फ़िरदौस ख़ान
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी / आंचल में है दूध् और आंखों में पानी। हिन्दी कविता की ये पंक्तियां पारंपरिक भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति को बखूबी बयान करती हैं। भारत में ‘यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते’ के आधार पर महिलाओं को देवी की संज्ञा देकर उनका गुणगान किया गया है। लेकिन, आधुनिक समाज में नारी का एक और रूप उभरकर सामने आया है, जहां उसे मात्र भोग की वस्तु बनाकर रख दिया गया है।

काफी हद तक इसका श्रेय विज्ञापन जगत को जाता है। मौजूदा दौर में विज्ञापनों में उत्पाद का कम और नारी काया का ज्यादा से ज्यादा प्रदर्शन कर दौलत बटोरने की होड़ मची हुई है।

पुरुषों के द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली शेविंग क्रीम, अंत:वस्त्र, सूट के कपड़े, जूते, मोटर साइकिल, तम्बाकू, गुटखा, सिगरेट और शराब तक के विज्ञापनों में नारी को दिखाया जाता है। जबकि, यहां उनकी कोई जरूरत नहीं है। इन वस्तुओं का इस्तेमाल मुख्यत: पुरुषों द्वारा किया जाता है। इसके बावजूद इसमें नारी देह का जमकर प्रदर्शन किया जाता है। इसके लिए तर्क दिया जाता है कि विज्ञापन में आर्कषण पैदा करने के लिए नारी का होना बेहद जरूरी है, यानी पुरुषों को गुमराह किया जाता है कि अगर वे इन वस्तुओं का इस्तेमाल करेंगे तो महिलाएं मधुमक्खी की तरह उनकी ओर खिंची चली आएंगी।

ऐसा नहीं है कि विज्ञापन में नारी देह के प्रदर्शन से उत्पाद की श्रेष्ठता और उसके टिकाऊपन में सहज ही बढ़ोतरी हो जाती है या उसकी कीमत में इजाफा हो जाता है। दरअसल, इस प्रकार के विज्ञापन कामुकता को बढ़ावा देकर समाज को विकृत करने का काम करते हैं। शायद इसका अंदाजा उत्पादक विज्ञापनदाताओं को नहीं है या फिर वे लोग इसे समझना ही नहीं चाहते। आज न जाने कितने ही ऐसे विज्ञापन हैं जिन्हें परिवार के साथ बैठकर नहीं देखा जा सकता। अगर किसी कार्यक्रम के बीच ‘ब्रेक’ में कोई अश्लील विज्ञापन आ जाए तो नजरें शर्म से झुक जाती हैं। परिजनों के सामने शर्मिंदगी होती है। विज्ञापन क्षेत्र से जुड़े लोगों का मानना है कि विज्ञापन को चर्चित बनाने के लिए कई चौंकाने वाली कल्पनाएं गढ़ी जाती हैं।

यह माना जा सकता है कि आज विज्ञापन कारोबार की जरूरत बन गए हैं। लेकिन, इसका यह भी मतलब नहीं कि अपने फायदे के लिए महिलाओं की छवि को धूमिल किया जाए। निर्माताओं को चाहिए कि वे अपने उत्पाद को बेहतर तरीके से उपभोक्ताओं के सामने पेश करें। उन्हें उत्पाद की जरूरत के साथ ही उसके फायदे, गुणवत्ता और विशेषता बताएं। लेकिन, निर्माताओं की मानसिकता ही आज बदल गई है। उन्हें लगता है कि वे विज्ञापनों में माडल को कम से कम कपड़े पहनवा कर ही अपने उत्पाद को लोकप्रिय बना सकते हैं। लेकिन, हकीकत में ऐसा कतई नहीं है।

पश्चिम में हुए कई सर्वेक्षणों से यह साबित हो चुका है कि सामान्य दृश्यों वाले विज्ञापन ही उपभोक्ताओं और उत्पाद के बीच बेहतर तालमेल स्थापित करते हैं। दुनिया के बड़े मनोवैज्ञानिक विशेषज्ञों में एक ब्रैंड बुशमन ने अपने अध्ययन में पाया है कि टेलीविजन शो के हिंसक और कामुकता भरे विज्ञापन के प्रदर्शन से विज्ञापित उत्पाद का कोई बेहतर प्रचार नहीं हो पाता। अगर विज्ञापन में खूनखराबे वाले दृश्य हों तो दर्शकों को विज्ञापित उत्पाद का नाम तक याद नहीं रहता। यही हाल यौन प्रदर्शन वाले विज्ञापनों का पाया गया है। आथोवा स्पेस विश्वविद्यालय के स्नातक की छात्रा एंजालिका बआंनक्सी ने हिंसा और यौन प्रदर्शन वाले विज्ञापनों के दर्शकों को 40-45 मिनट तक ऐसे विज्ञापन दिखाए।

इन विज्ञापनों में 18 ऐसे विज्ञापन कुश्ती फेडरेशन, नाइट कल्ब और मिरैकल पेट्स जैसे हिंसक व कामुक शोज के थे। बाद में उन्हें सामान्य तटस्थता वाले विज्ञापन दिखाए गए जिनमें उत्पादों का प्रचार शामिल था। दर्शकों के आकलन में पाया गया कि हिंसा-यौन दृश्यों वाले विज्ञापनों में दर्शकों को उत्पाद का नाम याद रहने की प्रवृत्ति नगण्य पाई गई। उनके मुकाबले सामान्य तटस्थता वाले उत्पाद विज्ञापनों के आंकलन में पाया गया कि दर्शकों में उत्पादों का नाम याद रहने की क्षमता उनसे 17 फीसदी ज्यादा है। यौन दृश्यों वाले विज्ञापनों के मुकाबले सामान्य दृश्यों में निहित उत्पादों का नाम याद रखने की उनकी क्षमता 21 फीसदी अधिक देखी गई। निष्कर्ष यह रहा कि हिंसा से जुड़े विज्ञापनों में उत्पादों का नाम याद रहने की उनकी क्षमता जहां 21 फीसदी कम हो जाती है, वहीं तटस्थता के विज्ञापनों के मुकाबले में यौन विज्ञापनों में स्मरण क्षमता 17 फीसदी कम हो जाती है। इन आकलनों में ब्रांड के पहचान की कोई समस्या नहीं रखी गई थी। क्योंकि, सारे उत्पादों के नाम बराबर दिखाए जाते रहे। चाहे वे सामान्य थे, हिंसा वाले दृश्यों के थे या यौन दृश्यों वाले विज्ञापनों के थे।

यह नहीं भूलना चाहिए कि नारी को भारत में एक समय सती प्रथा के नाम पर पति के साथ चिता में जलकर मरने को मजबूर किया गया था। देवदासी प्रथा की आड़ में उनसे वेश्यावृत्ति कराई गई थी। सदियों के बाद महिलाओं में जागरूकता आई है। अब जब वे अपने सम्मानजनक अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं तो ऐसे में देह प्रदर्शन के जरिए उन्हें भोग की वस्तु के रूप में पेश करना अपमानजनक है। यह देश के सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों पर भी कुठाराघात करने के समान है।

एक अनुमान के मुताबिक भारत के करीब 40 करोड़ लोग टेलीविजन देखते हैं और हर घर में यह आठ से दस घंटे तक चलता है। यानी विज्ञापन देश की करीब आधी आबादी को सीधे रूप से प्रभावित करते हैं। इसलिए टेलीविजन पर किस तरह के विज्ञापन दिखाएं इस पर नजर रखने और नियमों की अवहेलना करने वालों के खिलाफ सख्ती बरतने की जरूरत है। बेहतर समाज के निर्माण के लिए सरकार को अपना दायित्व ईमानदारी के साथ निभाना चाहिए।


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