जगदीश्वर चतुर्वेदी
पोर्नोग्राफी के विरोध में सशक्त आवाज के तौर पर आंद्रिया द्रोकिन का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा। पोर्नोग्राफी की जो लोग आए दिन हिमायत करते रहते हैं वे उसमें निहित भेदभाव,नस्लीयचेतना और स्त्रीविरोधी नजरिए की उपेक्षा करते हैं। उनके लिए आंद्रिया के विचार आंखे खोलने वाले हैं। आंद्रिया ने अपने निबंध ‘भाषा, समानता और अपकार: पोर्नोग्राफी का स्त्रीवादी कानूनी परिप्रेक्ष्य और घृणा का प्रचार’(1993) में लिखा- ‘‘बीस वर्षों से स्त्री आंदोलन की जड़ों एवं उसकी शक्ति से जुड़े व्यक्ति, जिनमें कुछ को आप जानते होंगे कुछ को नहीं, यही बताने की चेष्टा कर रहे हैं कि पोर्नोग्राफी होती है। वकीलों की माने तो भाषा, व्यवहार, क्रियाकलापों में (के द्वारा)।’’
आंद्रिया और कैथरीन ए मैकिनॉन ने इसे ‘‘अभ्यास कहा था जो घटित होता है, अनवरत हो रहा है। यह नारी जीवन का यथार्थ बन गया है। स्त्रियों का जीवन दोहरा और मृतप्राय बना दिया गया है। सभी माध्यमों में हमें ही दिखाया जाता है। हमारे जननांग को बैगनी रंग से रंग कर उपभोक्ताओं का ध्यान आकर्षित किया जाता है। हमारी गुदा, मुख व गले को कामुक क्रियाओं के लिए पेश किया जाता है, जिनका गहरे भेदन किया जा सकता है।’’
पोर्नोग्राफी के कामुक सुख वाले पक्ष पर बहुत लिखा गया है लेकिन पोर्न के द्वारा अमानवीय वातावरण और मनोदशा तैयार होती है उसकी ओर सबसे पहले स्त्रीवादी विचारकों ने ही ध्यान खींचा था। पोर्न उद्योग ने स्त्री को वस्तु बना दिया है। आंद्रिया ने लिखा- ‘‘यहाँ मैं अमानवीकरण की प्रक्रिया का वर्णन कर रही हूँ जो कि व्यक्ति को वस्तु में बदलने का ठोस कारण रही है। जबकि अभी तक हमने हिंसा की बात ही नहीं की है। अमानवीयकरण एक सच्चाई है। यह दैनंदिन जीवन का सच है। यह कष्ट और लांछन का साधन है। यह हमारे साथ, हम स्त्रियों के साथ घटित होता है। हम कहते है कि स्त्रियों का वस्तुकरण हो रहा है। इस बड़े शब्द को कहते हुए हमें लगता है कि लोग हमें बुद्धिमान समझ रहे होंगे। लेकिन वस्तु में बदलना एक महत्वपूर्ण घटना है, विशेषकर पोर्नोग्राफी की वस्तु में बदलना। यह एक लक्ष्य है। आप एक लक्ष्य या टारगेट में बदल दिए गए हैं। और शरीर पर लगे लाल, बैंगनी निशान यह चिह्नित करते है कि पुरुष आपसे क्या चाहता है। वस्तु बनी स्त्री इच्छित स्वर में कहती है, मेरा शोषण करो। एक गाड़ी कभी नहीं कहती कि मुझे तोड़ दो। पर स्त्री, अमानवीय वस्तु, कहती है- मुझे तकलीफ दो। और जितनी तुम मुझे तकलीफ दोगे मैं तुम्हें उतना ही प्यार करूँगी।’’
पोर्न की सारी क्रियाएं इमेजों की भाषा में चलती हैं। वर्चुअल कामुक पोर्न छवियों में हम जिस औरत को देखते हैं वह कोई वस्तु नहीं,खिलौना नहीं बल्कि एक औरत है। यह कल्पित औरत है। यहां पर जो सेक्स है वह वर्चुअल है। आंद्रिया ने लिखा है कि ‘‘बैंगनी रंग की चीज़ को जब हम देखते हैं, जब उसके जननांग, मलाशय, मुख, गले को देखते है तो हममें से उसे कई जानने वाले, उसके अपने भी यह भूल जाते है कि वह एक मनुष्य है। पोर्नोग्राफी में हम पाते है कि पुरुषों की कामुक परितुष्टि को नारी-इच्छा के रूप में पेश किया जाता है। स्त्री शरीर की विभिन्न अवस्थितियों, उपयोग के साकार दृश्यों द्वारा यही मंशा ज़ाहिर होती है। तात्कालिक रूप से लगता है कि वस्तु अपना भेदन स्वयं चाहती है, वह आसानी से भेद्य है। इस प्रकार स्व-भेदन (सेल्फ पेनिट्रेशन) ही पोर्नोग्राफी का मुख्य भाव बन जाता है।’’
पोर्नजनित तथाकथित आनंद और खासकर शारीरिक अंगों का प्रदर्शन और यातनामय सेक्स की इमेजों के माध्यम से दर्शक की स्त्री विरोधी मनोदशा तैयार करने में मदद मिलती है। यातनामय सेक्स को किसी भी रूप में आनंददायी नहीं कहा जा सकता। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि देह की इमेजों के माध्यम से किया गया प्रदर्शन स्त्री को कामुक ऑब्जेक्ट बना देता है। इस प्रक्रिया में स्त्री की अस्मिता का लोप हो जाता है। स्त्री अस्मिता के लोप का अर्थ है मनुष्य के रूप में स्त्री की पहचान का लोप। इसी संदर्भ में आंद्रिया ने कहा- ‘‘पोर्नोग्राफी में औरतें, गर्भवती औरतें भी कई प्रकार की वस्तुओं को देह से चिपका कर कामुक प्रदर्शन करती हैं। ऐसा करते हुए वह मनुष्य ही नहीं रह जाती। कोई भी व्यक्ति ऐसी महिला की तस्वीर देख कर नहीं कह सकता कि वह मानव है, उसके अधिकार हैं, उसकी स्वाधीनता, उसका सम्मान है या वह कोई है भी। पोर्नोग्राफी में यही दुरावस्था औरतों की होती है।
अस्वाभाविक मैथुन क्रिया के बारे में मनोविश्लेषकों का कहना है कि यह अस्वाभाविक वीर्य-पतन से जुड़ी हुई है। जैसे कामुक रूप से उत्तेजित पुरुष किसी वस्तु मसलन जूते पर लिंग रगड़ता है, उससे यौन क्रिया करता है, उस पर वीर्यपतन करता है। पोर्नोग्राफी में स्त्री के शरीर का यही हाल होता है। वह एक अस्वाभाविक लैंगिक वस्तु में बदल जाती है, उसका प्रेमी या ग्राहक उस पर वीर्यपतन करता है। यह व्यवहार ही पोर्नोग्राफी की खूबी है जिसमें स्खलन स्त्री में नहीं बल्कि स्त्री पर होता है। इससे मानो पुरुष यह सिद्ध करता है कि उसके स्वामित्व में क्या-क्या है और उसने इसे कैसे प्राप्त किया है। स्त्री पर वीर्यपतन के द्वारा वह दिखाता है कि स्त्री दूषित हो गई है, वह गंदी हो गई है। यह मेरी नही पोर्नोग्राफर पुरुष की भाषा है। मार्क्विस दे सादे ने हमेशा वीर्यपतन को प्रदूषण कहा।’’
(लेखक वामपंथी चिंतक और कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर हैं)