फ़िरदौस ख़ान
जब से दुनिया शुरू हुई है, तभी से इंसान और क़ुदरत के बीच गहरा रिश्ता रहा है. पेड़ों से पेट भरने के लिए फल-सब्ज़ियां और अनाज मिला. तन ढकने के लिए कपड़ा मिला. घर के लिए लकड़ी मिली. इनसे जीवनदायिनी ऒक्सीज़न भी मिलती है, जिसके बिना कोई एक पल भी ज़िन्दा नहीं रह सकता.  इनसे औषधियां मिलती हैं. पेड़ इंसान की ज़रूरत हैं, उसके जीवन का आधार हैं. अमूमन सभी मज़हबों में पर्यावरण संरक्षण पर ज़ोर दिया गया है. भारतीय समाज में आदिकाल से ही पर्यावरण संरक्षण को महत्व दिया गया है. भारतीय संस्कृति में पेड़-पौधों को पूजा जाता है. विभिन्न वृक्षों में विभिन्न देवताओं का वास माना जाता है. पीपल, विष्णु और कृष्ण का, वट का वृक्ष ब्रह्मा, विष्णु और कुबेर का माना जाता है, जबकि तुलसी का पौधा लक्ष्मी और विष्णु, सोम चंद्रमा का, बेल शिव का, अशोक इंद्र का, आम लक्ष्मी का, कदंब कृष्ण का, नीम शीतला और मंसा का, पलाश ब्रह्मा और गंधर्व का, गूलर विष्णू रूद्र का और तमाल कृष्ण का माना जाता है. इसके अलावा अनेक पौधे ऐसे हैं, जो पूजा-पाठ में काम आते हैं, जिनमें महुआ और सेमल आदि शामिल हैं. वराह पुराण में वृक्षों का महत्व बताते हुए कहा गया है-  जो व्यक्ति एक पीपल, एक नीम, एक बड़, दस फूल वाले पौधे या बेलें, दो अनार दो नारंगी और पांच आम के वृक्ष लगाता है, वह नरक में नहीं जाएगा.

यह हैरत और अफ़सोस की ही बात है कि जिस देश में, समाज में पेड़-पौधों को पूजने की प्रथा रही है, अब उसी देश में, उसी समाज में पेड़ कम हो रहे हैं. बदलते दौर के साथ लोगों का प्रकृति से रिश्ता टूटने लगा. बढ़ती आबादी की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए वृक्षो को काटा जा रहा है. नतीजतन जंगल ख़त्म हो रहे हैं. देश में वन क्षेत्रफल 19.2 फ़ीसद है, जो बहुत ही कम है. इससे पर्यावरण के सामने संकट खड़ा हो गया है. घटते वन क्षेत्र को राष्ट्रीय लक्ष्य 33.3 फ़ीसद के स्तर पर लाने के लिए ज़्यादा से ज़्यादा वृक्ष लगाने होंगे. साथ ही ख़ुशनुमा बात यह भी है कि अब जनमानस में पर्यावरण के प्रति जागरुकता आ रही है. लोग अब पेड़-पौधों की अहमियत को समझने लगे हैं. महिलाएं भी इस पुनीत कार्य में बढ़ चढ़कर शिरकत कर रही हैं.

बिहार के पूर्वी चंपारण ज़िले के गांव मझार की किरण ने अपने विवाह से पहले एक हज़ार पौधे लगाए. उन्होंने विवाह की मेहंदी लगाने  के बाद अगले दिन सुबह से ही गड्डे खोदे और उनमें पौधे लगाए. इस मुहिम में मझार और इसके आसपास के गांवों के लोगों ख़ासकरलड़कियों और महिलाओं ने भी मदद की.  किरण का कहना है कि वे पौधारोपण के ज़रिये अपने विवाह को यादगार बनाना चाहती थीं. आज इस तरह जंगल ख़त्म हो रहे हैं, पेड़ सूख रहे हैं, इसे देखते हुए पौधारोपण बहुत ज़रूरी है. पर्यावरण सुरक्षित रहेगा, तो हम भी सुरक्षित रहेंगे. किरण के पिता जितेंद्र सिंह अपनी बेटी के इस काम से बहुत ख़ुश हैं. वे कहते हैं कि लोगों को इससे प्रेरणा मिलेगी.

इस बार ईद-उल-फ़ित्र के मौक़े पर ईद की नमाज़ के बाद जगह-जगह पौधारोपण किया गया. ईदी के तौर पर एक-दूसरे को पौधे भी दिए गए. तक़रीर में इमाम साहब ने कहा कि इस्लाम में पर्यावरण संरक्षण को बहुत मह्त्व दिया गया है. क़ुरान कहता है- जल और थल में बिगाड़ फैल गया ख़ुद लोगों की ही हाथों की कमाई के कारण, ताकि वह उन्हें उनकी कुछ करतूतों का मज़ा चखाए, शायद वे बाज़ आ जाएं. पैग़म्बर मुहम्मद सल्ल. ने फ़रमाया- अगर क़यामत आ रही हो और तुम में से किसी के हाथ में कोई पौधा हो, तो उसे ही लगा ही दो और नतीजे की फ़िक्र मत करो. पैग़म्बर मुहम्मद सल्ल. ने फ़रमाया-जिसने अपनी ज़रूरत से ज़्यादा पानी को रोका और दूसरे लोगों को पानी से वंचित रखा, तो अल्लाह फ़ैसले के दिन उस शख़्स से अपना फ़ज़लो-करम रोक लेगा. पैग़म्बर मुहम्मद सल्ल. ने फ़रमाया- जो शख़्स कोई पौधा लगाता है या खेतीबाड़ी करता है. फिर उसमें से कोई परिंदा, इंसान या अन्य कोई प्राणी खाता है, तो यह सब पौधा लगाने वाले की नेकी में गिना जाएगा. पैग़म्बर मुहम्मद सल्ल. ने फ़रमाया- जो भी खजूर का पेड़ लगाएगा, उस खजूर से जितने फल निकलेंगे, अल्लाह उसे उतनी ही नेकी देगा. पैग़म्बर मुहम्मद सल्ल. ने फ़रमाया- जिस घर में खजूर का पेड़ हो, वह भुखमरी से परेशान नहीं हो सकता. ईसाई भी पर्यावरण संरक्षण को महत्व देते हैं. वे मानते हैं- पर्यावरण का संरक्षण ही हमारा जीवन है, चाहे हम विश्वास करें या न करें, पर्यावरणीय संकट हमारे जीवन के सभी क्षेत्र, हमारे सामाजिक स्वास्थ्य, हमारे संबंध, हमारे आचरण, अर्थव्यवस्था, राजनीति, हमारी संस्कृति और हमारे भविष्य को प्रभावित करता है. प्रकृति का संरक्षण ही हमारी प्राणमयी ऊर्जा है.

किसानों का पर्यावरण से गहरा नाता रहा है. वे बढ़ते पर्यावरण असंतुलन पर चिंता ज़ाहिर करते हुए जहां जैविक खेती को अपना रहे हैं, वहीं कृषि वानिकी पर भी ख़ासा ध्यान दे रहे हैं. दरअसल कृषि वानिकी को अपनाकर कुछ हद तक पर्यावरण संतुलन को बेहतर बनाया जा सकता है. फ़सलों के साथ वृक्ष लगाने को कृषि वानिकी के नाम से जाना जाता है.  खेतों की मेढ़ों पर वृक्ष लगाए जाते हैं. इसके अलावा गांव की शामिलात भूमि, परती भूमि और ऐसी भूमि, जिस पर कृषि नहीं की जा रही हैं, वहां भी उपयोगी वृक्ष लगाकर पर्यावरण को हरा-भरा बनाया जा रहा है. पशुओं के बड़े-बड़े बाड़ों के चारों ओर भी वृक्ष लगाए जा रहे हैं. कृषि वानिकी के तहत ऐसे वृक्ष लगाने चाहिए, जो ईंधन के लिए लकड़ी और खाने के लिए फल दे सकें. जिनसे पशुओं के लिए चारा और खेती के औज़ारों के लिए अच्छी लकड़ी भी मिल सके. इस बात का भी ख़्याल रखना चाहिए कि वृक्ष ऐसे हों, जल्दी उगें और उनका झाड़ भी अच्छा बन सके. बबूल, शीशम, नीम,  रोहिड़ा, ढाक, बांस, महुआ, जामुन, कटहल, इमली, शहतूत, अर्जुन, खेजड़ी, अशोक, पोपलर, सागौन और देसी फलों आदि के वृक्ष लगाए जा सकते हैं.

बहुत-सी सरकारी और ग़ैर सरकारी संस्थाएं पौधारोपण की मुहिम चलाकर इस पुनीत कार्य में हिस्सेदार बन रही हैं. लोग अब अपने किसी ख़ास दिन को यादगार बनाने के लिए पौधे लगा रहे हैं. कोई पौधारोपण कर अपना जन्मदिन मना रहा है, तो कोई अपनी शादी की सालगिरह पर पौधा रोप रहा है. इतना ही नहीं, लोग अपने प्रिय नेता और अभिनेता के जन्मदिन और बरसी पर भी पौधारोपण कर वातावरण को हराभरा बनाने के काम में लगे हैं.
बेशक पौधे लगाना नेक काम है. लेकिन सिर्फ़ पौधा लगाना ही काफ़ी नहीं है. पौधे की समुचित देखभाल भी की जानी चाहिए, ताकि वे वृक्ष बन सके.
आओ पौधे लगाएं, अपनी धरा हो हरा बनाएं.


सरफ़राज़ ख़ान
मुसलमानों का त्योहार ईद उल-फ़ित्र इस्लाम के उपवास के महीने रमज़ान के ख़त्म होने के बाद मनाया जाता है. इस्लामी साल में दो ईदों में से यह एक है, दूसरा ईद उल-अज़हा या बक़रीद कहलाता है. पहला ईद उल-फ़ित्र पैगम्बर हज़रत मुहम्मद ने 624 ईस्वी में जंग-ए-बदर के बाद मनाया था.

ईद उल-फ़ित्र शव्वल  इस्लामी कैलंडर के दसवें महीने के पहले दिन मनाया जाता है. इस्लामी कैलेंडर के सभी महीनों की तरह यह भी नये चांद के दिखने पर शुरू होता है. इस ईद में मुसलमान 29 या 30 दिनों के बाद पहली बार दिन में खाना खाते हैं. रमज़ान की समाप्ति के बाद ईद के दिन मुसलमान अल्लाह का शुक्रिया अदा इसलिए भी करते हैं कि उसने महीनेभर के रोज़े रखने की हिम्मत दी. ईद के दिन लोग सेवइयां और अन्य लज़ीज़ पकवान खाते हैं. इस दिन सभी नये कपड़े पहनते हैं. ईद उल-फ़ित्र के दिन लोग पुराने गले-शिकवे भूल कर गले मिलते हैं. ईद के दिन मस्जिद में सुबह की नमाज़ से पहले हर मुसलमान फ़ितरा और ज़कात देता है. इस दान को ज़कात उल-फ़ित्र कहते हैं. यह पैसा ग़रीबों में बांट दिया जाता है.

ईद का मतलब है ख़ुशी. हर क़ौम और समुदाय के कुछ विशेष त्योहार, उत्सव और प्रसन्नता व्यक्त करने के दिन होते हैं. उस दिन उस क़ौम के लोग अपने रीति-रिवाजों के अनुसार अपनी हार्दिक प्रसन्नता व्यक्त करते हैं. इस्लाम के आगमन से पहले अरबों के यहां ईद का दिन 'यौमुस सबाअ' कहलाता था. मिस्र में कुब्ली 'नवरोज़' को ईद मनाते थे. मजूसियों के दो धार्मिक त्योहार नवरोज़ और मीरगान थे, जो बाद में मौसमी त्यौहार बन गए. नवरोज़ बसंत के मौसम में मनाया जाता था, जबकि मीरगान सूर्य देवता का त्यौहार था और पतझड़ में मनाया जाता था. पारसियों के इस त्यौहार का प्रभाव कुछ मुगल शहंशाहों पर भी रहा, जो बड़े जोशो-ख़रोश से नवरोज़ का आयोजन करते थे.

ईरान में फ़िरोज़ जान की ईद पांच दिनों तक मनाई जाती थी. उनकी धार्मिक मान्यताओं के अनुसार मृत परिजनों की आत्माओं का आदर-सत्कार उन्हीं दिनों में किया जाता था. बसंत के मौसम में जश्ने-चिराग़ां मनाया जाता था. यहूदियों की सबसे बड़ी ईद ईदुल ख़िताब है. यह त्यौहार उस दिन की याद में मनाया जाता है, उनके ईश्वर यहुवाह ने सीना घाटी के पहाड़ से बनी इसराइल को संबोधित किया था.

ईसाई रोमन कैथोलिक और पश्चिमी अहले क्लीसा साल में कई ईदें मनाते हैं. उने यहां जैतूनिया का त्यौहार रोज़ों के सातवें दिन मनाया जाता है. यह त्यौहार हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के बैतुल मुक़द्दस आगमन की याद में मनाया जाता है. यह ईस्टर से एक दिन पहले मनाया जाता है. ईस्टर 21 मार्च या उसके पहले रविवार को मनाया जाता है. इसे अरबी में ईदुल कियामा कहा जाता है.

ईदस्सलीब उस सलीब की याद में मनाई जाती है, जो कुस्तुनतुनिया के कैसर ने आसमान में देखा था. उसके बाद सलीब ईसाइयों का धार्मिक निशान बन गया. ईसाइयों की ईदुल बशारह उस घटना की याद दिलाती है, जब फ़रिश्ते ने हज़रत मरियम अलैहिस्सलाम को हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के जन्म की शुभ सूचना दी थी. ईसाइयों का त्यौहार क्रिसमस 25 दिसंबर को दुनियाभर में धूमधाम से मनाया जाता है.


नज़्म
ईद का चांद देखकर
कभी दिल ने
तुमसे मिलने की
दुआ मांगी थी...

उसी लम्हा
कितने अश्क
मेरी आंखों में
भर आए थे...

ईद का चांद देखकर
कभी दिल ने
तुमसे मिलने की
दुआ मांगी थी...

उसी लम्हा
कितनी यादें मेरे तसव्वुर में
उभर आईं थीं...

ईद का चांद देखकर
कभी दिल ने
तुमसे मिलने की
दुआ मांगी थी...

उसी लम्हा
कितने ख़्वाब
इन्द्रधनुषी रंगों से
झिलमिला उठे थे...

ईद का चांद देखकर
कभी दिल ने
तुमसे मिलने की
दुआ मांगी थी...

उसी लम्हा
मेरी हथेलियों की हिना
ख़ुशी से
चहक उठी थी...

ईद का चांद देखकर
कभी दिल ने
तुमसे मिलने की
दुआ मांगी थी...

उसी लम्हा
शब की तन्हाई
सुर्ख़ गुलाबों-सी
महक उठी थी...

ईद का चांद देखकर
कभी दिल ने
तुमसे मिलने की
दुआ मांगी थी...
-फ़िरदौस ख़ान


फ़िरदौस ख़ान
हिंदी सिनेमा की प्रतिभाशाली अभिनेत्री नूतन को अभिनय विरासत में मिला था. उनकी मां शोभना सामर्थ हिंदी सिनेमा की प्रसिद्ध अभिनेत्री थीं. नूतन भी अपने अद्भुत अभिनय के लिए जानी जाती हैं. उनकी सुजाता, बंदिनी, मैं तुलसी तेरे आंगन की, सीमा, सरस्वती चंद्र और मिलन आदि फ़िल्मों ने उन्हें भारतीय सिनेमा की महान अभिनेत्रियों के समकक्ष लाकर खड़ा कर दिया. नूतन का जन्म 4 जून, 1936 को मुंबई में हुआ था. उनके पिता का नाम कुमारसेन सामर्थ था. घर में फ़िल्मी माहौल था. वह अपनी मां के साथ शूटिंग पर जाती थीं. रफ़्ता-रफ़्ता उनका रुझान भी फ़िल्मों की तरफ़ हो गया. वह भी बड़ी होकर अपनी मां की तरह ही मशहूर अभिनेत्री बनना चाहती थीं. उन्होंने बतौर बाल कलाकार 1950 में फ़िल्म नल दमयंती से अपने करियर की शुरुआत की. इसके साथ ही उन्होंने अखिल भारतीय सौंदर्य प्रतियोगिता में हिस्सा लिया. उनकी क़िस्मत के सितारे बुलंदी पर थे. नतीजतन, उन्हें मिस इंडिया का ख़िताब मिला. मगर फ़िल्मी दुनिया ने उन्हें कोई ख़ास तवज्जो नहीं दी. उनकी मां शोभना सामर्थ भी उन्हें अभिनेत्री बनाना चाहती थीं, इसलिए उन्होंने अपने दोस्त मोतीलाल से बात की. मोतीलाल की सिफ़ारिश पर नूतन को फ़िल्म हमारी बेटी में काम करने का मौक़ा मिल गया. इस फ़िल्म का निर्देशन शोभना सामर्थ ने किया था. इसके बाद नूतन ने फ़िल्म हमलोग, शीशम, नगीना, पर्बत, लैला मजनूं और शबाब में अभिनय किया, लेकिन इससे उन्हें वह कामयाबी नहीं मिली, जिसकी उन्हें उम्मीद थी.

फिर 1950 में उनकी फ़िल्म सीमा प्रदर्शित हुई. फ़िल्म बेहद कामयाब रही. इस फ़िल्म के लिए जहां नूतन ने सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फ़िल्मफ़ेयर हासिल किया, वहीं हिंदी सिनेमा में अपने लिए एक ख़ास मुक़ाम भी बना लिया. यह फ़िल्म उनकी सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों में शुमार की जाती है. वह हर तरह की भूमिकाएं बड़ी सहजता से कर लेती थीं. 1956 में प्रदर्शित फ़िल्म बारिश में उन्होंने काफ़ी बोल्ड सीन दिए. इसके बाद 1957 में प्रदर्शित फ़िल्म दिल्ली का ठग में उन्होंने स्विमिंग कॉस्ट्यूम पहनकर सबको चौंका दिया. इसकी वजह से उनकी बहुत आलोचना हुई. इससे वह थो़डी परेशान भी हुईं, मगर वह जानती थीं कि अभिनय क्षमता के दम पर ही वह इस फ़िल्मी दुनिया में टिकी हुई हैं. उन्होंने अपना अभिनय सफ़र जारी रखा. फिर 1958 में उनकी फ़िल्म सोने की चिड़िया प्रदर्शित हुई. फ़िल्म बेहद कामयाब रही और नूतन हिंदी सिनेमा में छा गईं. अगले ही साल 1959 में प्रदर्शित उनकी फ़िल्म सुजाता में उनके मार्मिक अभिनय ने उनकी बोल्ड अभिनेत्री की छवि को बदल दिया. सुजाता में उन्होंने अछूत कन्या का किरदार निभाया. इसके लिए भी उन्हें फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार से नवाज़ा गया. 1963 में प्रदर्शित फ़िल्म बंदिनी उनके करियर की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों में शामिल है. नूतन ने इस फ़िल्म में जितना सशक्त अभिनय किया है, वैसा अभिनय किसी और फ़िल्म में देखने को नहीं मिला. यह हिंदी सिनेमा की उन सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों में से एक है, जिसके बिना हिंदी सिनेमा का इतिहास अधूरा है. इस फ़िल्म के लिए भी नूतन को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला. ऐसा नहीं है कि नूतन ने सिर्फ़ संजीदा अभिनय ही किया है. उन्होंने रूमानी और हंसमुख किरदार भी निभाए हैं. फ़िल्म छलिया और सूरत में उनके निभाए किरदार इस बात का सबूत हैं कि वह किसी भी तरह की भूमिका को ब़खूबी निभा सकती थीं.

1967 में प्रदर्शित फ़िल्म मिलन के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया. यह फ़िल्म पूर्व जन्म की कहानी पर आधारित थी. 1968 में प्रदर्शित फ़िल्म सरस्वती चंद्र की कामयाबी ने उन्हें फ़िल्म दुनिया की बुलंदी पर पहुंचा दिया. इसके बाद 1973 में आई फ़िल्म सौदागार में भी उन्होंने यादगार अभिनय से दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया. सुधेंदु रॉय द्वारा निर्देशित फ़िल्म में नायक की भूमिका अमिताभ बच्चन ने निभाई थी.

सत्तर के दशक तक नूतन का फ़िल्मी करियर चढ़ाव पर रहा, जबकि अस्सी के दशक में उन्होंने चरित्र भूमिकाएं निभानी शुरू कर दीं. ख़ास बात यह रही कि उनके अभिनय का जलवा बरक़रार रहा. फ़िल्म मैं तुलसी तेरे आंगन की और मेरी जंग में सशक्त अभिनय के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री का पुरस्कार मिला. फ़िल्म कर्मा में भी उनके अभिनय को सराहा गया. इस फ़िल्म में उनके साथ अभिनय सम्राट दिलीप कुमार थे. उन्होंने अपने वक़्त के तक़रीबन सभी नामी अभिनेताओं के साथ काम किया. फ़िल्म अना़डी में उनके नायक राज कपूर थे तो फ़िल्म बंदिनी में अशोक कुमार. फ़िल्म पेइंग गेस्ट में देवानंद उनके नायक बने.

हिंदी सिनेमा में कामयाबी की बुलंदियों तक पहुंची नूतन कभी मां से मुक़ाबला नहीं करना चाहती थीं. यही वजह थी कि उन्होंने फ़िल्म रामराज्य के रीमेक में सीता की भूमिका निभाने से साफ़ इंकार कर दिया था. प्रकाश पिक्चर्स के बैनर तले बनी फ़िल्म राम राज्य में उनकी मां ने सीता की भूमिका निभाई थी. निर्देशक विजय भट्ट इस फ़िल्म का रीमेक बनाना चाहते थे. उस वक़्त वह शोभना सामार्थ को नायिका सीता की भूमिका में नहीं ले सकते थे, क्योंकि वह उम्र की ढलान पर थीं. वह चाहते थे कि कोई कुशल अभिनेत्री इस किरदार को निभाए. विजय भट्ट को लगा कि नूतन सीता की भूमिका बेहतर तरीक़े से निभा सकती हैं. उन्होंने नूतन से मुलाक़ात की और अपना प्रस्ताव रखा, लेकिन नूतन ने इसे नामंज़ूर कर दिया. वह मानती थीं कि चूंकि पहली फ़िल्म में उनकी मां ने सीता की भूमिका निभाई है, इसलिए उनके लिए यह किरदार सही नहीं रहेगा, क्योंकि लोग दोनों के अभिनय की तुलना करने लगेंगे और ऐसा करना मुनासिब नहीं होगा. आख़िरकार बीना राय को सीता की भूमिका दी गई. मगर फ़िल्म फ्लॉप हो गई.

उनकी फ़िल्मों में हमारी बेटी, नगीना, हमलोग, शीशम, पर्बत, लैला मजनूं, शबाब, सीमा, हीर, बारिश, पेइंग गेस्ट, ज़िंदगी या तूफ़ान, चंदन, दिल्ली का ठग, कभी अंधेरा कभी उजाला, सोने की चिड़िया, आख़िरी दाव, अना़डी, कन्हैया, सुजाता, बसंत, छबीली, छलिया, मंज़िल, सूरत और सीरत, बंदिनी, दिल ही तो है, तेरे घर के सामने, चांदी की दीवार, रिश्ते नाते, छोटा भाई, दिल ने फिर याद किया, दुल्हन एक रात की, लाट साहब, मिलन, गौरी, सरस्वती चंद्र, भाई बहन, मां और ममता, देवी, महाराजा, यादगार, अनुराग, ग्रहण, सौदागर, एक बाप छह बेटे, मैं तुलसी तेरे आंगन की, साजन बिना सुहागन, साजन की सहेली, जियो और जीने दो, रिश्ता काग़ज़ का, यह कैसा फ़र्ज़, युद्ध, पैसा ये पैसा, मेरी जंग, सजना साथ निभाना, कर्मा, नाम, मैं तेरे लिए, क़ानून अपना अपना, मुजरिम, नसीबवाला और इंसानियत आदि शामिल है.

नूतन सादगी और सौंदर्य का अद्भुत संगम थीं. उन्होंने 19 अक्टूबर, 1959 को लेफ्टिनेंट कमांडर रजनीश बहल से विवाह कर लिया. उनके बेटे मोहनीश बहल भी अभिनेता हैं और हिंदी फ़िल्मों में काम करते हैं. नूतन की बहन तनुजा और भतीजी काजोल भी हिंदी सिनेमा की मशहूर अभिनेत्रियों में शामिल हैं. 21 फ़रवरी, 1991 को कैंसर से नूतन की मौत हो गई. मीना कुमारी की तरह नूतन को भी साहित्य में दिलचस्पी थी. वह कविताएं भी लिखा करती थीं. भले ही आज वह हमारे बीच में नहीं हैं, लेकिन अपने सशक्त अभिनय के लिए वह हमेशा याद की जाएंगी.

जलवायु परिवर्तन के चलते मौसम का गड़बड़ाता मिजाज उ.प्र. में खेती के लिए बड़ा संकट बना है। इससे केवल देष को अन्न उपलब्ध कराने की क्षमता ही नहीं, कृशि पर लोगों की निर्भरता भी घटी है। इसके चलते भयंकर पलायन हो रहा है। कहीं विकास के नाम पर तो कही षहरीकरण की चपेट में खेत सिमट रहे हैं , वहीं खेती में लाभ ना देख कर उससे विमुख हो रहे लोगों की संख्या साल-दर-साल बढ़ रही है। यह हाल है देश्  को सबसे ज्यादा प्रधानमंत्रा व सबसे ज्यादा सांसद देने वाले राज्य उत्तर प्रदेश  का। यह दुखद है कि राज्य का किसान दिल्ली या ऐसे ही महानगर में दूसरों की चाकरी करे, गांव की खुली हवा-पानी छोड़ कर महानगर की झुग्गियों में बसे और यह मानने को मजबूर हो जाए कि उसका श्रम किसी पूंजीपति के पास रेहन रख दिया गया है।
हालांकि पूरे देश में ही खेतों के बंटवारे , खेती की बढ़ती लागत, फसल के वाजिब दाम के सुनिश्चित ना होने, सिंचाई की माकूल  व्यवस्था के अभाव जैसे मसलों के कारण खेती पिछड़ रही है। परिवारों के बंटवारे से जैसे ही जोत छोटी होती है तो खेती में मशीन व तकनीक के प्रयोग का व्यय बढ़ जाता है। इसी के चलते किसान खेती से बाहर निकल कर वैकल्पिक रोजगार की तलाश में खेत बेच कर बड़े शहरों की राह पकड़ता है। सन रहे देश में किसनों की कुल संख्या 14. 57 करोड़ है यह संख्या पांच साल पहले 13.83 करोड़ थी। लेकिन इसमें लघु और सीमांत किसानों की संख्या ही 86 फीसदी है। वहीं उत्तर प्रदेश में लघु और सीमांत किसान 93 फीदी हैं जिन्हें खेती के बदौलत दो जून की रोटी मिलना मुश्किल होता है। बुंदेलखंड जैसे इलाकों में हर तीन-चार साल में अल्प वर्षा तो खेती की दुश्मन है ही, आवारा पशु एक नई समस्या के रूप में उभरे हैं। एक तो छोटा सा खेत, वह भी प्रकृति की कृपा पर आश्रित और उसमें भी ‘‘अन्ना गाय’’ का रेवड़ घुस गया तो किसान बर्बादी अपने ही आंखें के सामने देखता रह जाता है। यदि मवेशी भगाये और वह दूसरे के खेत में चले गए तो उससे फौजदारी तय है। ऐसे में बुंदेलखंड से दिल्ली आने वाली ट्रेन व बसें हर समय गारा-गुम्मा का मजूरी करने वालों से पटी होती हैं।
सरकारी आंकड़ों के चश्मे  से यदि उप्र को देखें तो प्रदेष में 24202000 हेक्टेयर भूमि है जिसमें से शुध्ध  बुवाई वाला(यानी जहां खेती होती है) रकवा 16812000हेक्टेयर है जो कुल जमीन का 69.5 फीसदी है। जाहिर है कि राज्य के निवासियों की चूल्हा-चौका का सबसे बड़ा जरिया खेती ही है। राज्य में कोई ढाई फीसदी जमीन उसर या खेती के अयोग्य भी है।  प्रदेष के 53 प्रतिषत लोग किसान हैं और कोई 20 प्रतिषत खेतिहर मजदूर। यानी लगभग तीन-चौथाई आबादी इसी जमीन से अपना अन्न जुटाती है। एक बात और गौर करने लायक है कि 1970-1990 के दो दशकों के दौरान राज्य में नेट बोया गया क्षेत्रफल 173 लाख हेक्टेयर स्थिर रहने के पश्चात  अब लगातार कम हो रहा है।  ऐसोचेम का कहना है कि हाल के वर्षों में उ.प्र. का कृषि के मामले में सालाना विकास दर यानि सीएजीआर महज 2.9 प्रतिषत है, जोकि राष्ट्रीय  प्रतिशत 3.7 से बेहद कम व निराशाजनक है। विकास के नाम पर सोना उगलने वाली जमीन की दुर्दशा  इस आंकड़े से आंसू बहाती दिखती है कि उत्तर प्रदेश  में सालाना कोई 48 हजार हेक्टेयर खेती की जमीन  कंक्रीट द्वारा निगली जा रही है। वैसे तो सन 2013 की कृषि नीति में राज्य षासन ने खेती की विकास दर 5.3 तक ले जाने का लक्ष्य तय किया था । इसके लिए अनुबंध खेती, बीटी बीज जैसे प्रयाग भी शुरू  किए गए , लेकिन जमीन पर कुछ दिखा नहीं क्योंकि यह सब तभी संभव है जब खेती लायक जमीन को सड़क, शहर जैसे निर्माण कार्यों के बनने से बचाया जा सके।
उत्तरप्रदेश  की सालाना राज्य आय का 31.8 प्रतिषत खेती से आता है। हालांकि यह प्रतिशत सन 1971 में 57, सन 1981 में 50 और 1991 में 41 हुआ करता था। साफ नजर आ रहा है कि लोगों से खेती दूर हो रही है - या तो खेती ज्यादा फायदे का पेषा नहीं रहा या फिर दीगर कारणों से लोगों का इससे मोहभ्ांग हो रहा है। दिल्ली से सटे जिलों- गाजियाबाद, बागपत, गौतम बु़द्ध नगर जिले से बीते तीन दषकों से खेत उजड़ने का जो सिलसिला षुरू हुआ , उससे भले ही कुछ लोगों के पास पैसा आ गया हो , लेकिन वह अपने साथ कई ऐसी बुराईयां व अपराध लाया कि गांवों की संस्कृति, संस्कार और सभ्यता सभी कुछ नश्ट हो गई। जिनके खेत थे, उन्हें तो कार, मकान और मौज-मस्ती के लिए पैसे मिल गए, लेकिन उनके खेतों में काम करने वाले तो बेरोजगार हो गए। उनके लिए करीबी महानगर दिल्ली में आ कर रिक्षा चलाने या छोटी-मोटी नौकरी करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा। जो गांव में आधा पेट रह कर भी ख्ुष थे, वे आज दिल्ली में ना तो खुद खुष है और ना ही दूसरों की खुषी के लिए कुछ कर पा रहे हैं। देष के अन्न भंडार भरने वाले खेतों पर जो आवासीय परिसर खड़े हो रहे हैं, वे बगैर घर वाले लोगों की जरूरत पूरा करने के बनिस्पत निवेष का कम ज्यादा कर रहे हैं। वहीं अधिगृहित भूमि पर लगने वाले कारखानों में स्थानीय लोगों के लिए मजदूर या फिर चौकीदार से ज्यादा रोजगार के अवसर नहीं । इन कारखानों में बाहर से मोटे वेतन पर आए लोग स्थानीय बाजार को महंगा कर रहे है।, जोकि स्थानीय लोगों के लिए नए तरीके की दिक्कतें पैदा कर रहा है।
राज्य में बड़े या मझौले उद्योगों को स्थापित करने में कई समस्याएं हैं- बिजली व पानी की कमी, कानून-व्यवस्था की जर्जर स्थिति, राजनैतिक प्रतिद्वंदिता और इच्छा-षक्ति का अभाव। ऐसे में खेती पर जीवकोपार्जन व रोजगार का जोर बढ़ जाता है। इस कटु सत्य से बेखबर सरकार पक्के निर्माण, सड़कों में अपना भविश्य तलाष रही है और अपनी गांठ के खेतों को उस पर खपा रही है। यदि हाल ऐसा ही रहा तो आने वाले पांच सालों में राज्य की कोई तीन लाख हेक्टेयर जमीन से खेतों का नामोनिषान मिट जाएगा। किसान को भले ही देर से सही, यह समझ में आ रही है कि षहर व आधुनिक सुख-सुविधाओं की बातें मृगमरिचिका है और एक बार जमीन हाथ से जाने के बाद मिट्टी भी मुट्ठी में नहीं रह जाती है। मुआवजे का पैसा पूर्णिमा की चंद्र-कला की तरह होता है जो हर दिन के हिसाब से स्याह पड़ता जाता है। गांव वाले, विषेशरूप से खेती करने वाले यह भांप गए हैं कि जमीन हाथ से निकलने के बाद उनके बच्चों की षादियां भी मुष्किल है और ऐसे परिवार वालों की संख्या, पष्चिमी उत्तर प्रदेष में बढ़ी है जिनके यहां वंष बढ़ाने वाला ही नहीं बच रहा है। जमीन के लिए हत्या कर देना बहुत ही आम बात हो गया है।
प्रदेष के चहुंमुखी विकास के लिए कारखाने, बिजली परियोजना और सड़कें सभी कुछ जरूरी हैं, लेकिन यह भी तो देखा जाए कि अन्नपूर्णा धरती को उजाड़ कर इन्हें पाना कहां तक व्यावहारिक व फायदेमंद है। सनद रहे कि राज्य की कोई 11 फीसदी भूमि या तो ऊसर है या फिर खेती में काम नहीं आती है। यह बात जरूर है कि ऐसे इलाकों में मूलभूत सुविधाएं जुटाने में जेब कुछ ज्यादा ढीली करनी होगी। काष ऐसे इलाकों में नई परियोजना, कारखानों आदि को लगाने के बारे में सोचा जाए। इससे एक तो नए इलाके विकसित होंगे, दूसरा खेत बचे रहेंगे, तीसरा विकास ‘‘बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय’’ वाला होगा। हां, ठेकेदारों व पूंजीपतियों के लिए  यह जरूर महंगा सौदा होग, दादरी, अलीगढ़ या गाजियाबाद की तुलना में। वैसे उप्र सरकार विष्व बैंक से उसर-बंजर जमीन के सुधार के नाम पर 1332 करोड़ का कर्जा भी ले चुकी है। यह कैसी नौटंकी है कि एक तरफ से तो करोड़ो का कर्जा ले कर सवा लाख हेक्टेयर जमीन को खेती के लायक बनाने के कागजी घोड़े दौड़ रहे हैं दूसरी आरे अच्छे-खोस खेतों को ऊसर बनाया जा रहा है।
सही नहीं इस राज्य में नकली बीज व खाद की भी समस्या निरंकुष है तो खेत सींचने के लिए बिजली का टोटा है। कृशि मंडियां दलालों का अड्डा बनी है व गन्ना, आलू जैसी फसलों के वाजिब दाम मिलना या सही समय पर कीमत मिलना लगभग असंभव जैसा हो गया हे। जाहिर है कि ऐसी घिसी-पिटी व्यवस्था में नई पीढ़ी तो काम करने से रही, सो वह खेत छोड़ कर चाकरी करने पलायन कर रही है।
जब तक खेत उजड़गे, दिल्ली जैसे महानगरों की ओर ना तो लोगों का पलायन रूकेगा और ना ही अपराध रूकेंगे , ना ही जन सुविधाओं का मूलभूत ढ़ांचा लोगों की अपेक्षाओं के अनुरूप होगा। आज किसानों के पलायन के कारण दिल्ली  व अन्य महानगर त्राहि-त्राहि कर रहे हैं, कल जमीन से उखड़े ये कुंठित, बेरोजगार और हताष लोगों की भीड़ कदम-कदम पर महानगरों का रास्ता रोकेगी। यदि दिल से चाहते हो कि कभी किसान दिल्ली की ओर ना आए तो सरकार व समाज पर दवाब बनाएं कि दिल्ली या लखनऊ उसके खेत पर लालच से लार टपकाना बंद कर दे।
पंकज चतुर्वेदी

बयां हो अज़म आख़िर किस तरह से आपका फ़िरदौस
क़लम की जान हैं, फ़ख्र-ए-सहाफ़त साहिबा फ़िरदौस
शुक्रिया फ़िरदौस बेहद शुक्रिया फ़िरदौस...

सहाफ़त के जज़ीरे से ये वो शहज़ादी आई है
मिली हर लफ़्ज़ को जिसके मुहब्बत की गवाही है
हर एक तहरीर पे जिनकी फ़साहत नाज़ करती है
सहाफ़त पर वो और उन पर सहाफ़त नाज़ करती है
वो हैं शहज़ादी-ए-अल्फ़ाज़ यानी साहिबा फ़िरदौस
शुक्रिया फ़िरदौस बेहद शुक्रिया फ़िरदौस...

क़लम जब भी उठा हक़ व सदाक़त की ज़बां बनकर
बयान फिर राज़ दुनिया के किए राज़दां बनकर
मियान-ए-हक़ व बातिल फ़र्क़ यूं वाज़ा किया तुमने
तकल्लुफ़ बर तरफ़ क़ातिल को है क़ातिल लिखा तुमने
तेरा हर लफ़्ज़ बातिल के लिए है आईना फ़िरदौस
शुक्रिया फ़िरदौस बेहद शुक्रिया फ़िरदौस...

कभी मज़मून में पिन्हा किया है दर्दे-मिल्लत को
कभी अल्फ़ाज़ का जामा दिया अंदाज़-ए-उल्फ़त को
यक़ीं महकम, अमल पैहम, मुहब्बत फ़ातहा आलम
सफ़र इस सिम्त में जारी रहा है आपका हर दम
अदा हक़ सहाफ़त आपने यूं है किया फ़िरदौस
शुक्रिया फ़िरदौस बेहद शुक्रिया फ़िरदौस...

हर इक लब रहे जारी कुछ ऐसा साज़ बन जाए
ख़िलाफ़-ए-ज़ुल्म तुम मज़लूम की आवाज़ बन जाओ
हों चर्चे हर ज़बां पर आम इक दिन तेरी शौहरत के
हर  इक तहरीर मरहम सी लगे ज़ख्मों पे मिल्लत के
तुम्हारे हक़ में करते हैं अनस ये ही दुआ फ़िरदौस
शुक्रिया फ़िरदौस बेहद शुक्रिया फ़िरदौस...
-मन्नान रज़ा रिज़वी

इतिहास साक्षी है जब-जब विश्व के किसी भी देश में जनता ने आंदोलन आरम्भ किया और जनहित हेतु आंदोलन आरम्भ हुआ तो उसका मुख्य कारण था की जनता में उपजा हुआ असंतोष। जिसके परिणाम स्वरूप उस देश की जनता ने आंदोलन किया और अपने अधिकारों की रक्षा हेतु उस देश की जनता अपने-अपने घरों से निकलकर सड़कों पर आ खड़ी हुई। मात्र सड़कों पर आ जाने से आंदोलन सफल एवं सिद्ध हो जाए ऐसा कदापि नहीं हो सकता। क्योंकि, किसी भी आंदोलन को सफल एवं सिद्ध करने के लिए उस देश की जनता को बड़ी से बड़ी कुर्बानी देनी पड़ती है जिसमें देश का हर तबका मुख्य रूप से उस आंदोलन का भागीदार होता है। तब जाकर किसी भी देश का आंदोलन सफल एवं कामयाब होता है। क्योंकि, उस देश की जनता स्वयं अपना नेता चुनती है। जोकि उसके दुख दर्दों को समझे और उस दुख दर्द का निराकरण करने की क्षमता रखता हो। यह भी अडिग सत्य है कि किसी भी देश में आंदोलन तभी हुआ जब उस देश में शासन के प्रति पनपा हुआ आक्रोश एवं शासक के प्रति दूसरा विकल्प जनता को प्राप्त हो गया हो। जबतक किसी भी देश की जनता को दूसरा विकल्प नहीं मिल जाता तबतक आंदोलन कदापि नहीं होता। क्योंकि, किसी भी आंदोलन के सफल होने के लिए नेतृत्व का होना अत्यंत आवश्यक है। जब किसी भी देश में जनता को अपना दूसरा विकल्प दिखाई देता है कि यह व्यक्ति देश की सत्ता पर विराजमान होकर हम जनता की समस्याओं का निराकरण निश्चित ही कर देगा तभी उस देश में आंदोलन का बिगुल बजता है। और तब देश की जनता सड़कों पर उतर जाती है। क्योंकि, किसी भी आंदोलन में जान माल की भी भारी क्षति पहुंचती है। परन्तु, उस देश की जनता इस बात की परवाह न करते हुए आंदोलन के लिए एक जुट होती चली जाती है। और आंदोलन को सफल बनाकर ही शांत होती है। उसके बाद अपने संघर्षशील व्यक्ति को देश की गद्दी पर बैठा करके देश का नेता बना देती है। जिसे देश की जनता अपनी जिम्मेदारी सौंप देती है। लोकतंत्र का यही मुख्य रूप है। इसे ही लोकतंत्र कहते हैं। जनता के लिए जनता हेतु जनता की सरकार दिन रात कार्य करे लोकतंत्र का यही मुख्य मंत्र है।
दूसरा सबसे अहम बिंदु यह है कि नेतृत्व क्षमता। किसी भी देश में आंदोलन नेतृत्व क्षमता के कारण ही हुआ है न कि इससे इतर। किसी भी नेता के नेतृत्व से फैला हुआ असंतोष ही आंदोलन का मुख्य कारण बना है।
राजनीति का यही मुख्य मूल उद्देश्य है। सफल एवं दृढ़ तथा जनता के प्रति समर्पित नेता को ही देश की कमान सौंपी जाती है कि वह देश की जनता की समस्याओं का निराकरण कर सके। जोकि जनता की समस्याओं से भलिभांति अवगत हो, साथ ही जनता की समस्याओं के निराकरण की प्रबल क्षमता रखता हो। ऐसे ही व्यक्ति को सदैव किसी भी देश की सत्ता की बागडोर दी जाती है। जोकि सेवाभाव से अपने कुशल अनुभव के साथ देश की सेवा कर सके। किसी भी देश की राजनीति का मुख्य आधार यही होता है।
ऐसा कदापि नहीं होता कि किसी भी देश की सत्ता पर अअनुभवी एवं अप्रतिबद्ध तथा अप्रबल व्यक्ति को सत्ता की कुर्सी पर बैठाकर देश की जनता के ऊपर थोप दिया जाए और देश की जनता उस थोपे हुए व्यक्ति को स्वीकार्य करले। ऐसा कदापि नहीं होता।
किसी भी देश की राजनीतिक व्यवस्था फैमिली कैरियर अथवा किसी भी व्यक्ति को राजनीति सिखाने की प्रयोगशाला के रूप में कभी भी प्रयोग नहीं की जाती क्योंकि, ऐसा करना देशहित एवं जनहित के लिए कदापि शुभ संकेत नहीं है। इसलिए किसी भी देश में राजनीति को प्रयोगशाला के रूप में प्रयोग करना संभव नहीं है। क्योंकि, यह संपूर्ण देश एवं देश की जनता के हित की बात होती है। क्योंकि, किसी भी देश का विकास उसके नेतृत्व के विवेक पर ही निर्भर करता है। यदि नेतृत्व क्षमत प्रबल एवं कुशल है तो देश विश्वस्तर पर अपनी पहचान बनाने में सफल एवं कामयाब होता है। किसी भी देश का नेतृत्व यदि सफल एवं दूरगामी सोच वाले नेता के हाथों में है तो वह देश विश्व की कूटनीति एवं राजनीति में सफल होकर संपूर्ण विश्व का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हुए आगे बढ़ता चला जाता है। और एक दिन जाकर वह देश विश्व की पहली पंक्ति में खड़ा हो जाता है। ऐसा इसलिए होता है कि उस देश के नेता ने संपूर्ण विश्व का ध्यान अपनी ओर खींचा और विश्व की कूटनीति एवं राजनीति में वह नेता सफल हो गया। जिससे कि संबन्धित देश की आर्थिक एवं सामाजिक प्रगति होती है। इसी के ठीक विपरीत यदि किसी भी देश के नेतृत्व में यदि तनिक भी विश्व स्तर के नेतृत्व शक्ति का आभाव है तो वह देश कितना ही बलवान क्यों न हो परन्तु, अपने नेता की अक्षमताओं के कारण विश्व स्तर की राजनीति में सफल कदापि नहीं हो सकता। यह सत्य है।
अतः किसी भी देश की राजनीति में परिवारवाद एवं कैरियरवाद को बढ़ावा देना उस देश के राजनीतिक भविष्य के लिए बहुत ही बड़ा खतरा है जोकि, अत्यंत घातक है। क्योंकि, किसी भी देश की राजनीति परिवारवाद एवं कैरियरवाद के लिए नहीं होती। क्योंकि, राजनीति का मुख्य उद्देश्य देशहित एवं जनहित पर ही आधारित होता है। न कि इससे इतर।
परिवारवाद एवं कैरियरवाद की राजनीति किसी भी देश के लिए एक कैंसर है जोकि देश को धीरे-धीरे खोखला करके एक दिन समाप्त कर देती है। यह भी सत्य है कि आज किसी भी राजनीतिक पार्टी में योग्य व्यक्ति की कमी नहीं है। अनेकों ऐसे व्यक्ति हैं जोकि सुधार एवं परिवर्तन की क्षमता रखते हैं लेकिन वह ऐसी राजनीतिक पार्टियों में हैं कि वह आगे आ ही नहीं सकते। क्योंकि, वंशवाद की राजनीति हावी होने के कारण योग्य व्यक्ति को अपनी राजनीतिक पार्टी में देश की सेवा का अवसर नहीं प्राप्त होता। यह सत्य है जिसे बड़ी ही सरलता के साथ देश की राजनीति में देखा जा सकता है। क्योंकि, शीर्ष नेतृत्व की सीट किसी दूसरे व्यक्ति के लिए रिजर्व है। जोकि वंशवाद एवं परिवारवाद पर आधारित है। तो क्या ऐसा करना उचित एवं न्यायसंगत है। क्या इससे देश एवं जनता की समस्याओं का निराकरण हो पाएगा। इसे सोचने और समझने की आवश्यकता है। इस बिंदु पर चिंतन तथा मनन करने की आवश्यकता है।
क्योंकि, भारत की राजनीति में आज जो कुछ हो रहा है वह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। आज के समय में भारत की राजनीति को फैमिली कैरियर के रूप में ढ़ालने खाका खींचा जा रहा है। यह अत्यंत चिंताजनक है। इससे अधिक यह और भी चिंताजनक है कि आज देश की राजनीति को ट्रेनिंग स्कूल के रूप में ढ़ालने की कोशिश हो रही है। किसी भी चर्चित परिवार एवं किसी भी चर्चित वंश में जन्मे हुए व्यक्ति को देश के ऊपर थोपने का प्रयास किया जा रहा है। क्या यह न्यायसंगत है? क्या यह सही एवं उचित है? क्या ऐसा किया जाना चाहिए? इसलिए कि यह देश, देश के प्रत्येक नागरिक का है। न कि कुछ चर्चित परिवार एवं वंशवाद की औधोगिक फैक्ट्री। इसलिए देश एवं देश की जनता के भविष्य के साथ खिलवाड़ करना अत्यंत गलत एवं अन्याय पूर्ण है। ऐसा कदापि नहीं होना चाहिए। देश की प्रत्येक जनता को इस संदर्भ में गंभीरता पूर्वक विचार एवं आत्म मंथन करना चाहिए कि क्या सत्य है अथवा क्या असत्य। क्योंकि यह देश के प्रत्येक नागरिक के भविष्य की बात है।       
सज्जाद हैदर


फ़िरदौस ख़ान
कैफ़ियात मशहूर शायर कै़फ़ी आज़मी के सात काव्य संग्रहों का संकलन है, जिसमें इनकार, आख़िर-ए-शब, मसनवी, आवारा सजदे, इब्लीस की मजलिस-ए-शूरा, इब्लीस की मजलिस-ए-शूरा: दूसरा इजलास और मुतफ़र्रिक़ात शामिल हैं. 19 जनवरी, 1909 को उत्तर प्रदेश के आज़मढ़ ज़िले के गांव मिज्वां में जन्मे कै़फ़ी आज़मी का असली नाम अख़्तर हुसैन रिज़वी था. उन्होंने फ़िल्मों में भी गीत लिखे, जिन्हें सुनकर आज भी लोग झूम उठते हैं. उन्हें कई राष्ट्रीय पुरस्कार मिले. 1970 में उन्हें फ़िल्म सात हिंदुस्तानी के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार प्रदान किया गया. इसके बाद 1975 में उन्हें आवारा सजदे के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार और सोवियत लैंड नेहरू अवॉर्ड से नवाज़ा गया. इसी साल उन्हें फ़िल्म गरम हवा के लिए फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार भी मिला. 10 मई, 2002 को मुंबई में दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया. उनकी मौत के क़रीब एक दशक बाद यह संकलन प्रकाशित हुआ है. इस बारे में शबाना आज़मी कहती हैं, कैफ़ियात कै़फ़ी साहब की कुल्लियात (समग्र) है. इसे उनकी ज़िंदगी में प्रकाशित होना चाहिए था, मगर ऐसा नहीं हो सका. मुझे इसका ग़म है.

अपने बारे में कै़फ़ी आज़मी कहते थे, अपने बारे में यक़ीन के साथ सिर्फ़ इतना कह सकता हूं कि मैं महकूम (ग़ुलाम) हिंदुस्तान में पैदा हुआ, आज़ाद हिंदुस्तान में बूढ़ा हुआ और सोशलिस्ट हिंदुस्तान में मरूंगा. यह किसी मज्ज़ूब की बड़ या दीवाने का सपना नहीं है. समाजवाद के लिए सारे संसार में और खु़द मेरे अपने देश में एक मुद्दत से जो अज़ीम जद्दोजहद हो रही है, उससे हमेशा जो मेरा और मेरी शायरी का ताल्लुक़ रहा है, इस यक़ीन ने उसी की कोख से जन्म लिया है.

कै़फ़ी आज़मी की चार बहनों की टीबी से मौत हो गई थी. इसलिए उनके वालिद सोचते थे कि उन्होंने अपने बेटों को अंग्रेज़ी तालीम दी है, इसलिए यह सब हो रहा है. उन्होंने फ़ैसला किया कि वह कै़फ़ी को मौलवी बनाएंगे और इसके लिए उन्हें लखनऊ में सुल्तानुलमदारिस में दाख़िल करा दिया गया. यहां कै़फ़ी ने छात्रों के साथ मिलकर एक कमेटी बनाई और अपनी मांगें पूरी कराने के लिए मुहिम शुरू कर दी. उन्होंने बैठकें कीं, हड़तालें कीं और आख़िर में अपनी मांगें मनवा कर ही दम लिया. इसी दौरान उन्होंने प्राइवेट इम्तिहान देकर कई डिग्रियां हासिल कर लीं, जिनमें लखनऊ यूनिवर्सिटी से दबीर माहिर (फ़ारसी), दबीर कामिल (फ़ारसी), आलिम (अरबी) और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से आला क़ाबिल (उर्दू), मुंशी (फ़ारसी) और मुंशी कामिल (फ़ारसी) शामिल हैं. बक़ौल अफ़साना निगार आयशा सिद्दीक़ी, कै़फ़ी साहब को उनके बुज़ुर्गों ने एक दीनी मदरसे में इसलिए दा़ख़िल किया था कि वहां यह फ़ातिहा पढ़ना सीख जाएंगे. कै़फ़ी साहब इस मदरसे में मज़हब पर फ़ातिहा पढ़कर निकल आए. कै़फ़ी साहब ने ग्यारह साल की उम्र में अपनी पहली ग़ज़ल लिखी थी. बेगम अख़्तर ने इसे अपनी आवाज़ दी और यह हिंदुस्तान और पाकिस्तान में मशहूर हो गई-
इतना तो ज़िंदगी में किसी की ख़लल पड़े
हंसने से हो सुकून, न रोने से कल पड़े...

किताब के शुरू में शबाना आज़मी भी अपने पिता की ज़िंदगी के कई प्रसंगों को बयां करती हैं. वह लिखती हैं, कै़फ़ी साहब की ज़िंदगी एक ऐसे इंसान, एक ऐसे शायर की कहानी है, जिसने ज़िंदगी को पूरी तरह भरपूर जी कर देखा है और चौरासी बरस की उम्र में भी उनके हौसलों में कोई थकान नहीं दिखाई दी. 8 फ़रवरी, 1973 को उन पर फ़ालिज का असर हुआ था. हम सबको लगा कि शायद आइंदा वह कुछ न कर सकें. पांच दिनों बाद उन्हें होश आया. वह मुश्किल से बोल सकते थे. उसी हालत में उन्होंने शमा ज़ैदी को एक नज़्म लिखवाई, धमाका. उस धमाके के बारे में जो उन्होंने पांच दिन पहले अपने दिमाग़ में महसूस किया था और उसी महीने में अस्पताल से निकलने से पहले ही उन्होंने अपनी एक नज़्म ज़िंदगी लिख डाली. मैं समझती हूं, ज़िंदगी उनकी बेहतरीन नज़्मों में से एक है-

आज अंधेरा मेरी नस-नस में उतर जाएगा
आंखें बुझ जाएंगी, बुझ जाएंगे अहसास-ओ-शऊर
और ये सदियों से जलता सा, सुलगता-सा वजूद
इससे पहले कि मेरी बेटी के वो फूल से हाथ
गर्म रुख़सार को ठंडक बख़्शें
इससे पहले कि मेरे बेटे का मज़बूत बदन
जान-ए-मफ्लूज में शक्ति भर दे
इससे पहले कि मेरी बीवी के होंठ
मेरे होंठों की तपिश पी जाएं
राख हो जाएगा जलते-जलते
और फिर राख बिखर जाएगी...

यह नज़्म निराशा और नाउम्मीदी पर नहीं, उस आशा और उम्मीद पर ख़त्म होती है कि एक दिन ज़िंदगी मौत से डरना छोड़ देगी. दरअसल उनकी बात सिर्फ़ एक इंसान के दिल की बात नहीं, दुनिया के सारे इंसानों के दिलों की बात हो जाती है और महसूस करते हैं कि उनकी शायरी में सिर्फ़ उनका नहीं, हमारा आपका सबका दिल धड़क रहा है.

कै़फ़ी आज़मी अपनी बेटी शबाना से बहुत स्नेह करते थे. 18 सितंबर, 1974 को लिखी उनकी नज़्म एक दुआ, में उनकी यही मुहब्बत झलकती है-
अब और क्या तेरा बीमार बाप देगा तुझे
बस इक दुआ कि खु़दा तुझको कामयाब करे
वह टांक दे तेरे आंचल में चांद और तारे
तू अपने वास्ते जिसको भी इंतिख़ाब करे...

उन्होंने अपनी पत्नी शौकत आज़मी को संबोधित करते हुए एक नज़्म इंतिसाब (समर्पण) लिखी, जिसमें वह कहते हैं-
ऐसा झोंका भी इक आया था कि दिल बुझने लगा
तूने उस हाल में भी मुझको संभाले रक्खा
कुछ अंधेरे जो मिरे दम से मिले थे तुझको
आफ़रीं तुझको कि नाम उनका उजाले रक्खा
मेरे ये सजदे जो आवारा भी, बदनाम भी हैं
अपनी चौखट पे सजा ले जो तेरे काम के हों...

कै़फ़ी को अपनी एक नज़्म बोसा के लिए अपने साथियों की आलोचना का शिकार होना प़डा था. हुआ यूं कि टेक्सटाइल वर्कर्स यूनियन के मज़दूरों की हड़ताल के दौरान कै़फी ने एक रूमानी नज़्म लिखी. मज़दूरों की ह़डताल नाकाम रही और उन्होंने इसके लिए उनकी नज़्म को ज़िम्मेदार ठहराया-
जब भी चूम लेता हूं इन हसीन आंखों को
सौ चिराग़ अंधेरे में झिलमिलाने लगते हैं
फूल क्या, शिगू़फे क्या, चांद क्या, सितारे क्या
सब रक़ीब क़दमों पर सर झुकाने लगते हैं
लम्हे भर को ये दुनिया ज़ुल्म छोड़ देती है
लम्हे भर को सब पत्थर मुस्कराने लगते हैं...

उनकी नज़्म अंदेशे भी लोकप्रिय नज़्मों में शुमार की जाती है. इसमें प्रेमिका की मनोस्थिति का शानदार तरीक़े से चित्रण किया गया है. नज़्म का एक-एक लफ़्ज़ दर्द को अपने में समेटे नज़र आता है-
दिल ने ऐसे भी कुछ अफ़साने सुनाए होंगे
अश्क आंखों ने पिए और न बहाए होंगे
बंद कमरे में जो ख़त मेरे जलाए होंगे
इक-इक हर्फ़ ज़मीं पे उभर आया होगा
उसने घबरा के नज़र लाख बचाई होगी
मिट के इक ऩक्श ने सौ शक्ल दिखाई होगी
मेज़ से जब मेरी तस्वीर हटाई होगी
हर तऱफ मुझको तड़पता हुआ पाया होगा...

वह तरक़्क़ी पसंद इंसान थे. उन्होंने हमेशा अपनी बीवी और बेटी को भी यही सिखाया कि उनमें आत्मविश्वास हो और वे अपने पैरों पर खड़ी हों, अपने सपनों को साकार करें. यह सोच उनके कलाम में भी झलकती है-
जिसमें जलता हूं उसी आग में जलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
ज़िंदगी जेहद में है, सब्र के क़ाबू में नहीं
नब्ज़-ए-हस्ती का लहू कांपते आंसू में नहीं
उड़ने खुलने में है नकहत, ख़म-ए-गेसू में नहीं
उसकी आज़ाद रविश पर भी मचलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
गोशे-गोशे में सुलगती है चिता तेरे लिए
फ़र्ज़ का भेस बदलती है क़ज़ा तेरे लिए
क़हर है तेरी हर इक नर्म अदा तेरे लिए
ज़हर ही ज़हर है दुनिया की हवा तेरे लिए
रुत बदल डाल अगर फलना-फूलना है तुझे...

वह गंगा-जमुनी तहज़ीब के पक्षधर थे. बाबरी मस्जिद की शहादत पर उन्होंने नज़्म दूसरा बनबास लिखी. इस नज़्म में सांप्रदायिकता पर कड़ा प्रहार किया गया है. कै़फ़ी आज़मी लिखते हैं-
राम बनबास से जब लौट के घर में आए
याद जंगल बहुत आया, जो नगर में आए
रक़्स-ए-दीवानगी आंगन में जो देखा होगा
छह दिसंबर को स्रीराम ने सोचा होगा
तुमने बाबर की तरफ़ फेंके थे सारे पत्थर
है मेरे सर की ख़ता, ज़ख़्म जो घर में आए
पांव सरजू में अभी राम ने धोए भी न थे
कि नज़र आए वहां खू़न के गहरे धब्बे
पांव धोए बिना सरजू के किनारे से उठे
राम यह कहते हुए अपने द्वारे से उठे
राजधानी की फ़िज़ा आई नहीं रास मुझे
छह दिसंबर को मिला दूसरा बनबास मुझे...

कै़फ़ियात एक बेहतरीन किताब है. इसकी ख़ास बात यह भी है कि इसमें फ़ारसी के शब्दों का हिंदी अनुवाद दिया गया है, ताकि ग़ैर उर्दू भाषी पाठकों को इसे समझने में मुश्किल पेश न आए. कै़फ़ी साहब का कलाम ख़ालिस उर्दू में है, इसलिए इससे उन लोगों को भी फ़ायदा होगा, जो उर्दू शायरी पसंद करते हैं, लेकिन फ़ारसी लिपि पढ़ नहीं सकते हैं.

हवा की विशाल मात्रा के तेजी से गोल-गोल घूमने पर उत्पन्न तूफान उष्णकटिबंधीय चक्रीय बवंडर कहलाता है। यह सभी जानते हैं कि पृथ्वी भौगोलिक रूप से दो गोलार्धाें में विभाजित है। ठंडे या बर्फ वाले उत्तरी गोलार्द्ध में उत्पन्न इस तरह के तूफानों को हरिकेन या टाइफून कहते हैं । इनमें हवा का घूर्णन घड़ी की सुइयों के विपरीत दिशा में एक वृत्ताकार रूप में होता है। जब बहुत तेज हवाओं वाले उग्र आंधी तूफान अपने साथ मूसलाधार वर्षा लाते हैं तो उन्हें हरिकेन कहते हैं। जबकि भारत के हिस्से  दक्षिणी अर्द्धगोलार्ध में इन्हें चक्रवात या साइक्लोन कहा जाता है। इस तरफ हवा का घुमाव घड़ी की सुइयों की दिशा में वृत्ताकार होता हैं। किसी भी उष्णकटिबंधीय अंधड़ को चक्रवाती तूफान की श्रेणी में तब गिना जाने लगता है जब उसकी गति कम से कम 74 मील प्रति घंटे हो जाती है। ये बवंडर कई परमाणु बमों के बराबर ऊर्जा पैदा करने की क्षमता वाले होते है।
धरती के अपने अक्ष पर घूमने से सीधा जुड़ा है चक्रवती तूफानों का उठना। भूमध्य रेखा के नजदीकी जिन समुद्रों में पानी का तापमान 26 डिग्री सेल्सियस या अधिक होता है, वहां इस तरह के चक्रवातों के उभरने  की संभावना होती है। तेज धूप में जब समुद्र के उपर की हवा गर्म होती है तो वह तेजी से ऊपर की ओर उठती है। बहुत तेज गति से हवा के उठने से नीसे कम दवाब का क्ष्ज्ञेत्र विकसित हो जाता है। कम दवाब के क्षेत्र के कारण वहाँ एक शून्य या खालीपन पैदा हो जाता है। इस खालीपन को भरने के लिए आसपास की ठंडी हवा तेजी से झपटती है । चूंकि पृथ्वी भी अपनी धुरी पर एक लट्टू की तरह गोल घूम रही है सो हवा का रुख पहले तो अंदर की ओर ही मुड़ जाता है और फिर हवा तेजी से खुद घूर्णन करती हुई तेजी से ऊपर की ओर उठने लगती है। इस तरह हवा की गति तेज होने पर नीेचे से उपर बहुत तेज गति में हवा भी घूमती हुई एक बड़ा घेरा बना लेती है। यह घेरा कई बार दो हजार किलोमीटर के दायरे तक विस्तार पा जाता है। सनद रहे भूमध्य रेखा पर पृथ्वी की घूर्णन गति लगभग 1038 मील प्रति घंटा है जबकि ध्रुवों पर यह शून्य रहती है।
इस तरह उठे बवंडर के केंद्र को उसकी आंख कहा जाता है। उपर उठती गर्म हवा समु्रद से नमी को साथ ले कर उड़ती है। इन पर धूल के कण भी जम जाते हैं और इस तरह संघनित होकर गर्जन मेघ का निर्माण होता है। जब ये गर्जन मेघ अपना वजन नहीं संभाल पाते हैं तो वे भारी बरसात के रूप में धरती पर गिरते हैं। चक्रवात की आँख के इर्द गिर्द 20-30 किलोमीटर की गर्जन मेघ की एक दीवार सी खड़ी हो जाती है और इस चक्रवाती आँख के गिर्द घूमती हवाओं का वेग 200 किलोमीटर प्रति घंटा तक हो जाता है। कल्पना करें कि एक पूरी तरह से विकसित चक्रवात एक सेकेंड में बीस लाख टन वायु राशि खींच लेता है। तभी कुछ ही घंटों में सारे साल की बरसात हो जाती है।
इस तरह के बवंडर संपत्ति और इंसान को तात्कालिक नुकसान तो पहुंचाते ही हैं, इनका दीर्घकालीक प्रभाव पर्यावरण पर पड़ता हे। भीषण बरसात के कारण बन गए दलदली क्षेत्र, तेज आंधी से उजड़ गए प्राकृतिक वन और हरियाली, जानवरों का नैसर्गिक पर्यावास समूची प्रकृति के संतुलन को उजाड़ देता है। जिन वनों या पेड़ों को संपूर्ण स्वरूप पाने में दशकों लगे वे पलक झपकते नेस्तनाबूद हो जाते हैं। तेज हवा के कारण तटीय क्षेत्रों में मीठे पानी मे खारे पानी और खेती वाली जमीन पर मिट्टी व दलदल बनने से हुए क्षति को पूरा करना मुश्किल होता है।
बहरहाल हम केवल ऐसे तूफानों के पूर्वानुमान से महज जनहानि को ही बचा सकते हैं। एक बात और किस तरह से तटीय कछुए यह जान जाते हैं कि आने वाले कुछ घंटों में समुद्र में उंची लहरें उठेंगी और उन्हें तट की तरफ सुरक्षित स्थान की ओर जाना, एक शोध का विषय है। हाल ही में फणी तूफान के दौरान ये कछुए तट पर रेत के धोरों में कई घंटे पहले आ कर दुबक गए और तूफान जाने के बाद खुद ब खुद समुद्र में उतर गए। यह एक आश्चर्य से कम नहीं है।


आपदा से निबटने में भारत की तारीफ
संयुक्त राष्ट्र की आपदा न्यूनीकरण एजेंसी ने भारतीय मौसम विज्ञान विभाग की ओर से चक्रवाती तूफान फनी की पूर्व चेतावनियों की “लगभग अचूक सटीकता” की सराहना की है। इन चेतावनियों ने लोगों को बचाने और जनहानि को काफी कम करने की सटीक योजना तैयार करने में अधिकारियों की मदद की और पुरी तट के पास इस चक्रवाती तूफान के टकराने के बाद ज्यादा से ज्यादा लोगों की जान बचाई जा सकी। भारत में पिछले 20 साल में आए इस सबसे भयंकर तूफान ने भारत के पूर्वी राज्य ओडिशा के तट से टकराने के बाद कम से कम 8ठ लोगों की जान ले ली। तीर्थस्थल पुरी में समुद्र तट के पास स्थित इलाके और अन्य स्थान भारी बारिश के बाद जलमग्न हो गए जिससे राज्य के करीब 11 लाख लोग प्रभावित हुए हैं। भारतीय मौसम विभाग ने फनी को “अत्यंत भयावह चक्रवाती तूफान” की श्रेणी में रखा है। संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियां फनी की गति पर करीब से नजर बनाए हुए हैं और बांग्लादेश में शरणार्थी शिविरों में रह रहे परिवारों को बचाने के इंतजाम कर रही हैं। यह तूफान पश्चिम बंगाल में दस्तक देने के बाद बांग्लादेश पहुंचेगा जिसे अलर्ट पर रखा गया है।

आपदा जोखिम न्यूनीकरण के लिए संयुक्त राष्ट्र महासचिव के विशेष प्रतिनिधि मामी मिजुतोरी ने कहा, “अत्यंत प्रतिकूल स्थितियों के प्रबंधन में भारत का हताहतों की संख्या बेहद कम रखने का दृष्टिकोण सेनदाई रूपरेखा के क्रियान्वयन में और ऐसी घटनाओं में अधिक जिंदगियां बचाने में बड़ा योगदान है।” मिजुतोरी आपदा जोखिम न्यूनीकरण 2015-2030 के सेनदाई ढांचे की ओर इशारा करता है। यह 15 साल का ऐच्छिक, अबाध्यकारी समझौता है जिसके तहत आपदा जोखिम को कम करने में प्रारंभिक भूमिका राष्ट्र की है लेकिन इस जिम्मेदारी को अन्य पक्षधारकों के साथ साझा किया जाना चाहिए।
जलवायु परिवर्तन और चक्रवात
यह तो हुआ चक्रवाती तूफान का असली कारण लेकिन भारत उपमहाद्वीप में बार-बार और हर बार पहले से घातक तूफान आने का असल कारण इंसान द्वारा किये जा रहे प्रकृति के अंधाधुध शोषण से उपजी पर्यावरणीय त्रासदी ‘जलवायु परिवर्तन’ भी है। इस साल के प्रारंभ में ही अमेरिका की अंतरिक्ष शोध संस्था नेशनल एयरोनाटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन ‘नासा ने चेता दिया था कि जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रकोप से चक्रवाती तूफान और खूंखार होते जाएंगे। जलवायु परिवर्तन के कारण उष्णकटिबंधीय महासागरों का तापमान बढ़ने से सदी के अंत में बारिश के साथ भयंकर बारिश और तूफान आने की दर बढ़ सकती है। यह बात नासा के एक अध्ययन में सामने आई है। अमेरिका में नासा के ‘‘जेट प्रोपल्शन लेबोरेटरी’’ (जेपीएल) के नेतृत्व में यह अध्ययन किया गया। इसमें औसत समुद्री सतह के तापमान और गंभीर तूफानों की शुरुआत के बीच संबंधों को निर्धारित करने के लिए उष्णकटिबंधीय महासागरों के ऊपर अंतरिक्ष एजेंसी के वायुमंडलीय इन्फ्रारेड साउंडर (एआईआरएस) उपकरणों द्वारा 15 सालों तक एकत्र आकंड़ों के आकलन से यह बात सामने आई। अध्ययन में पाया गया कि समुद्र की सतह का तापमान लगभग 28 डिग्री सेल्सियस से अधिक होने पर गंभीर तूफान आते हैं। ‘जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स’(फरवरी 2019) में प्रकाशित अध्ययन में बताया गया है कि समुद्र की सतह के तापमान में वृद्धि के कारण हर एक डिग्री सेल्सियस पर 21 प्रतिशत अधिक तूफान आते हैं। ‘जेपीएल’ के हार्टमुट औमन के मुताबिक गर्म वातावरण में गंभीर तूफान बढ़ जाते हैं। भारी बारिश के साथ तूफान आमतौर पर साल के सबसे गर्म मौसम में ही आते हैं।


चेतावनी की चुनौती  डेढ शती
कोई 155 साल पहले, जब भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन था, सन 1864 में देश के पूर्वी समुद्री तट पर दो भीषण तूफान आए - अक्तूबर में कोलकाता में और फिर नवंबर में मछलीपट्टनम में। अनगिनत लोग मारे गए और अकूत संपत्ति इस विपदा के उदरस्थ हो गई। उन दिनों कोलकाता देश की राजधानी था और व्यापार व फौज का मुख्य अड्डा। ब्रितानी सरकार ने तत्काल एक कमेटी गठित की ताकि ऐसे तूफानों की पहले से सूचना पाने का कोई तंत्र विकसित किया जा सके। और एक साल के भीतर ही सन 1865 में  कोलकाता बंदरगाह ऐसा पहला समुद्र तट बन गया जहां समुद्री बवंडर आने की पूर्व सूचना की प्रणाली स्थापित हुई। सनद रहे भारत में मौसम विभाग की स्थापना इस केंद्र के दस साल बाद यानि 1875 में हुई थी।
सन 1880 तक भारत के पश्चिमी समुद्री तटों - मुंबई, कराची, रत्नागिरी, कारवाड़, कुमरा आदि में भी तूफान पूर्व सूचना के केंद्र स्थापित हो गए थे।  मौसम विभाग की स्थापना और विज्ञान-तकनीक के विकास के साथ-साथ आकलन , पूर्वानुमान और सूचनओ को त्वरित प्रसारित करने की प्रणाली बदलती रहीं।
आजादी के बाद सन 1969 में भारत सरकार ने आंध्रप्रदेश में बार-बार आ रहे तूफान, पलरायन व नुकसान के हालातों के मद्देनजर एक कमेटी - सीडीएमसी (साईक्लोन डिस्ट्रेस मिटिगेशन कमेटी) का गठन किया ताकि चक्रवाती तूफान की प्राकृतिक आपदा से जन और संपत्त की हानि को कम से कम किया जा सके।  उसी दौरान ओडिसा और पश्चिम बंगाल में भी ऐसी कमेटियां बनाई गईं जिनमें मौसम वैज्ञानिक, इंजीनियर, समाजशास्त्री आदि शामिल थे। इस कमेटियों ने सन 1971-72 में अपनी रिपोर्ट पेश कीं और सभी में कहा गया कि तूफान आने की पूर्व सूचना जितनी सटीक और पहले मिलेगी, हानि उतनी ही कम होगी।  कमेटी के सुझाव पर विशाखपत्तनम और भुवनेश्वर में अत्याधुनिक मशीनों से लैस सूचना केंद्र तत्काल स्थापित किए गए।
भारतीय उपग्रहों के अंतरिक्ष में स्थापित होने और धरती की हर पल की तस्वीरें त्वरित मिलने के शानदार तकनीक के साथ ही अब तूफान पूर्वानुमान विभाग, चित्रों, इन्फ्रारेड चैनल, बादलों की गति व प्रकृति, पानी के वाष्पीकरण, तापमान आकलन जैसी पद्यतियों से कई-कई दिन पहले बता देता है कि आने वाला तूफान कब, किस स्थान पर कितने संवेग से आएगा। इसी की बदौलत ‘फणी’ आने से पहले ही ओडिशा सरकार ने 11 लाख से अधिक लोगों को 4400 से अधिक सुरक्षित आश्रय घरों में पहुंचा दिया। उनके लिए साफ पानी, प्राथमिक स्वास्थय , भेजन जैसी व्यवसथाएं बगैर किसी हड़बडाहट के हो गईं। जब 240 किलोमीटर प्रति घंटे की गति से बवंडर उठेगा तो सड़क, पुल, इमारत, बिजली के खंभे, मोबाईल टावर आदि को नुकसान तो होगा ही, लेकिन इसनते भयावह तूफान को देखते हुए जन हानि बहुत कम होना और पुनर्निमाण का काम तेजी से शुय हो जाना सटीक पूर्वानुमान प्रणाली के चलते ही संभव हुआ।
तबाही का नाम क्यों व कैसे
हाल ही में आए तूफान का नाम था -फणी, यह सांप के फन का बांग्ला अनुवाद है। इस तूफान का यह नाम भी बांग्लादेश ने ही दिया था। जान लें कि प्राकृतिक आपदा केवल एक तबाही मात्र नहीं होती, उसमें भविष्य के कई राज छुपे होते हैं। तूफान की गति, चाल, बरसात की मात्रा जसे कई आकलन मौसम वैज्ञानिकों के लिए एक पाठशाला होते हैं। तभी हर तूफान को नाम देने की प्िरक्रया प्रारंभ हुई। विकसित देशो में नाम रखने की प्रणाली 50 के दशक से विकसित है लेकिन हिंद महासागर इलाके के भयानक बवंडरों के ठीक तरह से अध्ययन करने के इरादे से सन 2004 में भारत की पहल पर आठ देशों ने एक संगठन बनाया। ये देश चक्रवातों की सूचना एकदूसरे से साझा करते हैं। ये आठ तटीय देश हैं - ं भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान, म्यांमार, मालदीव, श्रीलंका, ओमान और थाईलैंड ं।
दरअसल तूफानों के नाम एक समझौते के तहत रखे जाते हैं। इस पहल की शुरुआत अटलांटिक क्षेत्र में 1953 में एक संधि के माध्यम से हुई थी। अटलांटिक क्षेत्र में हेरिकेन और चक्रवात का नाम देने की परंपरा 1953 से ही जारी है जो मियामी स्थित नैशनल हरिकेन सेंटर की पहल पर शुरू हुई थी। 1953 से अमेरिका केवल महिलाओं के नाम पर तो ऑस्ट्रेलिया केवल भ्रष्ट नेताओं के नाम पर तूफानों का नाम रखते थे। लेकिन 1979 के बाद से एक नर व फिर एक नारी नाम रखा जाता है।
भारतीय मौसम विभाग के तहत गठित देशों का क्रम अंग्रेजी वर्णमाला के अनुसार सदस्य देशों के नाम के पहले अक्षर से तय होते हैं। जैसे ही चक्रवात इन आठ देशों के किसी हिस्से में पहुंचता है, सूची में मौजूद अलग सुलभ नाम इस चक्रवात का रख दिया जाता है। इससे तूफान की न केवल आसानी से पहचान हो जाती है बल्कि बचाव अभियानों में भी इससे मदद मिलती है। भारत सरकार इस शर्त पर लोगों की सलाह मांगती है कि नाम छोटे, समझ आने लायक, सांस्कृतिक रूप से संवेदनशील और भड़काऊ न हों ।किसी भी नाम को दोहराया नहीं जाता है। अब तक चक्रवात के करीब 64 नामों को सूचीबद्ध किया जा चुका है। कुछ समय पहले जब क्रम के अनुसार भारत की बारी थी तब ऐसे ही एक चक्रवात का नाम भारत की ओर से सुझाये गए नामों में से एक ‘लहर’ रखा गया था।
इस क्षेत्र में जून 2014 में आए चक्रवात नानुक का नाम म्यांमार ने रखा था। साल 2013 में भारत के दक्षिण-पूर्वी तट पर आए पायलिन चक्रवात का नाम थाईलैंड ने रखा था । इस इलाक़े में आए एक अन्य चक्रवात ‘नीलोफ़र का नाम पाकिस्तान ने दिया था। पाकिस्तान ने नवंबर 2012 में आए चक्रवात को ‘नीलम’ नाम दिया था। .इस सूची में शामिल भारतीय नाम काफ़ी आम नाम हैं, जैसे मेघ, सागर, और वायु। चक्रवात विशेषज्ञों का पैनल हर साल मिलता है और ज़रूरत पड़ने पर सूची फिर से भरी जाती है.
पंकज चतुर्वेदी


फ़िरदौस ख़ान
खिल उठे मुरझाए दिल, ताज़ा हुआ ईमान है
हम गुनाहगारों पे ये कितना बड़ा अहसान है
या ख़ुदा तूने अता फिर कर दिया रमज़ान है...
माहे-रमज़ान इबादत, नेकियों और रौनक़ का महीना है. यह हिजरी कैलेंडर का नौवां महीना होता है. इस्लाम के मुताबिक़ अल्लाह ने अपने बंदों पर पांच चीज़ें फ़र्ज क़ी हैं, जिनमें कलमा, नमाज़, रोज़ा, हज और ज़कात शामिल है. रोज़े का फ़र्ज़ अदा करने का मौक़ा रमज़ान में आता है. कहा जाता है कि रमज़ान में हर नेकी का सवाब 70 नेकियों के बराबर होता है और इस महीने में इबादत करने पर 70 गुना सवाब हासिल होता है. इसी मुबारक माह में अल्लाह ने हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर क़ु़रआन नाज़िल किया था. यह भी कहा जाता है कि इस महीने में अल्लाह शैतान को क़ैद कर देता है.

इबादत
रमज़ान से पहले मस्जिदों में रंग-रोग़न का काम पूरा कर लिया जाता है. मस्जिदों में शामियाने लग जाते हैं. रमज़ान का चांद देखने के साथ ही इशा की नमाज़ के बाद तरावीह पढ़ने का सिलसिला शुरू हो जाता है. रमज़ान के महीने में जमात के साथ क़ियामुल्लैल (रात को नमाज़ पढ़ना) करने को 'तरावीह' कहते हैं. इसका वक्त रात में इशा की नमाज़ के बाद फ़ज्र की नमाज़ से पहले तक है. हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने रमज़ान में क़ियामुल्लैल में बेहद दिलचस्पी ली. आपने फ़रमाया कि ''जिसने ईमान के साथ और अज्र व सवाब (पुण्य) हासिल करने की नीयत से रमज़ान में क़ियामुल्लैल किया, उसके पिछले सारे गुनाह माफ़ कर दिए जाएंगे.''उन्होंने फ़रमाया कि ''यह ऐसा महीना है कि इसका पहला हिस्सा अल्लाह की रहमत है, दरमियानी हिस्सा मग़फ़िरत है और आख़िरी हिस्सा जहन्नुम की आग से छुटकारा है.'' रमज़ान के तीसरे हिस्से को अशरा भी कहा जाता है. आपने फ़रमाया कि ''रमज़ान के आख़िरी अशरे की ताक़ (विषम) रातों में लैलतुल क़द्र की तलाश करो.'' लैलतुल क़द्र को शबे-क़द्र भी कहा जाता है. शबे-क़द्र के बारे में क़ुरआन में कहा गया है कि यह हज़ार रातों से बेहतर है, यानि इस रात में इबादत करने का सवाब एक हज़ार रातों की इबादत के बराबर है. मुसलमान रमज़ान की 21, 23, 25, 27 और 29 तारीख़ को पूरी रात इबादत करते हैं.

ख़ुशनूदी ख़ान कहती हैं- इस महीने में क़ुरआन नाज़िल हुआ, इसलिए रमज़ान बहुत ख़ास है. हर मुसलमान के लिए यह महीना मुक़द्दस और आला है. हमें इस महीने की अहमियत को समझते हुए ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त इबादत में गुज़ारना चाहिए. वैसे भी रमज़ान में हर नेकी और इबादत का सवाब साल के दूसरे महीनों से ज़्यादा ही मिलता है. वे कहती हैं कि शबे-क़द्र को उनके ख़नदान के सभी लोग रातभर जागते हैं. मर्द इबादत के लिए मस्जिदों में चले जाते हैं और औरतें घर पर इबादत करती हैं.

वहीं, ज़ुबैर कहते हैं कि काम की वजह से पांचों वक़्त क़ी नमाज़ नहीं हो पाती, लेकिन रमज़ान में उनकी कोशिश रहती है कि नमाज़ और रोज़ा क़ायम हो सके. दोस्तों के साथ मस्जिद में जाकर तरावीह पढ़ने की बात ही कुछ और है. इस महीने की रौनक़ों को देखकर कायनात की ख़ूबसूरती का अहसास होता है. रमज़ान हमें नेकियां और इबादत करने का सबक़ देता है और हमें अल्लाह के क़रीब करता है.

ज़ायक़ा
माहे-रमज़ान में हर तरफ़ ज़ायक़ेदार व्यंजनों की भरमार रहती है. रमज़ान का ज़िक्र लज़ीज़ व्यंजनों के बग़ैर मुकम्मल नहीं होता. रमज़ान का ख़ास व्यंजन हैं फैनी, सेवइयां और खजला. सुबह सहरी के वक़्त फ़ैनी को दूध में भिगोकर खाया जाता है. इसी तरह सेवइयों को दूध और मावे के साथ पकाया जाता है. फिर इसमें चीनी और सूखे मेवे मिलाकर परोसा जाता है. इसके अलावा मीठी डबल रोटी भी सहरी का एक ख़ास व्यंजन है. ख़ास तरह की यह मीठी डबल रोटी अमूमन रमज़ान में ही ज़्यादा देखने को मिलती है.

इफ़्तार के पकवानों की फ़ेहरिस्त बहुत लंबी है. अमूमन रोज़ा खजूर के साथ खोला जाता है. दिनभर के रोज़े के बाद शिकंजी और तरह-तरह के शर्बत गले को तर करते हैं. फलों का चाट इफ़्तार के खाने का एक अहम हिस्सा है. ताज़े फलों की चाट रोज़े के बाद ताज़गी का अहसास तो कराती ही है, साथ ही यह पौष्टिक तत्वों से भी भरपूर होती है. इसके अलावा ज़ायक़ेदार पकौड़ियां और तले मसालेदार चने भी रोज़ेदारों की पसंद में शामिल हैं. खाने में बिरयानी, नहारी, क़ौरमा, क़ीमा, नरगिसी कोफ़्ते, सींक कबाब और गोश्त से बने दूसरे लज़ीज़ व्यंजन शामिल रहते हैं. इन्हें रोटी या नान के साथ खाया जाता है. रुमाली रोटी भी इनके ज़ायके को और बढ़ा देती है. इसके अलावा बाकरखानी भी रमज़ान में ख़ूब खाई जाती है. यह एक बड़े बिस्कुट जैसी होती है और इसे क़ोरमे के साथ खाया जाता है. बिरयानी में हैदराबादी बिरयानी और मुरादाबादी बिरयानी का जवाब नहीं. मीठे में ज़र्दा, शाही टुकड़े, फिरनी और हलवा-परांठा दस्तरख़ान पर की शोभा बढ़ाते हैं.
ज़ीनत कहती हैं कि रमज़ान में यूं तो दिन में ज़्यादा काम नहीं होता, लेकिन सहरी के वक़्त और शाम को काम बढ़ जाता है. इफ़्तार के लिए खाना तो घर में ही तैयार होता है, लेकिन रोटियों की जगह हम बाहर से नान या रुमाली रोटियां मंगाना ज़्यादा पसंद करते हैं.
रमज़ान में रोटी बनाने वालों का काम बहुत ज़्यादा बढ़ जाता है. दिल्ली में जामा मस्जिद के पास रोटी बनाने वालों की कई दुकानें हैं. यहां तरह-तरह की रोटियां बनाई जाती हैं, जैसे रुमाली रोटी, नान, बेसनी रोटी आदि. अमूमन इस इलाके क़े होटल वाले भी इन्हीं से रोटियां मंगाते हैं.

हदीस
जो साहिबे-हैसियत हैं, रमज़ान में उनके घरों में लंबे-चौड़े दस्तरख़्वान लगते हैं. इफ़्तार और सहरी में लज़ीज़ चीज़ें हुआ करती हैं, लेकिन जो ग़रीब हैं, वो इन नेअमतों से महरूम रह जाते हैं. हमें चाहिए कि हम अपने उन रिश्तेदारों और पड़ौसियों के घर भी इफ़्तार और सहरी के लिए कुछ चीज़ें भेजें, जिनके दस्तरख़्वान कुशादा नहीं होते. ये हमारे हुज़ूर हज़रत मुहम्‍मद सल्‍लललाहू अलैहिवसल्‍लम का फ़रमान है.
आप (सल्‍लललाहू अलैहिवसल्‍लम) फ़रमाते हैं- रमज़ान सब्र का महीना है यानी रोज़ा रखने में कुछ तकलीफ़ हो, तो इस बर्दाश्‍त करें. फिर आपने कहा कि रमज़ान ग़म बांटने का महीना है यानी ग़रीबों के साथ अच्‍छा बर्ताव किया जाए. अगर दस चीज़ें अपने रोज़ा इफ़्तार के लिए लाए हैं, तो दो-चार चीज़ें ग़रीबों के लिए भी लाएं.
यानी अपने इफ़्तार और सहरी के खाने में ग़रीबों का भी ख़्याल रखें. अगर आपका पड़ौसी ग़रीब है, तो उसका ख़ासतौर पर ख़्याल रखें कि कहीं ऐसा न हो कि हम तो ख़ूब पेट भर कर खा रहे हैं और हमारा पड़ौसी थोड़ा खाकर सो रहा है.

ख़रीददारी
रमज़ान में बाज़ार की रौनक़ को चार चांद लग जाते हैं. रमज़ान में दिल्ली के मीना बाज़ार की रौनक़ के तो क्या कहने. दुकानों पर चमचमाते ज़री वाले व अन्य वैरायटी के कपड़े, नक़्क़ाशी वाले पारंपरिक बर्तन और इत्र की महक के बीच ख़रीददारी करती औरतें, साथ में चहकते बच्चे. रमज़ान में तरह-तरह का नया सामान बाज़ार में आने लगता है. लोग रमज़ान में ही ईद की ख़रीददारी शुरू कर देते हैं. आधी रात तक बाज़ार सजते हैं. इस दौरान सबसे ज़्यादा कपड़ों की ख़रीददारी होती है. दर्ज़ियों का काम बढ़ जाता है. इसलिए लोग ख़ासकर महिलाएं ईद से पहले ही कपड़े सिलवा लेना चाहती हैं. अलविदा जुमे को भी नये कपड़े पहनकर नमाज़ पढ़ने का दस्तूर है. हर बार नये डिज़ाइनों के कपड़े बाज़ार में आते हैं. नेट, शिफ़ौन, जॉरजेट पर कुन्दन वर्क, सिक्वेंस वर्क, रेशम वर्क और मोतियों का काम महिलाओं को ख़ासा आकर्षित करता है. दिल्ली व अन्य शहरों के बाज़ारों में कोलकाता, सूरत और मुंबई के कपड़ों की धूम रहती है. इसके अलावा सदाबहार चिकन का काम भी ख़ूब पसंद किया जाता है। पुरानी दिल्ली के कपड़ा व्यापारी शाकिर अली कहते हैं कि बाज़ार में जिस चीज़ का मांग बढ़ने लगती है हम उसे ही मंगवाना शुरू कर देते हैं. ईद के महीने में शादी-ब्याह भी ज़्यादा होते हैं. इसलिए माहे-रमज़ान में शादी की शॉपिंग भी जमकर होती है. शादियों में आज भी पारंपरिक पहनावे ग़रारे को ख़ासा पसंद किया जाता है.

चूड़ियों और मेहंदी के बिना ईद की ख़रीददारी अधूरी है. रंग-बिरंगी चूड़ियां सदियों से औरतों को लुभाती रही हैं. चूड़ियों के बग़ैर सिंगार पूरा नहीं होता. बाज़ार में तरह-तरह की चूड़ियों की बहार है, जिनमें कांच की चूड़ियां, लाख की चूड़ियां, सोने-चांदी की चूड़िया, और मेटल की चूड़ियां शामिल हैं. सोने की चूड़ियां तो अमीर तबक़े तक ही सीमित हैं. ख़ास बात यह भी है कि आज भी महिलाओं को पारंपरिक कांच की रंग-बिरंगी चूड़ियां ही ज़्यादा आकर्षित करती हैं. बाज़ार में कांच की नगों वाली चूड़ियों की भी ख़ासी मांग है. कॉलेज जाने वाली लड़कियां और कामकाजी महिलाएं मेटल और प्लास्टिक की चूड़ियां ज़्यादा पसंद करती हैं, क्योंकि यह कम आवाज़ करती हैं और टूटती भी नहीं हैं, जबकि कांच की नाज़ुक चूड़ियां ज़्यादा दिनों तक हाथ में नहीं टिक पातीं.

इसके अलावा मस्जिदों के पास लगने वाली हाटें भी रमज़ान की रौनक़ को और बढ़ा देती हैं. इत्र, लोबान और अगरबत्तियों से महक माहौल को सुगंधित कर देती है. इत्र जन्नतुल-फ़िरदौस, बेला, गुलाब, चमेली और हिना का ख़ूब पसंद किया जाता है. रमज़ान में मिस्वाक से दांत साफ़ करना सुन्नत माना जाता है. इसलिए इसकी मांग भी बढ़ जाती है. रमज़ान में टोपियों की बिक्री भी ख़ूब होती है. पहले लोग लखनवी दुपल्ली टोपी ज्यादा पसंद करते थे, लेकिन अब टोपियों की नई वैरायटी पेश की जा रही हैं. अब तो लोग विभिन्न राज्यों की संस्कृतियों से सराबोर पारंपरिक टोपी भी पसंद कर रहे हैं. इसके अलावा अरबी रुमाल भी ख़ूब बिक रहे हैं. रमज़ान के मौक़े पर इस्लामी साहित्य, तक़रीरों, नअत, हम्द,क़व्वालियों की कैसेट सीटी और डीवीडी की मांग बढ़ जाती है.

यूं तो दुनियाभर में ख़ासकर इस्लामी देशों में रमज़ान बहुत अक़ीदत के साथ मनाया जाता है, लेकिन हिन्दुस्तान की बात ही कुछ और है. विभिन्न संस्कृतियों के देश भारत में मुसलमानों के अलावा ग़ैर मुस्लिम लोग भी रोज़े रखते हैं. कंवर सिंह का कहना है कि वे पिछले कई सालों से रमज़ान में रोज़े रखते आ रहे हैं. रमज़ान के दौरान वे सुबह सूरज निकलने के बाद से सूरज छुपने तक कुछ नहीं खाते. उन्हें विश्वास है कि अल्लाह उनके रोज़ों को ज़रूर क़ुबूल करेगा. भारत देश की यही महानता है कि यहां सभी धर्मों के लोग मिलजुल कर त्योहार मनाते हैं. यही जज़्बात गंगा-जमुनी तहज़ीब को बरक़रार रखते हैं.

फ़िरदौस ख़ान
आज जब सब्ज़ियों के दाम आसमान छू रहे हैं और थाली में सब्ज़ियां कम होने लगी हैं. ऐसे में अगर घर में ही ऐसी सब्ज़ी का इंतज़ाम हो जाए, जो खाने में स्वादिष्ट हो और सेहत के लिए भी अच्छी हों, तो फिर क्या कहने. जी हां, हम बात कर रहे हैं सहजन की. गांव-देहात और छोटे-छोटे क़स्बों और शहरों में घरों के आंगन में सहजन के वृक्ष लगे मिल जाते हैं. बिहार की वैजयंती देवी कहती हैं कि सहजन में ख़ूब फलियां लगती हैं. वह इसकी सब्ज़ी बनाती हैं, जिसे सभी ख़ूब चाव से खाते हैं. इसके फूलों की सब्ज़ी की भी घर में बार-बार मांग होती है. वह सहजन का अचार भी बनाती हैं. अपनी मां से उन्होंने यह सब सीखा है. उनके घर में एक गाय है. अपनी गाय को वह सहजन के पत्ते खिलाती हैं. गाय पहले से ज़्यादा दूध देने लगी हैं. इतना ही नहीं, वह सब्ज़ी वालों को फलियां बेच देती हैं. वह बताती हैं कि एक सब्ज़ी वाला उनसे अकसर वृक्ष से सहजन की फलियां तोड़ कर ले जाता है. इससे चार पैसे उनके पास आ जाते हैं. उन्होंने अपने आंगन में चार और पौधे लगाए हैं, जो कुछ वक़्त बाद उनकी आमदनी का ज़रिया बन जाएंगे.

बिहार के छपरा ज़िले के गांव कोरिया के सब्ज़ी विक्रेता ओमप्रकाश सिंह कहते हैं कि जो लोग सहजन के पौष्टिक तत्वों से वाक़िफ़ हैं, वे हमेशा सहजन की मांग करते हैं. बाज़ार में सहजन की फलियां 40 से 70 रुपये किलो तक बिकती हैं. हिसार के सब्ज़ी बाज़ार में सहजन की फलियां कम ही आती हैं. इसलिए ये ऊंची क़ीमत पर मिलती हैं. बहुत-से ऐसे घर हैं, जिनके आंगन में सहजन के वृक्ष खड़े हैं, वे वहीं से पैसे देकर सहजन की फलियां तोड़ लेते हैं और उन ग्राहकों को बेच देते हैं, जो उनसे सहजन मंगाते हैं. सहजन के बहुत से ग्राहक बंध गए हैं. इनमें पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड के लोग भी शामिल हैं.

सहजन बहुत उपयोगी वृक्ष है. इसे विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है, जैसे बंगाल में सजिना, महाराष्ट्र में शेगटा, आंध्र प्रदेश में मुनग और हिंदी भाषी इलाक़ों में इसे सहजना, सुजना, सैजन और मुनगा आदि नामों से भी जाना जाता है. अंग्रेज़ी में इसे ड्रमस्टिक कहा जाता है.  इसका वनस्पति वैज्ञानिक नाम मोरिंगा ओलिफेरा है. सहजन का वृक्ष मध्यम आकार का होता है. इसकी ऊंचाई दस मीटर तक होती है, लेकिन बढ़ने पर इसे छांट दिया जाता है, ताकि इसकी फलियां, फूल और पत्तियां आसानी से तोड़ी जा सकें. यह किसी भी तरह की ज़मीन पर उगाया जा सकता है. नर्सरी में इसकी पौध बीज या क़लम से तैयार की जा सकती है. पौधारोपण फ़रवरी-मार्च या बरसात के मौसम में करना चाहिए.  इसे खेत की मेढ़ पर लगाया जा सकता है. इसे तीन से चार फ़ुट की दूरी पर लगाना चाहिए. यह बहुत तेज़ी से बढ़ता है. इसके पौधारोपण के आठ माह बाद ही इसमें फलियां लग जाती हैं. उत्तर भारत में इसमें एक बार फलियां लगती हैं, जबकि दक्षिण भारत में यह सालभर फलियों से लदा रहता है. हालांकि कृषि वैज्ञानिकों ने उत्तर भारत के लिए साल में दो बार फलियां देने वाली क़िस्म तैयार कर ली है और अब यही क़िस्म उगाई जा रही है. दक्षिण भारत के लोग इसके फूल, पत्ती और फलियों का इस्तेमाल विभिन्न प्रकार के व्यंजनों में करते हैं. उत्तर भारत में भी इन्हें ख़ूब चाव से खाया जाता है. इसकी फलियों से सब्ज़ी, सूप और अचार भी बनाया जाता है. इसके फूलों की भी सब्ज़ी बनाई जाती है. इसकी पत्तियों की चटनी और सूप बनाया जाता है.

गांव-देहात में इसे जादू का वृक्ष कहा जाता है. गांव-देहात के बुज़ुर्ग इसे स्वर्ग का वृक्ष भी कहते हैं. सहजन में औषधीय गुण पाए जाते हैं. इसके सभी हिस्से पोषक तत्वों से भरपूर हैं, इसलिए इसके सभी हिस्सों को इस्तेमाल किया जाता है. आयुर्वेद में इसे तीन सौ रोगों का उपचार बताया गया है. इसमें अनेक पोषक तत्व पाए जाते हैं, जैसे कैलोरी, प्रोटीन, वसा, कार्बोहाइड्रेट, रेशा, कैल्शियम, मैग्नीशियम, फ़ास्फ़ोरस, पोटैशियम, कॊपर, सल्फ़र, ऒक्जेलिक एसिड, विटामिन ए-बीटासीरोटीन, विटामिन बी- कॊरिन, विटामिन बी1 थाइमिन, विटामिन बी2 राइबोफ़्लुविन, विटामिन बी3 निकोटिनिक एसिड, विटामिन सी एस्कार्बिक एसिड, विटामिन बी, विटामिन ई, विटामिन के, ज़िंक, अर्जिनिन, हिस्टिडिन, लाइसिन, ट्रिप्टोफन,फ़िनॊयलेनेलिन, मीथिओनिन, थ्रिओनिन, ल्यूसिन, आइसोल्यूसिन, वैलिन, ओमेगा आदि. एक अध्ययन के मुताबिक़ सहजन की पत्तियों में विटामिन सी संतरे से सात गुना होता है. इसी तरह इसकी पत्तियों में विटामिन ए गाजर से चार गुना, कैल्शियम दूध से चार गुना, पोटैशियम केले से तीन गुना और प्रोटीन दही से दोगुना होता है. सहजन के बीज से तेल निकाला जाता है, जो दवाओं और सौंदर्य प्रसाधनों में इस्तेमाल किया जाता है. इसकी छाल पत्ती, गोंद, जड़ आदि से आयुर्वेदिक दवाएं तैयार की जाती हैं. कहा जाता है कि इसके सेवन से सेहत अच्छी रहती है और बुढ़ापा भी दूर भागता है. आंखों की रौशनी भी अच्छी रहती है. इसके पोषक तत्वों को देखते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने दक्षिण अफ़्रीका के कई देशों में कुपोषित लोगों के आहार में इसे शामिल करने की सलाह दी है. डब्ल्यूएचओ ने कुपोषण और भूख की समस्या से लड़ने के लिए इसे बेहतर माना है. फ़िलीपींस और सेनेगल में कुपोषण उन्मूलन कार्यक्रम के तहत बच्चों के आहार में सहजन को शामिल किया गया है. इसके बेहतर नतीजे सामने आए हैं. फ़िलीपींस, मैक्सिको, श्रीलंका, मलेशिया आदि देशों में सहजन की काफ़ी मांग है. बच्चों, गर्भवती महिलाओं और बुज़ुर्गों के लिए यह वरदान है. इसकी पत्तियां पशुओं के लिए पौष्टिक आहार हैं. इसे चारे के लिए भी उगाया जाता है. चारे के लिए इसकी पौध छह इंच की दूरी पर लगाई जाती है. बरसीम की तरह इसकी कटाई 75 दिन के अंतराल पर करनी चाहिए.  स्वीडिश यूनिवर्सिटी ऒफ़ एग्रीकल्चरल साइंस उपासला द्वारा निकारगुआ में किए गए एक अध्ययन के मुताबिक़ गायों को चारे के साथ सहजन की पत्तियां खिलाने से उनके दूध में 50 फ़ीसद बढ़ोतरी हुई है. सहजन के बीजों से पानी को शुद्ध किया जा सकता है. इसके बीजों को पीस कर पानी में मिलाया जाता है, जिससे पानी शुद्ध हो जाता है.

सहजन की खेती किसानों के लिए फ़ायदेमंद है. किसान सहजन की खेती कर आर्थिक रूप से समृद्ध बन सकते हैं. एक वृक्ष से आठ क्विंटल फलियां प्राप्त की जा सकती हैं. यह वृक्ष दस साल तक उपज देता है. इसे खेतों की मेढ़ों पर लगाया जा सकता है. पशुओं के बड़े-बड़े बाड़ों के चारों तरफ़ भी सजहन के वृक्ष लगाए जा सकते हैं. बिहार में किसान सहजन की खेती कर रहे हैं. यहां सहजन की खेती व्यवसायिक रूप ले चुकी है.  बिहार सरकार ने सहजन की खेती के लिए महादलित परिवारों को पौधे मुहैया कराने की योजना बनाई है. इस योजना का मक़सद महादलित और ग़रीब परिवारों को स्वस्थ करना और उन्हें आमदनी का ज़रिया मुहैया कराना है. राज्य में समेकित जलछाजन प्रबंधन कार्यक्रम के तहत सहजन के पौधे वितरित किए जाते हैं. यहां स्कूलों और आंगनबाड़ी भवनों के परिसरों में सहजन बोया जा रहा है. कृषि विभाग के प्रोत्साहन की वजह से यहां के किसान सहजन उगा रहे हैं. किसानों का कहना है कि वे सहजन की क़लम खेत में लगाते हैं. मार्च-अप्रैल में वृक्ष फलियों से लद जाते हैं. उत्पादन वृक्ष के अनुसार होता है. एक वृक्ष से एक से पांच क्विंटल तक फलियां मिल जाती हैं. इसमें लागत भी ज़्यादा नहीं आती. वे अन्य सब्ज़ियों के साथ सहजन की खेती करते हैं. इससे उन्हें दोहरा फ़ायदा हो जाता है. इसके साथ ही पशुओं के लिए अच्छा चारा भी मिल जाता है, जो उनके लिए पौष्टिक आहार है. छत्तीसगढ़ में किसान पारंपरिक धान की खेती के साथ सहजन उगा रहे हैं.  उनका कहना है कि वे इसकी फलियां शहर की मंडियों में बेजते हैं. पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और झारखंड आदि राज्यों में सहजन की ख़ासी मांग है. सहजन की फलियां 40 से 80 रुपये प्रति किलो बिकती हैं. सहजन के फ़ायदों को देखते हुए अब पंजाब कृषि विश्वविद्यालय ने इसे पंजाब में उगाने की योजना बनाई है. इसे किचन गार्डन के तौर पर प्रोत्साहित किया जाएगा. पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के वेजिटेबल साइंस डिपार्टमेंट के प्रो. डीएस खुराना और डॉ. हीरा सिंह ने सहजन पर शोध करते हुए पंजाब की जलवायु के अनुकूल एक नई क़िस्म तैयार की है. इसका नाम पीकेएम टू रखा गया है.
आदिवासी इलाक़ों में भूमिहीन लोग बेकार पड़ी ज़मीन पर सहजन के वृक्ष उगाकर आमदनी हासिल कर रहे हैं. उनका कहना है कि ख़ाली ज़मीन पर जो भी वृक्ष उगाता है, वृक्ष के फल पर अधिकार भी उसी का होता है. इससे जहां बेकार पड़ी ज़मीन आमदनी का ज़रिया बन गई है, वहीं वृक्षों से पर्यावरण भी हराभरा बना रहता है. वृक्ष फल और छाया  देने के साथ-साथ बाढ़ को रोकते हैं, भूमि कटाव को रोकते हैं.

कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि सहजन की विदेशों में बहुत मांग है, लेकिन जागरुकता की कमी की वजह से यहां के लोगों को इसके बारे में उतनी जानकारी नहीं है, जितनी होनी चाहिए. ऐसे में सहजन की खेती को बढ़ावा दिया जाना चाहिए. पारंपरिक खेती के साथ भी सहजन उगाया जा सकता है. इसमें कोई विशेष लागत भी नहीं आती.  सहजन कृषि वानिकी और सामाजिक वानिकी का भी अहम हिस्सा बन सकता है. बस ज़रूरत है जागरुकता की.


हम जितना खेतों में उगाते हैं, उसका 40 फीसद उचित रखरखाव के अभाव में नष्ट हो जाता है। यह व्यर्थ गया अनाज बिहार जैसे राज्य का पेट भरने के लिए काफी है। हर साल 92600 करोड़ कीमत का 6.7 करोड़ टन खाद्य उत्पात की बर्बादी, वह भी उस देश में जहां बड़ी आबादी भूखे पेट सोती हो, बेहद गंभीर मामला है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन द्वारा जारी की गई रपट में बताया गया है कि भारत में 19.4 करोड़ लोग भूखे सोते हैं, हालांकि सरकार के प्रयासों से पहले से ऐसे लोगों की संख्या कम हुई है। हमारे यहां गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों की संख्या को लेकर भी गफलत है, हालांकि यह आंकड़ा 29 फीसद के आसपास सर्वमान्य है। भारत में सालाना 10 लाख टन प्याज और 22 लाख टन टमाटर खेत से बाजार पहुंचने से पहले ही सड़ जाते हैं। वहीं 50 लाख अंडे उचित भंडारण के अभाव में टूट जाते हैं। चावल का 5.8 प्रतिशत, गेहूं का 4.6 प्रतिशत, केले का 2.1 प्रतिशत खराब हो जाता है। वहीं गन्ने का 26.5 प्रतिशत हर साल बेकार होता है। भूख से मौत या पलायन, वह भी उस देश में जहां खाद्य और पोषण सुरक्षा की कई योजनाएं अरबों रुपये की सब्सिडी पर चल रही हैं, जहां मध्याह्न भोजन योजना के तहत हर दिन 12 करोड़ बच्चों को दिन का भरपेट भोजन देने का दावा हो, जहां हर हाथ को काम और हर पेट को भोजन के नाम पर हर दिन करोड़ों का सरकारी फंड खर्च होता हो; दर्शाता है कि योजनाओं और हितग्राहियों के बीच अभी भी पर्याप्त दूरी है। वैसे, भारत में सालाना पांच साल से कम उम्र के 10 लाख बच्चों के भूख या कुपोषण से मरने के आंकड़े संयुक्त राष्ट्र संगठन ने जारी किए हैं। देश में हर साल उतना गेहूं बर्बाद होता है, जितना ऑस्ट्रेलिया की कुल पैदावार है। नष्ट हुए गेहूं की कीमत लगभग 50 हजार करोड़ होती है, और इससे 30 करोड़ लोगों को सालभर भरपेट खाना दिया जा सकता है। हमारा 2.1 करोड़ टन अनाज केवल इसलिए बेकाम हो जाता है कि उसे रखने के लिए भंडारण की सुविधा नहीं है। देश के कुल उत्पादित सब्जी, फल, का 40 प्रतिशत समय पर मंडी नहीं पहुंच पाने के कारण सड़-गल जाता है। औसतन हर भारतीय एक साल में छह से 11 किलो अन्न बर्बाद करता है। जितना अन्न हम एक साल में बर्बाद करते हैं, उसकी कीमत से ही कई सौ कोल्ड स्टोरेज बनाए जा सकते हैं जो फल-सब्जी को सड़ने से बचा सकें। एक साल में जितना सरकारी खरीदी का धान और गेहूं खुले में पड़े होने के कारण मिट्टी हो जाता है, उससे ग्रामीण अंचलों में पांच हजार वेयरहाउस बनाए जा सकते हैं। यह आंकड़ा किसी से दबा-छुपा नहीं है, बस जरूरत है तो एक प्रयास करने की। यदि पंचायत स्तर पर ही एक कुंटल अनाज का आकस्मिक भंडारण और उसे जरूरतमंद को देने की नीति का पालन होने लगे तो कम से कम कोई भूखा तो नहीं मरेगा। बुंदेलखंड के पिछड़े जिले महोबा के कुछ लोगों ने ‘‘रोटी बैंक’ बनाया है। बैंक से जुड़े लोग भोजन के समय घरों से ताजा बनी रोटिया एकत्र करते हैं और उन्हें अच्छे तरीके से पैक कर भूखे लोगों तक पहुंचाते हैं। बगैर किसी सरकारी सहायता के चल रहे इस अनुकरणीय प्रयास से हर दिन 400 लोगों को भोजन मिल रहा है। पाकिस्तान में तो सार्वजनिक समारोह में खाने की बर्बादी पर सीधे गिरफ्तारी का कानून है जबकि हमारे यहां होने वाले शादी समारोह में आम तौर पर 30 प्रतिशत खाना बेकार जाता है।
पंकज चतुर्वेदी 


एक नज़र

.

.

कैमरे की नज़र से...

Loading...

.

.

ई-अख़बार

ई-अख़बार

Blog

  • Raah-e-Haq
    रमज़ान और शबे-क़द्र - रमज़ान महीने में एक रात ऐसी भी आती है जो हज़ार महीने की रात से बेहतर है जिसे शबे क़द्र कहा जाता है. शबे क़द्र का अर्थ होता है " सर्वश्रेष्ट रात " ऊंचे स्...
  • Firdaus's Diary
    मई दिवस और पापा - आज मज़दूर दिवस है... आज के दिन पापा सुबह-सवेरे तैयार होकर मई दिवस के कार्यक्रमों में जाते थे. पापा ठेकेदार थे. लोगों के घर बनाते थे. छोटी-बड़ी इमारतें बनाते ...
  • मेरी डायरी
    राहुल ! संघर्ष करो - *फ़िरदौस ख़ान* जीत और हार, धूप और छांव की तरह हुआ करती हैं. वक़्त कभी एक जैसा नहीं रहता. देश पर हुकूमत करने वाली कांग्रेस बेशक आज गर्दिश में है, लेकिन इसके ...

Like On Facebook

एक झलक

Search

Subscribe via email

Enter your email address:

Delivered by FeedBurner

इसमें शामिल ज़्यादातर तस्वीरें गूगल से साभार ली गई हैं