कल्पना पालखीवाला
पैंगोलिन या शल्की चींटी खोर कौतुहल पैदा करने वाला प्राणी है। देश में दो तरह के पैंगोलिन पाये जाते हैं-भारतीय और चीनी। चीनी पैंगोलिन पूर्वोत्तर में पाया जाता है। दुनियाभर में पैंगोलिन की सात प्रजातियां पायी जाती हैं। लेकिन वनों में पाये जाने वाले चीनी पैंगोलिन की संख्या के बारे में कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। दक्षिण एशियाई देशों में उनकी बहुत बड़ी मांग है।
पैंगोलिन का शरीर लंबा होता है जो पूंछ की ओर पतला होता चला जाता है। दिखने मेंयह जंतु अजीब सा दिखाई देता है। इसके शरीर पर शल्क होते हैं। ये शल्क सुरक्षा कवच का काम करते हैं। लेकिन थूथन, चेहरे, गले और पैरों के आतंरिक हिस्सों में शल्क नहीं होते । शल्क को चित्तीदार कांटे के बजाय बाल के रूप में देखा जा सकता है। हालांकि पुराने पड़ने और झड़ने के साथ ही शल्क के आकार प्रकार घटते बढते रहते हैं। इनका रंग भूरे से लेकर पीला तक होता है। शरीर का शल्कमुक्त भाग सफेद, भूरे और कालापन लिए होता है
पैंगोलिन रात्रिचर प्राणी होते हैं और अक्सर निर्जन स्थानों पर दिखते हैं। हालांकि ये जमीन पर पाये जाने वाला प्राणी हैं लेकिन ये चढने में बड़े माहिर होते हैं। इनके अगले पैर की पेड़ अच्छी पकड़ होती है। पैंगोलिन चींटियों की खोज में दीवारों पर और पेड़ों पर चढते हैं और इसमें पूंछ भी उनका बहुत सहयोग करती है।
दिन के समय ये बिलों में छिपे होते हैं। इन बिलों के मुंह भुरभुरी मिट्टी से ढक़े होते हैं इनके बिल करीब छह मीटर तक लंबे होते हैं। ये बिल जहां चट्टानी स्थलों पर डेढ से पौने दो मीटर तक लंबे होते हैं, वहीं भुरभुरी मिट्टी वाले स्थानों पर यह छह मीटर तक लंबे होते हैं। पैंगोलिन का पिछला हिस्सा चापाकार होता है और कभी कभी वे पिछले पैरों पर खड़े हो जाते हैं। पैंगोलिन के दांत नहीं होते। पैंगोलिन अपनी रक्षा के लिए बॉल के आकार में लुढक़ता है। इसकी मांसपेशियां इतनी मजबूत होती हैं कि लिपटे हुए पैंगोलिन को सीधा करना बड़ा कठिन होता है। कोई मजबूत मांसभक्षी ही इनका शिकार कर सकता है। तथाकथित औषधि उद्देश्यों के लिए पैंगोलिन को मार डालने और उसके पर्यावास को नष्ट करने से उसकी संख्या काफी घट गयी है।
सामान्य लक्षण
पैंगोलिन की आंखें छोटी होती है और पलकें मोटी होती हैं। पैरों में पांच अंगुलियां होती हैं। पिछला पैर अगले पैर की तुलना में बड़ा और मोटा होता है। जीभ करीब 25 सेंटीमीटर तक होती है और वह आसानी से अपने शिकार को अपनी जीभ पर चिपका लेती है। कपाल वृताकार या शंक्वाकार होता है । मादा पैंगोलिन की छाती में दो स्तन होते हैं।
खाद्य आदत
पैंगोलिन अपने खाद्य आदत के प्रति विशेष रूप से ढले होते हैं। वे दीमकों और चीटिंयों के घोंसले को खोदकर उसके अंडे, दीमक और चींटी खाते हैं। वे उनकी सूघंने की शक्ति बहुत तीव्र होती है और घोंसले पर हमला करने से पहले वह उसका अच्छी तरह पता लगा लेते हैं। वे हमला करने के कुछ देर के अंदर ही घोंसले के सभी जीवों को चट कर जाते हैं। पैंगोलिन को बड़ी दीमक या चींटी के बजाय उनके अंडे अधिक पंसदे हैं। चूंकि उन्हें दांत नहीं होते , इसलिए ये अंडे सीधे उनके पेट में चले जाते हैं।
वितरण
यह प्रजाति प्राथमिक एवं द्वितीयक उष्णकटिबंधीय जंगलों, चूनापत्थर के जंगलों, बांस के घने जंगलों, घास के मैदान और कृषि मैदानों में पायी जाती है। इस प्रजाति को पूर्वोत्तर में सिक्किम से आगे के क्षेत्रों में देखा गया है। यह प्रजाति पूर्वी नेपाल में हिमालय की तलहटी यानी करीब 1500 मीटर तक, भूटान, उत्तरी भारत, उत्तर पूर्व बंगलादेश, म्यांमार, वियतनाम, थाइलैंड, दक्षिण चीन और ताईवान में पायी जाती है।
भारतीय पैंगोलिन पूरे मैदानी भाग और हिमालय के दक्षिणी भाग से लेकर कन्याकुमारी तक छिटपुट पाया जाता है। यह पाकिस्तान और श्रीलंका में भी पाया जाता है। भारतीय पैंगोलिन विविध प्रकार के उष्णकटिबंधीय जंगलों में पाया जाता है। यह भी देखा गया है कि पैंगोलिन मानव पर्यावास के समीप ऊसर भूमि में पाया जाता है।
रक्षा
पैंगोलिन डरपोक होते हैं और किसी को हानि नहीं पहुंचाते। वे अपनी रक्षा के लिए अपना सिर पेट में छिपा लेते हैं और पूरे शरीर को चक्र की तरह मोड़ लेते हैं ताकि शरीर के संवदेनशील हिस्से सुरक्षित रहें। मलद्वार वाले हिस्से से कुछ खास प्रकार का द्रव छोड़ना सुरक्षा का उसका दूसरा उपाय है। नर और मादा पैंगोलिन एक ही बिल में रहते हैं लेकिन उनकी प्रजनन क्रिया के बारे में ज्यादा कुछ ज्ञात नहीं है।
खतरे
पैंगोलिन की अधिकतर आबादी खतरे में है। एशियाई पैंगोलिन घटते जा रहे हैं, क्योंकि लगातार इनके पर्यावास खत्म होते जा रहे हैं और इनकी त्वचा और शल्क के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और मांस के लिए इनका शिकार किया जाता है। दुनिया के कई हिस्सों में पारंपरिक औषधियों के निर्माण के लिए शल्क की काफी मांग होती है। कहा जाता है कि पैंगोलिन का मांस अस्थमा के इलाज और रक्त परिसंचरण बढाने में कारगर होता है।
इस बात के प्रमाण मिले हैं कि पैंगोलिन परिवर्तित पर्यावास में अपने को अनुकूल ढालने में समर्थ होते हैं बशर्ते कि वहां दीमक और चींटियां पर्याप्त मात्रा में हों और कोई उन्हें मारे नहीं।
कुछ जनजातीय समुदाय जहां बड़े चाव से पैंगोलिन का मांस खाते हैं वहीं उनके शल्क और त्वचा का अंतर्राष्ट्रीय व्यापार होता है। पूर्वी राज्यों में ‡शकार उत्सव के दिन शिकार की वजह से भी उनपर खतरा उत्पन्न होता है। लगातार पसरते खेत और कीटनाशकों के बढते प्रयोग के चलते भी पैंगोलिन की संख्या घटती जा रही है।
स्थिति और संरक्षण उपाय
पैंगोलिन की दोनों प्रजातियों को आईयूसीएन द्वारा संकटापन्न प्रजातियां की सूची में रखा गया है। भारत में यह प्रजाति संरक्षित है क्योंकि उसे वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची प्रथम में रखा गया है। नेपाल में भी इस प्रजाति का शिकार प्रतिबंधित है। यह बंगलादेश, चीन, भारत, म्यांमार, नेपाल, ताईवान, थाइलैंड और वियतनाम में राष्ट्रीय और उपराष्ट्रीय कानूनों से संरक्षित है। हालांकि विविध प्रकार की इसकी प्रजातियां सुरक्षित क्षेत्रों में हैं लेकिन इस प्रजाति के संरक्षण के लिए केवल सुरक्षित क्षेत्र का दर्जा काफी नहीं है।