रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ

पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो
रस्म-ओ-राहे दुनिया की निभाने के लिए आ

किस किस को बताएंगे जुदाई का सबब हम
तू मुझ से ख़फा है तो ज़माने के लिए आ

कुछ तो मेरे पिंदार-ए-मुहब्बत का भरम रख
तू भी तो कभी मुझ को मनाने के लिए आ

एक उम्र से हूं लज़्ज़त-ए-गिरिया से भी महरूम
ऐ राहत-ए-जान मुझ को रुलाने के लिए आ

अब तक दिल-ए-खुश फहम को तुझ से हैं उम्मीदें
ये आखरी शम्मे भी बुझाने के लिए आ

माना की मुहब्बत का छुपाना है मुहब्बत
चुपके से किसी रोज़ जताने के लिए आ

जैसे तुझे आते हैं ना आने के बहाने
ऐसे ही किसी रोज़ ना जाने के लिए आ
-अहमद फ़राज़

वेद प्रकाश अरोड़ा
आज की नारी में छटपटाहट है आगे बढ़ने की, जीवन और समाज के हर क्षेत्र में कुछ करिश्मा कर दिखाने की, अपने अविराम अथक परिश्रम से आधी दुनिया में नया सुनहरी सवेरा लाने की तथा ऐसी सशक्त इबारत लिखने की जिसमें महिला अबला न रहकर सबला बन जाए। यह अवधारणा मूर्त रूप ले रही है - बालिका विद्यालयों, महिला कॉलेजों और महिला विश्वविद्यालयों में, नारी सुधार केन्द्रों, नारी निकेतनों, महिला होस्टलों और आंदोलनों में। आज स्थिति यह है कि कानून और संविधान में प्रदत्त अधिकारों का सम्बल लेकर नारी, अधिकारिता के लम्बे सफर में कई मील-पत्थर पार कर चुकी है।

भारत की पराधीनता की बेड़ियां कट जाने के बाद नारी ने अपने उज्ज्वल भविष्य के लिए जोरदार अभियान चलाया। कई मोर्चों पर उसने प्रमाणित कर दिखाया है कि वह किसी से कमतर नहीं, बेहतर है। चाहे सामाजिक क्षेत्र हो या शैक्षिक, आर्थिक क्षेत्र हो या राजनैतिक, पारिवारिक क्षेत्र हो या खेल का मैदान, विज्ञान का क्षेत्र हो या वकालत का पेशा, सभी में वह अपनी धाक जमाती जा रही है। अगर घर की चारदीवारी में वह बेटी, बहन, पत्नी, माँ अथवा अभिभाविका जैसे विविध रूपों में अपने रिश्ते नाते बखूबी निभाती है और अपनी सार्थकता प्रमाणित कर दिखाती है तो घर की चौखट के बाहर कार्यालयों, कार्यस्थलों, व्यवसायों और प्रशासन जैसे विभिन्न क्षेत्रों में अपना योगदान करने में किसी से पीछे नहीं। आज देश में सर्वोच्च राष्ट्रपति पद, लोकसभा अध्यक्ष पद और लोकसभा में विपक्षी नेता - तीनों को महिलाएं सुशोभित कर रही हैं। सबसे बड़े राजनीतिक दल और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के नेता पद को भी महिला महामंडित कर रही है।

राजनीतिक क्षेत्र से हटकर जब हम प्रशासनिक क्षेत्र पर नज़र डालते हैं तो उसमें भी महिला अधिकारी वर्तमान को संवारने -सजाने में किसी से पीछे नहीं हैं। विदेश सचिव तथा अनेक मंत्रालयों के सचिव पद का दायित्व निभाने में महिलाएं पूरी निष्ठा और कार्यकौशल का परिचय दे रहीं हैं। इस संदर्भ में इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती कि महिला उत्थान और अधिकारिता के नए-नए शिखरों पर विजय पाने की यह कामयाबी तब मिल रही है, जब महिला राजनीतिक सशक्तिकरण की दृष्टि से भारत का कद निरन्तर बढता जा रहा है। विभिन्न देशों की कतार में भारत कई पायदान चढक़र 24वें स्थान पर जा पहुंचा है। आज संसद के विभिन्न पदों में 11 प्रतिशत पर और मंत्री पदों में 10 प्रतिशत पर महिलाएं काबिज हैं।

विभिन्न कुरीतियों और बाधाओं से निपटने के लिए जरूरी है कि न सिर्फ लड़कों बल्कि लड़कियों में भी शिक्षा का प्रसार किया जाए। माँ परिवार की धुरी होती है, अगर वह शिक्षित हो तो न केवल पूरा परिवार शिक्षित हो जाएगा, बल्कि समाज में भी नई चेतना उत्पन्न हो जायेगी। यही वजह है कि आज महिलाओं में शिक्षा का प्रसार बढता जा रहा है। वर्ष 1961 की जनगणना के अनुसार साक्षर पुरुषों का प्रतिशत 40 और साक्षर महिलाओं का प्रतिशत मात्र 15 था। लेकिन पिछले चार दशकों में महिला साक्षरता दर ने लम्बी छलांग लगाई है। आंकड़ों की बात करें तो 1971 में महिला साक्षरता दर 22 प्रतिशत थी जो बढ़ते-बढ़ते 2001 में 54.16 प्रतिशत यानी ढाई गुना हो गई है। यह जबर्दस्त बदलाव इसलिए हो सका कि लड़कियों, विशेषरूप से निर्धन परिवारों की लड़कियों को समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए विभिन्न सरकारों ने मुपऊत पुस्तकें, मुपऊत पोशाकें, छात्रवृत्तियां और दोपहर का मुफ्त भोजन देने, छात्रावास बनवाने तथा लाड़ली योजना जैसे प्रोत्साहनकारी कदम उठाए हैं। 6 से 14 वर्ष तक के आयु समूह के लड़के-लड़कियों को नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने के अधिकार का विधेयक संसद ने पारित कर सर्वशिक्षा के क्षेत्र में क्रान्तिकारी कदम उठाया है। मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल का कहना है कि इस विधेयक के बाद केन्द्र सरकार 18 वर्ष तक के किशोर-किशोरियों के लिए माध्यमिक शिक्षा अभियान चलायेगी। केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने राष्ट्रीय साक्षरता मिशन में अब पूरा जोर महिलाओं की शिक्षा पर देने का निर्णय भी किया है। इस कार्यक्रम के अंतर्गत 1017 तक देश की 80 प्रतिशत महिलाओं को साक्षर बनाया जायेगा।

महिलाओं में शिक्षा प्रसार के सुखद परिणाम दिखाई देने भी लगे हैं। पहला यह है कि सरकारी और गैर-सरकारी कार्यालयों और स्वायत्त-संस्थाओं में महिला कर्मचारियों की संख्या और वर्चस्व बढने लगा है। वर्ष 2004 में की गई सरकारी कर्मचारियों की जनगणना के अनुसार 1995 में पुरुषों के मुकाबले महिला कर्मचारियों का अनुपात मात्र 7.43 प्रतिशत था। वर्ष 2001 में यह बढक़र 7.53 और 2004 में 9.68 प्रतिशत हो गया। महिला शिक्षा प्रसार का दूसरा लाभ यह हुआ है कि लड़कियों के प्रति पूर्वाग्रह की भावना और उन्हें परिवार के लिए बोझ मानने की मन:स्थिति समाप्त होते जाने से पुरुषों के मुकाबले महिलाओं का संख्या-अनुपात बढता जा रहा है। वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार देश में महिलाओं की संख्या पुरुषों के मुकाबले 48 प्रतिशत थी लेकिन इधर अनुपात की खाई कम होते जाने के ठोस प्रमाण मिले हैं। दिल्ली में तो वर्ष 2008 में स्त्री-पुरुष के बीच संख्या अनुपात में महिलाएं आगे निकल गईं हैं।

आधी दुनिया के बहुआयामी मानव-संसाधनों की महत्ता स्वीकारते हुए संविधान में उन्हें अपनी स्थिति सुधारने के लिए न केवल पुरुषों के बराबर अवसर प्रदान किए गए हैं बल्कि प्रत्येक क्षेत्र में अपनी नियति के नियंता बनने के पूरे अधिकार भी दिए गए हैं। वैसे भी महिला सशक्तिकरण एक बहुआयामी और बहुस्तरीय अवधारणा है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो महिलाओं को संसाधनों पर अधिक भागीदारी और अधिक नियंत्रण प्रदान करती है। ये संसाधन नैतिक, मानवीय, बौध्दिक और वित्तीय सभी हो सकते हैं। सशक्तिकरण का मतलब है, घर समाज और राष्ट्र के निर्णय लेने के अधिकार में महिलाओं की हिस्सेदारी। दूसरे शब्दों में सशक्तिकरण का अभिप्राय है अधिकारहीनता से अधिकार प्राप्ति की तरफ बढते क़दम। शुरूआती कदम के रूप में लोकतंत्र का प्रथम सौपान है--पंचायतों और नगरपालिकाओं में महिलाओं की भागीदारी। 73वां संविधान संशोधन पारित होने के बाद अनेक पंचायतों में कानून के अंतर्गत मिले एक तिहाई आरक्षण से भी अधिक महिला प्रतिनिधि चुने जाने लगे हैं। अनेक पंचायतों में तो 50 प्रतिशत से भी अधिक महिलाएं चुनी जाती हैं और कहीं-कहीं तो सभी सदस्य महिलाएं होती हैं। केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने पंचायतों और नगरपालिकाओं के सभी स्तरों पर महिलाओं का आरक्षण मौजूदा एक तिहाई से बढाक़र कम से कम 50 प्रतिशत कर देने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है। इसके लिए संविधान में संशोधन किया जाएगा। बिहार, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ ताे पहले से ही पंचायतों में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत स्थान आरक्षित कर सशक्तिकरण की दिशा में क्रान्तिकारी कदम उठा चुके हैं। यह कार्यवाही जनवरी, 2006 में एक अध्यादेश के जरिए की गई। उत्तराखंड ने तो एक और कदम आगे बढाते हुए पंचायतों में महिलाओं को 55 प्रतिशत प्रतिनिधित्व दे दिया है। राज्य सभा ने 2 तिहाई से अधिक बहुमत से महिला आरक्षण विधेयक पारित कर महिला सशक्तिकरण की दिशा में एक युगान्तकारी कदम उठाया है। रही बात लोकसभा और विधान सभाओं में महिलाओं का प्रतिशत एक तिहाई कर देने का तो इसके लिए संघर्ष जारी है।

न्यूनतम साझा कार्यक्रम में दिए गए छह बुनियादी सिध्दान्तों में भी महिलाओं को शैक्षिक, आर्थिक और कानूनी रूप से सशक्त बनाने के सिध्दान्त को स्वीकारा गया है। इसके अनुसार महिला अधिकारिता को मूर्तरूप देने के लिए महिला सशक्तिकरण आयोग का गठन किया गया है। महिला अधिकारिता को दिल्ली हाईकोर्ट के एक फैसले से बल मिला है, जिसके अंतर्गत सेना की नौकरी में महिलाओं को भी पुरुषों की तरह स्थायी कमीशन देने का निर्देश सरकार को दिया गया है।

जब हम इस वित्त वर्ष के आम बजट पर नज़र डालते हैं तो पाते हैं कि महिला और बाल विकास के लिए योजना व्यय लगभग 50 प्रतिशत बढा दिया गया है। महिला साक्षरता दर बढाने के लिए राष्ट्रीय साक्षरता मिशन का पुनर्गठन करके साक्षर भारत नाम से नया कार्यक्रम शुरू किया जा रहा है। इसके अंतर्गत सात करोड़ निरक्षर वयस्कों को साक्षर बनाने का जो लक्ष्य निर्धारित किया गया था, उसमें छह करोड़ महिलाएं शामिल हैं। महिला कृषकों की जरूरतें पूरी करने के लिए महिला किसान सशक्तिकरण परियोजना आरंभ की जा रही है।

उधर, रेल बजट में रेलमंत्री ममता बैनर्जी ने महिलाओं को अपने घर की चारदीवारी से बाहर कदम रखने के लिए प्रेरित करते हुए मातृभूमि नाम से 21 महिला स्पेशल गाड़ियां चलाने की घोषणा की। ये रेलगाड़ियां कोलकाता, चेन्नई, नई दिल्ली और मुम्बई जैसे बड़े शहरों के रेलवे नेटवर्क का हिस्सा होंगी। उन्होंने 80,000 महिला रेल कर्मचारियों की सुख-सुविधाओं की ओर भी ध्यान देते हुए इन कर्मचारियों के बच्चों के लिए 50 शिशु सदन और 20 होस्टल बनाने का प्रस्ताव किया। इतना ही नहीं, महिला यात्रियों की सुरक्षा की बेहतर व्यवस्था के लिए उन्होंने एक महिला वाहिनी बनाने का भी प्रस्ताव किया, जिसमें महिला रेल सुरक्षा बल की 12 कम्पनियां होंगी।

लेकिन आधी दुनिया के लिए तरह-तरह की सुविधाओं और अधिकारों की बारिश होने के बावजूद अभी सफर लम्बा है। भले ही आज की नारी विगत कल की नारी से कोसों आगे निकल चुकी है, लेकिन फिर भी उसके लिए अभी कई और मंजिलों को छूना बाकी है।

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी
भारत में ‘ट्विटर’ को अभी भी बहुत सारे ज्ञानी सही राजनीतिक अर्थ में समझ नहीं पाए हैं, खासकर मीडिया से जुड़े लोग भारत के विदेश राज्यमंत्री शशि थरुर के ‘ट्विटर’ संवादों पर जिस तरह की बेवकूफियां करते हैं उसे देखकर यही कहने की इच्छा होती है कि हे परमात्मा इन्हें माफ करना ये नहीं जानते कि ये क्या बोल रहे है।

‘ट्विटर‘ मूलतः नयी संचार क्रांति का मानवाधिकार कार्यकर्ता है। यह महज संचार का उपकरण मात्र नहीं है। यह साधारण जनता का औजार है। यह ऐसे लोगों का औजार है जिनके पास और कोई अस्त्र नहीं है।

इन दिनों चीन में जिस तरह का दमन चक्र चल रहा है। उसके प्रत्युत्तर में चीन में मानवाधिकार कर्मियों के लिए ‘ट्विटर’ सबसे प्रभावशाली संचार और संगठन का अस्त्र साबित हुआ है। जगह-जगह साधारण लोग ‘ट्विटर’ के जरिए एकजुट हो रहे हैं। लेकिन एक परेशानी भी आ रही है। ‘ट्विटर’ में 140 करेक्टर में ही लिखना होता है और चीनी भाषा में यह काम थोड़ा मुश्किलें पैदा कर रहा है।

‘ट्विटर’ लेखन के कारण चीन में मानवाधिकार कर्मियों को ,खासकर नेट लेखकों को निशाना बनाया जा रहा है। नेट लेखक चीन की अदालतों में जनाधिकार के पक्ष में और चीनी प्रशासन की अन्यायपूर्ण नीतियों के बारे में जमकर लिख रहे हैं उन्हें साइबर चौकीदारों की मदद से चीन की पुलिस परेशान कर रही है, गिरफ्तार कर रही है। गिरफ्तार नेट लेखकों ने ‘ट्विटर’ का प्रभावशाली ढ़ंग से इस्तेमाल किया है। मजेदार बात यह है कि चीन प्रशासन के द्वारा अदालतों में साधारण मानवाधिकार कर्मियों और चीनी प्रशासन के अन्यायपूर्ण फैसलों के खिलाफ जो मुकदमे चलाए जा रहे हैं उनकी सुनवाई के समय सैंकड़ों ब्लॉगर और ट्विटर अदालत के बाहर खड़े रहते हैं और अदालत की कार्रवाई की तुरंत सूचना प्रसारित करते हैं और प्रतिवाद में जनता को गोलबंद कर रहे हैं। इससे चीनी प्रशासन की समस्त सेंसरशिप धराशायी हो गयी है। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो ब्लॉगर और ट्विटर नया संगठक है। यह ऐसा संगठनकर्ता है जो कानून और राष्ट्र की दीवारों का अतिक्रमण करके प्रतिवादी संगठन बनाने का काम कर रहा है।
(लेखक वामपंथी चिंतक और कलकत्‍ता वि‍श्‍ववि‍द्यालय के हि‍न्‍दी वि‍भाग में प्रोफेसर हैं)

प्रसिद्ध अभिनेत्री मीना कुमारी की आज बरसी है. आज ही के दिन 1972 में इस महान अभिनेत्री ने आखिरी सांस ली थी.  मीना कुमारी को ट्रेजडी क्वीन के नाम से जाना जाता है. दुखांत फिल्मों में उनकी यादगार भूमिकाओं के लिए उन्हें यह नाम दिया गया था.

मीना कुमारी का असली नाम माहजबीं बानो था. उनके पिता अली बक्श भी फिल्मों में और पारसी रंगमंच के एक मंजे हुये कलाकार थे और उन्होंने कुछ फिल्मों में संगीतकार का भी काम किया था. उनकी मां प्रभावती देवी (बाद में इकबाल बानो) भी एक मशहूर नृत्यांगना और अदाकारा थीं. उनका संबंध टैगोर परिवार से था. माहजबीं ने पहली बार किसी फिल्म के लिए छह साल की उम्र में काम किया था. उनका नाम मीना कुमारी विजय भट्ट की लोकप्रिय फिल्म 'बैजू बावरा' पड़ा. मीना कुमारी की शुरुआती फिल्में ज़्यादातर पौराणिक कथाओं पर आधारित थीं. मीना कुमारी के आने के साथ भारतीय सिनेमा में नई अभिनेत्रियों का एक खास दौर शुरू हुआ था जिसमें नरगिस, निम्मी, सुचित्रा सेन और नूतन शामिल थीं.

1953 तक मीना कुमारी की तीन सफल फिल्में आ चुकी थीं जिनमें : दायरा, दो बीघा ज़मीन और परिणीता शामिल थीं. परिणीता से मीना कुमारी के लिये एक नया युग शुरु हुआ. परिणीता में उनकी भूमिका ने भारतीय महिलाओं को खास प्रभावित किया था चूंकि इस फिल्म में भारतीय नारियों के आम जिदगी की तकलीफ़ों का चित्रण करने की कोशिश की गई थी. लेकिन इसी फिल्म की वजह से उनकी छवि सिर्फ़ दुखांत किरदार करने वाले की होकर सीमित हो गई.

मीना कुमारी की शादी मशहूर फिल्मकार कमाल अमरोही के साथ हुई जिन्होंने मीना कुमारी की कुछ मशहूर फिल्मों का निर्देशन किया था, लेकिन उनकी शादी कामयाब नहीं रही मीना अमरोही से 1964 में अलग हो गईं. शर्मीली मीना के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं कि वे कवियित्री भी थीं, लेकिन कभी भी उन्होंने अपनी कवितायें छपवाने की कोशिश नहीं की. उनकी लिखी कुछ उर्दू की कवितायें नाज़ के नाम से बाद में प्रकाशित हुईं.
पेश है मीना कुमारी की चंद नज़्में

टुकड़े-टुकड़े दिन बीता, धज्जी-धज्जी रात मिली
जितना-जितना आंचल था, उतनी ही सौगात मिली

रिमझिम-रिमझिम बूंदों में, ज़हर भी है और अमृत भी
आंखें हंस दीं दिल रोया, यह अच्छी बरसात मिली

जब चाहा दिल को समझें, हंसने की आवाज़ सुनी
जैसे कोई कहता हो, ले फिर तुझको मात मिली

मातें कैसी घातें क्या, चलते रहना आठ पहर
दिल-सा साथी जब पाया, बेचैनी भी साथ मिली

होंठों तक आते आते, जाने कितने रूप भरे
जलती-बुझती आंखों में, सादा सी जो बात मिली


चांद तन्हा है, आसमां तन्हा

दिल मिला है कहां-कहां तन्हा
बुझ गई आस, छुप गया तारा
थरथराता रहा धुआं तन्हा।
ज़िन्दगी क्या इसी को कहते हैं।
जिस्म तन्हा है और जां तन्हा।
हमसफ़र कोई मिल गया जो कहीं
दोनों चलते रहे यहां तन्हा
राह देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जाएंगे यह जहां तन्हा


दिन गुज़रता नज़र नहीं आता
रात काटे सेभी नहीं कटती
रात और दिन के इस तसलसुल में
उम्र बांटे से भी नहीं बंटती
अकेलेपन के अंधेरे में दूर-दूर तलक
यह एक खौफ़ जी पे धुआं बनके छाया है
फिसल के आंख से यह छन पिघल न जाए कहीं
पलक-पलक ने जिस राह से उठाया है
शाम का यह उदास सन्नाटा
धुंधलका, देख बढ़ता जाता है
नहीं मालूम यह धुंआ क्यों है
दिल तो कुश है कि जलता जाता है
तेरी आवाज़ में तारे से क्यों चमकने लगे
किसकी आंखों के तरन्नुम को चुरा लाई है
किसकी आगोश की ठंडक पे है डाका डाला
किसकी बांहों से तू शबनम उठा लाई है



मुसर्रत पे रिवाजों का सख्त पहरा है,
न जाने कौन-सी उम्मीदों पे दिल ठहरा है
तेरी आंखों में झलकते हुए इस गम की क़सम
ए दोस्त दर्द का रिश्ता बहुत ही गहरा है


वक़्त ने छीन लिया हौसला-ए-जब्ते सितम
अब तो हादिसा-ए- ग़म पे तड़प उठता है दिल
हर नए ज़ख्म पे अब रूह बिलख उठती है
होंठ अगर हंस भी पड़े आंख छलक उठती है
ज़िन्दगी एक बिखरता हुआ दर्दाना है
ऐसा लगता है कि अब ख़त्म पर अफ़साना है

फ़िरदौस ख़ान
हरियाणा में ऑनर किलिंग मामले में दोषियों को कड़ी सज़ा दिए जाने से खाप पंचायतों की तानाशाही पर कुछ अंकुश लगेगा, ऐसी उम्मीद की जा सकती है. इस फ़ैसले ने जहां समाज को यह संदेश दिया है कि क़ानून से ऊपर कुछ भी नहीं है, वहीं सामाजिक कुरीतियों के ख़िलाफ़ संघर्ष कर रहे लोगों का मनोबल भी बढ़ाया है.

क़ाबिले-गौर है कि करनाल के सत्न न्यायालय ने मनोज-बबली हत्याकांड के पांच दोषियों को फांसी और एक को उम्रक़ैद की सज़ा सुनाई है. कोर्ट ने 25 मार्च को इस मामले में तथाकथित खाप नेता गंगा राज और बबली के पांच परिजनों को क़त्ल का कसूरवार ठहराया था. कैथल ज़िले के करोडन गांव के मनोज ने क़रीब तीन साल पहले 18 मई 2007 को बबली के घरवालों के विरोध के बावजूद उससे शादी की थी. दोनों के समान गोत्न का होने के कारण खाप पंचायत ने इस विवाह का विरोध किया और मनोज के परिवार के सामाजिक बहिष्कार का फैसला सुना दिया. शादी के बाद मनोज और बबली करनाल में जाकर रहने लगे, लेकिन अब भी उनकी मुसीबतें अब भी कम नहीं उन्हें शादी तोड़ने के लिए कहा जाने लगा. जब उन्होंने इनकार कर दिया तो उन्हें धमकियां मिलने लगीं और 15 जून 2007 को उनकी बेरहमी से ह्त्या कर दी गई थी. इनके शव बाद में 23 जून को बरवाला ब्रांच नहर से बरामद हुए थे. लगभग तीन साल तक चले इस मामले में लगभग 50 सुनवाइयां हुईं तथा इस दौरान 40 से ज्यादा गवाहों के बयान दर्ज किए गए थे.

प्राचीनकाल से ही भारत में सामाजिक, राजनीतिक व अन्य मामलों में पंचायत की अहम भूमिका रही है. पहले हर छोटे बड़े फैसले पंचायत के ज़रिये ही निपटाए जाते थे. गांवों में आज भी पंचायतों का बोलबाला है. पंचायतों दो प्रकार की होती हैं. एक लोकतांत्रिक प्रणाली द्वारा चुनी गई पंचायतें और दूसरी खाप पंचायतें. दरअसल, खाप या सर्वखाप एक सामाजिक प्रशासन की पद्धति है जो भारत के उत्तर पश्चिमी प्रदेशों यथा उत्तर भारत विशेषकर हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में प्रचलित हैं. ये पंचायतें पिछले काफी वक़्त से अपने के फैसलों को लेकर सुर्ख़ियों में रही हैं. बानगी देखिये :
  • 20 मार्च 1994 को झज्जर जिले के नया गांव में मनोज व आशा को मौत की सजा मिली. परिजनों ने खाप पंचायतों की हरी झंडी मिलने के बाद दोनों प्रेमियों को मौत की नींद सुला दिया.
  • वर्ष 1999 में भिवानी के देशराज व निर्मला को पंचायत के ठेकेदारों को ठेंगा दिखाकर प्रेम-प्रसंग जारी रखने की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी. दोनों की पत्थर मारकर हत्या कर दी गई.
  • वर्ष 2000 में झज्जर जिले के जोणधी गांव में हुई पंचायत ने आशीष व दर्शना को भाई-बहन का रिश्ता कायम करने का फरमान सुनाया, जबकि उनका एक अब्च्चा भी था.
  • वर्ष 2003 में जींद जिले के रामगढ़ गांव में दलित युवती मीनाक्षी ने सिख समुदाय के लड़के से प्रेम विवाह कर लिया. चूंकि कदम लड़की ने बढ़ाया था, लिहाजा उसे पंचायती लोगों ने मौत की सजा सुना दी. साहसी प्रेमी जोड़े ने कोर्ट की शरण लेकर विवाह तो कर लिया, लेकिन उन्हें दूसरे राज्य में जाकर गुमनामी की जिंदगी गुजारनी पड़ी.
  • वर्ष 2005 के दौरान झज्जर जिले के आसंडा गांव में रामपाल व सोनिया को भी पति-पत्नी से भाई-बहन बनने का फरमान सुना दिया. राठी व दहिया गोत्र के बीच अटका यह मामला भी लंबा खिंचा. आखिर रामपाल को अदालत की शरण लेनी पड़ी। करीब पौने तीन साल की अदालती लड़ाई के बाद रामपाल की जीत हुई, लेकिन खाप पंचायतों का खौफ उन्हें आज भी है.
  • करनाल जिले के बल्ला गांव में भी 9 मई 2008 को एक प्रेमी जोड़े को पंचायत के ठेकेदारों की शह पर मौत के घात उतार दिया गया. जस्सा व सुनीता भी एक ही गोत्र से थे. दोनों ने पंचायत की परवाह न करते हुए शादी कर ली, मगर कुछ समय बाद ही दोनों की बेरहमी से हत्या कर दी गई.
  • अप्रैल 2009 के दौरान कैथल जिले के करोड़ गांव में विवाह रचाने वाले मनोज व बबली को मौत की नींद सुला दिया गया. दोनों एक ही गोत्र के थे. उन्हें बुरा अंजाम भुगतने की धमकी दी गई थी, लेकिन इसकी परवाह न करते हुए उन्होंने विवाह कर लिया था. बाद में दोनों को बस से उतारकर मार दिया गया.
  • हिसार जिले के मतलौडा गांव में मेहर और सुमन की प्रेम न करने की चेतावनी दी गई. कई दिनों तक लुका-छिपी चलती रही, लेकिन आखिर में उन्हें भी मौत की नींद सुला दिया गया.
  • नारनौल जिले के गांव बेगपुर में गोत्र विवाद के चलते युवक के परिवार का हुक्का-पानी बंद कर दिया गया. बाद में पंचायत ने फैसला सुनाया कि नवदंपत्ति को सदैव के लिए गांव छोड़ना होगा. आखिर विजय अपनी पत्नी रानी को लेकर हमेशा के लिए गांव से चला गया.
  • जुलाई 2009 के दौरान जींद जिले के गांव सिंहवाल में अपनी पत्नी को लेने पहुंचे वेदपाल की कोर्ट के वारंट अफसर व पुलिस की मौजूदगी में पीट-पीट कर हत्या कर दी गई। मट्टौर निवासी वेदपाल पर पंचायत ने आरोप लगाया था कि उसने गोत्र के खिलाफ जाकर सोनिया से शादी की है.
  • झज्जर जिले के सिवाना गांव में भी अगस्त 2009 में गांव के ही युवक-युवती का प्रेम-प्रसंग पंचायत को बुरा लगा. एक दिन दोनों के शव पेड़ पर लटकते मिले.
रोहतक जिले के खेड़ी गांव में शादी के साल बाद सतीश व कविता को भाई-बहन बनने का फरमान सुना दिया गया. पति-पत्नी को अलग कर दिया गया और युवक के पिता आजाद सिंह के मुंह में जूता ठूंसा गया था. इनका एक बच्चा भी है. इस मुद्दे पर हाईकोर्ट ने स्वयं संज्ञान लेते हुए सरकार को नोटिस जारी किया था. अदालत ने 11 फरवरी को उन पंचायतियों के नाम मांगे हैं, जिन्होंने यह फतवा जारी किया था. इस संबंध में कविता ने एसपी अनिल राव को शिकायत भी दर्ज करा दी थी. पुलिस ने विभिन्न धाराओं के तहत मामला भी दर्ज कर लिया है. हालांकि पुलिस ने अभी तक आरोपियों के नाम उजागर नहीं किए हैं. हालांकि पांच फरवरी को बेरवाल-बैनीवाल खाप की सांझा पंचायत के बाद सतीश-कविता का रिश्ता बहाल कर दिया था. जूता मुंह में दिए जाने की भी निंदा की गई थी. इस पंचायत ने भी कविता के गांव खेड़ी में प्रवेश पर रोक लगाई है. इस पंचायत ने कविता द्वारा पुलिस को की गई शिकायत वापस लेने के भी कहा था. दोनों पक्षों ने बेरवाल-बैनीवाल खाप पंचायत के फैसले को स्वीकार करने की घोषणा कर दी थी. इसके बावजूद हाईकोर्ट के दखल के कारण इस मुद्दे पर अभी असंमजस की स्थिति बनी हुई है. इस माले में पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस मुकुल मुदगल व जस्टिस जसबीर सिंह की खंडपीठ ने टिप्पणी करते हुए कहा था-‘खाप पंचायतों को इस तरह का कोई अधिकार नहीं है कि वे किसी दंपती को भाई-बहन बना दें और जो उसके आदेश का पालन न करे, उसे मौत के घाट उतार दें। यह एक सामाजिक बुराई है। इन खाप पंचायतों को समानांतर न्याय पालिका चलाने की अनुमति नहीं दी जा सकती.‘
 
वैसे खाप पंचायतों द्वारा दिए गए निर्णयों के खिलाफ हाईकोर्ट की खंडपीठ का रूख सदा ही कड़ा रहा है. इस मामले में पहले भी हाईकोर्ट हरियाणा सरकार से यह पूछ चुका है कि वह कानून के खिलाफ काम करने वाली व तुगलकी फरमान जारी करने वाली खाप पंचायतों के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं कर रही. हाईकोर्ट ने कहा था कि इन पंचायतों द्वारा इस तरह के आदेश जारी करना गैर कानूनी है. इस तरह के आदेश कंगारू ला की तरह हैं और उनको रोकना जरूरी है. यह अफगानिस्तान नही है, यह भारत है। यहां पर तालिबान कोर्ट को मान्यता नहीं दी जा सकती. चीफ जस्टिस ने यह बात उस वकील को कही थी जिसने कोर्ट में एक जवाब फाइल कर खाप पंचायतों के कदम व उनकी कार्रवाई को सही ठहराया था.
काबिले गौर है की इस तरह के मुद्दे हमेशा से ही सरकार के लिए भी परेशानी का सबब बने हैं, क्योंकि वोट बैंक के चलते सियासी दल इन मामलों से दूर ही रहते हैं. राज्य में करीब 22 फीसदी जाट वोट बैंक है. यही वजह कि राज्य सरकार किसी की भी हो खाप पंचायतों के आगे घुटने टेकती है. यही वजह है कि मौत तक के फरमान जारी हुए और उन पर अमल हुआ. पुलिस को गवाह तक ढूंढना मुश्किल होता है. ऊपर से सियासी दबाव अलग काम करता है. इसलिए खाप पंचायतों की तानाशाही के सामने प्रशासन भी बेबस नज़र आता है.
 
हरियाणा में इन पंचायतों का इतना खौफ है कि पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट में परिजनों से जान का खतरा बताने वाले प्रेमी जोड़ों की याचिकाओं की तादाद दिनोदिन बढ़ रही है. पिछले साल 3739 याचिकाएं हाईकोर्ट में आईं और इस साल अभी 28 याचिकाएं आ चुकी हैं, जिनमें अपने परिजनों से ही जान का खतरा बताते हुए सुरक्षा की गुहार लगाई गई है. इया मामले में अदालत ने आगामी 4 मार्च को प्रदेश के महाधिवक्ता को तलब किया है.

खाप पंचायतों के फैसले से आहत हुए सतीश और कविता का कहना है कि शादी के तीन साल बाद उन्हें भाई-बहन बनने के लिए कहा जा रहा है. मेरे ससुर के मुंह में जूता डाला जाता है, बेटे रौनक के 'दादा' को 'नाना' बनने के लिए कहा जाता है. खाप पंचायतों के फरमानों का खामियाजा भुगतने वाले झज्जर के आसंडा निवासी रामपाल व सोनिया का कहना है कि वक्त के साथ पंचायतों को बदलना होगा. पंचायत ने हम दोनों को शादी के बाद भाई-बहन बनने का फरमान जारी कर दिया था. खाप पंचायतों के प्रतिनिधि परंपराओं के नाम पर खुद के अहं को ऊपर रखते हैं.

उधर, खाप पंचायतों के प्रतिनिधि के भी खुद को सही बताते हुए अनेक तर्क देते हैं. उनका कहना है कि हिन्दू मेरिज एक्ट में संशोधन होना चाहिए और एक गोत्र तथा एक गांव में शादी को कानून अनुमति नहीं मिलनी चाहिए. सर्व खाप महम चौबीसी के प्रधान रणधीर सिंह कहते हैं हिन्दू मेरिज एक्ट में खासकर उत्तर हरियाणा की परंपराओं का कोई उल्लेख नहीं है. उन्हें प्रेम करने वालों से ऐतराज नहीं है, लेकिन जहां भाई-बहन का रिश्ता माना जाता है वहां पति-पत्नी का संबंध जोड़ना उचित नहीं है. इसलिए इससे बचा जाना चाहिए. अलग-अलग गांवों के युवा शादी करते हैं तो उन्हें दिक्कत नहीं है. उन्होंने कहा कि सतीश और कविता के मामले में खाप पंचायत ने नरमी दिखाई है.
 
गौरतलब है कि गैर सरकारी संगठन लायर फार ह्यूमन राइट इंटरनेशनल ने हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दाखिल कर खाप पंचायतों द्वारा गैर कानूनी व तानाशाही आदेश जारी करने के खिलाफ कार्रवाई करने व इन खाप पंचायतों पर रोक लगाने की मांग की है. साथ ही याचिका में कहा गया है कि सिंगवाल नरवाना में खाप पंचायत द्वारा मारे गए युवक वेदपाल के मामले की जांच के लिए वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी की अगुवाई में एक एसआईटी बनाई जाए जो हाईकोर्ट की निगरानी में काम करे. इस मामले की सुनवाई के लिए एक स्पेशल कोर्ट भी बनाई जाए जो इस मामले में शामिल लोगों को जल्दी सजा दे सके.
बहरहाल, खाप पंचायतों की तानाशाही फ़रमानों से परेशान प्रेमी जोड़ों को आस बंधी है कि वो ख़ुशी-ख़ुशी अपनी जिंदगी बसर कर सकते हैं. जो प्रेमी युगल गोत्र विवाद के चलते अपनी जान गंवा चुके हैं, उनके लिए इंसाफ़ के लिए भटक रहे परिजनों को भी इस फ़ैसले से राहत ज़रूर महसूस हुई होगी.

कल्पना पालखीवाला
प्लास्टिक कचरे से पर्यावरण को पहुंचने वाले खतरों का अध्ययन अनेक समितियों ने किया है। प्लास्टिक थैलों के इस्तेमाल से होने वाली समस्यायें मुख्य रूप से कचरा प्रबंधन प्रणालियों की खामियों के कारण पैदा हुई हैं। अंधाधुंध रसायनों के इस्तेमाल के कारण खुली नालियों का प्रवाह रूकने, भूजल संदूषण आदि जैसी पर्यावरणीय समस्यायें जन्म लेती हैं। प्लास्टिक रसायनों से निर्मित पदार्थ है जिसका इस्तेमाल विश्वभर में पैकेजिंग के लिये होता है, और इसी कारण स्वास्थ्य तथा पर्यावरण के लिये खतरा बना हुआ है। यदि अनुमोदित प्रक्रियाओं और दिशा-निर्देशों के अनुसार प्लास्टिक की रिसाइक्लिंग (पुनर्चक्रण) किया जाए तो पर्यावरण अथवा स्वास्थ्य के लिये ये खतरा नहीं बनेगा।

प्लास्टिक किसे कहते हैं?
प्लास्टिक एक प्रकार का पॉलीमर यानी मोनोमर नाम की दोहराई जाने वाली इकाइयों से युक्त बड़ा अणु है। प्लास्टिक थैलों के मामले में दोहराई जाने वाली इकाइयां एथिलीन की होती हैं। जब एथिलीन के अणु को पॉली एथिलीन बनाने के लिए 'पॉलीमराइज' किया जाता है, वे कार्बन अणुओं की एक लम्बी शृंखला बनाती हैं, जिसमें प्रत्येक कार्बन को हाइड्रोजन के दो परमाणुओं से संयोजित किया जाता है।

प्लास्टिक थैले किससे बने होते हैं?
प्लास्टिक थैले तीन प्रकार के बुनियादी पॉली एथिलीन पॉलीमरों-उच्च घनत्व वाले पॉलीएथिलीन (एचडीपीई),अल्पघनत्व वाले पॉलीएथिलीन (एलडीपीई) अथवा लीनियर अल्प घनत्व वाले पॉलीएथिलीन (एलएलडीपीई) में से किसी एक से बना होता है। किराने वाले थैले आम तौर पर एचडीपीई के बने होते हैं, जबकि ड्राई क्लीनर के थैले एलडीपीई से निर्मित होते हैं। इन पदार्थों के बीच मुख्य अंतर पॉलीमर शृंखला की मुख्य धारा से चलन होने की सीमा पर निर्भर होता है। एचडीपीई और एलएलडीपीई एक रेखीय अविचलित शृंखलाओं से बनी होती है जबकि एलडीपीई शृंखला में विघटन होता है।

क्या प्लास्टिक के थैले स्वास्थ्य के लिये हानिप्रद है?
प्लास्टिक मूल रूप से विषैला या हानिप्रद नहीं होता। परन्तु प्लास्टिक के थैले रंग और रंजक, धातुओं और अन्य तमाम प्रकार के अकार्बनिक रसायनों को मिलाकर बनाए जाते हैं। रंग और रंजक एक प्रकार के औद्योगिक उत्पाद होते हैं जिनका इस्तेमाल प्लास्टिक थैलों को चमकीला रंग देने के लिये किया जाता है। इनमें से कुछ कैंसर को जन्म देने की संभावना से युक्त हैं तो कुछ खाद्य पदार्थों को विषैला बनाने में सक्षम होते हैं। रंजक पदार्थों में कैडमियम जैसी जो भरी धातुएं होती हैं वे फैलकर स्वास्थ्य के लिये खतरा साबित हो सकती हैं।

प्लास्टिसाइजर अल्प अस्थिर प्रकृति का जैविक (कार्बनिक) एस्सटर (अम्ल और अल्कोहल से बना घोल) होता है। वे द्रवों की भांति निथार कर खाद्य पदार्थों में घुस सकते हैं। ये कैंसर पैदा करने की संभावना से युक्त होते हैं।

एंटी आक्सीडेंट और स्टैबिलाइजर अकार्बनिक और कार्बनिक रसायन होते हैं जो निर्माण प्रक्रिया के दौरान तापीय विघटन से रक्षा करते हैं।

कैडमियम और जस्ता जैसी विषैली धातुओं का इस्तेमाल जब प्लास्टिक थैलों के निर्माण में किया जाता है, वे निथार कर खाद्य पदार्थों को विषाक्त बना देती हैं। थोड़ी-थोड़ी मात्रा में कैडमियम के इस्तेमाल से उल्टियां हो सकती हैं और हृदय का आकार बढ सक़ता है। लम्बे समय तक जस्ता के इस्तेमाल से मस्तिष्क के ऊतकों का क्षरण होकर नुकसान पहुंचता है।

प्लास्टिक थैलों से उत्पन्न समस्याएं
प्लास्टिक थैलियों का निपटान यदि सही ढंग से नहीं किया जाता है तो वे जल निकास (नाली) प्रणाली में अपना स्थान बना लेती हैं, जिसके फलस्वरूप नालियों में अवरोध पैदा होकर पर्यावरण को अस्वास्थ्यकर बना देती हैं। इससे जलवाही बीमारियों भी पैदा होती हैं। रि-साइकिल किये गए अथवा रंगीन प्लास्टिक थैलों में कतिपय ऐसे रसायन होते हैं जो निथर कर जमीन में पहुंच जाते हैं और इससे मिट्टी और भूगर्भीय जल विषाक्त बन सकता है। जिन उद्योगों में पर्यावरण की दृष्टि से बेहतर तकनीक वाली रि-साइकिलिंग इकाइयां नहीं लगी होतीं, वे प्रक्रम के दौरान पैदा होने वाले विषैले धुएं से पर्यावरण के लिये समस्याएं पैदा कर सकते हैं। प्लास्टिक की कुछ थैलियों जिनमें बचा हुआ खना पड़ा होता है, अथवा जो अन्य प्रकार के कचरे में जाकर गड-मड हो जाती हैं, उन्हें प्राय: पशु अपना आहार बना लेते हैं, जिसके नतीजे नुकसान दायक हो सकते हैं। चूंकि प्लास्टिक एक ऐसा पदार्थ है जो सहज रूप से मिट्टी में घुल-मिल नहीं सकता और स्वभाव से अप्रभावनीय होता है, उसे यदि मिट्टी में छोड़ दिया जाए तो भूगर्भीय जल की रिचार्जिंग को रोक सकता है। इसके अलावा, प्लास्टिक उत्पादों के गुणों के सुधार के लिये और उनको मिट्टी से घुलनशील बनाने के इरादे से जो रासायनिक पदार्थ और रंग आदि उनमें आमतौर पर मिलाए जाते हैं, वे प्राय: स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालते हैं।

प्लास्टिक कचरा प्रबंधन हेतु कार्य योजनायें
अनेक राज्यों ने तुलनात्मक दृष्टि से मोटे थैलों का उपाय सुझाया है। ठोस कचरे की धारा में इस प्रकार के थैलों का प्रवाह काफी हद तक कम हो सकेगा, क्योंकि कचरा बीनने वाले रिसाइकिलिंग के लिये उनको अन्य कचरे से अलग कर देंगे। पतली प्लास्टिक थैलियों की कोई खास कीमत नहीं मिलती और उनको अलग-थलग करना भी कठिन होता है। यदि प्लास्टिक थैलियों की मोटाई बढा दी जाए, तो इससे वे थोड़े महंगे हो जाएंगे और उनके उपयोग में कुछ कमी आएगी।

प्लास्टिक की थैलियों, पानी की बोतलों और पाउचों को कचरे के तौर पर फैलाना नगरपालिकाओं की कचरा प्रबंधन प्रणाली के लिये एक चुनौती बनी हुई है। अनेक पर्वतीय राज्यों (जम्मू एवं कश्मीर, सिक्किम, पश्चिम बंगाल) ने पर्यटन केन्द्रों पर प्लास्टिक थैलियोंबोतलों के उपयोग को प्रतिबंधित कर दिया है। हिमाचल प्रदेश सरकार ने एक कानून के तहत समूचे राज्य में 15.08.2009 से प्लास्टिक के उपयोग पर पाबंदी लगा दी है।

केन्द्र सरकार ने भी प्लास्टिक कचरे से पर्यावरण को होने वाली हानि का आकलन कराया है। इसके लिये कई समितियां और कार्यबल गठित किये गए, जिनकी रिपोर्ट सरकार के पास है।

पर्यावरण और वन मंत्रालय ने रि-साइकिंल्ड प्लास्टिक मैन्यूफैक्चर ऐंड यूसेज रूल्स, 1999 जारी किया था, जिसे 2003 में, पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1968 के तहत संशोधित किया गया है ताकि प्लास्टिक की थैलियों और डिब्बों का नियमन और प्रबंधन उचित ढंग से किया जा सके। भारतीय मानक ब्यूरो (बीआईएस) ने धरती में घुलनशील प्लास्टिक के 10 मानकों के बारे में अधिसूचना जारी की है।

प्लास्टिक के विकल्प
प्लास्टिक थैलियों के विकल्प के रूप में जूट और कपड़े से बनी थैलियों और कागज की थैलियों को लोकप्रिय बनाया जाना चाहिए और इसके लिए कुछ वित्तीय प्रोत्साहन भी दिया जाना चाहिए। यहां, ध्यान देने की बात है कि कागज की थैलियों के निर्माण में पेड़ों की कटाई निहित होती है और उनका उपयोग भी सीमित है। आदर्श रूप से, केवल धरती में घुलनशील प्लास्टिक थैलियों का उपयोग ही किया जाना चाहिये। जैविक दृष्टि से घुलनशील प्लास्टिक के विकास के लिये अनुसंधान कार्य जारी है।

سٹار نیوز ایجنسی
واشنگٹن (امریکا). امریکا کے صدربراک حسین اوباما نے کہا ہے کہ افغان حکومت کاکردگی بہتر بنائے۔ منشیات اور کرپشن کے خاتمے کیلئے اصلاحات کی جائیں۔ امریکا کے صدر براک اوباما غیر اعلانیہ دورہ پر اچانک افغانستان پہنچ گئے۔ صدارت سنبھالنے کے بعد براک اوباما کا یہ پہلا دورہ افغانستان ہے۔ دورہ میں صدر اوباما صدر نے کرزئی اورافغان کابینہ کے ارکان سے ملاقات کی۔ملاقات کے بعد نیوز کانفرنس سے خطاب میں صدر اوباما نے کہا کہ افغان حکومت کوسویلین معاملات میں مزید اصلاحات کی ضرورت ہے۔ صدرکرزئی کو براک اوباما کی آمد کی خبر صرف ایک گھنٹے قبل دی گئی۔ صدر اوباما نے امریکی فوجیوں سے خطاب میں ان کی کارکردگی کو سراہا اورحوصلہ افزائی کی۔ دورہ کا دورانیہ چند گھنٹوں پر مشتمل ہے۔ صدر اوباما پہلے بگرام ائیر بیس پہنچے تھے جس کے بعد کابل کیلئے روانہ ہوئے۔

स्टार न्यूज़ एजेंसी
नई दिल्ली. देश के मुसलमानों की माली हालत बहुत खराब है. क़रीब एक तिहाई मुसलमान 550 रुपए प्रतिमाह से भी कम आमदनी में ज़िन्दगी गुज़ारने को मजबूर हैं. नेशनल काउंसिल फॉर एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च (एनसीएईआर) के मुताबिक़ साल 2004-05 में हर दस में तीन मुसलमान गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर कर रहे थे, यानी उनकी मासिक आमदनी 550 रुपए से भी कम थी. गांवों में रहने वालों की आमदनी महज़ 338 रुपए प्रतिमाह ही थी.

गौरतलब है कि हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक अंतरिम आदेश में आंध्र प्रदेश के पिछड़े मुसलमानों को सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में चार फ़ीसदी आरक्षण दिए जाने देने को जायज़ करार दिया है. साथ ही रंगनाथ मिश्र आयोग ने मुसलमानों व अन्य अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने की सिफ़ारिश की है. मिश्र आयोग की रिपोर्ट में इस्लाम व ईसाई धर्म अपना चुके दलितों को अनुसूचित जाति में दर्ज करने की सिफ़ारिश भी शामिल है.

इससे पहले मुसलमानों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति के आकलन के लिए बनी सच्‍चर कमेटी की रिपोर्ट भी मुसलमानों को आरक्षण दिए जाने की सिफ़ारिश कर चुकी है. रिपोर्ट में बताया गया था कि मुस्लिम समुदाय का एक बड़ा हिस्सा दलित हिंदुओं और पिछड़े वर्ग से भी बदतर हालत में ज़िन्दगी बसर कर रहा है. कमेटी ने अपनी सिफारिशों में कहा था कि इस मुसलमानों के लिए अतिरिक्त अनुदान की व्यवस्था हो, जो इस समुदाय की शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च किया जाए.

चांदनी
नई दिल्ली. ट्रांस फैट हृदय के लिए नुकसानदायक होता है। ट्रांस फैट की हल्की मात्रा प्राकृतिक तरीके से मिलती रहती है और अधिकतर ट्रांस फैट कृत्रिम तरीके से लिये जाने वाले वनस्पति तेल खासकर हाइड्रोजनेटिक से मिलता है। फैट में हाइड्रोजनेशन की वजह से खाने को पकने में आसानी होती है और प्राकृतिक तेलों से यह जल्द खराब नहीं होता। इससे भोजन स्वादिष्ट बनता है साथ ही इसे ज्यादा समय तक रखा जा सकता है।
ट्रांस फैट से रक्त में एलडीएल या 'बैड' कोस्ट्रॉल बढ़ जाता है जिससे हृदय बीमारी होती है। इससे एचडीएल यानी गुड कोलेस्ट्रॉल में भी कमी हो जाती है जो कि हृदय बीमारी को रोकने में मददगार होता है। सैचुरेटिड फैट के सेवन से एलडीएल कोलेस्ट्रॉल बढ़ जाता है लेकिन एचडीएल कोलेस्ट्रॉल में कमी नहीं होती है। लेकिन जब सैचुरेटिड का लिपिड प्रोफाइल पर उल्टा असर होता है तो भी उससे इतना नुकसान नहीं होता जितना कि ट्रांस फैटी एसिड से।  ट्रांस फैटी एसिड्स डीसैचुरेशन और ईलोंगेशन ऑफ एन-3 (ओमेगा-3) फैटी एसिड्स में भी दखलंदाजी कर सकते हैं। ये हृदय बीमारी को काबू करने और गर्भ की जटिलताओं के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं।
हार्ट केयर फाउंडेशन   ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. के के अग्रवाल  के मुताबिक़  

नर्सेज हेल्थ स्टडी के एक विश्लेषण में दिखाया गया कि ट्रांस फैट से दो फीसदी की ऊर्जा में इजाफा से कोरोनरी हार्ट डिसीज का खतरा 1.93 गुना बढ़ जाता है। ट्रांस फैटी एसिड्स के लेने के ऐसे कोई फिजियोलॉजिक फायदे के बारे में जानकारी नहीं है जिससे कहा जा सके कि इससे फायदा होता है, लेकिन इनकी कमी का असर होता है।

ट्रांस फैटी एसिड्स आम तौर पर बाजार में मिलने वाली कई चीजों का मुख्य तत्व होता है जिनमें कुकीज और केक व खूब फ्राई किये गए भोजन शामिल हैं।

अमेरिकन हार्ट एसोसिएशन के मुताबिक एक व्यक्ति को रोजाना 2 ग्राम से अधिक ट्रांस फैट नहीं लेना चाहिए और यह मात्रा इतनी है कि व्यक्ति इसे प्राकृतिक रूप से ले लेता है।

स्टार न्यूज़ एजेंसी
नई दिल्ली. उत्तर भारत में गर्मी ने अपना जलवा दिखाना शुरू कर दिया है. दोपहरें बहुत गर्म हो गई हैं. हालांकि सुबह और शामें कुछ सुहानी हैं. गर्मी के बढ़ते ही मौसमी फल, शर्बत और आइस क्रीम की बिक्री बढ़ गई है. कूलर और पंखों की बिक्री भी बढ़ गई है.

भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) के मुताबिक़ इस सप्ताह भी तपिश बरकरार रहेगी. राजधानी में आज तड़के न्यूनतम तापमान औसत से पांच डिग्री सेल्सियस अधिक यानी 22 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया, जबकि अधिकतम तापमान 38 डिग्री सेल्सियस रहने की संभावना है. कल न्यूनतम तापमान 22.3 डिग्री और अधिकतम तापमान 37.5 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया था.

मलिक असगर हाशमी
आंध्र प्रदेश के पिछड़े मुसलमानों को नौकरी और तालीमी इदारे के दाखिले में चार प्रतिशत आरक्षण देने के हक में सुप्रीम कोर्ट का फैसला क्या आया, उर्दू मीडिया को लगने लगा है मुस्लिमों की पुरानी मांगें पूरी होने के दिन करीब आ गए हैं। अब तक धर्म के आधार पर और मुसलमानों में जाति प्रथा नहीं होने की दलील देकर उन्हें आरक्षण से दूर रखा जाता रहा है, जबकि मुख्य न्यायाधीश के.जी.बालाकृष्णन की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय खंडपीठ की टिप्पणी ने ऐसी तमाम दलीलें खारिज कर दी हैं।

‘सियासत’ ने अपने संपादकीय में इसे ऐतिहासिक और दूरगामी परिणाम वाला फैसला बताया है। जो समझते हैं मुस्लिमों में जाति प्रथा नहीं है, उन्हें इल्म नहीं कि सिर्फ दिखावे को मस्जिदों में एक कतार में बंदा और बंदानवाज खड़े होते हैं। वर्ना हालत बेहद बुरी है। नौबत यह है कि दो अलग जातियों में शादी करने वाले को फौरन आपत्तिजनक लफ्ज ‘मुलेजादा’ से नवाज दिया जाता है। बिहार और यूपी में यह बुराई कुछ ज्यादा ही है। तीन सदस्यीय खंडपीठ ने यह जताने की कोशिश की है कि हिंदुओं की तरह मुसलमानों में भी मेहतर, हज्जम, फकीर, धोबी, जुलाहे जैसी जातियां हैं, इसलिए उन्हें भी उनका हक मिलना चाहिए।

अखबारों को लगता है पिछड़े मुसलमानों को आरक्षण दिए बगैर उद्धार संभव नहीं। सच्चर कमीशन और रंगनाथ मिश्र रिपोर्ट भी इसकी वकालत करती हैं। उर्दू अखबारों का आरोप है पिछड़े मुसलमानों को आरक्षण देने में केंद्र दिलचस्पी नहीं दिखा रहा। लोकसभा में रंगनाथ मिश्र रिपोर्ट पेश करने पर भी मुस्लिम कोटा तय नहीं किया जा सका है। एक अखबार कहता है- कांग्रेस ने 2009 के चुनाव में पसमंदा मुसलमानों को आरक्षण देने का वादा किया था। केंद्र में सरकार बनने के बाद भी इसे पूरा करने में इसलिए दिलचस्पी नहीं दिखाई जा रही कि कहीं हिंदू वोट बैंक बिदक न जाए। वर्ना क्या वजह है कि महिला आरक्षण बिल को लेकर आक्रामक रुख दिखाने वाली यह पार्टी इस मुद्दे पर खामोशी अख्तियार किए हुए है। अखबारों ने जस्टिस के.जी. बालाकृष्णन की उस टिप्पणी को खासी अहमियत दी है जिसमें उन्होंने कहा है-‘सिर्फ इसलिए कि मुसलमान हैं उन्हें आरक्षण से वंचित नहीं किया जा सकता। सवाल हिंदू या मुसलमान का नहीं है। सवाल है सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक पिछड़ेपन का।’

‘ऐतमाद’ अपने संपादकीय में कहता है कि संजीदगी से किसी काम को किया जाए तो अंत सुखद होता है। इत्तेहाद-ए-मुस्लिमीन के सदर तथा सांसद सलाहउद्दीन ओवैसी कोर्ट के फैसले को बड़ी कामयाबी बताते हैं। उनका कहना है इसमें मुखतलिफ मुस्लिम तंजीमों, जमायतों ने आंध्र सरकार की भरपूर मदद की है। ‘हमारा समाज’ ने ‘मुसमलानों के लिए रिजर्वेशन की राह हमवार’ में सवाल उठाया है कि हिंदू जाति के धोबी, नाई को आरक्षण का लाभ मिल सकता है तो इन कामों को करने वाले मुसलमान इससे वंचित क्यों हैं? उन्हें जब भी पिछड़ों में शामिल करने की वकालत की जाती है, हर बार संविधान के आर्टिकल 341(3)(ए) का हवाला देकर धर्म के आधार पर आरक्षण देने से मना कर दिया जाता है।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला आते ही इसकी मुखालफत करने वाली भाजपा की त्यौरियां फिर चढ़ गई हैं। इसके प्रवक्ता तरुण विजय कहते हैं फैसले का नतीजा देश हित में नहीं है। ‘मुंसिफ’ ने आंध्र के मुख्यमंत्री रोसैया की तारीफ करते हुए कहा है संविधान के नाम पर इस साल फरवरी में आंध्र हाई कोर्ट ने सरकार के मुसलमानों को आरक्षण देने के फैसले पर रोक लगा दी थी। इसके बावजूद उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। हक दिलाने का प्रयास करते रहे। लखनऊ से प्रकाशित ‘अवधनामा’ कहता है-आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने मुस्लिम आरक्षण को एक तरह से गैरकानूनी करार दे दिया था। यहां तक कि अदालत ने इस मामले में ओबी कमीशन के पिछड़े मुस्लिम समूह की निशानदेही को भी दरकिनार कर दिया। अखबारों ने कानून मंत्री वीरप्पा मोइली के कोर्ट का फैसला आने के बाद दी गई प्रतिक्रिया को भी प्रमुखता दी है। मोइली का कहना है राज्य के बहुत सारे नौजवान परेशान थे। सरकार भी नियुक्तियों को लेकर दिक्कत में थी।

अखबार कहते हैं कठिनाई अभी पूरी तरह समाप्त नहीं हुई है। फैसला अंतरिम होने के चलते आंध्र प्रदेश सरकार को अगस्त में सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ के सामने अपना पक्ष मजबूती से रखना होगा। ‘इंकलाब’ कहता है इसके लिए सरकार को तमाम अहम कानूनी कदम उठाने होंगे। ‘सहाफत’ में रोसैया ने यकीन दिलाया है वे पीठ के सामने संजीदगी से सरकार का पहलू रखेंगे। ‘औरंगाबाद टाइम्स’ कहता है-जब दूसरे तबके को छियालीस प्रतिशत आरक्षण मिल सकता है तो चार प्रतिशत मुस्लिमों का कोटा फिक्स करने में क्या दुश्वारी है?
(लेखक हिन्दुस्तान से जुड़े हैं)

स्टार न्यूज़ एजेंसी
नई दिल्ली. हफ्ते में छह से ज्यादा अंडे खाने से कई तरह की समस्याओं की वजह से मौत का खतरा होता है साथ ही मधुमेह रोगियों में यह खतरा कहीं ज्यादा होता है।

हार्ट केयर फाउंडेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. के के अग्रवाल के मुताबिक गैर मधुमेह वालों की तुलना में मधुमेह रोगियों में हो सकता है कि डायटरी कोलेस्ट्रॉल तेजी से ब्लड कोलेस्ट्रॉल में बदल देता हो। द अमेरिकन जर्नल ऑफ क्लीनिकल न्यूट्रीशन प्रकाशित हार्वर्ड के अध्ययन में डॉ. ल्यूक डीजाउज ने दिखाया है कि मधुमेह रोगी जितने ज्यादा अंडे खाते हैं, उनमें मौत का खतरा उतना ही अधिक बढ़ जाता है। अध्ययन में 21,000 से अधिक 40-86 उम्र के पुरुषों को शामिल किया जिन्होंने फिजीशियन हेल्थ स्टडी में बीस सालों तक हिस्सा लिया।

हफ्ते में छह अंडे खाने का संबंध मौत के खतरे के तौर पर नहीं पाया गया, लेकिन सप्ताह में सात या इससे अधिक अंडे लेने से मौत का खतरा 23 फीसदी होता है। मृत्यु का यह खतरा उन डॉक्टरों में अधिक होता है जो मधुमेह के शिकार होते हैं। मधुमेह रोगी डॉक्टरों के हफ्ते में महज एक अंडा लेने की तुलना में सात या इससे अधिक अंडे हफ्ते भर में लेने से सभी कारणों की वजह से मौत का खतरा दो गुना होता है।

एक अंडे में करीब 200 मिलीग्राम कोलेस्ट्रॉल होता है और रोजाना 100 मिलीग्राम कोलेस्ट्रॉल ही लेने की सलाह दी जाती है। अमेरिकन हार्ट एसोसिएशन और अमेरिकन डायटिक एसोसिएशन के मुताबिक आप कितने अंडे खाते हैं, उस पर ध्यान दें और हफ्ते में दो से अधिक जर्दी (अंडे का पीला हिस्सा) का सेवन न करें।

सूत्र
हफ्ते में 7 या इससे अधिक अंडे खाने से मौत का खतरा 23 फीसदी अधिक हो जाता है, जबकि मधुमेह रोगियों में सभी तरह से होने वाली मौत की बीमारियों का खतरा दो गुना ज्यादा जाता है।

चांदनी रात में कुछ भीगे ख्यालों की तरह
मैंने चाहा है तुम्हें दिन के उजालों की तरह

साथ तेरे जो गुज़ारे थे कभी कुछ लम्हें
मेरी यादों में चमकते हैं मशालों की तरह

इक तेरा साथ क्या छूटा हयातभर के लिए
मैं भटकती रही बेचैन गज़ालों की तरह

फूल तुमने जो कभी मुझको दिए थे ख़त में
वो किताबों में सुलगते हैं सवालों की तरह

तेरे आने की ख़बर लाई हवा जब भी कभी
धूप छाई मेरे आंगन में दुशालों की तरह

कोई सहरा भी नहीं, कोई समंदर भी नहीं
अश्क आंखों में हैं वीरान शिवालों की तरह

पलटे औराक़ कभी हमने गुज़श्ता पल के
दूर होते गए ख़्वाबों से मिसालों की तरह
-फ़िरदौस ख़ान

यूसुफ़ किरमानी
अयोध्या में 6 दिसंबर 1992 को जो कुछ हुआ, उसे लेकर सीबीआई की विशेष अदालत के सामने वरिष्ट आईपीएस अफसर अंजू गुप्ता का बयान हमेशा के लिए इतिहास में दर्ज हो गया है। अब चाहे किसी अदालत से लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, विनय कटियार, साध्वी ऋतंभरा, आचार्य धर्मेद्र को कोई सजा मिले या न मिले लेकिन इतिहास में इन सभी लोगों के नाम बतौर खलनायक दर्ज हो चुके हैं। दोबारा सत्ता में भी आने पर इस इतिहास का अब बीजेपी और आरएसएस पुनर्लेखन भी नहीं करा सकेंगे। यहां तक की संघ परिवार के लिए भाड़े पर काम करने वाले इतिहास लेखक भी इस काम को नहीं कर सकेंगे।

हालांकि अंजू गुप्ता ने यही तथ्य लिब्राहन जांच आयोग के सामने भी रखे थे। लेकिन उस आयोग की सुनवाई की रिपोर्टिंग न होने के कारण उस समय अंजू गुप्ता का बयान अखबारों की सुर्खियां नहीं बना था। अब उन्हीं तथ्यों को इस महिला अधिकारी ने पूरी सच्चाई व ईमानदारी के साथ सीबीआई की विशेष अदालत के सामने रख दिया है और अखबारों में उसकी रिपोर्टिंग होने की वजह से पूरी दुनिया ने एक बार सारा सच फिर से जान लिया है।

बीबीसी के प्रख्यात रिटायर्ड पत्रकार मार्क टुली और न जाने कितने पत्रकार बहुत पहले ही उस घटना के तथ्य अपनी किताब में कलमबंद कर चुके हैं। लेकिन इतिहास अंजू गुप्ता को ज्यादा याद रखेगा क्योंकि अच्छे पद लाभ के लिए और रिटायर होने के बाद किसी देश का राजदूत बनने के लिए ऐसे अधिकारी हमेशा पाला बदलकर तथ्यों को दबाते रहे हैं। इस मायने में अंजू गुप्ता जीते जी अमर हो गई हैं।
लिब्राहन जांच आयोग ने करीब 100 लोगों के बयान बाबरी मस्जिद को गिराए जाने के संदर्भ में लिए थे। इन सौ लोगों में अंजू गुप्ता भी थीं। अंजू ने जो तथ्य लिब्राहन आयोग के सामने रखे, वही बात उन्होंने सीबीआई की विशेष अदालत को भी बताई। लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट पिछले साल लोकसभा में पेश कर दी गई। इस रिपोर्ट में उन्हीं लोगों को उस घटना के लिए जिम्मेदार बताया गया जिनके नाम अंजू गुप्ता ने अपने बयान में लिए हैं। कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए सरकार अपने दूसरा कार्यकाल में है और खुद को सेक्युलर बताते हुए नहीं थकती है लेकिन अभी तक सरकार की ओर से कोई सार्थक पहल उन दोषियों को सजा दिलवाने की नहीं हुई जो इस घटना के खलनायक हैं।

अगले चुनाव में इस देश की जनता शायद कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों को तमाम वजहों से तीसरी बार सत्ता में लौटने का मौका शायद न दे। सीबीआई का इस्तेमाल जिस तरह तमाम राजनीतिक दल सत्ता में आने पर करते हैं, उसे देखते हुए अगर अगली बार बीजेपी के नेतृत्व वाला एनडीए सत्ता में आता है तो फिर इस विशेष अदालत की सुनवाई का न तो कोई मतलब रह जाएगा और न ही उसकी सुनवाई कभी पूरी हो सकेगी। 18 साल होने को आ रहे हैं और देश की कोई अदालत यह तय नहीं कर पा रही है कि बाबरी मस्जिद गिराने के गुनाहगार कौन हैं और उन्हें क्या सजा दी जाए।

बहरहाल, मुझे तो नहीं लगता कि मौजूदा यूपीए सरकार में इतना दम-खम है कि वह इस घटना के दोषी किसी भी सफेदपोश नेता को जेल के पीछे भेज पाएगी। लेकिन इतिहास ही हमें और आने वाली नस्लों को खलनायकों के नाम बताता रहेगा।

जिस तरह आज हम यह जानते हैं कि भरी सभा में द्रौपदी की सारी खींचने वाले कौन थे, सीता को अग्नि परीक्षा के लिए क्यों मजबूर होना पड़ा, चांडाल और दलितों के साथ समय-समय पर क्या सलूक हुआ, पाकिस्तान किसने बनवाया, जिन्ना को महान देशभक्त का खिताब किसने दिया, ओसाबा बिन लादेन को किसने पैदा किया, ठीक उसी तरह हम यह भी जानेंगे कि जो संविधान के रक्षक थे, उन्हीं लोगों ने एक षड्यंत्र के तहत एक ऐतिहासिक स्थल को किस तरह गिरवा दिया। मुझे नहीं लगता कि इतिहास या आने वाली पीढि़यां ऐसे लोगों को माफ कर देगा। अब अदालती सजा का कोई मतलब नहीं रह गया है।

नीचे वह अंजू गुप्ता का वह बयान है जो उन्होंने विशेष कोर्ट में दिया है

On December 6, 1992, Advani made a spirited speech from Ram Katha Kunj manch (dais), barely 150-200 metres from the disputed site which charged the people. He repeatedly said that the temple would be constructed at the same site.


When the structure was being demolished, the leaders on the dais looked happy. They hugged each other, sweets were being distributed and there was an atmosphere of celebration while they were provoking 'kar sevaks' to demolish the structure.

Uma Bharti and Sadhvi Rithambhara also hugged each other and congratulated Advani and Joshi. None of the leaders present at the spot made any effort to stop the demolition.

Advani and other leaders had reached Ayodhya on December 5 night. The next morning they went to Ram Katha Kunj, a single-storeyed building, whose roof was being used as a dais by the leaders to address 'kar sevaks'.

When Advani and Joshi reached the place, Katiyar was already making a speech in which he sarcastically said, Even a bird cannot flap its wings here.

Joshi told the gathering that the temple would be constructed at the same site where the mosque existed.

When I went to bring Advani's fleet of vehicles parked near the control room, for the first time I saw people scaling the walls of the disputed structure between 11:50 AM and 12 noon.

I saw some people carrying equipment used to demolish a building like iron rods and ploughs. I immediately tried to contact the Ayodhya Police Control Room on witnessing the demolition activity at the spot.
Around 12:10 PM, I gave my location to the Control Room and requested for force, but got no positive response. I again contacted the Control Room at 12:31 PM and made repeated requests.

When I came back to Ram Katha Kunj, I saw that people had already climbed the structure and were destroying it continuously. I saw that there was an atmosphere of excitement on the dais where the leaders were present.

On the basis of wireless information, I informed Advani that some people have entered the disputed structure and were demolishing it.
I told him that people were falling from the domes of the structure and were getting injured on which Advani expressed concern and expressed his willingness to go to the site. But, I advised him against this.

After consultation with senior officials, BJP leader was told that it was not desirable for him to go as if there was any mishap involving him, it may make the situation go out of control.

Advani then sent Bharti there but she came back after some time.
while the BJP and Sangh leaders continued to provoke, the people razed the structure to the ground. The first dome was demolished between 1:45 PM and 2 PM and the third and the last one came down at 4:30 PM.
Advani asked me to arrange a telephonic talk with Chief Minister Kalyan Singh and the District Magistrate and SSP of Faizabad.

I told him that I am not in a position to do so. However, the DM and SSP came to Ram Katha Kunj office after messages were sent to them and they had a closed-door meeting with Adavni and others.
I came to know that Advani later had a telephonic conversation with the Chief Minister.

Then DGP S. C. Dixit, who was also present on the dais, complimented and congratulated the security personnel on duty.
Dixit told them that their names will be written in golden letters in the pages of history for their cooperation and not taking any action. Religious hymns were sung all through the day and Acharya Dharmendra said this would erase the blot.

Around 2.30 pm on that day I saw smoke emanating from the surrounding localities indicating some arson. Bharti then said from the dais that Muslims themselves were putting their houses on fire. As the demolition continued Advani talked to Uttar Pradesh Chief Minister.
He also had a closed door meeting with the district magistrate and SSP after the first dome was demolished.

Adequate security arrangements were not made at the complex according to the threat perception as a result people were able to scale the structure within minutes after breaking the security cordon.

Even before December 6, I saw that administration's writ was very weak and the police vehicles were allowed only after responding to Jai Shri Ram slogans being raised in a militant manner.
Even after the demolition the leaders appealed karsewaks not to leave the place.

The leaders were repeatedly asking the people not to leave the place and said that the work was still incomplete.
Immediately after the demolition media persons were attacked and I rescued two photographers.

(Anju Gupta, a 1990-batch IPS officer, said in her two-hour-long deposition before Chief Judicial Magistrate Gulab Singh in the court. Gupta, who was the personal security officer of Advani in Ayodhya on the fateful day on December 6, 1992, appeared as a prosecution witness in the Special CBI Court in the case in which he and BJP leader Murli Manohar Joshi, Uma Bharti and other sangh parivar leaders have been accused of inciting violence that led to the demolition.
Now posted with the Research and Analysis Wing (RAW) in Delhi, she said Joshi, Bharti, another BJP leader Vinay Katiyar and Sadhvi Rithambhara also made provocative speeches.)

स्टार न्यूज़ एजेंसी
नई दिल्ली. उपराष्ट्रपति एम. हामिद अंसारी ने महावीर जयंती के पावन अवसर पर देशवासियों को बधाई दी है। अपने संदेश में उन्होंने कहा कि भगवान महावीर ने अपने आध्यात्मिक जीवन और शिक्षाओं से मानव को सदाचार, अहिंसा, शान्ति और विश्व बंधुत्व का मार्ग दिखाया। उनकी शिक्षाएं अनंत काल तक प्रासंगिक रहेंगी और हमें घोर निराशा की स्थिति से उबारने में प्रकाश स्तंभ का काम करेंगी। उन्होंने देशवासियों से कहा कि मानव कल्याण के लिए हम भगवान महावीर के उपदेशों के प्रति एक बार फिर स्वयं को समर्पित करें।

अतुल मिश्र
दंगे होने के बहुत साल बाद सरकार पर जब करने लायक कोई काम नहीं होता तो दंगों की याद आती है कि वे ग़लत हुए थे और उनके दोषियों को, जो ज़ाहिर है कि हमारी विरोधी पार्टियों के ही होंगे, जगह-जगह से तलाश कर लाया जाए. इन सबसे हर बार की तरह इस बार भी यही पूछा जाए कि ये दंगे आपने ही करवाए थे? अगर करवाए थे तो जल्दी से बता दीजिए, वरना शोर्ट फॉर्म में बनी किसी जांच एजेंसी से पूछताछ करवाई जायेगी कि पिछले दंगे भी आपने ही किये हैं और शराफत की कमी होने की वजह से अब साफ़ इन्कार कर रहे हैं.

सरकारी जांच एजेंसियां ना जाने किस किस्म की जांचें करती हैं कि उनका निष्कर्ष, जो शायद नींबू निचोड़ने जैसी किसी हिंसात्मक क्रिया की तरह ही निकाला जाता है, लास्ट में यही निकलता है कि बंदा कुछ बोलने को ही तैयार नहीं है और सिर्फ़ " राम-राम-राम-राम " का ही जाप किए जा रहा है, लिहाज़ा जांच-समिति के लोग जब तक इस मन्त्र का कोई तोड़ ना निकाल लें, तब तक जांच का काम स्थगित किया जाता है. सरकारी जांचों का क्या है, कभी भी की जा सकती हैं. जब देखा कि पब्लिक महंगाई से खुद को त्रस्त महसूस करने लगी, उसका और मीडिया का सारा ध्यान उन दंगों की निष्पक्ष जांच की ओ़र लगा दिया, जिनकी कई मर्तबा पहले भी जांच करवाई जा चुकी है.
हम क्या कर रहे हैं, इससे ज़्यादा दंगों के मास्टर माइंड को यह पता होता है कि हम यह क्यों कर रहे हैं और जब ऊपर वाला इसका हिसाब मांगेगा तो हमें क्या कहना है कि क्यों किया? जांच-समितियों का तो उन्हें पता होता है कि वे अगर इसे फाइनल कर देंगी तो उन पर और उनकी सरकार पर वक़्त बे वक़्त करने के लिए कुछ रह ही नहीं जाएगा. इसलिए जांच तो हर हालत में टालनी ही है . किसी भी केस की इतनी गहराई से, जो सागर की गहराई की तरह बहुत गहरी भी हो सकती है, जांच करना कोई मामूली बात नहीं होती है. कई तरह के ऐसे सवालात भी खोजे जाते हैं कि जो उनसे पूछे जा सकें और उनके जवाब आगामी चुनावों में वोट बटोरने के काम आएं.

लगातार सवाल पूछकर किसी भी दंगे के आरोपी मुख्यमंत्री को बावला बनाया जा सकता है कि जब आपके सूबे में दंगे हो रहे थे तो पुलिस कंट्रोल रूम में बैठ कर आपका कोई मंत्री क्या कर रहा था या आप उस वक़्त कहां थे और क्या कर रहे थे और जहां भी थे, वहां क्यों थे और वहां रहने के पीछे आपका मकसद क्या था? बड़े अजीबो-गरीब सवाल होते हैं. सवाल भी अपने इतने अजीब होने पर आश्चर्य करते हैं कि वे आखिर इतने अजीब क्यों हैं कि उनका कोई जवाब ही नहीं होता और अगर होता भी है तो वो सही नहीं होता? गुजरात के दंगों और मोदी के बारे में सोचकर हम अकसर यही सोचते रह जाते हैं.

राजीव जैन
भारत की अर्थव्यवस्था कृषि आधारित है। देश के 43 प्रतिशत लोग कृषि और उससे जुड़ी गतिविधियों में रोजगार पा रहे हैं। कृषि और वानिकी तथा लकड़ी कटाई जैसे संबंधित क्षेत्रों में देश की जनसंख्या के 60 प्रतिशत लोग काम कर रहे हैं। देश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का हिस्सा 19 प्रतिशत के करीब है और कुल निर्यात का 9 प्रतिशत कृषि जनित सामग्री का होता है। भारत की कृषि के अनुकूल जलवायु और प्रचुर प्राकृतिक संपदा कृषि के मोर्चे पर बहुत अच्छा प्रदर्शन करने की पृष्ठभूमि बनाती हैं। आज अनेक कृषि जिन्सों यथा नारियल, आम, केला, दुग्ध और दुग्ध उत्पाद, काजू, दालें, अदरक, हल्दी और काली मिर्च का उत्पादन सबसे अधिक भारत में ही होता है। गेहूं, चावल, चीनी, कपास, फल और सब्जियों के उत्पादन के मामले में भारत का दूसरा नम्बर है। आर्थिक प्रगति और आत्मनिर्भरता के लिये भारत को कृषि उत्पादन की अपनी क्षमता को बढ़ाना होगा। घरेलू खपत की मांग को पूरा करने के लिये भी यह जरूरी है।


देश में कृषि को बढावा देने और कृषक समुदाय को निरंतर कृषि उपज का लाभकारी मूल्य दिलाने के उद्देश्य से कृषि निर्यात क्षेत्रों की परिकल्पना सामने आई। राज्य सरकार की विभिन्न एजेंसियों, सभी कृषि विश्व विद्यालयों और केन्द्रीय सरकार की सभी संस्थाओं एवं एजेंसियों द्वारा प्रदान की जाने वाली सेवाओं के व्यापक पैकेज के आधार पर इन कृषि निर्यात क्षेत्रों को चिन्हित किया जाना है। इन क्षेत्रों में ये सभी सेवायें सघन रूप से प्रदान की जाएंगी। कृषि निर्यात को बढावा देने के लिये भरोसे वाली कंपनियों को पहले से ही चिन्हित कृषि निर्यात क्षेत्रों अथवा ऐसे क्षेत्रों के एक हिस्से को लेने या नए क्षेत्र के प्रयोजन के लिये प्रोत्साहित किया जाता है। सेवाओं का प्रबंधन और समन्वयन राज्य सरकारकार्पोरेट क्षेत्र द्वारा किया जाएगा और इनमें फसल के पूर्व और बाद की उपचार और प्रचालन, पौध संरक्षण, प्रसंस्करण, पैकेजिंग, भंडारण और संबंधित अनुसंधान एवं विकास आदि जैसे कार्य शामिल होंगे। कृषि व्यापार संवर्धन की सरकारी संस्था कृषि एवं प्रसंस्कृत खाद्योत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण का केन्द्र सरकार की ओर से इन प्रयासों के समन्वयन के लिये नामांकित किया गया है।

कृषि निर्यात क्षेत्र का समूचा प्रयास संभावित उत्पादों और उन उत्पादों से जुड़े भौगोलिक क्षेत्रों की पहचान तथा उत्पादन से लेकर बाजार तक पहुंचने की पूरी प्रक्रिया को अपनाने के संकूल (कलस्टर) दृष्टिकोण पर केन्द्रित है। इसके प्रत्येक चरण पर आनेवाली कठिनाइयों और समस्याओं की पहचान कर उनकी सूची तैयार करने की भी आवश्यकता होगी । ये कठिनाइयां या तो प्रक्रिया संबंधी हो सकती हैं या फिर गुणवत्ता के किसी विशेष मानक से जुड़ी हो सकती हैं। कृषि निर्यात क्षेत्र से बाजारोन्मुखी नजरिये से पृष्ठभूमि संपर्कों को सुदृढ़ बनाने, विदेशी और स्वदेशी बाजारों में उत्पाद की स्वीकार्यता और स्पर्धात्मकता बढ़ाने , मितव्ययिता के जरिये उत्पादन लागत में कमी लाने, कृषि उपज का बेहतर मूल्य दिलाने, उत्पाद गुणवत्ता एवं पैकेजिंग में सुधार लाने, व्यापार संबधित अनुसंधान एवं विकास को बढावा देने और रोजगार के अवसरों में वृध्दि में लाभ हो सकता है।


किसी राज्य की परियोजना को समिति की मंजूरी मिलने के बाद राज्य सरकार और एपेडा के बीच एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किये जाते हैं, ताकि परियोजना के प्रत्येक चरण पर आवश्यक सहायता यथासंभव प्रदान की जा सके। राज्य सरकार के दायित्वों का उल्लेख समझौते में स्पष्ट कर दिया जाता है। अवधारणा के उद्देश्यों को हासिल करने के लिये कृषि निर्यात क्षेत्रों को समर्थ और परियोजनाओं को व्यावहारिक रूप में संभव बनाने के लिये यह आवश्यक है कि केन्द्र और राज्य सरकारें एक दूसरे के साथ मिलकर काम करें। इसके लिये राज्यों को स्वयं आगे आकर कुछ कदम उठाने होंगे। उन्हें समूची गतिविधि के कार्यान्वयन और समन्वयन के लिये उत्तरदायी राज्य सरकार की संस्थाओंएजेंसी को चिन्हित करना होगा, कृषि निर्यात के क्षेत्रीय दृष्टिकोण का संवर्धन करने वाले कार्यालयों में तमाम समस्याओं के निराकरण हेतु एकल खिड़की प्रकोष्ठ कायम करना होगा, बुनियादी सुविधाओं, बिजली आदि की पर्याप्त व्यवस्था करनी होगी और निर्यात क्षेत्रों में ऐसे विस्तार अधिकारियों की पुनर्बहाली करनी होगी, जो नियमित रूप से एपेडा के साथ संवाद बनाए रखें और एक निश्चित कार्यक्रम के तहत नियमित रूप से प्रशिक्षण गतिविधियां चला सकें।



चाय, कॉफी,मसाले और कपास ऐसी अन्य फसलें हैं, जिनमें भारत भौगोलिक और संसाधन के नजरिये से लाभ की स्थिति में है। कपास के उत्पादन के मामले में भारत का विश्व में दूसरा स्थान है। इस फसल पर यदि ध्यान दिया जाए तो वर्ष 2009-10 में इसके उत्पादन में 10 प्रतिशत यानि 3 करोड़ 20 लाख गांठों (बेल्स) (एक गांठ 170 कि.ग्रा. के बराबर होता है ) की वृध्दि हो सकती है, इसके लिये जरूरी शर्त यह है कि समर्थन खरीद मूल्य अधिक हो और बुवाई के लिये अधिक उपज वाले बीटी बीज का उपयोग किया जाए। कॉफी बोर्ड द्वारा किये गए आकलन के अनुसार वर्ष 2009-10 में भारत का काफी उत्पादन 3.1 लाख टन के आसपास रहने की संभावना है, जो 2008-09 की तुलना में 4.4 प्रतिशत अधिक है। यदि अनुमानों के अनुसार वास्तविक रूप से उत्पादन होता है तो वर्ष 2009-10 में भारत विश्व के शीर्ष 10 कॉफी उत्पादक देशों में शामिल हो जाएगा।



एक और क्षेत्र, जिसके विकास में एईजेड उत्प्रेरक का काम कर सकता है, वह है खाद्य प्रसंस्करण उद्योग। सकल घरेलू उत्पाद में 9 प्रतिशत का योगदान देने वाला खाद्य प्रसंस्करण उद्योग वर्तमान में 13.5 प्रतिशत की दर से विकास कर रहा है, जबकि वर्ष 2003-04 में यह क्षेत्र केवल 6.5 प्रतिशत की दर से वृध्दि कर रहा था। भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास में यह क्षेत्र महत्वपूर्ण भूमिका निभाने जा रहा है। इस क्षेत्र में रोजगार के भारी अवसर हैं और यह सामान्य वस्तुओं और सेवाओं का बेहतर मूल्य दिलाने में मदद करता है। एपेडा और निर्यात निरीक्षण परिषद (ईआईसी) कृषि निर्यात के संवर्धन हेतु गुणवत्ता विकास की अवस्थापना विकास योजना के जरिये आवश्यक तकनीक जानकारी और वितीय सहायता प्रदान कर रहे हैं। फूलों के निर्यात के विस्तार

के लिये बाजार विकास और अनुसंधान एवं विकास की योजनायें भी प्रयास कर रही हैं। इन उपायों के फलस्वरूप वर्ष 2008-09 के दौरान (फरवरी 2009 तक) फूलों का निर्यात वर्ष 2007-08 के 48.75 करोड़ रूपये से बढक़र 65.63 करोड़ रूपये का हो गया।


केन्द्र और राज्यों द्वारा मिलकर कृषि निर्यात को बढावा देने के प्रयास, वैश्विक मंदी के बावजूद अच्छे नतीजे दे रहे हैं। देश के कृषि उत्पादों का निर्यात, मूल्यानुसार, पिछले तीन वर्षों के दौरान करीब 40 प्रतिशत से बढ़कर 8 खरब 6 अरब रूपये तक पहुंच गया है। खाद्यान्न, खली, फलों और सब्जियों की विदेशों में काफी मांग है। अगले पांच वर्षों में भारत के कृषि निर्यात में दोगुनी वृध्दि होने की संभावना है। एपेडा के अनुसार 2014 तक कृषि निर्यात 9 अरब अमेरिकी डालर से बढ़कर 18 अरब अमेरिकी डालर तक पहुंच जाने की आशा है। वर्तमान में देश के कुल कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों के निर्यात का 70 प्रतिशत पश्चिमी एशिया, एशिया अफ्रीका और दक्षिणी अमेरिका के विकासशील देशों को होता है। जनसंख्या और संसाधनों के बीच बढ़ते असंतुलन और खाद्य एवं आजीविका की बढ़ती आवश्यकता को देखते हुए कृषि निर्यात क्षेत्रों की स्थापना की पहल एक बुध्दिमानी भरा सामयिक निवेश है।

वीना एन. माधवन
शायद हम में से ज्यादातर ने हाल ही में समाचारपत्रों या पत्रिकाओं में राष्ट्रीय जनसंख्या पंजीयक (एनपीआर) के बारे में पढ़ा होगा, लेकिन यह सारी चहल-पहल आखिर है क्या ? एनपीआर क्या है ? इसका उद्देश्य क्या है ? और इन सबसे बढ़कर, इससे आम आदमी को क्या फायदा होने जा रहा है ?

एनपीआर के बारे में जानने के लिए, पहले जनगणना के बारे में कुछ जान लेना आवश्यक है। अब, भारत के लिए जनगणना कोई नई चीज़ नहीं है। यह अंग्रेजाें के राज से ही की जाती रही है। भारत में पहली जनगणना 1872 में हुई थी। वर्ष 1881 से, जनगणना बिना किसी रुकावट के हर दस साल में की जाती रही है। जनगणना एक प्रशासनिक अभ्यास है जो भारत सरकार करवाती है। इसमें जनांकिकी, सामाजिक -सांस्कृतिक और आर्थिक विशेषताओं जैसे अनेक कारकों के संबंध में पूरी आबादी के बारे में सूचना एकत्र की जाती है।

वर्ष 2011 में भारत की 15वीं तथा स्वतंत्रता के बाद यह सातवीं जनगणना होगी। एनपीआर की तैयारी वर्ष 2011 की जनगणना का मील का पत्थर है। जनगणना दो चरणों में की जाएगी। पहला चरण अप्रैल से सितंबर 2010 के दौरान होगा जिसमें घरों का सूचीकरण, घरों की आबादी और एनपीआर के बारे में डाटा एकत्र किया जाएगा। इस चरण में एनपीआर कार्यक्रम के बारे में प्रचार करना भी शामिल है जो दो भाषाओं- अंग्रेजी और हर राज्य#संघीय क्षेत्र की राजभाषा में तैयार किया जाएगा। पहला चरण पहली अप्रैल, 2010 को पश्चिम बंगाल, असम, गोवा और मेघालय राज्यों तथा संघीय क्षेत्र अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह में शुरू होगा। दूसरे चरण में आबादी की प्रगणना करना शामिल है।

देश के साधारण निवासियों का राष्ट्रीय जनसंख्या पंजीयक बनाना एक महत्वाकांक्षी परियोजना है। इसमें देश में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति के बारे में विशिष्ट सूचना एकत्र की जाएगी। इसमें अनुमानित एक अरब 20 करोड़ की आबादी को शामिल किया जाएगा तथा इस स्कीम की लागत कुल 3539.24 करोड़ रुपए होगी। भारत में पहली बार एनपीआर तैयार किया जा रहा है। भारत का पंजीयक यह डाटाबेस तैयार करेगा।

इस परिस्थिति में, इस बात पर बल देना महत्वपूर्ण हो जाता है कि यद्यपि इन दोनों अभ्यासों का मक़सद सूचना का संग्रह है मगर जनगणना और एनपीआर अलग-अलग बातें हैं। जनगणना जनांकिकी, साक्षरता एवं शिक्षा, आवास एवं घरेलू सुख-सुविधाएं, आर्थिक गतिविधि, शहरीकरण, प्रजनन शक्ति, मृत्यु संख्या, भाषा, धर्म और प्रवास के बारे में डाटा का सबसे बड़ा स्रोत है। यह केंद्र एवं राज्यों की नीतियों के लिए योजना बनाने तथा उनके कार्यान्वयन के लिए प्राथमिक डाटा के रूप में काम आता है। यह संसदीय, विधानसभा और स्थानीय निकाय के चुनावों के लिए निर्वाचन क्षेत्रों के आरक्षण के लिए भी इस्तेमाल की जाती है।

दूसरी तरफ एनपीआर में, देश के लिए व्यापक पहचान का डाटाबेस बनाना शामिल है। इससे आयोजना, सरकारी स्कीमों/कार्यक्रमों का बेहतर लक्ष्य निर्धारित करना तथा देश की सुरक्षा को मजबूत करना भी सुगम होगा। एक अन्य पहलू जो एनपीआर को जनगणना से अलग करता है, वह यह है कि एनपीआर एक सतत प्रक्रिया है। जनगणना में, संबंधित अधिकारियों का कर्तव्य सीमित अवधि के लिए होता है तथा काम समाप्त होने के बाद उनकी सेवाएं अनावश्यक हो जाती हैं, जबकि एनपीआर के मामले में संबंधित अधिकारियों और तहसीलदार एवं ग्रामीण अधिकारियों जैसे उनके मातहत अधिकारियों की भूमिका स्थायी होती है।

एनपीआर में व्यक्ति का नाम, पिता का नाम, मां का नाम, पति#पत्नी का नाम, लिंग, जन्म तिथि, वर्तमान वैवाहिक स्थिति, शिक्षा, राष्ट्रीयता (घोषित), व्यवसाय, साधारण निवास के वर्तमान पते और स्थायी निवास के पते जैसी सूचना की मद शामिल होंगी। इस डाटाबेस में 15 वर्ष से अधिक आयु के व्यक्तियों के फोटो और फिंगर बायोमेट्री (उंगलियों के निशान) भी शामिल होंगे। साधारण निवासियों के प्रमाणीकरण के लिए मसौदा डाटाबेस को ग्राम सभा या स्थानीय निकायों के समक्ष रखा जाएगा।

आम आवासियों के स्थानीय रजिस्टर का मसौदा ग्रामीण इलाके में गांवों में और शहरी इलाकों में वार्डों में रखे जाएंगे ताकि नाम के हिज्जों, पत्रों जन्म, तिथियों आदि गलतियों पर शिकायतें प्राप्त की जा सकें। इसके अलावा दर्ज व्यक्ति की रिहायश के मामले में भी शिकायतें प्राप्त की जा सकें। इस मसौदे को आम आवासियों की तस्दीक के लिए ग्राम सभा या स्थानीय निकायों के सामने पेश किया जाएगा।

डाटाबेस पूरा होने के बाद, अगला काम भारतीय अनन्य पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) के जरिए हर व्यक्ति को अनन्य पहचान संख्या (यूआईडी) तथा पहचान पत्र देना होगा। बाद में इस यूआईडी नंबर में एनपीआर डाटाबेस जोड़ा जाएगा। पहचान पत्र स्मार्ट कार्ड होगा जिस पर 16 अंक की अनन्य संख्या होगी तथा उसमें शैक्षिक योग्यताएं, स्थान और जन्म तिथि, फोटो और उंगलियों के निशान भी शामिल होंगे। फिलहाल, मतदाता पहचान पत्र या आय कर दाताओं के लिए स्थायी लेखा संख्या (पैन) जैसे सरकार की तरफ से जारी विभिन्न कार्ड एक दूसरे के सब-सेट्स के रूप में काम करते हैं। इन सभी को अनन्य बहुद्देश्यीय पहचान कार्ड में एकीकृत किया जा सकता है।

समूचे देश में एनपीआर का कार्यान्वयन तटीय एनपीआर परियोजना नामक प्रायोगिक परियोजना से हासिल अनुभव के आधार पर समूचे देश में एनपीआर का कार्यान्वयन किया जाएगा। यह परियोजना 9 राज्यों और 4 संघीय क्षेत्रों के 3,000 से अधिक गांवों में चलायी गयी है। मुंबई आतंकी हमलों के बाद तटीय सुरक्षा बढ़ाने के मद्देनज़र तटीय एनपीआर परियोजना कार्यान्वित करने का निर्णय लिया गया था क्योंकि आंतकवादी समुद्र के रास्ते मुंबई में घुसे थे।

एनपीआर से लोगों को क्या फायदा होगा ?
भारत में, मतदाता पहचान पत्र, ड्राइविंग लाइसेंस, पासपोर्ट, पैन कार्ड जैसे विभिन्न डाटाबेस हैं लेकिन इन सबकी सीमित पहुंच है। ऐसा कोई मानक डाटाबेस नहीं है जिसमें पूरी आबादी शामिल हो। एनपीआर मानक डाटाबेस उपलब्ध कराएगा तथा प्रत्येक व्यक्ति को अनन्य पहचान संख्या का आवंटन सुगम कराएगा। यह संख्या व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक स्थायी पहचान प्रदान करने जैसी ही होगी।

एनपीआर का महत्व इस तथ्य में निहित है कि देश में समग्र रूप से विश्वसनीय पहचान प्रणाली की आवश्यकता बढ़ती जा रही है। गैरकानूनी प्रवास पर लगाम कसने तथा आंतरिक सुरक्षा के मसले से निपटने के लिए भी देश के हर क्षेत्र और हर कोने के लोगों तक पहुंच बनाने की ज़रूरत जैसे विभिन्न कारकों की वजह से यह सब और भी महत्वपूर्ण हो गया है।

अनन्य पहचान संख्या से आम आदमी को कई तरह से फायदा होगा। यह संख्या उपलब्ध होने पर बैंक खाता खोलने जैसी विविध सरकारी या निजी सेवाएं हासिल करने के लिए व्यक्ति को पहचान के प्रमाण के रूप में एक से अधिक दस्तावेज़ प्रस्तुत करने की ज़रूरत नहीं होगी। यह व्यक्ति के आसान सत्यापन में भी मदद करेगी। बेहद गरीब लोगों के लिए सरकार अनेक कार्यक्रम और योजनाएं चला रही है लेकिन अनेक बार वे लक्षित आबादी तक नहीं पहुंच पाते। इस प्रकार यह पहचान डाटाबेस बनने से सरकारी और गैर सरकारी एजेंसियों की विविध लाभार्थी केंद्रित स्कीमों का लक्ष्य बढ़ाने में मदद मिलेगी।

एनपीआर देश की आंतरिक सुरक्षा बढ़ाने की ज़रूरत भी पूरा करेगा। सबको बहुउद्देश्यीय पहचान पत्र उपलब्ध होने से आतंकवादियों पर भी नज़र रखने में मदद मिलेगी जो अकसर आम आदमियों में घुलमिल जाते हैं। इसके अतिरिक्त, इससे कर संग्रह बढ़ाने तथा शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा जैसे क्षेत्रों में कल्याण योजनाओं के बेहतर लक्ष्य निर्धारण के अलावा गैरकानूनी प्रवासियों की पहचान करने में भी मदद मिलेगी।

भारत अनुमानित 1 अरब 20 करोड़ की आबादी को अनन्य बायोमीट्रिक कार्ड उपलब्ध कराने के वायदे के साथ सबसे बड़ा डाटाबेस बनाने की प्रक्रिया शुरू करने के लिए पूरी तरह तैयार है। इस तरह अनन्य पहचान उपलब्ध कराने का रास्ता निर्धारित कर दिया गया है। यह अभ्यास इतना विशाल है कि इस परियोजना को सफल बनाने के लिए लोगों के उत्साहपूर्ण समर्थन एवं सहयोग की आवश्यकता है जो सबके लिए फायदेमंद होगी।

स्टार न्यूज़ एजेंसी
नई दिल्ली. गर्भवती महिलाएं यदि सीट बेल्ट बांधकर कार में चलती हैं तो इससे न सिर्फ उन्हें दुर्घटना से बचाव होता है बल्कि अपने भ्रूण का बचाव भी संभव होता है।

अमेरिकन जर्नल ऑफ ऑब्सिट्रिक्स एंड गाइनकालॉजी के टेक्सास के अध्ययन का हवाला देते हुए हार्ट केयर फाउंडेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. के के अग्रवाल ने बताया कि आधे से अधिक भ्रूण मोटर वाहन टकराव में गिर जाते हैं जिनको गर्भवती महिलाएं उचित उपायों को अपनाकर इन्हें बचा सकती हैं।

कई बार भ्रूण बच भी जाता है तो वह दुर्घटना की वजह से समय से पहले पैदा हो जाता है जो कम वज़न का होता है और उसमें श्वास सम्बंध समस्याएं और लम्बे समय तक शारीरिक व न्यूरोलाजिकल समस्याओं के होने का खतरा होता है। यूनिवर्सिटी ऑफ मेशिगन के शोधकर्ताओं के मुताबिक हादसे के बाद बचे हुए भ्रूण का खतरा उस पर निर्भर करता है कि मां किस तरह से जख्मी हुई थीं। अगर मां सफर के दौरान सीट बेल्ट बांधकर चलाए तो भ्रूण के बचने की संभावना 4.5 गुना बढ़ जाती है।
इस अध्ययन में पाया गया कि :

  • गर्भवती महिलाएं अगर बेल्ट बांधकर कार में सफर करती हैं तो कार हादसों से भ्रूण के जख्मी होने और मौत से 84 फीसदी बचाव संभव होता है।

  • जो महिलाएं बेल्ट बांधकर कार में सफर नहीं करती हैं उनके भ्रूण के जख्मी होने या फिर मौत होने का खतरा 62 फीसदी होता है।

  • 79 फीसदी गर्भवती महिलाएं जिन्होंने एयर बैग या बिना इसके तीन प्वाइंट बेल्ट का इस्तेमाल किया, उनके भ्रूण के गिरने का खतरा कम होता है।

  • एयर बैग से भ्रूण में कोई उल्टा असर नहीं होता है।

  • गर्भवती महिलाओं के लिए जो लैप बेल्ट के लिए पेल्विस के नीचे पहनने की जरूरत होती है और अगर वहां पर किसी तरह का धक्का लगता है तो बोनी पेल्विस से सीट बेल्ट के जरिए इससे बचाव में आसानी होती है साथ ही यूटेरस या कमर के करीब समस्या नहीं होती।

  • कंधे का बेल्ट को सामान्य तौर पर साइड की ओर से लगाना चाहिए, जो महिलाओं के स्तनों के बीच से होकर कंधे तक पहुंचे।

फ़िरदौस ख़ान
नई दिल्ली. भारतीय जनता पार्टी के वयोवृद्ध नेता लालकृष्ण आडवाणी की मुश्किलें लगातार बढ़ती जा रही हैं. पहले उनका प्रधानमंत्री सपना चकनाचूर हो गया. फिर लोकसभा में विपक्ष के नेता का ओहदा भी उनसे छिन गया. अब बाबरी मस्जिद की शहादत के मामले में भी आ रही शहादतें सियासी हाशिये पर पड़े आडवाणी के लिए परेशानी का सबब बनती जा रही हैं.

बाबरी मस्जिद शहादत के मामले में आडवाणी की सुरक्षा अधिकारी रह चुकी आईपीएस अधिकारी अंजू गुप्ता ने आज रायबरेली कोर्ट के सामने दी गई अपनी गवाही में कहा है कि वह अपने पिछले बयान पर ही अडिग रहेंगी, लेकिन जब आडवाणी के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि बाबरी मस्जिद तोड़ने के लिए आडवाणी ने ही भीड़ को उकसाया था. साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि आडवाणी के भाषण के बाद हालात और ज़्यादा ख़राब हो गए थे. उन्होंने यह भी कहा कि जब पहला, दूसरा और तीसरा गुंबज गिरा तो उस वक़्त उमा भारती और साध्वी ऋतंभरा एक दूसरे के गले लगी थीं. इन लोगों ने आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, और एस.सी.दीक्षित को भी गले लगाकर बधाई दी थी. क़ाबिले-गौर है कि अंजू गुप्ता बाबरी मस्जिद शहादत के दौरान आडवाणी की भूमिका की गवाह हैं. साल 2005 में अंजू गुप्ता के बयान के बाद आडवाणी के ख़िलाफ़ मामला दर्ज किया गया था. हालांकि आडवाणी बाबरी मस्जिद गिराने के आरोप से मुक्त हो गए हैं, लेकिन 2005 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने उनके ख़िलाफ़ लोगों को उकसाने का मामला दर्ज करने का आदेश दिया था. आडवाणी के अलावा आडवाणी बाबरी मस्जिद शहादत मामले में भाजपा नेता मुरली मनोहर जोशी, विनय कटियार, अशोक सिंघल, उमा भारती, गिरिराज किशोर और साध्वी ऋतंभरा मुख्य आरोपी हैं.

गौरतलब है कि सांप्रदायिकता की राजनीति करने वाली भाजपा बाबरी मस्जिद को मुद्दा बनाकर केंद्र में सत्ता तक पहुंची, लेकिन जिस मुद्दे को आधार बनाकर पार्टी ने केंद्र में शासन किया, बाद में वही मुद्दा उसके पतन का कारण बना. मतदाता जागरूक हुए और उन्होंने इस बात को समझा कि उनकी बुनियादी ज़रूरतें क्या हैं और सांप्रदायिकता फैलाने वाली पार्टी उन्हें क्या दे सकती है और क्या नहीं.

क़ाबिले-गौर है कि साल 1528 अयोध्‍या में बादशाह बाबर ने इस मस्जिद को बनवाया था. बाबर के नाम पर ही इस मस्जिद का नाम बाबरी मस्जिद पड़ा.

कुछ हिन्दुओं का मानना था कि इस जगह राम का जन्म हुआ था. मस्जिद के निर्माण के क़रीब तीन सौ साल बाद 1853 में यहां सांप्रदायिक दंगा हुआ. यह विवाद हो हल करने के लिए तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत ने 1859 में मस्जिद के पास बाड़ लगा दी और मुसलमानों से मस्जिद के अन्दर नमाज़ पढने को कहा, जबकि बाहरी हिस्से में हिन्दुओं से पूजा-पाठ करने को कहा गया. साल 1947 में देश के बंटवारे के वक़्त माहौल काफ़ी खराब हो गया था. साल 1949 में अचानक मस्जिद में कथित तौर पर राम की मूर्तियां कथित तौर पाई गईं. माना जाता है कि कुछ हिन्दुओं ने ये मूर्तियां वहां रखवाईं थीं, क्योंकि अगर मूर्तियाँ वहां होती तो वो 1859 में जब ब्रिटिश हुकूमत ने मामले को हल करने की पहल की थी, तब भी नज़र आतीं. मुसलमानों ने इस बात का विरोध किया. उनका कहना था कि हिन्दू पहले से ही मस्जिद के बाहरी हिस्से में पूजा-पाठ करते आ रहे हैं और अब वो साजिश रचकर उनकी इबादतगाह पर क़ब्ज़ा करना चाहते हैं. विरोध बढ़ा और नतीजतन मामला अदालत में चला गया. इसके बाद सरकार ने बाबरी मस्जिद को विवादित स्थल घोषित करते हुए इस पर ताला लगा दिया.

इसके बाद हिन्दुत्ववादी संगठनों ने इस मुद्दे को लेकर खूब सियासी रोटियां सेंकी. सबसे पहले 1984 में विश्व हिंदू परिषद ने बाबरी मस्जिद की जगह पर राम मंदिर का निर्माण करने के लिए एक समिति का गठन किया. बाद में भाजपा के नेता लालकृष्ण आडवाणी को इसका नेतृत्व सौंप दिया गया. इस मुद्दे के सहारे आडवाणी ने अपने सियासी हित साधने शुरू कर दिए.25 सितंबर 1992 को सुबह सोमनाथ के मंदिर से अपनी रथ यात्रा शुरू की, जो 6 दिसंबर को बाबरी मस्जिद को तोड़ने के साथ ही ख़त्म हुई. इस दिन भाजपा, विश्व हिंदू परिषद और शिव सेना के कार्यकर्ताओं ने देश की एक ऐतिहासिक इबादतगाह को शहीद कर दिया था. इसके बाद जिसके बाद पूरे देश में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे और ईन दंगों ने दो हज़ार से भी ज़्यादा लोगों की जान ले ली.

इतना कुछ होने के बाद भी हिन्दुत्ववादी संगठनों ने अपना रवैया नहीं बदला. साल 2001 में बाबरी मस्जिद विध्वंस की बरसी पर पूरे देश में तनाव बढ़ गया और जिसके बाद विश्व हिंदू परिषद ने विवादित स्थल पर राम मंदिर निर्माण करने के अपना संकल्प दोहराया. हालांकि फ़रवरी 2002 में भाजपा ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए अपने घोषणा-पत्र में राम मंदिर निर्माण के मुद्दे को शामिल करने से इनकार कर दिया. विश्व हिंदू परिषद ने 15 मार्च से राम मंदिर निर्माण कार्य शुरु करने की घोषणा कर दी. सैकड़ों कार्यकर्ता अयोध्या में एकत्रित हुए. अयोध्या से लौट रहे कार्यकर्ता जिस रेलगाड़ी में यात्रा कर रहे थे उसमें आग लगने से 58 लोग मारे गए. इसके बाद गुजरात में हिंसा भड़क उठी और एक विशेष समुदाय के लोगों को चुन-चुनकर मारा गया. इस मामले में गुजरात की भाजपा सरकार और पुलिस पर सीधे आरोप लगे हैं और मामला अदालत में है.

इसके बाद 13 मार्च, 2002 सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में अयोध्या में यथास्थिति बरक़रार रखने का आदेश देते हुए कहा कि किसी को भी सरकार द्वारा अधिग्रहीत ज़मीन पर शिलापूजन की अनुमति नहीं दी जाएगी. दो दिन बाद 15 मार्च, 2002 को विश्व हिंदू परिषद और केंद्र सरकार के बीच इस बात को लेकर समझौता हुआ कि विहिप के नेता सरकार को मंदिर परिसर से बाहर शिलाएं सौंपेंगे. रामजन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष महंत परमहंस रामचंद्र दास और विहिप के कार्यकारी अध्यक्ष अशोक सिंघल के नेतृत्व में लगभग आठ सौ कार्यकर्ताओं ने सरकारी अधिकारी को अखाड़े में शिलाएं सौंपीं. 22 जून, 2002 विश्व हिंदू परिषद ने मंदिर निर्माण के लिए विवादित भूमि के हस्तांतरण की मांग उठाकर इसे हवा दी. जनवरी 2003 में रेडियो तरंगों के ज़रिए ये पता लगाने की कोशिश की गई कि क्या विवादित राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद परिसर के नीचे किसी प्राचीन इमारत के अवशेष दबे हैं, कोई पक्का निष्कर्ष नहीं निकला. हालांकि इस मामले में कई तरह की अफवाहें फैलाई गईं. मार्च 2003 में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से विवादित स्थल पर पूजापाठ की अनुमति देने का अनुरोध किया जिसे कोर्ट ने ठुकरा दिया. अप्रैल में इलाहाबाद हाइकोर्ट के निर्देश पर पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग ने विवादित स्थल की खुदाई शुरू की, जून महीने तक खुदाई चलने के बाद आई रिपोर्ट में कोई नतीजा नहीं निकला. मई में सीबीआई ने 1992 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के मामले में उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी सहित आठ लोगों के ख़िलाफ़ पूरक आरोप-पत्र दाखिल किए. जून कांची पीठ के शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती ने मामले को सुलझाने के लिए मध्यस्थता की और उम्मीद जताई कि जुलाई तक अयोध्या मुद्दे का हल निकाल लिया जाएगा, लेकिन नतीजा वही 'ढाक के तीन पात' रहा. अगस्त में भाजपा नेता और उप प्रधानमंत्री ने विहिप के इस अनुरोध को ठुकराया कि राम मंदिर बनाने के लिए विशेष विधेयक लाया जाए. इसके एक साल बाद अप्रैल 2004 में आडवाणी ने अयोध्या में अस्थायी राममंदिर में पूजा की और मंदिर निर्माण के अपने संकल्प को दोहराया. फिर जनवरी 2005 में आडवाणी को बाबरी मस्जिद की शहादत में उनकी भूमिका के मामले में अदालत में तलब किया गया. जुलाई में पांच हथियारबंद लोगों ने विवादित परिसर पर हमला किया. जवाबी कार्रवाई में पांचों हमलावरों समेत छह लोग मारे गए. इसके कुछ दिन बाद 28 जुलाई को आडवाणी बाबरी मस्जिद की शहादत के मामले में रायबरेली की अदालत में पेश हुए. अदालत में लालकृष्ण आडवाणी के ख़िलाफ़ आरोप तय किए. इसके एक साल बाद 20 अप्रैल 2006 में केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने लिब्रहान आयोग के समक्ष लिखित बयान में आरोप लगाया कि बाबरी मस्जिद को ढहाया जाना सुनियोजित षड्यंत्र का हिस्सा था और इसमें भाजपा, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, बजरंग दल और शिव सेना के शामिल थे. जुलाई में सरकार ने अयोध्या में विवादित स्थल पर बने अस्थाई राम मंदिर की सुरक्षा के लिए बुलेटप्रूफ़ कांच का घेरा बनाए जाने का प्रस्ताव रखा. 30 जून को बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के मामले की जांच के लिए गठित लिब्रहान आयोग ने 17 वर्षों के बाद अपनी रिपोर्ट प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सौंपी. 23 नवंबर 2009 को एक अंग्रेजी अख़बार में आयोग की रिपोर्ट लीक होने की ख़बर प्रकाशित हुई जिस पर संसद में खूब हंगामा हुआ. हालांकि बाबरी मस्जिद की शहादत को लेकर केंद्र सरकार की भूमिका पर भी सवाल उठ चुके हैं.


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