सरफ़राज़ ख़ान
विभिन्न संस्कृतियों के देश भारत में एक नहीं दो नहीं, बल्कि अनेक नववर्ष मनाए जाते हैं. यहां के अलग-अलग समुदायों के अपने-अपने नववर्ष हैं. अंग्रेजी कैलेंडर का नववर्ष एक जनवरी को शुरू होता है. इस दिन ईसा मसीह का नामकरण हुआ था. दुनियाभर में इसे धूमधाम से मनाया जाता है.
मोहर्रम महीने की पहली तारीख को मुसलमानों का नया साल हिजरी शुरू होता है. मुस्लिम देशों में इसका उत्साह देखने को मिलता है. इस्लामी या हिजरी कैलेंडर, एक चंद्र कैलेंडर है, जो न सिर्फ मुस्लिम देशों में इस्तेमाल होता है, बल्कि दुनियाभर के मुसलमान भी इस्लामिक धार्मिक पर्वों को मनाने का सही समय जानने के लिए इसी का इस्तेमाल करते हैं. यह चंद्र-कैलेंडर है, जिसमें एक वर्ष में बारह महीने, और 354 या 355 दिन होते हैं, क्योंकि यह सौर कैलेंडर से 11 दिन छोटा है इसलिए इस्लामी तारीखें, जो कि इस कैलेंडर के अनुसार स्थिर तिथियों पर होतीं हैं, लेकिन हर वर्ष पिछले सौर कैलेंडर से 11 दिन पीछे हो जाती हैं. इसे हिजरी इसलिए कहते हैं, क्योंकि इसका पहला साल वह वर्ष है जिसमें हज़रत मुहम्मद की मक्का शहर से मदीना की ओर हिज्ऱ या वापसी हुई थी. हिंदुओं का नववर्ष नव संवत्सर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा में पहले नवरात्र से शुरू होता है. इस दिन ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की थी. जैन नववर्ष दीपावली से अगले दिन होता है. भगवान महावीर स्वामी की मोक्ष प्राप्ति के अगले दिन यह शुरू होता है. इसे वीर निर्वाण संवत कहते हैं. बहाई धर्म में नया वर्ष ‘नवरोज’ हर वर्ष 21 मार्च को शुरू होता है. बहाई समुदाय के ज्यादातर लोग नव वर्ष के आगमन पर 2 से 20 मार्च अर्थात् एक महीने तक व्रत रखते हैं. गुजराती 9 नवंबर को नववर्ष ‘बस्तु वरस’ मनाते हैं. अलग-अलग नववर्षों की तरह अंग्रेजी नववर्ष के 12 महीनों के नामकरण भी बेहद दिलचस्प है. जनवरी : रोमन देवता 'जेनस' के नाम पर वर्ष के पहले महीने जनवरी का नामकरण हुआ. मान्यता है कि जेनस के दो चेहरे हैं. एक से वह आगे और दूसरे से पीछे देखता है. इसी तरह जनवरी के भी दो चेहरे हैं. एक से वह बीते हुए वर्ष को देखता है और दूसरे से अगले वर्ष को. जेनस को लैटिन में जैनअरिस कहा गया. जेनस जो बाद में जेनुअरी बना जो हिन्दी में जनवरी हो गया.
फरवरी : इस महीने का संबंध लैटिन के फैबरा से है. इसका अर्थ है 'शुद्धि की दावत' . पहले इसी माह में 15 तारीख को लोग शुद्धि की दावत दिया करते थे. कुछ लोग फरवरी नाम का संबंध रोम की एक देवी फेबरुएरिया से भी मानते हैं. जो संतानोत्पत्ति की देवी मानी गई है इसलिए महिलाएं इस महीने इस देवी की पूजा करती थीं.
मार्च : रोमन देवता 'मार्स' के नाम पर मार्च महीने का नामकरण हुआ. रोमन वर्ष का प्रारंभ इसी महीने से होता था. मार्स मार्टिअस का अपभ्रंश है जो आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है. सर्दियों का मौसम खत्म होने पर लोग शत्रु देश पर आक्रमण करते थे इसलिए इस महीने को मार्च रखा गया.
अप्रैल : इस महीने की उत्पत्ति लैटिन शब्द 'एस्पेरायर' से हुई. इसका अर्थ है खुलना. रोम में इसी माह बसंत का आगमन होता था इसलिए शुरू में इस महीने का नाम एप्रिलिस रखा गया. इसके बाद वर्ष के केवल दस माह होने के कारण यह बसंत से काफी दूर होता चला गया. वैज्ञानिकों ने पृथ्वी के सही भ्रमण की जानकारी से दुनिया को अवगत कराया तब वर्ष में दो महीने और जोड़कर एप्रिलिस का नाम पुनः सार्थक किया गया.
मई : रोमन देवता मरकरी की माता 'मइया' के नाम पर मई नामकरण हुआ. मई का तात्पर्य 'बड़े-बुजुर्ग रईस' हैं. मई नाम की उत्पत्ति लैटिन के मेजोरेस से भी मानी जाती है.
जून : इस महीने लोग शादी करके घर बसाते थे. इसलिए परिवार के लिए उपयोग होने वाले लैटिन शब्द जेन्स के आधार पर जून का नामकरण हुआ. एक अन्य मान्यता के मुताबिक रोम में सबसे बड़े देवता जीयस की पत्नी जूनो के नाम पर जून का नामकरण हुआ.
जुलाई : राजा जूलियस सीजर का जन्म एवं मृत्यु दोनों जुलाई में हुई. इसलिए इस महीने का नाम जुलाई कर दिया गया.
अगस्त : जूलियस सीजर के भतीजे आगस्टस सीजर ने अपने नाम को अमर बनाने के लिए सेक्सटिलिस का नाम बदलकर अगस्टस कर दिया जो बाद में केवल अगस्त रह गया.
सितंबर : रोम में सितंबर सैप्टेंबर कहा जाता था. सेप्टैंबर में सेप्टै लैटिन शब्द है जिसका अर्थ है सात और बर का अर्थ है वां यानी सेप्टैंबर का अर्थ सातवां, लेकिन बाद में यह नौवां महीना बन गया.
अक्टूबर : इसे लैटिन 'आक्ट' (आठ) के आधार पर अक्टूबर या आठवां कहते थे, लेकिन दसवां महीना होने पर भी इसका नाम अक्टूबर ही चलता रहा.
नवंबर : नवंबर को लैटिन में पहले 'नोवेम्बर' यानी नौवां कहा गया. ग्यारहवां महीना बनने पर भी इसका नाम नहीं बदला एवं इसे नोवेम्बर से नवंबर कहा जाने लगा.
दिसंबर : इसी प्रकार लैटिन डेसेम के आधार पर दिसंबर महीने को डेसेंबर कहा गया. वर्ष का बारहवां महीना बनने पर भी इसका नाम नहीं बदला. 

समीक्षक : डॉ.शाहिद अली
नए दौर में मीडिया दो भागों में बंटा हुआ है, एक प्रिंट मीडिया और दूसरा इलेक्ट्रानिक मीडिया। भाषा और तेवर भी दोनों के अलग–अलग हैं। खबरों के प्रसार की दृष्टि से इलेक्ट्रानिक मीडिया तेज और तात्कालिक बहस छेड़ने में काफी आगे निकल आया है। प्रभाव की दृष्टि से प्रिंट मीडिया आज भी जनमानस पर अपनी गहरी पैठ रखता है। फिर वे कौन से कारण हैं कि आज मीडिया की कार्यशैली और उसके व्यवहार को लेकर सबसे ज्यादा आलोचना का सामना मीडिया को ही करना पड़ रहा है। चौथे खंभे पर लगातार प्रहार हो रहे हैं। समाज का आईना कहे जाने वाले मीडिया को अब अपने ही आईने में शक्ल को पहचानना कठिन हो रहा है। पत्रकारिता के सरोकार समाज से नहीं बल्कि बाजार से अधिक निकट के हो गये हैं। नए दौर का मीडिया सत्ता की राजनीति और पैसे की खनक में अपनी विरासत के वैभव और त्याग का परिष्कार कर चुका है। यानी मीडिया का नया दौर तकनीक के विकास से जितना सक्षम और संसाधन संपन्न हो चुका है उससे कहीं ज्यादा उसका मूल्यबोध और नैतिक बल प्रायः पराभव की तरफ बढ़ चला है।

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी की नई पुस्तक ‘मीडिया- नया दौर नई चुनौतियां’ इन सुलगते सवालों के बीच बहस खड़ी करने का नया हौसला है। संजय द्विवेदी अपनी लेखनी के जरिए ज्वलंत मुद्दों पर गंभीर विमर्श लगातार करते रहते हैं। लेखक और पत्रकार होने के नाते उनका चिन्तन अपने आसपास के वातावरण के प्रति काफी चौकन्ना रहता है, इसलिए जब वे कुछ लिखते हैं तो उनकी संवेदनाएं बरबस ही मुखर होकर सामने आती हैं। राजनीति उनका प्रिय विषय है लेकिन मीडिया उनका कर्मक्षेत्र है। संजय महाभारत के संजय की तरह नहीं हैं जो सिर्फ घटनाओं को दिखाने का काम करते हैं, लेखक संजय अपने देखे गये सच को उसकी जड़ में जाकर पड़ताल करते हैं और सम्यक चेतना के साथ उन विमर्शों को खड़ा करने का काम करते हैं जिसकी चिंता पूरे समाज और राष्ट्र को करना चाहिए। 

यह महज वेदना नहीं है बल्कि गहरी चिंता का विषय भी है कि आजादी के पहले जिस पत्रकारिता का जन्म हुआ था इतने वर्षों बाद उसका चेहरा-मोहरा आखिर इतना क्यों बदल गया है कि मीडिया की अस्मिता ही खतरे में नजर आने लगी है। पत्रकार संजय लंबे समय से मीडिया पर उठ रहे सवालों का जवाब तलाशने की जद्दोजहद करते हैं। कुछ सवाल खुद भी खड़े करते हैं और उस पर बहस के लिये मंच भी प्रदान करते हैं। बाजारवादी मीडिया और मीडिया के आखिरी सिपाही स्व.प्रभाष जोशी के बीच की जंग तक के सफर को संजय काफी नजदीक से देखते हैं और सीपियों की तरह इकट्ठा करके लेखमालाओं के साथ प्रस्तुत करते हैं। संजय के परिश्रमी लेखन पर प्रख्यात कवि श्री अष्टभुजा शुक्ल कहते हैं – “संजय के लेखन में भारतीय साहित्य, संस्कृति और इसका प्रगतिशील इतिहास बार-बार झलक मारता है बल्कि इन्हीं की कच्ची मिट्टी से लेखों के ये शिल्प तैयार हुए हैं। अतः उनका लेखन तात्कालिक सतही टिप्पणियां न होकर, दीर्घजीवी और एक निर्भीक, संवेदनशील तथा जिन्दादिल पत्रकार के गवाह हैं। ऐसे ही शिल्प और हस्तक्षेप किसी भी समाज की संजीवनी है।”

यह सच है कि संजय के लेखों में साहित्य, संस्कृति और प्रगतिशील इतिहास का अदभुत संयोग नजर आता है। इससे भी अधिक यह है कि वे बेलाग और त्वरित टिप्पणी करने में आगे रहते हैं। वैचारिक पृष्ठभूमि में विस्तार से प्रकाश डालना संजय की लेखनी का खास गुण हैं, जिससे ज्यादातर लोग सहमत हो सकते हैं। पं.माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर कमल दीक्षित ने पुस्तक की भूमिका में लिखा है कि  “ श्री द्विवेदी प्रोफेशनल और अकादमिक अध्येता – दोनों ही हैं। वे पहले समाचार-पत्रों में संपादक तक की भूमिका का निर्वाह कर चुके हैं। न्यूज चैनल में रहते हुए उन्होंने इलेक्ट्रानिक मीडिया को देखा समझा है। अब वे अध्यापक हैं। ऐसा व्यक्ति जब कोई विमर्श अपने विषय से जुड़कर करता है तो वह अपने अनुभव तथा दृष्टि से संपन्न होता है, इस मायने में संजय द्विवेदी को पढ़ना अपने समय में उतरना है। ये अपने समय को ज्यादा सच्चाई से बताते हैं।” संजय के लेखन के बारे में दो विद्वानों की टिप्पणियां इतना समझने में पर्याप्त है कि उनकी पुस्तक का फलसफा क्या हो सकता है। अतः इस पुस्तक में संजय ने मीडिया की जिस गहराई में उतरकर मोती चुनने का साहस किया है वह प्रशंसनीय है। पुस्तक में कुल सत्ताइस लेखों को क्रमबद्ध किया गया हैं जिनमें उनका आत्मकथ्य भी शामिल है।

पहले क्रम में लेखक ने नई प्रौद्योगिकी, साहित्य और मीडिया के अंर्तसंबंधों को रेखांकित किया है। आतंकवाद, भारतीय लोकतंत्र और रिपोर्टिंग,  कालिख पोत ली हमने अपने मुंह पर, मीडिया की हिन्दी, पानीदार समाज की जरुरत, खुद को तलाशता जनमाध्यम जैसे लेखों के माध्यम से लेखक ने नए सिरे से तफ्तीश करते हुए समस्याओं को अलग अन्दाज में रखने की कोशिश की है। बाजारवादी मीडिया के खतरों से आगाह करते हैं मीडिया को धंधेबाजों से बचाइए, दूसरी ओर मीडिया के बिगड़ते स्वरुप पर तीखा प्रहार करने से नहीं चूकते हैं। इन लेखों में एक्सक्लुजिव और ब्रेकिंग के बीच की खबरों के बीच कराहते मीडिया की तड़फ दिखाने का प्रयास भी संजय करते हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया के प्रिंस की पहचान कराते हैं और मीडिया के नारी संवेदनाओं को लेकर गहरी चिंता भी करते हैं। मीडिया में देहराग, किस पर हम कुर्बान, बेगानी शादी में मीडिया दीवाना जैसे लेखों में वे मीडिया की बेचारगी और बेशर्मी पर अपना आक्रोश भी जाहिर करते हैं। 

श्री संजय की पुस्तक में मीडिया शिक्षा को लेकर भी कई सवाल हैं। मीडिया के शिक्षण और प्रशिक्षण को लेकर देश भर कई संस्थानों ने अपने केन्द्र खोले है। कई संस्थान तो ऐसे हैं जहां मीडिया शिक्षण के नाम पर छद्म और छलावा का खेल चल रहा है। मीडिया में आने वाली नई पीढ़ी के पास तकनीकी ज्ञान तो है लेकिन उसके उद्देश्यों को लेकर सोच का अभाव है। अखबारों की बैचेनी के बीच उसके घटते प्रभाव को लेकर भी पुस्तक में गहरा विमर्श देखने को मिलता है। विज्ञापन की तर्ज पर जो बिकेगा, वही टिकेगा जैसा कटाक्ष भी लेखक संजय ने किया है। वहीं थोड़ी सी आशा भी मीडिया से रखते हैं कि जब तंत्र में भरोसा न रहे वहां हम मीडिया से ही उम्मीदें पाल सकते हैं। 

संजय हिंदी की पत्रकारिता पर भी अपना ध्यान और ध्येय केन्द्रित करते हैं। उनका मानना है कि अब समय बदल रहा है इकोनामिक टाइम्स, बिजनेस स्टैंडर्ड और बिजनेस भास्कर का हिन्दी में प्रकाशन यह साबित करता है कि हिंदी क्षेत्र में आर्थिक पत्रकारिता का नया युग प्रारंभ हो रहा है। हिंदी क्षेत्र में एक स्वस्थ औद्योगिक वातावरण, व्यावसायिक विमर्श, प्रशासनिक सहकार और उपभोक्ता जागृति की संभावनाएं साफ नजर आ रही हैं। हालांकि वे हिन्दी बाजार में मीडिया वार की बात भी करते हैं। फिलवक्त उन्होंने अपनी पुस्तक में पत्रकारिता की संस्कारभूमि छत्तीसगढ़ के प्रभाव को काफी महत्वपूर्ण करार दिया है। अपने आत्मकथ्य ‘मुसाफिर हूं यारों’ के माध्यम से वे उन पलों को नहीं भूल पाते हैं जहां उनकी पत्रकारिता परवान चढ़ी है। वे अपने दोस्तों, प्रेरक महापुरुषों और मार्गदर्शक पत्रकारों की सराहना करने से नहीं चूकते हैं जिनके संग-संग छत्तीसगढ़ में उन्होंने अपनी कलम और अकादमिक गुणों को निखारने का काम किया है। 

संजय द्विवेदी के आत्मकथ्य को पढना काफी सुकून देता है कि आज भी ऐसे युवा हैं जिनके दमखम पर मीडिया की नई चुनौतियां का सामना हम आसानी से कर सकते हैं। जरुरत है ज़ज्बे और ईमानदार हौसलों की और ये हौसला हम संजय द्विवेदी जैसे पत्रकार, अध्यापक और युवा मित्र में देख सकते हैं। संजय की यह पुस्तक विद्यार्थियों, शोधार्थियों और मीडिया से जुड़े प्रत्येक वर्ग के लिये महत्वपूर्ण दस्तावेज है। ज्ञान, सूचना और घटनाओं का समसामयिक अध्ययन पुस्तक में दिग्दर्शी होता है। भाषा की दृष्टि से पुस्तक पठनीयता के सभी गुण लिए हुए है। मुद्रण अत्यन्त सुंदर और आकर्षक है। कवर पृष्ठ देखकर ही पुस्तक पढ़ने की जिज्ञासा बढ़ जाती है।

पुस्तक का नामः मीडियाः नया दौर नई चुनौतियां
लेखकः संजय द्विवेदी
प्रकाशकः  यश पब्लिकेशन्स,  1 / 10753 सुभाष पार्क, गली नंबर-3, नवीन शाहदरा, नीयर कीर्ति मंदिर, दिल्ली-110031 
मूल्यः 150 रुपये मात्र


विजय लक्ष्मी कसौटिया  
मानव संसाधन विकास को हस्तक्षेप का एक प्रमुख क्षेत्र मानते हुए खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय ने राष्ट्रीय खाद्य प्रौद्योगिकी, उद्यमशीलता और प्रबंधन संस्थान (एनआईएफटीईएम) की स्थापना की सामरि पहल के लि कदम उठाए हैं। संस्थान की परिकल्पना अपने विभिन् हितधारकों जैसे निर्यातकों, उद्योग, उद्यमियों और नीति निर्माताओं की संपूर्ण आवश्यकताओं को पूरा करते हुए एक सर्वश्रेष् विश् स्तरीय संस्थान बनाने की है। संस्थान भारत में खाद्य प्रसंस्करण उद्योग क्षेत्र को महत्वपूर्ण प्रोत्साहन प्रदान करने में एक अहम भूमिका निभा रहा है।
एक स्पष् परिकल्पना
            एनआईएफटीईएम दक्षता, खाद्य प्रौद्योगिकी के सभी एकीकृत पहलुओं, उद्यमिता, अनुसंधान और प्रबंधन के एक अंतर्राष्ट्रीय संस्थान के रूप में सामने रहा है और भारत में खाद्य प्रसंस्करण उद्योग की वृद्धि को और बढ़ाने में प्रमुख केन्द्र के तौर पर पहचान बना रहा है। संस्थान पारंपरि खाद्य प्रौद्योगिकी से आगे बढ़कर कृषि व्यवसाय प्रबंधन, संस्थागत व्यवहार, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, लेखा, लघु और बृहद अर्थशास्त्र, पोषण विज्ञान और अनुवांशिकी जैसे विषयों को शामि करते हुए खाद्य विज्ञान के लि अधि व्यापक पहुंच बनाता है।
            एनआईएफटीईएम की स्थापना दिल्ली के निकट हरियाणा के सोनीपत जिले के कुंडली में 100 एकड़ क्षेत्र में की गई है। केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने एनआईएफटीईएम की कानूनी स्थिति को एक कंपनी से बदलकर संस्था बनाने के मंत्रालय के प्रस्ताव को स्वीकृति दे दी है। इससे संस्थान को एक स्वायत्तशासी संस्था के रूप में कार्य करने की भी स्वीकृति मि गई है।
एनआईएफटीईएम की भूमिका
            संस्थान की भूमिका खाद्य विज्ञान और प्रौद्योगिकी में आधुनि जानकारी के साथ विश् स्तरीय प्रबंधकीय प्रतिभा और उद्यमशीलता को विकसि करने के अलावा ऐसे नियमों के लि बौद्धि सहायता प्रदान करना है, जो नवप्रर्वतन को बढ़ावा देने के लि खाद्य सुरक्षा और गुणवत्ता को नियंत्रि कर सकें।
            इसकी भूमिका में खाद्य प्रसंस्करण के अन् पक्षों जैसे उत्पाद जानकारी, उत्पादन और प्रसंस्करण प्रौद्योगिकी, बाजार रूझान, सुरक्षा और गुणवत्ता मानक, प्रबंधन कार्यो के अलावा व्यापार संवर्द्धन सेवाओं के साथ फलों और सब्जियों, डेयरी, मीट, अनाज प्रसंस्करण, देश के भीतर और विदेश दोनों में वर्तमान संस्थानों के बीच संपर्क और सहयोग को प्रोत्साहन देने के लि एक ज्ञान केन्द्र के रूप में कार्य करना भी शामि है।
            एनआईएफटीईएम के अभियान में लक्ष्यों को प्राप् कि जाने के लि स्पष्टता है इसमें नवीन मूल् संवर्द्धि उत्पाद, प्रतिस्पर्धात्मक प्रक्रिया का सृजन और प्रौद्योगिकियां शामि हैं, जो भारत को विश् में खाद्य केन्द्र के रूप में सेवा प्रदान करने और खाद्य उत्पादों के परीक्षण के लि प्रयोगशाला जैसी सेवाओं में सक्षम बना सके। यह हितधारकों को अगले और पिछले संपर्क प्रदान करने के अलावा खाद्य अनुसंधान और प्रौद्योगिकी में वैश्वि रूझानों के साथ अद्यतन रहने तथा कौशल को और पैना बनाने के लि निरंतर प्रशिक्षण भी प्रदान करता है। संस्थान प्रणालियों के मानकीकरण और संस्थानों के कुशल उपयोग एवं उद्यमियों को सहायता और दीर्घकालीन व्यवसायों को विकसि करने को सुनिश्चि करने के लि अन् खाद्य प्रशिक्षण प्रयोगशालाओं के साथ नेटवर्क संपर्क भी प्रदान करता है।
एनआईएफटीईएम खाद्य मानकों, गुणवत्ता संवर्द्धन और प्रमाणन एवं भारतीय पारंपरि खाद्य प्रथाओं के ज्ञान बैंक के विकास में सहायता प्रदान करता है, इसके अलावा प्रयोगशालाओं से सरल प्रौद्योगिकियों के खेत में हस्तांतरण एवं राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कानूनों एवं नियमों के सामंजस् को प्रोत्साहन देता है।
खाद्य विज्ञान और प्रबंधन में शिक्षा के पहलू
            प्रतिष्ठि वैश्वि संस्थानों के साथ सहयोग, एनआईएफटीईएम की कार्य संस्कृति के गठन में एक अहम अंग होगा। इसका उद्देश् वैश्वि खाद्य उद्योग में प्रतिष्ठि संस्थानों के साथ सफल गठजोड़ और सहयोग के माध्यम से देश में आधुनि प्रौद्योगिकी और दक्षता को लाना है। शिक्षण और अनुसंधान के लि संस्थान के पांच विभागों को खाद्य प्रसंस्करण और प्रबंधन के विभिन् क्षेत्रों में संयुक्त अनुसंधान परियोजनाओं के साथ-साथ छात्र और संकाय आदान-प्रदान कार्यक्रमों के माध्यम से प्रतिष्ठि अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों के साथ दीर्घकालि सहयोग का भी लाभ मिलेगा। एनआईएफटीईएम संकाय और छात्रों को अन् देशों से वार्ता और बाहरी देश के साथ अनुसंधान कार्य के माध्यम से अत्यधि लाभ प्राप् करने में मदद करेगा।
            भारतीय खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों में वैश्वि पद्धति और विशेषज्ञता को लाने के प्रयासों के अंतर्गत, एनआईएफटीईएम, कॉलेज ऑफ एग्रीकल्चर और कॉर्नेल विश्वविद्यालय की जीवन विज्ञान ने खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र में नवीनता लाने के लि मानव संसाधन विकास, प्रायोगि अनुसंधान और उद्योग में सहयोग के लि जनवरी, 2008 में एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। खाद्य विज्ञान शिक्षा में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रमुख कॉर्नेल विश्वविद्यालय और कॉर्नेल विश्वविद्यालय की भारतीय सहायक, सतगुरू ने खाद्य विज्ञान और उद्यम विकास में सहयोग के क्षेत्रों में ज्ञान संपर्क, खाद्य विज्ञान अनुसंधान के लि प्रारूप सुविधाएं, शिक्षा कार्यक्रम के माध्यम से एनआईएफटीईएम को सामरि सहायता प्रदान करने के लि हाथ मिलाए हैं।   
वैश्वि सहयोग के लि संभावि क्षेत्र
            वैश्वि सहयोग के क्षेत्र में एनआईएफटीईएम पाठ्यक्रम तैयार करने के अलावा संकाय आदान-प्रदान, व्यवसाय प्रोत्साहन, उपभोक्ता अनुसंधान और सूचनाओं के आदान-प्रदान के क्षेत्र में सुविधाएं प्रदान करता है।
विषय केन्द्र-नेतृत् की भावना को प्रोत्साहन
            एनआईएफटीईएम खाद्य प्रसंस्करण के प्रमुख क्षेत्र में नेतृत् और नवीन क्रियाकलापों के प्रोत्साहन के उद्देश् के साथ विषय केन्द्रों का विकास कर रहा है। प्रत्येक विषय में अनुसंधान और प्रशिक्षण के लि केन्द्र विश्-स्तरीय श्रमशक्ति और बुनियादी ढांचे के रूप में सामने आएगा। विषय केन्द्र विभिन् दुग्धपालन, समुद्री भोजन और मदिरा जैसे खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्रों में संकाय आदान-प्रदान कार्यक्रम अथवा संयुक् अनुसंधान पहलों के माध्यम से प्रतिष्ठि अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों के साथ दीर्घकालि संबंधों के माध्यम से लाभ प्रदान करेगा।
एनआईएफटीईएम खाद्य और प्रबंधन में बी.टेक, एम.टेक सुविधा भी प्रदान करता है। यह खाद्य व्यापार प्रबंधन और खाद्य प्रौद्योगिकी में मानद जैसे पाठ्यक्रमों की भी सुविधा प्रदान करता है।
एक सुनहरे भविष् की ओर
            इसका भविष् एक संगठनात्मक पारिस्थितिकी प्रणाली और विश् स्तरीय बुनियादी ढांचे के निर्माण में निहि है, जो एनआईएफटीईएम के संपूर्ण कार्यकलापों और संबंद्ध गतिविधियों में शामि है। एनआईएफटीईएम ज्ञान अभियान, सर्वश्रेष् वैश्वि कार्यप्रणालियों को अपनाने, नवीनता, भागीदारी और कौशल में अग्रणी होगा, इसकी सफलता भारतीय खाद्य प्रसंस्करण उद्योग के मूल्यांकन में एक नए युग की पटकथा के लि महत्वपूर्ण होगा।


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