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खेतों के वैज्ञानिकों ने अपने खेतों में किए नवाचार-अनुसंधान, उनकी इन उपलब्धियों पर हुआ राष्ट्रीय मंथन
राजस्थान राज्य में अपनी किस्म के पहले और देश के ख्यातिप्राप्त किसान वैज्ञानिकों के साथ राज्य के कृषक-पशुपालकों और वैज्ञानिकों का दो दिवसीय राष्ट्रीय मंथन बीकानेर के राजस्थान पशु चिकित्सा एवं पशु विज्ञान विश्वविद्यालय (राजुवास) में 9-10 मार्च को सम्पन्न हुआ. कार्यक्रम के मुख्य अतिथि पर्यावरणविद पद्मश्री अनिल प्रकाश जोशी (उत्तराखंड) थे जबकि विशिष्ठ अतिथि पूर्व सिंचाई मंत्री देवीसिंह भाटी थे. इसके अलावा राजुवास कुलपति डॉ (कर्नल) अजयकुमार गहलोत, वरिष्ठ पत्रकार श्याम आचार्य, अमर उजाला समूह के सलाहकार यशवंत व्यास, स्वामी केशवानंद कृषि विवि के कुलपति प्रो. डॉ बीआर छीपा, महाराजा गंगासिंह विवि के कुलपति प्रो. भागीरथ सिंह, राजुवास के वित्त नियंत्रक अरविन्द बिश्नोई, आयोजन सचिव और प्रसार शिक्षा निदेशक प्रो. राजेश कुमार धूड़िया आदि मंच पर मौजूद थे.

अतिथियों द्वारा दीप प्रज्वलन के साथ ही कार्यक्रम का आगाज हुआ. कार्यक्रम में खेती में नवाचार करने वाले देश के विभिन्न राज्यों से आए 25 किसान वैज्ञानिकों के साथ राज्य के 150 प्रगतिशील किसान और कृषि और पशुचिकित्सा वैज्ञानिकों ने सहभागिता की.  उद्घाटन सत्र में अतिथियों ने आयोजन को राजुवास की एक ऐतिहासिक पहल बताते हुए कृषि में पारंपरिक ज्ञान और विज्ञान का एक अद्भुत सम्मेलन बताया. देश के किसान वैज्ञानिकों ने न्यूनतम शैक्षणिक स्तर के बावजूद खेतों में अपनी जरूरतों और प्रयोगों के आधार पर खेती-बाड़ी में नवाचार और मशीनरी को अनुकूल बनाकर उल्लेखनीय कार्य किए हैं, जिसे व्यावसयिक तौर पर अपनाकर आम लोगों तक पहुँचाने की जरूरत बताई गई, इसके लिये ‛दक्ष किसान संगठन’ बनाए जाने को लेकर सहमति बनी. समारोह के उद्घाटन सत्र में पूर्व सिंचाई मंत्री  देवीसिंह भाटी ने कहा कि समाज में हर जाति और कौम के लोगों में कौशल विकास में दक्षता रही है, लेकिन सहायता कार्यक्रमों पर निर्भरता बढ़ने के कारण समाज हाशिए पर आ गया है. कृषक वैज्ञानिकों ने अपनी प्रतिभा से कृषि और पशुपालन में उपयोगी नवाचार व अनुसंधान कर समाज को दिए हैं, ऐसे नवाचारों के समुचित प्रचार-प्रसार की जरूरत है. गांवों के विकास के लिए हमारे यहां प्रचलित शून्य आधारित अर्थ व्यवस्था भी कारगर रही है.

पर्यावरणविद् पद्मश्री अनिल प्रकाश जोशी ने  देश में कृषकों की दशा पर चिंता जताते हुए कहा कि देश में आर्थिकी का पहला व्यक्ति किसान है. प्राथमिक उत्पाद गांव से हैं अतः देश की तमाम प्रकार की जरूरतों और सुदृढ़ आर्थिक आधार के लिए इनका मजबूत होना जरूरी है. उन्होंने राष्ट्रीय मंथन में 25 कृषक वैज्ञानिकों के सम्मान को एक नई पहल बताया. उन्होंने दक्ष संगठन बनाने का प्रस्ताव किया, जिस पर राजुवास के कुलपति प्रो. गहलोत ने सहमति जताई. यह संगठन ऐसे नवाचार और अनुसंधानों को पूरे देश में व्यावसायिक रूप देने का कार्य करेगा. राजुवास और कृषि विश्वविद्यालय जैविक उत्पादों के पेटेन्ट और प्रसार का कार्य करेंगे. वेटरनरी विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. ए.के. गहलोत ने स्वागत भाषण में कृषक वैज्ञानिकों के नवाचार और कार्यों को एक अविस्मरणीय कार्यक्रम बताया. उन्होंने कहा कि इन किसानों ने बिना किसी औपचारिक शिक्षा के अपनी मेहनत और लगन से कृषि में उल्लेखनीय योगदान देकर पूरे देश में सम्मान और पुरस्कार जीतने में अग्रणी भूमिका निभाई है. उन्होेंने बताया कि राजुवास भी जमीन से जुडे़ अनुसंधान पर कार्य करते हुए राज्य के देशी गौवंश सहित पारंपरिक पशुपालन से अतंरिक्ष आधारित प्रौद्योगिकी का पशुपालन में उपयोग कर रहा है.
नई दिल्ली से आये वरिष्ठ पत्रकार यशवंत व्यास ने बताया कि कृषक वैज्ञानिकों के कार्यों को देश और दुनिया में वेबसाईट पर पोर्टल बनाकर प्रसारित किया जायेगा. इसके अलावा इनके नवाचार और अनुसंधान पर 10 लोगों का क्रू बनाकर विशेष वृत चित्र भी बनाये जायेंगे. विश्लेषक-स्तंभ लेखक व पत्रकार श्याम आचार्य ने कहा कि पारिस्थितिकी संतुलन के लिये जीव-जंतु और वनस्पति में संतुलन जरूरी है. नई पीढी़ को भी इसमें जोड़ना होगा. उन्होंने राजुवास द्वारा पशुपालन के क्षेत्र में किये जा रहे कार्यों को महत्वपूर्ण बताते हुए निजी-सार्वजनिक सहभागिता पर जोर दिया.

स्वामी केशवानंद कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बी.आर. छीपा ने कहा कि खेती-बाड़ी के क्षेत्र में आशातीत प्रगति हुई है. उन्होंने कृषकों को मृदा स्वास्थ्य के प्रति सतर्कता बरतते हुए शून्य आधारित खेती को अपनाने की सलाह दी. महाराजा गंगासिंह विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. भागीरथ सिंह ने कहा कृषि में नवाचार, अनुसंधान और नवीन तकनीक जलवायु के अनुकूल होनी जरूरी है, जिससे इसे लाभदायक बनाये रखा जा सके. किसान आयोग के उपसचिव योगेश वर्मा ने कहा कि राज्य में कृषकों के द्वारा स्थापित नये आयामों और कार्य को आगे बढ़ाया जाएगा. राजस्थान सरकार द्वारा कृषि में नवाचारों को समुचित प्रोत्साहन हेतु राज्य किसान आयोग का गठन किया जाएगा. राष्ट्रीय मंथन कार्यक्रम के सूत्रधार और ‛खेतों के वैज्ञानिक’ पुस्तक के लेखक डॉ. महेन्द्र मधुप ने कहा कि भारत का किसान वैज्ञानिक दुनिया में किसी से कम नहीं है. अपनी पहली पुस्तक में उन्होंने नवाचार करके धूम मचाने वाले 24 किसान वैज्ञानिकों के कार्यों को प्रस्तुत किया है. ये सभी किसान बिना किसी बाहरी सहायता के खेती से अधिकतम लाभ ले रहे हैं. राजुवास के वित्त नियंत्रक अरविन्द बिश्नोई ने भी कार्यक्रम में अपने विचार व्यक्त किये.

आयोजन सचिव और प्रसार शिक्षा निदेशक प्रो. आर.के. धूड़िया ने बताया कि राज्य के 15 जिलों के 150 से भी अधिक प्रगतिशील कृषक और पशुपालक भी इस आयोजन में सहभागी रहे हैं. उन्होंने सभी का आभार जताया. अतिथियों ने डॉ. महेन्द्र मधुप द्वारा लिखित ‛खेतों के वैज्ञानिक’ पुस्तक और प्रसार शिक्षा निदेशालय की मासिक पत्रिका ‛पशुपालन नये आयाम’ के नवीन अंक का विमोचन किया. समारोह में अतिथियों ने 25 कृषक वैज्ञानिकों को शॉल, श्रीफल और स्मृतिचिन्ह प्रदान कर सम्मानित किया. कार्यक्रम का संचालन डॉ. अशोक गौड़ और डॉ. प्रतिष्ठा शर्मा ने किया. समारोह में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के संस्थानों, कृषि, वेटरनरी विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक और संभ्रान्त के नागरिकों ने भाग लिया.
ये हैं खेतों के वैज्ञानिक
1. ईश्वरसिंह कुण्डू
गांव कैलरम, जिला-कैथल, हरियाणा. जैविक खेती में शोध के लिए प्रतिष्ठित. 2013 में महिन्द्रा एण्ड महिन्द्रा द्वारा 44 लाख रूपये की सहायता अनुदान से सम्मानित विश्व के पहले किसान. ‛कमाल-505’ उत्पाद के लिए राष्ट्रपति भवन में डॉ कलाम से सम्मानित. बीसियों सम्मान. लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में नाम दर्ज. आईसीएआर द्वारा वर्ष 2011 में जगजीवनराम सम्मान.
2. धर्मवीर कम्बोज
गांव दामला, जिला- यमुनानगर, हरियाणा.
उत्पाद प्रसंस्करण मशीन सहित कई मशीनें विकसित की हैं. 2014 में किसान वैज्ञानिक के रूप में राष्ट्रपति भवन में 20 दिन मेहमान रहे हैं. साधारण निर्धन किसान और रिक्शा चालक से ढाई दशक में एक करोड़ रूपये की मशीनें बेचने वाले किसान वैज्ञानिक के रूप में लोकप्रिय.
3. गुरमेलसिंह धौंसी
पदमपुर, जिला-श्रीगंगानगर, राजस्थान.
करीब दो दर्जन कृषि यंत्र विकसित किये हैं. 2014 में राष्ट्रपति भवन में बीस दिन मेहमान रहे हैं. 2012 में राष्ट्रपति भवन में एनआईएफ का 5 लाख रूपये का पुरस्कार भी प्राप्त कर चुके हैं.
4. रायसिंह दहिया
जयपुर, राजस्थान. दहिया ने बायोमास गैसीफायर विकसित किया है. 2016 में राष्ट्रपति भवन में 15 दिन मेहमान रहे हैं. 2009 में राष्ट्रपति भवन में राष्ट्रीय स्तर का द्वितीय वर्मा पुरस्कार मिला.
5. सुंडाराम वर्मा
गांव दांता, जिला-सीकर, राजस्थान.
एक लीटर पानी से एक पेड़ विकसित करने की प्रणाली की खोज करने वाले इकलौते किसान. अनेकों राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार. जिनेवा में वैश्विक सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं. आईसीएआर द्वारा भी सम्मानित हो चुके हैं.
6. हरिमन शर्मा
गांव-पनियाला, जिला-बिलासपुर, हिमाचल प्रदेश.
तपती धरती पर सेब उत्पादन में सफलता प्राप्त की. राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने 04 मार्च 2017 को 3 लाख रूपये का द्वितीय राष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान किया.
7. श्रवण कुमार बाज्या
गांव-गिरधारीपुरा, जिला-सीकर, राजस्थान.
खरपतवार हटाने की मशीन सहित 6 मशीनें विकसित की हैं. 04 मार्च 2017 को राष्ट्रपति भवन में एनआईएफ का 3 लाख रूपये का पुरस्कार प्रदान प्राप्त कर चुके हैं.
8. राजकुमार राठौर
गांव-जमोनिया टेंक, जिला- सिहोर, मध्यप्रदेश.
अरहर की बारहमासी किस्म ‛ऋचा 2000’ विकसित की है. मोतियों वाले राजकुमार के नाम से भी जाने जाते हैं. राष्ट्रपति भवन में सम्मान सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित हो चुके हैं.
9. चौधरी परमाराम
तहसील-सुन्दरनगर, जिला-मंडी, हिमाचल प्रदेश.
2006 में बहुउद्देश्य टीलर कम पुडलर बनाया. 2014 में आईसीएआर ने जगजीवनराम अभिनव पुरस्कार प्रदान किया.
10. इस्हाक़ अली
गांव- कछोली, जिला- सिरोही, राजस्थान.‛आबू सौंफ-440’ विकसित की. आईसीएआर द्वारा जगजीवनराम अभिनव पुरस्कार से सम्मानित. ‛सिटा’ द्वारा ‛खेतों के वैज्ञानिक’ सम्मान भी प्राप्त कर चुके हैं.
11. मदनलाल कुमावत
गांव- दांता, जिला- सीकर, राजस्थान.
पुराने ट्रैक्टर पर बनाया लोडर. बहु फसल थ्रेसर विकसित किया. राष्ट्रपति द्वारा 04 मार्च 2017 को राष्ट्रपति भवन में सम्मानित. कई राष्ट्रीय और राज्यस्तरीय सम्मान प्राप्त कर चुके हैं. पहले किसान हैं जिनका नासम 'फोर्ब्स' मैगज़ीन में छप चूका है.
12.  जितेन्द्र मलिक 
गांव- सींख, जिला- पानीपत, हरियाणा.
मशरुम टर्निंग मशीन विकसित की है. 2015 में राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने एनआईएफ का 3 लाख रूपये का पुरस्कार प्रदान किया.
13. राजेश खेड़ी 
गांव-खेड़ी, जिला- कैथल, हरियाणा.
जैविक खेती में नवाचारों से राष्ट्रीय पहचान बना चुके हैं. आईसीएआर द्वारा ’जैविक हलधर पुरस्कार-2015’ व 2016 में प्रदान किया गया है.
14. भगवती देवी
गांव-दांता, जिला-सीकर, राजस्थान.
फसल को दीमक से बचाने का नुस्खा विकसित किया है. ‛सिटा’ द्वारा 2011 में  ‛खेतों के वैज्ञानिक’ सम्मान प्राप्त कर चुकी हैं. महिन्द्रा एण्ड महिन्द्रा ने ‛इण्डिया एग्री अवार्ड-2011’ प्रदान किया है.
15. मोहम्मद मकबूल रैना
गांव- थन्ना मण्डी, जिला- राजौरी, जम्मू कश्मीर.
कृषि नवाचारों से युवाओं को आतंकवादी बनने से रोका है. इनका कहना है कि ‛गन से नहीं हल से मिलेगी आतंकवाद से मुक्ति’. 2011 में ‛सिटा’ द्वारा ‛खेतों के वैज्ञानिक’ सम्मान प्राप्त किया है.
16. अरविन्द सांखला
मारवाड़- मथानिया, जिला-जोधपुर, राजस्थान.
गाजर धुलाई मशीन, मिर्ची ग्रेडिंग एवं सफाई मशीन, जमीन से लहसुन निकालने के लिये ‛कुली’ मशीन आदि विकसित कर चुके हैं. ‛सिटा’ द्वारा ‛खेतों के वैज्ञानिक’ राष्ट्रीय सम्मान से भी सम्मानित हैं.
17. जसवीर कौर
गांव-प्रेमपुरा, जिला- हनुमानगढ़, राजस्थान.
एक साथ सात काम करने वाला उपकरण विकसित किया है. खेती में कई प्रयोग किये हैं. ‛सिटा’ द्वारा ‛खेतों के वैज्ञानिक’ और एनआईएफ द्वारा सम्मानित. इन्होने शारीरिक अशक्तता को शोध में आडे नहीं आने दिया.
18. सुशील कुमार कुंडू
ताखरवाली, पोस्ट-रंगमहल, तहसील- सूरतगढ़, जिला गंगानगर, राजस्थान.
बंजर भूमि को नवाचारों से जैविक किसानों के लिये पर्यटन स्थल बना दिया है. जैविक खेती में निरंतर नये प्रयोग करते रहे हैं. ‛सिटा’ द्वारा ‛खेतों के वैज्ञानिक’ सम्मान प्राप्त कर चुके हैं.
19. सुरेन्द्र सिहं 
गांव-धिंगनवाली, तहसील- अबोहर, जिला-फिरोजपुर, पंजाब.
खेती और डेयरी उत्पाद पूरी तरह जैविक हों  इस अभियान से पंजाब में विषिष्ट पहचान बनाई है. निरंतर नित नए नये प्रयोग करते रहते हैं.
20. कैलाश चौधरी
गांव-कीरतपुरा, तहसील-कोटपूतली, जिला-जयपुर, राजस्थान.
जैविक खेती और आंवला प्रसंस्करण के लिये राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त किसान हैं. 2016 में राजस्थान सरकार ने 1 लाख रूपये का पुरस्कार प्रदान किया था. आईसीएआर ने भी पुरस्कार देने की घोषणा की है. आईसीएआर ने इन्हें जैविक खेती के 5 प्रशिक्षणों के लिये भी चयनित किया है.
21. मोटाराम शर्मा
जिला-सीकर, राजस्थान.
हाल ही में दसवीं पास की है. मशरुम उत्पादन और प्रसंस्करण में नवाचारों के कारण देशभर में पहचान बना चुके हैं. 2010 में राजस्थान सरकार ने ’कृषि रत्न’ और 50 हजार रूपये सम्मान राशि प्रदान की. 2010 में ‛सिटा’ ने ‛खेतों के वैज्ञानिक’ सम्मान प्रदान किया.
22. जगदीश प्रसाद पारीक
तहसील अजीतगढ, जिला-सीकर, राजस्थान.
फूलगोभी की  ‛अजीतगढ़ सलेक्शन’ किस्म विकसित की है. हाल ही में 25 किलो की फूलगोभी मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे को भेंट की, विश्व रिकार्ड 26 कि. ग्रा. की गोभी का है. इन्होनें कई मशीनें भी विकसित की हैं. एनआईएफ और सिटा द्वारा सम्मानित हो चुके हैं.
23. झाबरमल पचार
झीगर बड़ी, पोस्ट- झीगर छोटी, जिला- सीकर, राजस्थान.
सलेक्शन पद्धति से तीन फीट लम्बी देशी काली गाजर विकसित की है. एनआईएफ ने इनके बीज को कारगर माना है. इस गाजर की मिठास शक्कर जैसी है. इनकी पत्नी  संतोष पचार 15 दिनों तक किसान वैज्ञानिक के रूप में राष्ट्रपति भवन में मेहमान हैं.
24. प्रिन्स कम्बोज
ग्राम एवं पोस्ट- दामला, जिला यमुनानगर, हरियाणा.
किसान-वैज्ञानिक पिता धर्मवीर कम्बोज के साथ किसान- वैज्ञानिक की भूमिका में सक्रीय हैं. कृषि प्रसंस्करण में कई नये प्रयोग किये हैं. इण्डिया-अफ्रीका सबमिट-2015 में नवाचारी किसान शोधकर्ता के रूप में भाग ले चुके हैं. आदिवासियों के लिये सस्ती मशीने बनाने में जुटे हैं. ‛सिटा’ द्वारा ‛खेतों के वैज्ञानिक’ सम्मान प्राप्त कर चुके हैं.
25. कुमारी राज दहिया
जयपुर, राजस्थान की रहने वाली युवा किसान वैज्ञानिक हैं. पिता रायसिंह दहिया द्वारा विकसित बायोमास गैसीफायर का वर्तमान स्वरूप विकसित करने में राज दहिया की महत्वपूर्ण सह-भूमिका रही है. राज ने बायोमास कुक स्टोव विकसित किया है. ‛सिटा’ द्वारा ‛खेतों के वैज्ञानिक’ सम्मान प्राप्त कर चुकी हैं.
26. भंवरसिंह पीलीबंगा
जयपुर, राजस्थान ने जैविक खेती एवं उसके प्रसंस्करण में नवाचारों से अलग पहचान बनाई है. अपने तरीके से ग्रीन हाऊस का मॉडल बनाया है. इसमें बेल वाले टमाटर पर शोध किया. ऑर्गेनिक टमाटर की ऊंचाई 15 फीट है. जैविक खेती के लिये किसानों के बुलाने पर जाकर बिना शुल्क मार्गदर्शन करते हैं.
प्रस्तुति : मोईनुद्दीन चिश्ती, लेखक ख्याति प्राप्त कृषि एवं पर्यावरण पत्रकार हैं.



फ़िरदौस ख़ान
देश की एक बड़ी आबादी धीमा ज़हर खाने को मजबूर है, क्योंकि उसके पास इसके अलावा कोई दूसरा चारा नहीं है. हम बात कर रहे हैं भोजन के साथ लिए जा रहे उस धीमे ज़हर की, जो सिंचाई जल और कीटनाशकों के ज़रिये अनाज, सब्ज़ियों और फलों में शामिल हो चुका है. देश के उत्तर-पूर्वी राज्यों में आर्सेनिक सिंचाई जल के माध्यम से फ़सलों को ज़हरीला बना रहा है. यहां भू-जल से सिंचित खेतों में पैदा होने वाले धान में आर्सेनिक की इतनी मात्रा पाई गई है, जो मानव शरीर को नुक़सान पहुंचाने के लिए काफ़ी है. इतना ही नहीं, देश में नदियों के किनारे उगाई जाने वाली फ़सलों में भी ज़हरीले रसायन पाए गए हैं. यह किसी से छुपा नहीं है कि हमारे देश की नदियां कितनी प्रदूषित हैं. कारख़ानों से निकलने वाले कचरे और शहरों की गंदगी को नदियों में बहा दिया जाता है, जिससे इनका पानी अत्यंत प्रदूषित हो गया है. इसी दूषित पानी से सींचे गए खेतों की फ़सलें कैसी होंगी, सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है.

दूर जाने की ज़रूरत नहीं, देश की राजधानी दिल्ली में यमुना की ही हालत देखिए. जिस देश में नदियों को मां या देवी कहकर पूजा जाता है, वहीं यह एक गंदे नाले में तब्दील हो चुकी है. काऱखानों के रासायनिक कचरे ने इसे ज़हरीला बना दिया है. नदी के किनारे सब्ज़ियां उगाई जाती हैं, जिनमें काफ़ी मात्रा में विषैले तत्व पाए गए हैं. इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चर रिसर्च की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, नदियों के किनारे उगाई गई 50 फ़ीसद फ़सलों में विषैले तत्व पाए जाने की आशंका रहती है. इसके अलावा कीटनाशकों और रसायनों के अंधाधुंध इस्तेमाल ने भी फ़सलों को ज़हरीला बना दिया है. अनाज ही नहीं, दलहन, फल और सब्ज़ियों में भी रसायनों के विषैले तत्व पाए गए हैं, जो स्वास्थ्य के लिए बेहद हानिकारक हैं. इसके बावजूद अधिक उत्पादन के लालच में डीडीटी जैसे प्रतिबंधित कीटनाशकों का इस्तेमाल धड़ल्ले से जारी है. अकेले हरियाणा की कृषि भूमि हर साल एक हज़ार करोड़ रुपये से ज़्यादा के कीटनाशक निग़ल जाती है. पेस्टिसाइड्‌स ऐसे रसायन हैं, जिनका इस्तेमाल अधिक उत्पादन और फ़सलों को कीटों से बचाने के लिए किया जाता है. इनका इस्तेमाल कृषि वैज्ञानिकों की सिफ़ारिश के मुताबिक़ सही मात्रा में किया जाए, तो फ़ायदा होता है, लेकिन ज़रूरत से ज़्यादा प्रयोग से भूमि की उर्वरा शक्ति ख़त्म होने लगती है और इससे इंसानों के अलावा पर्यावरण को भी नुक़सान पहुंचता है. चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के कीट विज्ञान विभाग के वैज्ञानिकों ने कीटनाशकों के अत्यधिक इस्तेमाल से कृषि भूमि पर होने वाले असर को जांचने के लिए मिट्टी के 50 नमूने लिए. ये नमूने उन इलाक़ों से लिए गए थे, जहां कपास की फ़सल उगाई गई थी और उन पर कीटनाशकों का कई बार छिड़काव किया गया था. इसके साथ ही उन इलाक़ों के भी नमूने लिए गए, जहां कपास उगाई गई थी, लेकिन वहां कीटनाशकों का छिड़काव नहीं किया गया था. कीटनाशकों के छिड़काव वाले कपास के खेत की मिट्टी में छह प्रकार के कीटनाशकों के तत्व पाए गए, जिनमें मेटासिस्टोक्स, एंडोसल्फान, साइपरमैथरीन, क्लोरो पाइरीफास, क्वीनलफास और ट्राइजोफास शामिल हैं. मिट्टी में इन कीटनाशकों की मात्रा 0.01 से 0.1 पीपीएम पाई गई. इन कीटनाशकों का इस्तेमाल कपास को विभिन्न प्रकार के कीटों और रोगों से बचाने के लिए किया जाता है. कीटनाशकों की लगातार बढ़ती खपत से कृषि वैज्ञानिक भी हैरान और चिंतित हैं. कीटनाशकों से जल प्रदूषण भी बढ़ रहा है. प्रदूषित जल से फल और सब्ज़ियों का उत्पादन तो बढ़ जाता है, लेकिन इनके हानिकारक तत्व फलों और सब्ज़ियों में समा जाते हैं. सब्ज़ियों में पाए जाने वाले कीटनाशकों और धातुओं पर भी कई शोध किए गए हैं. एक शोध के मुताबिक़, सब्ज़ियों में जहां एंडोसल्फान, एचसीएच एवं एल्ड्रिन जैसे कीटनाशक मौजूद हैं, वहीं केडमियम, सीसा, कॉपर और क्रोमियम जैसी ख़तरनाक धातुएं भी शामिल हैं. ये कीटनाशक और धातुएं शरीर को बहुत नुक़सान पहुंचाती हैं. सब्ज़ियां तो पाचन तंत्र के ज़रिए हज़म हो जाती हैं, लेकिन कीटनाशक और धातुएं शरीर के संवेदनशील अंगों में एकत्र होते रहते हैं. यही आगे चलकर गंभीर बीमारियों की वजह बनती हैं. इस प्रकार के ज़हरीले तत्व आलू, पालक, फूल गोभी, बैंगन और टमाटर में बहुतायत में पाए गए हैं. पत्ता गोभी के 27 नमूनों का परीक्षण किया गया, जिनमें 51.85 फ़ीसद कीटनाशक पाया गया. इसी तरह टमाटर के 28 नमूनों में से 46.43 फ़ीसद में कीटनाशक मिला, जबकि भिंडी के 25 नमूनों में से 32 फ़ीसद, आलू के 17 में से 23.53 फ़ीसद, पत्ता गोभी के 39 में से 28, बैंगन के 46 में से 50 फ़ीसद नमूनों में कीटनाशक पाया गया. फ़सलों में कीटनाशकों के इस्तेमाल की एक निश्चित मात्रा तय कर देनी चाहिए, जो स्वास्थ्य पर विपरीत असर न डालती हो. मगर सवाल यह भी है कि क्या किसान इस पर अमल करेंगे. 2005 में सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) ने केंद्रीय प्रदूषण निगरानी प्रयोगशाला के साथ मिलकर एक अध्ययन किया था. इसकी रिपोर्ट के मुताबिक़, अमेरिकी स्टैंडर्ड (सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन) के मुक़ाबले पंजाब में उगाई गई फ़सलों में कीटनाशकों की मात्रा 15 से लेकर 605 गुना ज़्यादा पाई गई. कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि मिट्टी में कीटनाशकों के अवशेषों का होना भविष्य में घातक सिद्ध होगा, क्योंकि मिट्टी के ज़हरीला होने से सर्वाधिक असर केंचुओं की तादाद पर पड़ेगा. इससे भूमि की उर्वरा शक्ति क्षीण होगी और फ़सलों की उत्पादकता भी प्रभावित होगी. मिट्टी में कीटनाशकों के इन अवशेषों का सीधा असर फ़सलों की उत्पादकता पर पड़ेगा और साथ ही जैविक प्रक्रियाओं पर भी. उन्होंने बताया कि यूरिया खाद को पौधे सीधे तौर पर अवशोषित कर सकते हैं. इसके लिए यूरिया को नाइट्रेट में बदलने का कार्य विशेष प्रकार के बैक्टीरिया द्वारा किया जाता है. अगर भूमि ज़हरीली हो गई तो बैक्टीरिया की तादाद प्रभावित होगी. स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि रसायन अनाज, दलहन और फल-सब्ज़ियों के साथ मानव शरीर में प्रवेश कर रहे हैं. फलों और सब्ज़ियों को अच्छी तरह से धोने से उनका ऊपरी आवरण तो स्वच्छ कर लिया जाता है, लेकिन उनमें मौजूद विषैले तत्वों को भोजन से दूर करने का कोई तरीक़ा नहीं है. इसी धीमे ज़हर से लोग कैंसर, एलर्जी, हृदय, पेट, शुगर, रक्त विकार और आंखों की बीमारियों के शिकार हो रहे हैं. इतना ही नहीं, पशुओं को लगाए जाने वाले ऑक्सीटॉक्सिन के इंजेक्शन से दूध भी ज़हरीला होता जा रहा है. अब तो यह इंजेक्शन फल और सब्ज़ियों के पौधों और बेलों में भी धड़ल्ले से लगाया जा रहा है. ऑक्सीटॉक्सिन के तत्व वाले दूध, फल और सब्ज़ियों से पुरुषों में नपुंसकता और महिलाओं में बांझपन जैसी बीमारियां बढ़ रही हैं. हालांकि देश में कीटनाशक की सीमा यानी मैक्सिमम ऐजिड्यू लिमिट के बारे में मानक बनाने और उनके पालन की ज़िम्मेदारी तय करने से संबंधित एक संयुक्त संसदीय समिति का गठन किया जा चुका है, लेकिन इसके बावजूद फ़सलों को ज़हरीले रसायनों से बचाने के लिए कोई ख़ास कोशिश नहीं की जाती. रसायन और उर्वरक राज्यमंत्री श्रीकांत कुमार जेना के मुताबिक़, अगर कीटनाशी अधिनियम, 1968 की धारा 5 के अधीन गठित पंजीकरण समिति द्वारा अनुमोदित दवाएं प्रयोग में लाई जाती हैं तो वे खाद्य सुरक्षा के लिए कोई ख़तरा पैदा नहीं करती हैं. कीटनाशकों का पंजीकरण उत्पादों की जैव प्रभाविकता, रसायन एवं मानव जाति के लिए सुरक्षा आदि के संबंध में दिए गए दिशा-निर्देशों के अनुरूप वृहद आंकड़ों के मूल्यांकन के बाद किया जाता है. केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार स्वीकार कर चुके हैं कि कई देशों में प्रतिबंधित 67 कीटनाशकों की भारत में बिक्री होती है और इनका इस्तेमाल मुख्य रूप से फ़सलों के लिए होता है. उन्होंने बताया कि कैल्शियम सायनायड समेत 27 कीटनाशकों के भारत में उत्पादन, आयात और इस्तेमाल पर पाबंदी है. निकोटिन सल्फेट और केप्टाफोल का भारत में इस्तेमाल तो प्रतिबंधित है, लेकिन उत्पादकों को निर्यात के लिए उत्पादन करने की अनुमति है. चार क़िस्मों के कीटनाशकों का आयात, उत्पादन और इस्तेमाल बंद है, जबकि सात कीटनाशकों को बाज़ार से हटाया गया है. इंडोसल्फान समेत 13 कीटनाशकों के इस्तेमाल की अनुमति तो है, लेकिन कई पाबंदियां भी लगी हैं.
ग़ौरतलब है कि भारत में क्लोरडैन, एंड्रिन, हेप्टाक्लोर और इथाइल पैराथीओन पर प्रतिबंध है. कीटनाशकों के उत्पादन में भारत एशिया में दूसरे और विश्व में 12वें स्थान पर है. देश में 2006-07 के दौरान 74 अरब रुपये क़ीमत के कीटनाशकों का उत्पादन हुआ. इनमें से क़रीब 29 अरब रुपये के कीटनाशकों का निर्यात किया गया. ख़ास बात यह भी है कि भारत डीडीटी और बीएचसी जैसे कई देशों में प्रतिबंधित कीटनाशकों का सबसे बड़ा उत्पादक भी है. यहां भी इनका खूब इस्तेमाल किया जाता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़, डेल्टिरन, ईपीएन और फास्वेल आदि कीटनाशक बेहद ज़हरीले और नुक़सानदेह हैं. पिछले दिनों दिल्ली हाईकोर्ट ने राजधानी में बिक रही सब्ज़ियों में प्रतिबंधित कीटनाशकों के प्रयोग को लेकर सरकार को फलों और सब्ज़ियों की जांच करने का आदेश दिया है. अदालत ने केंद्र और राज्य सरकार से कहा कि शहर में बिक रही सब्ज़ियों की जांच अधिकृत प्रयोगशालाओं में कराई जाए. मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने अपने आदेश में कहा कि हम जांच के ज़रिये यह जानना चाहते हैं कि सब्ज़ियों में कीटनाशकों का इस्तेमाल किस मात्रा में हो रहा है और ये सब्ज़ियां बेचने लायक़ हैं या नहीं. अदालत ने यह भी कहा कि यह जांच इंडियन एग्रीकल्चर रिसर्च इंस्टीट्यूट की प्रयोगशाला या दूसरी प्रयोगशालाओं में की जाए. ये प्रयोगशालाएं नेशनल एक्रेडेशन बोर्ड फोर टेस्टिंग से अधिकृत होनी चाहिए. यह आदेश कोर्ट ने कंज्यूमर वॉयस की उस रिपोर्ट पर संज्ञान लेते हुए दिया है, जिसमें कहा गया है कि भारत में फलों और सब्ज़ियों में कीटनाशकों की मात्रा यूरोपीय मानकों के मुक़ाबले 750 गुना ज़्यादा है. रिपोर्ट में कहा गया है कि क्लोरडैन के इस्तेमाल से आदमी नपुंसक हो सकता है. इसके अलावा इससे खू़न की कमी और ब्लड कैंसर जैसी बीमारी भी हो सकती है. यह बच्चों में कैंसर का सबब बन सकता है. एंड्रिन के इस्तेमाल से सिरदर्द, सुस्ती और उल्टी जैसी शिकायतें हो सकती हैं. हेप्टाक्लोर से लीवर ख़राब हो सकता है और इससे प्रजनन क्षमता पर विपरीत असर पड़ सकता है. इसी तरह इथाइल और पैराथीओन से पेट दर्द, उल्टी और डायरिया की शिकायत हो सकती है. केयर रेटिंग की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में कीटनाशकों के समुचित प्रयोग से उत्पादकता में सुधार आ सकता है. इससे खाद्य सुरक्षा में भी मदद मिलेगी. देश में हर साल कीटों के कारण क़रीब 18 फ़ीसद फ़सल बर्बाद हो जाती है यानी इससे हर साल क़रीब 90 हज़ार करोड़ रुपये की फ़सल को नुक़सान पहुंचता है. भारत में कुल 40 हज़ार कीटों की पहचान की गई है, जिनमें से एक हज़ार कीट फ़सलों के लिए फ़ायदेमंद हैं, 50 कीट कभी कभार ही गंभीर नुक़सान पहुंचाते हैं, जबकि 70 कीट ऐसे हैं, जो फ़सलों के लिए बेहद नुक़सानदेह हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि फ़सलों के नुक़सान को देखते हुए कीटनाशकों का इस्तेमाल ज़रूरी हो जाता है. देश में जुलाई से नवंबर के दौरान 70 फ़ीसद कीटनाशकों का इस्तेमाल किया जाता है, क्योंकि इन दिनों फ़सलों को कीटों से ज़्यादा ख़तरा होता है. भारतीय खाद्य पदार्थों में कीटनाशकों का अवशेष 20 फ़ीसद है, जबकि विश्व स्तर पर यह 2 फ़ीसद तक होता है. इसके अलावा देश में सिर्फ़ 49 फ़ीसद खाद्य उत्पाद ऐसे हैं, जिनमें कीटनाशकों के अवशेष नहीं मिलते, जबकि वैश्विक औसत 80 फ़ीसद है. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारत में कीटनाशकों के इस्तेमाल के तरीक़े और मात्रा के बारे में जागरूकता की कमी है.

ग़ौर करने लायक़ बात यह भी है कि पिछले तीन दशकों से कीटनाशकों के इस्तेमाल को लेकर समीक्षा तक नहीं की गई. बाज़ार में प्रतिबंधित कीटनाशकों की बिक्री भी बदस्तूर जारी है. हालांकि केंद्र एवं राज्य सरकारें कीटनाशकों के सुरक्षित इस्तेमाल के लिए किसानों को प्रशिक्षण प्रदान करती हैं. किसानों को अनुशंसित मात्रा में कीटनाशकों की पंजीकृत गुणवत्ता के प्रयोग, अपेक्षित सावधानियां बरतने और निर्देशों का पालन करने की सलाह दी जाती है. यह सच है कि मौजूदा दौर में कीटनाशकों पर पूरी तरह पाबंदी लगाना मुमकिन नहीं, लेकिन इतना ज़रूर है कि इनका इस्तेमाल सही समय पर और सही मात्रा में किया जाए.


मनोहर कुमार जोशी
राजस्थान में ऐसे बेरोजगार युवक जिनके पास कम से कम एक हैक्टेयर कृषि भूमि है, उनके लिए ग्वारपाठा (एलोवेरा) की खेती रोजगार का जरिया बन सकती है। शुष्क और उष्ण जलवायु में पैदा होने वाली ग्वारपाठा की खेती के लिए राजस्थान की जलवायु और मिट्टी सर्वाधिक उत्तम मानी जाती है। ग्वारपाठा मूलत: दो प्रकार का होता है, एक खारा ग्वारपाठा और दूसरा मीठा ग्वारपाठा। खारा ग्वारपाठा आयुर्वेदिक औषधियों एवं सौन्दर्य प्रसाधन सामग्री तैयार करने के लिए काम में लिया जाता है, जबकि मीठा ग्वारपाठा का इस्तेमाल अचार और सब्जी बनाने के लिए होता है। 

कृषि विशेषज्ञों एवं जानकारों के मुताबिक राजस्थान में फिलहाल तीन हजार हैक्टेयर से अधिक भूभाग पर किसान ग्वारपाठे की खेती कर रहे हैं। एक हैक्टेयर में ग्वारपाठा के बीस हजार पौधे लगाये जा सकते हैं। इस पर वर्ष भर में 50 से 60 हजार रूपये का खर्चा आता है। पूरे साल में वर्षा के मौसम को छोड़ कर करीब 12 बार सिंचाई की जरूरत होती है। गर्मी के मौसम में महीने में एक अथवा दो बार सिंचाई करनी पड़ती है। ग्वारपाठे की अच्छी फसल के लिए 15 टन प्रति हैक्टेयर गोबर की खाद दी जा सकती है। एक साल बाद पत्तियों के रूप में उत्पादन शुरू हो जाता है। सिंचित क्षेत्र में 30 टन तथा असिंचित क्षेत्र में 20 टन प्रति हैक्टेयर सालाना ग्वारपाठे का उत्पादन होता है। 

एक किसान को ग्वारपाठा की खेती से लगभग 40 हजार रूपये प्रति हैक्टेयर लाभ हो जाता है। ग्वारपाठे की पत्तियों की तुड़ाई वर्ष में तीन से चार बार की जाती है। किसान को मण्डी अथवा बाजार में फसल ले जाने की जरूरत नहीं पड़ती है। ग्वारपाठा के उत्पाद बनाने वाली फर्म अथवा इकाईयों से सम्पर्क करने पर उनके प्रतिनिधि खुद खेत पर आकर कटी पत्तियां खरीद ले जाते हैं। खेत में एक बार इसे उगाने के बाद इस पौधे का विस्तार होता रहता है। 

मदर प्लांट्स (मातृ पौध) के पास डॉटर प्लांट्स (प्ररोह-छोटे पौधे) तैयार होते रहते हैं। किसान इन छोटे पौधों को बेच कर अतिरिक्त लाभ भी कमा सकते हैं। ग्वारपाठे के छोटे पौधों की पहली बार खेती करने वाले अथवा नर्सरी लगाने वाले खरीद कर ले जाते हैं। किसान को अपने खेत में ग्वारपाठे उगाने के लिए 

छोटे पौधों को खरीदते समय इस बात की सावधानी रखनी चाहिए की प्ररोह 9 से 12 इंच का हो, इससे छोटे पौधे सस्ते तो मिल जाते हैं, लेकिन इन पौधों के विकसित होने से पहले ही उनके नष्ट होने का खतरा रहता है। ग्वारपाठे के छोटे पौधे एक से डेढ़ रूपघ् में मिल जाते हैं। 

राजस्थान में ग्वारपाठा की खेती बीकानेर संभाग में सर्वाधिक होती है। इसके अलावा जोधपुर संभाग में भी कई गांवों में इसकी खेती की जा रही है। इस औषधीय पौधे की खेती के लिए राष्ट्रीय बागवानी मिशन प्रति हैक्टेयर 20 प्रतिशत का अनुदान 5 हैक्टेयर तक प्रदान करता है। उद्यान निदेशालय की एक रिपोर्ट के अनुसार एक हैक्टेयर पर ग्वारपाठा की खेती के लिए होने वाले 42500 रूपये के खर्च में से 8500 रूपये का अनुदान सरकार उपलब्ध कराती है। जोधपुर स्थिति केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान एकाजरी एवं जयपुर के समीप जोबनेर में कृषि अनुसंधान केन्द्र में ग्वारपाठे की खेती के बारे में जानकारी प्राप्त की जा सकती है। इसके अलावा जयपुर में कृषि पंत भवन में उद्यान निदेशालय से भी विस्तृत जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। आयुर्वेद में घृतकुमारी और स्थानीय बोलचाल में ग्वारपाठा के रूप को जानने वाले इस प्राचीन पौधे की औषधीय उत्पादों में खास उपादेयता है, जबकि सौन्दर्य प्रसाधान की सामग्री में यह ग्वारपाठा के रूप में लोकप्रिय है। हर्बल उत्पादों की वस्तुओं में ग्वारपाठा सबसे पहले पाया जाता है।

जोधपुर संभाग के जैसलमेर जिले के पोकरण, राजमथाई, डाबला, बांधेवा आदि गांवों में ग्वारपाठे की खेती का विस्तार हो रहा है। यहां होने वाला ग्वारपाठा तीन रूपये प्रति किलोग्राम की दर से हरिद्वार भेजा जाता है। इसकी खेती करने वाले सागरमल, जोगराज एवं हाजी खां के अनुसार हरिद्वार स्थित आयुर्वेदिक औषधियां बनाने वाली एक कंपनी अपना वाहन लेकर यहां आती है तथा ग्वारपाठा खरीद कर ले जाती है। 

जिले में 200 बीघा से अधिक भूमि पर इसकी खेती की जा रही है। इसके अतिरिक्त नागौर, अजमेर, सीकर, झुंझुनू घ्घ्घ् चुरू सहित राज्य के विभिन्न जिलों में इसकी खेती के प्रति किसानों में जागृति आयी है तथा किसान ग्वारपाठा की खेती से जुड़ने लगे हैं। 

सीकर जिले के एक किसान को ग्वारपाठे का महत्व उस वक्त समझ में आयाए जब खेत-खलिहान में लगी आग से वहां बंधी भैंसे झुलस गई और उसके उपचार में ग्वारपाठा का गूदा रामबाण औषधि साबित हुआ। 

पाली जिले के निमाज गांव के प्रगतिशील किसान श्री मदनलाल देवड़ा जिन्होंने अपने खेत पर ग्वारपाठा और आंवला उगाकर इसका मूल्यसंवर्धन तथा प्रसंस्करण करना शुरू कर दिया है, वे बताते हैं कि मैंने अपने खेत में आंवला एवं ग्वारपाठा की खेती को चुनौती के तौर पर लिया। आज मेरे खेत में साढ़े तीन हैक्टेयर में ग्वारपाठा उगा हुआ है। शुरू में लागत ज्यादा आती है, इसलिए किसान कतराता है। वहीं दूसरी ओर इसकी प्रक्रिया का कार्य करोड़पतियों के हाथ में होने से किसानों को उनकी ओर देखना पड़ता है। वे कहते हैं कि मुझे आज भी याद है कि मैंने चुरू में आंवले का ज्यूस चार बोतल से शुरू किया था। बीच-बीच में ऐसा भी लगा कि क्या मैं अपने उत्पाद बाजार में चला पाऊंगा ? लेकिन उत्पाद की गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं किया तथा हौसला नहीं छोड़ा। आज मुझे इस बात की खुशी है कि दक्षिण भारत के बंगलुरू और हैदराबाद जैसे बड़े शहरों में मेरे द्वारा तैयार ग्वारपाठा एवं आंवला के रस ने दस्तक दे दी है और दो से ढाई लाख रूपये का रस हर माह वहां भेज रहा हूं। पाली जिले में इस समय 27 हैक्टेयर पर इसकी खेती की जा रही है। नागौर में भी कुछ काश्तकार इसकी खेती तथा फसलोत्तर कार्य में लगे हुये हैं। 

इसकी खेती करने वाले काश्तकारों के अनुसार ग्वारपाठा का पौधा ऐसा पौधा है, जो थोड़ी .सी मेहनत के बाद बंजर भूमि में भी उग जाता है। इसे पशु, पक्षी तथा जानवर भी नुकसान नहीं पहुंचाते हैं। राजस्थान के मरूस्थलीय इलाके में रासायनिक खादों का कम उपयोग होने से जैविक उत्पादन ज्यादा प्राप्त हो सकता है। 

एक कृषि अधिकारी के मुताबिक राजस्थान में ग्वारपाठा के प्रसंस्‍करण कार्य में छोटी-बड़ी 20 से 30 इकाईयां लगी हुई हैं। ये इकाईयां बड़े उद्योगों की मांग के अनुरूप माल की आपूर्ति करती हैं। आने वाले समय में राजस्थान में व्यापक स्तर पर इसकी खेती की जा सकती है। 


प्रस्तुति : सरफ़राज़ ख़ान
नारियल का पेड़ प्राचीनतम पौध प्रजातियों में से एक से संबंधित है. यह पेड़ पूरे उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में पाया जाता है. नारियल का पेड़ पूरे विश्व में व्यापक रूप से उगने वाला पेड़ है जो जीवन के लिए प्रत्येक आवश्यक चीजें हमें प्रदान करता है. नारियल का पेड़ पूरी तरह सुडौल और गोलाकार होने के साथ-साथ 20 से 30 मीटर ऊंचा होता है जो लगभग 100 वर्षों तक जिंदा रहकर प्रतिवर्ष 70 से लेकर 100 नारियल पैदा करता है. इंडोनेशिया, फिलीपीन, भारत और श्रीलंका नारियल के प्रमुख उत्पादक हैं और इन देशों के लिए यह आय के प्रमुख स्रोतों में से एक है. खाद्य और पेय के अलावा नारियल के पेड़ के विभिन्न हिस्सों का इस्तेमाल पायदान, दरी, फर्नीचर, चारकोल आदि बनाने में किया जाता है.

नारियल रेशे को इसके फल के छिलके से निकाला जाता है. इसके बाद निकाले गए रेशे को धुनकर धागा तैयार किया जाता है और नारियल रेशे के विभिन्न उत्पादों को तैयार करने के लिए करघे पर बुनाई की जाती है. नारियल रेशे के विशेष गुणों के कारण इसके उत्पाद पर्यावरण हितैषी और जैविक अवमूल्यन के गुणों से युक्त होते हैं.

नारियल रेशा
नारियल के फल के छिलके में विभिन्न लंबाई वाले 20 से 30 प्रतिशत रेशे पाए जाते हैं. छिलके को पीसकर रेशे प्राप्त किए जाते हैं. नारियल के फल का छिलका काफी मजबूत होता है और समुद्री जल से इसे कोई नुकसान नहीं होता जिसके कारण यह फल कई महीने तक सुरक्षित रहता है तथा बीज के उगने के लिए आवश्यक अन्य पोषक तत्व भी इसमें मौजूद रहते हैं. इन्हीं गुणों के कारण नारियल रेशा पायदान, चटाइयां, बगीचे में इस्तेमाल की जाने वाली वस्तुएं, एक्वेरियम फिल्टर, रस्सियां आदि बनाने के लिए उपयुक्त है. नारियल रेशे के दो प्रकार हैं- पहला उजला रेशा और दूसरा भूरा रेशा.
उजला रेशा
नदी अथवा जल से भरे गङ्ढे में 8-10 महीने तक अपरिपक्व-मुलायम छिलकों को डालकर छोड़ दिया जाता है और इस प्रक्रिया के माध्यम से उजला रेशा प्राप्त किया जाता है. इस प्रक्रिया के दौरान सूक्ष्मजीव रेशे के आस-पास के वानस्पतिक ऊतकों को तोड़कर अलग हटाते हैं. इसके बाद छिलके को हाथ से पीटकर अथवा मशीन के द्वारा लंबे रेशों को अलग किया जाता है और फिर उन्हें सुखाकर साफ किया जाता है. इस प्रकार साफ किए गए रेशे कताई के लिए तैयार हो जाते हैं , तकली से कताई करके इनका धागा बनाया जाता है ताकि रस्सी, चटाई एवं दरी जैसे विभिन्न उत्पाद तैयार किए जा सकें.
 भूरा रेशा
पूरी तरह परिपक्व नारियल फल के छिलके को तीन से पांच दिनों तक जल में डुबाकर रखा जाता है और इसके बाद उसे हाथ से अथवा मशीन की सहायता से तोड़कर भूरा रेशा प्राप्त किया जाता है. अगली प्रक्रिया में लंबे रेशों को छोटे रेशों से अलग किया जाता है. ये रेशे काफी लचीले होते हैं और टूटे बिना ही मुड़ सकते हैं. भूरे रेशे का इस्तेमाल मुख्य रूप से ब्रशों और बगीचों में इस्तेमाल की जाने वाली वस्तुओं को तैयार करने में किया जाता है.
 नारियल रेशे के गुण
नारियल का रेशा किसी अन्य प्राकृतिक रेशे की तुलना में अधिक मजबूत होता है और आयतन में किसी फैलाव के बिना ही अधिकतम 200 प्रतिशत जल अवशोषित करता है. यह एक बहुविध प्राकृतिक रेशा है जो 10 से 20 एमएम व्यास वाले और 1.3 एमएम से कम लंबाई वाले धागों से बना होता है. अत्यधिक आर्द्रता की स्थिति में अपने वजन के 15 प्रतिशत तक नमी धारण करते हुए यह आर्द्रता घटाने वाले एक कारक के रूप में काम करता है. अपनी सतह पर सल्फर डायऑक्साइड और कार्बन डायऑक्साइड जैसी भारी गैसों को अवशोषित करके यह कमरे की हवा को शुध्द रखता है. नारियल का रेशा ज्वलन को कम करने वाला होता है और आसानी से जलता नहीं है. यह ताप और ध्वनि का एक बेहतरीन अवरोधक है.

लिगनिन और सेल्यूलोज नारियल रेशे के प्रमुख घटक हैं. इसके रेशे में 45 प्रतिशत लिगनिन पाया जाता है जो इसे प्राकृतिक रेशों में से सबसे मजबूत बनाता है. टिकाऊ होने के साथ-साथ इसका जैविक अवमूल्यन आसानी से हो जाता है. कीट-रोधी होने के साथ-साथ यह फफूंद-रोधी और सड़नरोधी भी है. यही कारण है कि नारियल रेशे का बहुविध औद्योगिक इस्तेमाल होता है.
नारियल रेशे का इस्तेमाल
नारियल रेशे की विशेषताओं के कारण कृषि और मृदा संरक्षण सहित विभिन्न क्षेत्रों में इसका व्यापक इस्तेमाल किया जाता है.
नारियल की रस्सी
नारियल की रस्सी सामान्य रूप से दो लड़ियों वाली होती है जिसे हाथ से अथवा कताई मशीनों के इस्तेमाल से तैयार किया जाता है. इस्तेमाल में लाए गए रेशे की गुणवत्ता, ऐंठन की प्रकृति, अशुध्दता आदि के आधार पर इनकी कई श्रेणियां होती हैं और यह कई रूपों में पायी जाती हैं जिनका इस्तेमाल विभिन्न औद्योगिक और कृषि संबंधी कार्यों में होता है.
नारियल रेशा एक जैविक रेशा
नारियल रेशा एक जैविक अवशिष्ट है जो पर्यावरण अनुकूल होने के साथ ही बड़े पैमाने पर मृदा क्षरण और मृदा अपरदन का प्राकृतिक समाधान है. नारियल रेशा एक ऐसा जैविक रेशा है जो काफी मजबूत होने के साथ-साथ काफी मात्रा में जल का अवशोषण करता है. नारियल रेशे में नमी काफी समय तक कायम रहती है और यह जल अवशोषित करके और मिट्टी को सूखने से बचाकर नई वनस्पति के पनपने और उसके विकास में सहायक होता है. नारियल रेशे का जैविक आवरण चार से पांच वर्षों के लिए पौधों को मिट्टी का सहारा प्रदान करता है. नदी के किनारों को बचाने, सड़क निर्माण करने और भूमि में सुधार लाने के लिए भी इसका इस्तेमाल किया जाता है.
नारियल रेशे का मज्जा
इसका मज्जा वह पदार्थ है जो नारियल रेशे को छिलके में जोड़ता है . अब तक इसे एक समस्यामूलक कचरा माना जाता था किन्तु हाल में इसकी मांग काफी बढ़ी है, क्योंकि इसका इस्तेमाल मिट्टी की उर्वरता को सुधारने और पौधों को विकसित करने के लिए किया जाता है . नारियल रेशे का मज्जा अपने वजन की तुलना में 8 से 10 गुणा अधिक जल अवशोषित कर सकता है और इस गुण के कारण पौधशाला में इसका इस्तेमाल किया जाता है. कॉयर बोर्ड द्वारा विकसित एक सरल प्रौद्योगिकी के माध्यम से नारियल के मज्जे को जैविक खाद (सी-पॉम) के रूप में बदला जा सकता है. इस प्रकार कम्पोस्ट किए गए नारियल रेशे का मज्जा मिट्टी के जैविक अवयव के रख-रखाव के लिए किफायती होने के साथ-साथ जैविक कार्बन का स्रोत है, जिसका जैविक खेती में व्यापक इस्तेमाल हो सकता है.

नारियल रेशे की चटाई
नारियल रेशे की चटाइयां हथकरघों, बिजली से चलने वाले करघों (पावरलूम) पर बनाई जाती हैं. सामान्य तौर पर निर्मित चटाइयों में फाइबर मैट, क्रील मैट, रॉड मैट, कारनेटिक मैट आदि शामिल हैं. नारियल रेशे की बुनी हुई और विभिन्न डिजाइनों में तैयार की गई चटाइयां पायदानों के रूप में इस्तेमाल के लिए उपलब्ध हैं. इन चटाइयों को फिसलन मुक्त बनाने के लिए इनमें लैटेक्स लगाया जाता है.

नारियल रेशे की दरी
नारियल रेशे की दरियां पारंपरिक हथकरघा अथवा पावरलूम पर बनायी जाती हैं और ये विभिन्न डिजाइनों और रंगों में उपलब्ध हैं. मुख्य रूप से इनका इस्तेमाल फर्श को ढकने के साथ -साथ छत और दीवार में लगाने के लिए भी किया जाता है.
बगीचे की वस्तुएं
बगीचे में काम आने वाले अधिकांश उत्पाद नारियल रेशे से तैयार किए जा सकते हैं. नारियल रेशे से बने गमले, लटकती हुई सजावटी टोकरियों आदि का इस्तेमाल सामान्य रूप से बगीचे में किया जाता है. पहले इनके स्थान पर प्लास्टिक की बनी चीजें प्रयोग में लाई जाती थीं जिनके कारण पर्यावरण संबंधी कठिनाइयां उत्पन्न होती थीं. नारियल की भूसी का इस्तेमाल बागवानी संबंधी विभिन्न कार्यों में किया जाता है.
कॉयर कंपोजिट
कॉयर कंपोजिट की मजबूती और टिकाऊपन के कारण लकड़ी के एक विकल्प के तौर पर इसका व्यापक इस्तेमाल किया जाने लगा है. कॉयर कंपोजिट पर्यावरण अनुकूल और किफायती होता है. कॉयर कंपोजिटों का इस्तेमाल रूफ शीट, फर्नीचर ट्रे, दरवाजे, खिड़की, पैकिंग बॉक्स आदि बनाने में किया जाता है.

चूंकि नारियल का रेशा जैविक अपशिष्ट होने के साथ-साथ पर्यावरण अनुकूल भी है, इसलिए विशिष्ट रासायनिक और भौतिक गुणों के कारण यह बहुविध इस्तेमाल के लिए उपयुक्त पाया गया है. नारियल का रेशा सबसे मजबूत प्राकृतिक रेशा है और यह एकमात्र ऐसा रेशा है जो खारे जल का भी प्रतिरोधक है. नारियल रेशा एक जैविक रेशा है जो मृदा क्षरण और मृदा अपरदन का प्राकृतिक समाधान है तथा इसके मज्जे का इस्तेमाल मिट्टी की उर्वरता बढाने में किया जाता है. कॉयर कंपोजिट को लकड़ी के एक विकल्प के रूप में बेहतर ढंग से स्वीकार किया गया है, जिसके प्रयोग से वनों के घटते क्षेत्रफल को रोका जा सकता है.

डॉ. सुधीरेन्दयर शर्मा    
सिंचाई क्षेत्र में छह दशकों के निवेश के बावजूद सुनिश्चित सिंचाई के तहत 142 मिलियन हेक्टसयेर कृषि भूमि में से केवल 45 प्रतिशत ही कवर हो पाई है. हाल ही में शुरू हुई प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (पीएमकेएसवाई) ‘हर खेत को पानी’ देने पर ध्या न केन्द्रित करने की दिशा में एक सही कदम है. इसके अंतर्गत मूल स्थारन पर जल संरक्षण के जरिए किफायती लागत और बांध आधारित बड़ी परियोजनाओं पर भी ध्यासन दिया जाएगा.
   भारत की अगले पांच वर्षों में सिंचाई योजनाओं पर 50 हजार करोड़ रुपये खर्च करने की योजना है. इसलिए देश में सूखे के प्रभाव को कम करना कार्यान्वजन प्रक्रिया का केन्द्रम बिन्दुन बन गया है. पिछले दो वर्षों में दस राज्योंर में गंभीर सूखा पड़ा, जिससे कृषि क्षेत्र पर बुरा प्रभाव पड़ा और वस्तु.ओं की कीमते बढ़ी हैं. वर्षा आधारित कृषि भूमि के अतिरिक्तप छह लाख हेक्टेेयर क्षेत्र को सिंचाई के अंतर्गत लाने के लिए योजना के कार्यान्व्यन के पहले एक वर्ष में पांच हजार तीन सौ करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है.
वर्तमान में चल रही तीन योजनाओं- त्वीरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम, एकीकृत जल ग्रहण प्रबंधन कार्यक्रम और खेत में जल प्रबंधन योजनाओं का विलय कर पीएमकेएसवाई बनाई गई है. इसका उद्देश्यज न केवल सिंचाई कवरेज बढ़ाना, बल्कि खेती के स्तरर पर जल के उपयोग की दक्षता बढ़ाना भी है. इस संदर्भ में कहा जा सकता है कि इस योजना से लगभग पांच लाख हेक्टेनयर भूमि में ड्रिप सिंचाई को बढ़ावा मिलेगा.
अतिरिक्तच सिंचित क्षेत्र के लक्ष्यड को हासिल करने के लिए मौजूदा जल निकायों और पारम्प्रिक जल स्रोतों की भंडारण क्षमता बढ़ाई जाएगी. पानी की बढ़ती आवश्यंकता को पूरा करने के लिए निजी एजेंसियों, भूजल और कमान क्षेत्र विकास के अतिरिक्तआ संसाधनों से पानी लेने का प्रयास भी किया गया. हालांकि यह सुनिश्चित करना गंभीर चुनौती है कि मौजूदा तीस मिलियन कुंओं और टयूबवेल से अतिरिक्तज भूजल स्रोत का दोहन न हो.
 इस संदर्भ में देश के प्रत्ये्क खेत में सिंचाई सुविधा उपलब्ध  कराने के लिए जल संरक्षण और जल की बर्बादी कम करना महत्व्पूर्ण है. इससे स्थावयी जल संरक्षण और जल संसाधनों का अधिकतम उपयोग करने की आदत बनेगी, जो नई सिंचाई सुविधाओं जितनी ही महत्व पूर्ण है. सिंचाई जल आपूर्ति के लिए कई विधियों से नगर निगम के गंदे पानी का शोधन कर उसे दोबारा उपयोगी बनाने की भी योजना है.
 एक ऐसा देश जहां सूखा पड़ने का इतिहास रहा है, वहां केवल ऐसी पहलो से हीसकल घरेलू उत्पानद में कृषि क्षेत्र का योगदान बढ़ाने का मार्ग प्रशस्ता होगा. वर्ष 1801 से लेकर 2012 तक देश में 45 बार गंभीर सूखा पड़ा है. हाल के कमजोर मानसून का असर कृषि क्षेत्र पर पड़ा है और लगातर दूसरे वर्ष कृषि क्षेत्र का योगदान कम दर्ज किया गया. इसका बुरा प्रभाव अर्थव्यऔवस्थाव पर पड़ा है, जिसकी वजह से यह तर्क पुष्टन होता है कि सूखे के असर को कम करने से अर्थव्यसवस्था  पर कृषि का बुरा प्रभाव कम पड़ेगा.
आर्थिक सर्वेक्षण 2015-16 में कृषि में बदलाव की बात करते हुए संकर और उच्च  उपज बीज, प्रौद्योगिकी और मशीनीकरण पर अनुसंधान में अधिक निवेश कर सूक्ष्म  सिंचाई के जरिए जल का किफायती उपयोग करने का प्रस्ता व किया गया है. जलवायु परिवर्तन के खतरों को देखते हुए उत्पा कदता बढ़ाने और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए जलवायु स्मांर्ट कृषि प्रौद्योगिकियों में अनुसंधान पर निवेश की आवश्यचकता पर ध्याान नहीं दिया गया है.
पानी की कमी बने रहने से भारतीय कृषि क्षेत्र में काफी समय से ‘उच्चध निवेश, उच्च  जोखिम’ की स्थिति है. कृषि क्षेत्र में अधिक पानी की खपत वाली फसलों के कारण जलवायु अनिवार्यता और बढ़ गई है. जब तक अनुकूल समर्थन मूल्य  के साथ कम पानी की खपत वाली फसलों विशेष रूप से दलहनों और तिहलनों पर ध्या न केन्द्रित नहीं किया जाता है, तब तक लगभग 98 मिलियन हेक्टेथयर वर्षा आधारित खेत कृषि क्षेत्र में वृद्धि के लिए योगदान नहीं कर सकते.
इसलिए पानी की दीर्घावधि आवश्यगकता की पूर्ति के लिए समग्र विकास के परिप्रेक्ष्य  में पीएमकेएसवाई के अंतर्गत ‘विकेन्द्रिकृत राज्यि स्त रीय नियोजन और कार्यान्वृयन’को बढ़ाकर व्या पक जिला सिंचाई योजनाओं तक किया जाना चाहिए. यह कार्य केवल स्थाकनीय जल संसाधनों का संरक्षण और सुरक्षित करना ही नहीं है, बल्कि वितरण नेटवर्क को दक्ष बनाना है, ताकि कठिनाई के समय में भी खेतों में फसल की उत्पािदकता को कायम रखा जा सके.
2030 तक अपने सकल घरेलू उत्पासद का 30 से 35 प्रतिशत तक कार्बन उत्स्र्जन कम करने की प्रतिबद्धता के कारण भारत को पीएमकेएसवाई के अनुरूप विकेन्द्रिकृत जल प्रबंधन अपनाकर वृहद सिंचाई परियोजनाओं में कार्बन उत्सुर्जन को कम करना होगा. हालांकि इन योजनाओं का अधिक लाभ तभी मिल पाएगा, जब यर्थावादी खेती के जरिए जैविक कार्बन मिट्टी को बढ़ाए, कार्बन स्टॉ्क मिट्टी की नमी बनाए रखे और जलवायु के प्रभाव से फसल की बर्बादी को कम किया जा सके.
इस संदर्भ में विकेन्द्रिकृत जलागम विकास के माध्य.म से सामुदायिक पानी प्रबंधन,पारम्पररिक टैंक प्रणाली और ‘मिट्टी में नमी बढ़ाने’ के लिए सुधार के जरिए ‘पानी की उपलब्ध ता’ कायम रखना महत्वापूर्ण है. यह प्रयास ग्रामीण इलाकों में सूखे के प्रभाव को कम करने के लिए महत्विपूर्ण हैं, क्योंणकि भूजल भंडारण मूल स्थाइन पर मिट्टी को वास्त विक जलाशयों में परिवर्तित कर देता है, जो जलवायु के खतरों से असाधारण बचाव करता है.
नीति आयोग के अंतर्गत अंतर मंत्रिमंडलीय राष्ट्रीतय स्था यी समिति का गठन किया गया है, हालांकि यह देखना होगा कि राज्यी स्त र के विभिन्नि विभाग पीएमकेएसवाई के महत्वआकांक्षी परिणाम हासिल करने में जमीनी स्तार पर कैसा सहयोग करते हैं.
(लेखक विकास मुद्दों के अनुसंधानकर्ता एवं लेखक हैं)

राधा मोहन सिंह
भारत की आत्मा गांवों में बसती है, जिसमें जान भरने और अपनी मेहनत से सींचने का काम हमारे किसान भाई करते रहे हैं. देश में कृषि के विकास पर नजर डालें तो आजादी के समय या उसके बाद के दशकों में कृषि की दशा के साथ-साथ खाद्य उत्पादन भी दयनीय अवस्था में था. बढ़ती आबादी, कुदरत की मार, वैज्ञानिक साधनों एवं कृषि अनुसंधानों के अभाव में अनाज उत्पादन इतना कम था कि हम विदेश से अनाज आयात करने को मजबूर थे. आगे चलकर 1960 के दशक में देश में गेहूं और धान जैसे फसलों को केंद्र में रखते हुए वैज्ञानिक उपायों और कृषि अनुसंधानों के जरिए हरित क्रांति का सूत्रपात हुआ, लेकिन इसका दायरा पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के पहले से ही उन्नत जिलों और दक्षिण-पूर्व के तटीय क्षेत्रों तक ही सीमित रहा. बीच के दशकों में तात्काजलीन सरकारों द्वारा खेती के विकास और किसानों के कल्याण की बातें तो बहुत हुईं, यहां तक कि खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने की बात भी हुई, लेकिन उस रफ्तार से काम नहीं किया गया, जिससे कृषि का तीव्र विकास हो, हमारे किसान खुशहाल हों, उनकी आमदनी बढ़े और देश खाद्य सुरक्षा को पूरा करने में समर्थ हो.
माननीय प्रधानमंत्री जी के नेतृत्व में केंद्रीय कृषि एवं किसान मंत्रालय अपने किसान भाइयों के जीवन को खुशहाल बनाने के लिए कई स्तरों पर प्रयास कर रहा है. जब तक किसानों की आमदनी नहीं बढ़ेगी, उन्हें उनके उत्पाद का बेहतर मूल्य नहीं मिलेगा, तब तक उनका जीवन खुशहाल नहीं हो सकता. माननीय प्रधानमंत्री जी ने लक्ष्य रखा है कि मार्च 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करना है. इस दिशा में तेजी से कदम बढ़ाए जा रहे हैं. इसके लिए कृषि, सहकारिता एवं किसान विभाग के अपर सचिव की अध्यक्षता में एक अंतर मंत्रालय समिति का गठन किया गया है. इस समिति ने खरीफ 2016 से अपना काम शुरू कर दिया है. वर्ष 2021-22 तक किसानों/कृषि मजदूरों की आमदनी कैसे दोगुनी हो सकती है और इसके लिए कितनी विकास दर आवश्यक होगी, लक्ष्य पूर्ति के लिए क्या रणनीति हो एवं इससे जुड़े अन्य मुद्दों पर समिति राय देगी. हमारे किसान भाइयों की आमदनी का प्रमुख जरिया खेती-बाड़ी ही है. बढ़ती जनसंख्या की जरूरतों को पूरा करने के लिए फसल का उत्पादन बढ़ाना जरूरी है. इसके लिए केंद्र सरकार ने पूर्वोत्त र राज्यों में दूसरी हरित क्रांति का आगाज किया है. देश के सात राज्यों- असम, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ में दूसरी हरित क्रांति चलाई जा रही है. दूसरी हरित क्रांति सिर्फ अनाज, दलहन व तिलहन तक सीमित नहीं रहेगी. श्वेत क्रांति, नीली क्रांति में भी पूर्वी राज्यों में विकास और उत्पादन की अपार संभावनाएं हैं. सरकार ने दलहन उत्पादन के लिए किसानों को प्रोत्साहित करने के लिए न्यूवनतम समर्थन मूल्य बढ़ाया है, ताकि दलहन की आपूर्ति और खपत के बीच के अंतर को पाटा जा सके. कृषि पर दबाव कम हो और किसान भाइयों की आमदनी बढ़े, इसके लिए गौ पालन, मत्स्य पालन, मुर्गी पालन आदि को भी बढ़ावा दिया जा रहा है.
केवल फसल उत्पादन बढ़े, इतना ही पर्याप्त नहीं है. हमारे किसान भाइयों को फायदा तभी होगा जब उत्पादन बढ़ने के साथ ही उत्पादन लागत कम रहे, उसे उसकी फसल का बेहतर मूल्य मिले, बाजार की सुविधा हो, किसान को सही समय पर खाद व बीज मिले, प्राकृतिक आपदा की स्थिति में राहत का प्रबंध हो और उन्हें फसल बीमा मिले. केंद्र सरकार ने किसानों के कल्याण के लिए कई योजनाएं बनाई हैं, जैसे कि प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना, परंपरागत कृषि विकास योजना, कृषि वानिकी और नीम लेपित यूरिया, राष्ट्रीय कृषि बाजार, किसानों के लिए मोबाइल एप की शुरूआत, कृषि विज्ञान केंद्रों को मजबूत करना, केवीके पोर्टल की शुरूआत, कृषि शिक्षा एवं अनुसंधान को बढ़ावा देना, मेरा गांव, मेरा गौरव योजना की शुरूआत, सूखाग्रस्त क्षेत्रों के लिए दीन दयाल अंत्योबदय मिशन, किसान की जरूरतों के अनुरूप स्टूडेंट रेडी कार्यक्रम शुरू करना आदि कदम उठाए गए हैं. इसके अलावा पशुपालन, डेयरी और चिकित्सा शिक्षा में बदलाव भी किए गये हैं. कृषि के अलावा बागवानी कृषि पर सरकार का पूरा जोर है. बागवानी कृषि हमारे किसान भाइयों की आमदनी बढ़ाने में काफी सहायक है.
हालांकि, हमारी अधिकांश कृषि प्रकृति पर निर्भर है. कभी बाढ़, कभी सूखा, कभी ओला वृष्टि, तो कभी अन्य आपदा. अपने अन्नदाताओं की इसी परेशानी को ध्यान में रखते हुए हमारी सरकार ने ‘प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना’ शुरू की है, ताकि वे खुशहाल हों. सरकार अगले 2-3 वर्षों में 50 फीसदी किसानों को फसल बीमा के दायरे में लाना चाहती है. अभी मात्र 20 फीसदी किसानों को ही फसल बीमा के दायरे में लाया जा सका है. इस योजना की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि हमारे किसान भाई बीमा की कम प्रीमियम राशि चुकाकर अधिक से अधिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं. शेष भार सरकार खुद वहन करेगी. यहां तक कि 90 फीसदी से ज्यादा शेष भार होने पर भी सरकार द्वारा ही वहन किया जाएगा. किसानों को रबी फसलों के लिए 1.5 फीसदी और खरीफ के लिए 2 फीसदी की दर से प्रीमियम देना होगा. इतना ही नहीं, बीमा पर भुगतान की सीमा हटा दी गयी है. खेत से लेकर खलिहान तक किसानों को बीमा सुरक्षा दिए जाने का प्रावधान किया गया है.
प्रधानमंत्री जी ने लक्ष्य रखा है कि हमें प्रति बूंद ज्यादा फसल उगानी है. यह तभी संभव होगा जब प्रत्येक खेत को पानी मिले और सिंचाई की व्यवस्था हो. इसके लिए प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना शुरू की गयी है, जिसे मिशन मोड में चलाया जा रहा है, ताकि सूखे की समस्या का स्थायी समाधान ढूंढा जा सके. इसके लिए देश के सभी जिलों में जिला सिंचाई योजना तैयार करने के लिए राशि दी गई है.
किसान खेती करता था, लेकिन उसे यह पता नहीं होता था कि उसके खेत में कितनी दवा या उर्वरक देना है. इसके लिए सरकार ने देश में पहली बार सॉयल हेल्थ कार्ड स्कीम की शुरूआत की है. इस स्कीेम के तहत फसल उत्पादन के लिए उपयुक्त संस्कृति, पोषक तत्वों की मात्रा का प्रयोग करने और मृदा स्वास्थ्य और उर्वरता में सुधार के लिए देश के सभी 14 करोड़ किसानों को दो वर्ष में सॉयल हेल्थ कार्ड उपलब्ध कराया जाएगा.
देश में अभी तक यूरिया को लेकर मारामारी रहती थी, लेकिन यह पहला वर्ष है जब यूरिया की कोई कमी नहीं है. हमने अपने किसान भाइयों के लिए नीम लेपित यूरिया की व्यवस्था की. इससे किसानों को 100 किलोग्राम की जगह 90 किलोग्राम यूरिया का ही इस्तेमाल करना होगा, जिससे लागत मूल्य में कमी आने के साथ ही अब यूरिया का गलत उपयोग भी नहीं हो पाएगा.  साथ ही सरकार ने पोटाश व डीएपी के दाम भी कम किए हैं. इसके साथ ही मोदी सरकार ने जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए परंपरागत कृषि विकास योजना शुरू की है. 2016-17 के बजट में योजना के माध्यम से 3 साल में 5 लाख एकड़ क्षेत्र में जैविक खेती करने का लक्ष्य रखा गया है. सिक्किम पूरी तरह से जैविक खेती करने वाला राज्य बन गया है.
किसानों को उनके उत्पाद का सही मूल्य मिले, इसके लिए सरकार ने किसानों के लिए राष्ट्रीय कृषि बाजार शुरू किया है. अब कोई भी व्यक्ति अपने घर के नजदीक स्थित राष्ट्रीय कृषि बाजार केन्द्र में जाकर कम्प्यूटर पर देश भर की मंडियों पर नजर डाल सकता है. 14 अप्रैल, 2016 को डॉ. भीमराव अम्बेडकर की 125वीं जयंती पर ई-ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म का पायलट प्रोजेक्ट लांच कर दिया गया है. आजादी का सपना तब पूरा होगा, जब किसान होंगे खुशहाल और इस समय आठ राज्यों की 23 मंडियों में 11 जिंसों की खरीद-बिक्री शुरू हो रही है. अप्रैल 2016 से सितंबर 2016 के मध्य तक 200 मंडियों को ई-ट्रेडिंग सॉफ्टवेयर से जोड़ दिया जाएगा. फिर अक्तूबर, 2016 से 31 मार्च 2017 के मध्य तक 200 मंडियों को इसमें शामिल कर लिया जाएगा. मार्च 2018 तक देश की 585 मंडियों को एक-दूसरे से जोड़ दिया जाएगा.
किसानों को सही समय पर सूचना देने के कृषि एवं किसान कल्यामण मंत्रालय के कई पोर्टल हैं, जिनके जरिए हमारे किसान भाई सूचना प्राप्त कर सकते हैं. भारत सरकार का किसान पोर्टल- http://farmer.gov.in , भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की वेबसाइट http://www.icar.org.in, केवीके की विभिन्न गतिविधियों की जानकारी प्रदान करने एवं उसकी उच्च स्तर पर निगरानी एवं प्रबंधन हेतु बनाए गए पोर्टलhttp://kvk.icar.gov.in/ पर किसानों के लिए योजनाओं की जानकारी उपलब्ध है. विभिन्न तरह के मोबाइल एप मसलन किसान सुविधा एप, पूसा कृषि एप, भुवन ओलावृष्टि एप, फसल बीमा एप, एग्री मार्केट एप, पशु पोषण एप हैं. ये सभी एप्स   www.mkisan.gov.in  के अलावा गूगल प्ले स्टोर से डाउनलोड किए जा सकते हैं.
माननीय प्रधानमंत्री जी की स्टूमडेंट रेडी (Rural Entrepreneurship Awareness Development Yojana) वर्ष 2015 में शुरू हुई थी जो वर्ष 2016-17 से लागू होगी. कृषि स्नातकों में व्यावहारिक अनुभव तथा उद्यमिता कौशल प्राप्त करने के लिए अवसर प्रदान करने हेतु यह एक नया कार्यक्रम है. हमने कृषि विज्ञान के पाठ्यक्रम और विषय-वस्तु में सुधार के लिए गठित पांचवीं डीन कमेटी की सिफारिश को मंजूरी दी है. कृषि-विज्ञान के स्नातक स्तर के पाठ्यक्रम में भारी बदलाव किए गये हैं और इन्हें अब व्यावहारिक अनुभव के साथ व्यावसायिक और रोजगारोन्मुख बना दिया गया है. दो नये केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालयों की स्थापना की गयी है. कृषि विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों की संख्या में भी काफी इजाफा हुआ है. देश के संघीय ढांचे में राज्यों की अहम भूमिका है. कृषि राज्य का विषय है. कृषि व किसान कल्याण का लक्ष्य तभी पूरा हो सकता है, जब राज्यों का पूरा सहयोग मिले और यह मिलता भी रहा है. लक्ष्य प्राप्त करने के लिए भारत के सभी राज्यों को महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी. राज्य सरकार के प्रयासों में और तेजी लाने के उद्देश्य से केन्द्र द्वारा पोषित कई योजनाएं भी समय-समय पर लागू की गईं जिससे कि देश के कृषि उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि हो सके और किसान खुशहाल हो.
सरकार के उपरोक्त सभी कार्यक्रमों व प्रयासों का एकमात्र लक्ष्य है किसान भाइयों की आमदनी को 2022 तक दोगुना करना और इसके लिए जो भी कदम उठाना है, सरकार उसके लिए कृतसंकल्प है. इसी रास्ते पर आगे बढ़ते हुए आजाद भारत में खुशहाल किसान का लक्ष्य पाया जा सकता है.
(लेखक केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री हैं)


दिलीप रथ
विश्व के दुग्ध उत्पादक देशों में भारत का पहला स्थान है.लाखों ग्रामीण परिवारों के लिए दुग्ध व्यवसाय आय का दूसरा महत्वपूर्ण स्रोत बन गया है.रोजगार प्रदान करने और आय के साधन पैदा करने में दुग्ध व्यवसाय की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हो गई है.वर्ष 2007-08 के दौरान भारत में प्रति दिन दूध की खपत 252 ग्राम थी.पिछले तीन दशकों में योजना के अंत तक दुग्ध उत्पादन की विकास दर करीब 4 प्रतिशत थी जबकि भारत की जनसंख्या की वृध्दि दर लगभग 2 प्रतिशत थी.दुग्ध उत्पादन में वृध्दि के लिए केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा शुरू की गई अनेक योजनाओं के फलस्वरूप यह संभव हो सका है.

स्वतंत्रता के बाद इस दिशा में जो प्रगति हुई है, वह बहुत चमत्कारपूण्र है.तब से दुग्ध उत्पादन में छ: गुनी वृध्दि हुई है.वर्ष 1950-51 में कुल 1 करोड़ 70 लाख टन दूध का उत्पादन होता था जो कि 2007-08 तक 6 गुने से भी अधिक बढक़र 10 करोड़ 48 लाख टन पहुंच गया.देश में सामाजिक-आर्थिक बदलाव लाने में इसे एक महत्त्वपूर्ण साधन के रूप में देखा जाता है.

भारत में दुग्ध व्यवसाय को कृषि के सहायक व्यवसाय के रूप में देखा जाता है.खेती किसानी से बचे कचरे, घास-फूस के इस्तेमाल और परिवार के लोगों के श्रम के जरिये ही इस व्यवसाय की साज-संभाल होती है.देश के करीब 7 करोड़ ग्रामीण परिवार दुग्ध व्यवसाय में लगे हुए हैं.ग्रामीण क्षेत्रों में करीब 70 प्रतिशत मवेशी छोटे, मझौले और सीमान्त किसानों के पास हैं, जिसकी पारिवारिक आमदनी का बहुत बड़ा हिस्सा दूध बेचने से प्राप्त होता है.

सरकार दुग्ध उद्योग क्षेत्र को बढावा देने के लिए अनेक योजनायें चला रही है.दुग्ध व्यवसाय की प्रगति हेतु सरकार सक्रिय सहयोग दे रही है.इसकी शुरूआत 1970 में शुरू किए गए 'आपरेशन्स पऊलड ' योजना के अन्तर्गत आई श्वेत क्रान्ति से हुई.इस योजना ने सहकारी क्षेत्र में दुग्ध व्यवसाय को अपना कर किसानों को अपने विकास का मार्ग प्रशस्त करने में और एक राष्ट्रीय दुग्ध ग्रिड के जरिये देश के 700 से अधिक शहरों और कस्बों में उपभोक्ताओं तक दूध पहुंचाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है.इससे बिचौलिए की आवश्यकता पूरी तरह समाप्त हो गई है और इस कारण हर मौसम में दूध के मूल्यों में जो उतार-चढाव हुआ करता था, वह भी समाप्त हो गया है.सहकारी ढांचे में कारण दुग्ध और उससे बने पदार्थों का उत्पादन और वितरण किसानों के लिए काफी सरल और स्वीकार्य हो गया है.इस कार्यक्रम में राज्यों के 22 सहकारी दुग्ध संघों के तहत 170 दुग्धशालाएं ( मिल्क शेड) शामिल थीं, जिनसे 1 करोड़ 20 लाख कृषक परिवारों को लाभ हुआ.आपरेशन पऊलड के समाप्त होने पर दुग्ध उत्पादन प्रति वर्ष दो करोड़ 12 लाख टन से बढक़र 6 करोड़ 63 लाख टन तक पहुंच गया.इस कार्यक्रम के तहत 265 जिलों को शामिल किया गया था.

तदुपरान्त, सरकार दुग्ध व्यवसाय को लोकप्रिय बनाने और इससे जुड़े पहले छूट गए अन्य क्षेत्रों को सम्मिलित करने के लिए राष्ट्रीय मवेशी (गोधन) और भैंस प्रजनन परियोजना, सघन डेयरी विकास कार्यक्रम, गुणवत्ता संरचना सुदृढीक़रण एवं स्वच्छ दुग्ध उत्पादन, सहकारिताओं को सहायता, डेयरी पोल्ट्री वेंचर कैपिटल फंड, पशु आहार, चारा विकास योजना और पशुधन स्वास्थ्य और रोग नियंत्रण कार्यक्रम जैसी अनेक परियोजनाओं पर काम कर रही है.

राष्ट्रीय मवेशी और भैंस प्रजनन परियोजना पांच -पांच वर्ष के दो चरणों में, दस वर्ष के लिए अक्तूबर 2000 में शुरू की गई थी.इस परियोजना के तहत महत्त्वपूर्ण देसी प्रजातियों के विकास और संरक्षण पर केन्द्रित जननिक उन्नयन को प्रोत्साहित किया जा रहा है.इसके तहत कार्यान्वयन एजेंसियों को अति उन्नत कृत्रिम गर्भाधान सेवाओं को किसानों के दरवाजे तक पहुंचाने के लिए 100 प्रतिशत अनुदान सहायता दी जाती है, सभी प्रजनन योग्य गायों और भैंसों को कृत्रिम गर्भाधान अथवा 10 वर्ष से कम आयु के उच्च प्रजाति के सांडों द्वारा प्राकृतिक रूप से गर्भधारण के लिए लाकर संगठित प्रजनन को प्रोत्साहन दिया जाता है और देसी मवेशियों और भैंसों की नस्ल सुधार का कार्यक्रम हाथ में लिया जाता है.वर्तमान में, 28 राज्य और केन्द्र शासित प्रदेश इस परियोजना में भाग ले रहे हैं.इन राज्यों को 31 जुलाई 2009 तक 5 अरब 4 करोड़ 73 लाख रुपए की वित्तीय सहायता जारी की जा चुकी है.वीर्य उत्पादन, जो 1999-2000 के दौरान 2 करोड़ 20 लाख स्ट्रा था, 2008-09 तक बढ कर 4 करोड़ 60 लाख स्ट्रा हो गया था.इसी अवधि में गर्भाधान की संख्या 2 करोड़ से बढ कर 4 करोड़ 40 लाख तक पहुंच गई.नाबार्ड की प्रभाव विश्लेषण रिपोर्ट के अनुसार, गर्भधारण दर कुल मिलाकर 20 प्रतिशत से बढक़र 35 प्रतिशत हो गई है.

'आपरेशन पऊलड' के कार्यान्वयन के दौरान जो कमियां रह गई थीं उन्हें पूरा करने के लिए 1993-94 में शत-प्रतिशत अनुदान के आधार पर एकीकृत डेयरी विकास कार्यक्रम (आईडीडीपी) नाम से एक नई योजना शुरू की गई.यह योजना उन क्षेत्रों में विशेष रूप से लागू की गई जो, आपरेशन पऊलड में आने से छूट गए थे.इसके साथ ही पहाड़ी और पिछड़े क्षेत्रों में भी इसको अमल में लाया गया.योजना के मुख्य उद्देश्य थे- दुधारू मवेशियों का विकास, तकनीकी सहायता उपलब्ध कराकर दुग्ध उत्पादन में वृध्दि, दूध की सरकारी खरीद और किफायती ढंग से उसका प्रसंस्करण और विपणन, दुग्ध् उत्पादक को उचित मूल्य दिलाना, रोजगार के अतिरिक्त अवसरों का सृजन और अपेक्षाकृत वंचित क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की सामाजिक-आर्थिक और पौष्टिक स्थिति में सुधार.

योजना के आरंभ के बाद 86 परियोजनायें मंजूर की जा चुकी हैं.इनमें से 55 परियोजनाओं पर काम चल रहा है और 31 परियोजनायें पूरी हो चुकी हैं.31 मार्च 2009 तक 25 राज्यों और एक केन्द्र शासित प्रदेश में 207 जिलों में यह योजना लागू थी और इन पर 5 अरब 1 करोड़ 84 लाख रुपए खर्च किये जा चुके थे.इन परियोजनाओं से विभिन्न राज्यों के 26844 गांवों में 18 लाख 79 हजार किसानों को प्रतिदिन 20 लाख 8 हजार लीटर दूध की खरीद और 16 लाख 20 हजार लीटर दूध की बिक्री में मदद मिली है.इस योजना के तहत प्रतिदिन 18 लाख 49 हजार लीटर दुग्ध-शीतलीकरण और 23 लाख 96 हजार लीटर प्रसंस्करण क्षमता का सृजन हुआ है.

इसके अतिरिक्त, सरकार ने ग्रामीण स्तर पर उच्च गुणवत्ता वाले दूध के उत्पादन के लिए गुणवत्ता संरचना सुदृढीक़रण एवं स्वच्छ दूध उत्पादन नाम से एक नई केन्द्र प्रायोजित योजना शुरू की.इसका उद्देश्य दूध दुहने की सही तकनीक के बारे में किसानों को प्रशिक्षण देकर, उन्हें डिटर्जेंट, स्टेनलेस स्टील के बर्तन आदि देकर, मौजूदा प्रयोगशालाओं- सुविधाओं के सुदृढीक़रण, मिलावट की जांच किट, कीटनाशक दवाएं आदि उपलब्ध कराकर ग्रामीण स्तर पर उच्च गुणवत्ता वाले कच्चे दूध का उत्पादन बढाना है, ताकि स्वच्छ दूध का संग्रहण सुनिश्चित किया जा सके.इसके अलावा, इस योजना के तहत गांवों में ही बड़े पैमाने पर दूध ठंडा करने वाली सुविधायें भी मुहैया करायी गईं.आरंभ होने से अब तक (जुलाई 2009), 21 राज्यों और एक केन्द्र शासित प्रदेश में 1 अरब 95 करोड़ 17 लाख रुपए के खर्च से 131 परियोजनायें मंजूर की जा चुकी हैं, जिनमें से केन्द्र का अंश 2 अरब 51 करोड़ 38 लाख रुपए का रहा.योजनान्तर्गत 21 लाख 5 हजार क्षमता के कुल 1362 बृहद दुग्ध प्रशीतक (बल्क मिल्क कूलर्स) लगाये गए हैं.इस योजना के फलस्वरूप कच्चे दूध के शेल्फ लाइफ (घर में दूध को रखना) में वृध्दि हुई है.इससे दूध की पड़ोस के प्रशीतक केन्द्र पर कम खर्च में भेजा जा सकता है.दूध की बरबादी में कमी आई है, जिससे किसानों की आमदनी में बढोतरी हुई है.

ऑपरेशन पऊलड कार्यक्रम के तहत देश के विभिन्न भागों में तीन स्तरों वाली सहकारी डेयरी संरचनायें - ग्राम स्तरीय प्राथमिक सहकारितायें, जिला स्तरीय संघ (यूनियन) और राज्य स्तरीय महासंघ (फेडरेशन) - स्थापित की गई थीं.विभिन्न कारणों से अनेक यूनियनों और फेडरेशनों को नुकसान सहना पड़ा.इन संचित हानियों के कारण दुग्ध उत्पादकों को घोर दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है, जिसका परिणाम यह हुआ है कि इन सहकारी संस्थाओं के सदस्य गरीब किसानों को विलम्ब से और अनियमित भुगतान हो रहा है.दुग्ध संघों के पुनर्वास के लिए जनवरी 2000 में केन्द्रीय क्षेत्र की एक नई योजना-- सहकारिताओं को सहायता शुरू की गई.

केन्द्र और राज्य सरकारें 50-50 प्रतिशत के अनुपात पर अनुदान प्रदान करती हैं.प्रारंभ होने के बाद से 31 जुलाई, 2009 तक 12 राज्यों के 34 दुग्ध संघों के पुनर्वास प्रस्तावों को अनुमोदित किया गया है.ये राज्य हैं -- मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ, क़र्नाटक, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, केरल, महाराष्ट्र, असम, नगालैंड, पंजाब, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु.कुल मिलाकर 23094.13 लाख रुपये की मंजूरी दी गई, जिसमें से केन्द्र का अंश 11566.34 लाख रुपए का था.आरंभ होने के बाद 31 जुलाई, 2009 तक इस योजना के तहत 8939.34 लाख रुपए जारी किये जा चुके हैं.इसके तहत जिन 34 यूनियनों को सहायता दी गई थी उनमें से 17 फिर से अपने पांवों पर खड़ी होकर मुनाफा कमाने लगी हैं.इस योजना की क्रियान्वयन एजेंसी एनडीडीबी की रिपोर्ट में बताया गया है कि अभी भी अनेक यूनियनें हैं जो घाटे में चल रही हैं और विभाग एनडीडीबी द्वारा उनकी सहायता के लिए पेश किए गए प्रस्तावों पर विचार कर रहा है.

इसके अतिरिक्त, असंगठित (दुग्ध व्यवसाय) और पोल्ट्री (मुर्गी पालन) क्षेत्र में संरचनात्मक परिवर्तन लाने के लिए दिसम्बर 2004 में डेयरी और पोल्ट्री के लिए वेंचर कैपिटल फंड नाम से एक व्यापक योजना शुरू की गई.योजना के तहत 50 प्रतिशत ब्याज मुक्त त्रऽण घटक वाले बैंकों को स्वीकार्य प्रस्तावों के अनुसार ग्रामीण शहरी हितग्राहियों को सहायता प्रदान की जाती है.

योजना पर क्रियान्वयन नाबार्ड के माध्यम से किया जाता है और सरकार द्वारा नाबार्ड को जारी की गई राशि को एक रिवाल्विंग (आवर्ती) कोष में रखा जाता है.इस योजना के शुरू होने के बाद से उस पर अमल के लिए नाबार्ड को 122.29 करोड़ रुपए की राशि जारी की जा चुकी है.योजना के तहत उद्यमी को 10 प्रतिशत राशि का योगदान स्वयं करना होता है ओर 40 प्रतिशत राशि का प्रबंध स्थानीय बैंक से कराना होता है.सरकार नाबार्ड के माध्यम से 50 प्रतिशत ब्याज मुक्त त्रऽण प्रदान करती है.सरकार उन किसानों को कृषि कार्यों के लिए त्रऽण पर ब्याज की 50 प्रतिशत राशि की राज सहायता (सब्सिडी) भी देती है जो अपनी किस्तों का नियमित और समय पर भुगतान करते हैं.इस योजना के शुरू होने के बाद 31 जुलाई, 2009 तक 11810 डेयरी और 206 पोल्ट्री इकाइयों को 123.71 करोड़ रुपए की ब्याज मुक्त त्रऽण राशि जारी की जा चुकी है.

पशुआहार और चारे की डेयरी विकास में अहम भूमिका होती है क्योंक दुग्ध उत्पादन की कुल लागत का 60 प्रतिशत अंश पशुआहार और चारे पर खर्च होता है.दसवीं पंचवर्षीय योजना हेतु पशु पालन और दुग्ध व्यवसाय पर कार्यकारी समूह की रिपोर्ट के अनुसार देश में जो चारा उपलब्ध है, वह केवल 46.7 प्रतिशत पशुधन के लिए ही पूरा पड़ता है.अत: विभाग दो योजनाओं पर काम कर रहा है-- (1) केन्द्रीय चारा विकास संगठन और (2) पशु आहार एवं चारा विकास हेतु राज्यों को सहायता की केन्द्र प्रायोजित योजना.

केन्द्रीय चारा विकास संगठन योजना के तहत देश के विभिन्न कृषि जलवायु वाले क्षेत्रों में 7 क्षेत्रीय चारा उत्पादन एवं प्रदर्शन केन्द्रों के अलावा बंगलौर के हेसरघाटा में एक केन्द्रीय चारा बीज उत्पादन प्रक्षेत्र की स्थापना की गई है ताकि पशुआहार और चारे की समस्याओं का समाधान किया जा सके.इसके अलावा, चारा फसलों के परीक्षण के लिए एक केन्द्रीय मिनीकिट कार्यक्रम के लिए भी आर्थिक सहायता दी जा रही है.ये केन्द्र राज्यों की चारा संबंधी जरूरतों को पूरा करने का काम करते हैं.ये केन्द्र किसानों के खेतों पर ही प्रक्षेत्र प्रदर्शनों और किसान मेलों दिवस के माध्यम से प्रसार गतिविधियां भी चलाते हैं.वर्ष 2007-08 के दौरान इन केन्द्रों ने 264.42 टन चारे का उत्पादन किया, 5241 प्रदर्शन किये, 91 प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किये और 81 किसान दिवस मेले आयोजित किये.वर्ष 2008-09 दौरान इन केन्द्रों ने 278.52 टन चारे के बीज का उत्पादन किया, 6854 प्रदर्शन आयोजित किये, 122 प्रशिक्षण कार्यक्रम और 128 किसान दिवस मेले आयोजित किये.देश के पशुधन का बेहतर स्वास्थ्य सुनिश्चित करने के अलावा देश के बाहर से आने वाले रोगों के प्रवेश को रोकने के प्रयास भी किये जा रहे हैं.

पशु आहार और चारा विकास हेतु राज्यों को सहायता की केन्द्र प्रायोजित योजना के तहत राज्यों को चारा और पशु आहार विकास के उनके प्रयासों को सफल बनाने के लिए केन्द्रीय सहायता दी जाती है.योजना के चार घटक हैं, यथा -- चारा ब्लाक निर्माण इकाई, घास मैदान विकास और घास भंडारण, चारा बीज उत्पादन कार्यक्रम और जैव-प्रौद्योगिकी अनुसंधान परियोजना को सहायता देना.

पशुधन ने स्वास्थ्य की देखभाल के लिए देश भर में पशुधन स्वास्थ्य और रोग नियंत्रण की केन्द्र प्रायोजित योजना पर अमल किया जा रहा है.इसके तहत पशु रोग नियंत्रण हेतु राज्यों को सहायता (एएससीएडी) दी जाती है.इस कार्यक्रम में पोंकनी (पशुओं में अतिसार) उन्मूलन (एनपीआरई), व्यवसायगत दक्षता विकास (पीईडी), मुँहपका नियंत्रण और पोंकनी रोग से मुक्ति कार्यक्रम की निगरानी भी शामिल है.

राष्ट्रीय डेयरी योजना और राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (आरकेवीवाई) के रूप मे दो नए प्रयास शुरू किए गए हैं.

राष्ट्रीय डेयरी योजना - वैश्वीकरण और बढती क़्रय शक्ति के कारण दूर्ध और दूध से बने उच्च गुणवत्ता वाले पदार्थोेंं की मांग में वृध्दि हो रही है.भावी मांग को देखते हुए सरकार 2021-22 तक प्रति वर्ष 18 करोड़ टन दूध उत्पादन के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए 17,300 करोड़ रुपए के परिव्यय से राष्ट्रीय डेयरी योजना शुरू करने के बारे में विचार कर रही है.अगले 15 वर्षों में दूध उत्पादन 4 प्रतिशत की दर से बढने अौर कुल दूध उत्पादन में 50 लाख टन की वृध्दि होने का अनुमान है.इस योजना के तहत सरकार प्रमुख दुग्ध उत्पादक क्षेत्रों में दूध का उत्पादन बढाना चाहती है.मौजूदा और नई संस्थागत संरचनाओं के माध्यम से सरकार दूध के उत्पादन, प्रसंस्करण और विपणन ढांचे को सुदृढ आैर विस्तारित करना चाहती है.योजना में प्राकृतिक और कृत्रिम गर्भाधान के जरिए नस्ल सुधार, प्रोटीन और खनिज युक्त मवेशियों का आहार उत्पादन बढाने के लिए संयंत्रों की स्थापना का प्रावधान किया गया है.योजना में मौजूदा 30 प्रतिशत के स्थान पर अतिरिक्त दूध का 65 प्रतिशत संगठित क्षेत्र में खरीदी करने का प्रस्ताव है.इस परियोजना के लिए विश्व बैंक से सहायता प्राप्त करने की योजना है.

कृषि और सम्बध्द क्षेत्रों को बढावा देने के लिए सरकार ने 11वीं योजना के दौरान 25,000 करोड़ रुपए के भारी निवेश से राष्ट्रीय कृषि विकास योजना नाम से एक नई योजना शुरू की है.उन सभी गतिविधियों को जो एएचडी एंड एफ (पशुधन विकास, डेयरी एवं मत्स्यपालन) क्षेत्रों के विकास को आगे बढाने का कार्य करती हैं उन्हें राज्य योजना के तहत 100 प्रतिशत अनुदान दिया जाता है.बशर्ते राज्य सरकार ने कृषि एवं सम्बध्द क्षेत्रों के लिए बजट में आवश्यक आबंटन किया गया हो.आशा है कि इससे इस क्षेत्र में ज्यादा लोगों की भागदारी होगी और 11वीं योजना में एएचडी एंड एफ क्षेत्र के लिए कुल मिलाकर 6-7 प्रतिशत वार्षिक का लक्ष्य प्राप्त करने में मदद मिलेगी, जिसमें डेयरी क्षेत्र का योगदान 5 प्रतिशत और मांस क्षेत्र का योगदान 10 प्रतिशत रहने की आशा है.इन सभी गतिविधियों के फलस्वरूप आशा की जा सकती है कि भारत के विश्व के डेयरी क्षेत्र में एक प्रमुख देश के रूप में उभरेगा.
(लेखक पशुपालन, डेयरी एवं मत्स्यपालन विभाग में संयुक्त सचिव हैं)


गार्गी परसाई
वर्ष 2015 कृषि क्षेत्र के लिए एक चुनौतीपूर्ण साल था। देश के कई हिस्‍सों में रुखे मौसम और सूखे के कारण किसानों के लिए यह परेशानियों का लगातार दूसरा वर्ष था, जिसने जलवायु परिवर्तन के मुद्दे के तत्‍काल समाधान की आवश्‍यकता को रेखांकित किया। इनका दुष्‍प्रभाव इसके बाद के वर्ष में भी दृष्‍टिगोचर हो रहा है, क्‍योंकि वर्तमान गेहूं की रबी बुआई पिछले वर्ष की तुलना में 20.23 लाख हेक्‍टेयर कम हुई है, दालों और सब्‍जियों के दाम लगातार ऊंचे बने हुए हैं।
दक्षिण-पश्‍चिमी मानसून इससे पिछले वर्ष में 12 प्रतिशत की कमी के बाद 2015 में लंबी अवधि औसत के सामान्‍य स्‍तर से 14 प्रतिशत कम रहा, जिसका असर खरीद फसलों पर पड़ा। इसके बाद जो उत्‍तर-पूर्वी मानसून आया, वह तमिलनाडू एवं आस-पास के क्षेत्रों में भारी विनाश का कारण बना। इससे वहां अभूतपूर्व बाढ़ का संकट आया, जिसने पूरी तरह धान एवं नकदी फसलों को बर्बाद कर दिया।
दाल एवं तिलहनों का उत्‍पादन पिछले कई वर्षों से मांग की तुलना में लगातार कम होता रहा है। इस साल अनाजों के उत्‍पादन को लेकर बड़ी चिंताएं बनी हुई है हालांकि वर्तमान में देश में खाद्यान अधिशेष मात्रा में है पर विशेषज्ञ राष्‍ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली में कम से कम 62.5 मिलियन टन सब्‍सिडी प्राप्‍त खाद्यान्‍न मुहैया कराए जाने की कानूनी प्रतिबद्धता की ओर ध्‍यान दिलाते हैं। यही कारण है कि देश के किसान अच्‍छी फसल अर्जित करने के लिए बेहतर मौसम स्‍थितियों को लेकर अभी से चिंताग्रस्‍त है। चूंिक अभी भी बुआई का काम चल ही रहा है, इसलिए उम्‍मीदें बनी हुई है।
इस वर्ष कम नौ राज्‍यों ने सूखाग्रस्‍त जिलों की घोषणा की है। ये हैं कर्नाटक, छत्‍तीसगढ, मध्‍य प्रदेश, महाराष्‍ट्र, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, उत्‍तर प्रदेश, तेलंगाना एवं झारखंड। तमिलनाडू में अधिकांश जिलें तो इस वर्ष बाढ़ से बुरी तरह ग्रस्‍त रहे हैं। 2014-15 के दौरान भी हरियाणा, महाराष्‍ट्र, कर्नाटक एवं आंध्र प्रदेश के कई जिलें सूखे की चपेट में रहे थे।  
2014-15 में खाद्यान्‍न उत्‍पादन का चौथा अग्रिम अनुमान 252.68 मिलियन टन का था, जो 2013-14 से 265.04 मिलियन टन के उत्‍पादन से 12.36 मिलियन टन कम है। ऐसा गेहूं के उत्‍पादन में 6.19 मिलियन टन की गिरावट की वजह से है। चावल का उत्‍पादन भी थोड़ा कम रहा था। दालों का उत्‍पादन 2014-15 में 19.24 मिलियन टन से कम होकर 17.20 मिलियन टन रह गया, जिसकी वजह से इन खाद्य वस्‍तुओं की कीमतों में अभूतपूर्व तेजी का संकट उत्‍पन्‍न हो गया। उदाहरण के लिए अरहर की कीमतें एक साल पहले के 75 रुपए प्रति किलोग्राम से उछल कर 199 रुपए प्रति किलोग्राम तक पहूंच गई और अभी भी ये कीमतें नियंत्रण के बाहर हैं। न केवल अरहर, उरद की कीमतें बल्‍कि खुदरा बाजार में लगभग सभी प्रमुख दालों की कीमतें वर्तमान में भी लगभग 140 रुपए प्रति किलोग्राम के आस-पास बनी हुई हैं। तहबाजारियों और कालाबाजारियों पर अंकुश लगाने के सरकार के प्रयासों के अपेक्षित नतीजे अभी भी नहीं दिख रहे हैं।
वर्ष के दौरान सरकार ने प्रमुख दालों के न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य में 275 रुपए प्रति क्‍विंटल की बढ़ोतरी की है। सरकार को इस वर्ष प्‍याज एवं दालों के लिए बार-बार बाजार में हस्‍तक्षेत्र करने को बाध्‍य होना पड़ा है। केवल नियमित सब्‍जियों एवं फलों की बात न करें, आलू और टमाटर तक की कीमतें इस वर्ष आसमान छूती रही है। मौसम के प्रारंभ में मटर की कीमतें 110 रुपए प्रति किलोग्राम के उच्‍च स्‍तर पर चली गई थी।
स्‍थिति पर नियंत्रण करने के लिए सरकार ने 500 करोड़ रुपए की एक संचित राशि के साथ एक मूल्‍य स्‍थिरीकरण कोष की स्‍थापना की है। इस वर्ष कुछ फंड ऐसे राज्‍यों में दालों की सब्‍सिडी प्राप्‍त बिक्री के लिए जारी किए गए थे, जिन्‍होंने सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लाभार्थियों को किफायती दरों पर दाल मुहैया कराने के लिए अन्‍वेषक योजनाएं प्रस्‍तुत की थी।
यह देखते हुए कि 2015-16 के लिए उत्‍पादन अनुमान अभी भी 2013-14 की बंपर फसल की तुलना में कम है, सरकार ने अरहर एवं उरद दालों के लिए 1.5 लाख टन का बफर स्‍टॉक सृजित करने का फैसला किया है, जिसे बाजार दरों पर सीधे किसानों द्वारा प्राप्‍त किया जाएगा।
सूखे की परेशानी को कम करने के लिए सरकार ने कई कदम उठाए हैं, जिनमें महज 33 फीसदी की तुलना में अब 50 फीसदी तक नष्‍ट फसल क्षेत्र पर विचार करना तथा राहत राशि में 50 की बढोतरी करना शामिल है।
बताया जाता है कि महाराष्‍ट्र के मराठवाड़ा क्षेत्र, जो पिछले 4 वर्षों से सूखे की मार झेल रहा है, में इस वर्ष परेशान किसानों द्वारा सबसे अधिक आत्‍महत्‍या किए जाने की खबरे आई हैं। केंद्र सरकार ने महाराष्‍ट्र को 3050 करोड़ रुपए की सूखा राहत राशि मुहैया कराई है। मध्‍य प्रदेश को 2033 करोड़ रुपए, कर्नाटक को 1540 तथा छत्‍तीसगढ़ को 1672 करोड़ रुपए की सूखा राहत राशि मुहैया कराई गई है। यह राशि राष्‍ट्रीय आपदा राशि कोष से मुहैया कराई जाएगी। केंद्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह ने सूखा राहत राशि के सुस्‍त क्रियान्‍वयन के लिए तथा मांग ज्ञापन भेजने में देरी के लिए राज्‍यों को जिम्‍मेदार ठहराया है, जिसके कारण किसानों की परेशानियां बढ़ीं। मंत्री महोदय ने कहा कि क्रियान्‍वयन राज्‍यों के हाथों में है। इस वर्ष रबी की निम्‍न बुआई में कृषि मंत्री को आकस्‍मिकता योजना तैयार करने को तथा प्रभावित क्षेत्र में बीजों एवं उर्वरकों को भेजने की स्‍थिति के लिए तैयार रहने को प्रेरित किया। पिछले वर्ष मानसून में औसत कमी 14 प्रतिशत की थी, जबकि पंजाब और हरियाणा में यह 17 प्रतिशत थी। हालांकि इन राज्‍यों में सिंचाई की सुविधाएं तो हैं, लेकिन फसल पूर्व रुखे मौसम में खरी फसलों को नुकसान पहुंचाया।

निम्‍न उत्‍पादकता की समस्‍या को दूर करने के लिए सरकार ने बड़े पैमाने पर मृदा स्‍वास्‍थ्‍य कार्ड योजना लागू की है। इस योजना का लक्ष्‍य अगले तीन वर्षों में 14.40 करोड़ किसानों को कार्ड मुहैया कराना है। सरकार ने इस परियोजना के लिए 568.54 करोड़ रुपए आवंटित किया है। यह कार्ड किसानों को उसकी मिट्टी में पोषकता की कमी एवं उर्वरक के उपयोग से संबंधित अनुमान प्राप्‍त करने में सक्षम बनाएगा। किसानों को इसके तहत एक सलाह भी दी जाएगी कि किस फसल पर कितनी मात्रा में उर्वरक आदि का उपयोग किया जा सकता है।
जैविक खेती पर अपने फोकस के साथ सरकार ने परंपरागत कृषि विकास योजना की शुरुआत की है, जो क्‍लस्‍टर खेती को प्रोत्‍साहित करता है, जैविक खाद्य के लिए सब्‍सिडी को 100 रुपए प्रति हेक्‍टेयर से बढ़ाकर 300 रुपए कर दिया गया था।
भारत की कृषि का लगभग 60 प्रतिशत हिस्‍सा प्रति वर्ष पर्याप्‍त एवं सही समय पर वर्षा होने पर निर्भर है और हाल के सूखों ने खेती के लिए सिंचाई की सुविधा बढ़ाने की जरूरत पर और ज्‍यादा बल दिया है। इसी के मद्देनजर सरकार ने पिछले वर्ष प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना की शुरुआत की, जिसका लक्ष्‍य अधिक से अधिक हेक्‍टेयर जमीन को सिंचाई के अंतर्गत लाना है। इसके लिए लगभग 5300 करोड़ का बजट आवंटन किया गया जिसमें त्‍वरित एकीकृत लाभ कार्यक्रम के लिए कोष शामिल है। कृषि मंत्रालय का कहना है कि इस कार्यक्रम के अंतर्गत ड्रिप एवं छिड़काव परियोजना के तहत लगभग 1.55 लाख हेक्‍टेयर क्षेत्र शामिल कर लिए गए हैं।
फसल बीमा एवं किसानों की आय बढ़ाने की लंबे समय से मांग की जाती रही है। पिछले वर्ष के दौरान जहां अनाजों, दालों एवं तिलहनों के न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य में उल्‍लेखनीय वृद्धि की गई वहीं एक उचित फसल बीमा योजना की कमी अभी भी महसूस की जा रही है। संसद में सूखे पर एक बहस में जवाब देते हुए श्री राधा मोहन सिंह ने घोषणा की है कि सरकार जल्‍द ही एक फसल बीमा योजना लाएगी, जिसमें किसानों पर उच्‍च प्रीमियम का बोझ नहीं पड़ेगा और यह फसल नुकसान के आकलन में भी ज्‍यादा सटीक होगी।
बाजारों एवं बाजारों से संवेदनशील जानकारियां किसानों को उनकी उपज के लिए बेहतर मूल्‍य दिलाने में सहायक हो सकती हैं। इसके लिए सरकार एक राष्‍ट्रीय कृषि बाजार की स्‍थापना करने की योजना बना रही है, जो किसानों को ई-मार्केटिंग के जरिए किसी भी बाजार में उनकी उपज को बेचने में सक्षम बनाएगा।
वर्ष के दौरान मंत्रालय ने किसानों को अधिकार संपन्‍न बनाने के लिए कई मोबाईल एप्‍लीकेशन लांच किए। फसल बीमा एप्‍लीकेशन किसानों को बीमा कवर एवं उन पर लागू होने वाली प्रीमियम के बारे में जानकारी देने में मददगार होगा। ‘एग्रीमार्केट मोबाईल’ किसानों को 50 किलोमीटर की परिधि भीतर मंडी में फसलों के बाजार मूल्‍य को प्राप्‍त करने में सक्षम बनाएगा।
परिक्षेत्रों में मोबाईल एवं कनेक्‍टिविटी की कमी की समस्‍या को दूर करने के लिए कृषि मंत्रालय ने मोबाईल प्‍लेटफॉर्म के जरिए अपनी सभी सेवाओं को उपलब्‍ध कराने का फैसला किया है। दो करोड़ से अधिक किसान फसलों एवं मौसम के बारे में एसएमएस दिशानिर्देश प्राप्‍त करने के लिए ‘एमकिसान पोर्टल’ के उपयोग के लिए मंत्रालय के साथ पंजीकृत हो चुके हैं।
बहरहाल, इस तथ्‍य को अस्‍वीकार नहीं किया जा सकता है कि मौसम की स्‍थितियां आज भी कृषि विकास एवं समृद्धि के लिए सबसे आवश्‍यक कारकों में से एक है, खासकर आने वाले वर्ष में, जब फसल उत्‍पादन, उपलब्‍धता एवं मूल्‍य में बढोतरी की चिंताएं सबसे अधिक हैं। 2015 में जहां बागवानी एवं मत्‍स्‍य पालन क्षेत्रों में मजबूती बनी रही, लगातार खराब मौसम के कारण कृषि क्षेत्र की वृद्धि में गिरावट आई।
(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं)         


भारत सरकार के उर्वरक विभाग ने पिछले एक वर्ष के दौरान अनेक पहल शुरू की हैं। इन पहलों का उद्देश्‍य देश में उर्वरकों के उत्‍पादन को बढ़ावा देने और उन्‍हें समय पर किसानों को उपलब्‍ध कराने के लिए काम करना है।

नई यूरिया नीति-2015 – सीसीईए के निर्णय के आधार पर उर्वरक विभाग ने 25 मई, 2015 को नई यूरिया नीति-2015 (एनयूपी-2015) अधिसूचित की है, जिसका उद्देश्‍य देश में यूरिया का उत्पादन अधिकतम करने, यूरिया के उत्पादन में ऊर्जा की दक्षता को बढ़ावा देना और सरकार पर सब्सिडी का भार न्यायसंगत करना है। यह उम्‍मीद है कि तीन वर्ष की अवधि के दौरान घरेलू यूरिया क्षेत्र ऊर्जा दक्षता के मामले में वैश्विक रूप से प्रतिस्‍पर्धात्‍मक हो जाएगा। वास्‍तविक ऊर्जा खपत और वर्तमान मानदंडों के आधार पर यूनिटों को तीन समूहों में विभाजित किया गया है और अगले तीन वित्‍तीय वर्षों के लिए संशोधित ऊर्जा खपत मानदंड निर्धारित किये गये हैं। इसके अलावा वर्ष 2018-19 के लिए ऊर्जा मानदंडों का भी लक्ष्‍य रखा गया है। इससे यूरिया इकाइयों को बेहतर प्रौद्योगिकी का चयन करने और ऊर्जा की खपत घटाने के विभिन्‍न प्रयास करने में मदद मिलेगी। उपरोक्‍त प्रयासों के कारण उच्‍च ऊर्जा दक्षता से सब्सिडी बिल कम करने में मदद मिलेगी। यह उम्‍मीद है कि सरकार का सब्सिडी भार दो तरीकों से कम हो जाएगा-निर्दिष्‍ट ऊर्जा खपत मानदंडों में कटौती और अधिक घरेलू उत्‍पादन के कारण आयात में कमी आना। उम्‍मीद है कि नई यूरिया नीति से अगले तीन वर्षों के दौरान 1.7 लाख मीट्रिक टन अतिरिक्‍त वार्षिक उत्‍पादन प्राप्‍त होगा।

यूरिया पर नीम की कोटिंग- उर्वरक विभाग की 25 मई 2015 की अधिसूचना के द्वारा यूरिया के सभी देसी उत्‍पादकों के लिए यह आवश्‍यक बना दिया गया है कि वे अपने रियायती यूरिया का शतप्रतिशत उत्‍पादन नीम कोटिंग यूरिया के रूप में करें, क्‍योंकि एनसीयू को औद्योगिक उद्देश्‍यों के लिए प्रयुक्‍त नहीं किया जा सकता। इसलिए रियायती यूरिया का गैर-कानूनी उपयोग संभव नहीं होगा। सरकार का गैर-कृषि उद्देश्‍यों के लिए यूरिया के गैर-कानूनी दिक्‍परिवर्तन पर रोक लगाने का उद्देश्‍य सब्सिडी में हेराफेरी को रोकना है।

नई निवेश नीति (एनआईपी)-2012- सरकार ने यूरिया क्षेत्र में नये निवेश को प्रोत्‍साहित करने तथा यूरिया क्षेत्र में भारत को आत्‍मनिर्भर बनाने के लिए 02 जनवरी, 2013 को नई निवेश नीति-2012 अधिसूचित की थी। इसके बाद एनआईपी-2012 में विभाग ने 07 अक्‍टूबर, 2014 को संशोधन अधिसूचित किया, जिसमें यह प्रावधान शामिल किया गया कि ‘केवल वे इकाइयां जिनका उत्‍पादन इस संशोधन के अधिसूचित होने के दिनांक से 5 वर्षों के भीतर शुरू हो जाता है, वे इस नीति के अंतर्गत आएंगी। सब्सिडी उत्‍पादन शुरू होने की तिथि से 8 वर्षों की अवधि के लिए वर्तमान रूप में केवल घरेलू बिक्री पर ही दी जाएगी। इसके बाद इकाइयां उस समय प्रचलित यूरिया नीति द्वारा नियंत्रित होंगी।’
      कथित नीति के अनुसार एनआईपी-2012 के तहत परियोजना प्रस्‍ताव की गंभीरता और विश्‍वसनीयता सुनिश्चित करने और परियोजनाओं के समय पर निष्‍पादन के लिए सभी परियोजना प्रस्‍ताव से प्रत्‍येक परियोजना के लिए 300 करोड़ रुपये की बैंक गारंटी (बीजी) जमा करवाना जरूरी होगा। एलएसटीके/ईपीसीए ठेकेदारों को अंतिम रूप देने के बाद 100 करोड़ रुपये की बैंक गारंटी जारी कर दी जाएगी और अग्रिम राशि ठेकेदार के खाते में जारी कर दी जाएगी। 100 करोड़ रुपये की बैंक गारंटी के आदेश दिए गए उपकरणों को पूरा करने और उनकी कार्य स्‍थल या परियोजना चरण के मध्‍यबिंदु पर आपूर्ति करने पर जारी कर दी जाएगी तथा 100 करोड़ रुपये की बकाया बैंक गारंटी परियोजना के पूरी होने पर वापस की जाएगी। सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों को बैंक गांरटी जमा करने से छूट है।

नेफ्था से फीड स्‍टॉक के रूप में यूरिया का उत्‍पादन जारी – अधिसूचना दिनांक 17 जून 2015 के द्वारा सीसीईए के निर्णय के आधार पर उर्वरक विभाग ने तीन नेफ्था आधारित यूरिया इकाइयों – मद्रास फर्टिलाइजर लिमिटेड-मनाली, मैंगलोर फर्टिलाइजर्स एंड कैमिकल्‍स लिमिटेड-मैंगलोर और सदर्न पेट्रोकैमिकल्‍स इंडस्‍ट्रीज कारपोरेशन-तूतीकोरिन को उत्‍पादन जारी रखने की अनुमति दी गई है। इन संयंत्रों में उत्‍पादन पाइप लाइन या अन्‍य किसी माध्‍यम से गैस की आपूर्ति सुनिश्चित होने तक जारी रहेगा।

नामरूप (असम) में 8.6 एलएमटीटीए  यूरिया संयंत्र की स्‍थापना – केन्‍द्रीय मंत्रिमंडल ने 21 मई, 2015 को आयोजित अपनी बैठक में निजी भागीदारी (परियोजना में 52 इक्विटी के लिए सार्वजनिक/निजी क्षेत्र से बोलियां आमंत्रित करके) के आधार पर बीबीएफसीएल के वर्तमान परिसर के साथ नामरूप में 8.646 एलएमटीपीए की न्‍यूनतम क्षमता का न्‍यू ब्राउन फील्‍ड अमोनिया-यूरिया कॉम्‍पलेक्‍स स्‍थापित करने की मंजूरी दी थी। प्रस्‍तावित संयुक्‍त उपक्रम के लिए 52 इक्विटी भागीदार का चयन करने के लिए ट्रांजेक्‍शन एडवाइजर (टीए) की 13-10-2015 को नियुक्ति हुई है।

तलचर, रामागुंडम, सिंदरी, गोरखपुर और बरौनी इकाइयों का पुनरूद्धार करना- सीसीईए ने अगस्‍त, 2011 में एफसीआईएल और एचएफसीएल की सभी इकाइयों का मनोनयन और बोली प्रणाली द्वारा पुनरूद्धार करने की मंजूरी दे दी है। सीसीईए/मंत्रिमंडल के नवीनतम निर्णयों के अनुसार एफसीआईएल की तलचर और रामागुंडम इकाइयों का पुनरूद्धार मनोनयन तरीके से और एफसीआईएल की गोरखपुर तथा सिंदरी इकाइयों तथा एचएफसीएल की बरौनी इकाई का बोली के तरीके से पुनरूद्धार किया जाएगा।

क-तलचर यूनिट का पुनरुद्धार
    तलचर यूनिट का पुनरूद्धार मैसर्स राष्‍ट्रीय कैमिकल एंड फर्टिलाइजर्स लिमिटेड (आरसीएफ), मैसर्स कोल इंडिया लिमिटेड (सीआईएल) और मैसर्स गैस अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (गेल) के कंसोर्टियम द्वारा निम्‍नानुसार किया जाएगा-

  • तलचर इकाई के पुनरूद्धार के लिए पूर्व परियोजना गतिविधियां कोल फर्टिलाइजस संयंत्र की स्‍थापना के लिए प्रगति पर हैं।
  • कंसोर्टियम भागीदारों के मध्‍य समझौते ज्ञापन पर 05 नवम्‍बर, 2013 को और संयुक्‍त उपक्रम अनुबंध पर 27 अक्‍टूबर, 2015 को हस्‍ताक्षर हुए हैं।
  • संयुक्‍त उपक्रम कंपनी अर्थात राष्‍ट्रीय कोल गैस फर्टिलाइजर्स लिमिटेड की स्‍थापना की गई है। कोल गैसीकरण प्रौद्योगिकी के चयन का मामला प्रगति पर है।
  • 21 नवम्‍बर, 2015 तक एफसीआईएल की परिसंपत्तियों की कीमत लगाने और पीईएफआर की समीक्षा के लिए सीआईएल द्वारा एसबीआईसीएपी की नियुक्ति की गई है। इस परियोजना के मार्च 2019 तक पूरा होने की संभावना है।
  • इस परियोजना की 31 मार्च, 2019 तक पूरे होने की संभावना है।

ख- रामागुंडम इकाई का पुनरूद्धार
     रामागुंडम इकाई का पुनरूद्धार मैसर्स इंजीनियर्स इंडिया लिमिटेड (ईआईएल) और मैसर्स नेशनल फर्टिलाइजर्स (एनएफएल) के कंसोर्टियम द्वारा किया जाएगा। रामागुंडम इकाई के पुनरूद्धार की स्थिति इस प्रकार है –

  • संयुक्‍त उपक्रम समझौते पर 14 जनवरी, 2015 को हस्‍ताक्षर हुए।
  • संयुक्‍त उपक्रम कंपनी रामागुंडम फर्टिलाइजर्स एंड कैमिकल्‍स लिमिटेड (आरएफसीएल) 17 फरवरी, 2015 को स्‍थापना हुई।
  • विस्‍तृत व्‍यवहार्यता रिपोर्ट (डीएफआर) को 22-06-2015 को अंतिम रूप दिया गया।
  • पूर्व परियोजना गतिविधियां स्‍थल पर शुरू हो चुकी हैं।
  • टैक्‍नोलॉजी लाइसेंसर की 24-09-2015 को नियुक्ति हो गई है।
  • यह परियोजना 30-09-2018 तक पूरी होने की संभावना है।

ग- गोरखपुर और सिंदरी इकाइयां
     गोरखपुर और सिंदरी इकाइयों का पुनरूद्धार बोली आमंत्रण तरीके से किया जाएगा। गोरखपुर और सिंदरी इकाइयों के पुनरूद्धार की स्थिति इस प्रकार है –

  • मुख्‍य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) की अध्‍यक्षता में एक अधिकारी युक्‍त समिति, नीति आयोग का 27 अप्रैल, 2015 को गोरखपुर के लिए और 17-06-2015 को सिंदरी की पुनरूद्धार प्रक्रिया की समीक्षा के लिए गठन किया गया।
  • गोरखपुर और सिंदरी इकाइयों के लिए योग्‍यता के लिए अनुरोध (आरएफओ) और अभिरूचि की अभिव्‍यक्ति (ईओआई) क्रमश: 26-08-2015 और 17.09.2015 को प्रकाशित की गई।
  • पूर्व-बोली सम्‍मेलन भी क्रमश: 08-09-2015 और 10-10-2015 को आयोजित किये गए।
  • इस परियोजना के लिए आवश्‍यक भूमि की जरूरत का निर्धारण करने के लिए गोरखपुर और सिंदरी के लिए भूमि का सर्वेक्षण किया गया।
  • गोरखपुर और सिंदरी की उपयोग के योग्‍य और अनुपयोग वर्तमान परिसंपत्तियों की कीमत आंकी गई। बेहतर प्रतिक्रिया पैदा करने के लिए निवेशकों की बैठके भी आयोजित की गईं।

घ-बरौनी इकाई
एचएफसीएल की इकाई का सीसीईए द्वारा 2011 में दिए गए अनुमोदन के अनुसार बोली प्रणाली द्वारा पुनरूद्धार किया जाना है। एचएफसीएल बीआईएफआर के समक्ष है। मंत्रिमंडल ने अपनी 31 मार्च, 2015 को आयोजित बैठक में बरौनी यूनिट को एचएफसीएल से अलग करके बोली प्रणाली द्वारा पुनरूद्धार करने की मंजूरी दी। बरौनी इकाई की पुनरूद्धार स्थिति इस प्रकार है –

  • अधिकार प्राप्‍त समिति का 27 अप्रैल, 2015 को गठन किया गया।
  • इस समिति ने 31-07-2015 को आयोजित अपनी पहली बैठक में एचएफसीएल को बीआईएफआर के अधिकार क्षेत्र से अलग करने के लिए नया प्रस्‍ताव मंत्रिमंडल को भेजने के लिए डीओएफ के प्रस्‍ताव को अपनी मंजूरी दी। इस प्रस्‍ताव में इस यूनिट का बोली प्रणाली के माध्‍यम से एचएफसीएल द्वारा स्‍वयं पुनरूद्धार करने का प्रस्‍ताव भी शामिल है।
  • मंत्रिमंडल नोट को अंतर मंत्रालय परामर्श के लिए 10.09.2015 को परिपत्रित किया गया।
  • उर्वरकों की जरूरत, उपलब्‍धता और बिक्री
  • पिछले वर्षों की तुलना में देश में 2015-16 के दौरान (अप्रैल 2015 से अक्‍टूबर 2015 तक की अवधि के दौरान) यूरिया का सर्वाधिक 141.66 एलएमटी उत्‍पादन हुआ।
  • वर्ष के पिछले महीने की तुलना में अक्‍टूबर, 2015 में यूरिया का सर्वाधिक 21.58 एलएमटी उत्‍पादन हुआ।
  • पिछले तीन वर्षों की तुलना में अप्रैल 2015 से अक्‍टूबर 2015 तक की अवधि के लिए उर्वरकों की ढुलाई के लिए सबसे अधिक 10894 रेलवे रेक्‍स का विकास हुआ। 


अमित मोहन प्रसाद
उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड क्षेत्र के जिक्र से ही अधिकांश लोगों के मन में गरीबी और पिछड़ेपन की तस्वीर उभर जाती है। यह क्षेत्र अपने विशिष्ट भौगोलिक इलाके और जलवायु की परिस्थितियों के कारण कृषि के उत्पादन के साथ-साथ आर्थिक रूप से भी पिछड़ा हुआ है। बुन्देलखण्ड के उत्तर प्रदेश वाले हिस्से में झांसी और चित्रकूट डिवीजनों के 7 जिले आते हैं। इस क्षेत्र में रबी की अच्छी और अधिक कीमत वाली फसलें जैसे चना, मसूर और मटर आदि भारी मात्रा में उगाई जाती हैं, लेकिन इस क्षेत्र के किसान मुख्य रूप से केवल एक फसल पर ही निर्भर रहते हैं। खरीद के दौरान कम क्षेत्र में बुआई हो पाती है।

परंपरागत रूप से रबी के दौरान बुआई किए गए रकबे की तुलना में बुन्देलखण्ड के किसान खरीफ सीज़न के दौरान केवल लगभग 50 प्रतिशत रकबे में बुआई करते हैं। रबी के दौरान जहां फसल बुआई का कुल रकबा लगभग 18.50 लाख हेक्टेयर है। खरीफ के दौरान फसल बुआई का रकबा लगभदग 9 लाख हेक्टेयर ही रहता है। इसका मुख्य कारण यह है कि यह क्षेत्र अन्न प्रथा के कारण प्रभावित रहता है। यह एक परंपरागत प्रणाली है जिसके तहत लोग अपने दुधारू पशुओं को भी खेतों में बिना रोक-टोक के चरने के लिए छोड़ देते हैं। यह पशु फसलों को खा जाते हैं इसलिए किसान खरीफ सीजन के दौरान अपने खेतों में बुआई के इच्छुक नहीं रहते हैं। लेकिन रबी के सीज़न में यह सब नहीं होता है क्योंकि किसान अपने पशुओं को घर पर ही रखते हैं। इस घटना को समझने के लिए किसी भी व्यक्ति को बुन्देलखण्ड में प्रचलित विशिष्ट परिस्थितियों की सराहना करनी पड़ेगी। सर्वप्रथम बात यह है कि पूरा क्षेत्र परंपरागत रूप से वर्षा पर आधारित है और पानी की कमी से ग्रस्त रहता है। मानसून की अनिश्चिताओं के कारण यहां किसान अपने खेतों में फसल की बुआई करने को वरीयता नहीं देते। दूसरी बात यह है कि इस क्षेत्र में भूमि जोत का औसतन आकार राज्य के भूमि जोत की तुलना में बहुत बड़ा है क्योंकि यहां जनसंख्या का घनत्व काफी कम है। इसलिए विगत में किसानों के लिए केवल एक अच्छी फसल ही बोना संभव रहता था। लेकिन ऐसा करना लंबे समय तक संभव नहीं रहा। अब स्थिति बदल रही है क्योंकि जनसंख्या बढ़ रही है और इस क्षेत्र में भी औसत भूमि जोत का आकार काफी कम हो गया है। तीसरी बात यह है कि यह क्षेत्र वर्षा आधारित है। इसलिए गर्मी के मौसम के दौरान इस क्षेत्र में चारे की सामान्य रूप से कमी हो जाती है। इस कारण किसानों को मजबूरन अपने पशुओं को खेतों में जो भी मिले वही चरने के लिए खुला छोड़ना पड़ता है। धीरे-धीरे यह स्वीकार्य प्रथा बन गयी और किसानों ने बुन्देलखण्ड में खरीफ सीज़न के दौरान अपने खेतों में फसलों की बुआई बंद कर दी। लेकिन इतने बड़े क्षेत्र में फसलों की बुआई न होना देश के लिए एक तरह से राष्ट्रीय अपव्यय भी है।

रबी के पिछले दो सीजनों के दौरान बुन्देलखण्ड में बैमौसमी बारिश और ओलावृष्टि के कारण किसानों को 2014-15 में भारी नुकसान उठाना पड़ा। बुन्देलखण्ड में फसल बीमा के तहत किसानों की कवरेज लगभग 15 प्रतिशत है जो राज्य की औसत 4 से 5 प्रतिशत कवरेज की तुलना में काफी अधिक है लेकिन अभी भी यह प्रतिशत बहुत कम है क्योंकि इस क्षेत्र के किसान मुख्य रूप से रबी से प्राप्त आय पर ही निर्भर करते हैं। इस कारण उनके लिए यह बहुत बड़ा झटका था। राज्य सरकार ने एक विशिष्ट नीति की घोषणा की तो किसान कुछ अतिरिक्त आय जुटाने के लिए बहुत उत्सुक नज़र आए। बुन्देलखण्ड में खरीफ के दौरान तिल की खेती की संभावनाओँ को महसूस करते हुए इस क्षेत्र के किसानों के लिए अनुदान पांच गुणा बढ़ाकर 20 रुपये प्रति किलो से 100 रूपय प्रति किलों कर दिया गया था। तिल उत्पादन को बढ़ावा देने का निर्णय इस तथ्य को ध्यान में रखकर लिया गया था कि पशु इस फसल को नहीं खाते हैं। इस क्षेत्र के किसानों में वितरित करने के लिए तिल के बीजों की भारी मात्रा में खरीदारी की गयी। खरीफ के दौरान तिल के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए एक आक्रामक अभियान शुरू किया गया था। विभागीय अधिकारी, गैर-सरकारी संगठन, जिला और सम्भागीय अधिकारी और अन्य संबंधित लोगों ने तिल के अधीन रकबा बढ़ाने और पिछले वर्ष के आँकड़ों की तुलना में सामान्य रूप से अधिक रकबा लाने के लिए सक्रिय रूप से अभियान चलाया।

इसका परिणाम बहुत उत्साहजनक रहा। खरीफ 2014 की तुलना में बुन्देलखण्ड में इस वर्ष 2 लाख हेक्टेयर अतिरिक्त रकबे में बुआई की गयी जिसमें से 1.25 लाख हेक्टेयर अतिरिक्त रकबे में तिल की बुआई हुई। यह वादा किया गया था कि अगर किसान अन्न प्रथा के बावजूद इस फसल से अच्छा लाभ अर्जित करने में सफल हो जाएंगे तो वे आगे फसल की बुआई करेंगे। यह वादा अब सही सिद्ध हुआ है। स्थानीय प्रशासन के सक्रिय हस्तक्षेप के कारण ही यह संभव हो पाया है। जालौन जिले की अभी हाल में की गयी यात्रा के दौरान मैंने किसानों को प्रशासन का आभारी देखा जिसने किसानों को अपने पशुओं को दूसरों के खेतों में बे-रोकटोक चरने से रोकने के लिए रोका। जिसके परिणामस्वरूप बुआई के क्षेत्र में बढ़ोत्तरी हुई। ओरई-झांसी राजमार्ग के दोनों और कई-कई किलोमीटर तक तिल के खेतों को लहराते हुए देखना एक सुःखद अनुभव रहा। पशुओं के लिए चारे का प्रबंध करना एक महत्वपूर्ण मुद्दा है जिसका निश्चित रूप से समाधान किए जाने की जरूरत है। जिस किसान की क्रय शक्ति है वह बाजार से निश्चित रूप आवश्यक मात्रा में चारा खरीद सकता है।

तिल उत्पादन की अर्थव्यवस्था बहुत महत्वपूर्ण है। यह फसल वर्षा आधारित क्षेत्रों के लिए है। उत्पाद को बेचने के लिए बाजार की कोई कमी नहीं है। क्योंकि तिल की खेती बहुत कम देशों में की जाता है जबकि हर एक देश में इसकी किसी न किसी रूप में खपत रहती है। तिल का तेल खाना बनाने, मिठाई बनाने, मालिश करने, दवाई के रूप में और सौंदर्य प्रसाधन उद्देश्यों के साथ-साथ अन्य बहुत सी जगह प्रयोग किया जाता है। तिल के बीजों का भारत में गज़क, रेवड़ी, लड्डू और तिलकुट जैसी मिठाइयां बनाने में प्रयोग किया जाता है जबकि मध्य-पूर्व देशों में ताहिनी सॉस और पश्चिमी देशों में बन्स और बर्गरों के ऊपर लगाने में इसका प्रयोग किया जाता है। धार्मिक अवसरों पर विभिन्न अनुष्ठानों में भी इसका उपयोग किया जाता है। बाजार में किसानों को अन्य तिलहनों के मुकाबले में तिल के अधिक दाम मिलते हैं।

यह एपिसोड मुझे अलीबाबा और चालीस चोरों की कहानी की याद दिलाता है। जब अलीबाबा कहता है ‘खुल जा सिमसिम’ तो गुफा का मुंह खुल जाता है और गुफा में छिपा खज़ाना दिखाई देता है। यह बुन्देलखण्ड के लिए ‘खुल जा सिमसिम’ वाला ही क्षण हो जो बुन्देलखण्ड के लिए एक वास्तविक मोड़ है। बारिश की बहुत अधिक कमी के कारण इस वर्ष किसानों के लिए आय बहुत ज्यादा आकर्षक नहीं रही लेकिन इसने भविष्य में एक जबरदस्त आशा का संचार कर दिया है। खरीफ के दौरान कृषि की पद्धति ने इस क्षेत्र को हमेशा के लिए परिवर्तित कर दिया है।
लेखक त्तर प्रदेश के कृषि विभाग में प्रमुख सचिव हैं)

फ़िरदौस ख़ान
दुनियाभर में हर्बल पदार्थों का चलन तेजी से बढ़ रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक अमेरिका में 33 फीसदी लोग हर्बल पद्धति में विश्वास करते हैं। अमेरिका में आयुर्वेद विश्वविद्यालय खुल रहे हैं और जर्मनी, जापान, आस्ट्रेलिया, अर्जेंटीना, नीदरलैंड, रूस और इटली में भी आयुर्वेद पीठ स्थापित हो रहे हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक विश्व में 62 अरब अमेरिकी डालर के मूल्यों के हर्बल पदार्थों की मांग है और यह मांग वर्ष 2050 तक पांच ट्रिलियन अमेरिकी डालर तक पहुंचने की उम्मीद है। एक अनुमान के मुताबिक चीन द्वारा सलाना करीब 22 हजार करोड़ रुपए के औषधीय पौधों पर आधारित पदार्थों का निर्यात किया जा रहा है. रसायन और उर्वरक मंत्रालय में राज्यमंत्री श्रीकांत जेना के मुताबिक भारतीय उद्योग मानीटरिंग केन्द्र, नवंबर 2009 के अनुसार 2009-10 के दौरान औषधों की बिक्री में 8.7 प्रतिशत वृध्दि की आशा है। 2007-08 के दौरान औषध बाजार का कुल बाजार आकार 78610 करोड़ रुपए था। भावी वर्षों के लिए बाजार के आकार का कोई आधिकारिक प्राक्कलन नहीं किया गया है। लेकिन, चिंता की बात यह है कि औषधीय पौधों की बढ़ती मांग के कारण इनका अत्यधिक दोहन हो रहा है, जिसके चलते हालत यह हो गई है कि औषधीय पौधों की अनेक प्रजातियां लुप्त होने के कगार पर हैं।

औषधीय पौधों के अंधाधुंध दोहन को रोकने के लिए नवम्बर, 2000 में केन्द्र सरकार ने स्वास्थ्य मंत्रालय के तहत मेडिसनल प्लांट बोर्ड का गठन किया था। इस बोर्ड ने भारतीय जलवायु के मद्देनजर 32 प्रकार के ऐसे औषधीय पौधों की सूची बनाई है, जिनकी खेती करके किसान ज्यादा आमदनी हासिल कर सकते हैं। इस प्रकार इन औषधीय पौधें की एक ओर उपलब्धता बढ़ेगी तो दूसरी ओर उनके लुप्त होने का खतरा भी नहीं रहेगा। बढ़ती आबादी और घटती कृषि भूमि ने किसानों की हालत को बद से बदतर कर दिया है। लेकिन, ऐसी हालत में जड़ी-बूटी आधारित कृषि किसानों के लिए आजीविका कमाने का एक नया रास्ता खोलती है।

एक रिपोर्ट के मुताबिक अंतरराष्ट्रीय बाजार में आंवला, अश्वगंधा, सैना, कुरु, सफेद मूसली, ईसबगोल, अशोक, अतीस, जटामांसी, बनककड़ी, महामेदा, तुलसी, ब्राहमी, हरड़, बेहड़ा, चंदन, धीकवर, कालामेधा, गिलोय, ज्वाटे, मरूआ, सदाबहार, हरश्रृंगार, घृतकुमारी, पत्थरचट्टा, नागदौन, शंखपुष्पी, शतावर, हल्दी, सर्पगंधा, विल्व, पुदीना, अकरकरा, सुदर्शन, पुर्नवादि, भृंगराज, लहसुन, काला जीरा और गुलदाऊदी की बहुत मांग है।
भारत में हरियाणा एक ऐसा राज्य है जहां सरकार औषधीय पौधों की खेती को बढ़ावा देने पर खास जोर दे रही है। राज्य में शामलात भूमि पर औषधीय पौधे लगाए जा रहे हैं। इससे पंचायत की आमदनी में बढ़ोतरी होने के साथ-साथ किसानों को औषधीय पौधों की खेती की ओर आकर्षित करने में भी मदद मिलेगी। राज्य के यमुनानगर जिले के चूहड़पुर में चौधारी देवीलाल हर्बल पार्क स्थापित किया गया है। इसका उद्धाटन तत्कालीन राष्टपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम ने किया था।
काबिले गौर है कि डा. कलाम ने भी अपने कार्यकाल में राष्ट्रपति भवन में औषधीय पौधों का बगीचा तैयार करवाया था। हरियाणा में परंपरागत नगदी फसलों की खेती करने वाले किसानों का रुझान अब औषधीय पौधों की खेती की तरफ बढ़ रहा है। कैथल जिले के गांव चंदाना निवासी कुशलपाल सिरोही अन्य फसलों के साथ-साथ औषधीय पौधों की खेती भी करते हैं। इस समय उनके खेत में लेमन ग्रास, गुलाब, तुलसी, अश्वगंधा, सर्पगंधा, धतूरा, करकरा और शंखपुष्पी जैसे अनेक औषधीय पौधे लगे हैं। उनका कहना है कि औषधीय पौधे ज्यादा आमदनी देते हैं। गुलाब का असली अर्क तीन से चार लाख रुपए प्रति लीटर बिकता है।

आयुर्वेद की पढ़ाई कर रहे यमुनानगर जिले के गांव रुलेसर निवासी इरशाद अहमद ने अपने खेत में रुद्राक्ष, चंदन और दारूहरिद्रा के अनेक पौधे लगाए हैं। खास बात यह है कि जहां रूद्राक्ष के वृक्ष चार साल के बाद फल देना शुरू करते हैं, वहीं उनके पौधे महज ढाई साल के कम अरसे में ही फलों से लद गए हैं। इरशाद अहमद के मुताबिक रूद्राक्ष के पौधों को पालने के लिए उन्होंने देसी पद्धति का इस्तेमाल किया है। उन्होंने गोबर और घरेलू जैविक खाद को पौधों की जड़ों में डाला और गोमूत्र से इनकी सिंचाई की। दीमक व अन्य हानिकारक कीटों से निपटने के लिए उन्होंने पौधों पर हींग मिले पानी का छिड़काव किया।

रूद्राक्ष व्यापारी राजेश त्रिपाठी कहते हैं कि रूद्राक्ष एक फल की गुठली है। फल की गुठली को साफ करने के बाद इसे पालिश किया जाता है, तभी यह धारण करने योग्य बनता है। गले का हार या अन्य अलंकरण बनाने के लिए इन पर रंग किया जाता है। आमतौर पर रूद्राक्ष का आकार 1.3 से.मी. तक होता है। ये गोल या अंडाकार होते हैं। इनकी कीमत इनके मुखों के आधार पर तय होती है। अमूमन रूद्राक्ष एक से 21 मुख तक का होता है। लेकिन 1, 18, 19, 20, और 21 मुख के रूद्राक्ष कम ही मिलते हैं। असली रूद्राक्ष की कीमत हजारों से लेकर लाखों रूपए तक आंकी जाती है। इनमें सबसे ज्यादा कीमती रूद्राक्ष एक मुख वाला होता है।

रूद्राक्ष की बढ़ती मांग के चलते आजकल बाजार में नकली रूद्राक्षों की भी भरमार है। नकली रूद्राक्ष लकड़ी के बनाए जाते हैं। इनकी पहचान यह है कि ये पानी में तैरते हैं, जबकि असली रूद्राक्ष पानी में डूब जाता है। गौरतलब है कि भारतीय संस्कृति से रूद्राक्ष का गहरा संबंध है। आध्यात्मिक दृष्टि से भी इसे बहुत महत्वपूर्ण माना गया है। यहां के समाज में मान्यता है कि रूद्राक्ष धारण करने से अनेक प्रकार की बीमारियों से निजात पाई जा सकती है। रूद्राक्ष के प्राकृतिक वृक्ष उत्तर-पूर्वी भारत और पश्चिमी तटों पर पाए जाते हैं। नेपाल में इसके वृक्षों की संख्या सबसे ज्यादा है। ये मध्यम आकार के होते हैं। मई और जून के महीने में इस पर सफेद फूल लगते हैं और सितम्बर से नवम्बर के बीच फल पकते हैं। अब मैदानी इलाकों में भी इसे उगाया जाने लगा है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि औषधीय पौधों की खेती कर किसान प्रति एकड़ दो से ढाई लाख रुपए सालाना अर्जित कर सकते हैं। बस, जरूरत है किसानों को थोड़ा-सा जागरूक करने की। इसमें कृषि विभाग महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। गांवों में कार्यशालाएं आयोजित कर किसानों को औषधीय पौधों की खेती की जानकारी दी जा सकती है। उन्हें बीज व पौधे आदि उपलब्ध कराने के अलावा पौधों की समुचित देखभाल का तरीका बताया जाना चाहिए। लेकिन इस सबसे जरूरी यह है कि किसानों की फसल को सही दामों पर बेचने की व्यवस्था करवाई जाए।

फ़िरदौस ख़ान
आज जहां बंजर भूमि के क्षेत्र में लगातार हो रही बढ़ोतरी ने पर्यावरण और कृषि विशेषज्ञों के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी हैं, वहीं अरावली पर्वत की तलहटी में बसे गांवों के बालू के धोरों में उगती सब्ज़ियां मन में एक खुशनुमा अहसास जगाती हैं. हरियाणा के मेवात ज़िले के गांव नांदल, खेडी बलई, शहजादपुर, वाजिदपुर, शकरपुरी और सारावडी आदि गांवों की बेकार पड़ी रेतीली ज़मीन पर उत्तर प्रदेश के किसान सब्ज़ियों की काश्त कर रहे हैं. अपने इस सराहनीय कार्य के चलते ये किसान हरियाणा के अन्य किसानों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत बने हुए हैं.

सिंचाई जल की कमी और बालू होने के कारण कभी यहां के किसान अपनी इस ज़मीन की तरफ नजर उठाकर भी नहीं देखते थे. मगर अब यही जमीन उनकी आमदनी का एक बेहतर जरिया बन गई है. इतना ही नहीं उत्तर प्रदेश से आए भूमिहीन किसान भी इस रेतीली ज़मीन पर सब्ज़ियों की काश्त कर जीविकोपार्जन कर रहे हैं. नांगल गांव में खेती कर रहे अब्दुल हमीद करीब पांच साल पहले यहां आए हैं. उत्तर प्रदेश के फर्रूखाबाद के बाशिंदे अब्दुल हमीद बताते हैं कि इससे पहले वे राजस्थान के अलवर में खेतीबाड़ी क़ा काम करते थे, मगर जब वहां के ज़मींदारों ने उनसे ज़मीन के ज़्यादा पैसे वसूलने शुरू कर दिए तो वे हरियाणा आ गए. उनका सब्ज़ियों की काश्त करने का अपना विशेष तरीका है.

वे कहते हैं कि इस विधि में मेहनत तो ज़्यादा लगती है, लेकिन पैदावार अच्छी होती है. इन किसानों को मेवात में ज़मींदार से नौ से दस हज़ार रुपये प्रति एकड़ क़े हिसाब से छह महीने के लिए ज़मीन मिल जाती है. इस रेतीली ज़मीन पर कांटेदार झाड़ियाँ उगी होती हैं. किसानों का आगे का काम इस ज़मीन की साफ़-सफ़ाई से ही शुरू होता है. पहले इस ज़मीन को समतल बनाया जाता है और फिर इसके बाद खेत में तीन गुना तीस फुट के आकार की डेढ से दो फुट गहरी बड़ी-बड़ी नालियां बनाई जाती हैं. इन नालियों में एक तरफ़ बीज बो दिए जाते हैं. नन्हे पौधों को तेज़ धूप या पाले से बचाने के लिए बीजों की तरफ़ वाली नालियों की दिशा में पूलें लगा दी जाती हैं.

जब बेलें बड़ी हो जाती हैं तो इन्हें पूलों के ऊपर फैला दिया जाता है. बेलों में फल लगने के समय पूलों को जमीन में बिछाकर उन पर करीने से बेलों को फैलाया जाता है, ताकि फल को कोई नुकसान न पहुंचे. ऐसा करने से फल साफ भी रहते हैं. इस विधि में सिंचाई के पानी की कम खपत होती है, क्योंकि सिंचाई पूरे खेत की न करके केवल पौधों की ही की जाती है. इसके अलावा खाद और कीटनाशक भी अपेक्षाकृत कम खर्च होते हैं, जिससे कृषि लागत घटती है और किसानों को ज़्यादा मुनाफ़ा होता है.

शुरू से ही उचित देखरेख होने की वजह से पैदावार अच्छी होती है. एक पौधे से 50 से 100 फल तक मिल जाते हैं. हर पौधे से तीन दिन के बाद फल तोडे ज़ाते हैं. उत्तर प्रदेश के ये किसान तरबूज, खरबूजा, लौकी, तोरई और करेला जैसी बेल वाली सब्जियों की ही काश्त करते हैं. इसके बारे में उनका कहना है कि गाजर, मूली या इसी तरह की अन्य सब्ज़ियों के मुकाबले बेल वाली सब्ज़ियों में उन्हें ज़्यादा फ़ायदा होता है. इसलिए वे इन्हीं की काश्त करते हैं. खेतीबाड़ी क़े काम में परिवार के सभी सदस्य हाथ बंटाते हैं. यहां तक कि महिलाएं भी दिनभर खेत में काम करती हैं.

अनवारुन्निसा, शमीम बानो और आमना कहतीं हैं कि वे सुबह घर का काम निपटाकर खेतों में आ जाती हैं और फिर दिनभर खेतीबाड़ी क़े काम में जुटी रहती हैं. ये महिलाएं खेत में बीज बोने, पूलें लगाने और फल तोड़ने आदि के कार्य को बेहतर तरीके से करतीं हैं. मेवात के इन गांवों की सब्ज़ियों को गुडग़ांव, फरीदाबाद और देश की राजधानी दिल्ली में ले जाकर बेचा जाता है. दिल्ली में सब्जियों की ज्यादा मांग होने के कारण किसानों को फ़सल के यहां वाजिब दाम मिल जाते हैं. इस्माईल, हमीदुर्रहमान और जलालुद्दीन बताते हैं कि उनकी देखादेखी अब मेवात के किसानों ने भी उन्हीं की तरह खेती करनी शुरू कर दी है.

उत्तर प्रदेश के बरेली, शहजादपुर, पीलीभीत और फर्रूखाबाद के करीब 70 परिवार अकेले नगीना तहसील में आकर बस गए हैं. उत्तर प्रदेश के किसान, पंजाब, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश में जाकर भी सब्ज़ियों की काश्त करते हैं. इन किसानों का कहना है कि अगर सरकार बेकार पड़ी ज़मीन उन्हें कम दामों पर काश्त करने के लिए दे दे तो इससे जहां उन्हें ज़्यादा कीमत देकर भूमि नहीं लेनी पडेग़ी, वहीं रेतीली सरकारी ज़मीन भी कृषि क्षेत्र में शामिल हो सकेगी.

चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि बालू रेत में इस तरह सब्जियों की काश्त करना वाकई सराहनीय कार्य है. उपजाऊ क्षमता के लगातार ह्रास से ज़मीन के बंजर होने की समस्या आज देश ही नहीं विश्व के सामने चुनौती बनकर उभरी है. गौरतलब है कि अकेले भारत में हर साल छह सौ करोड़ टन मिट्टी कटाव के कारण बह जाती है, जबकि अच्छी पैदावार योग्य मिट्टी की एक सेंटीमीटर मोटी परत बनने में तीन सौ साल लगते हैं. उपजाऊ मिट्टी की बर्बादी का अंदाजा इसी बात से ही लगाया जा सकता है कि हर साल 84 लाख टन पोषक तत्व बाढ़ आदि के कारण बह जाते हैं.

इसके अलावा कीटनाशकों के अंधाधुध इस्तेमाल के कारण हर साल एक करोड़ चार लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र की उपजाऊ शक्ति नष्ट हो रही है. बाढ, लवणीयता और क्षारपन आदि के कारण भी हर साल 270 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र का बंजर होना भी निश्चित ही गंभीर चिंता का विषय है. अत्यधिक दोहन के कारण भी भू-जल स्तर में गिरावट आने से भभी बंजर भूमि के क्षेत्र में बढ़ोतरी हो रही है. विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में पिछले पांच दशकों में भू-जल स्तर के इस्तेमाल में 125 गुना बढ़ोतरी हुई है. पहले एक तिहाई खेतों की सिंचाई भू-जल से होती थी, लेकिन अब करीब आधी कृषि भूमि की सिंचाई के लिए किसान भू-जल पर ही निर्भर हैं.

वर्ष 1947 में देश में एक हजार ट्यूबवेल थे, जो 1960 में बढक़र एक लाख हो गए थे. समय के साथ-साथ इनकी संख्या में में वृध्दि होती गई. नतीजतन देश के देश के विभिन्न प्रदेशों के 360 ज़िलों के भू-जल स्तर में खतरनाक गिरावट आई है. हालत यह है कि 7928 जल मूल्यांकन इकाइयों में से 425 काली सूची में आ चुकी हैं और 673 मूल्यांकन इकाइयां अति संवेदनशील घोषित की गई हैं.

लिहाज़ा, बंजर भूमि को खेती के लिए इस्तेमाल करने वाले किसानों को पर्याप्य प्रोत्साहन मिलना और भी ज़रूरी हो जाता है.


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