फ़िरदौस ख़ान    
दुनियाभर में आज भी अमानवीय ग़ुलाम प्रथा जारी है और जानवरों की तरह इंसानों की ख़रीद-फ़रोख्त की जाती है। इन ग़ुलामों से कारख़ानों और बाग़ानों में काम कराया जाता है। उनसे घरेलू काम भी लिया जाता है। इसके अलावा ग़ुलामों को वेश्यावृति के लिए मजबूर भी किया जाता है। ग़ुलामों में बड़ी तादाद में महिलाएं और बच्चे भी शामिल हैं।

संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ मादक पदार्थ और हथियारों के बाद तीसरे स्थान पर मानव तस्करी है। एक अन्य रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनियाभर में क़रीब पौने तीन करोड़ ग़ुलाम हैं। एंटी स्लेवरी इंटरनेशनल की परिभाषा के मुताबिक़ वस्तुओं की तरह इंसानों का कारोबार, श्रमिक को बेहद कम या बिना मेहनताने के काम करना, उन्हें मानसिक या शारीरिक तौर पर प्रताड़ित कर काम कराना, उनकी गतिविधियो पर हर वक्त नज़र रखना ग़ुलामी माना जाता है। 1857 में संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन ग़ुलामी की चरम अवस्था 'किसी पर मालिकाना हक़ जताने' को मानता है। फ़िलहाल दासता की श्रेणियों में जबरन काम कराना, बंधुआ मज़दूरी, यौन दासता, बच्चों को जबरने सेना में भर्ती करना, कम उम्र में या जबरन होने वाले विवाह और वंशानुगत दासता शामिल है।

अमेरिका में क़रीब 60 देशों से लाए गए करोड़ों लोग ग़ुलाम के तौर पर ज़िन्दगी गुज़ारने को मजबूर हैं। ब्राज़ील में भी लाखों ग़ुलाम हैं। हालांकि वहां के श्रम विभाग के मुताबिक़ इन ग़ुलामों की तादाद क़रीब 50 हज़ार है और हर साल लगभग सात हज़ार ग़ुलाम यहां लाए जाते हैं। पश्चिमी यूरोप में भी गुलामों की तादाद लाखों में है। एक रिपोर्ट के मुताबिक़ वर्ष 2003 में चार लाख लोग अवैध तौर पर लाए गए थे। पश्चिमी अफ्रीका में भी बड़ी तादाद में ग़ुलाम हैं, जिनसे बाग़ानों और उद्योगों में काम कराया जाता है। सोवियत संघ के बिखराव के बाद रूस और पूर्वी यूरोप में ग़ुलामी प्रथा को बढ़ावा मिला।

पूर्वी अफ्रीका के देश सूडान में गुलाम प्रथा को सरकार की मान्यता मिली हुई है। यहां अश्वेत महिलाओं और बच्चों से मज़दूरी कराई जाती है। युगांडा में सरकार विरोधी संगठन और सूडानी सेना में बच्चों की जबरन भर्ती की जाती है। अफ्रीका से दूसरे देशों में ग़ुलामों को ले जाने के लिए जहाज़ों का इस्तेमाल किया जाता था। इन जहाज़ों में ग़ुलामों को जानवरों की तरह ठूंसा जाता था। उन्हें कई-कई दिनों तक भोजन भी नहीं दिया जाता था, ताकि शारीरिक और मानसिक रूप से वे बुरी तरह टूट जाएं और भागने की कोशिश न करें। अमानवीय हालात में कई ग़ुलामों की मौत हो जाती थी और कई समुद्र में कुदकर अपनी जान दे देते थे। चीन और बर्मा में भी गुलामों की हालत बेहद दयनीय है। उनसे जबरन कारख़ानों और खेतों में काम कराया जाता है। इंडोनेशिया, थाइलैंड, मलेशिया और फ़िलीपींस में महिलाओं से वेश्यावृति कराई जाती है। उन्हें खाड़ी देशों में वेश्यावृति के लिए बेचा जाता है।

दक्षिण एशिया ख़ासकर भारत, पाकिस्तान और नेपाल में ग़रीबी से तंग लोग ग़ुलाम बनने पर मजबूर हुए। भारत में भी बंधुआ मज़दूरी के तौर पर ग़ुलाम प्रथा जारी है। हालांकि सरकार ने 1975 में राष्ट्रपति के एक अध्यादेश के ज़रिए बंधुआ मज़दूर प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया था,मगर इसके बावजूद सिलसिला आज भी जारी है। यह कहना गलत न होगा कि औद्योगिकरण के चलते इसमें इज़ाफ़ा ही हुआ है। सरकार भी इस बात को मानती है कि देश में बंधुआ मज़दूरी जारी है। भारत के श्रम व रोज़गार मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक़ देश में 19 प्रदेशों से 31 मार्च तक देशभर में दो लाख 86 हज़ार 612 बंधुआ मज़दूरों की पहचान की गई और मुक्त उन्हें मुक्त कराया गया। नवंबर तक एकमात्र राज्य उत्तर प्रदेश के 28 हज़ार 385 में से केवल 58 बंधुआ मज़दूरों को पुनर्वासित किया गया, जबकि 18 राज्यों में से एक भी बंधुआ मज़दूर को पुनर्वासित नहीं किया गया। इस रिपोर्ट के मुताबिक़ देश में सबसे ज्यादा तमिलनाडु में 65 हज़ार 573 बंधुआ मज़दूरों की पहचान कर उन्हें मुक्त कराया गया। कनार्टक में 63 हज़ार 437 और उड़ीसा में 50 हज़ार 29 बंधुआ मज़दूरों को मुक्त कराया गया। रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि 19 राज्यों को 68 करोड़ 68 लाख 42 हज़ार रुपए की केंद्रीय सहायता मुहैया कराई गई, जिसमें सबसे ज़्यादा सहायता 16 करोड़ 61 लाख 66 हज़ार 94 रुपए राजस्थान को दिए गए। इसके बाद 15 करोड़ 78 लाख 18 हज़ार रुपए कर्नाटक और नौ कराड़ तीन लाख 34 हज़ार रुपए उड़ीसा को मुहैया कराए गए। इसी समयावधि के दौरान सबसे कम केंद्रीय सहायता उत्तराखंड को मुहैया कराई गई। उत्तर प्रदेश को पांच लाख 80 हज़ार रुपए की केंद्रीय सहायता दी गई। इसके अलावा अरुणाचल प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, दिल्ली,गुजरात, हरियाणा, झारखंड, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, मणिपुर, उड़ीसा, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड को 31 मार्च 2006 तक बंधुआ बच्चों का सर्वेक्षण कराने, मूल्यांकन अध्ययन कराने और जागरूकता सृजन कार्यक्रमों के लिए चार करोड़ 20 लाख रुपए की राशि दी गई।

भारत में सदियों से किसान गांवों के साहूकारों से खाद, बीजए रसायनों और कृषि उपकरणों आदि के लिए क़र्ज़ लेते रहे हैं। इस क़ज़ के बदले उन्हें अपने घर और खेत तक गिरवी रखने पड़ते हैं। क़र्ज़ से कई गुना रक़म चुकाने के बाद भी जब उनका क़र्ज़ नहीं उतर पाता। यहां तक कि उनके घर और खेत तक साहूकारों के पास चले जाते हैं। इसके बाद उन्हें साहूकारों के खेतों पर बंधुआ मज़दूर के तौर पर काम करना पड़ता है। हालत यह है कि किसानों की कई नस्लें तक साहूकारों की बंधुआ बनकर रह जाती हैं।

बिहार के गांव पाईपुरा बरकी में खेतिहर मज़बूर जवाहर मांझी को 40 किलो चावल के बदले अपनी पत्नी और चार बच्चों के साथ 30 साल तक बंधुआ मज़दूरी करनी पड़ी। क़रीब तीन साल पहले यह मामला सरकार की नज़र में आया। मामले के मुताबिक़ 33 साल पहले जवाहर मांझी ने एक विवाह समारोह के लिए ज़मींदार से 40 किलो चावल लिए। उस वक्त तय हुआ कि उसे ज़मींदार के खेत पर काम करना होगा और एक दिन की मज़दूरी एक किलो चावल होंगे। मगर तीन दशक तक मज़दूरी करने के बावजूद ज़मींदार के 40 किलो का क़र्ज़ नहीं उतर पाया। एंटी स्लेवरी इंटरनेशनल के मुताबिक़ भारत में देहात में बंधुआ मज़दूरी का सिलसिला बदस्तूर जारी है। लाखों पुरुष, महिलाएं और बच्चे बंधुआ मज़दूरी करने को मजबूर हैं। पाकिस्तान और दक्षिण एशिया के अन्य देशों में भी यही हालत है।

देश में ऐसे ही कितने भट्ठे व अन्य उद्योग धंधे हैं, जहां मज़दूरों को बंधुआ बनाकर उनसे कड़ी मेहनत कराई जाती है और मज़दूरी की एवज में नाममात्र पैसे दिए जाते हैं, जिससे उन्हें दो वक्त भी भरपेट रोटी नसीब नहीं हो पाती। अफ़सोस की बात तो यह है कि सब कुछ जानते हुए भी प्रशासन इन मामले में मूक दर्शक बना रहता है, लेकिन जब बंधुआ मुक्ति मोर्चा जैसे संगठन मीडिया के ज़रिये प्रशासन पर दबाव बनाते हैं तो अधिकारियों की नींद टूटती है और कुछ जगहों पर छापा मारकर वे रस्म अदायगी कर लेते हैं। श्रमिक सुरेंद्र कहता है कि मज़दूरों को ठेकेदारों की मनमानी सहनी पड़ती है। उन्हें हर रोज़ काम नहीं मिल पाता इसलिए वे काम की तलाश में ईंट भट्ठों का रुख करते हैं, मगर यहां भी उन्हें अमानवीय स्थिति में काम करना पड़ता है। अगर कोई मज़दूर बीमार हो जाए तो उसे दवा दिलाना तो दूर की बात उसे आराम तक करने नहीं दिया जाता।

दास प्रथा की शुरुआत की कई सदी पहले हुई थी। बताया जाता है कि चीन में 18-12वीं शताब्दी ईसा पूर्व ग़ुलामी प्रथा का ज़िक्र मिलता है। भारत के प्राचीन ग्रंथ मनु स्मृति में दास प्रथा का उल्लेख किया गया है। एक रिपोर्ट के मुताबिक़ 650 ईस्वी से 1905 के दौरान पौने दो क़रोड़ से ज्यादा लोगों को इस्लामी साम्राज्य में बेचा गया। 15वीं शताब्दी में अफ्रीका के लोग भी इस अनैतिक व्यापार में शामिल हो गए। 1867 में क़रीब छह करोड़ लोगों को बंधक बनाकर दूसरे देशों में ग़ुलाम के तौर पर बेच दिया गया।

ग़ुलाम प्रथा के ख़िलाफ़ दुनियाभर में आवाज़ें बुलंद होने लगीं। इस पर 1807 में ब्रिटेन ने दास प्रथा उन्मूलन क़ानून के तहत अपने देश में अफ्रीकी ग़ुलामों की ख़रीद-फ़रोख्त पर पाबंदी लगा दी। 1808 में अमेरिकी कांग्रेस ने ग़ुलामी के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया। 1833 तक यह क़ानून पूरे ब्रिटिश साम्राज्य में लागू कर दिया। कहने को तो भारत में बंधुआ मज़दूरी पर पाबंदी लग चुकी है, लेकिन हक़ीक़त यह है कि आज भी यह अमानवीय प्रथा जारी है। बढ़ते औद्योगिकरण ने इसे बढ़ावा दिया है। साथ ही श्रम कानूनों के लचीलेपन के कारण मजदूरों के शोषण का सिलसिला जारी है। शिक्षित और जागरूक न होने के कारण इस तबक़े की तरफ़ किसी का ध्यान नहीं गया। संयुक्त राष्ट्र संघ को चाहिए कि वह सरकारों से श्रम क़ानूनों का सख्ती से पालन कराए, ताकि मज़दूरों को शोषण से निजात मिल सके। संयुक्त राष्ट्र संघ और मानवाधिकार जैसे संगठनों को ग़ुलाम प्रथा के ख़िलाफ़ अपनी मुहिम को और तेज़ करना होगा। साथ ही ग़ुलामों को मुक्त कराने के लिए भी सरकारों पर दबाव बनाना होगा। इसमें बात में कोई राय नहीं है कि विभिन्न देशों में अनैतिक धंधे प्रशासनिक अधिकारियों की मिलीभगत से ही होते हैं, इसलिए प्रशासनिक व्यवस्था को भी दुरुस्त करना होगा, ताकि गुलाम भी आम आदमी की ज़िन्दगी बसर कर सकें।


फ़िरदौस ख़ान

गूजरी महल की तामीर का तसव्वुर सुलतान फ़िरोज़शाह तुगलक़ ने अपनी महबूबा के रहने के लिए किया था...यह किसी भी महबूब का अपनी महबूबा को परिस्तान में बसाने का ख़्वाब ही हो सकता था और जब गूजरी महल की तामीर की गई होगी...तब इसकी बनावट, इसकी नक्क़ाशी और इसकी ख़ूबसूरती को देखकर ख़ुद वह भी इस पर मोहित हुए बिना न रह सका होगा...


हरियाणा के हिसार क़िले में स्थित गूजरी महल आज भी सुल्तान फिरोज़शाह तुगलक और गूजरी की अमर प्रेमकथा की गवाही दे रहा है। गूजरी महल भले ही आगरा के ताजमहल जैसी भव्य इमारत न हो, लेकिन दोनों की पृष्ठभूमि प्रेम पर आधारित है। ताजमहल मुग़ल बादशाह शाहजहां ने अपनी पत्नी मुमताज़ की याद में 1631 में बनवाना शुरू किया था, जो 22 साल बाद बनकर तैयार हो सका। हिसार का गूजरी महल 1354 में फिरोज़शाह तुगलक ने अपनी प्रेमिका गूजरी के प्रेम में बनवाना शुरू किया, जो महज़ दो साल में बनकर तैयार हो गया। गूजरी महल में काला पत्थर इस्तेमाल किया गया है, जबकि ताजमहल बेशक़ीमती सफ़ेद संगमरमर से बनाया गया है। इन दोनों ऐतिहासिक इमारतों में एक और बड़ी असमानता यह है कि ताजमहल शाहजहां ने मुमताज़ की याद में बनवाया था। ताज एक मक़बरा है, जबकि गूजरी महल फिरोज़शाह तुगलक ने गूजरी के रहने के लिए बनवाया था, जो महल ही है।

गूजरी महल की स्थापना के लिए बादशाह फिरोज़शाह तुगलक ने क़िला बनवाया। यमुना नदी से हिसार तक नहर लाया और एक नगर बसाया। क़िले में आज भी दीवान-ए-आम, बारादरी और गूजरी महल मौजूद हैं। दीवान-ए-आम के पूर्वी हिस्से में स्थित कोठी फिरोज़शाह तुगलक का महल बताई जाती है। इस इमारत का निचला हिस्सा अब भी महल-सा दिखता है। फिरोज़शाह तुगलक के महल की बंगल में लाट की मस्जिद है। अस्सी फ़ीट लंबे और 29 फ़ीट चौड़े इस दीवान-ए-आम में सुल्तान कचहरी लगाता था। गूजरी महल के खंडहर इस बात की निशानदेही करते हैं कि कभी यह विशाल और भव्य इमारत रही होगी।

सुल्तान फिरोज़शाह तुगलक और गूजरी की प्रेमगाथा बड़ी रोचक है। हिसार जनपद के ग्रामीण इस प्रेमकथा को इकतारे पर सुनते नहीं थकते। यह प्रेम कहानी लोकगीतों में मुखरित हुई है। फिरोज़शाह तुगलक दिल्ली का सम्राट बनने से पहले शहज़ादा फिरोज़ मलिक के नाम से जाने जाते थे। शहज़ादा अकसर हिसार इलाक़े के जंगल में शिकार खेलने आते थे। उस वक्त यहां गूजर जाति के लोग रहते थे। दुधारू पशु पालन ही उनका मुख्य व्यवसाय था। उस काल में हिसार क्षेत्र की भूमि रेतीली और ऊबड़-खाबड़ थी। चारों तरफ़ घना जंगल था। गूजरों की कच्ची बस्ती के समीप पीर का डेरा था। आने-जाने वाले यात्री और भूले-भटके मुसाफ़िरों की यह शरणस्थली थी। इस डेरे पर एक गूजरी दूध देने आती थी। डेरे के कुएं से ही आबादी के लोग पानी लेते थे। डेरा इस आबादी का सांस्कृतिक केंद्र था।

एक दिन शहज़ादा फिरोज़ शिकार खेलते-खेलते अपने घोड़े के साथ यहां आ पहुंचा। उसने गूजर कन्या को डेरे से बाहर निकलते देखा तो उस पर मोहित हो गया। गूजर कन्या भी शहज़ादा फिरोज़ से प्रभावित हुए बिना न रह सकी। अब तो फिरोज़ का शिकार के बहाने डेरे पर आना एक सिलसिला बन गया। फिरोज़ ने गूजरी के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा तो उस गूजर कन्या ने विवाह की मंजरी तो दे दी, लेकिन दिल्ली जाने से यह कहकर इंकार कर दिया कि वह अपने बूढ़े माता-पिता को छोड़कर नहीं जा सकती। फिरोज़ ने गूजरी को यह कहकर मना लिया कि वह उसे दिल्ली नहीं ले जाएगा।

1309 में दयालपुल में जन्मा फिरोज़ 23 मार्च 1351 को दिल्ली का सम्राट बना। फिरोज़ की मां हिन्दू थी और पिता तुर्क मुसलमान था। सुल्तान फिरोज़शाह तुगलक ने इस देश पर साढ़े 37 साल शासन किया। उसने लगभग पूरे उत्तर भारत में कलात्मक भवनों, किलों, शहरों और नहरों का जाल बिछाने में ख्याति हासिल की। उसने लोगों के लिए अनेक कल्याणकारी काम किए। उसके दरबार में साहित्यकार, कलाकार और विद्वान सम्मान पाते थे।

दिल्ली का सम्राट बनते ही फिरोज़शाह तुगलक ने महल हिसार इलांके में महल बनवाने की योजना बनाई। महल क़िले में होना चाहिए, जहां सुविधा के सब सामान मौजूद हों। यह सोचकर उसने क़िला बनवाने का फ़ैसला किया। बादशाह ने ख़ुद ही करनाल में यमुना नदी से हिसार के क़िले तक नहरी मार्ग की घोड़े पर चढ़कर निशानदेही की थी। दूसरी नहर सतलुज नदी से हिमालय की उपत्यका से क़िले में लाई गई थी। तब जाकर कहीं अमीर उमराओं ने हिसार में बसना शुरू किया था।

किवदंती है कि गूजरी दिल्ली आई थी, लेकिन कुछ दिनों बाद अपने घर लौट आई। दिल्ली के कोटला फिरोज़शाह में गाईड एक भूल-भूलैया के पास गूजरी रानी के ठिकाने का भी ज़िक्र करते हैं। तभी हिसार के गूजरी महल में अद्भुत भूल-भूलैया आज भी देखी जा सकती है।

क़ाबिले-गौर है कि हिसार को फिरोज़शाह तुगलक के वक्त से हिसार कहा जाने लगा, क्योंकि उसने यहां हिसार-ए-फिरोज़ा नामक क़िला बनवाया था। 'हिसार' फ़ारसी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है 'क़िला'। इससे पहले इस जगह को 'इसुयार' कहा जाता था। अब गूजरी महल खंडहर हो चुका है। इसके बारे में अब शायद यही कहा जा सकता है-

सुनने की फुर्सत हो तो आवाज़ है पत्थरों में
उजड़ी हुई बस्तियों में आबादियां बोलती हैं...

चेहरा मेरा था निगाहें उस की
ख़ामोशी में भी वो बातें उस की

मेरे चेहरे पे ग़ज़ल लिखती गईं
शेअर कहती हुई आंखें उसकी

शोख़ लम्हों का पता देने लगीं
तेज़ होती हुई सांसें उसकी

ऐसे मौसम भी गुज़ारे हमने
सुबहें जब अपनी थीं शामें उसकी

ध्यान में उस के ये आलम था कभी
आंख महताब की यादें उसकी

फ़ैसला मौज-ए-हवा ने लिक्खा
आंधियां मेरी बहारें उसकी

नींद इस सोच से टूटी अकसर
किस तरह कटती हैं रातें उसकी

दूर रहकर भी सदा रहती हैं
मुझ को थामे हुए बाहें उसकी
-परवीन शाकिर

पेशकश : चांदनी
जंगे-आज़ादी के सभी अहम केंद्रों में अवध सबसे ज्यादा वक़्त तक आज़ाद रहा। इस बीच बेगम हज़रत महल ने लखनऊ में नए सिरे से शासन संभाला और बगावत की कयादत की। तकरीबन पूरा अवध उनके साथ रहा और तमाम दूसरे ताल्लुकदारों ने भी उनका साथ दिया। बेगम अपनी कयादत की छाप छोड़ने में कामयाब रहीं।

फैज़ाबाद के एक बेहद ग़रीब परिवार में पैदा हुई इस लडक़ी (बेगम) को नवाब वाजिद अली शाह के हरम में बेगमात की खातिरदारी के लिए रखा गया था, लेकिन उनकी खूबसूरती और अक्लमंदी पर फ़िदा होकर नवाब ने उसे अपने हरम में शामिल कर लिया। बेटा होने पर नवाब ने उसे 'महल' का दर्जा दिया। ब्रिटिश संवाददाता डब्ल्यू। एच. रसेल के मुताबिक़ बेगम अपने शौहर वाजिद अली शाह से कहीं ज़्यादा क़ाबिल थीं। वाजिद अली ने भी इसे मानने में कोई हिचकिचाहट महसूस नहीं की।

बेगम की हिम्मत का इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि उन्होंने मटियाबुर्ज में जंगे-आज़ादी के दौरान नज़रबंद किए गए वाजिद अली शाह को छुड़ाने के लिए लार्ड कैनिंग के सुरक्षा दस्ते में भी सेंध लगा दी थी। योजना का भेद खुल गया, वरना वाजिद अली शाह शायद आज़ाद करा लिए जाते। इतिहासकार ताराचंद लिखते हैं कि बेगम खुद हाथी पर चढक़र लडाई के मैदान में फ़ौज का हौसला बढ़ाती थीं।


जंगे-आज़ादी की कमान संभालने से पहले बेगम हज़रत महल ने अपने बारह साला बेटे शहजादे बिरजिस कद्र को अवध का नवाब घोषित कर दिया था। इसकी मान्यता उन्होंने आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र से भी ली, ताकि उन्हें कानून उनका हक मिल सके। ऐसा इसलिए भी किया गया कि इससे पहले गाजिउद्दीन हैदर (1814-1827) ने मुगलों से नाता तोड़कर खुद को इंग्लैंड के राजा के अधीन घोषित कर दिया था। वे 1819 में अवध के प्रभु संपन्न राजा बने थे। इसलिए जंगे-आज़ादी के वक़्त नवाब की कानूनन हालत मुल्क के दूसरे सूबेदारों से अलग थी।

बेगम के सामने कई दिक्कतें थीं। वे खुद भी नवाब का ओहदा संभाल सकती थीं। उन्हें यह भी समझाया गया कि अगर वे बगावत करेंगी तो मटियाबुर्ज में वाजिद अली शाह की जान पर बन सकती है। उनकी राह में उनकी बाकी सौतों रोड़ा बनी हुई थीं। इन्हीं हालात के बीच उन्होंने फ़ैसला लिया। इसमें उनका सबसे ज़्यादा साथ वाजिद अली शाह के हरम के दरोगा मम्मू खान और नवाबों के पुश्तैनी वफ़ादार रहे राजा जयलाल सिंह ने दिया। राजा जयलाल सिंह ने अवध के ताल्लुकदारों को बेगम के इरादों से वाकिफ कराते हुए भरोसा दिलाया और उन्हें बेगम के समर्थन में लामबंद कर लिया। मम्मू खान ने बाकी बेगमों की तऱफ से हो रहे विरोध को भी संभाला। तब बिरजिस कद्र को जुलाई में अवध का नवाब बनाया गया और शासन की कमान बेगम ने ख़ुद संभाली।

शुरुआती अव्यवस्था से निपट कर बेगम ने अवध के शासन को व्यवस्थित करने का काम संभाला। उनके सामने कई चुनौतियां थीं। शहर की बिगडती क़ानून व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए बेगम ने अली राजा बेग को शहर कोतवाल नियुक्त किया। शहर में अमन-चैन कायम होने लगा। राजधानी होने के नाते लखनऊ की सुरक्षा का काम काफी मुश्किल था, क्योंकि जंगे-आज़ादी के नेताओं में आपस में और बेगम व मौलवी अहमदुल्ला में मतभेद पैदा हो गए थे। कैसरबाग की कई बेगमें भी हज़रत महल के ख़िलाफ़ थीं और रेजिडेंसी में रह रहे अंग्रेज़ सेनापतियों को गुप्त सूचनाएं भेज रही थीं, क्योंकि उन्हें अपनी सुरक्षा और जागीरों की फ़िक्र अवध की बजाय ज़्यादा थी।

हालांकि ज़्यादातर अंग्रेज़ लखनऊ को छोड़ चुके थे, फिर भी अवध के कई ज़िलों में ताल्लुकदारों से उनका संघर्ष जारी था। इन सेनानियों को मदद पहुंचानी थी। यह जाहिर था कि अंग्रेज अवध पर अपना वर्चस्व फिर कायम करने के लिए जोरदार हमला करेंगे, इसलिए सुरक्षा की मुकम्मल रणनीति भी बनानी थी। बेगम की सरकार की माली हालत खस्ता थी, जिसे बेहतर करना था। साथ ही अवध की लड़ाई में साथ देने के लिए कानुपर और दिल्ली वगैरह से बंगाल आर्मी के काफ़ी तादाद में जो सिपाही लखनऊ पहुंच चुके थे, उनकी तनख्वाह और रसद का इंतज़ाम भी बेगम को करना था। मशहूर लेखक रोशन तकी के मुताबिक़ ताल्लुकदारों की मदद से बेगम इस काम में काफ़ी हद तक कामयाब रहीं।

इन चुनौतियों से निपटने के लिए 26 से 28 नवंबर 1857 के बीच बेगम ने फ़ौरी तौर पर कई काम किए। 26 नवंबर को ही राजा देवीबख्श सिंह की फ़ौज ने लखनऊ में चिनहट की लड़ाई के बाद बची रह गई फौज के हमले को नाकाम कर बनी गांव की तरफ खदेड दिया। 27 नवंबर को सूचना मिली कि कॉलिन कैंपबेल कानुपर से लखनऊ के लिए चल पड़ा है। इसी बीच जनरल आउटरम भी आलमबाग में डेरा डाल चुका था। उनको पीछे धकेलने के लिए कई ताल्लुकदारों की सेना राजा देवीबख्श सिंह की अगुवाई में तैनात की गई। साथ ही अवध के समृध्द इलाके के ताल्लुकदारों को उनके इलाके में रवाना किया गया कि वे रसद और सेना का इंतज़ाम करें।

इन शुरुआती कदमों के बाद बेगम ने एक रक्षा परिषद बनाई। इसने तय किया कि कैसरबाग को मुख्य दुर्ग माना जाए। इसके अलावा सात और ऐसी जगहों की निशानदेही की गई, जहां से अंग्रेजी सेना लखनऊ में दाखिल को सकती थी। यहां पर सेना की तैनाती के साथ-साथ खाई भी खुदवाई गई। इसी रणनीति का यह नतीजा रहा कि लंबे वक्त तक रेजिडेंसी घिरी रही। नतीजतन, दूसरी अहम लड़ाई मार्च 1858 में ही हो पाई, जिसमें अवध की सेना को पीछे हटना पड़ा।

हालात बिगड़ते देख ताल्लुकदारों ने बेगम को उनके बेटे बिरजिस कद्र के साथ सुरक्षित नेपाल भेज दिया और लडाई जारी रखी। बेगम के प्रमुख सेनापति राजा जयपाल सिंह और राना बेनीमाधव दरगाह पर लगे मोर्चे पर पहुंचे और कसम खाई कि वे आखिरी दम तक लडेंग़े। जंगे-आज़ादी के तमाम नेता महीनों गुरिल्ला लड़ाई लड़ते रहे। आखिरकार इनमें से ज़्यादातर फांसी पर चढ़ा दिए गए। खुद लार्ड कैनिंग ने कुबूल किया कि तमाम कोशिशों के बावजूद हम 1859 तक अवध को एक हद तक शांत और व्यवस्थित कर सके। उधर, 1879 में नेपाल में बेगम का इंतकाल हो गया।

फ़िरदौस ख़ान
आज अट्ठारह सितंबर है। वही अट्ठारह सितंबर जो आज से छह साल पहले था। वो भी मिलन की खुशी से सराबोर थी और ये भी, लेकिन उस अट्ठारह सितंबर और इस अट्ठारह सितंबर में बहुत बड़ा फ़र्क़ था। दो सदियों का नहीं, बल्कि इससे भी कहीं ज्यादा, शायद समंदर और सहरा जितना। सूरज ने अपनी सुनहरी किरनों से धरती के आंचल में कितने ही बेल-बूटे टांके थे। उस अट्ठारह सितंबर को भी दोपहर आई थी, वही दोपहर जिसमें प्रेमी जोड़े किसी पेड़ की ओट में बैठकर एक-दूसरे की आंखों में डूब जाते हैं। फिर रोज़मर्रा की तरह शाम भी आई थी, लेकिन यह शाम किसी मेहमान की तरह थी बिल्कुल सजी संवरी। माहौल में रूमानियत छा गई थी। फिर शाम की लाली में रफ़्ता-रफ़्ता रात की स्याही शामिल हो गई। रात की अगुवानी में आसमान में चमकते लाखों-करोड़ों सितारों ने झिलमिलाती हुई नन्हीं रौशनियों की आरती से की थी। यह रात महज़ एक रात नहीं थी। यह मिलन की रात थी, एक सुहाग की रात।

''कमली मैं प्यासा हूं।'' प्यासे होंठों के इस अनुरोध पर न्यौछावर होकर कमली ने अपना तन-मन परदेसी को समर्पित कर दिया था। यह प्यास दिनों या महीनों की नहीं थी। यह प्यास सदियों की थी। प्यास कभी नहीं बुझती, उसे जितना बुझाने की कोशिश की जाए वह उतनी ही ज्यादा बढ़ जाती है। एक जिस्म की प्यास दूसरे जिस्म के मिलन से कुछ देर के लिए शांत तो हो सकती है, मगर बुझ कभी नहीं सकती। लेकिन मन की प्यास तो शायद कभी शांत भी नहीं होती। उसने परदेसी की किसी भी ख्वाहिश का ज़रा भी विरोध नहीं किया था। जहां मुहब्बत होता है, वहां समर्पण है और जहां समर्पण होता है, वहां विरोध जैसे शब्द का इस्तेमाल करना भी ग़ैर मुनासिब लगता है। कमली यहां शहर में अपनी दूर की मौसी की शादी में आई हुई थी। यहीं उसे परदेसी मिला था, जिसे वह पहली ही नज़र में दिल दे बैठी थी और शायद परदेसी के साथ भी ऐसा हुआ था। तभी तो हर वक्त उसकी नज़रें कमली को तलाशतीं रहती थीं। कमली को अपना वजूद परदेसी की गिरफ़्त में समाता-सा लगता। कमली की मौसी ससुराल जा चुकी थी। वह भी अपने परिजनों के साथ गांव लौट आई थी, लेकिन उसका मन शहर में ही रह गया था, अपने परदेसी के पास।

अब उसके पास था तो केवल चांदनी से भीगा कोमल अहसास जो उसे परदेसी की मज़बूत बांहों की गिरफ़्त में मिला था। कमली के घर के आगे नीम और इमली के कई पेड़ थे। इन पेड़ों के पास ही एक चबूतरे पर कुआं था। कुएं के चारों तरफ़ सीढ़ियां बनी हुई थीं। इन सीढ़ियों पर बैठकर गांव की औरतें और लड़कियां अकसर बातें किया करती थीं, एक-दूसरे के सुख-दुख में शामिल होती थीं। एक क़िस्म से कुएं का यह चबूतरा औरतों की चौपाल था। कमली की सहेलियां भी पानी भरने के लिए यहां आती थीं। वे अकसर ख़ाली घड़े वहीं कुएं के चबूतरे पर रख देतीं और ख़ुद इमली तोड़ने में लग जातीं। यह वो वक्त होता था जब गांव की लड़कियां इकट्ठी होकर चुहलबांजी करती थीं। लड़कियों ने नीम के पेड़ की डाल पर झूले भी डाले हुए थे। दो लड़कियां झूले पर बैठ जातीं और दो लड़कियां झूले को पीछे तक ले जाकर छोड़ देतीं। झूले पर बैठी लड़कियां पेंग बढ़ाकर नभ को छू लेना चाहतीं। कमली को झूले की ऊंची पेंग पर हाथ बढ़ाकर निम्बोली के गुच्छे तोड़ने और सहेलियों पर डालने में बहुत मज़ा आता था। घर देर से लौटने पर लड़कियों को अपनी मां की डांट भी कई बार खानी पड़ती थी। और इस तरह वक़्त का पता ही नहीं चलता था कि कब वह पंख लगाकर उड़ गया। लेकिन जब से कमली शहर से वापस आई थी, काफ़ी बदल गई थी। पहले जब वह चलती थी तो उसकी पायल छन-छन करती। दूर से ही उसके आने की आवाज़ सुनाई दे देती थी, लेकिन अब उसके पैरों की झांझरे भी उसकी तरह ख़ामोश हो गई थीं। इमली तोड़ने और झूला झूलने में भी उसका मन नहीं लगता था। उसके होंठ एक गीत गुनगुनाते रहते, बिल्कुल सर्द सांझ की उदासी जैसा। वह विरह का जो गीत गाती थी, सावन के मौसम की आग वाला, उस गीत की सारी आग उसकी देह में समाई हुई थी।

समय का चक्र चलता रहा। पल बीते, दिन बीते और इसी तरह कई महीने बीत गए। इम्तिहान के दिन नज़दीक आ गए। उसने अपना सारा ध्यान पढ़ाई में लगा दिया। उसने इम्तिहान दिए और नतीजा उसके पास होने की ख़ुशी लेकर आया।

एक शाम जब कमली की मां चूल्हे के अंदर रखकर मक्की की गरम-गरम और गोल-गोल रोटियां सेंक रही थी तो उसने मां के गले में प्यार से बांहें डालते हुए कहा था-''मां बाऊजी से कहकर शहर के कॉलेज में दाख़िला दिलवा दे न, मुझे आगे पढ़ना है।'' उसकी यह बात सुनकर दादी भड़क उठी थीं। ''ज्यादा पढ़ा के लड़की से नौकरी नहीं करानी। चिट्ठी पढ़ना-लिखना आना ही बहुत है।'' दादी की चंगेज़ी के सामने बोलने की किसी की भी हिम्मत नहीं थी। दादी के कहने पर कमली के लिए लड़का तलाशा जाने लगा। कोई लड़का पढ़ा-लिखा होता तो दहेंज की मांग ज़्यादा होती। कोई लड़का खाते-पीते घर का होता, मगर अनपढ़ और गंवार। कोई दहाजू होता तो कोई शराबी या उम्रदराज़। आख़िर एक रिश्ता ऐसा मिल गया जो पढ़े-लिखे लड़के का था और दहेज़ की मांग भी ज्यादा नहीं थी। घर में शादी की तैयारियां भी शुरू हो गईं।


शादी की बात ने कमली को आशा और निराशा के ऐसे दोराहे पर लाकर खड़ा कर दिया, जहां सिर्फ़ एक तरफ़ परदेसी था जो हवा के झोंके की तरह उसकी ज़िन्दगी में आया और आंधी की तरह चला गया। वह अपने पीछे छोड़ गया था तो बस चंद यादें, वो यादें जो कमली की ज़िन्दगी में आंसुओं की सौग़ात लेकर आई थीं। वहीं दूसरी तरफ़ करतार था जो उसका होने वाला शौहर था। परदेसी उसका अतीत था और करतार उसका भविष्य। वह वर्तमान बनी अतीत और भविष्य के बीच झूल रही थी। शायद यही उसकी क़िस्मत थी।

कमली की शादी हो गई। उसने अपने पति को देखा तो उसकी आंखों के आगे स्याही छा गई, बिल्कुल अमावस की स्याह रात जैसी। करतार के जिस्म की रंगत गहरी सांवली थी, शायद पत्थर के कोयले की तरह। उसके सिर के आधे से ज़्यादा बाल सफ़ेद थे। जिस्म से भी वह काफ़ी भारी और थुलथुल था। शौहर के बारे में की गई उसकी सारी कल्पना किसी कांच की मूरत की तरह टूटकर बिखर गई। ज़मीन पर बिखरी उसके अरमानों की किरचें उसके पांवों को ही नहीं उसकी रूह को भी ज़ख्मी कर रही थीं। धन्नो ताई के अलफ़ाज़ उसके कानों में बार-बार गूंज रहे थे। जब उन्होंने कम्मो के बूढ़े पति को देखकर कहा था-''मन मरज़ी दा मरद तां करमां वाली नूं ही मिलदा है'' कमली के जिस्म पर सुहाग का सुर्ख़ जोड़ा था। जोड़ा का सुर्ख़ रंग उसे अपने अरमानों का ख़ून लग रहा था। हथेलियों पर मेहंदी से बनी नन्ही-नन्ही गहरी रचीं पत्तियां उसे ऐसी लग रही थीं जैसे किसी ने जलते हुए गरम चूल्हे से निकलती चिंगारियों को इकट्ठा करके उसकी हथेलियों पर रख दिया हो। सेज भी सुर्ख़ गुलाबों की पंखुड़ियों से सजी थी। चादर पर बिछीं गुलाब की ये पंखुड़ियां उसे आसमान में उन्मुक्त उड़ने वाले अरमानों के उस आज़ाद परिन्दे के ख़ून में सने पंख लग रहे थे जिसे किसी सैयाद ने अपने निशाने का शिकार बनाकर उसकी आशाओं के एक-एक पंख को बड़ी बेदर्दी से उसके जिस्म से अलग कर दिया हो। कमरे में चंदन के इत्र की महक थी, जो जाड़ो सुबह के कोहरे की तरह छाई हुई थी। इस हवा में सांस लेना भी उसके लिए दूभर हो गया था। उसे लग रहा था कि अगर उसने एक सांस भी और लिया तो उसका दम घुट के रह जाएगा।

करतार ने कमली को छुआ तो उसका सारा जिस्म एक अजीब से खौफ़ से कांप उठा। यह कंपकंपी उसकी रूह की गहराइयों में भी उतर गई थी। इस स्पर्श में प्रेम की वह कोमलता नहीं थी, जो उसने परदेसी की छुअन में महसूस की थी। यह भी मिलन की रात थी, लेकिन यह दो दिलों के मिलन की रात नहीं थी। शायद यह मातम की रात थी। कमली के अरमानों की मौत के मातम की रात। करतार सूरज की पहली किरन के धरती पर पड़ने के साथ ही घर से निकल जाता और रात के पहले पहर के ढलने के बाद ही घर की दहलीज़ पर क़दम रखता। वह शराब भी बहुत पीता था। कमली कभी घर वक्त से घर आने को कह देती तो उसे ख़ूब खरी-खोटी सुनाता। कमली की ज़िन्दगी जहन्नुम बन चुकी थी। कमली की भावनाओं को समझने की उसने कभी ज़रूरत महसूस नहीं की। वह घर में बस एक नौकरानी बनकर रह गई थी। वह झुकी थी, शायद दोहरी हो गई थी। आसमान में तैरने वाले दूधिया बादलों के टुकड़े भी उसकी नज़र की हद से कोसों दूर थे। उसे लगा कि वह थोड़ा और झुकी तो मुड़ेगी नहीं, टूट जाएगी बिल्कुल जामुन के पेड़ की सूखी टहनी की तरह। और एक दिन उसने सीधा होने की कोशिश की। उसने करतार के आगे झुकने से मना कर दिया। करतार ने उसके बाल पकड़कर उसे बहुत पीटा। उसका सारा जिस्म दर्द से कांप उठा। यह कंपकंपी उसके जिस्म पर ही नहीं थी, उसकी हड्डियां भी कांपी थीं। रोते-रोते उसकी आंखें सूज गई थीं। उसके जिस्म पर पड़े मार के निशान पूछ रहे थे कि क्या औरत को मर्द बात सिर्फ़ इसलिए ही मान लेनी चाहिए कि वह उसका शौहर है? कब आएगी वह सभ्यता जब औरत को भी मर्द की तरह ही अपनी मरज़ी से जीने की आज़ादी मिलेगी?

उसे करतार से बेहद नफ़रत थी। करतार के साथ एक पल भी और रहना उसके लिए मुश्किल हो चुका था। उसने अपने कपड़े और गहने समेटकर अटैची में रखे और अपने घर की राह ली। उसके परिजनों ने सारा क़ुसूर कमली के ही सिर मढ़ दिया। ''पति का घर ही औरत का असली घर होता है। जिस दिन लड़की की शादी होती है उसी दिन मां के घर से उसका नाता हमेशा के लिए टूट जाता है। मां का घर उसके लिए पराया हो जाता है। पति का कहना मानना ही औरत का धर्म है।'' मां ने समझाया। दादी ने भी दो टूक कह दिया कि उसे अब करतार के साथ ही रहना होगा। इस घर के दरवांजे उसके लिए बंद हो चुके हैं। हां, अगर वह करतार के साथ मायके आई तो मेहमान मानकर उसका स्वागत ज़रूर किया जाएगा। हर वह नाता जिसके साथ उसने जन्म लिया था, पली-बढ़ी थी अब उसके लिए बेगाना हो चुका था।

और फिर उसके क़दम बढ़ चले थे शहर की ओर जाने वाले रास्ते पर। उसने अपने गहने बेचकर कामकाजी महिलाओं के होस्टल में एक कमरा ले लिया। कुछ दिनों शहर की ख़ाक छानने के बाद उसे एक क्रेच में नौकरी भी मिल गई। बरसात में बरसते पानी की रिमझिम, जाड़ो में बहती शीत लहर के टकराने से हिलते पेड़ों की शां-शां और गर्मियों में लू के गर्म झोंके सब उसके बहुत क़रीब थे, बिल्कुल उसांसों की तरह। उसकी आंखों ने एक सपना देखा था, जो नितांत उसका अपना था। दूर तलक समंदर था और समंदर पर छाया नीला आसमान। बंजारन तमन्नाओं के परिंदे आसमान में उन्मुक्त होकर उड़ रहे थे। दिन के दूसरे पहर की सुनहरी किरनें समंदर की दूधियां लहरों को सुनहरी कर रही थीं।

चार बरस गुज़र गए, सुनहरे सपने के साथ। एक रोज़ दिन के पहले पहर ढले वह क्रेच से लाइब्रेरी जाने के लिए निकली तो कुछ ही क़दम चलने के बाद ही रास्ते में उसे परदेसी मिल गया।वह अब भी पहले जैसा ही था। इन छह बरसों में वह ज़रा भी नहीं बदला था। उसने कमली से अपने घर चलने का आग्रह किया जिसे उसने फ़ौरन मान लिया। दिन के छह पहर वे दोनों साथ रहे। इन छह बरसों में उन्होंने छह बरसों को जिया, एक-दूसरे के दुख-सुख में शामिल होते हुए।

परदेसी ने एक गहरा सांस लिया, समंदर की गहराई जितना और कहने लगा-''तुम मेरे साथ चलोगी? वहां जहां अट्ठारह सितंबर साल में एक बार नहीं आती। साल का हर दिन अट्ठारह सितंबर होता है। दिन के आठों पहर और हर पहर का हर पल सुहाग का पल होता है।'' परदेसी ने आगे बढ़कर उसके प्यासे होंठों को चूम लिया, जैसे वह उसकी सारी प्यास को अपनी रूह की गहराई में उतार लेना चाहता हो। यह एक मर्द के प्यार का इक़रार था जिसे कमली के होंठों ने ही नहीं उसकी रूह ने भी महसूस किया था। परदेसी ने उसे अपनी आग़ोश में समेट लिया और फिर सूरज की सुनहरी किरनें धरती पर आकर उनकी मुहब्बत की गवाह बनीं।


अक्षर बहुत कुछ कहते हैं...आइये जानें कि किस अक्षर से शुरू होने वाले नाम के लोगों का स्वभाव कैसा होता है...

A - जिनके नाम की शुरुआत अंग्रेजी वर्णमाला के पहले अक्षर A से होती है। वे ख्यालों में रहने के बजाय काम करने मे यकीन रखते हैं। ऐसे लोगों की अपने साथी से पटरी बैठना काफी मुश्किल होता है। हालांकि इस शारीरिक सुंदरता अधिक आकर्षित करती है।

B - जिनके नाम की शुरुआत B से होती है, उन्हें उपहार काफी पंसद होते हैं। सिर्फ उपहार लेना ही नहीं, बल्कि देना भी इनका शौक होता है। ये लोग अपने साथी से काफी लाड-प्यार करते हैं और इन्हें सामने वाले से भी वैसे ही व्यवाहार की आशा होती है।

C - इस लेटर की शुरुआत के नाम वालों में अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण करने की गजब की शक्ति होती है। आपके लिए किसी रिश्ते का होना ही बहुत महत्वपूर्ण होता है। हालांकि इनकी ख्वाहिश होती है कि इनका साथी इन्हें ही अपना सर्वस्व माने। ऐसे लोग गुड लुकिंग होने के साथ ही समाज में अपनी अच्छी खासी जगह रखते हैं।

D - अंग्रेजी वर्णमाला के चौथे अक्षर D से जिनका नाम शुरू होता है, वो अपने इरादों के पक्के होते हैं। यदि एक बार ये ठान लें कि इन्हें किसी को पाना है तो उसके लिए जी जान से जुट जाते हैं। यदि काई मुसीबत में है तो आप उसके लिए परेशान हो जाते हैं।

E - E लेटर से जिनका नाम शुरू होता है, वो बोलते बहुत ज्यादा हैं। ऐसे लोगों को कम बोलने की आदत डालना चाहिए। वैसे तो ये लोग ज्यादातर फलर्ट ही करते हैं, लेकिन एक बार किसी के लिए सीरियस हो जाएं तो फिर उसके प्रति इमानदार रहते हैं।

F - इस अक्षर के नाम वाले लोग आर्दश होने के साथ ही रोमांटिक होते हैं। ये अपने लिए आर्दश साथी की तलाश करते हैं। फलर्ट इनकी आदत में होता है, लेकिन एक बार कमिटेड हो जाने पर ये ईमानदार साबित होते हैं। इन लोगों के बारे में कहां जाता है कि ये जन्मजात लवर होते हैं।

G - इस अक्षर के नाम वालों को हर बात में परफेक्शन की जैसे आदत ही पड़ जाती है। अपने साथ ही होने वाले जीवनसाथी में भी ये हर चीज परफेक्ट ही तलाशते हैं। इन्हें वही लोग पसंद आते हैं जो बुध्दिमता में इनके बराबर या फिर आगे हों। इन लोगों को दूसरों के साथ भावनात्मक रूप से जुड़ने भी काफी तकलीफ होती है।

H - इन लोगों को ऐसे साथी की तलाश होती है, जो इनकी जिंदगी की कमी को पूरा करने क साथ ही उसका सार इन्हें समझा सकें। यदि ये अपने पार्टनर को गिफ्ट देते हैं तो वह भी एक तरह का इनवेस्मेंट ही है। हर कदम यह बहुत ही सोच समझकर उठाते हैं। यदि लोग मुसीबत में होते हैं तो आपको सबसे पहले याद करते हैं।

I - इन लोगों को ज्यादा समय तक एक ही चीज या एक ही साथी का साथ पंसद नहीं होता। यही वजय है कि इन्हें प्यार के मामले में पूरी तरह ईमानदार नहीं माना जा सकता है। इन्हें आरामतलबी बहुत पसंद है।

G - इस लेटर के नाम वाले लोगों को भगवान ने भरपूर एनर्जी दी है। एनर्जेटिक होने के साथ ही ये बड़े रोमांटिक होते हैं। साथ ही भावनात्मक रूप से मजबूत होना इनका प्लस प्वाइंट भी है। ये लोग लांग डिसटेंस रिलेशनशिप को बहुत ही अच्छी तरह से निभा पाते हैं।

K - बहुत ही रहस्यमयी होते हैं इस लेटर के नाम वाले लोग। कुछ शर्मीले, अपने आप में ही खुश रहने वाले ही जमीन से जुड़े हुए। अपने लिए सही पार्टनर की तलाश में आपको इंतजार करना भी गवारा होता है। इनमें स्वार्थ नहीं होता है और ये बहुत अच्छे दोस्त भी साबित होते हैं।

L - वैसे तो लव का लेटर भी L ही है, लेकिन इनके लिए सही पार्टनर तलाश करना आसान नहीं होता है। इन्हें अपनी ही सोच और समझ मे थोड़ा भी अंतर आए तो रिश्ता निभाने में थोड़ी दिक्कत आ सकती है।

M - स्वभाव से बहुत शर्मीले और भोले होते हैं एम लेटर वाले। अपने साथी के प्रति इनका रवैया भी बड़ा ही क्रिटिकल होता है। ये अपनी भावनाओं को व्यक्त नहीं कर पाते और यही इनकी सबसे बड़ी कमजोरी हैं। जीतना और हर हाल में जीतना इनकी आदत होती है।

N - N लेटर वाले बहुत ही भावुक होते हैं। जब किसी रिश्ते को बनाते हैं तो पूरी तरह उसमें डूब जाते हैं और उसे निभाने के लिए अपनी तरफ से हरसंभव कोशिश करते हैं। इन्हें लाड-दुलार बहुत अच्छा लगता है। कई बार तो अपने साथी को ये बच्चे की तरह दुलारते हैं।

O - बहुत ही फनी और इंटरेस्टेड होते हैं इस लेटर वाले लोग। हालांकि अपनी इच्छाओं को जाहिर करने में इन्हें भी थोड़ी सी शर्म आती है। इनके लिए प्यार किसी सीरियल बिजनेस से कम नहीं है, इसलिए ये हर कदम सोच समझकर ही उठाते हैं।

- इस लेटर के नाम वाले लोग बहुत ही कांशियस और समाजिक मूल्यों में बंधे हुए होते हैं। इस बात को लेकर ये बहुत ही सावधान रहते हैं कि कहीं कोई बात इनकी इमेज खराब न कर दे। अपने लिए इन्हें समझदार और बुध्दिमान साथी की जरूरत होती है।

Q - इन्हें प्यार का बार-बार इजहार बड़ा ही पसंद होता है। फूल हों या गिफ्ट इनको आसानी से खुश किया जा सकता है। ऐसी गतिविधियां इन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित भी करती हैं।

R - इनके लिए ऐसे साथी की जरूरत होती है जो अनकी भावनाओं को समझ सकें। इन्हें
शारीरिक सुंदरता के बजाय बुदिध्दता से प्रभावित किया जा सकता है।

S - इस अक्षर के लोग आदर्श रोमांटिक होते हैं। इनका अपनी भावनाओं पर काफी अच्छा नियंत्रण होता है। सही साथी की तलाश मे इन्हें लंबा इंतजार भी करना पडे तो इन्हें कोई दिक्कत नहीं होती। इसके साथ ही ये अच्छे दोस्त भी साबित होते हैं।

T - इस लेटर वाले लोग बेहद संवेदनशील होते हैं। अपनी भावनाओ को सबसे बताना भी इन्हें पसंद नहीं। हालाकिं बड़ी ही आसानी से ये किसी के भी प्यार में पड़ जाते हैं। फलर्टिंग में मास्टर होने के कारण इन्हें कई बार समस्याओं से भी दों चार होना पड़ता है।

U - प्यार इनके लिए एक खूबसूरत अहसास है, जो इन्हें खुश बनाए रखता है। प्यार में न होने पर भी ये सोच - सोचकर ही खुश हो लेते हैं। इन्हें एडवेंचर के साथ ही आजादी बड़ी प्यारी होती है।

V - इन्हें भी अपनी आजादी बड़ी प्यारी होती है। अपने साथी से थोड़ी-सी समझदारी और स्पेस इनकी ख्वाहिश होती है। किसी से भी जुड़ने के पहले आप खद को पूरी तरह तैयार कर लेते हैं और सामने वाले की आदतों को भी जान लेते हैं।

W - ऐसे लोगों को अपने आप पर कुछ ज्यादा ही गर्व होता है। रोमांटिक होने के बावजूद ये अपनी ही भावनाओं को अहतियत देते हैं। साथी की चाहत इनके लिए सेकेंडरी हो जाती है।

X - प्यार के मामले में कोई भी फैसला लेने से पहले बहुत सोच-विचार करते हैं। एक ही समय पर एक से अधिक रिश्ते निभाने में ये माहिर होते हैं।

Y - ये बहुत ही स्वतंत्र होते है। यदि इन्हें अपना रास्ता नहीं मिलता तो ये सभी कुछ भूल जाते हैं। रोमांटिक और ओपन माइंडेट होने के साथ ही रिश्ते निभाने के लिए हरसंभव कोशिश करते हैं।

Z -  इस लेटर के लोग किसी पर भरोसा नहीं कर पाते। इसलिए इन पर भी कोई भरोसा नहीं कर पाता। इसलिए रिश्तों के मामले में इन्हें अच्छा नहीं कहा जा सकता।

पेशकश : सरफ़राज़ ख़ान

कल्पना पालकीवाला
ऐसे कई बांस प्रजाति होते हैं जिन्हें बगीचों में लगाया जाता है। बांस दो तरह से लगाया जाता है - संधिताक्षी और एकलाक्षी। जो बांस संधिताक्षी विधि से लगाए जाते हैं वे धीरे-धीरे बढ़ते हैं, क्योंकि इस तरह की विधि से लगाए जाने वाले पौधों की जड़ें धीरे-धीरे फैलती हैं। एकलाक्षी विधि से लगाए जाने वाले बांस बहुत तेजी से बढ़ते हैं इसलिए उनकी विशेष देखभाल की जरूरत पड़ती है। ये बांस मुख्यत: अपनी जड़ों से और कुछ मामलों में अपनी मूल गांठों के जरिए बढ़ते हैं। वे जमीन के अंदर तेजी से फैलते हैं और उनकी नई-नई कोंपलें फूटकर बाहर निकल आती हैं। एकलाक्षी बांसों की प्रजातियों में बहुत विविधता है। कुछ तो एक साल में ही बहुत बढ़ जाती हैं तो कुछ लंबे समय तक एक ही जगह फैलती रहती हैं। यदि बांस में कभी-कभार फूल भी आ जाते हैं, लेकिन अलग-अलग किस्मों के बांस में फूल आने की बारंबारता भी अलग-अलग होती है। एक बार जब फूल आ जाते हैं तो पौधा मुरझाना शुरू हो जाता है और फिर मर जाता है। फूलों में जो बीज होते हैं उन्हें उस प्रजाति को दोबारा जिंदा करने के काम में लाया जा सकता है। लेकिन फूल आने की वजह से प्रजाति के बदल जाने की संभावना रहती है। इस तरह नई प्रजाति विकसित हो जाती है। ऐसे कई प्रजातियां हैं जिनका कई दशकों पहले कोई वजूद नहीं था। उन्हें फूलों ने विकसित किया। बीजों का जीवन आम तौर पर तीन से 12 महीनों का होता है। बीजों को ठंडे वातावरण में रखकर उसकी उपादेयता को कायम रखा जा सकता है। इससे उन्हें 4-8 सप्ताहों तक बोया जा सकता है। यद्यपि बांसों की कुछ ही प्रजातियों में एक समय में फूल आते हैं लेकिन जो लोग किसी विशेष प्रजाति के बाँस को लगाना चाहते हैं तो वे बीजों की प्रतीक्षा करने के बजाए पहले से ही लगे पौधों से काम चला सकते हैं।

बांस जब एक बार झुरमुट में विकसित हो जाते हैं तो बांसों को तब तक नष्ट नहीं किया जा सकता जब तक जमीन खोदकर उसकी गाँठों को समूल नष्ट न कर दिया जाए। यदि बांसों को खत्म करना है तो एक विकल्प और है, और वह यह है कि उसे काट दिया जाए और जब भी नई कोंपलें निकलें उन्हें फौरन तोड़ दिया जाए। यह काम तब तक किया जाए जब तक उसकी जड़ों का दाना-पानी न बंद हो जाए। अगर एक भी पत्ती फोटोसेंथेसिस का कार्य करने के लिए कायम रही तो बांस जी उठेगा और उसका बढ़ना जारी रहेगा। बांसों की बढत क़ो नियंत्रित करने के लिए रासायनिक तरीका भी इस्तेमाल किया जाता है।

एकलाक्षी बांस को अगल-बगल फैलने से रोकने के दो तरीके हैं। पहला तरीका है कि उसकी गांठों को लगातार छांटा जाता रहे, ताकि वहां से निकलकर बांस अपनी परिधि से बाहर नहीं जाए। इस कार्य के लिए कई औजार काम में आते हैं। अनुकूल मृदा परिस्थितियों में बांस की जड़ वाली गांठें जमीन की सतह के काफी निकट स्थित होती हैं। यानी तीन इंच तक या एक फुट तक। इसकी छंटाई साल में एक बार की जानी चाहिए लेकिन वसंत, ग्रीष्म या शीत के समय इसकी जांच जरूर की जाए। कुछ प्रजातियां ऐसी होती हैं जो बड़ी गहराई में होती हैं यहां तक कि फावड़ा उन तक नहीं पहुंच पाता।

बांस के झुरमुट को यहां-वहां फैलने से रोकने का दूसरा तरीका है कि झुरमुट के चारों तरफ बाड़ लगा दी जाए। ये तरीका सजावटी बांसों के लिए बहुत खतरनाक होता क्योंकि इससे बांस बंध जाते हैं और ऐसा लगता है कि पौधा बहुत दुखी है। ऐसे हालात में इस बात का भी अंदेशा रहता है कि गांठ ऊपर आ जाए और बाड़ तोड़कर बाहर निकल जाए। इस तरह की स्थिति में जो बांस रखे जाते हैं वे प्राय: नष्ट हो जाते हैं या उनकी बढत बाधित हो जाती है या कुछ का जीवन कम हो जाता है। उनकी बढत भी भरपूर नहीं होती, उनकी पत्तियां पीली पड़ जाती हैं, उनकी जड़ों को पर्याप्त भोजन नहीं मिलता और पत्तियां झड़ने लगती हैं। बाड़ प्राय: ईंट-गारे की और विशेष एचडीपीई प्लास्टिक की बनी होती हैं। ये बाड़ कभी न कभी नाकाम हो ही जाती है या इसके अंदर के बांस को बहुत नुकसान पहुंचता है। पांच-छह सालों में प्लास्टिक की बाड़ टूटने लगती है और उसके अंदर से गांठें बाहर निकलने लगती हैं। छोटे स्थान में नियमित रखरखाव ही बांस को फैलने से रोकने का एकमात्र तरीका है। निर्बाध फलने-फूलने वाले बांसों की तुलना में बाड़ों में कैद बांसों को नियंत्रित करना खासा कठिन काम है। संधिताक्षी बांसों के लिए बाड़ या उन्हें तराशना जरूरी नहीं है। इस तरह के बांस अगर बढ़ जाएं तो उनके एक हिस्से को काट दिया जाता है।


असलम  ख़ान
मानसून के आने के साथ ही बिजली के उपकरणों से करंट के कारण मौतें होना आम है। मानसून के महीनों में सभी बड़े हरों में औसतन रोजाना तीन से पांच लोगों की मौत हो जाती है। बिजली के करंट से लगने वाली अधिकतर मौतों की वजह बिजली से जुड़ी जागरूकता का अभाव होता हैं।


हार्ट केयर फाउंडेशन  ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. के के अग्रवाल  के मुताबिक़   
लोगों को सिर्फ बिजली से बचने के उपायों को जानने की जरूरत है बल्कि जानलेवा बिजली के उपकरणों से बचने के लिए जरूरी उपायों को अपनाकर होने वाली मौत से भी बचा जा सकता है। इसके साथ ही बिजली के करंट से मरने वाले व्यक्ति को उपायों के जरिए बचाया जा सकता है। बिजली से अच्छी सेवा होती है लेकिन इसका असर बुरा भी हो सकता है। अच्छी इस तरह से कि अगर इसका उचित प्रयोग किया गया तो यह वरदान के समान है और बुरी तब होती है जब गलत इस्तेमाल के कारण मौत हो जाती है।
सबसे महत्वपूर्ण यह जानकारी मुहैया कराना है कि अर्थिंग का उचित इस्तेमाल करें। अर्थिंग को हरी स्रोत या फिर घर में ही गड्ढा खोदकर किया जा सकता है। अर्थिंग एक मोटा वायर होता है, जो तीन पिन वाले इलेक्ट्रिकल सॉकेट में ऊपर लगा होता है। अर्थिंग को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हरा रंग प्रदान किया गया है जिसे पहचानने में किसी तरह की परेशानी नहीं होनी चाहिए।
लोगों के बीच रंगों के इस्तेमाल को भी बढ़ावा दिये जाने की आवष्यकता है, हरा अर्थिंग के लिए, काला न्यूट्रल और लाल लाइव वायर। नॉर्मल इलेक्ट्रिसिटी सामान्य तब होती है जब लाइव वायर न्यट्रल वायर से कनेक्ट होता है। अर्थ वायर बिजली के करंट के लीकेज को सुरक्षात्मक तरीके से खत्म कर देता है।  लाइव और अर्थ वायर से भी बिजली का करंट आता है, लेकिन करंट तब नहीं आता जब अर्थ वायर न्यूट्रल वायर से जुड़ता है।
बिजली के इस्तेमाल को अर्थिंग सुरक्षित बनाता हैं। इस अर्थिंग को हर छह महीने में जांच कराते रहना चाहिए, क्योंकि मौसम और समय के हिसाब सेविशेष रूप से बारिश के मौसम में इसमें खराबी होने की संभावना रहती है। इसकी जांच आसानी से सामान्य टेस्टर के जरिए की जा सकती है।
टेस्टर या टेस्ट लैंप से पर्याप्त अर्थिंग है या नहीं का पता लगाया जा सकता है। एक बार बिजली के बल्ब को लाइव और अर्थ वायर से जोड़कर देखते हैं। अगर इससे बल्ब नहीं जलता है तो इसका मतलब है कि अर्थिंग ठीक से काम नहीं कर रहा है। लोग अर्थिंग को हमेशा हल्के से लेते हैं और अक्सर इसका दुरुपयोग करते हैं। लाइव वायर और अर्थ वायर को कभी-कभी कुछ समय के कनेक्षन के लिए सही तरीके से बांधा नहीं जाता है, जो जानलेवा साबित हो सकता है।
बिजली सम्बंधी दुर्घटनाओं से बचने के लिए क्या करें और क्या करें  के तौर पर निम्न सामान्य उपाय अपनाएं
* इसबारेमेंसुनिश्चितहोलेंकिघरमेंअर्थिंगकनेक्शनहै।

* हमेशा हरे रंग के वायर को ध्यान में रखें, अगर यह हो तो बिजली के उपकरण का इस्तेमाल करें खासतौर से तब जब आप किसी भी रूप में पानी की सतह को छू रहे हों। पानी की वजह से अतिरिक्त सावधानियां बरतनी होती हैं, इसके लिए अन्य शर्तें हैं।
* दो पिन वाले प्लग में अर्थिंग नहीं होती, इसलिए इन्हें नहीं इस्तेमाल करना चाहिए, बल्कि इन पर तो प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए।
* जब भी तीन पिन वाले प्लग काइस्तेमाल करें तब भी यह देख लें कि तीनों के वायर में किसी भी तरह की गड़बड़ी तो नहीं है।
* वायर के सॉकेट में माचिस की तीली का इस्तेमाल करें।
* किसी भी तरह के तार को छुएं जब तक यह सुनिश्चत हो लें कि स्विच ऑफ है।
* अर्थ वायर को न्यूट्रल वायर की जगह लगाएं।
* सभी जुड़े हुए तारों को सही तरीके से इन्सुलेट टेप से ढका जाना चाहिए कि सेलो टेप या बैंड एड से।
* गीजर का पानी इस्तेमाल करने से पहले मेन स्विच को ऑफ कर दें।
* खाना बनाने के लिए हीटर की प्लेट को खुले तारों से जलाएं।
* घर में स्लीपर चप्पलों का इस्तेमाल करें।
* घर में मिनी सर्किट ब्रेकर (एमसीबी) और अर्थ लीक सर्किट ब्रेकर (ईसीएलबी) का इस्तेमाल करें।
* पानी के नल के पास मेटालिक इलेक्ट्रिकल उपकरण का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए।
* रबर की चटाई का इस्तेमाल करें और कूलर के स्टैंड में भी रबर गुल्ली लगाएं साथ ही बिजली उपकरणों को सही तरह से ढक कर रखें।
* सिर्फ प्रतिरोधी वायर और फ्यूज का ही इस्तेमाल करें।
* अर्थिंग की जांच हर छह महीने में कराएं।
* इलेक्ट्रिसिटी की लीकेज को किसी भी साधारण टेस्टर से पता लगाया जा सकता है।
* रेफ्रिजरेटर के हैंडल में कपड़ा लपेट दें।
* हर बिजली के उपकरण में लिखे निर्देशों को ध्यानपूर्वक पढ़ें।

अमेरिका (110 वोल्ट) की तुलना में भारत में बिजली की वजह से 220 वोल्ट के इस्तेमाल से अधिक मौतें होती हैं। एसी करंट डीसी करंट से अधिक खतरनाक होता है। एक एसी करंट 10 एमए से अधिक की वजह से इतनी जोर से चिपक जाता है कि उसको छुड़ाना मुश्किल हो जाता है।

बिजली से बचाव के लिए इसके लिए जरूरी सभी उपायों को अपनाएं। इनमें प्रमुख रूप से स्विच या वायर को डिस्कनेक्ट करने के लिए लकड़ी का सामान या कार्डियो पल्मोनरी का इस्तेमाल कियो जाने की शुरुआत कर देनी चाहिए। चिकत्सीय तौर पर मृत घोषित व्यक्ति की जान को जरूरी उपाय के जरिए ही बचाई जा सकती है।

गंभीर रूप से बिजली की वजह से चार से पांच मिनट के अंदर चिकित्सीय मौत हो जाने के मामले में सीमित समय होता है। इसके लिए शिकार व्यक्ति को अस्पताल ले जाने का इंतजार नहीं किया जाना चाहिए। तभी और तुरंत जरूरी उपाय अपनाएं।


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