फ़िरदौस ख़ान
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी / आंचल में है दूध् और आंखों में पानी। हिन्दी कविता की ये पंक्तियां पारंपरिक भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति को बखूबी बयान करती हैं। भारत में ‘यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते’ के आधार पर महिलाओं को देवी की संज्ञा देकर उनका गुणगान किया गया है। लेकिन, आधुनिक समाज में नारी का एक और रूप उभरकर सामने आया है, जहां उसे मात्र भोग की वस्तु बनाकर रख दिया गया है।

काफी हद तक इसका श्रेय विज्ञापन जगत को जाता है। मौजूदा दौर में विज्ञापनों में उत्पाद का कम और नारी काया का ज्यादा से ज्यादा प्रदर्शन कर दौलत बटोरने की होड़ मची हुई है।

पुरुषों के द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली शेविंग क्रीम, अंत:वस्त्र, सूट के कपड़े, जूते, मोटर साइकिल, तम्बाकू, गुटखा, सिगरेट और शराब तक के विज्ञापनों में नारी को दिखाया जाता है। जबकि, यहां उनकी कोई जरूरत नहीं है। इन वस्तुओं का इस्तेमाल मुख्यत: पुरुषों द्वारा किया जाता है। इसके बावजूद इसमें नारी देह का जमकर प्रदर्शन किया जाता है। इसके लिए तर्क दिया जाता है कि विज्ञापन में आर्कषण पैदा करने के लिए नारी का होना बेहद जरूरी है, यानी पुरुषों को गुमराह किया जाता है कि अगर वे इन वस्तुओं का इस्तेमाल करेंगे तो महिलाएं मधुमक्खी की तरह उनकी ओर खिंची चली आएंगी।

ऐसा नहीं है कि विज्ञापन में नारी देह के प्रदर्शन से उत्पाद की श्रेष्ठता और उसके टिकाऊपन में सहज ही बढ़ोतरी हो जाती है या उसकी कीमत में इजाफा हो जाता है। दरअसल, इस प्रकार के विज्ञापन कामुकता को बढ़ावा देकर समाज को विकृत करने का काम करते हैं। शायद इसका अंदाजा उत्पादक विज्ञापनदाताओं को नहीं है या फिर वे लोग इसे समझना ही नहीं चाहते। आज न जाने कितने ही ऐसे विज्ञापन हैं जिन्हें परिवार के साथ बैठकर नहीं देखा जा सकता। अगर किसी कार्यक्रम के बीच ‘ब्रेक’ में कोई अश्लील विज्ञापन आ जाए तो नजरें शर्म से झुक जाती हैं। परिजनों के सामने शर्मिंदगी होती है। विज्ञापन क्षेत्र से जुड़े लोगों का मानना है कि विज्ञापन को चर्चित बनाने के लिए कई चौंकाने वाली कल्पनाएं गढ़ी जाती हैं।

यह माना जा सकता है कि आज विज्ञापन कारोबार की जरूरत बन गए हैं। लेकिन, इसका यह भी मतलब नहीं कि अपने फायदे के लिए महिलाओं की छवि को धूमिल किया जाए। निर्माताओं को चाहिए कि वे अपने उत्पाद को बेहतर तरीके से उपभोक्ताओं के सामने पेश करें। उन्हें उत्पाद की जरूरत के साथ ही उसके फायदे, गुणवत्ता और विशेषता बताएं। लेकिन, निर्माताओं की मानसिकता ही आज बदल गई है। उन्हें लगता है कि वे विज्ञापनों में माडल को कम से कम कपड़े पहनवा कर ही अपने उत्पाद को लोकप्रिय बना सकते हैं। लेकिन, हकीकत में ऐसा कतई नहीं है।

पश्चिम में हुए कई सर्वेक्षणों से यह साबित हो चुका है कि सामान्य दृश्यों वाले विज्ञापन ही उपभोक्ताओं और उत्पाद के बीच बेहतर तालमेल स्थापित करते हैं। दुनिया के बड़े मनोवैज्ञानिक विशेषज्ञों में एक ब्रैंड बुशमन ने अपने अध्ययन में पाया है कि टेलीविजन शो के हिंसक और कामुकता भरे विज्ञापन के प्रदर्शन से विज्ञापित उत्पाद का कोई बेहतर प्रचार नहीं हो पाता। अगर विज्ञापन में खूनखराबे वाले दृश्य हों तो दर्शकों को विज्ञापित उत्पाद का नाम तक याद नहीं रहता। यही हाल यौन प्रदर्शन वाले विज्ञापनों का पाया गया है। आथोवा स्पेस विश्वविद्यालय के स्नातक की छात्रा एंजालिका बआंनक्सी ने हिंसा और यौन प्रदर्शन वाले विज्ञापनों के दर्शकों को 40-45 मिनट तक ऐसे विज्ञापन दिखाए।

इन विज्ञापनों में 18 ऐसे विज्ञापन कुश्ती फेडरेशन, नाइट कल्ब और मिरैकल पेट्स जैसे हिंसक व कामुक शोज के थे। बाद में उन्हें सामान्य तटस्थता वाले विज्ञापन दिखाए गए जिनमें उत्पादों का प्रचार शामिल था। दर्शकों के आकलन में पाया गया कि हिंसा-यौन दृश्यों वाले विज्ञापनों में दर्शकों को उत्पाद का नाम याद रहने की प्रवृत्ति नगण्य पाई गई। उनके मुकाबले सामान्य तटस्थता वाले उत्पाद विज्ञापनों के आंकलन में पाया गया कि दर्शकों में उत्पादों का नाम याद रहने की क्षमता उनसे 17 फीसदी ज्यादा है। यौन दृश्यों वाले विज्ञापनों के मुकाबले सामान्य दृश्यों में निहित उत्पादों का नाम याद रखने की उनकी क्षमता 21 फीसदी अधिक देखी गई। निष्कर्ष यह रहा कि हिंसा से जुड़े विज्ञापनों में उत्पादों का नाम याद रहने की उनकी क्षमता जहां 21 फीसदी कम हो जाती है, वहीं तटस्थता के विज्ञापनों के मुकाबले में यौन विज्ञापनों में स्मरण क्षमता 17 फीसदी कम हो जाती है। इन आकलनों में ब्रांड के पहचान की कोई समस्या नहीं रखी गई थी। क्योंकि, सारे उत्पादों के नाम बराबर दिखाए जाते रहे। चाहे वे सामान्य थे, हिंसा वाले दृश्यों के थे या यौन दृश्यों वाले विज्ञापनों के थे।

यह नहीं भूलना चाहिए कि नारी को भारत में एक समय सती प्रथा के नाम पर पति के साथ चिता में जलकर मरने को मजबूर किया गया था। देवदासी प्रथा की आड़ में उनसे वेश्यावृत्ति कराई गई थी। सदियों के बाद महिलाओं में जागरूकता आई है। अब जब वे अपने सम्मानजनक अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं तो ऐसे में देह प्रदर्शन के जरिए उन्हें भोग की वस्तु के रूप में पेश करना अपमानजनक है। यह देश के सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों पर भी कुठाराघात करने के समान है।

एक अनुमान के मुताबिक भारत के करीब 40 करोड़ लोग टेलीविजन देखते हैं और हर घर में यह आठ से दस घंटे तक चलता है। यानी विज्ञापन देश की करीब आधी आबादी को सीधे रूप से प्रभावित करते हैं। इसलिए टेलीविजन पर किस तरह के विज्ञापन दिखाएं इस पर नजर रखने और नियमों की अवहेलना करने वालों के खिलाफ सख्ती बरतने की जरूरत है। बेहतर समाज के निर्माण के लिए सरकार को अपना दायित्व ईमानदारी के साथ निभाना चाहिए।


हृदयनारायण दीक्षित
सच क्या है? सत्य का सत्य आधुनिक विज्ञान की बड़ी चुनौती है। पंथिक पुस्तकों के अनेक तथ्य विज्ञान की खोजों में सत्य नहीं निकले। लेकिन वैज्ञानिक खोजें भी अंतिम सत्य नहीं होती। भौतिक विज्ञान प्रत्यक्ष को सत्य मानता है। प्रत्यक्ष का साधारण अर्थ प्रति-अक्ष यानी आंख के सामने होता है। वैदिक साहित्य में ‘अक्ष’ का मतलब इन्द्रियां हैं। यहां आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा से प्राप्त जानकारी भी प्रत्यक्ष मानी गयी है। लेकिन भारतीय दर्शन में प्रत्यक्ष को ही सत्य नहीं माना गया है। सत्य प्राप्त की यात्रा में प्रत्यक्ष एक उपकरण है। दरअसल जो प्रत्यक्ष है, वह रूप है, रूप अस्थायी है। प्रत्येक रूप का नाम है। नाम समूह बोधक हैं व्यक्ति भी बोधक है। भैंस या गाय समूह बोधक हैं। राम-श्याम व्यक्ति बोधक हैं। लेकिन रूप की तरह नामों की भी स्थायी सत्ता नहीं है। वैज्ञानिक भौतिकवादी/मार्क्सवादी मित्र यथार्थवाद शब्द का प्रयोग करते हैं। यथार्थ भी प्रकृति के गुणों से विकसित नाम रूप की ही सत्ता है। यथार्थ ‘यथा-अर्थ’ है। जैसा रूप, गुण वैसा अर्थ। सो यथार्थ भी सत्य नहीं होता। साधारण बोलचाल की भाषा में एक शब्द चलता है वास्तव। ‘वास्तव’ यथार्थ का करीबी है लेकिन यथार्थ से गहरा है। ‘वास्तव’ नाम रूप की सत्ता के भीतर के संकेत देता है।

‘वस्तुतः’ भी ऐसा ही शब्द है। अंग्रेजी में इसे आबजेक्टिव कह सकते हैं। वस्तुतः का अर्थ वस्तुपरक होता है। वस्तुतः भी सत्य नहीं होता। वस्तुपरकता की सीमा है। यह देश काल में आबद्ध है। वास्तव और यथार्थ भी देशकाल के भीतर है। ये सब समय चक्र की चक्की में पिसते हैं। भूतकाल का यथार्थ वर्तमान काल में दूसरा हो जाता है। सत्य पर काल का प्रभाव नहीं पड़ता। वैदिक अनुभूतियों में सत्य ‘काल अबाधित सत्ता’ है। समाज जीवन में सत्य बोलने पर जोर है। लेकिन सत्य बोला नहीं जा सकता। बोलने के काम में कई क्रियाएं चलती हैं। पहला है – देखे हुए को समझना। दूसरा – समझे हुए को भाषा और शब्द फिर तीसरा है उच्चारण करना। तीनों चरणों में भारी गलतियां होती है। देखे हुए को ठीक से समझना यथार्थ है। समझ को सार्वजनीन समझ के लायक बोलना बहुत कठिन है। मैं दार्शनिक विषयों पर लिखता हूँ अपनी प्रगाढ़ समझ के बावजूद मैं सबकी समझ लायक शब्द वाक्य बनाने का प्रयास करता हूँ। लेकिन ‘यथार्थ और वास्तव’ को प्रकट नहीं कर पाता। भाषा की सीमा है। रत्नाकर जी हिन्दी के बड़े कवि ने खूबसूरत कविता में गोपियों का प्रेम वर्णन किया है नेकु कही नैननि सों/ अनेकु कही बैननि सों/रही सही सोऊ कहि दीन्ही हिचकीन सों। गोपियों ने उद्धव से श्रीकृष्ण का प्रेम बताया थोड़ा आंखों से बोलकर/थोड़ा वाणी से और शेष हिचकियों से रोकर। पूरा तो भी नहीं कह पायीं।

प्रेम अनिर्वचनीय है, अकथनीय है। प्रेम सत्य है। सत्य प्रेम है। सत्य कैसे बोला जाये? बोलना बोलने के पहले ही अर्ध्दसत्य हो जाता है। क्या मनुष्य सत्य है? बेशक वह प्रत्यक्ष है, वह वास्तविकता भी है लेकिन मनुष्य अपने आपमें अविभाज्य नहीं है। वह शिशु है, तरुण है, रुग्ण है, स्वस्थ है, वृद्ध है, मेधावी है, पराक्रमी है, वह वरिष्ठ है, कनिष्ठ है। मनुष्य कहने से आधा अधूरा बोध भी नहीं होता। बेशक मनुष्य कहने से यह पशु नहीं है, मेज, रेल या भवन नहीं है जैसे निषेध बोध होते हैं। वास्तविकता सत्य नहीं होती। वास्तविकता की समझ का उपकरण इन्द्रियां ही हैं। इन्द्रिय बोध की सीमा है। हम दूर से जिसे कुत्ता समझते हैं, निकट आने पर वही बिल्ली है, तो क्या बाद में देखी गई बिल्ली ही सत्य है? नहीं ठीक जांचने से प्राप्त बिल्ली की समझ भी अंतिम नहीं है। बिल्ली भी रूप है, समूहवाची संज्ञा है। सत्य का साक्षात्कार नितांत भिन्न घटना है। रोजमर्रा के जीवन में बोला जा रहा सत्य दरअसल सत्य न होकर यथार्थ ही है।

तब सत्य क्या है? दर्शन का जन्म सत्य की खोज में ही हुआ। प्रत्यक्ष ही सत्य होता तो दर्शन की जरूरत न होती। भारतीय ऋषि सत्य अभीप्सु थे। ईशावास्योपनिषद् यजुर्वेद का 40वाँ अध्याय है। कह सकते हैं विश्व की प्राचीनतम् उपनिषद् ईशावास्योपनिषद् और वृहदारण्यक उपनिषद् में ‘सत्य’ के दर्शन की गहन प्रार्थना है। दोनों उपनिषदों में एक साथ आए एक मंत्र में कहा गया है – हिरण्यमय पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखं। तत्त्वं पूषन्न पावृणु सत्यधर्माय दृष्टये। प्रार्थना है कि सत्य का मुंह चकाचौंध करते स्वर्ण पात्र से ढका हुआ है। हे पूषन आप इस स्वर्ण ढक्कन को हटाइए और मुझे सत्यनिष्ठ को दर्शन करवाइए। शंकराचार्य का खूबसूरत भाष्य है – जिनका चित्त स्थिर और निर्मल नहीं है। सत्य उनके लिए अदृश्य है। सत्य का मुख ढका हुआ है। हे पूषन दर्शन में रुकवाट डालने का कारण (आवरण) दूर करो। ‘स्वर्ण ढक्कन’ और ‘सत्य का मुख’ बड़े सुन्दर प्रतीक हैं। यहां स्वर्ण ढक्कन रूप हैं, नाम हैं, प्रकृति के गुण हैं। सांसारिक प्रपंच हैं। ऐसे सारे सांसारिक प्रपंचों ने हम सबकी बुध्दि को आच्छादित कर लिया है। हम यथार्थ और वस्तुतः को ही सत्य समझ बैठे हैं। आवरण सत्य के मुंह पर नहीं है। आवरण हमारी समझ पर है, हमारे बोध पर ही है। लेकिन ऋषि सत्य के मुंह पर स्वर्ण का आवरण बताकर हमारी समझ को सरल दिशा देते हैं। वरना सत्य का मुख कहां होता है? सामान्य जीवन में प्रत्येक मुख का ही अपना सत्य होता है।

सत्य प्रकृति सृष्टि का मूल कारण है। विज्ञान प्रत्येक कार्य का कोई कारण मानता है। दर्शन में भी प्रत्येक कार्य का कारण है। सृष्टि विराट ‘कार्य’ है। सृष्टि जैसा विराट कार्य बिना कारण नहीं हो सकता। शंकराचार्य ने कई जगह सृष्टि को ‘कार्यब्रह्म’ नाम दिया है और ब्रह्म को कारण ब्रह्म बताया है। उपनिषद् दर्शन में सत्य और ब्रह्म पर्यायवाची है। सत्य ही सृष्टि का मूल कारण है। प्रश्न उठता है कि तब सत्य का क्या कारण है? कार्यकारण सिध्दांत के अनुसार सत्य का भी कोई कारण होना चाहिए। उपनिषद् दर्शन के अनुसार सत्य सदा से है, वह सनातन है, चिरन्तन है, विभु है, अज है, अजन्मा है। उसका कोई कारण नहीं। वह है तो है। बाकी सब उसका विकास है। कपिल दर्शन में विकास को खूबसूरत तरीके से विकार कहा गया है। सारी दुनिया के दार्शनिक इसी सत्य की खोज में लगे रहे हैं। जिन्होंने जाना, वे परम आनंदित हुए लेकिन पूरा-पूरा कह नहीं पाये। सत्य अकथनीय है।

कठोपनिषद् (और गीता में भी) में परम तत्व को प्रवचन, विद्वता, या वेद-श्रुति के जरिए अप्राप्य बताया गया है लेकिन प्रवचन के व्यापार हैं, विद्वता के घमंड है। वेदों के उद्धरण हैं। वेद उपनिषद् संकेतक है। विश्वामित्र, वशिष्ठ, बादरायण, कपिल, बुद्ध, रामकृष्ण, कबीर, रविदास या ऐसे ही पूर्वज हम सबकी प्रेरणा हैं कि उन्होंने सत्य पाया है तो हम भी पा सकते हैं लेकिन इनके शब्दों को रटने से सत्य दर्शन की यात्रा असंभव है। भारत सत्य अभीप्सु ऋषियों पूर्वजों की धरती है। यहां सत्य के अनूठे प्रयोग हुए हैं। सत्य धर्मान् महानुभावों ने हिरण्यकोष त्यागे हैं। वे प्रत्यक्ष रूप में, वास्तव में, वस्तुतः बड़े गरीब, निर्वस्त्र साधनहीन थे लेकिन सत्यतः वे भीतर से परम समृद्ध, आनंदमगन, परिपूर्णमुक्त ऋतस्य पन्थ के यात्री थे। सत्य की अभीप्सा भारतीय संस्कृति की सनातन पूंजी है। भारत का अर्थ ही प्रकाशरत (भा-प्रकाश, रत-संलग्न) है। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ के मन्त्र में सत्य ज्योति की ही अभीप्सा है। भारत की आधुनिक पीढ़ी को सत्य और यथार्थ में फर्क करना चाहिए। नई पीढ़ी में ही भारत का भविष्य है।
(लेखक उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री रह चुके हैं)


फ़िरदौस ख़ान
भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की आपसी गुटबाज़ी पार्टी कार्यकर्ताओं की नाराज़गी का सबब बनती जा रही है। कार्यकर्ताओं को मलाल है कि वे पार्टी का जनाधार बढ़ाने में अपना ख़ून-पसीना बहा देते हैं और उनके आक़ा अपने निजी स्वार्थ के चलते ऐसे कामों को अंजाम देते हैं, जिससे जनता में पार्टी की छवि धूमिल होती है, मामला संजय जोशी सीडी कांड का हो, आडवाणी के जिन्ना प्रेम का हो या फिर जसवंत सिंह की किताब का। इन नेताओं के कारनामों का ख़ामियाज़ा जहां चुनाव में पार्टी उम्मीदवारों को भुगतना पड़ता है, वहीं जनता के बीच कार्यकर्ता भी तरह-तरह के सवालों से जूझते हैं। यह बात भी जगज़ाहिर है कि हाइप्रोफ़ाइल और जनाधारविहीन भाजपा नेता संघ से आए प्रचारक जनाधार वाले नेताओं को पार्टी से बाहर करवा देते हैं, जिससे पार्टी के जनाधार पर असर पड़ता है।
           
हाल ही में संजय जोशी सीडी कांड के बारे में हुए ख़ुलासे ने भी कार्यकर्ताओं को आहत किया है। सोहराबुद्दीन फ़र्ज़ी एनकाउंटर की जांच कर रही केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के सामने आतंक निरोधक दस्ते (एटीएस) के तत्कालीन पीआई बालकृष्ण चौबे ने कई अहम और चौंकाने वाले रहस्य उजागर किए हैं। चौबे का आरोप है कि एटीएफ़ के तत्कालीन प्रमुख बीजी बंजारा के आदेश पर संजय जोशी की अश्लील सीडी भाजपा के मुंबई अधिवेशन में बांटी गई थी। उनका यह भी कहना है कि इस सीडी में संजय जोशी की जगह सोहराबुद्दीन था। सोहराबुद्दीन के चेहरे पर संजय जोशी के चेहरे को लगाया गया था, ताकि वह संजय जोशी दिखे। चौबे का यह भी दावा है कि सोहराबुद्दीन के साथ यह सीडी बनवाने के कुछ माह बाद ही एनकाउंटर में उसकी हत्या कर दी गई, ताकि सीडी की असलियत उजागर हो सके।

गौरतलब है कि 26 नवंबर 2005 को मुंबई में आयोजित भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में पत्रकारों को अश्लील सीडी बांटी गई थीं। इस सीडी में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ नेता और गुजरात भाजपा के पूर्व महामंत्री संजय जोशी को एक महिला के साथ आपत्तिजनक स्थिति में दिखाया गया था। सीडी में महिला के चेहरे को छुपा दिया गया था। संजय जोशी ने इसे अपने ख़िलाफ़ साजिश बताते हुए मध्य प्रदेश पुलिस में शिकायत भी दर्ज करवाई थी। हैदराबाद की फ़ोरेंसिक साइंस लेबोरेट्री (एफएसएल) रिपोर्ट में संजय जोशी के चेहरे के इस्तेमाल की बात कही गई थी। यह अश्लील सीडी किसने बनाई इसका ख़ुलासा तो अभी तक नहीं हो पाया है। मगर कहा जा रहा है कि यह सीडी गुजरात में बनाई गई और इसमें दिखाई देने वाली महिला सोहराबुद्दीन की पत्नी क़ौसर बी से काफ़ी मिलती-जुलती है।

इस सीडी मामले के चलते संजय जोशी संघ और भाजपा दोनों ही जगह हाशिये पर गए। गुजरात में तो नरेंद्र मोदी ने उन्हें कभी कोई महत्व नहीं दिया, लेकिन सीडी कांड के बाद उन्हें भाजपा के संगठन मंत्री के पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा। उनका भाजपा मुख्यालय में आना-जाना कम हो गया, मगर अब संजय जोशी फिर से सक्रिय होकर अपना खोया रुतबा वापस पाना चाहते हैं। संजय जोशी के क़रीबी माने जाने वाले भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी उन्हें अपनी टीम में संगठन महासचिव बनाना चाहते थे, लेकिन पार्टी के वयोवृध्द नेता लालकृष्ण आडवाणी इसके लिए तैयार नहीं हुए। पार्टी सूत्रों का कहना है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी संजय जोशी को भाजपा के संगठन महासचिव पद पर कभी बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। इसलिए भी आडवाणी ने नितिन गडकरी को ऐसा करने से रोका। नरेंद्र मोदी ने भी संजय जोशी को संगठन महासचिव बनाए जाने का विरोध किया। नरेंद्र मोदी संघ प्रचारक संजय जोशी को पसंद नहीं करते हैं। इसकी एक वजह नरेंद्र मोदी की सियासी महत्वाकांक्षा भी है। संजय जोशी गुजरात में भाजपा के महामंत्री रहे हैं। मोदी कभी नहीं चाहते थे कि गुजरात में कोई और नेता उनका प्रतिद्वंद्वी बनकर उभरे। उन्होंने अपने विरोधियों को रास्ते से हटाने के लिए सियासी चालें चलीं और इसमें वह कामयाब भी हुए। जब संजय जोशी सीडी कांड में फंसे थे, उस वक्त भी यही अफ़वाह उड़ाई गई थी कि इसके पीछे नरेंद्र मोदी का हाथ है। संजय जोशी पर आरोप लगने के बाद रामलाल को भाजपा का संगठन महासचिव बनाकर भेजा गया था। नागपुर के बाशिंदे संजय जोशी नितिन गडकरी के सियासी आक़ा रहे हैं और उन्हें अपनी टीम में शामिल कर गडकरी ख़ुद को और मज़बूत करना चाहते थे। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा की करारी हार के बाद संघ भी चाहता था कि भाजपा में उसका कोई ऐसा प्रतिनिधि संगठन महासचिव बनकर जाए जो पार्टी को उसकी नीतियों पर लेकर चल सके। संजय जोशी ने संगठन मंत्री रहते हुए भाजपा पर संघ की नीतियों पर चलने के लिए हमेशा दबाव बनाए रखा। संजय जोशी के प्रभावशाली व्यक्तित्व के कारण पार्टी कार्यकर्ता भाजपा अध्यक्ष की बजाय उनसे मिलना ज्यादा पसंद करते थे। संजय जोशी बेहद मिलनसार, सादगी पसंद और प्रचार से दूर रहने वाले व्यक्ति हैं। संघ और भाजपा कार्यकर्ताओं के बीच वह आज भी पहले जितने ही लोकप्रिय हैं।

ग़ाौरतलब है कि जब लालकृष्ण आडवाणी जिन्ना प्रकरण के मामले में उलझे थे तो उस वक्त संजय जोशी ने उन्हें पार्टी अध्यक्ष पद से हटवाने में अहम किरदार अदा किया था। इस वजह से भी आडवाणी संजय जोशी को पसंद नहीं करते। संघ ने नितिन गडकरी को भाजपा अध्यक्ष तो बना दिया है, लेकिन वह इस बात को लेकर भी चिंतित है कि क्या आडवाणी और उनके चेले अनंत कुमार, सुषमा स्वराज, वेंकैया नायडू, अरुण जेटली उन्हें कामयाब होने देंगे। क्या राजनाथ सिंह अपनी नाकामी को स्वीकार करते हुए नितिन की राह में कांटे नहीं बोएंगे, क्योंकि राजनाथ सिंह को हटाकर ही गडकरी को भाजपा अध्यक्ष बनाया गया है। राजनाथ से संघ को जो उम्मीदें थीं, वह उस पर खरे नहीं उतर पाए। उनके पुत्र मोह ने भी पार्टी में विवादों को जन्म दिया, जिससे पार्टी को कार्यकर्ताओं की नाराज़गी झेलनी पड़ी।

दिल्ली के मुख्यमंत्री रहे मदनलाल खुराना को भी नरेंद्र मोदी और आडवाणी का विरोध करना बेहद महंगा पड़ा था। उन्होंने गुजरात दंगों के आरोपी मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को हटाने की मांग की थी। उनका कहना था कि आडवाणी पार्टी 'एयरकंडीशन कल्चर' को बढ़ावा दे रही है। उन्होंने आडवाणी को पत्र लिखकर कहा था कि जिस तरह प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने 1984 के सिख विरोधी दंगों के लिए माफ़ी मांग ली और जगदीश टाइटलर को मंत्रिमंडल से हटा दिया, उसी तरह नरेंद्र मोदी को हटाकर भाजपा को इस दाग़ को धो लेना चाहिए। खुराना का यह भी कहना था कि गुजरात दंगों के दोषी अभी भी खुले घूम रहे हैं। मोदी ने दंगों को नियंत्रित करने के बजाय उन्हें बढ़ावा दिया। इससे पहले एक पत्र लिखकर खुराना ने आडवाणी के उस बयान की कड़ी निंदा की थी, जिसमें उन्होंने पाकिस्तान के क़ायदे-आज़म मुहम्मद अली जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष बताया गया था। खुराना से नाराज़ पार्टी नेतृत्व ने अनुशासनहीनता के आरोप में 20 अगस्त 2005 को उन्हें निलंबित कर दिया। जिन्ना प्रकरण से भाजपा को काफ़ी नुक़सान पहुंचा था। साथ ही इससे पार्टी कार्यकर्ताओं में भी भम्र की स्थिति पैदा हो गई थी कि आख़िर भाजपा का एजेंडा क्या है? कहीं भाजपा भी कांग्रेस के नक्शे-क़दम पर तो नहीं चल पड़ी है? कांग्रेस की तर्ज पर वंशवाद तो पहले ही भाजपा में जड़े जमा चुका है। अब कहीं भाजपा भी हिन्दुत्व का चोला उतारकर सेकुलर तो नहीं बन गई है?

क़ाबिले-ग़ौर है कि नरेंद्र मोदी ने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल के हटाए जाने के बाद 7 अक्टूबर 2001 में सत्ता संभाली। केशुभाई पटेल गुजरात में आए भूकंप के बाद क्षेत्र में पुनर्निर्माण और पुनर्वास के कुप्रबंध के आरोप में हटाए गए थे। मोदी ने मौक़े का फ़ायदा उठाते हुए प्रदेश की सियासत में ख़ुद को स्थापित कर लिया और 2002 2007 के विधानसभा चुनाव में जीत हासिल कर अपना वर्चस्व क़ायम रखा। हालांकि गुजरात में लोकसभा चुनाव 2004 2009 में भाजपा को कोई ख़ास फ़ायदा नहीं हुआ। नरेंद्र मोदी पहली बार 1989 में लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा के दौरान अपने ज़ोरदार भाषणों के कारण चर्चा में आए थे। वे भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता महासचिव भी रह चुके हैं। नरेंद्र मोदी अति महत्वाकांक्षी हैं। गुजरात के बाद उन्होंने केंद्र में सत्ता पर क़ाबिज़ होने के अपने सपने को साकार करने के लिए रणनीति बनानी शुरू कर दी। इसी नीति के तहत नरेंद्र मोदी को वर्ष 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव के दौरान एनडीए के प्रधानमंत्री पद के संभावित उम्मीदवार के तौर पर प्रचारित किया जाने लगा। मगर भाजपा को इसका भारी नुक़सान हुआ, जहां-जहां नरेंद्र मोदी ने चुनाव प्रचार किया, वहां-वहां पार्टी को इसकी क़ीमत चुकानी पड़ी। इसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि एनडीए के घटक दल गुजरात दंगों के लिए कुख्यात मोदी को संभावित प्रधानमंत्री के तौर पर पचा नहीं पाए। इसके अलावा जनता भी अब मंदिर-मस्जिद जैसे मुद्दों से ऊब चुकी है। वह समझ चुकी है कि असल में उसे क्या चाहिए, उसकी बुनियादी ज़रूरतें क्या हैं? पिछले काफ़ी अरसे से जनता महंगाई से बेहाल है, उसे इससे निजात चाहिए। नौजवानों को रोज़गार चाहिए, बच्चों को शिक्षा चाहिए। बुज़ुर्गों को अपनी नस्लों के लिए साफ़-सुथरा माहौल चाहिए, जहां भूख, बीमारी और असुरक्षा हो। महिलाओं को अत्याचार मुक्त समाज में सम्मान से जीने का अधिकार चाहिए। पिछले लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री बनने का आडवाणी का ख्वाब तो पूरा नहीं हुआ, लेकिन यह बात भी साफ़ हो गई कि जनता नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार नहीं कर पाएगी।  

भाजपा के थिंक टैंक रहे विचारक केएन गोविंदाचार्य भी अपने विरोधियों का निशाना बने। उन्होंने 1999 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में कहा था, ''अटलजी तो भाजपा में मुखौटा भर हैं।'' गोविन्दाचार्य को इस बयान की भारी क़ीमत चुकानी पड़ी थी। वाजपेयी ने उन्हें पार्टी के महासचिव पद से हटा दिया था। बाद में उन्होंने राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन (आरएसए) नामक संगठन बना लिया। इसी साल चार अप्रैल को उन्होंने अपने ही दल आरएसए के संयोजक पद से इस्तीफ़ा दे दिया। माना जा रहा है कि उन्होंने भाजपा में वापसी की संभावनाओं के मद्देनज़र यह क़दम उठाया है।

क़ाबिले-ग़ौर है कि गोविंदाचार्य ने भाजपा को नई दिशा देने का काम किया था। उनकी नीतियों ने भाजपा को काफ़ी फ़ायदा भी हुआ था, लेकिन बाद में पार्टी ने उनके सुझावों को दरकिनार करना शुरू कर दिया। गोविन्दाचार्य के भाजपा छोड़ने के बाद पार्टी को उनकी कमी खलने लगी। लोकसभा चुनाव में खिसकते जनाधार के मद्देनज़र पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने एक बार फिर गोविन्दाचार्य को भाजपा में आने की दावत दी और उन्हें विश्वास दिलाया कि पार्टी उनकी नीतियों का सख्ती से पालन करेगी, लेकिन पार्टी के कुछ प्रभावशाली नेताओं ने गोविन्दाचार्य और उमा भारती की मुख़ालफ़त शुरू कर दी। इस दौरान गोविन्दाचार्य ने आडवाणी से मुलाक़ात कर स्थिति स्पष्ट कर दी थी कि अगर उनकी नीतियों पर सही तरीक़े से अमल होगा, तभी वह कोई सुझाव देंगे, वरना नहीं।  कहा जाता है कि राजनीति में 'सोशल इंजीनियरिंग' का फ़ार्मूला भी गोविन्दार्च का ही सुझाया हुआ है, जिस पर भाजपा ने अमल नहीं किया। अलबत्ता, बहुजन समाजवादी पार्टी की प्रमुख मायावती ने उत्तर प्रदेश के 2007 के विधानसभा चुनाव में इसे आज़माकर सत्ता हासिल कर ली। मगर भाजपा अब इस फ़ार्मूले को अपनाना चाहती है। इसलिए उसने जाति आधारित जनगणना का भी समर्थन कर डाला।

पिछले दिनों नितिन गडकरी ने भाजपा छोड़कर गए नेताओं के बारे में एक बयान देकर नया विवाद खड़ा कर दिया था। उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा था कि ''अगर भाजपा छोड़कर गए नेता प्रायश्चित कर रहे हैं तो हम उचित फ़ोरम पर विचार करेंगे।'' गडकरी से पूछा गया था कि उमा भारती, कल्याण सिंह और गोविंदाचार्य जैसे पार्टी छोड़ चुके नेताओं की वापसी कब तक मुमकिन है। इस बयान पर कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए गोविन्दाचार्य ने गडकरी को लिखे एक खुले पत्र में उन्हें आगाह किया कि पार्टी की आंतरिक कलह और गुटबाज़ी में उन्हें नहीं घसीटा जाए। उन्होंने कहा कि इससे मेरी छवि को नुक़सान पहुंचता है। उन्होंने गडकरी को वाणी में संयम बरतने की भी सलाह दी, ताकि उनकी छवि अनर्गल बोलने वाले सतही और अक्षम नेता की नहीं बने। गोविंदाचार्य ने गडकरी की ओर से पार्टी कार्य समिति के गठन पर टिप्पणी करते हुए उनकी कार्यक्षमता पर भी सवालिया निशाना लगाया। उन्होंने लिखा कि कार्य समिति की सूची से आपके रुझान और क्षमता का परिचय मिला और उस पर मैं कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता हूं। अध्यक्ष बनते वक्त भी आपने उमा भारती और कल्याण सिंह के साथ मेरा नाम बिना ज़रूरत लिया था। उन्होंने कहा कि मैं तो पार्टी से निष्कासित किया गया और ही पार्टी से इस्तीफ़ा दिया। नौ सितंबर 2000 को मैं अध्ययन अवकाश पर गया और 2003 के बाद मैंने भाजपा की प्राथमिक सदस्यता का पुन: नवीकरण नहीं कराया और स्वयं को पार्टी से मुक्त कर लिया।

उमा भारती की भाजपा में वापसी के क़यास भी लगते रहे हैं। मगर उमा भारती ने इससे इंकार करके इन ख़बरों पर कुछ वक्त क़े लिए विराम ज़रूर लगा दिया है। जानकारों का मानना है कि उमा भारती और गोविन्दाचार्य पार्टी में कोई बड़ी ज़िम्मेदारी मिलने पर ही वापसी कर सकते हैं। ग़ौरतलब है कि महत्वाकांक्षी संन्यासिन उमा भारती भाजपा के कद्दावर नेता प्रमोद महाजन, अरुण जेटली और अनंत कुमार की तिगड़ी का शिकार बनीं थीं। उनको भाजपा से निकलवाने में सुषमा स्वराज की भी अहम भूमिका मानी जाती रही है। जानकारों का कहना है कि उमा भारती के रहते सुषमा स्वराज को भाजपा में वह दर्जा कभी नहीं मिल सकता था, जो वह चाहती थीं। उमा भारती तेज़ तर्रार वक्ता हैं और सुषमा स्वराज भी अच्छी वक्ता मानी जाती हैं। भाजपा ने अयोध्या के राम जन्मभूमि आंदोलन के दौरान सांप्रदायिक भाषण देने के लिए उमा भारती का ख़ूब इस्तेमाल किया। इस आंदोलन से प्रचार में आईं उमा भारती ने सत्ता में क़िस्मत आज़माने का फ़ैसला किया और 1984 में खजुराहो से अपना पहला संसदीय चुनाव लड़ा, लेकिन कांग्रेस की लहर उनकी जीत के रास्ते में रोड़ा बन गई। मगर 1989 में वे इसी सीट से चुनाव जीतकर लोकसभा में पहुंच गईं। इसके बाद 1991, 1996 और 1998 के लोकसभा चुनाव में जीतकर यह साबित कर दिया कि वह सियासत करनी भी जानती हैं। वर्ष 1999 के चुनाव में उन्होंने भोपाल से क़िस्मत आज़माई। अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने मंत्रिमंडल में उन्हें जगह दी। उमा भारती ने राज्यमंत्री के तौर पर मानव संसाधन मंत्रालय, पर्यटन मंत्रालय, युवा एवं खेल मामलों की मंत्री और कोयला मंत्रालय में काम किया। उमा भारती की अगुवाई में भाजपा ने वर्ष 2003 में मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव लड़ा और पार्टी 231 विस सीटों में से 116 सीटें जीतकर सत्ता पर क़ाबिज़ हुई। उमा भारती दिसंबर 2003 में मध्य प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं। मगर कर्नाटक में सांप्रदायिक दंगे भड़काने के आरोप के कारण उन्हें 23 अगस्त 2004 को अपने पद से त्याग-पत्र देना पड़ा। इसके बाद भाजपा ने बाबू लाल गौड़ को मुख्यमंत्री बना दिया। बाद में 29 नवंबर 2005 को बाबू लाल गौड़ से कुर्सी छीनकर शिवराज सिंह चौहान को सत्ता सौंप दी गई। हालांकि मुख्यमंत्री पद से हटने के कुछ वक्त बाद ही उमा भारती अपने ऊपर पर लगे आरोपों से बरी हो गईं, लेकिन उन्हें वापस उनकी कुर्सी नहीं मिली। इस दौरान उमा भारती के विरोधियों ने उन्हें सत्ता से दूर रखने के लिए हरसंभव कोशिश की। हालांकि उमा भारती ने 'साम-दाम-दंड-भेद' की नीति तक अपनाई, मगर उन्हें कामयाबी नहीं मिल पाई। हालत यह हो गई कि उमा भारती ने भाजपा की बैठक के दौरान ही लालकृष्ण आडवाणी और पार्टी अध्यक्ष को खरी-खोटी सुना डाली और बाद में अनुशासनहीनता के आरोप में 5 दिसंबर 2005 को उन्हें पार्टी से निलंबित कर दिया गया। भाजपा से बाहर होने के बाद 30 अप्रैल 2006 को उमा भारती ने 'भारतीय जन शक्ति पार्टी' नाम ने अपनी अलग सियासी पार्टी बना ली थी। मगर 15वीं लोकसभा के चुनाव में उमा भारती ने एनडीए के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी को समर्थन देकर भाजपा में वापसी की संभावनाओं को हवा दे दी।

दरअसल, संघ चाहता है कि भाजपा छोड़कर गए वरिष्ठ नेताओं की वापसी हो, मगर भाजपा के कई नेता ऐसा नहीं चाहते। पिछले दिनों संघ के पूर्व प्रचारक एमजी वैद्य ने भी अपने एक लेख में जसवंत सिंह की भाजपा वापसी का ज़िक्र करते हुए लिखा है कि ''पुरानी बातें बीते दिन की बात हो चुकी हैं।'' उनका कहना है कि ''सिर्फ़ जसवंत सिंह को ही क्यों शामिल किया गया है, गोविंदाचार्य, उमा भारती और संजय जोशी को क्यों नहीं? इन तीनों नेताओं से कुछ ग़लतियां ज़रूर हुई हैं, लेकिन यह उतनी गंभीर नहीं थीं। उन्होंने जिन्ना की तारीफ़ नहीं की थी। उनके मुताबिक़ ''अगर जसवंत सिंह पार्टी में भी लौटते तो भारतीय जनता पार्टी को कोई नुक़सान नहीं होता, लेकिन गोविंदाचार्य, उमा भारती और संजय जोशी के लौटने से पार्टी निश्चित रूप से मज़बूत होगी। पार्टी से निकाले जाने के हर व्यक्ति के पीछे अलग-अलग कारण रहे होंगे, मैं उन कारणों का ज़िक्र नहीं करूंगा, लेकिन संजय जोशी एक गंदी कारस्तानी की बलि चढ़े। इसका उल्लेख आवश्यक है।'' वह आडवाणी द्वारा जिन्ना की तारीफ़ को ग़लत मानते हैं। उनका कहना है कि इस तरह की बातों को कोई भी स्वीकार नहीं कर सकता। राम जन्मभूमि मंदिर मुद्दे पर भी वह संघ का समर्थन करते हैं। उनका कहना है कि अगर एनडीए सरकार राम मंदिर के मुद्दे पर बड़ा फ़ैसला नहीं ले सकी तो हिन्दू भारतीय जनता पार्टी को वोट क्यों देंगे? उनके मुताबिक़ 1998 में भाजपा ने 180 सीटें जीतीं, लेकिन सरकार में आने की जल्दी में उसने अपना एजेंडा ही छोड़ दिया। सरकार सिर्फ़ 13 महीने चली। 1999 में पार्टी ने दो सीटें ज्यादा जीतीं, लेकिन उसकी सरकार सिविल मैरिज एंड डिवोर्स लॉ नहीं ला सकी। मैं समान आचार संहिता की बात नहीं कर रहा हूं। सिर्फ़ सिविल मैरिज एंड डिवोर्स लॉ भी नहीं हो सका।''

क़ाबिले-ग़ौर है कि वाजपेयी ने भी अपने विरोधियों को पार्टी से बाहर किया, लेकिन यह भी सच है कि उन्होंने कभी पार्टी से अपना अलग गुट नहीं बनाया। मगर अति महत्वाकांक्षी आडवाणी ऐसा नहीं कर सके। उन्होंने पार्टी में अपनी पकड़ मज़बूत बनाए रखने के लिए गुटीय राजनीति को बढ़ावा दिया। इससे पार्टी में गुटबाज़ी और आंतरिक कलह को जगह मिली। भाजपा में आडवाणी गुट को काफ़ी प्रभावशाली माना जाता है। इस बात में कोई दो राय नहीं कि किसी भी संगठन में आंतरिक कलह या गुटबाज़ी उस संगठन को फ़ायदा तो कुछ भी नहीं पहुंचाती, लेकिन उसे दीमक की तरह चाटकर खोखला ज़रूर कर देती है।

भाजपा को देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनाने में संघ के कार्यकर्ताओं के साथ पार्टी कार्यकर्ताओं की भी मेहनत लगी है, लेकिन पार्टी नेताओं के निजी स्वार्थों ने पार्टी को इस स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है, जहां से सत्ता की मंज़िल दूर तक दिखाई नहीं देती। आज भाजपा को गोविंदाचार्य जैसे रणनीतिकारों की ज़रूरत है, तो ऐसे नेताओं की भी दरकार है जो अपने निजी स्वार्थ से ऊपर उठकर पार्टी हित के लिए समर्पित हों। भाजपा की हालत यह हो गई कि पार्टी नेता मतदाताओं के बीच जाने तक से कतराने लगे हैं।

बहरहाल, यही कहा जा सकता है कि अगर यह हालत बरक़रार रही तो भाजपा का दूसरे नंबर की पार्टी का दर्जा छिनने में भी देर नहीं लगेगी।


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