वेदप्रताप वैदिक
भारत में गरीब होने का अर्थ जैसा है, वैसा शायद दुनिया में कहीं नहीं है। भारत में जिसकी आय 20 रुपए से कम है, सिर्फ वही गरीब है। बाकी सब? यदि सरकार और हमारे अर्थशास्त्रियों की मानें तो बाकी सब अमीर हैं। 25 रुपए रोज से 25 लाख रुपए रोज तक कमाने वाले सभी एक श्रेणी में हैं।
इससे बड़ा मजाक और क्या हो सकता है? ये लोग गरीबी रेखा के ऊपर हैं। जो नीचे हैं, उनकी संख्या भी तेंडुलकर कमेटी के अनुसार 37 करोड़ 20 लाख है। हम जरा सोचें कि ये 37 करोड़ लोग 20 रुपए रोज में क्या-क्या कर सकते हैं? अगर कोई इंसान इंसान की तरह नहीं, जानवर की तरह भी रहना चाहे तो उसे कम से कम क्या चाहिए? रोटी, कपड़ा और मकान तो चाहिए ही चाहिए।
बीमार पड़ने पर दवा भी चाहिए और अगर मिल सके तो अपने बच्चों के लिए शिक्षा भी चाहिए। क्या 20 रुपए रोज में आज कोई व्यक्ति अपना पेट भी भर सकता है? आजकल गाय और भैंस 20 रुपए से ज्यादा की घास खा जाती हैं। क्या हमें पता है कि देश के करोड़ों वनवासी ऐसे भी हैं, जिन्हें गेहूं और चावल भी नसीब नहीं होते।
इस देश के जानवर शायद भरपेट खाते हों, लेकिन इंसान तो भूखे ही सोते हैं। वे इसलिए भी भूखे सोते हैं कि वे इंसान हैं। वे एक-दूसरे का भोजन छीनते-झपटते नहीं। गरीब परिवारों में कभी बाप भूखा सोता है तो कभी मां और कभी-कभी बच्चों को भी अपने पेट पर पट्टी बांधनी होती है। जहां तक कपड़ों और मकान का सवाल है, भोजन के मुकाबले उनका महत्व नगण्य है। किसी तरह तन ढक जाए और रात को लेटने की जगह मिल जाए, इतना ही काफी है। ऐसे 37 करोड़ लोगों का देश-दुनिया में कोई और नहीं है। दुनिया के सबसे ज्यादा गरीब लोग अगर कहीं रहते हैं तो भारत में ही रहते हैं।
यह तो सरकारी आंकड़ा है। लेकिन असलियत क्या है? असलियत का अंदाज तो सेनगुप्ता कमेटी की रपट से मिलता है। उसके अनुसार भारत के लगभग 80 करोड़ लोग 20 रुपए रोज पर गुजारा करते हैं। यहां तेंडुलकर रपट सिर के बल खड़ी है। किसे सही माना जाए? तेंडुलकर को या सेनगुप्ता को? भारत का तथाकथित मध्यम वर्ग यदि 25-30 करोड़ लोगों का है तो शेष 80 करोड़ लोग आखिर किस वर्ग में होंगे? उन्हें निम्न या निम्न मध्यम वर्ग ही तो कहेंगे। उनकी दशा क्या है? क्या वे इंसानों की जिंदगी जी रहे हैं? उनकी जिंदगी जानवरों से भी बदतर है। वे गरीबी नहीं, गुलामी का जीवन जी रहे हैं। ये लोग कौन हैं?
ये वे लोग हैं, जो गांवों में रहते हैं, शारीरिक श्रम करते हैं, पिछड़ी और अस्पृश्य जातियों के हैं, शहरों में मजदूरी करते हैं, शिक्षा और चिकित्सा से वंचित हैं और जिन्हें सिर्फ पेट भरने, तन ढकने और सोने की सुविधा है। इन्हें वोट का अधिकार तो है, लेकिन पेट का अधिकार नहीं है। यह हमारा भारत है। यह भूखा और नंगा है और वह इंडिया है। उसमें वही 25-30 करोड़ लोग रहते हैं। ये लोग नागरिक हैं, सभ्य हैं, स्वामी हैं। कौन हैं, ये लोग? ये शहरी हैं, ऊंची जातियों के हैं, अंग्रेजीदां हैं।
राजनीति, व्यापार और ऊंची नौकरियों पर इन्हीं का कब्जा है। इन्हीं के लिए चिकनी-चिकनी सड़कें, रेल, हवाई जहाज, कारें बनती हैं। बड़े-बड़े स्कूल, अस्पताल और कॉलोनियां खड़ी की जाती हैं। इनका संसार इनका अपना है और अलग है। यही वर्ग तय करता है कि गरीबी क्या है और गरीबी कैसे हटाई जाए? इसीलिए यह फतवा जारी कर देता है कि जो 20 रुपए से ज्यादा कमाता है, वह गरीब नहीं है और जो गरीब नहीं है, वह चिल्लाए क्यों और उसके लिए कुछ खास क्यों किया जाए? यानी देश के 80 करोड़ लोगों के बारे में विशेष चिंता की कोई बात नहीं है, क्योंकि ये लोग गरीबी की रेखा के ऊपर हैं।
जिन 37 करोड़ लोगों की चिंता है, उनकी गरीबी दूर करने के प्रयास जरूर होते हैं, लेकिन वे प्रयास सतही और तात्कालिक होते हैं और उनमें से ज्यादातर भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाते हैं। सस्ते राशन और ‘नरेगा’(ग्रामीण रोजगार) से क्या वाकई गरीबी हटाई जा सकती है? ये काम भी यदि ईमानदारी से किए जाएं तो थोड़ी देर के लिए गरीबी हटती जरूर है, लेकिन मिटती बिल्कुल भी नहीं। उससे जड़ पर प्रहार होना तो बहुत दूर की बात है। सरकारी प्रयास तो उसकी जड़ को छूते तक नहीं। हमारी सरकारों ने गरीबी की जड़ उखाड़ने की बात कभी सोची ही नहीं।
हजारों बरस से चली आ रही हमारी गरीबी का मूल कारण जातिवाद है। कुछ जातियां दिमाग का काम करेंगी और कुछ हाथ-पांव का। दिमाग वाली जातियां मलाई खाएंगी और हाथ-पांव वाली जूठन। इस तिकड़म को बरकरार रखने के लिए हमने सूत्र यह चलाया कि दिमागी काम की कीमत ज्यादा और शारीरिक काम की कीमत कम। कुर्सी तोड़ काम महत्वपूर्ण और हाड़-तोड़ काम महत्वहीन।
ऊंची जातियां, शहरी लोगों और अंग्रेजीदां लोगों ने कुर्सीतोड़ काम पकड़ लिए और ग्रामीणों, पिछड़ी जातियों और गरीबों ने हाड़-तोड़ काम। यहीं इंडिया और भारत की खाई खड़ी हो गई। यह खाई तभी पटेगी, जब दिमागी और जिस्मानी कामों में चल रहा जमीन-आसमान का अंतर खत्म होगा। आज तो एक और हजारों का अंतर है। मजदूर को 100 रुपए रोज मिलते हैं तो कंपनी बॉस को लाखों रुपए रोज।
यह अंतर एक और 10 का करने की हिम्मत जिस सरकार में होगी, वह गरीबी की जड़ पर पहला प्रहार करेगी। इसी प्रकार देश में से दो प्रकार की शिक्षा और दो प्रकार की चिकित्सा का तुरंत खात्मा होना चाहिए। यदि अंग्रेजी की अनिवार्यता नौकरियों और शिक्षा से एकदम हट जाए तो गरीबों के बच्चों को अपना जौहर दिखाने का सच्च मौका मिलेगा।
आरक्षण, बेगारी भत्ता(ग्रामीण रोजगार), सस्ता अनाज आदि की अपमानजनक मेहरबानियां अपने आप अनावश्यक हो जाएंगी, अगर शिक्षा के बंद दरवाजे खोल दिए जाएं। किताबें रटाने की बजाय बच्चों को काम-धंधे सिखाए जाएं, छोटे-छोटे कर्जे देकर काम-धंधे खुलवाए जाएं और अमीरों और नेताओं के अंधाधुंध खर्चो पर रोक लगाई जाए तो गरीबी कितने दिन टिकेगी? हमारी सरकारें आमदनी पर तो टैक्स लगाती हैं, लेकिन खर्चो पर कोई सीधा टैक्स नहीं है। इसकी वजह से समाज में जबर्दस्त प्रतिस्पर्धा और भोगवाद को बढ़ावा मिलता है। लोग बचत करने की बजाय भ्रष्टाचार करने पर उतारू हो जाते हैं। यदि खर्च की सीमा बांधी जाए तो सामाजिक विषमता अपने आप घटेगी। गरीब को गरीबी उतनी नहीं चुभेगी। गरीबी अपने आप में ही अभिशाप है। जब तक उसे दूर नहीं किया जाता, लोकतंत्र और आर्थिक प्रगति कोरे दिखावे से ज्यादा कुछ नहीं हैं।
(लेखक प्रसिद्ध राजनीतिक चिंतक हैं)