फ़िरदौस ख़ान
वृक्ष जीवन का आधार हैं. इनसे जीवनदायिनी ऒक्सीज़न मिलती है. फल-फूल मिलते हैं, औषधियां मिलती हैं, छाया मिलती, लकड़ी मिलती है. इस सबके बावजूद बढ़ती आबादी की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए वृक्षो को काटा जा रहा है. घटते वन क्षेत्र को राष्ट्रीय लक्ष्य 33.3 फ़ीसद के स्तर पर लाने के लिए ज़्यादा से ज़्यादा वृक्ष लगाने होंगे.  देश में वन क्षेत्रफल 19.2 फ़ीसद है. जंगल ख़त्म हो रहे हैं. इससे पर्यावरण के सामने संकट खड़ा हो गया है. इसलिए वन क्षेत्र को बढ़ाना बहुत ज़रूरी है. कृषि वानिकी को अपनाकर कुछ हद तक पर्यावरण संतुलन को बेहतर बनाया जा सकता है. फ़सलों के साथ वृक्ष लगाने को कृषि वानिकी कहा जाता है.
खेतों की मेढ़ों के अलावा गांव की शामिलात भूमि, परती भूमि और ऐसी भूमि, जिस पर कृषि नहीं की जा रही हैं, वहां भी उपयोगी वृक्ष लगाकर पर्यावरण को हरा-भरा बनाया जा सकता है. पशुओं के बड़े-बड़े बाड़ों के चारों ओर भी वृक्ष लगाए जा सकते हैं. कृषि वानिकी के तहत ऐसे वृक्ष लगाने चाहिए, जो ईंधन के लिए लकड़ी और खाने के लिए फल दे सकें. जिनसे पशुओं के लिए चारा और खेती के औज़ारों के लिए अच्छी लकड़ी भी मिल सके. इस बात का भी ख़्याल रखना चाहिए कि वृक्ष ऐसे हों, जल्दी उगें और उनका झाड़ भी अच्छा बन सके. बबूल, शीशम, नीम,  रोहिड़ा, ढाक, बांस, महुआ, जामुन, कटहल, इमली, शहतूत, अर्जुन, खेजड़ी, अशोक, पोपलर, सागौन और देसी फलों आदि के वृक्ष लगाए जा सकते हैं.

बबूल रेतीले, ऊबड़-खाबड़ और कम पानी वाले क्षेत्रों में उगाया जा सकता है. इसका झाड़ काफ़ी फैलता है. बबूल की हरी पतली टहनियां दातुन के काम आती हैं. बबूल की दातुन दांतों को स्वच्छ और स्वस्थ रखती है. बबूल की लकड़ी बहुत मज़बूत होती है. उसमें घुन नहीं लगता. बबूल की लकड़ी का कोयला भी अच्छा होता है. भारत में दो तरह के बबूल ज़्यादा पाए और उगाये जाते हैं. एक देसी बबूल, जो देर से होता है और दूसरा विलायती बबूल. बबूल लगाकर पानी के कटाव को रोका जा सकता है. बबूल उगाकर बढ़ते रेगिस्तान को रोका जा सकता है. इसकी लकड़ी से किश्तियां, रेल स्लीपर, खिड़की-दरवाज़े, फ़र्नीचर और खेती में काम आने वाले कई तरह के औज़ार आदि बनाए जाते हैं. इससे ईंधन के लिए भी काफ़ी लकड़ी मिल जाती है. इसकी पत्तियों और बीजों को चारे के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. बकरियों और भेड़ों का यह मुख्य भोजन है.

शीशम भी बहुत उपयोगी वृक्ष है. यह बहुत जल्दी बढ़ता है. इसका झाड़ बहुत बड़ा होता है. इसकी लकड़ी, पत्तियां, जड़ें सभी काम में आती हैं. इसकी लकड़ी भारी और मज़बूत होती है. इससे खिड़की-दरवाज़े, फ़र्नीचर आदि बनाया जाता है. शीशम की लकड़ी से खेतीबाड़ी में इस्तेमाल होने वाले औज़ार भी बनाए जाते हैं. इसकी पत्तियां पशुओं के चारे के काम आती हैं. इसकी पत्तियों में प्रोटीन होता है. जड़ें ज़मीन को उपजाऊ बनाती हैं. भूमि कटाव को रोकते हैं.

नीम सदाबहार वृक्ष है. इसे जीवनदायिनी वृक्ष माना जाता है. यह काफ़ी भिन्नता वाली मिट्टी में उग जाता है. किसी भी प्रकार के पानी में जीवित रहता है. यह बहुत ज़्यादा तापमान को बर्दाश्त कर लेता है. पतझड़ में इसकी पत्तियां झड़ जाती हैं. यह घने झाड़ वाला वृक्ष है. इसकी छाया आराम देती है. इसके फूल सफ़ेद और सुगंधित होते हैं. इसका फल चिकना गोलाकार से अंडाकार होता है, जिसे निंबोली कहते हैं. फल का छिलका पतला, गूदा रेशेदार, सफ़ेद पीले रंग का और स्वाद में कड़वा-मीठा होता है. यह औषधीय गुणों से भरपूर है. यह वातावरण को शुद्ध करता है. अनेक बीमारियों के इलाज में इसका इस्तेमाल होता है. इसके बीज खाद के रूप में प्रयोग किए जाते हैं. इसमें काफ़ी मात्रा में नाइट्रोजन और कीटनाशक तत्व पाए जाते हैं. इसकी लकड़ी मज़बूत होती है. इसका इस्तेमाल मकान, ठेले और फ़र्नीचर बनाने के लिए होता है. घरों में इसे लगाना अच्छा माना जाता है. सड़कों के किनारे छाया के लिए नीम के वृक्ष लगाए जाते हैं.

रोहिड़ा सदाबहार वृक्ष है. इसे रोहिरा, रोही, रोहिटका आदि नामों से भी जाना जाता है. यह रेतीली मिट्टी में उगने वाला वृक्ष है. इसमें सूखा सहन करने की विलक्षण क्षमता होती है. यह कम वर्षा वाले क्षेत्रों में भी उगता है और अपना विकास करता है. इसे रेत के स्थायी टीलों पर सरलता से उगाया जा सकता है, जहां तापमान बहुत कम और बहुत ज़्यादा हो. इसकी जड़ें मिट्टी की ऊपरी सतह पर फैल जाती हैं. इससे मिट्टी का कटाव रुक जाता है.यह हवा के बहाव को भी नियंत्रित करता है. इसकी शाख़ाएं झुकी हुई और तना मुड़ा हुआ होता है. इसे खेतों के बीच भी उगाया जा सकता है. इसकी लकड़ी मज़बूत, सख़्त, सलेटी और पीले रंग की होती है. इसकी लकड़ी से फ़र्नीचर, खेती के औज़ार और खिलौने आदि बनाए जाते हैं. इसकी लकड़ी पर आसानी से नक़्क़ाशी हो जाती है. इसलिए इससे सजावटी सामान भी बनाया जाता है. इसकी शाख़ाएं ईंधन के काम आती हैं. इसमें औषधीय गुण पाए जाते हैं. इससे विभिन्न प्रकार के रोगों की देसी और आयुर्वेदिक औषधियां तैयार की जाती हैं. रोहिड़ा वृक्ष के तने की छाल में निकोटिन नामक पदार्थ पाया जाता है. यह लीवर संबंधी रोगों में विशेष रूप से गुणकारी है. लिव-52 नामक औषधि बनाने के लिए इसी का इस्तेनाल किया जाता है. रोहिड़ा का फूल बहुत ख़ूबसूरत होता है. इस पर सर्दियों के मौसम में फूल आते हैं. इसके फूल पीले, नारंगी और लाल रंग के होते हैं, जो घंटी के समान होते हैं.

पलाश को पलास, परसा, ढाक, टेसू, किंशुक और केसू भी कहा जाता है. इसके फूल बहुत आकर्षक होते हैं. इसके आकर्षक फूलों के कारण इसे ’जंगल की आग’ भी कहा जाता है. प्राचीन काल ही से इसके फूलों से होली के रंग भी बनाए जाते हैं. यह अनुपजाऊ भूमि में भी उग जाते हैं. इसका झाड़ भी बहुत फैलता है. पलाश के पत्ते पत्तल और दोने आदि के बनाने के काम आते हैं. इनके पत्तों से बीड़ियां भी बनाई जाती हैं. फूल और बीज औषधीय गुणों से भरपूर हैं. इसकी छाल से रेशा निकलता है, जिसे जहाज़ के पटरों की दरारों में भरा जाता है, ताकि अंदर पानी न आ सके. जड़ की छाल से निकलने वाले रेशे से रस्सियां बटी जाती हैं. इससे दरी और काग़ज़ भी बनाया जाता है. इसकी पतली डालियों को उबालकर एक प्रकार का कत्था तैयार किया जाता है. मोटी डालियों और तनों को जलाकर कोयला तैयार किया जाता है. इसकी छाल से गोंद निकलता है.

बांस भी बहुत उपयोगी वृक्ष है. इसकी लकड़ी बहुत उपयोगी मानी जाती है और छोटी-छोटी घरेलू वस्तुओं से लेकर मकान बनाने तक के काम आती है.
इसकी लकड़ी से कई तरह का सजावटी सामान बनाया जाता है. इससे काग़ज़ भी बनाया जाता है. बांस की खपच्चियों को तरह-तरह की चटाइयां, कुर्सी, मेज़, चारपाई, मछली पकड़ने का कांटा, डलियां और अन्य कई प्रकार की वस्तुएं बनाई जाती हैं. प्राचीन काल में बांस की कांटेदार झाड़ियों से क़िलों की रक्षा की जाती थी. इससे कई तरह के बाजे, जैसे बांसुरी और वॉयलिन आदि भे बनाए जाते हैं. दवा में भी इसका इस्तेमाल किया जाता है. बांस का प्ररोह खाया जाता है. इसका अचार और मुरब्बा भी बनता है. बांस के पेड़ तालाबों और पोखरों के पास लगाए जा सकते हैं. बांस पर सूखे या बारिश का ज़्यादा असर नहीं पड़ता.  बांस अन्य वृक्षों के मुक़ाबले 30 फ़ीसद ज़्यादा ऑक्सीजन छोड़ता. यह पीपल के वृक्ष की तरह दिन में कार्बन डाईऑक्साइड खींचता है और रात में ऑक्सीजन छोड़ता है.

महुआ तेज़ी से बढ़ने वाला वृक्ष है. यह हर तरह की ज़मीन में उग जाता है. इसका पेड़ ऊंचा और छतनार होता है और डालियां चारों तरफ़ फैलती हैं.  अमूमन यह सालभर हरा-भरा रहता है. यह भी बहु उपयोगी वृक्ष है. इसके बीज, फूल और लकड़ी कई काम आती है. इसका फल परवल के आकार का होता है, जिसे  कलेंदी कहते हैं. इसे छीलकर, उबालकर और बीज निकालकर तरकारी भी बनाई जाता है. इसके बीच में एक बीज होता है, जिससे तेल निकलता है. इसके पके फलों का गूदा खाने में मीठा होता है. इसके बीजों से त्वचा की देखभाल की चीज़ें, साबुन और डिटर्जेंट आदि का निर्माण किया जाता है. इसका तेल ईंधन के रूप में भी इसका इस्तेमाल किया जाता है. तेल निकालने के बाद बचे इसके खल का इस्तेमाल पशुओं के खाने और उर्वरक के रूप में किया जाता है. औषधीय गुणों के लिए दवाओं में भी इसका इस्तेमाल किया जाता है. महुए के फूल में चीनी का अंश होता है, जिसे इंसान ही नहीं बल्कि पशु-पक्षी भी ख़ूब पसंद करते हैं. इसके रस में पूड़ी भी पकाई जाती है. इसे पीसकर आटे में मिलाकर रोटियां बनाई जाती हैं, जिन्हें महुअरी कहा जाता है. हरे और सूखे महुए लोग भूनकर भी खाते हैं.  इसे पशुओं को भी खिलाया जाता है. इससे पशुओं का दूध ज़्यादा और गाढ़ा होता है. आदिवासी इसे पवित्र मानते हैं.

जामुन भी उपयोगी वृक्ष है. इसे जामुन, राजमन, काला जामुन, जमाली, ब्लैकबेरी आदि नामों से जाना जाता है. इससे खाने के लिए लज़ीज़ फल तो मिलते ही हैं, साथ ही इसकी पत्तियां और छाल भी औषधियों के तौर पर इस्तेमाल की जाती हैं. जामुन के फल में ग्लूकोज़ और फ्रक्टोज़ पाए जाते हैं. फल में खनिजों की तादाद ज़्यादा होती है. अन्य फलों के मुक़ाबले यह कम कैलोरी प्रदान करता है. एक मध्यम आकार का जामुन 3-4 कैलोरी देता है. फल के बीज में कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन और कैल्शियम की अधिकता होती है. यह लौह का बड़ा स्रोत है. प्रति 100 ग्राम में एक से दो मिलीग्राम आयरन होता है. इसमें विटामिन बी, कैरोटिन, मैग्नीशियम और फाइबर होते हैं. जामुन को मधुमेह के बेहतर उपचार के तौर पर जाना जाता है. यकृत यानी लीवर से संबंधित बीमारियों समेत कई रोगों के बचाव में भी जामुन बेहद उपयोगी साबित होता है. जहां बाढ़ ज़्यादा आती हो, वहां इसे लगाना चाहिए. इससे भूमि कटाव रुकता है.

कटहल एक फलदार वृक्ष है. वृक्ष पर लगने वाले फलों में इसका फल दुनिया में सबसे बड़ा होता है. फल के बाहरी सतह पर छोटे-छोटे कांटे होते हैं.
इसकी सब्ज़ी और अचार बनाया जाता है. इसका फल बहुत पौष्टिक माना जाता है. इसकी जड़, छाल और पत्ते औषधि के रूप में काम आता है. कटहल में कई पौष्टिक तत्व पाए जाते हैं, जैसे विटामिन ए, सी, थाइमिन, पोटैशियम, कैल्शियम, राइबोफ्लेविन, आयरन, नियासिन और जिंक आदि. इसमें फ़ाइबर पाया जाता है. इसमें बिल्कुल भी कैलोरी नहीं होती है.

इमली का वृक्ष ऊंचा और घने झाड़ वाला होता है. इन्हें सड़कों के किनारे भी लगाया जाता है. इससे छाया के साथ-साथ इमली भी मिलती है.  इसमें कैरोटीन, विटामिन सी और बी पाया जाता है. इसके फल खट्टे होते हैं. इसलिए खटाई के तौर पर विभिन्न प्रकार के व्यंजनों में इसका इस्तेमाल किया जाता है. इमली की पत्तियों का प्रयोग हर्बल चाय बनाने में किया जाता है. कई तरह की बीमारियों में भी यह कारगर है.

शहतूत एक बहुवर्षीय वृक्ष है. यह 15 सालों तक उच्च गुणवत्ता की पत्तियां देता है. शहतूत में ऐसे कई फ़ायदेमंद गुण पाए जाते हैं, जो कई बीमारियों में वरदान साबित हो सकते हैं.  शहतूत में उम्र को रोकने वाला गुण होता है. यह त्वचा को युवा बना देता है और झुर्रियों को चेहरे से ग़ायब कर देता है.

अर्जुन एक औषधीय वृक्ष है. इसे घवल, ककुभ और नदीसर्ज भी कहते हैं,  क्योंकि यह नदी नालों के किनारे काफ़ी पाया जाता है. इसकी छाल पेड़ से उतार लेने पर फिर उग आती है. इसके फल कमरख़ों जैसे आकार के होते हैं.  इनमें हल्की-सी सुगंध होती है और स्वाद कसैला होता है. इसकी छाल औषधियों में काम आती है. होम्योपैथी में अर्जुन एक प्रचलित औषधि है.

खेजडी को संस्कृत में शमी वृक्ष कहा गया है. शमी का शाब्दिक अर्थ है शमन करने वाला.  इसे जांट, जांटी, जंड, समी, सुमरा आदि नामों से जाना जाता है. इसकी सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि ये तेज़ गर्मियों के दिनों में भी हरा-भरा रहता है. इसकी छाया में पशु-पक्षी ही नहीं, इंसान भी आराम पाते हैं. जब खाने को कुछ नहीं होता है, तब यह चारा देता है, जिसे लूंग कहा जाता है. इसका फूल मींझर कहलाता है. इसके फल को सांगरी कहते हैं, जिसकी सब्ज़ी बनाई जाती है. यह फल सूखने पर खोखा कहलाता है, जो सूखा मेवा है. इसकी लकड़ी मज़बूत होती है. इससे फ़र्नीचर बनाया जाता है.  इसकी जड़ से हल बनाया जाता है. इसकी लकड़ी ईंधन के रूप में भी इस्तेमाल की जाती है.

अशोक का वृक्ष घना और छायादार हाता है. इसके पत्ते शुरू में तांबे जैसे रंग के होते हैं, इसलिए इसे ताम्र पल्लव भी कहते हैं. इसके नारंगी रंग के फूल बसंत ऋतु में आते हैं, जो बाद में लाल रंग के हो जाते हैं. सुनहरी लाल रंग के फूलों वाला होने से इसे हेमपुष्पा भी कहा जाता है. यह औषधीय वृक्ष है.  इसकी छाल में हीमैटाक्सिलिन, टेनिन, केटोस्टेरॉल, ग्लाइकोसाइड, सैपोनिन, कार्बनिक कैल्शियम और लौह के यौगिक पाए गए हैं.

पोपलर एक उपयोगी वृक्ष है. यह 15 से 50 मीटर ऊंचा होता है. यह जल्द बढ़ने वाला वृक्ष है. सर्दी के मौसम में पत्ते न होने की वजह से  इसे खाद्यान्न, सब्ज़ियों, मसालों, तिलहनों और दलहन वाली फ़सलों को आसानी से उगाया जा सकता है.यह बाग़ों के किनारे और पानी की नालियों के साथ-साथ लगाए जाते हैं. इसकी लकड़ी प्लाई बनाने के काम आती है. इससे खेल-कूद का सामान भी बनाया जाता है. पोपलर सूर्य उष्णता, हवा के कुम्भालाने वाले प्रभाव से फ़सलों की रक्षा और मिट्टी का कटाव रोकने में भी मदद करता है. उपजाऊ मिट्टी और उच्च जल स्तर वृक्षारोपण को ऊपर उठाने के लिए काफ़ी अनुकूल पाया गया है.

सागौन सालभर हरा-भरा रहने वाला वृक्ष है. यह 80 से 100 फुट ऊंचा होता है. इसका वृक्ष काष्ठीय होता है. इसकी लकड़ी हल्की, मज़बूत और लंबे वक़्त तक चलने वाली होती है. इसके पत्ते काफ़ी बड़े होते हैं. यह बहुमूल्य इमारती लकड़ी देता है. इसकी लकड़ी बहुत कम सिकुड़ती है. इस पर पॉलिश जल्द चढ़ जाती है, जिससे यह बहुत आकर्षक हो जाती है. इसकी लकड़ी जहाज़ों, नावों, बोगियों, खिड़कियों, चौखटों, रेल के डिब्बों और फ़र्नीचर के निर्माण में इस्तेमाल की जाती है.

इनके अलावा सिरस, कचनार, शहतूत और बेरी आदि वृक्ष लगाकर भी कृषि वानिकी को बढ़ावा दिया जा सकता है. ये वृक्ष पर्यावरण संतुलन बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. वृक्षों के पत्तों से चारा मिलता है. कचनार और शहतूत की पत्तियों के चारे में घास के मुक़ाबले ज़्यादा वसा, प्रोटीन, चूना आदि ज़रूरी पोषक तत्व पाए जाते हैं. गांवों में ऐसे वृक्ष लगाने चाहिए, जिनसे पशुओं के लिए चारा मिल सके. इमारती लकड़ी और ईंधन के रूप में इस्तेमाल होने वाली लकड़ी की बढ़ती ज़रूरतों को कृषि वानिकी से पूरा किया जा सकता है. ऐसे में जंगल भी सुरक्षित रहेंगे. खेतों के आसपास पेड़ लगाने से पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले कार्बन डाई ऑक्साइड से छुटकारा पाने में काफी मदद मिलेगी. कृषि वानिकी शोधकर्ताओं ने देश के विभिन्न जलवायु क्षेत्रों के लिए उपयुक्त वृक्षों की पहचान की है, ताकि वे अच्छे से फलफूल सकें. उनका मानना है कि स्थानीय जलवायु के मुताबिक़ अनुकूलित वृक्ष और झाड़ियां कृषि वानिकी के लिए सबसे सुरक्षित हैं. कई पौधों की प्रजातियां जैव विविधता की रक्षा करने, मृदा स्वास्थ्य में सुधार, लकड़ी और ईंधन लकड़ी मुहैया कराने, कार्बन डाई ऑक्साइड को कम करने आदि फ़ायदों को ध्यान में रखकर तय की गई हैं.

देश में प्रति हेक्टेयर औसत लकड़ी का उत्पादन विश्च के औसत से कम है. लकड़ी की मांग आपूर्ति से बहुत ज़्यादा है. इस ज़रूरत को पूरा करने के लिए सालाना 400 करोड़ रुपए की लकड़ी बाहर से मंगवानी पड़ती है. देश की खाद्यान्नों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए ज़मीन पर दबाव लगातार बढ़ता जा रहा है. इसकी वजह से भूमि के पोषक तत्व कम हो रहे हैं. मिट्टी के जल भंडारण की क्षमता भी कम हो रही है और भू-जल स्तर में भी गिरावट आ रही है. एक किलो धान पैदा करने के लिए 5000 लीटर पानी की ज़रूरत होती है. इसी तरह एक किलो गेहूं पैदा करने के लिए 1500 लीटर पानी का इस्तेमाल होता है, जबकि एक किलो लकड़ी पैदा करने में 500 लीटर पानी  ख़र्च होता है. घटते वन क्षेत्र को बढ़ाने और लकड़ी की मांग को पूरा करने के लिए कृषि वानिकी को अपनाना चाहिए.  कृषि वानिकी के ज़रिये एक ही भूखंड पर एक साथ कई तरह की उपयोगी चीज़ें हासिल की जा सकती हैं, जैसे खाद्यान्न, फल-फूल, सब्ज़ियां, दूध, शहद, ईंधन, रेशा, चारा और खाद आदि. भूमि में नमी बनाकर रखी जा सकती है. भूमि कटाव को रोका जा सकता है. वृक्ष रेगिस्तान के बढ़ाव को रोकते हैं. हर साल रेगिस्तान का क्षेत्रफल बढ़ रहा है. रेगिस्तान में वृक्ष लगा देने से वे वहीं रुक जाते हैं और आगे नहीं बढ़ पाते.

बेरोज़गार युवकों को कृषि वानिकी की मुहिम में शामिल करके जहां उन्हें रोज़गार मुहैया कराया जा सकता है, वहीं इससे पर्यावरण भी स्वच्छ बनेगा. प्रशिक्षण शिविर लगाकर युवाओं को इसके बारे में जानकारी दी जा सकती है. इसके लिए ग्रामीणों ख़ासकर किसानों और पशु पालकों को भी जागरूक किया जाना चाहिए. दरअसल कृषि वानिकी आज के वक़्त की बहुत बड़ी ज़रूरत है. इसके ज़रिये जहां पर्यावरण को स्वच्छ रखा जा सकत है, वहीं वृक्षों से लाभ भी अर्जित किया जा सकता है.


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