हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमूला की आत्महत्या की घटना ने हमारे शिक्षा परिसरों को बेनकाब कर दिया है. सामाजिक-राजनीतिक संगठनों में काम करने वाले छात्र अगर निराशा में मौत चुन रहे हैं, तो हमें सोचना होगा कि हम कैसा समाज बना रहे हैं? किसी राजनीति या विचारधारा से सहमति-असहमति एक अलग बात है, किंतु बात आत्महत्या तक पहुंच जाए तो चिंताएं स्वाभाविक हैं.
यहां सवाल अगर हैदराबाद विश्वविद्यालय प्रशासन पर उठता है, तो साथ ही उन लोगों पर भी उठता है, जो रोहित से जुड़े हुए थे. उसके भावनात्मक उद्वेलन को समझकर उसे सही राह दिखाई जाती, तो शायद वह अपने जीवन को खत्म करने के बजाए बहादुरी से जूझने का फैसला करता. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लखनऊ में छात्रों के बीच ठीक ही कहा कि “मां भारती ने अपना एक लाल खोया है.” एक युवा कितने सपनों के साथ एक परिसर में आता है. उसमें देश और समाज को बदलने के कितने सपने एक साथ झिलमिलाते हैं. सामाजिक-राजनीतिक संगठनों में काम करने वाले युवा अगर निराशा के कारण इस प्रकार के कदम उठा रहे हैं तो उन संगठनों को भी सोचना होगा कि आखिर वे इनका कैसा प्रशिक्षण दे रहे हैं. सामाजिक क्षेत्र में काम करने वाला युवा एक अलग तरह की प्रेरणा से भरा होता है. संघर्ष का पथ वह चुनता है, और उसके खतरे उठाता है. रोहित के प्रकरण में असावधानी हर तरफ से दिखती है. रोहित का अकेलापन, उसके दर्द की नासमझी, उसकी मौत का कारण बनी है. विश्वविद्यालय में अलग-अलग राजनीतिक धाराओं के संगठनों की सक्रियता कोई नई बात नहीं हैं, उनके आपसी संघर्ष भी कोई नई बात नहीं हैं. बल्कि पश्चिम बंगाल और केरल में तो वामपंथियों ने अपने राजनीतिक विरोधी छात्रों की हत्या करने से भी गुरेज नहीं किया. शिक्षा परिसरों में राजनीतिक दलों से जुड़े छात्र संगठन काम करते हैं और उन्हें करना भी चाहिए किंतु उस सक्रियता में सकारात्मकता कम होती है. संवाद, सरोकार और संघर्ष की त्रिवेणी से ही छात्र संगठन किसी भी परिसर को जीवंत बनाते हैं. किंतु देखा जा रहा है, उनकी सकारात्मक भूमिका कम होती जा रही है, और वे अपनी राजनीतिक पार्टियों के पिछलग्गू से ज्यादा कुछ नहीं बचे हैं.
शिक्षा परिसरों में विचार-धारा के नाम पर छात्र और शिक्षक भी टकराव लगातार देखने में आ रहे हैं. यह टकराव संवाद के माध्यम से और मर्यादा में रहे तो ठीक है, किंतु यह टकराव मार-पिटाई और हत्या और आत्महत्या तक जा पहुंचे तो ठीक नहीं है. एक युवा कितने सपनों के साथ किसी अच्छे परिसर में पहुंचाता है. ये सपने सिर्फ उसके नहीं होते उसके माता-पिता और परिवार तथा समाज के भी होते हैं. किंतु जब परिसर की एक बड़ी दुनिया में पहुंचकर वह राजनीतिक कुचक्रों में फंस जाता है, तो उसकी एक नई यात्रा प्रारंभ होती है. संकट यह है कि हमारे अध्यापक भी असफल हो रहे हैं. वे इस दौर में अपने विद्यार्थियों में आ रहे परिर्वतनों को न देख पाते हैं, न ही समझ पाते हैं. वे तो अपनी कक्षा में उपस्थित छात्र तक भी नहीं पहुंच पा रहे हैं. विभिन्न विचारधाराओं से जुड़े छात्र परिसर में सक्रिय होते हैं, किंतु उन्हें संवाद की सीमाएं बताना शिक्षकों और प्रशासन का ही काम है. संसदीय राजनीतिक की तमाम बुराइयां छात्र संगठनों में भी आ चुकी हैं, किंतु संसदीय राजनीति में खत्म होता संवाद नीचे तक पसरता दिखता है. संकट यह है कि आज राष्ट्र से बड़ी विचारधारा है, विचारधारा से बड़ी पार्टी है और पार्टी से बड़ा व्यक्ति है. ऐसे में भावनात्मक आधार पर संगठन से जुड़े कार्यकर्ताओं का शोषण हर ओर दिखता है. गांव और सामान्य परिवारों से आए युवाओं को छात्र संगठन पकड़ लेते हैं, उनकी ऊर्जा का इस्तेमाल करते हैं और अपने संगठन को गति देते हैं.
छात्र जीवन एक ऐसा समय है, जब युवा अपने भविष्य को रचता है. अपने अध्ययन-अनुशीलन और अभ्यास से वह भावी चुनौतियों के लिए तैयार होता है. परिसरों में राजनीतिक घुसपैठ से माहौल बिगड़ता जरूर है, किंतु एक संसदीय लोकतंत्र में रहते हुए इसे रोकने के बजाए, सही दिशा देनी जरूरी है. अपनी विचारधारा के आधार पर लोगों का संगठन और जनमत निर्माण एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया को गति देते हैं. इससे विमर्श के नए द्वार खुलते हैं, और अधिनायकत्व को चुनौती मिलती है. संवाद, और लोकतंत्र एक दूसरे को शक्ति देते हैं. संवादहीनता और वैमनस्यता के बजाए हमें उदार लोकतांत्रिक विचारों के आधार पर अपने संगठनों को तैयार करना चाहिए. अतिवादिता के बजाए समन्वय, संघर्ष के बजाए संवाद, आक्रामकता के बजाए विमर्श इसका रास्ता है. अपने राजनीतिक विरोधियों को शत्रु समझना एक लोकतंत्र नहीं है. अपने राजनीतिक विरोधियों की असहमति को आदर देना ही लोकतंत्र है. हमें अपने लोकतंत्र को परिपक्व बनाना है, तो यह शुरूआत परिसरों से ही करनी होगी. परिसर खामोशी की चादर ओढ़ने के बजाए प्रश्नाकुल हों, यह समय की मांग है. इस तरह की हिंसक घटनाएं उन लोगों को मजबूत करती हैं, जो परिसरों में राजनीति के खिलाफ हैं, संवाद के खिलाफ हैं. कोई भी शिक्षा परिसर यथास्थिति को तोड़कर नए सवालों के साथ ही धड़कता और खड़ा होता है.
राजनीति और सत्ता तो यही चाहते हैं कि परिसरों में सिर्फ फेयरवेल पार्टियां हों फेशर्स पार्टियां हों, आनंद उत्सव हो. यहां राजनीतिक विचारों, देश के सवालों पर विवाद और संवाद हो यह हमारी सत्ताएं भी नहीं चाहतीं. इसलिए अनेक राज्यों में आज छात्रसंघों के चुनाव नहीं होते. लोकतंत्र की नर्सरी में उगते कटीले झाड़ों का बहाना लेकर परिसरों से सिर्फ रोबोट बनाने का काम चल रहा है. जो युवाओं को एक मशीन में तब्दील कर रहे हैं. या जिन्हें सिर्फ जल्दी और ज्यादा कमाने की विधियां बता रहे हैं. सामाजिक सरोकार, सामाजिक जिम्मेदारी को उठाने और निभाने की भावना आज के युवा में कम होती जा रही है. एक लोकतंत्र में रहते हुए युवा अगर अपने समय के सवालों से जूझने के लिए तैयार नहीं है तो हम कैसा समाज बनाएगें? रोहित की आत्महत्या हम सबके सामने एक सवाल की तरह है, पर उसे प्रधानमंत्री पर हमले का हथियार न बनाएं. यह सोचें कि परिसरों में ऐसा क्या हो रहा है कि एक सामाजिक सोच का युवा भी मौत चुनने को तैयार है. जो रोहित की मौत पर आंसू बहा रहे हैं वे भी सोचें कि अगर वे आज की तरह उसके साथ होते तो उसे जीवन नहीं गंवाना पड़ता. इस क्रम को हमें रोकना है तो परिसरों को जीवंत बनाना होगा, उम्मीदों से भरना होगा. तभी हमारे युवा ‘जीतते दिखेगें, हारते हुए नहीं. वे जिंदगी चुनेंगें मौत नहीं.’
(लेखक मीडिया विमर्श पत्रिका के कार्यकारी संपादक हैं)
संपर्कः संजय द्विवेदी. अध्यक्षः जनसंचार विभाग,
माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय,
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