डॉ. के. आर. थंकप्पन और पी. श्रीदेवी
भारत में अनुमानतः लगभग 275 मिलियन (35 मिलियन) लोग तंबाकू का सेवन करते हैं। यहां लगभग आधे पुरुष (48 प्रतिशत) और महिला आबादी का एक बटा पांच भाग किसी न किसी रुप में तंबाकू का सेवन करता है। मृत्यु के पांच प्रमुख खतरों में से एक तंबाकू, एकमात्र ऐसा कारक है जिससे बचकर मृत्यु पर काबू पाया जा सकता है। जब धूम्रपान करने वाला व्यक्ति अपने घर में धूम्रपान करता है तो घर के अन्य सदस्यों पर परोक्ष रुप से धूम्रपान संबंधित बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है।

केरल में तंबाकू सेवन
      वैश्विक व्यस्क तंबाकू सर्वेक्षण 2010, की रिपोर्ट के मुताबिक केरल की व्यस्क जनसंख्या में से 35.5 प्रतिशत पुरुष और 8.5 प्रतिशत महिलाएं किसी न किसी रुप में तंबाकू का सेवन करते हैं। हालांकि तंबाकू का सेवन करने वाली महिलाओं की संख्या काफी कम है लेकिन घर में धूम्रपान करने वाले व्यक्तियों के कारण महिलाओं और बच्चों के परोक्ष रुप से धूम्रपान से प्रभावित होने का खतरा काफी अधिक होता है।

केरल में 42 प्रतिशत लोग घर में परोक्ष धूम्रपान सेवन के बुरे असर का शिकार होते हैं। सिगरेट/बीडी के धूएं से कम से कम 250 प्रकार के खतरनाक रसायन परोक्ष धूम्रपान करने वाले लोगों पर असर डालते हैं। धूम्रपान न करने वाले व्यक्तियों के शरीर में जब सिगरेट/बीडी का धुआं प्रवेश करता है तो कैंसरजन्य बहुत से रसायन भी उनके शरीर में चले जाते हैं। अनुसंधान में महिलाओं और बच्चों पर इसके बहुत से दुष्परिणाम सामने आए हैं जिसमें अकस्मात गर्भपात, जन्म के समय कम वजन, कमज़ोर फेफड़े और सांस संबंधी परेशानियों शामिल है। वैज्ञानिक तौर पर यह साबित हो चुका है कि सिगरेट का धूआं 2-4 घंटों तक हवा में विद्यमान रहता है और धुएं का अवशेष घरों के पर्दों और अन्य वस्तुओँ पर पड़ता है जिसका नकारात्मक प्रभाव घर में रहने वाले सभी लोगों पर होता है।

प्रोजेक्ट क्विट टोबैको इंडिया यानि तंबाकू मुक्त भारत परियोजना द्वारा धूमपान मुक्त घर की पहल

     महिलाओं और बच्चों को परोक्ष तंबाकू सेवन से बचाने के मुद्दे को संबोधित करने के लिए तंबाकू मुक्त भारत परियोजना ने केरल के ग्रामीण समुदाय में धूम्रपान मुक्त घरों की पहल की है। समुदाय स्तरीय गतिविधियों में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाले केरल महिला समाख्या समाज और कुदुंबश्री जैसे महिला समूहों के ज़रिए इस परियोजना को लागू किया जा रहा है। इस अभियान का उद्देश्य है कि समुदाय में सब लोग एक साथ मिलकर यह निर्णय ले कि वे अपने क्षेत्र के किसी भी घर या बाहर किसी भी व्यक्ति को धूम्रपान की अनुमति नहीं देंगे। त्रिवेंद्रम जिले के नेल्लानदू ग्राम पंचायत के चुनिंदा समुदायों/वॉर्डों में इस अभियान को सफलतापूर्वक लागू किया गया है।

      ‘धूम्रपान मुक्त घर’ की अवधारणा की शुरुआत से पहले महिलाओं और बच्चों पर परोक्ष धूम्रपान के असर का आकलन करने के लिए घर के भीतर और बाहर समुदाय स्तर पर एक सर्वेक्षण किया गया। इस सर्वेक्षण में यह बात सामने आई कि 70 प्रतिशत से अधिक धूम्रपान करने वाले व्यक्ति घर के भीतर ऐसा करते हैं परिणामतः घर के सदस्यों पर इसका प्रभाव पड़ता है। अधिकांश महिलाओं को यह बात मालूम थी कि परोक्ष धूम्रपान सेवन स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है लेकिन वे इससे जुडी विशिष्ट स्वास्थ्य समस्याओं से अवगत नहीं थी। व्यक्तिगत तौर पर वे घर में धूम्रपान के खिलाफ थीं लेकिन इस संबंध में कुछ भी करने में स्वंय को असमर्थ महसूस करती थीं। बहुत कम घर ऐसे थे जहां घर में धूम्रपान न करने का नियम था। घर में आए किसी मेहमान को धूम्रपान करने से रोकने में महिलाएं स्वंय को असहज महसूस करती थीं। धूम्रपान करने वाले व्यक्तियों सहित अस्सी प्रतिशत लोगों ने समुदाय व्यापी धूम्रपान मुक्त घर की नीति के संबंध में अपना समर्थन जताया।

धूम्रपान मुक्त घर की अवधारणा के पहले कदम के तहत चुने गए पंचायत के सदस्‍यों के साथ एक बैठक बुलाई गई और उसमें इस गतिविधि के उद्देश्‍यों के बारे में चर्चा की गई। दूसरा कदम समुदाय के बीच धुएं से परोक्ष रूप से प्रभावित हुए लोगों को पहुंचने वाले नुकसान के बारे में जागरूक करना था। कुदुमश्री और महिला समाख्‍या के सदस्‍यों के समर्थन से घरों में धूम्रपान करने वाले व्‍यक्ति के कारण घर के अन्‍य लोगों पर पड़ने वाले असर के बारे में समुदाय को शिक्षित करने के लिए चर्चाएं आयोजित की गईं । इस आंदोलन के स्‍थायित्‍व को सुनिश्चित करने के लिए पंचायत स्‍तरीय रिसोर्स टीम गठित की गई और इस टीम को प्रशिक्षित किया गया। इस रिसोर्स टीम में स्‍वास्‍थ्‍य निरीक्षक, कनिष्‍ठ स्‍वास्‍थ्‍य निरीक्षक, कनिष्‍ठ सार्वजनिक स्‍वास्‍थ्‍य नर्स, आशा कार्यकर्ताएं, आगंनबाड़ी शिक्षक, कुदमश्री/महिला समाख्‍या सदस्‍य आदि सम्मिलित हैं।

तीसरा कदम पुरूष और महिलाओं के साथ बैठकें आयोजित करना था ताकि  समुदाय में स्‍वास्‍थ्‍य शिक्षा अभियान आयोजित किए जा सकें जिसमें ‘धूम्रपान मुक्त घरों’ की आवश्‍यकता के विषय पर जानकारी दी जा सके। सभी परिवारों को अपने घरों के मुख्‍य द्वार पर स्‍टीकर लगाने के लिए दिए गए जिसमें लिखा गया था कि यह घर धूम्रपान मुक्त है। समुदाय के सदस्‍यों को सार्वजनिक स्‍थानों पर पोस्‍टर और बैनर भी लगाने थे जिसमें इस समुदाय के घरों के धूम्रपान से मुक्त होने का उल्‍लेख किया गया था। स्‍कूलों में  स्‍वास्‍थ्‍य शिक्षा क्‍लास आयोजित की गईं तथा विद्यार्थियों को भी इस आंदोलन में सम्मिलित किया गया। विद्यार्थियों ने पेास्‍ट‍र बनाने की प्रतियोगिता में भाग लिया और अपने पिता और घर के अन्‍य पुरुषों को याद दिलाया कि घर में धूम्रपान न करें। चौथा  कदम था, पूरे समुदाय की बैठक करना जिसमें लोगों ने औपचारिक रूप से घोषणा पत्र पर हस्‍ताक्षर किए जिसमें लिखा गया था कि इस समुदाय के किसी भी घर में धूम्रपान नहीं किया जाता।

इस प्रयास के बाद कार्यक्रम का असर देखने के लिए एक सर्वेक्षण किया गया। सर्वेक्षण में पाया गया कि घरों में धूम्रपान बंद करने वाले परिवारों की संख्‍या 20 प्रतिशत से बढ़कर 60 प्रतिशत हो गई है। इस कार्यक्रम के परिणामस्वरुप धूम्रपान करने वाले 67 प्रतिशत व्‍यक्तियों ने घरों में इसका सेवन बंद कर दिया है।

भारत में कानूनी रूप से सार्वजनिक स्‍थानों पर धूम्रपान वर्जित है और इसके कारण धूम्रपान करने वाले बहुत से लोग घरों में इसका सेवन करते हैं। महिलाएं या तो इस बारे में पुरूषों को कहने में हिचकिचाती हैं या लाचार होती हैं। नेल्लानदू अनुभव से यह सामने आया है कि अगर पूरा समुदाय घरों में धूम्रपान के खिलाफ आवाज़ उठाए तो यह काफी प्रभावी और स्‍वीकार्य होगा। ‘धूम्रपान मुक्त घर’ नामक यह आंदोलन अल्‍लुज़ा जिले में मुहम्‍मा ग्राम पंचायत और इरनाकुलम जिले की नजराक्‍कल ग्राम पंचायत में चलाया जा रहा है।


फ़िरदौस ख़ान
दुनियाभर में तम्बाकू सेवन का बढ़ता चलन स्वास्थ्य के लिए बेहद नुक़सानदेह  साबित हो रहा है.  विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) ने भी इस पर चिंता ज़ाहिर की है.  तम्बाकू से संबंधित बीमारियों की वजह से हर साल क़रीब  5 मिलियन लोगों की मौत हो रही है, जिनमें लगभग 1.5 मिलियन महिलाएं शामिल हैं.  रिपोर्ट के मुताबिक़ दुनियाभर में 80 फ़ीसदी  पुरुष तम्बाकू का सेवन करते हैं, लेकिन कुछ देशों की महिलाओं में तम्बाकू सेवन की प्रवृत्ति तेज़ी से बढ़ रही है. दुनियाभर के धूम्रपान करने वालों का क़रीब 10 फ़ीसदी  भारत में हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में क़रीब 25 करोड़ लोग गुटखा, बीड़ी, सिगरेट, हुक्का आदि के ज़रिये तम्बाकू का सेवन करते हैं.

डब्ल्यूएचओ मुताबिक़ दुनिया के 125 देशों में तम्बाकू  का उत्पादन होता है. दुनियाभर में हर साल 5.5 खरब सिगरेट का उत्पादन होता है और एक अरब से ज़्यादा लोग इसका सेवन करते हैं. भारत में 10 अरब सिगरेट का उत्पादन होता है.  भारत में 72 करोड़ 50 लाख किलो तम्बाकू की पैदावार होती है. भारत तम्बाकू निर्यात के मामले में ब्राज़ील,चीन, अमरीका, मलावी और इटली के बाद छठे स्थान पर है. आंकड़ों के मुताबिक़ तम्बाकू से 2022 करोड़ रुपए की विदेशी मुद्रा की आय हुई थी. विकासशील देशों में हर साल 8 हज़ार बच्चों की मौत अभिभावकों द्वारा किए जाने वाले धूम्रपान के कारण होती है. दुनिया के किसी अन्य देश के मुक़ाबले  में भारत में तम्बाकू से होने वाली बीमारियों से मरने वाले लोगों की संख्या बहुत तेज़ी से बढ़ रही है.  तम्बाकू पर आयोजित विश्व सम्मेलन और अन्य अनुमानों के मुताबिक़  भारत में तम्बाकू सेवन करने वालों की तादाद क़रीब साढ़े 29 करोड़ तक हो सकती है.

देश के स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से जारी एक बयान में कहा गया है कि शहरी क्षेत्र में केवल 0.5 फ़ीसदी महिलाएं धूम्रपान करती हैं, जबकि ग्रामीण क्षेत्र में यह संख्या दो फ़ीसदी है. आंकड़ों की मानें तो पूरे भारत में 10 फ़ीसदी  महिलाएं विभिन्न रूपों में तंबाकू का सेवन कर रही हैं. शहरी क्षेत्रों की 6 फ़ीसदी महिलाएं और ग्रामीण इलाकों की 12 फ़ीसदी महिलाएं तम्बाकू का सेवन करती हैं. अगर पुरुषों की बात की जाए तो भारत में हर तीसरा पुरुष तम्बाकू का सेवन करता है.

डब्लूएचओ की रिपोर्ट के मुताबिक़ कई देशों में तम्बाकू सेवन के मामले में लड़कियों तादाद में काफ़ी इज़ाफ़ा  हुआ है.  हालांकि तम्बाकू सेवन के मामले में महिलाओं की भागीदारी सिर्फ़ 20 फ़ीसद  ही है. महिलाओं और लड़कियों में तम्बाकू के प्रति बढ़ रहे रुझान से गंभीर समस्या पैदा हो सकती है. डब्लूएचओ में गैर-संचारी रोग की सहायक महानिदेशक डॉक्टर आला अलवन का कहना है कि तम्बाकू विज्ञापन महिलाओं और लड़कियों को ही ध्यान में रखकर बनाए जा रहे हैं. इन नए विज्ञापनों में खूबसूरती और तंबाकू को मिला कर दिखाया जाता है, ताकि महिलाओं को गुमराह कर उन्हें उत्पाद इस्तेमाल करने के लिए उकसाया जा सके. बुल्गारिया, चिली, कोलंबिया, चेक गणराज्य, मेक्सिको और न्यूजीलैंड सहित दुनिया के क़रीब 151 देशों में किए गए सर्वे के मुताबिक़  लड़कियों में तंबाकू सेवन की प्रवृत्ति लड़कों के मुक़ाबले ज़्यादा  बढ़ रही है.

स्वास्थ्य विशेषज्ञों के मुताबिक़ तम्बाकू या सिगरेट का सेवन करने वालों को मुंह का कैंसर की होने की आशंका 50 गुना ज़्यादा  होती है. तम्बाकू में 25 ऐसे तत्व होते हैं जो कैंसर का कारण बन सकते हैं.  तम्बाकू के एक कैन में 60 सिगरेट के बराबर निकोटिन होता है. एक अध्ययन के अनुसार 91 प्रतिशत मुंह के कैंसर तम्बाकू से ही होते हैं. हार्ट केयर फाउंडेशन   ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. केके अग्रवाल  और  डॉ. बी सी राय का कहना है कि  एक दिन में 20 सिगरेट पीने से महिलाओं में हार्ट अटैक का खतरा 6 गुना बढ़ जाता है एक दिन में 20 सिगरेट पीने से पुरुषों में हार्ट अटैक का खतरा 3 गुना बढ़ जाता है.  पहली बार हार्ट अटैक के लिए धूम्रपान 36 फ़ीसदी  मरीज़ों  में ज़िम्मेदार होता है. ऐसे हृदय रोगी जो लगातार धूम्रपान करते रहते हैं उनमें दूसरे हार्ट अटैक का ख़तरा ज़्यादा रहता है साथ अकस्मात मौत का ख़तरा भी बढ़ जाता है. बाई पास सर्जरी के बाद लगातार धूम्रपान करते रहने से मृत्यु, हृदय संबंधी बीमारी से मौत या फिर से बाईपास का ख़तरा ज़्यादा होता है.  एंजियोप्लास्टी के बाद लगातार धूम्रपान करने से मौत और हार्ट अटैक का ख़तरा बढ़ जाता है. जिन मरीज़ों  में हार्ट फंक्शनिंग 35 फ़ीसदी से कम हो, उनमें धूम्रपान से मौत का ख़तरा ज़्यादा होता है जो लोग लगातार धूम्रपान करते रहते हैं, उनमें हो सकता है कि ब्लड प्रेशर की दवाएं असर करें.

तम्बाकू से होने वाले नुक़सान को देखते हुए साल 1987 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने एक प्रस्ताव द्वारा 7 अप्रैल 1988 से विश्व तम्बाकू निषेध दिवस मनाने का फ़ैसला किया था. इसके बाद   साल 1988 में हर साल की 31 मई को तम्बाकू निषेध दिवस मनाने का फ़ैसला किया गया और तभी से 31 मई को तम्बाकू निषेध दिवस मनाया जाने लगा. इस दिन विभिन्न कार्यक्रम कर लोगों को तम्बाकू से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले नुक़सान के बारे में बताया जाता है. हालांकि भारत में भी सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान पर पाबंदी है, लेकिन लचर क़ानून व्यवस्था के चलते इस पर कोई अमल नहीं हो पा रहा है. लोगों को सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान  करते हुए देखा जा सकता है. भारत में आर्थिक मामलों की संसदीय समिति पहले ही राष्ट्रीय तम्बाकू नियंत्रण कार्यक्रम को मंज़ूरी  दे चुकी है. इसका मक़सद तम्बाकू नियंत्रण क़ानून के प्रभावी क्रियान्वयन और तम्बाकू के हानिकारक प्रभावों के बारे में लोगों तक जागरूकता फैलाना है. इसके लिए 11वीं योजना में कुल वित्तीय परिव्यय 182 करोड़ रुपये रखा गया है. इस कार्यक्रम में सम्पूर्ण देश शामिल है, जबकि शुरुआती   चरण में 21 राज्यों के 42 ज़िलों  पर ध्यान केन्द्रित किए गए हैं. 

ख़ास बात यह भी है कि एक तरफ़ जहां जनता महंगाई से जूझ रही है, वहीं  दूसरी तरफ़  गुटखे आदि की क़ीमतों पर कोई असर नहीं पड़ा है. इतना ही नहीं देश में तम्बाकू से संबंधित उत्पादों के विज्ञापन पर पाबंदी के बावजूद टीवी और अखबारों आदि के ज़रिये इनका प्रचार-प्रसार बदस्तूर जारी  है. ऐसे में सरकार  की तम्बाकू रोधी मुहिम का क्या हश्र होगा, सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है.  

बहरहाल,  तम्बाकू से होने वाली मौतों को रोकने के लिए प्रशासनिक  तौर पर सुधार करने की ज़रूरत है. सरकार को जागरूकता अभियानों को बढ़ावा देना होगा और नियमों की अवहेलना करने वालों के साथ सख्ती बरतनी होगी.      




अनूप भटनागर
      अदालतों में लंबित मुकदमों की बढ़ती संख्या और इनके निबटारे में हो रहे विलंब से उत्पन्न चुनौतियों से निबटने के लिए न्यायपालिका में सुधार के लिए सतत् प्रयास हो रहे हैं। अदालतों में लंबित मुकदमों का तेजी से निबटारा करने के लिए विशेष अभियान भी चलाये जा रहे हैं। अदालतों में लंबित मुकदमों का बोझ कम करने की दिशा में किए जा रहे न्यायिक सुधारों की कड़ी में ही अब राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष एवं देश के पूर्व प्रधान न्यायाधीश के. जी. बालाकृष्णन ने जेलों में रात्रि अदालतें लगाने का सुझाव दिया है। यह सुझाव बेहद महत्वपूर्ण है। उन्होंने राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा है कि इस समय देश की 1,393 जेलों में करीब तीन लाख 69 हजार कैदी हैं जबकि इन जेलों की क्षमता तीन लाख 20 हजार 450 कैदियों को ही रखने की है। इन कैदियों में विचाराधीन बंदियों की संख्या काफी ज्यादा है। छोटे-मोटे अपराधों में बंद विचाराधीन कैदियों के मामलों की सुनवाई जेल में बनी रात्रि अदालत में की जा सकती है। ऐसे मामलों की सुनवाई करने वाले मजिस्ट्रेटों को कुछ मानद राशि दी जा सकती है। यह रणनीति अपनाने से जेलों में बंदियों की संख्या में अपेक्षित कमी लाना संभव होगा। जेल में ही मुकदमों का निबटारा होने से अदालतों में लंबित मुकदमों का बोझ भी कम होगा। जेल अदालतों में मुकदमों के निबटारे से जेलों में कैदियों की संख्या घटने की स्थिति में इन बंदियों पर होने वाले खर्च में भी कमी लाई जा सकेगी।

अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या कम करने के प्रयासों के अंतर्गत ही देश में  करीब 20 साल पहले लोक अदालतों की स्थापना हुई। इसके बाद देश के कुछ राज्यों में प्रातः कालीन और सांध्य अदालतों की स्थापना के साथ ही पालियों में अदालतों का काम करने का अभिनव प्रयोग किया गया जो काफी सफल रहा। यही नहीं, इस दौरान आपराधिक मामलों का निबटारा तेजी से करने के इरादे से केन्द्रीय सहायता के साथ विभिन्न राज्यों में त्वरित अदालतों की भी स्थापना हुई थी। इन अदालतों ने बड़ी संख्या में आपराधिक मामलों का निबटारा भी किया।

      सरकार ने गांवों में जमीन विवाद और खेत-खलिहान तथा घरों की चैहद्दी को लेकर होने वाले मुकदमों का गांव में ही निबटारा कराने के लिए ग्रामीण अदालतों गठन किया। ग्राम न्यायालयों की स्थापना का उद्देश्य था कि किसानों को अपने विवादों के निबटारे के लिए बाहर या कस्बे की अदालत तक न जाना पड़े।

      जेलों में विचाराधीन कैदियों की संख्या कम करने के इरादे से जनवरी, 2010 में तत्कालीन विधि एवं न्याय मंत्री श्री वीरप्पा मोइली ने मिशन अंडरट्रायल शुरू किया था। इस अभियान के तहत दो लाख से भी अधिक विचाराधीन कैदियों की रिहाई हो चुकी है। इनमें से अधिकांश कैदी छोटे-मोटे अपराधों के आरोप में सालों से जेल में बंद थे और अधिकतम सजा से भी ज्यादा समय जेल में गुजार चुके थे। जेल में ऐसे कैदी भी थे जो जमानत मिलने के बाद जमानती की व्यवस्था नहीं कर पाने के कारण रिहा नहीं हो सके थे।

      इसी तरह नागरिकों, विशेषकर ग्रामीणों को उनके द्वार पर ही त्वरित एवं सुलभ न्याय उपलब्ध कराने के उद्देश्य से ग्राम न्यायालयों की स्थापना के लिए बने ग्राम न्यायालय अधिनियम, 2008 को दो अक्तूबर, 2009 से लागू करने की अधिसूचना जारी हुई। इस योजना के अंतर्गत 31 जनवरी, 2012 की स्थिति के अनुसार मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, ओडीशा और कर्नाटक में 151 ग्राम न्यायालयों ने काम करना भी शुरू कर दिया है। सरकार ने इन ग्राम न्यायालयों के बारे में आवर्ती व्यय को पूरा करने के लिए केन्द्रीय सहायता के रूप में राज्यों को 25.29 करोड़ रुपए की राशि प्रदान की थी। वर्ष 2011-12 के लिए इस मद में 150 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया। सरकार ग्राम न्यायालयों के कामकाज की समीक्षा के लिए अब एक अध्ययन करायेगी ताकि 12वीं योजना के दौरान इसके कार्यान्वयन को अधिक कारगर बनाया जा सके।

      अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या कम करने की दिशा में 20 साल से लोक अदालतें भी अहम भूमिका निभा रही हैं। एक अप्रैल 2011 से 30 सितंबर, 2011 की अवधि में देश में 53,508 लोक अदालतों का आयोजन किया गया जिनमें 13 लाख 75 हजार से अधिक मामलों का निबटारा किया गया। यही नहीं, राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण ने भी जेलों में बंद 26 हजार से अधिक विचाराधीन कैदियों को कानूनी सहायता मुहैया कराने के साथ ही उनके खिलाफ लंबित आपराधिक मामलों के निबटारे के लिए जेलों में लोक अदालतें लगाई जिनमें 15 हजार सात सौ से अधिक मामलों का निबटारा किया गया।

      न्यायाधीशों और न्यायिक अधिकारियों के पद बड़ी संख्या में रिक्त होना भी अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या में निरंतर वृद्धि का एक कारण है। उच्च न्यायालय और अधीनस्थ अदालतों में न्यायाधीशों तथा न्यायिक अधिकारियों के रिक्त पदों को भरने और नए पदों के सृजन की प्रक्रिया को भी गति प्रदान की गई है।

      अधीनस्थ तथा उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के रिक्त स्थानों को भरने के लिए जुलाई-सितंबर, 2011 से विशेष अभियान शुरू किया गया। इस अभियान की प्रगति के बाद इसे जनवरी 2012 से छह महीने के लिए बढा दिया गया है। एक अनुमान के अनुसार अधीनस्थ अदालतों में न्यायाधीशों और न्यायिक अधिकारियों के तीन हजार से अधिक पद रिक्त हैं।

      न्यायपालिका में बुनियादी सुविधाओं के विकास के लिए केन्द्र सरकार की सहायता से एक योजना चल रही है जिसके अंतर्गत अदालतों की इमारतों के साथ ही न्यायाधीशों और न्यायिक अधिकारियों के लिए मकानों का निर्माण हो रहा है। इस योजना पर अमल के लिए केन्द्र सरकार और राज्यों को 75:25 के अनुपात में खर्च वहन करना है। इस योजना के अंतर्गत 31 मार्च 2012 तक 1,841 करोड़ रुपए खर्च किये गए हैं।

      अधीनस्थ अदालतों में लंबे समय से लंबित मुकदमों के तेजी से निबटारे के लिए सरकार ने 11वें वित्त आयोग की सिफारिश पर केन्द्रीय सहायता के साथ राज्यों में त्वरित अदालतें गठित कीं। इस योजना के तहत 1,734 त्वरित अदालतें गठित की गई थीं। गत वर्ष 31 मार्च 2011 तक देश में 1,192 त्वरित अदालतें काम कर रही थीं। सन 2000 में शुरू हुए इस अभिनव प्रयोग के अंतर्गत 11 सालों में त्वरित अदालतों ने करीब 33 लाख मुकदमों का निबटारा किया।

      अब 13वें वित्त आयोग ने 2010-15 की अवधि में राज्‍यों में न्यायिक सुधार के विभिन्न कार्यक्रमों के लिए पांच हजार करोड़ रुपए के अनुदान की सिफारिश की। केन्द्रीय सहायता से इस अवधि के दौरान राज्यों को कई महत्वपूर्ण कदम उठाने हैं। इनमें राज्यों में अदालतों में उपलब्ध सुविधाओं के साथ ही अदालत के काम के घंटे बढ़ाने और पालियों में अदालतों की बैठक आयोजित करना, नियमित अदालतों का काम का बोझ कम करने के लिए लोक अदालतों को अधिक सक्रिय करना, विवादों के समाधान के लिए वैकल्पिक विवाद निबटान तंत्र को बढ़ावा देना और प्रशिक्षण के माध्यम से न्यायिक अधिकारियों और लोक अभियोजकों की कार्य क्षमता में वृद्धि करना जैसे उपाय शामिल हैं।

इस दिशा में काफी तेजी से काम हो रहा है और उम्मीद की जाती है कि न्यायिक सुधारों के इन प्रयासों से जहां एक ओर अदालतों में काम का बोझ कम होगा वहीं दूसरी ओर नागरिकों को तेजी से न्याय सुलभ हो सकेगा।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)




-फ़िरदौस ख़ान
झूठ की बुनियाद पर बनाए गए रिश्तों की उम्र बस उस वक़्त तक ही होती है, जब तक झूठ पर पर्दा पड़ा रहता है. जैसे ही सच सामने आता है, वो रिश्ता भी दम तोड़ देता है. अगर किसी इंसान को कोई अच्छा लगता है और वो उससे उम्रभर का रिश्ता रखना चाहता है तो उसे सामने वाले व्यक्ति से झूठ नहीं बोलना चाहिए. जिस दिन उसका झूठ सामने आ जाएगा. उस वक़्त उसका रिश्ता तो टूट ही जाएगा, साथ ही वह हमेशा के लिए नज़रों से भी गिर जाएगा. कहते हैं- इंसान पहाड़ से गिरकर तो उठ सकता है, लेकिन नज़रों से गिरकर कभी नहीं उठ सकता. ऐसा भी देखने में आया है कि कुछ अपराधी प्रवृति के लोग ख़ुद को अति सभ्य व्यक्ति बताते हुए महिलाओं से दोस्ती गांठते हैं, फिर प्यार के दावे करते हैं. बाद में पता चलता है कि वो शादीशुदा हैं और कई बच्चों के बाप हैं. दरअसल, ऐसे बाप टाईप लोग हीन भावना का शिकार होते हैं. अपराधी प्रवृति के कारण उनकी न घर में इज्ज़त होती है और न ही बाहर. उनकी हालत धोबी के कुत्ते जैसी होकर रह जाती है यानी धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का. ऐसे में वे सोशल नेटवर्किंग साइट पर अपना अच्छा सा प्रोफाइल बनाकर ख़ुद को महान साबित करने की कोशिश करते हैं. वह ख़ुद को अति बुद्धिमान, अमीर और न जाने क्या-क्या बताते हैं, जबकि हक़ीक़त में उनकी कोई औक़ात नहीं होती. ऐसे लोगों की सबसे बड़ी 'उपलब्धि' यही होती है कि ये अपने मित्रों की सूची में ज़्यादा से ज़्यादा महिलाओं को शामिल करते हैं. कोई महिला अपने स्टेट्स में  कुछ भी लिख दे, फ़ौरन उसे 'लाइक' करेंगे, कमेंट्स करेंगे और उसे चने के झाड़ पर चढ़ा देंगे. ऐसे लोग समय-समय पर महिलाएं बदलते रहते हैं, यानी आज इसकी प्रशंसा की जा रही है, तो कल किसी और की. लेकिन कहते हैं न कि काठ की हांडी बार-बर नहीं चढ़ती. 

वक़्त दर वक़्त ऐसे मामले सामने आते रहते हैं. ब्रिटेन में हुए एक सर्वेक्षण में कहा गया है कि ऑनलाइन रोमांस के चक्कर में तक़रीबन दो लाख लोग धोखा खा चुके हैं. धोखा देने वाले लोग अपनी असली पहचान छुपाकर रखते थे और आकर्षक मॉडल और सेना अधिकारी की तस्वीर अपनी प्रोफाइल पर लगाकर लोगों को आकर्षित किया करते थे. ऐसे में सोशल नेटवर्किंग साइटों का इस्तेमाल करने वाले लोगों का उनके प्रति जुड़ाव रखना स्वाभाविक ही था, लेकिन जब उन्होंने झूठे प्रोफाइल वाले लोगों से मिलने की कोशिश की तो उन्हें सारी असलियत पता चल गई. कई लोग अपनी तस्वीर तो असली लगाते हैं, लेकिन बाक़ी जानकारी झूठी देते हैं. झूठी प्रोफाइल बनाने वाले या अपनी प्रोफाइल में झूठी जानकारी देने वाले लोग महिलाओं को फांसकर उनसे विवाह तक कर लेते हैं. सच सामने आने पर उससे जुड़ी महिलाओं की ज़िन्दगी बर्बाद होती है. एक तरफ़ तो उसकी अपनी पत्नी की और दूसरी उस महिला की जिससे उसने दूसरी शादी की है.

बीते माह मार्च में एक ख़बर आई थी कि अमेरिका में एक महिला ने सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक पर अपने पति की दूसरी पत्नी को खोज निकाला. फेसबुक पर बैठी इस महिला ने साइड में आने वाले पॉपअप ‘पीपुल यू मे नो’ में एक महिला को दोस्त बनाया. उसकी फेसबुक पर गई तो देखा कि उसके पति की वेडिंग केक काटते हुए फोटो थी. समझ में नहीं आया कि उसका पति किसी और के घर में वेडिंग केक क्यों काट रहा है? उसने अपने पति की मां को बुलाया, पति को बुलाया. दोनों से पूछा, माजरा क्या है? पति ने पहली पत्नी को समझाया कि ज़्यादा शोर न मचाये, हम इस मामले को सुलझा लेंगे. मगर इतने बड़े धोखे से आहत महिला ने घर वालों को इसकी जानकारी दी. उसने अधिकारियों से इस मामले की शिकायत की. अदालत में पेश दस्तावेज़ के मुताबिक़  दोनों अभी भी पति-पत्नी हैं. उन्होंने तलाक़ के लिए भी आवेदन नहीं किया. अब दोषी पाए जाने पर पति को एक साल की जेल हो सकती है. पियर्स काउंटी के एक अधिकारी के मुताबिक़, एलन ओनील नाम के इस व्यक्ति ने 2001 में एलन फल्क के अपने पुराने नाम से शादी की. फिर 2009 में पति ओनील ने नाम बदलकर एलन करवा लिया था और किसी दूसरी महिला से शादी कर ली थी. उसने  पहली पत्नी को तलाक़ नहीं दिया था.

दरअसल, सोशल नेटवर्किंग साइट्स के कारण रिश्ते तेज़ी से टूट रहे हैं. अमेरिकन एकेडमी ऑफ मैट्रीमोनियल लॉयर्स के एक सर्वे में भी यह बात सामने आई है. सर्वे के मुताबिक़ तलाक़ दिलाने वाले क़रीब 80 फ़ीसदी वकीलों ने माना कि उन्होंने तलाक़ के लिए सोशल नेटवर्किंग पर की गई बेवफ़ाई वाली टिप्पणियों को अदालत में एक साक्ष्य के रूप में पेश किया है. तलाक़ के सबसे ज़्यादा मामले फेसबुक से जुड़े हैं. 66 फ़ीसदी मामले फेसबुक से, 15 फ़ीसदी माईस्पेस से, ट्विटर से पांच फ़ीसदी और बाक़ी दूसरी सोशल नेटवर्किंग साइट्स से 14 फ़ीसदी मामले जुड़े हैं. इन डिजिटल फुटप्रिंट्स को अदालत में तलाक़ के एविडेंस के रूप में पेश किया गया. पिछले दिनों अभिनेत्री इवा लांगोरिया ने बास्केट बाल  खिलाड़ी अपने पति टोनी पार्कर का तलाक़ दे दिया. इवा का आरोप है कि फेसबुक पर उसके पति टोनी और एक महिला की नज़दीकी ज़ाहिर हो रही थी. ब्रिटेन में भी सोशल नेटवर्किंग साइट्स की वजह से तलाक़ के मामले तेज़ी से बढ़े हैं. अपने साथी को धोखा देकर ऑनलाइन बात करते हुए पकड़े जाने के कारण तलाक़ के मामलों में इज़ाफ़ा हुआ है. ब्रिटिश न्यूज पेपर 'द सन' के मुताबिक़, पिछले एक साल में फेसबुक पर की गईं आपत्तिजनक टिप्पणियां तलाक़ की सबसे बड़ी वजह बनीं. रिश्ते ख़राब होने और टूटने के बाद लोग अपने साथी के संदेश और तस्वीरों को तलाक़ की सुनवाई के दौरान इस्तेमाल कर रहे हैं.

सोशल नेटवर्किंग साइट्स के जहां कुछ फ़ायदें हैं, वहीं नुक़सान भी हैं. इसलिए सोच-समझ कर ही इनका इस्तेमाल करें. अपने आसपास के लोगों को वक़्त दें, उनके साथ रिश्ते निभाएं. सोशल नेटवर्किंग साइट्स के आभासी मित्रों से परस्पर दूरी बनाकर रखें.  कहीं ऐसा न हो कि आभासी फ़र्ज़ी दोस्तों के चक्कर में आप अपने उन दोस्तों को खो बैठें, जो आपके सच्चे हितैषी हैं.






दीपक राजदान
   भारत में 2001 की जनगणना के अनुसार विभिन्‍न प्रकार के विशेष रूप से सक्षम (विकलांग) व्‍यक्तियों की संख्‍या 2.2 करोड़ है। सरकार ने इन्‍हें समाज के साथ पूरी तरह से एकीकृत करने के लिए कानून बनाने सहित अनेक प्रकार के उपाय किए हैं। इन उपायों का असर जीवन के हर क्षेत्र में दिखाई देता है और इनके अनुसार भले ही वह अपनी सामान्‍य  ज़िम्मेदारियाँ निभाते जान पड़ें, लेकिन वह औरों से बेहतर करने की कोशिश करते हैं। सरकार लगातार जरूरी उपाय कर रही है। इनमें व्‍यापक मानव अधिकारों का समावेश शामिल है जिसे विकलांगता विधेयक कहा गया है और इस कानून का मसौदा संसद में पेश करने किए जाने के लिए विचाराधीन है।
   जिन राज्‍यों में विशेष रूप से सक्षम (विकलांगों) की संख्‍या सबसे ज्‍यादा है उनमें सबसे पहला नाम है उत्‍तर प्रदेश का, जहां 34.53 लाख लोग इस वर्ग के हैं। दूसरे और तीसरे नम्‍बर पर बिहार और पश्चिम बंगाल का नाम है जहां इस वर्ग के 18-18 लाख लोग है। तमिलनाडु में 16 लाख, महाराष्‍ट्र में 15 लाख से ज्‍यादा, मध्‍य प्रदेश और राजस्‍थान में 14-14 लाख से अधिक इस वर्ग के लोगों की संख्‍या है। 2001 की जनगणना के अनुसार इस वर्ग के 49 प्रतिशत लोग साक्षर हैं और 34 प्रतिशत लोगों को रोजगार मिला हुआ है। कुल मिलाकर 1 करोड़ से ज्‍यादा लोग दृष्टि संबंधी विकलांगता से पीड़ित हैं जबकि देश में 12.61 लाख लोग श्रवण शक्ति से और 61 लाख व्‍यक्ति हाथ-पैरों से विकलांग हैं। एनएसएसओ के 2002 के सर्वेक्षण के अनुसार विशेष रूप से सक्षम 75 प्रतिशत व्‍यक्ति ग्रामीण क्षेत्रों  में रहते हैं।
   इस वर्ग के लोगों की कल्‍याण योजनाओं का प्रभार सामाजिक न्‍याय और सशक्तीकरण मंत्रालय के पास है। वही इन योजनाओं की जिम्‍मेदारी संभालते हैं। सरकार ऐसी योजना बना रही है कि इन सभी योजनाओं को एक केंद्र प्रायोजित राष्‍ट्रीय कार्यक्रम के अंतर्गत लाया जा सके ताकि इन स्‍कीमों का बेहतर ढंग से प्रशासन हो सके। इनके लिए अधिक धन आवंटित करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है।
   वर्ष 2011-12 में मंत्रालय के विकलांगता प्रभाग को रुपये 480 करोड़ आवंटित किए गए। इस प्रभाग द्वारा चलाई गई स्‍कीमों में शारीरिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक पुनर्वास तथा लाभार्थियों का विकास और उनका रहन-सहन बेहतर बनाना शामिल है। हालांकि 12वीं योजना अभी तैयार नहीं है, योजना आयोग ने योजना के पहले वर्ष (2012-13) के लिए कुछ धनराशि आवंटित की है। इसमें 33 करोड़ रूपये मैट्रिक बाद के छात्रों को छात्रवृत्ति देने के लिए और 12  करोड़ रूपये विकलांगों को एमफि‍ ल और पीएचडी पाठ्यक्रम पूरा करने के लिए राजीव गांधी राष्‍ट्रीय फेलोशिप योजना के तहत छात्रवृत्ति देने के लिए रखे गए हैं।
   सरकार ने वर्ष 2006 में विकलांग व्‍यक्तियों के लिए राष्‍ट्रीय नीति घोषित की थी। इसमें ऐसे व्यक्तियों केा देश के लिए बहुमूल्‍य मानव संसाधन स्रोत के रूप में मान्‍यता दी गई जो अगर ठीक से प्रशिक्षित किए जा सकें, तो बेहतर जीवन बिता सकते हैं। इसके लिए मंत्रालय में है। विकलांगों के लिए मुख्‍य आयुक्‍त की नियुक्ति की गई है जो नियमों के और आदेशों के उल्लंघन की शिकायतें सुनते हैं। विकलांगता के क्षेत्र में काम करने के लिए 7 राष्‍ट्रीय स्‍तर के संस्‍थान खोले गए। ये संस्‍थान विकलांगता के विभिन्‍न क्षेत्रों के लिए काम करते है और अपने-अपने क्षेत्रों में अनुसंधान और विकास का काम संभालते हैं। पिछले वित्‍त वर्ष के दौरान इन्‍हें 34 करोड़ रूपये की वित्‍तीय सहायता दी गई जबकि बजट परिव्‍यय पूरे वर्ष के लिए 60 करोड़ रूपये रखा गया था।
   दीनदयाल विकलांग पुनर्वास स्‍कीम के अंतर्गत स्‍वयं सेवी संगठन श्रवण और नेत्रबाधित विकलांगों के लिए विशेष विद्यालय चला रहे है। वर्ष के दौरान 2.50 लाख व्‍यक्तियों को लाभ पहुंचाने का लक्ष्‍य था। जिला स्‍तर पर इस काम के लिए मूल सुविधाएं जुटाने के उद्देश्‍य से केंद्र सरकार नौंवी योजना से भी राज्‍यों को जिला विकलांगाता पुनर्वास केंद्र खोलने को प्रोत्‍साहित करती रही है। पिछले 2 वर्षों में 100 ऐसे केंद्र खोले जाने का प्रस्‍ताव था। इस समय देशभर में 215 जिला विकलांग पुनर्वास केंद्र चल रहे हैं। 2009-10 में सरकार ने दूसरे चरण में समावेशी विकलांग शिक्षा की शुरूआत की। ऐसे बच्‍चों को प्राथमिक स्‍तर पर सर्वशिक्षा अभियान के अंतर्गत समावेशी शिक्षा दी जाती है लेकिन इस स्‍कीम में कक्षा 9 से 12 तक सरकारी, स्‍थानीय निकायों और सरकार से सहायता पाने वाले विद्यालयों में समावेशी शिक्षा के लिए 100 प्रतिशत केंद्रीय सहायता दी जाती है।
   विकलांग कल्‍याण की दिशा में एक बड़ा कदम उठाते हुए सरकार ने विकलांग मामलों का एक अलग विभाग सृजित करने का सिद्धांत रूप में फैसला किया है। संसद को सूचना देते हुए सामाजिक न्‍याय और सशक्तीकरण मंत्री श्री मुकुल वासनिक ने कहा कि यह विभाग मंत्रालय के अंतर्गत काम करेगा और इसके लिए नियमों को संशोधित करने की प्रक्रिया चल रही है। विकलांग व्‍यक्तियों को विमान यात्रा की सुविधा देने के लिए सरकार ने एक समिति गठित की है। यह कहने की जरूरत नहीं कि विशेष रूप से सक्षम इन व्‍यक्तियों को रेलवे स्‍टेशनों और बस टर्मिनलों पर कुछ खास सुविधाओं की जरूरत पड़ती है। रेलवे बोर्ड ने इन व्‍यक्तियों के लिए एक अलग योजना तैयार की है जिसके अंतर्गत विशेष रूप से सक्षम ऐसे व्‍यक्ति रियायती दरों पर ऑनलाइन टिकट बुक करा सकेंगे। उन्‍हें खास प्रकार का एक नंबर देकर पहचान पत्र जारी करने का भी प्रस्‍ताव है जिससे उन्‍हें  कम्‍पयूटर के जरिए रेल रिज़र्वेशन में सुविधा होगी। दिन-प्रतिदिन का जीवन आसान बनाने के लिए सामाजिक न्‍याय मंत्रालय इन व्‍यक्तियों के उपयुक्‍त  टेक्‍नॉलोजी के विकास को प्रोत्‍साहन दे रहा है। इसके लिए मंत्रालय ने अपनी खुद की वेब्‍ साइट तैयार की है जो सभी के लिए खुली होगी। इस वर्ष जनवरी में देहरादून में एक ऑनलाइन ब्रेल लाइब्रेरी खोली गई है। इसमें उपलब्‍ध पुस्‍तकें देश में कहीं भी पढ़ी जा सकेंगी।
   विशेष रूप से सक्षम इन व्‍यक्तियों की रोजगार पाने में सहायता देने के उद्देश्‍य से 1995 में बनाये गये अधिनियम की धारा 33 में प्रावधान किया गया है कि सरकारी नौकरियों में ऐसे व्‍यक्तियों को 3 प्रतिशत आरक्षण मिलेगा। इसमें से एक प्रतिशत उन लोगों के लिए होगा जो दृष्टि/श्रवणबाधित विकलांग हैं अथवा हाथ-पैर से विकल हैं। इन लोगों का चुनाव करके रिक्तियों को भरने का एक विशेष भर्ती अभियान चलाया गया है। 69 मंत्रालयों और विभागों से मिली सूचनाओं के अनुसार केंद्र सरकार के अंतर्गत 1 जनवरी, 2008 को ऐसी 11,134 रिक्तियां थी।
   विकलांग जनसंख्‍या के प्रति लोगों में जागरूकता बढ़ने के बावजूद वर्ष 2012-13 में सामाजिक न्‍याय और सशक्तीकरण मंत्रालय के लिए रूपये 5,915 का योजना परिव्‍यय रखा गया जो भारत सरकार के सारे मंत्रालयों और विभागों के  बजट के मात्र 1.512 प्रतिशत के बराबर है। मंत्रालय की विभिन्‍न ज़िम्मेदारियों को देखते हुए योजना आयोग ने 12वीं योजना के दौरान ऐसे व्यक्तियों के कल्‍याण के लिए 1 लाख करोड़ के परिव्‍यय की सिफारिश की है।  इसमें से रुपये 24,000  करोड़ सामाजिक न्‍याय और सशक्तीकरण मंत्रालय के जरिए खर्च किया जाएगा और बाकी राशि अन्‍य मंत्रालयों द्वारा इस्‍तेमाल की जायेगी।
   मई 2008 से लागू विकलांगों के लिए संयुक्‍त राष्‍ट्र द्वारा किए गए प्रावधानों के अंतर्गत इन व्‍यक्तियों को समानता का अधिकार दिया गया है और इनके साथ किसी प्रकार का भेदभाव करना मना है। इसके लिए एक कानून का मसौदा तैयार किया गया है जिसमें विकलांगों को पक्षपात रहित समानता की गारंटी मिलेगी। भारत के संविधान में सभी नागरिकों को समानता का अधिकार प्राप्‍त है भले ही इनमें विकलांगों की अलग से चर्चा न की गई हो। संविधान में जिस अधिकार की गारंटी दी गई है उसे ऐसे व्‍यक्तियों के लिए आत्‍मार्पित किए जाने की जरूरत है।
(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार है)


फ़िरदौस ख़ान
शिशिर श्रीवास्तव की पुस्तक-आपके भीतर छिपी सफलता पाने की आठ शक्तियां निराशा में डूबे लोगों के लिए बेहद उपयोगी साबित हो सकती है. इसमें बताया गया कि किस तरह ज़िंदगी से मायूस व्यक्ति अपने जीवन में इंद्रधनुषी रंग भर सकता है. लेखक का कहना है कि उज्ज्वल एवं सफल भविष्य की राह आपके अपने हाथों में है. ईश्वर भी आपको मार्गदर्शन देंगे और राह दिखाएंगे, पर आधा रास्ता तय होने के बाद. किसी ने कहा है कि कोई भी लौटकर नए सिरे से आरंभ नहीं कर सकता, किंतु कोई भी अबसे आरंभ करते हुए एक नया अंत रच सकता है. बक़ौल हज़रत इनायत खान, आत्मा को उज्ज्वल कर देने वाले शब्द रत्नों से भी अधिक मूल्यवान होते हैं. किताब का एक अध्याय है प्रेम की शक्ति. प्रेम एक कर देने वाली वह शक्ति है, जो ब्रह्मांड में हमें हमारा सच्चा उद्देश्य पाने में सहायक होती है. यह भाव उष्मा, आदान-प्रदान, आनंद, करुणा, आभार, निकटता, सेवाभाव और क्षमा से संबंध रखता है. अल्बर्ट आइंस्टाइन के मुताबिक़, एक मनुष्य उसी संपूर्ण का अंश है, जिसे हम ब्रह्मांड कहते हैं. वह अंश जो समय और काल से सीमित है. वह स्वयं का, अपने विचारों का और भावनाओं का सबसे अलग अनुभव करता है. चेतना का दृष्टिभ्रम एक क़ैद है, जो हमें हमारी निजी इच्छाओं और निकटतम जन के स्नेह तक ही बांध देता है. हमें सभी जीवों और प्रकृति के प्रति करुणा का भाव विस्तृत करते हुए इस दायरे को बढ़ाना चाहिए.

प्रेम शब्द का प्रयोग प्राय: दो प्रेमियों के बीच सशक्त स्नेह भाव को प्रकट करने के लिए किया जाता है. वहीं दूसरी ओर शर्त या समझौता रहित प्रेम परिवार के सदस्यों, मित्रों, पड़ोसियों और अन्य वचनबद्ध संबंधों के लिए होता है. जब आप किसी व्यक्ति से उसके कार्यों या मान्यता से परे जाकर प्रेम करते हैं तो वह अन्कंडीशनल लव कहलाता है. सच्चा प्यार सबके लिए होता है, जैसे सूर्य की किरणें, जो उष्मा देती हैं. गुलाब की पंखुड़ियां जीवन में रंग और आनंद लाती हैं, पर्वत का झरना मुक्त रूप से प्रवाहित होता है और सभी जीवों के लिए समान रूप से उपलब्ध होता है. लोग इसी प्रेम के अभाव में क्रोध, उलझन और व्यग्रता के शिकार होते हैं. जिस तरह शरीर को भोजन और पानी चाहिए, उसी तरह हमारे मन को भावनात्मक रूप से स्नेह चाहिए. जहां भी इसका अभाव होता है, लोग असामान्य रूप से व्यवहार करते हैं तथा दूसरों के ध्यानाकर्षण के लिए हिंसक और आक्रामक साधनों का सहारा लेते हैं.

प्रेम वही है, जो बिना किसी अपेक्षा के किया जाए. यहां बदले में कोई अपेक्षा नहीं होती है. जब हम सच्चे हृदय से सबको स्नेह देने लगते हैं तो ब्रह्मांड से हमारा कोई तार जुड़ जाता है और हमारे भीतर से सूर्य की तरह प्रेम की उज्ज्वल और सकारात्मक ऊर्जा प्रवाहित होने लगती है. सूर्य की तरह प्रेम की शक्ति का प्रभाव स्वयं पर भी पड़ता है. हम सच्चा स्नेह देते हैं तो बदले में स्वयं भी वही पाते हैं. जब आप धरती के सभी जीवों को एक समान भाव से स्नेह देते हैं तो सबके साथ जुड़ाव का एक गहरा नाता विकसित होता है. हम परस्पर और प्रत्येक से एक सशक्त संबंध रखते हैं. इस प्रकार प्रेम की शक्ति हमें सदा उपलब्ध रहती है. आप बक़ौल सर विंस्टन चर्चिल, हमें जो मिलता है, उससे अपनी आजीविका चलाते हैं. हम जो देते हैं, उससे एक जीवन बनाते हैं. जब आप स्वयं को क्रोध, ईर्ष्या और वासना आदि नकारात्मक भावों से मुक्त कर देते हैं तो आपके हृदय के भीतर सच्चे प्रेम के अंकुर विकसित होते हैं. जब आप इन भावों को मिटा देते हैं तो आपके भीतर ब्रह्मांड के सकारात्मक प्रवाह को समा लेने का स्थान बन जाता है. यह अच्छे कर्मों और क्षमादान के अभ्यास से ही संभव है. प्रेम की शक्ति अपने साथ सत्यता, सौंदर्य, ऊर्जा, ज्ञान, स्वतंत्रता, अच्छाई और प्रसन्नता का वरदान लाती है. जब चारों ओर प्रेम होता है तो नकारात्मक प्रभाव भी क्षीण हो जाते हैं. प्रेम की सकारात्मक तरंगें नकारात्मकता को मिटा देती हैं. जब आप तुलना छोड़कर स्वयं को सृजन चक्र से जोड़ देते हैं तो आपके हृदय में बसी प्रेम की शक्ति में निखार आता है. मदर टेरेसा ने कहा था, हम इसी उद्देश्य के लिए जन्मे हैं, प्रेम करने और पाने के लिए.

प्रेम रचनात्मक विचारों के प्रति केंद्रित होने में सहायक होता है, हमें अपने लक्ष्यों पर भरोसा बनाए रखने में सहायक होता है, हमारी कल्पना एवं आंतरिक शक्ति में वृद्धि करता है. यह एक रचनात्मक और निरंतर बनी रहने वाली ऊर्जा है और आकाश के तारों की तरह अनंत है. प्रेम में चुंबकीय और चमत्कारी शक्तियां हैं और ये पदार्थ और ऊर्जा से परे हैं. एक बेहद रोचक कहानी है. एक निर्धन लड़का अपनी शिक्षा का खर्च चलाने के लिए घर-घर जाकर वस्त्र बेचता था. एक दिन उसे एहसास हुआ कि उसकी जेब में केवल दस सेंट बचे हैं. वह भूखा था, उसने तय किया कि वह अगले घर से थोड़ा भोजन मांगेगा. जब उसने एक ़खूबसूरत युवती को घर का दरवाज़ा खोलते देखा तो उसकी भूख मर गई. वह भोजन की बजाय एक गिलास पानी मांग बैठा. युवती ने उसे पानी की बजाय दूध ला दिया. लड़के ने दूध पीने के बाद पूछा, इसके लिए कितना देना होगा? जवाब मिला, तुम्हें कुछ नहीं देना होगा, मेरी मां ने सिखाया है कि किसी की भलाई करने के बाद उससे अपेक्षा नहीं करनी चाहिए. लड़का बोला, मैं आपको दिल से धन्यवाद देता हूं. कई वर्षों बाद वह महिला बीमार हो गई. स्थानीय डॉक्टरों ने उसे शहर के बड़े अस्पताल में भेज दिया, ताकि वहां के विशेषज्ञ उसकी खोई सेहत लौटा सकें. वहां डॉ. हावर्ड कैली कंसल्टेट थे. जब उन्होंने महिला के शहर का नाम सुना तो स्वयं वहां पहुंच गए. उन्होंने झट से उस दयालु महिला को पहचान लिया और उसकी प्राण रक्षा का संकल्प लिया. वह पहले दिन से ही उस मामले पर विशेष ध्यान देने लगे और वह महिला स्वस्थ हो गई. उन्होंने निर्देश दे रखे थे कि महिला का बिल उन्हें ही दिया जाए. उन्होंने बिल देखा और उसके कोने पर कुछ लिखकर महिला के कमरे में भेज दिया. महिला को लगा कि उसे आजीवन वह भारी बिल अदा करना होगा, पर बिल के कोने में लिखा था, एक गिलास दूध के बदले में दिया गया: डॉ. हावर्ड कैली.

दरअसल, प्रेम आपके भीतर विनय भाव पैदा करता है. क्षमा करना आत्मा का सौंदर्य है, जिसे प्राय: नकार दिया जाता है. हो सकता है कि कई बार दूसरे आपके कष्ट का कारण बनें. आप स्वयं को आहत और क्रोधित पाएंगे. ऐसे में आपको इसे भूलना सीखना होगा. किसी को क्षमा करते ही आपके मन को भी चैन आ जाएगा. आप भी अतीत के घावों से मुक्त होंगे और समय सारे कष्ट सोख लेगा. यहां आपका मा़फ करने और भुला देने का निर्णय अधिक महत्व रखता है. बक़ौल मैक्स लुकाडो, क्षमा देने का अर्थ है, किसी को मुक्त करने के लिए द्वार खोलना और स्वयं को एक मनुष्य के रूप में एहसास दिलाना.जब आप स्वयं तथा दूसरों से सच्चा प्रेम करते हैं तो पाएंगे कि पूरा संसार आपसे प्रेम करने लगा है. लोग धीरे-धीरे आपको चाहने लगेंगे. यदि लोग परस्पर ईमानदारी और प्रेम से बात करें तो सभी संघर्षों का समाधान हो सकता है. जब आप प्रत्येक समस्या का सामना प्रेम से करेंगे तो आपका कोई शत्रु नहीं होगा. लोग आपको एक नई नज़र से देखेंगे, क्योंकि उनके विचार अलग होंगे और वे आपके बारे में पहले से एक प्रभाव बना चुके होंगे. बक़ौल गोथे फॉस्ट, एक मनुष्य संसार में वही देखता है, जो उसके हृदय में होता है. एक सदी पहले तक लोग बिना किसी पासपोर्ट या वीजा, बिना किसी पाबंदी के पूरी दुनिया में कहीं भी जा सकते थे. राष्ट्रीय सीमाओं का पता तक नहीं था. दो विश्व युद्धों के बाद कई राष्ट्र स्वयं को असुरक्षित महसूस करने लगे, पहचान का संकट उभरा और कई संकीर्ण राष्ट्रवादी भावनाएं सामने आ गईं. ये भावनाएं इतनी मज़बूत थीं कि बच्चों को अपने ही देश की सभ्यता और परंपरा पर गर्व करना सिखाया जाने लगा और देशभक्ति का विचार पनपा. इसने पूरी दुनिया के धनी और निर्धनों की खाई को गहरा कर दिया. बक़ौल मोकीची ओकादा, यदि आप संसार से प्रेम करेंगे और लोगों की सहायता करेंगे तो आप जहां भी जाएंगे, ईश्वर आपकी सहायता करेंगे. किताब बताती है कि इंसान के अंदर ही वह शक्ति छिपी हुई है, जिसे पहचान कर वह अपने जीवन में बेहतरीन बदलाव ला सकता है.


फ़िरदौस ख़ान
जब घर का चश्मो-चिराग कहीं खो जाता है, तो उसकी याद में किस तरह दिल तड़पता है और आंखें गंगा-जमुना की धारा बन जाती हैं, इसके तसव्वुर से ही रूह कांप उठती है। अगर जाने वाले को इसका अहसास हो तो कभी वह ख्वाब में भी अपने घर-परिवार को छोड़कर जाने की बात नहीं सोचेगा। उत्तर प्रदेश के  मुज़फ्फ़रनगर जिले के कस्बे बुढाना के 10 साल के मोहम्मद हसन की गुमशुदगी को चार साल होने वाले हैं। उसकी मां आयशा का रो-रोकर बुरा हाल है। उन्होंने अपने लाल को हर जगह तलाशा, मगर वो कहीं न मिला। सुबह सूरज की पहली किरण से ही पूरा घर अपने लाडले के इंतज़ार में पलकें बिछा लेता है, उम्मीद की एक लौ कायम रहती है कि कभी कोई तो आएगा, उनके बेटे की खबर लेकर, लेकिन जब रात ढलती है और हसन की कोई ख़बर नहीं आती तो दिल बुझने लगता है।

मोहम्मद हसन के पिता मोहम्मद फुरकान का कहना है कि उन्हें क्या पता था कि उनका बेटा उनसे बिछड़ जाएगा। वे तो बस इतना चाहते थे कि मदरसे से आने के बाद हसन यहां-वहां खेलकर वक्त बर्बाद करने के बजाय उनके काम में हाथ बंटाए, ताकि उसे काम करने की आदत पड़ जाए। वे कहते हैं कि हम तो खेती करने वाले लोग हैं। सुबह पौ फटने से लेकर देर रात तक खेतों में खून-पसीना बहाना पड़ता है तब कहीं जाकर घर-परिवार के गुजारे लायक आमदनी जुटा पाते हैं। हम बचपन से ही बच्चों को काम की आदत डालते हैं, ताकि बड़े होकर वे मेहनत-मजदूरी कर सकें। बस, खेत में काम करने की बात को लेकर ही बेटे पर उनका हाथ उठ गया और वह कहीं चला गया। अपनी इस गलती के लिए वे आज तक पछता रहे हैं। काश, उन्होंने अपने बेटे को मारने के बजाय प्यार से समझाया होता तो आज वह हमारे साथ ही होता। उन्होंने अपने बेटे को आसपास ही नहीं दूर-दराज तक के इलाकों में ढूंढा, मगर वह कहीं नहीं मिला। उन्होंने अपने सब रिश्तेदारों के यहां जाकर भी बेटे को तलाश किया।

बच्चे का मामू जान कारी मोहम्मद आरिफ साहब का कहना है कि मोहम्मद हसन अपने पिता मोहम्मद फुरकान से बहुत डरता था। उसके पिता उससे खेत में काम करने को कहते थे। इसी बात को लेकर कई बार वे अपने बेटे को पीट भी चुके हैं। इससे पहले दो बार वह अपने पिता की मार खाने के बाद अपने मामा के पास बंतीखेड़ा आ गया। बाद में वो उसे समझा-बुझाकर उसके घर छोड़कर आए। वे बताते हैं कि हसन पढ़ने में बहुत होशियार है। उसे पास के ही मदीना-उल-तुलूम मदरसे में कुरआन हिफ्ज यानि मुंह जबानी याद करने के लिए दाखिल कराया गया था। छोटी-सी उम्र में ही उसने तीन पारे अध्याय हिफ्ज कर लिए थे। उसे क्रिकेट खेलने का बहुत शौक है। नम आंखों से वे कहते हैं कि हसन जहां कहीं भी होगा, क्रिकेट जरूर खेलता होगा।

कारी साहब कहते हैं कि आज भी देहात के मुसलमानों में फोटो खिंचवाने का चलन नहीं है। जब कभी दस्तावेजों के लिए जरूरत पड़ती है, तभी लोग फोटो खिंचवाते हैं। एक दिन उन्होंने यूं ही मदरसे में बच्चों के साथ अपने भांजे हसन की फोटो खिंचवा ली थी, वरना आज उसकी तलाश के लिए एक तस्वीर तक उनके पास नहीं होती।

हसन का बड़ा भाई मोहम्मद मुबारक 15 साल का है। पोलियो की वजह से एक पैर से लाचार होने के बावजूद वे भी अपने भाई की तलाश में जगह-जगह भटकता रहता है। उसका कहना है कि बस उसे एक बार उसका भाई मिल जाए, वे उसे कहीं नहीं जाने देगा। हसन का छोटा भाई अब्दुल कादिर, बहनें आरिफा और मंतशा भी अपने भाई को देखने के लिए तरस रही हैं। वे दिन-रात यही दुआ करती हैं कि बस एक बार उनका भाई घर वापस आ जाए।

ध्यानार्थ : अगर किसी को इस गुमशुदा बच्चे के बारे में कोई सूचना हो तो वो हमें इत्तला करे. यह कॉलम हमने जनहित में शुरू किया है. पाठकों का सहयोग अपेक्षित है.


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-एम. वी. एस. प्रसाद / डॉ. के. परमेश्वरन 
विश्‍व प्रेस स्‍वतंत्रता दिवस की स्‍थापना 1991 में यूनेस्‍को और संयुक्‍त राष्‍ट्र के जन सूचना विभाग ने मिलकर की थी। इससे पहले नामीबिया में विन्‍डहॉक में हुए सम्‍मेलन में इस बात पर जोर दिया गया था, कि प्रेस की आजादी को मुख्‍य रूप से बहुवाद और जनसंचार की आजादी की जरूरत के रूप में देखा जाना चाहिए। तब से हर साल 3 मई को विश्‍व प्रेस स्‍वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाता है।
संयुक्‍त राष्‍ट्र महासभा ने भी 3 मई को विश्‍व प्रेस स्‍वतंत्रता की घोषणा की थी। यूनेस्‍को महा-सम्‍मेलन के 26वें सत्र में 1993 में इससे संबंधित प्रस्‍ताव को स्‍वीकार किया गया था।
इस दिन के मनाने का उद्देश्‍य प्रेस की स्‍वतंत्रता के विभिन्‍न प्रकार के उल्‍लंघनों की गंभीरता के बारे में जानकारी देना है, जैसे प्रकाशनों की कांट-छांट, उन पर जुर्माना लगाना, प्रकाशन को निलंबित कर‍ देना और बंद कर‍देना आदि । इनके अलावा पत्रकारों, संपादकों और प्रकाशकों को परेशान किया जाता है और उन पर हमले भी किये जाते हैं। यह दिन प्रेस की आजादी को बढ़ावा देने और इसके लिए सार्थक पहल करने तथा दुनिया भर में प्रेस की आजादी की स्थिति का आकलन करने का भी दिन है।
और अधिक व्‍यावहारिक तरीके से कहा जाए, तो प्रेस की आजादी या मीडिया की आजादी, विभिन्‍न इलैक्‍ट्रोनिक माध्‍यमों और प्रकाशित सामग्री तथा फोटोग्राफ वीडियो आदि के जरिए संचार और अभिव्‍यक्ति की आजादी है। प्रेस की आजादी का मुख्‍य रूप से यही मतलब है कि शासन की तरफ से इसमें कोई दखलंदाजी न हो, लेकिन संवैधानिक तौर पर और अन्‍य कानूनी प्रावधानों के जरिए भी प्रेस की आजादी की रक्षा जरूरी है।
प्रेस की आजादी का मतलब
    मीडिया की आजादी का मतलब है कि किसी भी व्‍यक्ति को अपनी राय कायम करने और सार्वजनिक तौर पर इसे जाहिर करने का अधिकार है। इस आजादी में बिना किसी दखलंदाजी के अपनी राय कायम करने तथा किसी भी मीडिया के जरिए, चाहे वह देश की सीमाओं से बाहर का मीडिया हो, सूचना और विचार हासिल करने और सूचना  देने की आजादी शामिल है। इसका उल्‍लेख मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के अनुछेद 19 में किया गया है। सूचना संचार प्रौद्योगिकी (विषय-वस्‍तु प्रसारण आदि) तथा सोशल मीडिया के जरिए थोड़े समय के अंदर ज्‍यादा से ज्‍यादा लोगों तक सभी तरह की महत्‍वपूर्ण ख़बरें पहुंच जाती हैं। यह समझना भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि सोशल मीडिया की सक्रियता से इसका विरोध करने वालों को भी स्‍वयं को संगठित करने के लिए बढ़ावा मिला है और दुनिया भर के युवा लोग अपनी अभिव्‍यक्ति के लिए और व्‍यापक रूप से अपने समुदायों की आकांक्षाओं की अभिव्‍यक्ति के लिए संघर्ष करने लगे हैं।
     इसके साथ ही यह समझना भी जरूरी है कि मीडिया की आजादी बहुत कमजोर है। यह भी जानना जरूरी है कि अभी यह सभी की पहुंच से बाहर है। हालांकि मीडिया की सच्‍ची आजादी के लिए माहौल बन रहा है, लेकिन यह भी ठोस वास्तविकता है कि दुनिया में कई लोग ऐसे हैं, जिनकी पहुंच बुनियादी संचार प्रौद्योगिकी तक नहीं है। जैसे-जैसे ऑनलाइन पर ख़बरों और रिपोर्टिंग का सिलसिला बढ़ रहा है, ब्‍लॉग लेखकों सहित और ज्‍यादा ऑनलाइन पत्रकारों को परेशान किया जा रहा है और हमले किये जा रहे हैं। यूनेस्‍को ने यहां तक कि एक वेबपेज  - यूनेस्‍को रिमेम्‍बर्स एसेसिनेटड जर्नलिस्‍ट्स, इसके लिए शुरू किया है।
     राज्‍यों और सरकारों की भी यह जिम्‍मेदारी है कि वे यह सुनिश्चित करें कि अभिव्‍यक्ति की आजादी के राष्‍ट्रीय कानून अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर पर मान्‍य सिद्धांतों के अनुरूप हों, जिनका उल्‍लेख विन्‍डहॉक घोषणा और यूनेस्‍को के मीडिया विकास सूचकों में किया गया है। दोनों दस्‍तावेजों को स्‍वीकृति दी जा चुकी है।
प्रेस आजादी में दो कारणों से रुकावटें आ रही हैं। एक कारण है, कोई सं‍गठित सूचना प्रणाली न होना और दूसरा कारण है, सूचना तक पहुंचने, समझने और उसका मूल्‍यांकन करने के लिए बुनियादी कौशल और साक्षरता में कमी। समाज के कई वर्गों को न केवल सार्वजनिक तौर पर अपनी बात कहने का अवसर नहीं मिलता, बल्कि वे सूचना प्राप्‍त करने के साधनों से भी वंचित हैं, जो उन्‍हें शिक्षित कर सकते हैं और सशक्‍त बना सकते हैं। एक ओर तो विश्‍वव्‍यापी वेबसाइटों का प्रसारण बढ़ रहा है और सूचना प्राप्‍त करने में आसानी होती जा रही है और दूसरी ओर सूचना के साधनों तक पहुंच में दूरी बनी हुई है, जो एक विरोधाभास जैसा लगता है।
अंतर्राष्‍ट्रीय दूरसंचार संघ (आईटीयू) के अनुसार दुनिया भर में 60 प्रतिशत से अधिक घरों में अभी भी कम्‍प्‍यूटर नहीं है और दुनिया की आबादी के 35 प्रतिशत लोग ही अपने आपको इन्‍टरनेट उपभोक्‍ता समझते हैं। इस सर्वेक्षण में जिनको शामिल किया गया, उनमें अधिक संख्‍या विकासशील देशों के लोगों की थी। (ये आंकड़े यूनेस्‍को द्वारा आयोजित वैश्विक अध्‍ययन से लिये गए हें।)
यह मानते हुए कि अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता के अधिकार का और प्रेस की स्‍वतंत्रता का सूचना प्राप्‍त करने के अधिकार से गहरा संबंध है, यह जरूरी हो जाता है कि देशों के बीच और देशों के अंदर कम्‍प्‍यूटर आदि की उपलब्‍धता की कमी (डिजीटल डिवाइड) को दूर किया जाए। वास्‍तव में हाल में हुए 7वें यूनेस्‍को यूथ फोरम के सम्‍मेलन में भाग लेने वालों ने इस बात पर जोर दिया था कि सूचना संचार और प्रौद्योगिकी तक पहुंच को सुलभ बनाना एक बहुत बड़ी चुनौती है। सभी की सूचना तक पहुंच हो, इसके लिए प्रयास किये जाने चाहिएं, विशेष रूप से ग्रामीण और दूरदराज क्षेत्रों में और उन इलाकों में, जो अलग-थलग हैं।
भारतीय परिवेश  भारत में स‍ंविधान के अनुच्‍छेद 19(1)ए) में ‘’भाषण और अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता के अधिकार’’ का उल्‍लेख है, लेकिन उसमें शब्‍द ‘’प्रेस’’ का जिक्र नहीं है, लेकिन उप-खंड (2) के अंतर्गत इस अधिकार पर पाबंदियां लगाई गई हैं। इसके अनुसार भारत की प्रभुसत्ता और अखंडता, राष्‍ट्र की सुरक्षा, विदेशों के साथ मैत्री संबंधों, सार्वजनिक व्‍यवस्‍था, शालीनता और नैतिकता के संरक्षण, न्‍यायालय की अवमानना, बदनामी या अपराध के लिए उकसाने जैसे मामलों में अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता पर पाबंदियां लगाई जा सकती हैं।
     लोकतंत्र के सही तरीके से काम करने के लिए यह जरूरी है कि नागरिकों को देश के विभिन्‍न भागों की ख़बरों और यहां तक कि विदेशों की ख़बरों की जानकारी हो, क्‍योंकि तभी वे तर्क संगत राय कायम कर सकते हैं। यह निश्चित बात है कि किसी भी नागरिक से यह उम्‍मीद नहीं की जा सकती, कि वह अपनी राय तय करने के लिए स्‍वयं ख़बरें इक्‍ट्ठी करे । इस लिए लोकतंत्र में मीडिया की यह महत्‍वपूर्ण भूमिका है और वह लोगों के लिए खबरें इकट्ठी करने के लिए उनकी एक एजेंसी के रूप में काम करता है। यही कारण है कि सभी लोकतांत्रिक देशों में प्रेस की आजादी पर जोर दिया गया है, जबकि सामन्‍तवादी शासन व्‍यवस्‍था में इसकी अनुमति नहीं होती थी।
     भारत जैसे विकासशील देशों में मीडिया पर जातिवाद और सम्‍प्रदायवाद जैसे संकुचित विचारों के खिलाफ संघर्ष करने और ग़रीबी तथा अन्‍य सामाजिक बुराइयों के खिलाफ लड़ाई में लोगों की सहायता करने की बहुत बड़ी जिम्‍मेदारी है, क्‍योंकि लोगों का एक बहुत बड़ा वर्ग पिछड़ा और अनभिज्ञ है, इसलिये यह और भी जरूरी है कि आधुनिक विचार उन तक पहुंचाए जाएं और उनका पिछड़ापन दूर किया जाए, ताकि वे सजग भारत का हिस्‍सा बन सकें। इस दृष्टि से मीडिया की बहुत बड़ी जिम्‍मेदारी है (उच्‍चतम न्‍यायालय के न्‍यायाधीश, न्यायमूर्ति श्री मार्कन्‍डेय काटजू)
सूचना का अधिकार कानून
    विश्‍व भर में सूचना तक सुलभ पहुंच के बारे में बढ़ती चिंता को देखते हुए भारतीय संसद द्वारा 2005 में पास किया गया सूचना का अधिकार कानून बहुत महत्‍वपूर्ण हो गया है। इस कानून में सरकारी सूचना के लिए नागरिक के अनुरोध का निश्चित समय के अंदर जवाब देना बहुत जरूरी है।
     इस कानून के प्रावधानों के अंतर्गत कोई भी नागरिक सार्वजनिक अधिकरण (सरकारी विभाग या राज्‍य की व्‍यवस्‍था) से सूचना के लिए अनुरोध कर सकता है और उसे 30 दिन के अंदर इसका जवाब देना होता है। कानून में यह भी कहा गया है कि सरकारी विभाग व्‍यापक प्रसारण के लिए अपना रिकॉर्डों का कम्‍प्‍यूटरीकरण करेंगे और कुछ विशेष प्रकार की सूचनाओं को प्रकाशित करेंगे, ताकि नागरिकों को औपचारिक रूप से सूचना न मांगनी पड़े। संसद में 15 जून, 2005 को यह कानून पास कर दिया था, जो 13 अक्‍तूबर, 2005 से पूरी तरह लागू हो गया।
     संक्षेप में, यह कानून प्रत्‍येक नागरिक को सरकार से सवाल पूछने, या सूचना हासिल करने, किसी सरकारी दस्‍तावेज की प्रति मांगने, किसी सरकारी दस्‍तावेज का निरीक्षण करने, सरकार द्वारा किये गए किसी काम का निरीक्षण करने और सरकारी कार्य में इस्‍तेमाल सामग्री के नमूने लेने का अधिकार देता है।
     सूचना का अधिकार कानून एक मौलिक मानवाधिकार है, जो मानव विकास के लिए महत्वपूर्ण‍है तथा अन्‍य मानवाधिकारों को समझने के लिए पहली जरूरत है। पिछले 7 वर्षों के अनुभव से, जबसे यह कानून लागू हुआ है, पता चलता है कि सूचना का अधिकार कानून आवश्‍यकता के समय एक मित्र जैसा है, जो आम आदमी के जीवन को आसान और सम्‍मानजनक बनाता है तथा उसे सफलतापूर्वक जन सेवाओं के लिए अनुरोध करने और इनका उपयोग करने का अधिकार देता है।


कल्पना पालकीवाला 
घरों में पायी जाने वाली गौरैया के बारे में अनगिनत कविताएं, गीत, लोरियां, लोकगीतों और चित्रों की हमारी विशद परम्परा है लेकिन आज इस पक्षी का जीवन संकटमय हो गया है। एक लंबा समय बीत गया जब हमने गौरैया की चीं ची की ध्वनि और उसका नृत्य देखा हो ।
गुजरात के एक सेवानिवृत्त वन अधिकारी के इस गौरैया को बचाने की कोशिशों से प्रेरणा पाकर एक आंदोलन की शुरूआत हुयी है । इसमें लोगों ने इस पक्षी और तोतों एवं गिलहरियों के लिए घोंसलों का निर्माण किया । ये घोसलें मिट्टी या पुराने बक्सों की मदद से बनाए गए और इन्हें बाद में पेडों, खेतों, मैदानों यहां तक कि आवासीय बंगलों में टांग दिया गया । इंसानों के बनाए इन घोसलों में पानी और खाने के लिए दाने तक रख दिए गए।
विश्व भर में अपनी पहचान रखने वाली इस गौरैया का विस्तार पूरे संसार में देखने को मिलता है लेकिन पिछले कुछ सालों में इस चिड़िया की मौजूदगी रहस्यमय तरीके से कम हुयी है। पतझड़ का मौसम हो या सर्दियों का यह पक्षी हम सालों साल से अपने बगीचों में अक्सर देखने के आदी रहे हैं । लेकिन अब सप्ताह के हिसाब से समय बीत जाता है और इस भूरा पक्षी देखने को नहीं मिलता । इससे अनायास ही मुझे अपने विद्यालय के उन पुराने दिनों की याद ताजा हो जाती है जब मैनें महान हिन्दी कवियत्री महादेवी वर्मा की  गौरैया नामक कविता पढी थी । उस समय यह अजूबे से कम नही था क्योंकि कविता राजा या किसी महान नेता के बारे में नहीं बल्कि एक साधारण से पक्षी को केंद्र में रखकर लिखी गयी थी  । कवि सुब्रहमण्यम भारती ने भी कहा है ..आजादी की चिड़िया ।..
यह चिड़िया शहरों. घरेलू बगीचों. घरों में खाली पडी जगहों या खेतों में अपना घर बनाती है और वहीं प्रजनन भी करती है । यह पक्षी अब शहरों में देखने को नहीं मिलता हालांकि कस्बों और गांवों में इसे पाया जा सकता है । गौरैया को भले ही लोग अवसरवादी चिड़िया कहें लेकिन आज यह चिड़िया पूरे विश्व में अन्य पक्षियों के साथ अपने जीवन को बचाने के लिए संघर्ष कर रही है । गौरैया की जनसंख्या नीदरलैंड में इतनी गिर चुकी है कि इसे अब रेड लिस्ट में डालने पर विवश होना पड़ा है ।
भारत में भी इस चिड़िया की जनसंख्या में हाल के वर्षो में भारी गिरावट दर्ज की गयी है । यूरोप महाद्वीप के कई जगहों पर पायी जाने वाली गौरैया की तादाद में  यूनाइटेड किंगडम. फ्रांस. जर्मनी. चेक गणराज्य. बेल्जियम .इटली और फिनलैंड में खासी कमी पायी गयी है ।
घरेलू गौरैया को एक समझदार चिड़िया माना जाता है और यह इसकी आवास संबंधी समझ से भी पता चलता है जैसे घोसलों की जगह. खाने और आश्रय स्थल के बारे में यह चिड़िया बदलाव की क्षमता रखती है । विश्वभर में गाने वाली  चिड़िया के नाम से मशहूर गौरैया एक सामाजिक पक्षी भी है तथा लगभग साल भर यह समूह में देखा जा सकता है । गौरैया का समूह 1.5 से दो मील तक की दूरी की उडान भरता है लेकिन भोजन की तलाश में यह आगे भी जा सकता है । गौरैया मुख्य रूप से हरे बीज. खासतौर पर खाद्यान्न को अपना भोजन बनाती है । लेकिन अगर खाद्यान्न उपलब्ध नहीं है तो इसके भोजन में परिवर्तन आ जाता है इसकी वजह यही है कि इसके खाने के सामानों की संख्या बहुत विस्तृत है । यह चिड़िया कीड़ो मकोड़ों को भी खाने में सक्षम है खासतौर पर प्रजनन काल के दौरान यह चिड़िया ऐसा करती है ।

घोंसला निर्माण       
घरेलू गौरैया को अपने  के आवास के निर्माण के लिए आम घर ज्यादा पसंद होते हैं । वे अपने घोंसलों को बनाने के लिए मनुष्य के किसी निर्माण को प्राथमिकता देती हैं । इसके अलावा ढंके खंभों अथवा घरेलू बगीचों या छत से लटकती किसी जगह पर यह पक्षी घोंसला बनाना पसंद करता है लेकिन घोंसला मनुष्य के आवास के निकट ही होता है । नर गौरैया की  यह जिम्मेदारी होती है कि वह मादा के प्रजननकाल के दौरान घोंसले की सुरक्षा करे  और अगर कोई अन्य प्रजाति का पक्षी गौरैया समुदाय के घोंसले के आसपास घोंसला बनाता है तो उसे गौरैया का  कोपभाजन बनना पडता है । गौरैया का घोंसला  सूखी पत्तियों व पंखों और डंडियों की मदद से बना होता है । इसका एक सिरा खुला होता है ।                                                                                                
घरेलू गौरेया  पास्सेर डोमेस्टिकस विश्व गौरैया  परिवार पास्सेराइडे का पुरानी सदस्य है । कुछ लोग मानते हैं कि यह वीबर फिंच परिवार की सदस्य है । इस पक्षी की कई अन्य प्रजातियां भी पायी जातीं हैं । इन्हें प्राय इसके आकार तथा गर्दन के रंग के आधार पर अलग किया जाता है । विश्व के पूर्वी भाग में पायी जाने वाली इस   चिड़िया के गाल   धवल तथा पश्चिमी भाग में भूरे होते हैं । इसके अलावा नर गौरैया की छाती का रंग अंतर के काम में लाया जाता है । दक्षिण एशिया की गौरैया     पश्चिमी गोलार्ध्द की तुलना में छोटी होती है । यूरोप में मिलने वाली गौरैया को पास्सेर डोमेस्टिकस. खूजिस्तान में मिलने वाली को पास्सेर पर्सीकस . अफगानिस्तान व तुर्कीस्तान में पास्सेर बैक्टीरियन . रूसी तुर्कीस्तान के पूर्वी भाग के सेमीयेरचेंस्क पर्वतों पर मिलने वाली  गौरैया को पास्सेर सेमीरेट्सचीन्सिस कहा जाता है । फिलीस्तीन और सीरिया में मिलने वाली  गौरैया की छाती का रंग हल्का होता है । भारत .श्रीलंका और हिमालय के दक्षिण में पायी जानी वाली  गौरैया को पास्सेर इंडिकस कहते हैं जबकि नेपाल से लेकर कश्मीर श्रीनगर में इस चिड़िया की पास्सेर परकीनी नामक प्रजाति पायी जाती है ।
भारत के हिन्दी पट्टी इलाके में इसका लोकप्रिय नाम गौरैया है तथा केरल एवं तमिलनाडु में इसे कुरूवी के नाम से जाना जाता है । तेलुगू में इसे पिच्चूका . कन्नड में गुब्बाच्ची . गुजराती में चकली .तथा मराठी में चिमनी. पंजाब में चिरी. जम्मू कश्मीर में चायर. पश्चिम बंगाल में चराई पाखी तथा उडीसा में घाराचटिया कहा जाता है । उर्दू भाषा में इसे चिड़िया और सिंधी भाषा में इसे झिरकी के नाम से पुकारा जाता है ।

लक्षण 
14 से 16 सेंटीमीटर लंबी इस पक्षी के पंखों की लंबाई 19 से 25 सेंटीमीटर तक होती है जबकि इसका वजन 26 से 32 ग्राम तक का होता है । नर  गौरैया का शीर्ष व गाल और अंदरूनी हिस्से भूरे जबकि गला. छाती का ऊपरी हिस्सा श्वेत होता है । जबकि मादा  गौरैया के सिर पर काला रंग नहीं पाया जाता बच्चों का रंग गहरा भूरा होता है ।
 गौरैया की आवाज की अवधि कम समय की और धात्विक गुण धारण करती है जब उसके बच्चे घोंसले में होते हैं तो वह लंबी सी आवाज निकालती है ।  गौरैया एक बार में कम से कम तीन अंडे देती है । इसके अंडे का रंग धवल पृष्ठभूमि पर काले .भूरे और धूसर रंग का मिश्रण होता है । अंडो का आकार अलग अलग होता है जिन्हें मादा  गौरैया सेती है । इसका  गर्भधारण काल 10 से 12 दिन का होता है । इनमें गर्भधारण की क्षमता उम्र के साथ बढती है और ज्यादा उम्र की चिड़िया का गर्भकाल का मौसम जल्द शुरू होता है ।

गिरावट के कारण 
इस चिडिया की जनसंख्या में गिरावट की कई वजहें बतायी गयी हैं । इनमें से एक प्रमुख वजह सीसे रहित पेट्रोल का प्रयोग होना है । इसके जलने से मिथाइल नाइट्रेट जैसे पदार्थ निकलते हैं । जो छोटे कीड़े के लिए जानलेवा होते हैं और ये कीड़े
ही  गौरैया के भोजन का मुख्य अंग हैं । दूसरी वजह के अनुसार खरपतवार या भवनों के नए तरह के डिजायन जिससे गौरेया को घोंसला बनाने की जगह नहीं मिलती है ।  पक्षी विज्ञानी और वन्य जीव विशेषज्ञों का अनुमान है कि कंक्रीट के भवनों की वजह से घोंसला बनाने में मुश्किल आती हैं इसके अलावा घरेलू बगीचों की कमी व खेती में कीटनाशकों के बढते प्रयोग के कारण भी इनकी संख्या में कमी आयी है । हाल के दिनों में इनकी जनसंख्या में गिरावट का मुख्य कारण मोबाइल फोन सेवा मुहैया कराने वाली टावरें हैं  । इनसे निकलने वाला विकिरण  गौरैया के लिए खतरनाक साबित हो रहा है । ये विकिरण कीड़ो  मकोड़ों और इस चिड़िया के अंडो के विकास के लिए हानिकारक साबित हो रहा है ।

इंडियन क्रेन्स और वेटलैंडस वकिर्गं ग्रुप से जुडे के एस गोपी के अनुसार हालांकि इस बारे में कोई ठोस सुबूत या अध्ययन नहीं है जो इसकी पुष्टि कर सके पर एक बात निश्चित है कि इनकी जनसंख्या में गिरावट अवश्य आयी है । उनके अनुसार खेतों में प्रयोग होने वाले कीटनाशक आदि वजहों से  गौरैया का जीवन परिसंकटमय हो गया है ।

कोयम्बटूर के सालिम अली पक्षी विज्ञान केंद्र एवं प्राकृतिक इतिहास के डा. वी एस विजयन के अनुसार यह पक्षी विश्व के दो तिहाई हिस्सों में अभी भी पाया जाता है लेकिन इसकी तादाद में गिरावट आयी है । बदलती जीवन शैली और भवन निर्माण के तरीकों में आये परिवर्तन से इस पक्षी के आवास पर प्रभाव पड़ा है
आज मैं  गौरैया के शोर को याद करती हूं और उसके इस डाल से उस डाल तक फुदकने को भी स्मरण करती हूं । मुझे महादेवी वर्मा की कविता  गौरैया का भी ध्यान आता है जिसमें  गौरैया हाथ में रखे कुछ दानों को खा रही है और कंधों पर कूदती है तथा लुकाछिपी कर रही है । ये दृश्य मुझे इतने याद हैं कि जैसे यह मेरे सामने हो रहा हो। मैं उम्मीद करती हूं कि महादेवी वर्मा की कविता पन्नों में सिमट के नहीं रह जायेगी और  गौरैया हमेशा के लिए हमारे पास वापस आयेगी ।


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