-एम. वी. एस. प्रसाद / डॉ. के. परमेश्वरन
विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस की स्थापना 1991 में यूनेस्को और संयुक्त राष्ट्र के जन सूचना विभाग ने मिलकर की थी। इससे पहले नामीबिया में विन्डहॉक में हुए सम्मेलन में इस बात पर जोर दिया गया था, कि प्रेस की आजादी को मुख्य रूप से बहुवाद और जनसंचार की आजादी की जरूरत के रूप में देखा जाना चाहिए। तब से हर साल 3 मई को विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाता है।
संयुक्त राष्ट्र महासभा ने भी 3 मई को विश्व प्रेस स्वतंत्रता की घोषणा की थी। यूनेस्को महा-सम्मेलन के 26वें सत्र में 1993 में इससे संबंधित प्रस्ताव को स्वीकार किया गया था।
इस दिन के मनाने का उद्देश्य प्रेस की स्वतंत्रता के विभिन्न प्रकार के उल्लंघनों की गंभीरता के बारे में जानकारी देना है, जैसे प्रकाशनों की कांट-छांट, उन पर जुर्माना लगाना, प्रकाशन को निलंबित कर देना और बंद करदेना आदि । इनके अलावा पत्रकारों, संपादकों और प्रकाशकों को परेशान किया जाता है और उन पर हमले भी किये जाते हैं। यह दिन प्रेस की आजादी को बढ़ावा देने और इसके लिए सार्थक पहल करने तथा दुनिया भर में प्रेस की आजादी की स्थिति का आकलन करने का भी दिन है।
और अधिक व्यावहारिक तरीके से कहा जाए, तो प्रेस की आजादी या मीडिया की आजादी, विभिन्न इलैक्ट्रोनिक माध्यमों और प्रकाशित सामग्री तथा फोटोग्राफ वीडियो आदि के जरिए संचार और अभिव्यक्ति की आजादी है। प्रेस की आजादी का मुख्य रूप से यही मतलब है कि शासन की तरफ से इसमें कोई दखलंदाजी न हो, लेकिन संवैधानिक तौर पर और अन्य कानूनी प्रावधानों के जरिए भी प्रेस की आजादी की रक्षा जरूरी है।
प्रेस की आजादी का मतलब
मीडिया की आजादी का मतलब है कि किसी भी व्यक्ति को अपनी राय कायम करने और सार्वजनिक तौर पर इसे जाहिर करने का अधिकार है। इस आजादी में बिना किसी दखलंदाजी के अपनी राय कायम करने तथा किसी भी मीडिया के जरिए, चाहे वह देश की सीमाओं से बाहर का मीडिया हो, सूचना और विचार हासिल करने और सूचना देने की आजादी शामिल है। इसका उल्लेख मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के अनुछेद 19 में किया गया है। सूचना संचार प्रौद्योगिकी (विषय-वस्तु प्रसारण आदि) तथा सोशल मीडिया के जरिए थोड़े समय के अंदर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक सभी तरह की महत्वपूर्ण ख़बरें पहुंच जाती हैं। यह समझना भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि सोशल मीडिया की सक्रियता से इसका विरोध करने वालों को भी स्वयं को संगठित करने के लिए बढ़ावा मिला है और दुनिया भर के युवा लोग अपनी अभिव्यक्ति के लिए और व्यापक रूप से अपने समुदायों की आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति के लिए संघर्ष करने लगे हैं।
इसके साथ ही यह समझना भी जरूरी है कि मीडिया की आजादी बहुत कमजोर है। यह भी जानना जरूरी है कि अभी यह सभी की पहुंच से बाहर है। हालांकि मीडिया की सच्ची आजादी के लिए माहौल बन रहा है, लेकिन यह भी ठोस वास्तविकता है कि दुनिया में कई लोग ऐसे हैं, जिनकी पहुंच बुनियादी संचार प्रौद्योगिकी तक नहीं है। जैसे-जैसे ऑनलाइन पर ख़बरों और रिपोर्टिंग का सिलसिला बढ़ रहा है, ब्लॉग लेखकों सहित और ज्यादा ऑनलाइन पत्रकारों को परेशान किया जा रहा है और हमले किये जा रहे हैं। यूनेस्को ने यहां तक कि एक वेबपेज - यूनेस्को रिमेम्बर्स एसेसिनेटड जर्नलिस्ट्स, इसके लिए शुरू किया है।
राज्यों और सरकारों की भी यह जिम्मेदारी है कि वे यह सुनिश्चित करें कि अभिव्यक्ति की आजादी के राष्ट्रीय कानून अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्य सिद्धांतों के अनुरूप हों, जिनका उल्लेख विन्डहॉक घोषणा और यूनेस्को के मीडिया विकास सूचकों में किया गया है। दोनों दस्तावेजों को स्वीकृति दी जा चुकी है।
प्रेस आजादी में दो कारणों से रुकावटें आ रही हैं। एक कारण है, कोई संगठित सूचना प्रणाली न होना और दूसरा कारण है, सूचना तक पहुंचने, समझने और उसका मूल्यांकन करने के लिए बुनियादी कौशल और साक्षरता में कमी। समाज के कई वर्गों को न केवल सार्वजनिक तौर पर अपनी बात कहने का अवसर नहीं मिलता, बल्कि वे सूचना प्राप्त करने के साधनों से भी वंचित हैं, जो उन्हें शिक्षित कर सकते हैं और सशक्त बना सकते हैं। एक ओर तो विश्वव्यापी वेबसाइटों का प्रसारण बढ़ रहा है और सूचना प्राप्त करने में आसानी होती जा रही है और दूसरी ओर सूचना के साधनों तक पहुंच में दूरी बनी हुई है, जो एक विरोधाभास जैसा लगता है।
अंतर्राष्ट्रीय दूरसंचार संघ (आईटीयू) के अनुसार दुनिया भर में 60 प्रतिशत से अधिक घरों में अभी भी कम्प्यूटर नहीं है और दुनिया की आबादी के 35 प्रतिशत लोग ही अपने आपको इन्टरनेट उपभोक्ता समझते हैं। इस सर्वेक्षण में जिनको शामिल किया गया, उनमें अधिक संख्या विकासशील देशों के लोगों की थी। (ये आंकड़े यूनेस्को द्वारा आयोजित वैश्विक अध्ययन से लिये गए हें।)
यह मानते हुए कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का और प्रेस की स्वतंत्रता का सूचना प्राप्त करने के अधिकार से गहरा संबंध है, यह जरूरी हो जाता है कि देशों के बीच और देशों के अंदर कम्प्यूटर आदि की उपलब्धता की कमी (डिजीटल डिवाइड) को दूर किया जाए। वास्तव में हाल में हुए 7वें यूनेस्को यूथ फोरम के सम्मेलन में भाग लेने वालों ने इस बात पर जोर दिया था कि सूचना संचार और प्रौद्योगिकी तक पहुंच को सुलभ बनाना एक बहुत बड़ी चुनौती है। सभी की सूचना तक पहुंच हो, इसके लिए प्रयास किये जाने चाहिएं, विशेष रूप से ग्रामीण और दूरदराज क्षेत्रों में और उन इलाकों में, जो अलग-थलग हैं।
भारतीय परिवेश भारत में संविधान के अनुच्छेद 19(1)ए) में ‘’भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार’’ का उल्लेख है, लेकिन उसमें शब्द ‘’प्रेस’’ का जिक्र नहीं है, लेकिन उप-खंड (2) के अंतर्गत इस अधिकार पर पाबंदियां लगाई गई हैं। इसके अनुसार भारत की प्रभुसत्ता और अखंडता, राष्ट्र की सुरक्षा, विदेशों के साथ मैत्री संबंधों, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता और नैतिकता के संरक्षण, न्यायालय की अवमानना, बदनामी या अपराध के लिए उकसाने जैसे मामलों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पाबंदियां लगाई जा सकती हैं।
लोकतंत्र के सही तरीके से काम करने के लिए यह जरूरी है कि नागरिकों को देश के विभिन्न भागों की ख़बरों और यहां तक कि विदेशों की ख़बरों की जानकारी हो, क्योंकि तभी वे तर्क संगत राय कायम कर सकते हैं। यह निश्चित बात है कि किसी भी नागरिक से यह उम्मीद नहीं की जा सकती, कि वह अपनी राय तय करने के लिए स्वयं ख़बरें इक्ट्ठी करे । इस लिए लोकतंत्र में मीडिया की यह महत्वपूर्ण भूमिका है और वह लोगों के लिए खबरें इकट्ठी करने के लिए उनकी एक एजेंसी के रूप में काम करता है। यही कारण है कि सभी लोकतांत्रिक देशों में प्रेस की आजादी पर जोर दिया गया है, जबकि सामन्तवादी शासन व्यवस्था में इसकी अनुमति नहीं होती थी।
भारत जैसे विकासशील देशों में मीडिया पर जातिवाद और सम्प्रदायवाद जैसे संकुचित विचारों के खिलाफ संघर्ष करने और ग़रीबी तथा अन्य सामाजिक बुराइयों के खिलाफ लड़ाई में लोगों की सहायता करने की बहुत बड़ी जिम्मेदारी है, क्योंकि लोगों का एक बहुत बड़ा वर्ग पिछड़ा और अनभिज्ञ है, इसलिये यह और भी जरूरी है कि आधुनिक विचार उन तक पहुंचाए जाएं और उनका पिछड़ापन दूर किया जाए, ताकि वे सजग भारत का हिस्सा बन सकें। इस दृष्टि से मीडिया की बहुत बड़ी जिम्मेदारी है (उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश, न्यायमूर्ति श्री मार्कन्डेय काटजू)
सूचना का अधिकार कानून
विश्व भर में सूचना तक सुलभ पहुंच के बारे में बढ़ती चिंता को देखते हुए भारतीय संसद द्वारा 2005 में पास किया गया सूचना का अधिकार कानून बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। इस कानून में सरकारी सूचना के लिए नागरिक के अनुरोध का निश्चित समय के अंदर जवाब देना बहुत जरूरी है।
इस कानून के प्रावधानों के अंतर्गत कोई भी नागरिक सार्वजनिक अधिकरण (सरकारी विभाग या राज्य की व्यवस्था) से सूचना के लिए अनुरोध कर सकता है और उसे 30 दिन के अंदर इसका जवाब देना होता है। कानून में यह भी कहा गया है कि सरकारी विभाग व्यापक प्रसारण के लिए अपना रिकॉर्डों का कम्प्यूटरीकरण करेंगे और कुछ विशेष प्रकार की सूचनाओं को प्रकाशित करेंगे, ताकि नागरिकों को औपचारिक रूप से सूचना न मांगनी पड़े। संसद में 15 जून, 2005 को यह कानून पास कर दिया था, जो 13 अक्तूबर, 2005 से पूरी तरह लागू हो गया।
संक्षेप में, यह कानून प्रत्येक नागरिक को सरकार से सवाल पूछने, या सूचना हासिल करने, किसी सरकारी दस्तावेज की प्रति मांगने, किसी सरकारी दस्तावेज का निरीक्षण करने, सरकार द्वारा किये गए किसी काम का निरीक्षण करने और सरकारी कार्य में इस्तेमाल सामग्री के नमूने लेने का अधिकार देता है।
सूचना का अधिकार कानून एक मौलिक मानवाधिकार है, जो मानव विकास के लिए महत्वपूर्णहै तथा अन्य मानवाधिकारों को समझने के लिए पहली जरूरत है। पिछले 7 वर्षों के अनुभव से, जबसे यह कानून लागू हुआ है, पता चलता है कि सूचना का अधिकार कानून आवश्यकता के समय एक मित्र जैसा है, जो आम आदमी के जीवन को आसान और सम्मानजनक बनाता है तथा उसे सफलतापूर्वक जन सेवाओं के लिए अनुरोध करने और इनका उपयोग करने का अधिकार देता है।