प्रमोद ताम्बट
दिवाली आ गई है। लच्छूराम बेहद टेन्शन में आ गए हैं, अब बत्तीसी निपोरकर खुश होना पडे़गा। दिवाली चूँकि थोकबंद खुशियों का पारम्परिक त्योहार है, इन्हें अपनी हर वक्त तनी-तनी रहने वालीं चेहरे की मास-पेशियों को ढीला छोड़कर, जबरन पाँच सौ वाट के बल्ब सा जगमगाना पडे़गा। उनकी निजी प्रगतिशीलता की विरोधी यह असंगत बात उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं। ‘‘काहे को खुश हों.......! क्यों निपोरें अपनी पीली दंतपक्ति ! क्या बारात निकल रही है हमारी!’’
    परम्परा है, पुरखों के कंधे पर सवार होकर सदियों से चली आ रही है। लाख दुःखों के बावजूद दिवाली खुशियों का त्योहार रहता चला आया है, बाप-दादे भी यही मानते चले आए  हैं........ चाहे जो हो परम्परा तो निभाना ही है........ हो लो थोड़ा सा खुश, तुम्हारे बाबा का क्या जाता है......! घरवाली लच्छूराम को समझाती हैं, मगर लच्छूराम की भी अपनी परम्पराएँ है, हमेशा धनुष की प्रत्यंचा सा तना रहना, कोई उँगली मार दे तो ‘टंकार’ और देते हैं-‘‘दें क्या रैपट खैंच के अभी!’’
    ‘कू’ कहें, ‘सू’ कहें, उनका तर्क है-‘‘राम का वनवास खत्म हुआ, राम ने लंका फतह की, राम को सीता मिली, राम अयोध्या लौटे, राम को गद्दी मिली......., तो हम क्यों खुश होवें ? क्यों घर की पुताई करवाएँ ? दफ्तर से चार दिन की छुट्टी लेकर पूरे घर का अटाला बाहर निकालें, फिर उसकी चौकीदारी करें, फिर पुताई वालों की चौकीदारी करें, अगले साल तक शर्तिया फिर गंदा होने के लिए पूरे घर में व्हाइटवाश-डिस्टेंपर, पेंट-सेंट करवाएँ, फिर फर्श साफ करते फिरें ! बैठेठाले, बिलावजह हज़ारों रुपए का चूना लगवा लें......, ऐई, पागल कुत्तों ने काटा है क्या ?’’
    ‘‘चलो पुताई मत करवाओ, खुश भी मत हो, दिवाली है, थोड़ा मुँह मीठा करने की व्यवस्था ही कर लो........!’’
    ‘‘क्यों करलें! शादी हो रहीं है क्या हमारी ? दिवाली है तो गाँठ की जमा पूँजी बनियों को दे आएँ ! जबरन सरकार पर घी, तेल, शक्कर का लोड़ बढ़ाएँ ! बेसन-मैंदे के फालतू आयटम खाएँ, पेट खराब करवाएँ। नकली मावा बनाने वालों को बढ़ावा दें, मरें। वैसे ही आजकल मोटापा, बी.पी.,शुगर, हायपरटेन्शन, गठिया, बवासीर सौ बीमारियाँ जी का जंजाल बनी हुई हैं, ये फालतू नमकीन-मिठाइयाँ खा-खिलाकर बिलावजह मुसीबत मोल ले लें। क्या डॉक्टर ने कहा है कि उल्टा-सीधा खाओ, और हमारी इन्कम बढ़ाओ, क्योंकि दिवाली है। यह भी कोई बात हुई, पाँच हज़ार साल पहले कोई बात हो गई, तो हम आज डालडा-घी का लड्डू खाएँ और बीमार पड़े। यह कहाँ की समझदारी है।’’
     ‘‘चलो, न मीठे बनो, ना मीठा खिलाओ, दो-एक जोड़ी पेंट-बुश्शर्ट ही न हो तो रेडीमेड खरीद लाओ बाज़ार से। नहा-धोकर नेक पहन लोगे तो अच्छे लगोगे।’’
    ‘‘क्यों पहने ? क्या घोड़ी पर चढ़ना है हमें ! अलमारी भरी पड़ी है कपड़ों से, मगर फिर भी नए कपड़ों का ढेर लगा लें ! अरे बाज़ार अगर कपड़ों से पटा पड़ा है तो क्या सबरा उठाकर घर ले आएँ ! दिवाली ना हुई कपड़ों का राष्ट्रीय एक्सपो हो गया। इसलिए तो कोई हाड़ तोड़ कमा नहीं रहे कि दिवाली के बहाने कपड़ा कंपनियाँ हमारे कपड़े उतार लें। दिवाली है तो क्या लूटने-ठगने, चौगूने दाम पर कपड़ा बेचकर हमारा दीवाला निकालने की छूट मिली हुई है व्यापरियों को ? क्यों जाएँ हम अपना गला कटवाने, क्या पुराना पजामा पहनकर दिवाली नहीं मनती ?’’
    ‘‘चलो कुछ मत पहनो, नंगे बैठे रहो। बच्चों के लिए सौ-पचास रुपए के फटाखे ही खरीद लाओ.........!’’
    ‘‘पटाखे ! क्या हमारी बारात में आतीशबाजी होने वाली है ! तुम्हारे इन राकेटों बम-पटाखों, सीटियों से सूराख हो गया है आसमान में, कुछ होश है ? ग्लोबल वार्मिंग से दुनिया मरी जा रही है और हम, अकेले एक दिवाली के दिन इतने आतीशी हो जाएँगे कि पूरा ब्रम्हांड भट्टी हो जाए। इस कदर पटाखा चलाऐंगे कि दूसरे ग्रह पर बैठा ‘जंतु’ भी बहरा हो जाए। पर्यावरण पर्यावरण चिल्ला-चिल्लाकर लोग मरे जा रहे हैं, और हम पर्यावरण वालों की बरसों की मेहनत पर एक घंटे में ‘टेंकरों’ पानी फेर दें। क्या ज़रूरी है कि लंका ध्वंस के समय जितना पर्यावरण प्रदूषित हुआ होगा उतना ही अब भी किया जाए ! ऐसी खुशी किस काम की ? उससे तो अच्छा है दुःखी बने घर में बैठे रहो।’’
    ‘‘चलो, कुछ मत करों। झिलमिल झिलमिल बिजली की दो चाईनीज़ झालरें ही दरवज्जे पर लटका दो। लक्ष्मी जी को पता चले कि इस घर में भी कोई रहता है !’’
    ‘‘क्यों टाँग दें ? क्या बारात आ रही है किसी की इस घर में! बिजली क्या यूनिट मिल रही है पता है ? लूट रहे हैं बिजली विभाग वाले, जैसे इनके बाप का माल हो। और फिर सुना नही ‘सेव एनर्जी’। हम दिवाली की एक रात को ही अगर सारी एनर्जी खर्च कर देंगे तो फिर साल भर क्या भाड़ झोकेंगे ? वो टाँड पर पिछले के पिछले साल के चार दीये पड़े हुए हैं, उन्हें धो-पोछकर, सोयबीन का तेल डालकर दरवज्जे के दोनों ओर एक-एक रख देंगे, एक कीचन की खिड़की पर और एक सन्डास में। हो गई रोशनी। लक्ष्मी जी जहाँ से आना चाहे आवें, कृपा करना है, करें, ना मन हो तो टाटा-बिड़ला-अम्बानी के घर जावें, हमें मतलब नहीं।’’
    घरवाली लच्छूराम के रूखेपन से नाराज़ होकर अपने काम में लग गई, बड़बड़ाती जा रही  है-‘‘और क्या, हम तो जे बैठे अपना मुँह सुजाकर, न लेना एक ना देना दो। हमें तो कछु कहना ही नइये, ज्यादा कुछ कहेंगे तो कहोगे- ‘बंद करती हो या नहीं ये दिवाली दिवाली का तमाशा, या दें कान के नीचे खैंचकर.....!’ यही है तुमाई 'प्रगतशीलता', यही है तुमाई समझदारी.......आग लगे ऐसे समझदारी को। काहे को तो रसोई का तेल दीयों में खर्च करवा रहे हो, कोई लक्ष्मी जी तुमाए लाने तो बैठी नइये उते उल्लू पे ? बिलावजह भभक रहे हो। अपने दिमाग की आग से लगे हो दुनिया को भस्म करने। आग लगे तुमाई ऐसी पढ़ाई लिखाई को जो दो मिनट खुश भी होने न दे। अरे, बच्चों की खुशी के लिए थोड़ा खुश होकर, मीठा खाकर, दो पटाखा चलाकर दिवाली मनाने से क्या तुमाई ये थोथी 'प्रगतशीलता' पाताल में चली जाएगी ?’’


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