डॉ. वेदप्रताप वैदिक

राहुल गांधी वास्तव में गांधी नहीं हैं. वह हैं, राहुल-सोनिया या राहुल-राजीव या राहुल-इंदिरा या राहुल-नेहरू या राहुल-फिरोज गांधी ! गांधी से उनकी दूर-दूर तक कोई रिश्तेदारी नहीं है| राहुल के दादा, जिन्हें हम गलती से फिरोज गांधी कहते हैं, वे अपना उपनाम 'घंदी' लिखा करते थे, जैसे कि पारसी लोग अक्सर लिखा करते हैं लेकिन अपने आचरण से राहुल गांधीजी के जितने करीब बैठते हैं, स्वयं गांधीजी के पोते-पोती भी नहीं ! बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी जब दक्षिण अफ्रीका से लौटे तो उनके गुरू गोपालकृष्ण गोखले ने उनसे कहा था कि आप पहले भारत को देखिए, जानिए, पहचानिए और फिर देश-सेवा के मैदान में कूदिए| गांधी ने गोखले की सलाह मानी और भारत का चक्कर लगाया| गांधी ने जब भारत देखा तो उनका दिमाग चक्कर खा गया| बैरिस्टर मर गया और महात्मा पैदा हो गया|

कहने का मतलब यह नहीं कि राहुल, गांधी हैं या गांधी बनने जा रहे हैं| उन्हें कोई स्वाधीनता-संग्राम नहीं लड़ना है| उन्हें राजनीति करनी है और राजनीति किसी की खाला का घर नहीं है| उनके पिता राजीव कितने बेदाग, कितने मासूम, कितने भले थे लेकिन राजनीति ने उनकी कैसी गत बनाई, यह सबको पता है| राहुल को भी राजनीति ही करनी है| इसलिए उनका हस्र क्या होगा, यह भविष्य ही बताएगा| गांधी अगर और जीवित रहते और राजनीति करते तो पता नहीं क्या होता| शायद वे लेनिन-स्तालिन, माओ या फिदेल कास्त्रे की श्रेणी में आ जाते लेकिन गांधी जिस तरह रहे और जिस तरह गए, उसने उन्हें मानव इतिहास में बेजोड़ बना दिया| किसी दूसरे गांधी की कल्पना भी नहीं की जा सकती| लेकिन गांधी से कुछ सीख लेने पर भी पाबंदी है क्या ? यदि राहुल गांधी हमारे गांधी की तरह देश में घूम रहे हैं तो उसमें गलत क्या है ? कुछ लोग कह रहे हैं, यह नाटक है| मान लिया कि यह नाटक है तो आपको किसने रोका है ? आप भी यह नाटक क्यों नहीं करते ? किसी गरीब के झोपड़े में आप दो-चार रातें क्यों नहीं बिताते ? किसी किसान के घर आलथी-पालथी मारकर आप टिक्कड़ क्यों नहीं चबाते ? हेंड पंप से पानी खींचकर खुले में आप क्यों नहीं नहाते ? मुसा-तुसा कुर्त्ता-पाजामा पहनकर मजदूरों और किसानों से उनका दुखड़ा आप क्यों नहीं सुनते ? ऐसा नहीं है कि हमारे देश के सभी नेता अपनी जनता से कटे हुए हैं| वे वह सब और उससे भी ज्यादा करते हैं, जो राहुल कर रहे हैं लेकिन यह सब तब तक ही होता है, जब तक कि वे निचले स्तरों पर होते हैं, जब तक उन्हें नाम या पद या पैसा हासिल नहीं हुआ होता है लेकिन ज्यों ही राजनीति की बस के पायदान पर पांव रखने का मौका उन्हें मिलता है, वे आम जनता की तरफ से बेखबर हो जाते हैं| कब साहबी नखरा, कब सामंती अंदाज और कब श्रेष्ठता की सडांध उनके दिमाग को काबू कर लेती है, उन्हें पता ही नहीं चलता| जनता के नौकर जनता के मालिक बन बैठते हैं| लोकतंत्र् शीर्षासन की मुद्रा में खड़ा हो जाता है| गांधी का रास्ता लोकतंत्र् को उसके पांव पर खड़ा करता है| राहुल गांधी उसी रास्ते पर चलने की कोशिश कर रहे हैं| मैं देश के किसी नौजवान या प्रौढ़ नेता को नहीं जानता, जिसके पास राहुल-जैसा नाम, पद, पैसा और प्रभुता हो और वह राहुल की तरह 'इंडिया' से निकलकर 'भारत' में घूम रहा हो| यह क्या कम बड़ी बात है कि जिस जवान को कांग्रेस की दूसरी पाली में कोई प्रधानमंत्री या मंत्री बनने से नहीं रोक सकता था, वह आज सिर्फ सांसद क्या, मामूली कार्यकर्ता की तरह गांव-गांव घूम रहा है| वह यदि कभी प्रधानमंत्री बनेगा तो यह नहीं माना जाएगा कि उसे उपर से थोपा गया है| वह अपना प्रधानमंत्री-पद खुद अर्जित कर रहा है| पड़ौसी देशों में भी अनेक राहुल उभरे| जैसे बेनज़ीर भट्टो, नरेश वीरेंद्र, हसीना वाजिद, वांगचुक, सू ची, चंदि्रका कुमारतुंग और स्वयं राजीव गांधी लेकिन क्या इनमें से किसी ने भी राहुल की तरह अपने देश की खाक छानी?

अब से लगभग चार साल पहले जब प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह काबुल गए तो मुझे भी साथ ले गए थे| मुझे पत्र्कारों के रेवड़ में शामिल कर दिया गया लेकिन शाम को बादशाह ज़ाहिरशाह के बेटे, पोते, और नाती-शाहजादे मीर वाइज़, मुस्तफा और नादिर-मुझे होटल से राजमहल में ले गए| शहजादी लीमा ने मेरे लिए शाकाहारी भोज पेश किया और कहा कि आप कहें तो एक और हिंदुस्तानी खास मेहमान को इस भोज में बुला लें| पांच-सात मिनिट में राहुल आ गए| चार घंटे के उस आत्मीय वार्तालाप में राहुल ने जो छवि मेरे मस्तिष्क पर अंकित की, वह यह थी कि यह लड़का बुद्घिमान है, जिज्ञासु है, संयत है, विनम्र है और गरिमामय है| यह छवि अब और गहरी होती चली जा रही है|

एक नया तर्क भी मष्तिष्क में उदय हो रहा है| वह यह कि अपने आचरण से राहुल वंशवाद के आरोप को पतला करते चले जा रहे हैं| 10 वर्ष के प्रशिक्षण के बाद जब यह युवा नेता पार्टी और सरकार की कमान संभालेगा तो लोग उसकी पृष्ठभूमि नहीं, अग्रभूमि को याद करेंगे| उसका वंश नहीं, उसकी तात्कालिक छवि ही निर्णायक होगी| यदि उसमें अपना दम-खम होगा तो उसे लोक-स्वीकृति अपने आप मिलेगी वरना वह इतिहास के किसी गह्रवर में समा जाएगा| हिंदुस्तान के लोग भौंदू नहीं हैं, चतुर हैं| वे बाप-कमाई वाले नेताओं को एक हद से आगे नहीं बढ़ने देते| यदि भारत का लोकतंत्र् वंशवाद पर आधरित होता तो अब तक बने 13 प्रधानमंत्रियों में से सिर्फ दो प्रधानमंत्री ही वंशवाद के कारण क्यों बने ? नेहरू तो अपने कारण बने लेकिन मान लें कि इंदिरा और राजीव क्रमश: अपने पिता और माता के कारण बने तो भी क्या यह तथ्य हमें याद नहीं कि जब इंदिरा बनीं तो नेहरू जीवित नहीं थे और जब राजीव बने तो इंदिरा जीवित नहीं थीं| ये पद उन्हें पार्टी ने दिए, उनके माता-पिता ने नहीं| क्या वजह है कि शेष 10 प्रधानमंत्रियों का कोई बेटा या बेटी प्रधानमंत्री नहीं बना ? उनमें कर्मण्य होता तो वे भी बन जाते| गांधी से बड़ा प्रतापी नेता भारत में कोई नहीं हुआ लेकिन गांधी के पोत-पड़पोते कहां हैं, क्या कर रहे हैं? उनमें से किसी को पकड़कर जनता ने अभी तक प्रधानमंत्री क्यों नहीं बनाया ? सच्चाई तो यह है कि भारत ने वंशवाद को कभी आंख मींचकर स्वीकार नहीं किया| इंदिरा गांधी को उनके पहले चुनाव (1967) में मिला बहुमत एकदम घट गया और राजीव को उनके पहले चुनाव में बुरी तरह हारना पड़ा| शायद राहुल को यह रहस्य पता है, इसीलिए वे बाप-कमाई की बजाय आप-कमाई पर ध्यान लगा रहे हैं| देश की लगभग सभी पार्टियां वंशवाद या परिवारवाद के ढर्रे पर चल पड़ी हैं लेकिन क्या कुछ युवा नेता हमें राहुल की तरह गांधी के रास्ते पर चलते हुए दिखाई पड़ रहे हैं ? इस देश में छोटे-मोटे कई ''युवराज'' हैं लेकिन क्या राहुल गांधी जैसा कोई और है?

लेखक प्रसिद्ध राजनीतिक चिंतक हैं.

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