जगदीश्‍वर चतुर्वेदी
एक जमाना था भारत में कहावत थी कि मास्को में सर्दी पड़ती है तो कॉमरेड को दिल्ली में जुकाम होता है। भारत में सोवियत संघ के गुणगान गाने वालों की समाजवाद के जमाने या सोवियत जमाने में कमी नहीं थी। जब से समाजवादी व्यवस्था गिरी और सोवियत संघ का विघटन हुआ, तब से भारत और खासकर हिन्दी के सोवियत भक्तों का दूर-दूर तक पता नहीं है।

विगत 20 सालों में मैंने किसी भी हिन्दी के सोवियत भक्त का सोवियतों, सोवियत समाजवाद और सोवियत जनता के बारे में कुछ भी लिखा हुआ नहीं देखा है। बेरुखी का आलम यह है कि कम्युनिस्ट पार्टियों के प्रकाशनों में पुराने सोवियत की ताजा खबरें अब नजर नहीं आतीं।

एक जमाना था भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों के नेता अपनी समस्याओं के समाधान के लिए सलाह लेने सोवियत संघ जाया करते थे। पार्टी कक्षाओं में बढ़-चढ़कर अपनी सोवियत भक्ति का प्रदर्शन किया करते थे। अब ये लोग किसी भी तरह अपनी सोवियत भक्ति का प्रदर्शन नहीं करते।

ऐसा क्या हुआ है कि भू.पू.सोवियत संघ के बारे में प्रगतिशीलों ने दिलचस्पी ही लेनी बंद कर दी? भू.पू.सोवियत में सब कुछ पुराना बाकी है। सिर्फ समाजवाद बदला है। देश का अनेक देशों में रूपान्तरण हुआ है। कम्युनिस्ट पार्टी हाशिए पर चली गयी है।

किसी भी देश में समाजवाद रहे या पूंजीवाद रहे यह फैसला वहां की जनता करेगी। उस देश के राजनीतिक दल करेंगे। हमारे प्रगतिशीलों की सोवियतों में दिलचस्पी इस परिवर्तन के कारण कैसे खत्म हो सकती है?

सवाल उठता है कि सोवियतों के प्रति,सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के प्रति हमारे सोवियत भक्तों का प्रेम क्या समाजवाद के कारण था? क्या हमारे सोवियत भक्तों का सोवियत जनता,सभ्यता,संस्कृति आदि से कोई प्रेम नहीं था? यदि था तो जब सोवियत संघ इतने व्यापक परिवर्तनों से गुजर रहा था तो इस दौरान हिन्दी के प्रगतिशील लेखकों ने इन परिवर्तनों और विगत 20-25 साल में घट रही घटनाओं पर हिन्दी के पाठकों को जानकारी देने की कोई कोशिश क्यों नहीं की? क्या भू.पू.सोवियत संघ से हिन्दी के प्रगतिशील लेखकों का सिर्फ मलाई खाने का संबंध था? सोवियत संघ से मलाई मिलनी बंद हो गयी तो उन्होंने सोवियतों के बारे में बताना ही बंद कर दिया।

आश्चर्य है कि भू.पू. सोवियत देश अभी भी मौजूद हैं। रूस आज भी दुनिया की महान शक्तियों में से एक है। महान रूसी जनता व्यवस्था परिवर्तन के चक्रव्यूह को भेदते हुए शानदार ढ़ंग से उन्नति के मार्ग पर आगे जा रही है।

भूमंडलीकरण की पहली चोट सोवियत समाजवादी समूह के देशों पर हुई थी। सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी अपने
आंतरिक क्रिया-कलापों के कारण बिखर गयी। चूंकि पार्टी ने अपने विस्तार के क्रम में सारे सोवियत संघ की जनता को अपना बना लिया था ,अन्य कोई राजनीतिक दल वहां पर नहीं था। पार्टी ही देश का पर्याय थी। फलतः जब पार्टी टूटी तो देश भी टूटा।

सोवियत समाजवादी मॉडल की विशेषता थी पार्टी ,जनता और राष्ट्र का एकीकरण। इस एकीकरण की धुरी थी पार्टी। कमोबेश यही मॉडल सारी दुनिया में आदर्श के रूप में प्रचारित किया गया। चीन, यूगोस्लाविया, चैकोस्लोवाकिया, पोलैण्ड, हंगरी, पूर्वी जर्मनी, क्यूबा, कम्बोडिया,उत्तरी कोरिया आदि में यही मॉडल लागू किया गया।

सोवियत संघ में समाजवाद के पराभव की जड़ में समाजवाद कम और समाजवादी सोवियत मॉडल ज्यादा जिम्मेदार था। पार्टी, जनता और देश के एकीकरण के खिलाफ प्रतिवाद के स्वर पोलैण्ड में पहले सुनाई दिए और कम्युनिस्ट पार्टी धराशायी हुई।

पार्टी,जनता और राष्ट्र के एकीकरण पर टिका समाजवाद किस कदर ताकत अर्जित कर लेता है इसका शानदार प्रयोग पश्चिम बंगाल में माकपा ने करके दिखाया है और उसमें रूसी-चीनी मॉडल की विशेषताओ के साथ भारतीय विशेषता के रूप में लोकतंत्र को शामिल कर लिया है। पश्चिम बंगाल के समाजवादी मॉडल में लोकतंत्र निर्णायक नहीं है निर्णायक है पार्टी संगठन। पार्टी संगठन का तानाबाना टूटने के साथ ही सोवियत संघ में परिवर्तन आए और 11 स्वतंत्र देशों का उदय हुआ। पुराने सोवियत संघ का विघटन हुआ।

सोवियत संघ का विघटन किसी साजिश का परिणाम नहीं था। बल्कि पार्टी,जनता और राष्ट्र के बीच में जो एकीकरण हुआ था उसकी त्रासद परिणति थी। किसी भी देश में पार्टी, जनता और राष्ट्र का एकीकरण इसी तरह के त्रासद मार्ग से गुजरेगा। पार्टी के नाम पर देश या प्रांत को बांधना अवैज्ञानिक है। आप जोर-जबर्दस्ती करके कुछ समय तक तो बांधे ऱख सकते हैं लेकिन अनंतकाल तक नहीं।

राष्ट्र और जनता को दल विशेष या विचारधारा विशेष में बांधना और सबको एक ही दिशा में सोचने के लिए बाध्य करना अवैज्ञानिक है,तानाशाही है और सामाजिक वैविध्य का अस्वीकार है। समाजवाद के इस सोवियत मॉडल से साम्यवादियों ने ही प्रेरणा नहीं ली, बल्कि फासीवादियों और फंडामेंलिस्टों को भी यह मॉडल पसंद है। वे भी एक पार्टी और एक ही विचारधारा के खूंटे से देश विशेष की जनता को बांधना चाहते हैं। यह एक तरह से जनता को नपुंसक बनाने, गुलाम बनाने और उसके मानवाधिकारों को छीनने की कोशिश है। यह उदारतावादी विचारधाराओं का अस्वीकार है।

सवाल यह है कि मार्क्सवाद का पूंजीवादी उदारतावाद के साथ किस रूप में संवाद बनता है? राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक वैविध्य को स्वीकार करते हुए मार्क्सवाद का कैसे विकास किया जाए? अन्य विचारधाराओं और गैर सर्वहारा वर्गों के प्रति सदभाव बनाए रखकर मार्क्सवाद को कैसे लागू किया जाए यही वह चुनौती है जिसे सोवियत मॉडल बनाने वाले समझने में असमर्थ रहे। उनकी ही असमर्थता एक दिन उन्हें देश-विभाजन और समाजवाद के विसर्जन तक ले गयी।
(लेखक वामपंथी चिंतक और कलकत्‍ता वि‍श्‍ववि‍द्यालय के हि‍न्‍दी वि‍भाग में प्रोफेसर हैं)

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