरफ़ा युद्धविराम का ऐलान कर दिया, तब तक 1300 से ज़्यादा भारतीय सैनिक शहीद हो चुके थे. पंडित नेहरू के लिए यह सबसे बुरा दौर साबित हुआ. उनकी सरकार के ख़िलाफ़ संसद में पहली बार अविश्वास प्रस्ताव पेश किया गया. चीन के साथ हुई जंग के कुछ वक़्त बाद नेहरू की सेहत ख़राब रहने लगी. उन्हें 1963 में दिल का हल्का दौरा पड़ा, फिर जनवरी 1964 में उन्हें दौरा पड़ा. कुछ ही महीनों बाद तीसरे दौरे में 27 मई 1964 में उनकी मौत हो गई.

जवाहरलाल नेहरू ने देश के विकास के लिए कई महत्वपूर्ण काम किए. उन्होंने औद्योगीकरण को महत्व देते हुए भारी उद्योगों की स्थापना को प्रोत्साहन दिया. उन्होंने विज्ञान के विकास के लिए 1947  में भारतीय विज्ञान कांग्रेस की स्थापना की. देश  के विभिन्न भागों में स्थापित वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद के अनेक केंद्र इस क्षेत्र में उनकी दूरदर्शिता के प्रतीक हैं. खेलों में भी नेहरू की रुचि थी. उन्होंने खेलों को शारीरिक और मानसिक विकास के लिए ज़रूरी बताया. उन्होंने 1951 दिल्ली में प्रथम एशियाई खेलों का आयोजन करवाया.

पंडित जवाहरलाल नेहरू एक महान राजनीतिज्ञ ही नहीं, बल्कि विख्यात लेखक भी थे. उनकी आत्मकथा 1936  में प्रकाशित हुई और दुनियाभर में सराही गई. उनकी अन्य रचनाओं में भारत और विश्व, सोवियत रूस, विश्व इतिहास की एक झलक, भारत की एकता और स्वतंत्रता और उसके बाद आदि शामिल हैं. वह भारतीय भाषाओं को काफ़ी महत्व देते थे. वह चाहते थे कि हिन्दुस्तानी जब कहीं भी एक-दूसरे से मिले तो अपनी ही भाषा में बातचीत करें. उन्होंने कहा था-मेरे विचार में हम भारतवासियों के लिए एक विदेशी भाषा को अपनी सरकारी भाषा के रूप में स्वीकारना सरासर अशोभनीय होगा. मैं आपको कह सकता हूं कि बहुत बार जब हम लोग विदेशों में जाते हैं, और हमें अपने ही देशवासियों से अंग्रेज़ी में बातचीत करनी पड़ती है  तो मुझे कितना बुरा लगता है. लोगों को बहुत ताज्जुब होता है, और वे हमसे पूछते हैं कि हमारी कोई भाषा नहीं है? हमें विदेशी भाषा में क्यों बोलना पड़ता हैं?

पंडित जवाहरलाल नेहरू अपने विचारों और अपने उल्लेखनीय कार्यों की वजह से ही महान बने. विभिन्न मुद्दों पर नेहरू के विचार उन्हीं के शब्दों में- भारत की सेवा का अर्थ करोड़ों पीड़ितों की सेवा है. इसका अर्थ दरिद्रता और अज्ञान और अवसर की विषमता का अंत करना है. हमारी पीढ़ी के सबसे बड़े आदमी की यह आकांक्षा रही है कि हर आंख के हर आंसू को पोंछ दिया जाए. ऐसा करना हमारी शक्ति से बाहर हो सकता है, लेकिन जब तक आंसू हैं और पीड़ा है, तब तक हमारा काम पूरा नहीं होगा.

नेहरू जी ने कहा था- अंतर्राष्ट्रीय दृष्टि से आज का बड़ा सवाल विश्व शांति का है. आज हमारे लिए यही विकल्प है कि हम दुनिया को उसके अपने रूप में ही स्वीकार करें. हम देश को इस बात की स्वतंत्रता देते रहें कि वह अपने ढंग से अपना विकास करे और दूसरों से सीखे, लेकिन दूसरे उस पर अपनी कोई चीज़ नहीं थोपें. निश्चय ही इसके लिए एक नई मानसिक विधा चाहिए. पंचशील या पांच सिद्धांत यही विधा बताते हैं.

नेहरू जी ने कहा था- आप में जितना अधिक अनुशासन होगा, आप में उतनी ही आगे बढ़ने की शक्ति होगी. कोई भी देश, जिसमें न तो थोपा गया अनुशासन है, और न आत्मा-अनुशासन-बहुत वक़्त तक नहीं टिक सकता.
बेशक, नेहरू के विचार आज भी बेहद प्रासंगिक हैं. बस ज़रूरत है उनको अपनाने की. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

प्रियदर्शी दत्ता
करीब 100 साल पहले जून 1916 में गुजरात के अहमदाबाद क्लब में पहली बार आए एक बेहद स्टाइलिश मेहमान के काठीवारी ड्रेस को लेकर गुजरात के ही एक बैरिस्टर ने मज़ाक उड़ाया. नए आए मेहमान ने क्लब के लॉन में मौज़ूद थोड़े-बहुत लोगों को संबोधित किया, लेकिन बैरिस्टर अपने दोस्तों के साथ पत्ते खेलते रहे. बैरिस्टर को पता था कि संबोधित कर रहा शख्स कोई और नहीं बल्कि मोहनदास करमचंद गांधी हैं, जो कि हाल ही में दक्षिण अफ्रीका से स्वदेश लौटकर अहमदाबाद में ही सत्याग्रह आश्रम की नींव रख चुके हैं. एक बेहद सफल वकील बन चुके बैरिस्टर को गांधी के कार्यों से कोई मतलब नहीं था. लेकिन गांधी जब अहमदाबाद पहुंचे तो बैरिस्टर से बातचीत के लिए जोर दिया. बैरिस्टर ने भी बिना मन से ही सही, गांधी से मिलने का फैसला कर लिया.

दोनों मिले तो उम्मीद थी की राजनीति पर गरम बहस होगी, लेकिन यहां तो धर्म-कर्म पर काफी देर तक चर्चा होती रही. पर 41 साल के बेहद सख़्त मिज़ाज के बैरिस्टर में उस मुलाकात के बाद कुछ बेहद स्थायी बदलाव आए. गांधी के शब्द उनके कानों में तब तक गुंजते रहे, जब तक वो सत्याग्रह आंदोलन में खुद शामिल नहीं हो गए. हालांकि बेहद व्यावहारिक इंसान होने की वजह से वो अपने झुकाव के बावजूद खुलकर आंदोलन में 1917 में जाकर शामिल हुए. उसी साल चंपारण आंदोलन के बाद गांधी देश के राजनीतिक मसीहा बन चुके थे. बैरिस्टर उसके बाद गांधी के विश्वासपात्र बन गए और आगे चलकर धीरे-धीरे गांधी के दायां हाथ हो गए. जो भी गांधी सोचते या रणनीति बनाते, बैरिस्टर उसको हुबहू पूरा करते. बैरिस्टर ने अपना यूरोपीय सूट-बूट जलाकर खादी का धोती-कुर्ता पहनने लगे. उस बैरिस्टर का नाम था सरदार बल्लभभाई झावेरीभाई पटेल (1875-1950), भारत के लौहपुरुष.

सरदार पटेल का जन्म 31 अक्टूबर 1875 को सूरत से करीब 200 किलोमीटर दूर नाडियाड (जिला खेड़ा, गुजरात) में हुआ था. वे लेवा पटेल समुदाय से थे. माना जाता है कि उनके पूर्वज लड़ाके थे, लेकिन फिलहाल ये समुदाय के कार्य में लगे थे. इस समुदाय की शौर्यता और कठिन परिश्रम का इतिहास रहा है. किसान परिवार के पटेल का बचपन भी खेतीबाड़ी के माहौल में बीता. कानूनी और राजनीतिक क्षेत्र में शीर्ष मुकाम तक पहुंचने के बावजूद वे खुद को हमेशा  किसान/खेतिहर बताते. पटेल के परिवार में उनके तीन भाई और एक बहन थी. जिनमें से एक भाई विट्ठलभाई जावेरीभाई पटेल (1873-1933), लॉ बार, सेंट्रल लेजिस्लेटिव एसेंबली के पहले भारतीय प्रेसिडेंट (स्पीकर) बने.
अहमदाबाद नगर निगम का चुनाव जीतने (1917-1928) के बाद से ही सरदार पटेल में एक कुशल राजनेता की छवि नजर आने लगी. वे अपनी प्रतिभा से ना सिर्फ ब्रिटिश नौकरशाही को धराशाई कर रहे थे, बल्कि उन्हों ने शहर के आम नागरिकों की जरूरतों के हिसाब से कई रचनात्मक कार्यों की भी पहल की. निगम के प्रेसिडेंट रहते हुए (1924-1928) एकबार 'स्वच्छ भारत' का भी एक अनोखा उदाहरण पेश किया था. स्वयंसेवकों के साथ मिलकर पटेल ने अहमदाबाद की गलियों में झाड़ू लगाए और कूड़ा फैंका, जिसकी शुरुआत वहां की हरिजन बस्ती से हुई. 1917 में जब अहमदाबाद में प्लेग फैला तो स्वयंसेवकों के साथ पटेल 24 घंटे लगे रहे. पीड़ितों के घर जाकर उनसे और उनके परिजनों से बात करते. लोकमान्य तिलक ने जैसे 1896 में प्लेग के दौरान किया था वैसे ही पटेल संक्रमण का खतरा उठाते हुए कार्य करते रहे.

 लगातार कार्य की वजह से पटेल के स्वास्थ्य पर बेहद बुरा असर पड़ा. लेकिन इस दौरान आम जनता के नेता की उनकी छवि और मजबूत हो गई. लगभग उसी दौरान खेड़ा सत्याग्रह (1918) से पटेल की नेतृत्व क्षमता और मजबूत हुई और ये सत्याग्रह आगे जाकर बारदोली सत्याग्रह (1928) में बदल गया. हालांकि खेड़ा (गुजरात) आंदोलन में कर रियायत की जो मांगे थी वो पूरी तो नहीं हुई लेकिन इसके दो बेहद अहम प्रभाव पड़े. पहला, जमीन का कर तय करने में किसानों को भी एक पक्ष के रूप में स्वीकारा गया और इस विषय पर गांधी और पटेल एकसाथ आए.

 एक दशक बाद गुजरात 23 जुलाई 1927 को मुसलाधार बारिश की वजह से भयंकर बाढ़ से जूझने लगा. पटेल ने बाढ़ पीड़ितों को बचाने और उनके पुनर्वास के लिए जोरदार अभियान चलाया, इसी अभियान से राष्ट्रीय स्तर पर उनकी एक मजबूत नेतृत्वकर्ता की पहचान बनी. बॉम्बे सरकार (गुजरात तब बॉम्बे प्रेसिडेंसी का हिस्सा था) ने अवॉर्ड के लिए उनके नाम का प्रस्ताव भेजा, लेकिन पटेल ने विनम्रता से उसे ठुकरा दिया.

 बारदोली (1928) में विशाल जीत के बावजूद ऐसी विनम्रता पटेल की पहचान थी. वे दिसंबर 1928 में कलकत्ता कांग्रेस के चुनाव में खड़ा नहीं होना चाहते थे. बार-बार आग्रह किए जाने के बाद वे गुजरात से आए लोगों के बीच खड़े हुए, लेकिन उसके बाद भी संबोधित करने मंच पर आने के लिए उन्हें धक्का देना पड़ा. बारदोली (जिला-सूरत) पटेल का कुरुक्षेत्र रहा है. उनके नेतृत्व में चलाया गया सफल कर विरोधी अभियान का नतीजा यह हुआ कि ब्रिटिश हुकूमत तीन महीने के भीतर फैसले को वापस लेने पर मजबूर हुई. सांगठनिक कुशलता के आधार पर इस आंदोलन की तुलना सिर्फ महाराष्ट्र में बाल गंगाधर तिलक के चलाए अकाल राहत आंदोलन (1896) से ही की जा सकती है. पटेल ने सैन्य तैयारी की तर्ज पर इस सत्याग्रह आंदोलन को खड़ा किया, लेकिन ये पूरी तरह से अहिंसक आंदोलन था.

 पटेल खुद आंदोलन के सेनापति थे, उनके बाद विभाग पति आते जो कि सैनिकों का कामकाज देखते थे. इस आंदोलन की रणभूमि में 92 गांवों के 87,000 किसान शामिल थे. घुड़सवार संदेशवाहकों, भजन गायकों और छपाखानों की मदद से उन्होंने एक वृहद सूचना तंत्र तैयार किया. बारदोली में उनकी सफलता ने पूरे ब्रिटेश साम्राज्या का ध्यान खींचा. लेकिन सबसे बड़ा सम्मान तो उन्हें बारदोल तालुका के नानीफलोद के एक किसान ने दिया. कुवेरजी दुर्लभ पटेल ने भरी सभा में कहा कि'पटेल आप हमारे सरदार हैं'. उसके बाद से सरदार की ये उपाधि पटेल को हमेशा के लिए मिल गई.

      पटेल का बेहद अनुशासित होकर कार्य करने का तरीका विलक्षण था. स्व-अनुशासन का मंत्र गांधी ने दिया था, लेकिन आंदोलन के लिए बेहद जरूरी सांगठनिक अनुशासन और एकजुटता को पटेल लेकर आए. पटेल का राजनीतिक सफर ठीक उसी समय शुरू हुआ, जब भारतीय राजनीति आंदोलन का रूप ले चुकी थी. 1930 में एशियाई राजनीति पर काफी सर्वे कर चुके अमेरिकी पत्रकार जॉन गुंथर ने पटेल को'पार्टी का सर्वोत्कृष्ट' नेता करार दिया था. उसके मुताबिक पटेल फैसले लेने वाले,व्यावहारिक और किसी भी मिशन को पूरा करने वाले शख्स थे.
 कई बार पटेल की सांगठनिक क्षमता को इम्तहान से गुजरना पड़ा. एक समय भारत पर विभाजन का खतरा मंडरा रहा था. करीब 565 रियासतें बंटवारे के समय भारत में शामिल होने को तैयार नहीं थी. त्रावणकोर जैसी कुछ रियासतें स्वतंत्र रहना चाहती थी जबकि भोपाल और हैदराबाद जैसी कुछ रियासतें पाकिस्तानी सीमा से दूर होने के बावजूद उसके साथ जाने के षड्यंत्र में शामिल थी. रणनीतिक कुशलता और दबाव का प्रयोग कर पटेल ने रियासतों को भारत के साथ लाने की लड़ाई आखिरकार जीत ली. हैदराबाद में जब बातचीत से मामला नहीं सुलक्षा और छोटे-छोटे गुटों में प्रदर्शनकारी आतंकी गतिविधियों में शामिल होने लगे तो सेना का भी इस्तेमाल करना पड़ा.
स्वतंत्र भारत के पहले गृहमंत्री के तौर पर पाकिस्तान से विस्थापित हुए हिंदू और सिख शरणार्थियों के पुनर्वास कार्य कराने के साथ ही देश में सिविल सेवा की शुरुआत का श्रेय भी उन्हीं को जाता है. आईसीएस फिलिप मैसन ने एक बार कहा था कि पटेल एक जन्मजात प्रशासक हैं और उन्हें कोई कार्य करने के लिए पुराने अनुभव की जरूरत नहीं है. गांधी जी के बेहद करीबी काका कालेलकर ने कहा था कि पटेल उसी प्रतिष्ठित जमात के हिस्सा हैं जिसके शिवाजी और तिलक हैं. हालांकि इसके बावजूद  गांधी के प्रति उनकी निष्ठा पर कभी कोई सवाल नहीं था.
 सरदार पटेल 1950 में 75 साल के हुए लेकिन तब तक ज्यादा तनाव की वजह से उनका शरीर जवाब देने लगा था. 15 दिसंबर 1950 को मुंबई में उनका निधन हो गया. मृत्यूशय्या पर भी उन्हें अपने परिवार व रिश्तेदारों की नहीं बल्कि देश की स्थिति की चिंता थी.

 हमारे लिए शर्मनाक है कि सरदार पटेल की विरासत की किसी ने परवाह नहीं है. वर्तमान सरकार ने पिछली सरकारों की गलतियों को सुधारते हुए और देश के निर्माण में पटेल के अहम योगदान पर रोशनी डालने का सराहनीय कार्य किया है.
 (लेखक दिल्ली में रहने वाले एक शोधकर्ता और समीक्षक हैं)


डॊ. सौरभ मालवीय
असतो मा सद्गमय।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मा अमृतं गमय।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
अर्थात्
असत्य से सत्य की ओर।
अंधकार से प्रकाश की ओर।
मृत्यु से अमरता की ओर।
ॐ शांति शांति शांति।।
अर्थात् इस प्रार्थना में अंधकार से प्रकाश की ओर जाने की कामना की गई है. दीपों का पावन पर्व दीपावली भी यही संदेश देता है. यह अंधकार पर प्रकाश की जीत का पर्व है. दीपावली का अर्थ है दीपों की श्रृंखला. दीपावली शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के दो शब्दों 'दीप' एवं 'आवली' अर्थात 'श्रृंखला' के मिश्रण से हुई है. दीपावली का पर्व कार्तिक अमावस्या को मनाया जाता है. वास्तव में दीपावली एक दिवसीय पर्व नहीं है, अपितु यह कई त्यौहारों का समूह है, जिनमें धन त्रयोदशी अर्थात धनतेरस, नरक चतुर्दशी, दीपावली, गोवर्धन पूजा और भैया दूज सम्मिलित हैं. दीपावली महोत्सव कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से शुक्ल पक्ष की दूज तक हर्षोल्लास से मनाया जाता है. धनतेरस के दिन बर्तन खरीदना शुभ माना जाता है. तुलसी या घर के द्वार पर दीप जलाया जाता है. नरक चतुर्दशी के दिन यम की पूजा के लिए दीप जलाए जाते हैं.  गोवर्धन पूजा के दिन लोग गाय-बैलों को सजाते हैं तथा गोबर का पर्वत बनाकर उसकी पूजा करते हैं. भैया दूज पर बहन अपने भाई के माथे पर तिलक लगाकर उसके लिए मंगल कामना करती है. इस दिन यमुना नदी में स्नान करने की भी परंपरा है.

प्राचीन हिंदू ग्रंथ रामायण के अनुसार दीपावली के दिन श्रीरामचंद्र अपने चौदह वर्ष के वनवास के पश्चात अयोध्या लौटे थे. अयोध्यावासियों ने श्रीराम के स्वागत में घी के दीप जलाए थे. प्राचीन हिन्दू महाकाव्य महाभारत के अनुसार दीपावली के दिन ही 12 वर्षों के वनवास एवं एक वर्ष के अज्ञातवास के बाद पांडवों की वापसी हुई थी. मान्यता यह भी है कि दीपावली का पर्व भगवान विष्णु की पत्नी देवी लक्ष्मी से संबंधित है. दीपावली का पांच दिवसीय महोत्सव देवताओं और राक्षसों द्वारा दूध के लौकिक सागर के मंथन से पैदा हुई लक्ष्मी के जन्म दिवस से प्रारंभ होता है. समुद्र मंथन से प्राप्त चौदह रत्नों में लक्ष्मी भी एक थीं, जिनका प्रादुर्भाव कार्तिक मास की अमावस्या को हुआ था. उस दिन से कार्तिक की अमावस्या लक्ष्मी-पूजन का त्यौहार बन गया. दीपावली की रात को लक्ष्मी ने अपने पति के रूप में विष्णु को चुना और फिर उनसे विवाह किया था. मान्यता है कि दीपावली के दिन विष्णु की बैकुंठ धाम में वापसी हुई थी.
कृष्ण भक्तों के अनुसार इस दिन भगवान श्रीकृष्ण ने अत्याचारी राजा नरकासुर का वध किया था. एक पौराणिक कथा के अनुसार भगवान विष्णु ने नरसिंह रूप धारणकर हिरण्यकश्यप का वध किया था. यह भी कहा जाता है कि इसी दिन समुद्र मंथन के पश्चात धन्वंतरि प्रकट हुए. मान्यता है कि इस दिन देवी लक्ष्मी प्रसन्न रहती हैं. जो लोग इस दिन देवी लक्ष्मी की पूजा करते हैं, उन पर देवी की विशेष कृपा होती है. लोग लक्ष्मी के साथ-साथ संकट विमोचक गणेश, विद्या की देवी सरस्वती और धन के देवता कुबेर की भी पूजा-अर्चना करते हैं.

अन्य हिन्दू त्यौहारों की भांति दीपावली भी देश के अन्य राज्यों में विभिन्न रूपों में मनाई जाती है. बंगाल और ओडिशा में दीपावली काली पूजा के रूप में मनाई जाती है. इस दिन यहां के हिन्दू देवी लक्ष्मी के स्थान पर काली की पूजा-अर्चना करते हैं. उत्तर प्रदेश के मथुरा और उत्तर मध्य क्षेत्रों में इसे भगवान श्री कृष्ण से जुड़ा पर्व माना जाता है. गोवर्धन पूजा या अन्नकूट पर श्रीकृष्ण के लिए 56 या 108 विभिन्न व्यंजनों का भोग लगाया जाता है.

दीपावली का ऐतिहासिक महत्व भी है. हिन्दू राजाओं की भांति मुगल सम्राट भी दीपावली का पर्व बड़ी धूमधाम से मनाया करते थे. सम्राट अकबर के शासनकाल में दीपावली के दिन दौलतखाने के सामने ऊंचे बांस पर एक बड़ा आकाशदीप लटकाया जाता था. बादशाह जहांगीर और मुगल वंश के अंतिम सम्राट बहादुर शाह जफर ने भी इस परंपरा को बनाए रखा. दीपावली के अवसर पर वे कई समारोह आयोजित किया करते थे. शाह आलम द्वितीय के समय में भी पूरे महल को दीपों से सुसज्जित किया जाता था. कई महापुरुषों से भी दीपावली का संबंध है. स्वामी रामतीर्थ का जन्म एवं महाप्रयाण दोनों दीपावली के दिन ही हुआ था. उन्होंने दीपावली के दिन गंगातट पर स्नान करते समय समाधि ले ली थी. आर्य समाज के संस्थापाक महर्षि दयानंद ने दीपावली के दिन अवसान लिया था.

जैन और सिख समुदाय के लोगों के लिए भी दीपावली महत्वपूर्ण है. जैन समाज के लोग दीपावली को महावीर स्वामी के निर्वाण दिवस के रूप में मनाते हैं. जैन मतावलंबियों के अनुसार चौबीसवें तीर्थकर महावीर स्वामी को इस दिन मोक्ष की प्राप्ति हुई थी.  इसी दिन संध्याकाल में उनके प्रथम शिष्य गौतम गणधर को केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई थी. जैन धर्म के मतानुसार लक्ष्मी का अर्थ है निर्वाण और सरस्वती का अर्थ है ज्ञान. इसलिए प्रातःकाल जैन मंदिरों में भगवान महावीर स्वामी का निर्वाण उत्सव मनाया जाता है और लड्डू का भोग लगाया जाता है. सिख समुदाय के लिए दीपावली का दिन इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसी दिन अमृतसर में वर्ष 1577 में स्वर्ण मंदिर का शिलान्यास हुआ था. वर्ष 1619 में दीपावली के दिन ही सिखों के छठे गुरु हरगोबिन्द सिंह जी को जेल से रिहा किया गया था.

दीपावली से पूर्व लोग अपने घरों, दुकानों आदि की सफाई करते हैं. घरों में मरम्मत, रंग-रोगन, सफ़ेदी आदि का कार्य कराते हैं. दीपावली पर लोग नये वस्त्र पहनते हैं. एक-दूसरे को मिष्ठान और उपहार देकर उनकी सुख-समृद्धि की कामना करते हैं. घरों में रंगोली बनाई जाती है, दीप जलाए जाते हैं. मोमबत्तियां जलाई जाती हैं. घरों व अन्य इमारतों को बिजली के रंग-बिरंगे बल्बों की झालरों से सजाया जाता है. रात में चहुंओर प्रकाश ही प्रकाश दिखाई देता है. आतिशबाज़ी भी की जाती है. अमावस की रात में आकाश में आतिशबाज़ी का प्रकाश बहुत ही मनोहारी दृश्य बनाता है.

दीपावली का धार्मिक ही नहीं, सांस्कृतिक और सामाजिक महत्व भी है. दीपावली पर खेतों में खड़ी खरीफ़ की फसल पकने लगती है, जिसे देखकर किसान फूला नहीं समाता. इस दिन व्यापारी अपना पुराना हिसाब-किताब निपटाकर नये बही-खाते तैयार करते हैं.

दीपावली बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है, लेकिन कुछ लोग इस दिन दुआ खेलते हैं और शराब पीते हैं. अत्यधिक आतिशबाज़ी के कारण ध्वनि और वायु प्रदूषण भी बढ़ता है. इसलिए इस बात की आवश्यकता है कि दीपों के इस पावन पर्व के संदेश को समझते हुए इसे पूरी श्रद्धा और आस्था के साथ मनाया जाए.

डॊ. सौरभ मालवीय
भारत एक विशाल देश है. इसकी भौगोलिक संरचना जितनी विशाल है, उतनी ही विशाल है इसकी संस्कृति. यह भारत की सांस्कृतिक विशेषता ही है कि कोई भी पर्व समस्त भारत में एक जैसी श्रद्धा और विश्वास के साथ मनाया जाता है, भले ही उसे मनाने की विधि भिन्न हो. ऐसा ही एक पावन पर्व है दशहरा, जिसे विजयदशमी के नाम से भी जाना जाता है. दशहरा भारत का एक महत्वपूर्ण त्यौहार है. विश्वभर में हिन्दू इसे हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं. यह अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को मनाया जाता है. इस दिन भगवान विष्णु के अवतार राम ने रावण का वध कर असत्य पर सत्य की विजय प्राप्त की थी. रावण भगवान राम की पत्नी सीता का अपहरण करके लंका ले गया था. भगवान राम देवी दुर्गा के भक्त थे, उन्होंने युद्ध के दौरान पहले नौ दिन तक मां दुर्गा की पूजा की और दसवें दिन रावण का वध कर अपनी पत्नी को मुक्त कराया. दशहरा वर्ष की तीन अत्यंत महत्वपूर्ण तिथियों में से एक है, जिनमें चैत्र शुक्ल की एवं कार्तिक शुक्ल की प्रतिपदा भी सम्मिलित है. यह शक्ति की पूजा का पर्व है. इस दिन देवी दुर्गा की भी पूजा-अर्चना की जाती है. इस दिन लोग नया कार्य प्रारंभ करना अति शुभ माना जाता है. दशहरे के दिन नीलकंठ के दर्शन को बहुत ही शुभ माना जाता है. नवरात्रि में स्वर्ण और आभूषणों की खरीद को शुभ माना जाता है.

दशहरा नवरात्रि के बाद दसवें दिन मनाया जाता है. देशभर में दशहरे का उत्सव बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है. जगह-जगह मेले लगते हैं. दशहरे से पूर्व रामलीला का आयोजन किया जाता. इस दौरान नवरात्रि भी होती हैं. कहीं-कहीं रामलीला का मंचन होता है, तो कहीं जागरण होते हैं. दशहरे के दिन रावण के पुतले का दहन किया जाता है. इस दिन रावण, उसके भाई कुम्भकर्ण और पुत्र मेघनाद के पुतले जलाए जाते हैं. कलाकार राम, सीता और लक्ष्मण के रूप धारण करते हैं और अग्नि बाण इन पुतलों को मारते हैं. पुतलों में पटाखे भरे होते हैं, जिससे वे आग लगते ही जलने लगते हैं.

समस्त भारत के विभिन्न प्रदेशों में दशहरे का यह पर्व विभिन्न प्रकार से मनाया जाता है. कश्मीर में नवरात्रि के नौ दिन माता रानी को समर्पित रहते हैं. इस दौरान लोग उपवास रखते हैं. एक परंपरा के अनुसार नौ दिनों तक लोग माता खीर भवानी के दर्शन करने के लिए जाते हैं. यह मंदिर एक झील के बीचोबीच स्थित है.  हिमाचल प्रदेश के कुल्लू का दशहरा बहुत प्रसिद्ध है. रंग-बिरंगे वस्त्रों से सुसज्जित पहाड़ी लोग अपनी परंपरा के अनुसार अपने ग्रामीण देवता की शोभायात्रा निकालते हैं. इस दौरान वे तुरही, बिगुल, ढोल, नगाड़े आदि वाद्य बजाते हैं तथा नाचते-गाते चलते हैं. शोभायात्रा नगर के विभिन्न भागों में होती हुई मुख्य स्थान तक पहुंचती है. फिर ग्रामीण देवता रघुनाथजी की पूजा-अर्चना से दशहरे के उत्सव का शुभारंभ होता है. हिमाचल प्रदेश के साथ लगते पंजाब तथा हरियाणा में दशहरे पर नवरात्रि की धूम रहती है. लोग उपवास रखते हैं. रात में जागरण होता है. यहां भी रावण-दहन होता है और मेले लगते हैं. उत्तर प्रदेश में भी दशहरा श्रद्धा और उल्लास के साथ मनाया जाता है. यहां रात में रामलीला का मंचन होता है और दशहरे के दिन रावण दहन किया जाता है.

बंगाल, ओडिशा एवं असम में दशहरा दुर्गा पूजा के रूप में मनाया जाता है.  बंगाल में पांच दिवसीय उत्सव मनाया जाता है. ओडिशा और असम में यह पर्व चार दिन तक चलता है. यहां भव्य पंडाल तैयार किए जाते हैं तथा उनमें देवी दुर्गा की मूर्तियां स्थापित की जाती हैं. देवी दुर्गा की पूजा-अर्चना की जाती है. दशमी के दिन विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है. महिलाएं देवी के माथे पर सिंदूर चढ़ाती हैं. इसके पश्चात देवी की प्रतिमाओं का विसर्जन किया जाता है. विसर्जन यात्रा में असंख्य लोग सम्मिलित होते हैं.

गुजरात में भी दशहरे के उत्सव के दौरान नवरात्रि की धूम रहती है. कुंआरी लड़कियां सिर पर मिट्टी के रंगीन घड़े रखकर नृत्य करती हैं, जिसे गरबा कहा जाता है. पूजा-अर्चना और आरती के बाद डांडिया रास का आयोजन किया जाता है. महाराष्ट्र में भी नवरात्रि में नौ दिन मां दुर्गा की उपासना की जाती है तथा दसवें दिन विद्या की देवी सरस्वती की स्तुति की जाती है. इस दिन बच्चे आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए मां सरस्वती की पूजा करते हैं.

तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश एवं कर्नाटक में दशहरे के उत्सव के दौरान लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा की पूजा की जाती है. पहले तीन दिन धन और समृद्धि की देवी लक्ष्मी का पूजन होता है. दूसरे दिन कला एवं विद्या की देवी सरस्वती-की अर्चना की जाती है तथा और अंतिम दिन शक्ति की देवी दुर्गा की उपासना की जाती है. कर्नाटक के मैसूर का दशहरा बहुत प्रसिद्ध है. मैसूर में दशहरे के समय पूरे शहर की गलियों को प्रकाश से ससज्जित किया जाता है और हाथियों का शृंगार कर पूरे शहर में एक भव्य शोभायात्रा निकाली जाती है. इन द्रविड़ प्रदेशों में रावण का दहन का नहीं किया जाता.

छत्तीसगढ़ के बस्तर में भी दशहरा का बहुत ही अलग तरीके से मनाया जाता है. यहां इस दिन देवी दंतेश्वरी की आराधना की जाती है. दंतेश्वरी माता बस्तर अंचल के निवासियों की आराध्य देवी हैं, जो दुर्गा का ही रूप हैं. यहां यह त्यौहार 75 दिन यानी श्रावण मास की अमावस से आश्विन मास की शुक्ल त्रयोदशी तक चलता है. प्रथम दिन जिसे काछिन गादि कहते हैं, देवी से समारोह आरंभ करने की अनुमति ली जाती है. देवी कांटों की सेज पर विरजमान होती हैं, जिसे काछिन गादि कहा जाता है. यह कन्या एक अनुसूचित जाति की है, जिससे बस्तर के राजपरिवार के व्यक्ति अनुमति लेते हैं. बताया जाता है कि यह समारोह लगभग पंद्रहवीं शताब्दी में आरंभ हुआ था. काछिन गादि के बाद जोगी-बिठाई होती है, तदुपरांत भीतर रैनी (विजयदशमी) और बाहर रैनी (रथ-यात्रा) निकाली जाती है. अंत में मुरिया दरबार का आयोजन किया जाता है.इसका समापन अश्विन शुक्ल त्रयोदशी को ओहाड़ी पर्व से होता है.

दशहरे के दिन वनस्पतियों का पूजन भी किया जाता है. रावण दहन के पश्चात शमी नामक वृक्ष की पत्तियों को स्वर्ण पत्तियों के रूप में एक-दूसरे को ससम्मान प्रदान कर सुख-समृद्धि की कामना की जाती है.
इसके साथ ही अपराजिता (विष्णु-क्रांता) के पुष्प भगवान राम के चरणों में अर्पित किए जाते हैं. नीले रंग के पुष्प वाला यह पौधा भगवान विष्णु को प्रिय है.

दशहरे का केवल धार्मिक महत्व ही नहीं है, अपितु यह हमारी सांस्कृतिक एकता का भी प्रतीक है.

लेखक का परिचय
उत्तरप्रदेश के देवरिया जनपद के पटनेजी गांव में जन्मे डाॅ.सौरभ मालवीय बचपन से ही सामाजिक परिवर्तन और राष्ट्र-निर्माण की तीव्र आकांक्षा के चलते सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए है. जगतगुरु शंकराचार्य एवं डाॅ. हेडगेवार की सांस्कृतिक चेतना और आचार्य चाणक्य की राजनीतिक दृष्टि से प्रभावित डाॅ. मालवीय का सुस्पष्ट वैचारिक धरातल है. ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और मीडिया’ विषय पर आपने शोध किया है. आप का देश भर की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं एवं अंतर्जाल पर समसामयिक मुद्दों पर निरंतर लेखन जारी है. उत्कृष्ट कार्याें के लिए उन्हें अनेक पुरस्कारों से सम्मानित भी किया जा चुका है, जिनमें मोतीबीए नया मीडिया सम्मान, विष्णु प्रभाकर पत्रकारिता सम्मान और प्रवक्ता डाॅट काॅम सम्मान आदि सम्मिलित हैं.
संप्रति-
डॉ. सौरभ मालवीय
सहायक प्राध्यापक
माखनलाल चतुर्वेदी
राष्‍ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल (मध्य प्रदेश)
मोबाइल : +919907890614
ईमेल : [email protected]
वेबसाइट-www.sourabhmalviya.com


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