अतुल मिश्र
दंगे होने के बहुत साल बाद सरकार पर जब करने लायक कोई काम नहीं होता तो दंगों की याद आती है कि वे ग़लत हुए थे और उनके दोषियों को, जो ज़ाहिर है कि हमारी विरोधी पार्टियों के ही होंगे, जगह-जगह से तलाश कर लाया जाए. इन सबसे हर बार की तरह इस बार भी यही पूछा जाए कि ये दंगे आपने ही करवाए थे? अगर करवाए थे तो जल्दी से बता दीजिए, वरना शोर्ट फॉर्म में बनी किसी जांच एजेंसी से पूछताछ करवाई जायेगी कि पिछले दंगे भी आपने ही किये हैं और शराफत की कमी होने की वजह से अब साफ़ इन्कार कर रहे हैं.
सरकारी जांच एजेंसियां ना जाने किस किस्म की जांचें करती हैं कि उनका निष्कर्ष, जो शायद नींबू निचोड़ने जैसी किसी हिंसात्मक क्रिया की तरह ही निकाला जाता है, लास्ट में यही निकलता है कि बंदा कुछ बोलने को ही तैयार नहीं है और सिर्फ़ " राम-राम-राम-राम " का ही जाप किए जा रहा है, लिहाज़ा जांच-समिति के लोग जब तक इस मन्त्र का कोई तोड़ ना निकाल लें, तब तक जांच का काम स्थगित किया जाता है. सरकारी जांचों का क्या है, कभी भी की जा सकती हैं. जब देखा कि पब्लिक महंगाई से खुद को त्रस्त महसूस करने लगी, उसका और मीडिया का सारा ध्यान उन दंगों की निष्पक्ष जांच की ओ़र लगा दिया, जिनकी कई मर्तबा पहले भी जांच करवाई जा चुकी है.
हम क्या कर रहे हैं, इससे ज़्यादा दंगों के मास्टर माइंड को यह पता होता है कि हम यह क्यों कर रहे हैं और जब ऊपर वाला इसका हिसाब मांगेगा तो हमें क्या कहना है कि क्यों किया? जांच-समितियों का तो उन्हें पता होता है कि वे अगर इसे फाइनल कर देंगी तो उन पर और उनकी सरकार पर वक़्त बे वक़्त करने के लिए कुछ रह ही नहीं जाएगा. इसलिए जांच तो हर हालत में टालनी ही है . किसी भी केस की इतनी गहराई से, जो सागर की गहराई की तरह बहुत गहरी भी हो सकती है, जांच करना कोई मामूली बात नहीं होती है. कई तरह के ऐसे सवालात भी खोजे जाते हैं कि जो उनसे पूछे जा सकें और उनके जवाब आगामी चुनावों में वोट बटोरने के काम आएं.
लगातार सवाल पूछकर किसी भी दंगे के आरोपी मुख्यमंत्री को बावला बनाया जा सकता है कि जब आपके सूबे में दंगे हो रहे थे तो पुलिस कंट्रोल रूम में बैठ कर आपका कोई मंत्री क्या कर रहा था या आप उस वक़्त कहां थे और क्या कर रहे थे और जहां भी थे, वहां क्यों थे और वहां रहने के पीछे आपका मकसद क्या था? बड़े अजीबो-गरीब सवाल होते हैं. सवाल भी अपने इतने अजीब होने पर आश्चर्य करते हैं कि वे आखिर इतने अजीब क्यों हैं कि उनका कोई जवाब ही नहीं होता और अगर होता भी है तो वो सही नहीं होता? गुजरात के दंगों और मोदी के बारे में सोचकर हम अकसर यही सोचते रह जाते हैं.