वेद प्रकाश अरोड़ा
आज की नारी में छटपटाहट है आगे बढ़ने की, जीवन और समाज के हर क्षेत्र में कुछ करिश्मा कर दिखाने की, अपने अविराम अथक परिश्रम से आधी दुनिया में नया सुनहरी सवेरा लाने की तथा ऐसी सशक्त इबारत लिखने की जिसमें महिला अबला न रहकर सबला बन जाए। यह अवधारणा मूर्त रूप ले रही है - बालिका विद्यालयों, महिला कॉलेजों और महिला विश्वविद्यालयों में, नारी सुधार केन्द्रों, नारी निकेतनों, महिला होस्टलों और आंदोलनों में। आज स्थिति यह है कि कानून और संविधान में प्रदत्त अधिकारों का सम्बल लेकर नारी, अधिकारिता के लम्बे सफर में कई मील-पत्थर पार कर चुकी है।

भारत की पराधीनता की बेड़ियां कट जाने के बाद नारी ने अपने उज्ज्वल भविष्य के लिए जोरदार अभियान चलाया। कई मोर्चों पर उसने प्रमाणित कर दिखाया है कि वह किसी से कमतर नहीं, बेहतर है। चाहे सामाजिक क्षेत्र हो या शैक्षिक, आर्थिक क्षेत्र हो या राजनैतिक, पारिवारिक क्षेत्र हो या खेल का मैदान, विज्ञान का क्षेत्र हो या वकालत का पेशा, सभी में वह अपनी धाक जमाती जा रही है। अगर घर की चारदीवारी में वह बेटी, बहन, पत्नी, माँ अथवा अभिभाविका जैसे विविध रूपों में अपने रिश्ते नाते बखूबी निभाती है और अपनी सार्थकता प्रमाणित कर दिखाती है तो घर की चौखट के बाहर कार्यालयों, कार्यस्थलों, व्यवसायों और प्रशासन जैसे विभिन्न क्षेत्रों में अपना योगदान करने में किसी से पीछे नहीं। आज देश में सर्वोच्च राष्ट्रपति पद, लोकसभा अध्यक्ष पद और लोकसभा में विपक्षी नेता - तीनों को महिलाएं सुशोभित कर रही हैं। सबसे बड़े राजनीतिक दल और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के नेता पद को भी महिला महामंडित कर रही है।

राजनीतिक क्षेत्र से हटकर जब हम प्रशासनिक क्षेत्र पर नज़र डालते हैं तो उसमें भी महिला अधिकारी वर्तमान को संवारने -सजाने में किसी से पीछे नहीं हैं। विदेश सचिव तथा अनेक मंत्रालयों के सचिव पद का दायित्व निभाने में महिलाएं पूरी निष्ठा और कार्यकौशल का परिचय दे रहीं हैं। इस संदर्भ में इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती कि महिला उत्थान और अधिकारिता के नए-नए शिखरों पर विजय पाने की यह कामयाबी तब मिल रही है, जब महिला राजनीतिक सशक्तिकरण की दृष्टि से भारत का कद निरन्तर बढता जा रहा है। विभिन्न देशों की कतार में भारत कई पायदान चढक़र 24वें स्थान पर जा पहुंचा है। आज संसद के विभिन्न पदों में 11 प्रतिशत पर और मंत्री पदों में 10 प्रतिशत पर महिलाएं काबिज हैं।

विभिन्न कुरीतियों और बाधाओं से निपटने के लिए जरूरी है कि न सिर्फ लड़कों बल्कि लड़कियों में भी शिक्षा का प्रसार किया जाए। माँ परिवार की धुरी होती है, अगर वह शिक्षित हो तो न केवल पूरा परिवार शिक्षित हो जाएगा, बल्कि समाज में भी नई चेतना उत्पन्न हो जायेगी। यही वजह है कि आज महिलाओं में शिक्षा का प्रसार बढता जा रहा है। वर्ष 1961 की जनगणना के अनुसार साक्षर पुरुषों का प्रतिशत 40 और साक्षर महिलाओं का प्रतिशत मात्र 15 था। लेकिन पिछले चार दशकों में महिला साक्षरता दर ने लम्बी छलांग लगाई है। आंकड़ों की बात करें तो 1971 में महिला साक्षरता दर 22 प्रतिशत थी जो बढ़ते-बढ़ते 2001 में 54.16 प्रतिशत यानी ढाई गुना हो गई है। यह जबर्दस्त बदलाव इसलिए हो सका कि लड़कियों, विशेषरूप से निर्धन परिवारों की लड़कियों को समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए विभिन्न सरकारों ने मुपऊत पुस्तकें, मुपऊत पोशाकें, छात्रवृत्तियां और दोपहर का मुफ्त भोजन देने, छात्रावास बनवाने तथा लाड़ली योजना जैसे प्रोत्साहनकारी कदम उठाए हैं। 6 से 14 वर्ष तक के आयु समूह के लड़के-लड़कियों को नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने के अधिकार का विधेयक संसद ने पारित कर सर्वशिक्षा के क्षेत्र में क्रान्तिकारी कदम उठाया है। मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल का कहना है कि इस विधेयक के बाद केन्द्र सरकार 18 वर्ष तक के किशोर-किशोरियों के लिए माध्यमिक शिक्षा अभियान चलायेगी। केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने राष्ट्रीय साक्षरता मिशन में अब पूरा जोर महिलाओं की शिक्षा पर देने का निर्णय भी किया है। इस कार्यक्रम के अंतर्गत 1017 तक देश की 80 प्रतिशत महिलाओं को साक्षर बनाया जायेगा।

महिलाओं में शिक्षा प्रसार के सुखद परिणाम दिखाई देने भी लगे हैं। पहला यह है कि सरकारी और गैर-सरकारी कार्यालयों और स्वायत्त-संस्थाओं में महिला कर्मचारियों की संख्या और वर्चस्व बढने लगा है। वर्ष 2004 में की गई सरकारी कर्मचारियों की जनगणना के अनुसार 1995 में पुरुषों के मुकाबले महिला कर्मचारियों का अनुपात मात्र 7.43 प्रतिशत था। वर्ष 2001 में यह बढक़र 7.53 और 2004 में 9.68 प्रतिशत हो गया। महिला शिक्षा प्रसार का दूसरा लाभ यह हुआ है कि लड़कियों के प्रति पूर्वाग्रह की भावना और उन्हें परिवार के लिए बोझ मानने की मन:स्थिति समाप्त होते जाने से पुरुषों के मुकाबले महिलाओं का संख्या-अनुपात बढता जा रहा है। वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार देश में महिलाओं की संख्या पुरुषों के मुकाबले 48 प्रतिशत थी लेकिन इधर अनुपात की खाई कम होते जाने के ठोस प्रमाण मिले हैं। दिल्ली में तो वर्ष 2008 में स्त्री-पुरुष के बीच संख्या अनुपात में महिलाएं आगे निकल गईं हैं।

आधी दुनिया के बहुआयामी मानव-संसाधनों की महत्ता स्वीकारते हुए संविधान में उन्हें अपनी स्थिति सुधारने के लिए न केवल पुरुषों के बराबर अवसर प्रदान किए गए हैं बल्कि प्रत्येक क्षेत्र में अपनी नियति के नियंता बनने के पूरे अधिकार भी दिए गए हैं। वैसे भी महिला सशक्तिकरण एक बहुआयामी और बहुस्तरीय अवधारणा है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो महिलाओं को संसाधनों पर अधिक भागीदारी और अधिक नियंत्रण प्रदान करती है। ये संसाधन नैतिक, मानवीय, बौध्दिक और वित्तीय सभी हो सकते हैं। सशक्तिकरण का मतलब है, घर समाज और राष्ट्र के निर्णय लेने के अधिकार में महिलाओं की हिस्सेदारी। दूसरे शब्दों में सशक्तिकरण का अभिप्राय है अधिकारहीनता से अधिकार प्राप्ति की तरफ बढते क़दम। शुरूआती कदम के रूप में लोकतंत्र का प्रथम सौपान है--पंचायतों और नगरपालिकाओं में महिलाओं की भागीदारी। 73वां संविधान संशोधन पारित होने के बाद अनेक पंचायतों में कानून के अंतर्गत मिले एक तिहाई आरक्षण से भी अधिक महिला प्रतिनिधि चुने जाने लगे हैं। अनेक पंचायतों में तो 50 प्रतिशत से भी अधिक महिलाएं चुनी जाती हैं और कहीं-कहीं तो सभी सदस्य महिलाएं होती हैं। केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने पंचायतों और नगरपालिकाओं के सभी स्तरों पर महिलाओं का आरक्षण मौजूदा एक तिहाई से बढाक़र कम से कम 50 प्रतिशत कर देने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है। इसके लिए संविधान में संशोधन किया जाएगा। बिहार, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ ताे पहले से ही पंचायतों में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत स्थान आरक्षित कर सशक्तिकरण की दिशा में क्रान्तिकारी कदम उठा चुके हैं। यह कार्यवाही जनवरी, 2006 में एक अध्यादेश के जरिए की गई। उत्तराखंड ने तो एक और कदम आगे बढाते हुए पंचायतों में महिलाओं को 55 प्रतिशत प्रतिनिधित्व दे दिया है। राज्य सभा ने 2 तिहाई से अधिक बहुमत से महिला आरक्षण विधेयक पारित कर महिला सशक्तिकरण की दिशा में एक युगान्तकारी कदम उठाया है। रही बात लोकसभा और विधान सभाओं में महिलाओं का प्रतिशत एक तिहाई कर देने का तो इसके लिए संघर्ष जारी है।

न्यूनतम साझा कार्यक्रम में दिए गए छह बुनियादी सिध्दान्तों में भी महिलाओं को शैक्षिक, आर्थिक और कानूनी रूप से सशक्त बनाने के सिध्दान्त को स्वीकारा गया है। इसके अनुसार महिला अधिकारिता को मूर्तरूप देने के लिए महिला सशक्तिकरण आयोग का गठन किया गया है। महिला अधिकारिता को दिल्ली हाईकोर्ट के एक फैसले से बल मिला है, जिसके अंतर्गत सेना की नौकरी में महिलाओं को भी पुरुषों की तरह स्थायी कमीशन देने का निर्देश सरकार को दिया गया है।

जब हम इस वित्त वर्ष के आम बजट पर नज़र डालते हैं तो पाते हैं कि महिला और बाल विकास के लिए योजना व्यय लगभग 50 प्रतिशत बढा दिया गया है। महिला साक्षरता दर बढाने के लिए राष्ट्रीय साक्षरता मिशन का पुनर्गठन करके साक्षर भारत नाम से नया कार्यक्रम शुरू किया जा रहा है। इसके अंतर्गत सात करोड़ निरक्षर वयस्कों को साक्षर बनाने का जो लक्ष्य निर्धारित किया गया था, उसमें छह करोड़ महिलाएं शामिल हैं। महिला कृषकों की जरूरतें पूरी करने के लिए महिला किसान सशक्तिकरण परियोजना आरंभ की जा रही है।

उधर, रेल बजट में रेलमंत्री ममता बैनर्जी ने महिलाओं को अपने घर की चारदीवारी से बाहर कदम रखने के लिए प्रेरित करते हुए मातृभूमि नाम से 21 महिला स्पेशल गाड़ियां चलाने की घोषणा की। ये रेलगाड़ियां कोलकाता, चेन्नई, नई दिल्ली और मुम्बई जैसे बड़े शहरों के रेलवे नेटवर्क का हिस्सा होंगी। उन्होंने 80,000 महिला रेल कर्मचारियों की सुख-सुविधाओं की ओर भी ध्यान देते हुए इन कर्मचारियों के बच्चों के लिए 50 शिशु सदन और 20 होस्टल बनाने का प्रस्ताव किया। इतना ही नहीं, महिला यात्रियों की सुरक्षा की बेहतर व्यवस्था के लिए उन्होंने एक महिला वाहिनी बनाने का भी प्रस्ताव किया, जिसमें महिला रेल सुरक्षा बल की 12 कम्पनियां होंगी।

लेकिन आधी दुनिया के लिए तरह-तरह की सुविधाओं और अधिकारों की बारिश होने के बावजूद अभी सफर लम्बा है। भले ही आज की नारी विगत कल की नारी से कोसों आगे निकल चुकी है, लेकिन फिर भी उसके लिए अभी कई और मंजिलों को छूना बाकी है।


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