फ़िरदौस ख़ान
है राम के वजूद पे हिन्दोस्तां को नाज़
अहल-ए-नज़र समझते हैं इस को इमाम-ए-हिन्द
लबरेज़ है शराब-ए-हक़ीक़त से जाम-ए-हिन्द
सब फ़सलसफ़ी हैं ख़ित्त-ए-मग़रिब के राम-ए-हिन्द

बाबरी मस्जिद और राम जन्मभूमि मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच का फ़ैसला आ चुका है। अदालत ने विवादित ज़मीन को तीन हिस्सों में बांटा है। एक हिस्सा हिन्दुओं, दूसरा हिस्सा निर्मोही अखाड़े और तीसरा हिस्सा मुसलमानों को देने के निर्देश दिए गए हैं। न्यायाधीश एसयू ख़ान, न्यायाधीश सुधीर अग्रवाल और न्यायाधीश धर्मवीर शर्मा की खंडपीठ द्वारा दिए गए इस फ़ैसले का इससे बेहतर हल शायद ही कोई और हो सकता था। यह फ़ैसला देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने वाला है। इसलिए सभी पक्षों को इसे दिल से क़ुबूल करना चाहिए। हालांकि मुस्लिम पक्ष के वकील इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाने की बात कर रहे हैं। मुसलमानों को चाहिए कि इस मामले को यहीं ख़त्म कर दें और देश और समाज की तरक्क़ी के बारे में सोचें। देश और समाज के हित में सांप्रदायिक सौहार्द्र बढ़ाने के लिए यह एक बेहतरीन मौक़ा है। विवादित ज़मीन पर मंदिर बने या मस्जिद, दोनों ही इबादतगाह हैं। दोनों के लिए ही हमारे लिए मन में श्रध्दा होनी चाहिए।

राम हिन्दुओं के तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं में से एक हैं। राम ने अपने पिता के वचन को निभाने के लिए अपना सिंहासन त्यागकर वनवास क़ुबूल कर लिया। मुस्लिम बहुल देश इंडोनेशिया में भी राम को एक आदर्श पुरुष के रूप में देखा जाता है। यह दुनिया में सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाला देश है। हम जिस धरती पर रहते हैं, राम उसकी संस्कृति के प्रतीक हैं। हमें अपने देश की संस्कृति और सभ्यता का सम्मान करना चाहिए। अदालत के फ़ैसले का सम्मान करते हुए उदारवादी मुसलमानों को आगे आना चाहिए।


जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

आज जब इलाहाबाद उच्चन्यालय की लखनऊ पीठ ने बाबरी मसजिद पर  फैसला सुनाया तो आरंभ में टीवी चैनलों पर भगदड़ मची हुई थी,भयानक भ्रम की स्थिति थी। समझ में नहीं आ रहा था आखिरकार क्या फैसला हुआ ? लेकिन धीरे-धीरे धुंध झटने लगा। बाद में पता चला कि उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने बुनियादी तौर पर विवाद में शामिल पक्षों को सांस्कृतिक समझोते का रास्ता दिखाया है। इस फैसले की कानूनी पेचीदगियों को तो वकील अपने हिसाब से देखेंगे। लेकिन एक नागरिक के लिए यह फैसला चैन की सांस लेने का  मौका देता है।
लखनऊ पीठ के फैसले की धुरी है भारत की सामयिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक विविधता और भाईचारा। बाबरी मसजिद का विवाद राजनीतिक-साम्प्रदायिक विवाद है। यह मंदिर-मसजिद का विवाद नहीं है बल्कि एक तरह से विचारधारात्मक विवाद भी है औऱ विचारधारात्मक विवादों पर बुर्जुआ अदालतों में फैसले अन्तर्विरोधी होते हैं।
राम के जन्म को लेकर जिस चीज को आधार बनाया गया है वह कानूनी आधार नहीं है ,वह सांस्कृतिक-राजनीतिक समझौते का आधार है। अदालत के फैसले से राम पैदा नहीं हो सकते और न भगवान के जन्म को तय किया जा सकता है। भगवान अजन्मा है। यह विवाद का विषय है।
मौटे तौर पर जस्टिस एस .यू.खान के फैसले ने आरएसएस को विचारधारात्मक तौर पर करारा झटका दिया है। इस फैसले की पहली महत्वपूर्ण बात यह है कि बाबर ने राममंदिर तोड़कर मस्जिद नहीं बनायी थी। संघ परिवार का प्रौपेगैण्डा इस राय से ध्वस्त होता है। संघ परिवार का सारा प्रचार अभियान इसी आधार पर चला आ रहा था कि बाबर ने राम मंदिर तोड़कर बाबरी मस्जिद बनायी थी। अदालत ने इसे नहीं माना है।
अदालत ने विवादित जमीन पर साझा स्वामित्व को स्वीकार किया है। यानी हिन्दू-मुसलमानों के साझा स्वामित्व को माना है। यानी राममंदिर की मूर्ति जहां रखी है वह वहीं रहेगी और मुसलमानों को एक तिहाई जमीन पर स्वामित्व मिलेगा। संघ परिवार की यह मांग थी कि रामजन्मस्थान पर मसजिद नहीं बननी चाहिए। इस मांग को अदालत ने एकसिरे से खारिज कर दिया है। आज की स्थिति में मंदिर -मसजिद साथ में हो सकते हैं। मुसलमानों को एक तिहाई जमीन का स्वामित्व देकर अदालत ने संघ परिवार की मांग को एकसिरे से खारिज किया है।
संघ परिवार चाहता था कि अयोध्या में कहीं पर भी बाबरी मसजिद नहीं बनायी जाए। उसे दोबारा बनाया जाए तो अयोध्या के बाहर बनाया जाए। वे यह भी चाहते थे कि राम जन्मभूमि की जमीन पर मुसलमानों का कहीं पर भी कोई प्रतीक चिह्न न हो। लखनऊ पीठ ने विवादित जमीन पर मुसलमानों का एक-तिहाई स्वामित्व मानकर संघ परिवार को करारा झटका दिया। वक्फ बोर्ड की पिटीशन कानूनी दायरे के बाहर थी इसलिए खारिज की है।
लखनऊ पीठ के फैसले में सबसे खतरनाक पहलू है आस्था के आधार पर रामजन्म को मानना। निश्चित रूप से आस्था के आधार पर भगवान के जन्म का फैसला करना गलत है। इस आधार पर बाबरी मसजिद की जगह पर राम जन्मभूमि को रेखांकित करना, बेहद खतरनाक फैसला है। इसके आधार पर संघ परिवार आने वाले दिनों में अपने मंदिर मुक्ति अभियान को और तेज कर सकता है और जिन 3000 हजार मसजिदों की उन्होंने सूची बनायी है उनकी जगह वह मंदिर बनाने की मांग पर जोर दे सकता है। इससे काशी विश्वनाथ मंदिर के पास वाली मसजिद और मथुरा के कृष्णजन्मभूमि के पास बनी ईदगाह मसजिद को गिराने या हटाने या हिन्दुओं को सौंपने की मांग जोर पकड़ सकती है।
आस्था के आधार पर जब एकबार हिन्दू मंदिर या हिन्दू देवता की प्राचीनकाल में उपस्थिति को अदालत ने आधार बना लिया है तो फिर इस निर्णय के आदार संघ परिवार कम से कम इन दो मंदिरों के पास बनी मसजिदों को हासिल करने के लिए आंदोलन तेज करेगा। वे हाईकोर्ट में जा सकते हैं अथवा हाईकोर्ट के इस फैसले के आधार पर अपनी अतार्किकता को वैधता प्रदान करने की कोशिश कर सकते हैं।
लखनऊ पीठ के फैसले पर आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने जो बयान दिया है वह निश्चित रूप से महत्वपूर्ण है उन्होंने सभी से शांति बनाए रखने की अपील की है। उन्होंने राम मंदिर निर्माण में सभी से सहयोग मांगा है। लेकिन वे यह नहीं बोले कि उन्हें विवादित जमीन पर मसजिद भी कबूल है। इस प्रसंग में भाजपानेता और सुप्रीम कोर्ट वकील रविशंकर प्रसाद ने जिस तरह वकील की बजाय एक हिन्दू स्वयंसेवक के नाते मीडिया को संबोधित किया उससे यही बात पुष्ट होती है कि वे वकील कम स्वयंसेवक ज्यादा है।
(लेखक वामपंथी चिंतक और कलकत्‍ता वि‍श्‍ववि‍द्यालय के हि‍न्‍दी वि‍भाग में प्रोफेसर हैं)


फ़िरदौस ख़ान
अफ़वाहें... जंगल में  आग की तरह फैलती हैं... मौजूदा वक़्त की नज़ाकत को देखते हुए इससे बचकर रहना बेहद ज़रूरी है...क्योंकि अफ़वाहें और दहशत दोनों की ही प्रतिक्रियाएं संक्रामक होती हैं. अफ़वाहें महज़ एक फ़ीसदी लोग ही फैलाते हैं. ज़्यादातर अफ़वाहें तथ्यों से परे होती हैं. अफ़वाहों के बारे में सच्चाई को जानने का सबसे बढ़िया तरीक़ा यह है कि बताने वाले से पूछना चाहिए ''आपको किसने कहा?'' इसका जवाब किसी एक का नाम होगा. जब तक उसका नाम न सुन लें और उसकी सच्चाई का पता न कर लें तब तक उस पर भरोसा न करें. मानव की यह प्रवृत्ति होती है कि वह जितना सुनता है, उससे कहीं ज़्यादा वह बोलता है. 

हार्ट केयर फाउंडेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. के के अग्रवाल के मुताबिक़ अफ़वाहें वैज्ञानिक होती है और ये 100 बंदरों की गाथा पर आधारित होती हैं. एक बार जब यह आबादी में फैल जाती हैं तो फिर यह जंगल में आग की तरह फैलती हैं. 1000 लोगों की भीड़ में महज़ 10 लोगों को अफ़वाह फैलाने की ज़रूरत होती है और इसके साथ दहशत भी फैल सकती हैं. युध्द जैसी स्थिति में लोगों में अफ़वाह फैलाना आसान होता है और इससे दहशत भी बढ़ती है साथ ही एक अजीब तरह का खौफ़ सताने लगता है.

दहशत के आधात को परिभाषित नहीं किया जा सकता. साथ ही इससे निपटने के लिए भी ज़रूरी उपाय तय नहीं हैं. शरीर में अचानक से जान जाने की प्रतिक्रिया जैसी स्थिति सामने आ जाती है. दहशत के आघात से आमतौर पर दुर्भाग्यवश हार्ट अटैक जैसी स्थिति होती है और इससे बहुत ज़्यादा खौफ़ हो जाता है. एन्जाइटी भी कभी-कभी दहशत आघात की वजह बन सकती है और बहुत से लोग जो एन्जाइटी की गिरफ़्त में होते हैं, वे दहशत के आघात का शिकार बन सकते हैं.

एन्जाइटी का ज़िक्र करते हुए डॉ. अग्रवाल ने बताया कि यह एक अनुभव होता है जिसको व्यक्ति एक समय विशेष में या अन्य तरह से ग्रसित हो जाता है. यह क्षण भावुक होता है और इसमें अधिकतर लोग खतरे का अनुभव करते हैं। दिल की धड़कन बढ़ जाती है, मांस पेशियां तनाव में आ जाती हैं, व्यक्ति ज़िन्दगी से जूझने के लिए तैयार हो जाता है. इसे '' फाइट या फ्लाइट'' प्रतिक्रिया कहते हैं और ऐसे में व्यक्ति को अतिरिक्त ताक़त की ज़रूरत  होती है, जिससे खतरनाक स्थिति से बचाया जा सके. वहीं दूसरी ओर, एंजाइटी डिसआर्डर की स्थिति तब होती है जब इसके लक्षण दिखाई दें, लेकिन ''फाइट या फ्लाइट'' प्रतिक्रिया का अनुभव स्पष्ट नहीं होता.

दहशत का अटैक अचानक से आता है और इसमें किसी भी तरह के कोई चेतावनी सूचक भी नहीं होते और इसकी कोई ख़ास वजह भी नहीं होती. जितना आप अनुभव करते हैं, उससे कहीं ज़्यादा इसकी क्षमता हाती है जैसा कि अनुभवी लोग खुलासा करते हैं. दहशत के आघात के लक्षणों में शामिल हैं- 
  • दिल की धड़कन बढ़ जाना
  • सांस लेने में दिक्कत या जितनी आपको हवा चाहिए उतनी न मिल पा रही हो
  • खौफ़ जो कि शरीर को शक्तिहीन करने लगता है 
  • 'ट्रम्बलिंग,' पसीना आना, कांपना
  • 'चोकिंग,' सीने में दर्द होना
  • अचानक से गरम या बहुत ठंडे का अहसास होना
  • हाथ की या पैर की उंगलियों  का सुन्न हो जाना
  • एक ऐसा डर जिससे आपके सामने मौत का मंज़र दिखे
इन लक्षणों के अलावा दहशत के आघात को निम्न परिस्थितियों में चिन्हित किया गया है:
  • यह अचानक होता है, इसके लिए कोई विशेष स्थिति नहीं होती और अकसर इसका कोई जोड़ या किसी से संबंध नहीं होता है.
  • यह कुछ मिनटों में गुज़र जाता है, शरीर ''फाइट या फ्लाइट'' को लम्बे समय तक नहीं झेल सकता. लेकिन बार-बार अटैक घंटों तक असर डाल सकता है. 
दहशत का आघात ख़तरनाक नहीं होता, लेकिन इससे बड़े पैमाने पर खौफ़ छा जाता है क्योंकि इसमें व्यक्ति 'क्रेजी' और 'नियंत्रण से बाहर' का अनुभव करता है. पैनिक डिसआर्डर से खौफ़ व्याप्त हो जाता है, क्योंकि पैनिक अटैक से इसका संबंध है और इसकी वजह से अन्य तरह की जटिलताएं जैसे फोबिया, डिप्रेशन, सब्स्टेंस एब्यूज, चिकित्सीय जटिलताएं और यहां तक की आत्महत्या भी शामिल है. इसका असर हल्के या सामाजिक असंतुलन तक शामिल होता है. इसलिए बेहतर है कि अफ़वाहों को फैलने से रोका जाए.


जगदीश्‍वर चतुर्वेदी
अब साठ साल बाद अचानक हमारे देश के सर्वोच्च न्यायालय को लगा है कि बाबरी मसजिद विवाद का कोई सर्वमान्य हल निकाल लिया जाए। सवाल उठता है यह काम सर्वोच्च न्यायालय ने पहले क्यों नहीं किया? उसे रथयात्रा के समय, बाबरी मसजिद गिराए जाने से पहले इसका ख्याल क्यों नहीं आया? सर्वोच्च न्यायालय ने साठ साल बाद इस मसले पर समाधान कराने के चक्कर में कम से कम भारतीय न्यायपालिका का मान नहीं बढ़ाया है। इससे हमारी दुनिया में भारतीय न्याय की नाक कटी है। चूंकि अब यह मामला सर्वोच्च अदालत के सामने है अतः इसके कुछ महत्वपूर्ण कानूनी पहलुओं पर गौर कर लेना समीचीन होगा।
बाबरी मस्जिद स्थान पर कानूनी विवाद की शुरूआत सबसे पहले सन् 1885 में हुई थी। उस जमाने में एक मुकदमा ‘रघुवरदास महंत जन्मस्थान अयोध्या बनाम सैक्रे ट्री ऑफ स्टेट फार इंडिया’ के नाम से चला था। इसका फैसला 24 दिसंबर 1885 को हुआ। महंत रघुवरदास ने उस समय दावा किया था कि एक चबूतरा जो मस्जिद के सामने है तथा जिसकी लंबाई पूरब-पश्चिम 21 फुट और उत्तर-दक्षिण में चौड़ाई 17 फुट है, इसी चबूतरे की जगह पर राम पैदा हुए थे। महंत रघुवरदास का दावा था कि वे इस जगह वर्षों से सेवा पूजा करते आ रहे हैं। अत: उन्हें इस पर मंदिर बनाने की अनुमति दी जाए।
फैजाबाद के सब जज पंडित हरिकिशन ने यह याचिका खारिज कर दी और फैसले में कहा कि मस्जिद के सामने मंदिर बनाने की अनुमति नहीं दी जा सकती। इस फैसले के विरोण में महंत रघुवर दास ने जिला जज एवं अवध के जुडीशियल कमिश्नर के यहा क्रमश: दावे दायर किए, पर दोनों ही जगह उनकी याचिकाएं खारिज हुईं और पंडित हरिकिशन का फैसला बरकरार रखा गया।
स्मरणीय है, महंत रघुवरदास के मुकदमे में मस्जिद की जगह मंदिर बनाने की मांग नहीं की गई थी, बल्कि चबूतरे पर राममंदिर बनाने की अनुमति मांगी गई थी, जबकि, आज हिंदू सांप्रदायिक संगठन बाबरी मस्जिद को गिराकर उसकी जगह मंदिर बनाना चाहते हैं, या मस्जिद को स्थानांतरित करना चाहते हैं। आज अगर यह विवाद चबूतरे तक सीमित होता तो शायद सुलझ भी जाता, क्योंकि मुसलमानों के धार्मिक नेताओं को इस पर कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि यह स्थान मस्जिद से अलग है।
स्वतंत्र भारत में 23 दिसंबर 1949 को नए सिरे से यह मसला उठा है। 22-23 दिसंबर की रात में कुछ लोगों ने विवादित स्थल पर राम की मूर्ति रख दी। इस बात को स्थानीय पुलिस थानेदार ने प्राथमिक रिपोर्ट में भी दर्ज किया, जिलाधीश ने ‘रेडियो संदेश’ में उ.प्र. सरकार को इसी रूप में सूचित किया, इस घटना से पहले मस्जिद में लगातार नमाज पढ़ी जाती रही थी, मस्जिद में मूर्तियां पधारने का काम जबर्दस्ती किया गया, इस बात की ताकीद सभी सरकारी बयानों से भी होती है। मस्जिद में मूर्ति रखने के आरोप में 50-60 व्यक्तियों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 147,295,448 के तहत थानाध्यक्ष रामदेव दुबे की प्राथमिकी रिपोर्ट के आधार पर केस बनाया गया। इसी रिपोर्ट के आधार पर जाब्ता फौजादारी की धारा 145 के तहत शांतिभंग होने का मुकदमा भी दायर किया गया, जिस पर मजिस्ट्रेट मार्कडेय सिंह ने 29 दिसंबर 1949 को बाबरी मस्जिद की कुर्की का आदेश देते हुए निर्णय दिया। साथ ही, फैजाबाद नगगरपालिका के तत्कालीन अध्यक्ष प्रिय दत्तराम को रिसीवर बना दिया। प्रिय दत्तराम ने 5 जनवरी 1950 को कार्यभार संभाला। यह मसला काफी गंभीर एवं संवेदनात्मक था। इस पर बुर्जुआ सरकारों ने समुचित ध्यान भी नहीं दिया, वरना, इसी धारा के तहत यह मामला सुलझाया भी जा सकता था। अदालत मुसलमानों का मस्जिद के विवादित हिस्से पर कब्जा बहाल भी कर सकती थी। इसी धारा (145) के तहत जब नई कांग्रेस एवं पुरानी कांग्रेस के बीच में नई दिल्ली स्थित 7, जंतर-मंतर केंद्रीय कार्यालय को लेकर कानूनी विवाद उठा था तो मजिस्टे्रट ने कहा कि 13 दिसंबर 1971 को इस भवन पर नई कांग्रेस ने जबरिया कब्जा किया है और पुरानी कांग्रेस को कब्जे से बेदखल किया है। अत: पुरानी कांग्रेस का कार्यालय पर कब्जा बहाल किया जाए, जब तक कि सक्षम न्यायालय इस विवाद पर फैसला न कर दे।
बाबरी मस्जिद प्रकरण में भी सन् 1949 हो या 1986 इसी तरह का फैसला कराया जा सकता था। पर, बुर्जुआ सरकार की मंशाएं कुछ और थीं! जिस समय मस्जिद में मूर्ति र¹ने की घटना हुई थी उस समय पंडित नेहरू बेहद ¹फा हुए थे पर अक्षम साबित हुए क्योंकि जिलाधीश ने किसी भी आदेश को मानने से इनकार कर दिया। तत्कालीन मुख्य सचिव भगवान सहाय तथा आईजीपी वी.एन.लाहिड़ी ने मस्जिद में रखी मूर्तियां हटाने के लिए जिलाधीश के.के.नैय्यर को कई संदेश भेजे। पर सब बेकार साबित हुए। बाद में जिलाधीश के.के.नैय्यर ने इस्तीफा देकर जनसंघ की टिकट पर संसद का चुनाव लड़ा।
विवादित स्थान पर रिसीवर की नियुक्ति के बाद से यह विवाद दीवानी अदालत में है जिसमें अयोध्या निवासी गोपाल सिंह विशारद 16 जनवरी 1950 का मुकदमा, राम चौक अयोध्या निवासी परमहंस रामचंद्र दास 5 दिसंबर 1950 का मुकदमा, अयोध्या स्थित निर्मोही अखाड़े के महंत का मुकदमा 17 दिसंबर 1959 एवं सुन्नी सैंट्रल वक्फ बोर्ड ल¹नऊ का मुकदमा 1961 एक साथ सुने जा रहे हैं। इन मुकदमों में पहले दो मुकदमों में विशारद और रामचंद्र दास केंद्रीय मुद्दा हैं विवादित जगह पर पूजा का अधिकार बहाल र¹ना, विशारद की याचिका पर न्यायालय ने विवादित स्थल से मूर्तियां न हटाने और पूजा सेवा से न रोकने की अंतरिम आदेश भी दिया हुआ है पर इस दावे में बाबरी मस्जिद को गिराने, स्थानांतरित करने या उसकी जगह राम मंदिर बनाने की बात कहीं भी नहीं गई है। निर्मोही अखाड़े के महंत के मुकदमे में केंद्रीय मुद्दा है विवादित मंदिर के प्रबंध, पुजारी के अधिकार एवं चढ़ावा प्राप्त करने का। इसमें मस्जिद को गिराकर मंदिर बाने की बात नहीं उठाई गई है। सुन्नी सैंट्रल वक्फ बोर्ड के मुकदमे में विवादित स्थान को मस्जिद की जगह घोषित करने तथा वक्फ बोर्ड को सौंपने की प्रार्थना की गई है यानी कि चारों मुख्य मुकदमों में विवादित जगह के बारे में अदालत से न्याय मांगा गया है। इनमें से कोई भी मुकदमा या उसका पैरोकार मस्जिद गिराकर मंदिर बनाने या मस्जिद की जगह ही राम पैदा हुए थे, यह सब बातें नहीं उठाता।
इस न्यायिक प्रक्रिया के दौरान महत्वपूर्ण दो घटनाएं घटी हैं, पहली घटना है 26 फरवरी 44 के गजट नोटिफिकेशन को अदालत द्वारा 21 अप्रैल 1966 को खारिज कर दिया जाना।
दूसरी घटना है 8 अगस्त 1970 को रिसीवर की मृत्यु। उसके बाद नए रिसीवर की नियुक्ति के लिए अदालत में विवाद चल ही रहा था कि इसी बीच 25 जनवरी 1986 को स्थानीय वकील उमेश चंद्र पांडेय ने मुंसिफ सदर फैजाबाद के यहां एक प्रार्थनापत्र दिया जिसमें मांग की गई कि विवादित स्थल का ताला खोल दिया जाए और हिंदुओं के पूजा-सेवा के अधिकार पर कोई पाबंदी न लगाई जाए। मुंसिफ सदर ने इस याचिका पर समुचित कागजों के अभाव में फैसला नहीं दिया और याचिका खारिज कर दी।
बाद में इस आदेश के खिलाफ फैजाबाद के जिला जज के यहां संबंधित पक्ष ने याचिका दी जिस पर जिला जज ने ताला खोलने का आदेश दिया। इस आदेश के विरूद्ध 3 फरवरी 1986 को फैजाबाद निवासी मुहम्मद हाशिम ने हाईकोर्ट में याचिका दी। जिस पर अग्रिम आदेश तक यथास्थिति बनाए रखने का आदेश न्यायमूर्ति ब्रजेश कुमार ने दिया। जिला जज के निर्णय के खिलाफ सैंट्रल वक्फ बोर्ड ने 12 मई 1986 को उच्चन्यायालय में एक याचिका दायर की थी। दोनों की एक साथ सुनवाई हो रही थी कि 23 जुलाई 1987 को न्यायमूर्ति कमलेश्वर नाथ सिविल जज फैजाबाद ने नए रिसीवर की नियुक्ति के मसले पर दायर एक अपील पर 23 जुलाई 1987 को निर्णय दिया कि दीवानी प्रक्रिया संहिता की धारा 24 के तहत निचली अदालत में चल रहे चारों दावों को एक ऐसे अतिरिक्त जिला जज के सामने सुनवाई के लिए रखा जाए जिसका 18 माह तक स्थानांतरण न हो सके।
इस आदेश के पांच महीने बाद अचानक 15 दिसंबर 1987 को सरकार ने इलाहाबाद हाईकोर्ट लखनऊ बैंच में याचिका दी कि विवादित संपत्ति से संबंधित फैजाबाद न्यायालय में चल रहे सभी मुकदमों को अपने यहां स्थानांतरित करके सुनवाई करें। यह प्रार्थना पत्र फरवरी 1989 तक विचाराधीन रहा। इसी दौरान जुलाई 1989 को ‘भगवान श्रीराम विराजमान’ के प्रतिनिधि के रूप में देवकीनंदन अग्रवाल ने सिविल जज फैजाबाद के यहां एक नया मुकदमा दायर कर दिया, जिसमें संपूर्ण विवदित संपत्ति को राम जन्मभूभि घोषित करने तथा विपक्षी मुस्लिम समुदाय और सरकार को इस बात को रोकने का आदेश देने की प्रार्थना की गई कि वे मौजूदा इमारत को गिराकर नया मंदिर बनाने में कोई हस्तक्षेप न करें। 10 जुलाई 1989 को हाईकोर्ट ने विवाद से संबंधित सभी मुकदमों का अपने यहां स्थानांतरण करने का आदेश दिया और तीन जजों की पूर्णपीठ ने सरकार के 7 अगस्त के प्रार्थनापत्र पर विवादास्पद संपत्ति का अगले आदेश तक स्वरूप न बदले जाने का आदेश दिया।
इसी दौरान हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक संगठनों ने 9 नवंबर 1989 को नए मंदिर के शिलान्यास का कार्यक्रम घोषित कर दिया। उ.प्र. सरकार चाहती थी कि शिलान्यास हो। उसने 6 नवंबर को पूर्णपीठ से यह पूछा कि विवादास्पद संपत्ति में वास्तव में कौन-कौन सा स्थान आता है। साथ ही, यह भी जानना चाहा कि 14 अगस्त 1949 को पारित यथास्थिति बनाए र¹ने का आदेश क्या पूरी संपत्ति के लिए है? हाईकोर्ट (ल¹नऊ बैंच) की
पूर्णपीठ ने स्पष्ट किया कि 14 अगस्त का आदेश विवादित भू¹ंडों के लिए भी लागू होता है जिसमें 586 नंबर का वह भू¹ंड भी शामिल है और जिस पर 9 नवंबर 1989 को शिलान्यास किया गया था। तब से यह विवाद एक नई दिशा ग्रहण कर चुका है। इस समूची प्रक्रिया में एक बात उभरकर आती है कि देवकीनंदन अग्रवाल की याचिका के पहले की जितनी भी याचिकाएं हैं उन सबमें बाबरी मस्जिद को गिराकर मंदिर बनाने का मुद्दा नया है और इसकी शुरूआत 7 अक्टूबर 1984 में राम जन्मभूमि ऐक्शन कमेटी की स्थापना से हुई जिसमें ताला खोलो आंदोलन एवं राम रथयात्रा के कार्यक्रम शुरू किए। पर इंदिरा गांधी की हत्या के कारण ये कार्यक्रम कुछ समय के लिए स्थगित कर दिए गए। बाद में 23 अक्टूबर 1985 से विश्व हिंदू परिषद् के नेतृत्व ने ताला खोलो अभियान देश में 25 शहरों में शुरू किया और 1 फरवरी 1986 को विवादास्पद इमारत का ताला खोलने का आदेश स्थानीय जिला जज ने दे दिया। बाद में शिलान्यास के बारे में सारे देश से ईंट लाई गईं। शिलान्यास जुलूसों का आयोजन किया गया। राजीव सरकार यह सब मूक
दर्शक की तरह देखती रही। इस प्रक्रिया में सामाजिक-राजनीतिक प्रक्रिया का सांप्रदायिकीकरण करने में सांप्रदायिक शक्तियां सफल हो गईं। यह प्रक्रिया कारसेवा के 30 अक्टूबर, 2 नवंबर एवं 6 दिसंबर 1990 के चरण के बाद से सघन एवं तेज हुई है जिसका राजनीतिक प्रतिवाद भी हो रहा है पर प्रतिवाद की शक्तियों पर सांप्रदायिक शक्तियों ने अभी तो बढ़त हासिल कर ली है। इसमें राज्य की निष्क्रियता ने सबसे गंभीर भूमिका अदा की है जिसके कारण चारों तरफ सांप्रदायिक हिंसा एवं वैचारिक उन्माद पैदा हो गया है। इस उन्माद एवं हिंसा का दो स्तरों पर समाधान किया जाए। पहला-प्रशासनिक एवं राजनीतिक। दूसरा-विचारधारात्मक। ये दोनों प्रक्रियाएं साथ-साथ चलें तब ही सांप्रदायिक शक्तियों एवं सांप्रदायिक विचारधारा को अलग-थलग कर पाएंगे।

(लेखक वामपंथी चिंतक और कलकत्‍ता वि‍श्‍ववि‍द्यालय के हि‍न्‍दी वि‍भाग में प्रोफेसर हैं)


जगदीश्‍वर चतुर्वेदी
बाबरी मस्जिद प्रकरण में उपजी सांप्रदायिक विचारधारा ने जहां एक ओर कानून एवं संविधान को अस्वीकार किया, दूसरी ओर, इतिहास का विद्रूपीकरण किया। इतिहास के तथ्यों की अवैज्ञानिक एवं सांप्रदायिक व्याख्या की गई, इतिहास के चुने हुए अंशों एवं तथ्यों का इस्तेमाल किया। और यह सब किया गया विद्वेष एवं घृणा पैदा करने के लिए व समाज में विभेद पैदा करने के लिए। इस काम में झूठ का सहारा लिया गया। मुस्लिम शासकों, मुसलमानों एवं भारतीय इतिहास की विकृत एवं खंडित व्याख्या की गई। इस प्रक्रिया में इतिहास के नाम पर तथ्यों को गढ़ा गया। जो तथ्य इतिहास में नहीं थे, उनकी रचना की गई।
भारतीय समाज का वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इतिहास क्या है तथा बाबरी मस्जिद प्रकरण से जुड़े वास्तविक तथ्य एवं उनकी वैज्ञानिक व्याख्या क्या हो सकती है। यहां हम कुछ उन तथाकथित ऐतिहासिक तथ्यों की जांच करेंगे जो बाबरी मस्जिद प्रकरण के संदर्भ में गढ़े गए हैं। एक लेखक हैं रामगोपाल पांडे, उन्होंने राम जन्मभूमि का रोमांचकारी इतिहास लिखा है। इस पुस्तक के उद्धरणों का सांप्रदायिक संगठन सबसे ज्यादा प्रयोग कर रहे हैं, इस पुस्तक में बिना किसी प्रमाण के इतिहास के बारे में अनेक दंतकथाएं दी गई हैं। जाहिर है दंतकथाएं, तथ्यों की पुष्टि के बिना सिर्फ दंत कथाएं ही कहलाएंगी उनको इतिहास का दर्जा नहीं दिया जा सकता। इस पुस्तक में बताया गया है कि हिंदुओं में दस बार, अकबर के युग में 20 बार, औरंगजेब के समय तीन बार, अंग्रेजों के समय 31 बार और अवध के शासन के समय आठ बार मंदिर मुक्ति के लिए कोशिश की गई थी पर लेखक ने अपने दावे के लिए किसी भी समसामयिक तथ्य का हवाला नहीं दिया है। हकीकत में, बाबरी मस्जिद के मुद्दे पर हिंदुओं एवं मुसलमानों में सबसे पहली लड़ाई 1855 ई. में हुईथी, जिसका वर्णन मिर्जाजान की हदी गाह-अल-शुहद में विस्तार से किया गया है, हालांकि यह वर्णन एकांगी है।
इसी तरह मॉडर्न रिव्यू 6 जुलाई 1924 के अंक में किन्हीं ‘सत्यदेव परिव्राजक’ का लिखा विवरण हिंदू सांप्रदायिक संगठन प्रचारित कर रहे हैं। इसमें कहा गया है, ”परिव्राजकजी को किसी पुराने कागजों की छानबीन में प्राचीन मुगलकालीन सरकारी कागजातों के साथ फारसी लिपि में लिथो प्रेस द्वारा प्रकाशित शाही मुहर संयुक्त बाबर का एक शाही फरमान प्राप्त हुआ था, जो अयोध्या में स्थित श्री रामजन्मभूमि को गिराकर मस्जिद बनाने के संबंध में शाही अधिकारियों के लिए जारी किया गया था। परिव्राजक द्वारा पेश तथाकथित दस्तावेज इस प्रकार है- ‘शहंशाहे हिंद मालिकुल जहां बादशाह बाबर के हुक्म से हजरत जलाल शाह के हुक्म से बमूजिव अयोध्या में राम जन्मभूमि को मिसमार करके उसकी जगह उसी के मसाले से मस्जिद तामीर करने की इजाजत दे दी गई है, बजरिए इस हुक्म-नामें के तुमको बतौर इत्तला करके आगाह किया जाता है कि हिंदुस्तान के किसी भी गैर सूबे से कोई हिंदू अयोध्या न जाने पाए, जिस शख्त पर सुबहा हो कि वह जाना चाहता है, फौरन गिरफ्तार करके दाखिल जींदा कर दिया जाए, हुक्म का सख्ती से तामील हो फर्ज समझकर।”
इस दस्तावेज की विश्वसनीयता पर सवालिया निशान लगाया गया है। दस्तावेज एवं परिव्राजक के बयान से कई प्रश्न उठते हैं, पहली बात यह कि बाबर के जमाने में लिथो प्रेस नहीं था। अगर लिथोप्रेस होता तो सभी शाही फरमान उसी में छापे जाते। दूसरी बात यह कि परिव्राजक महोदय ने इस फरमान को कहां से प्राप्त किया, उस स्रोत का हवाला क्यों नहीं दिया? अगर मुगलकालीन कागजों में मिला था तो वे कागज उन्हें कहां मिले थे? तीसरी बात यह कि बाबरनामा में इतने महत्वपूर्ण दस्तावेज का जिक्र न होना क्या यह साबित नहीं करता कि यह फरमान गढ़ा गया है। आखिरी बात यह है कि बाबर के जमाने में उर्दू भाषा सरकारी भाषा नहीं थी। अत: यह दस्तावेज पूरी तरह अप्रामाणिक सिद्ध होता है।
इसी तरह की असत्य से भरी अनेक कृतियां हिंदू सांप्रदायिक संगठनों ने छापी हैं। विश्व हिंदू परिषद् के एक अन्य प्रकाशन अतीत की आहुतियां, वर्तमान का संकल्प में दीवान-ए-अकबरी का हवाला दिया गया है। दीवान-ए-अकबरी के उद्धरण के सहारे लिखा गया कि अकबर लिखता है-”जन्मभूमि के वापस लेने के लिए हिंदुओं ने बीस बार हमले किए, अपनी हिंदू रिआया का दिल जख्मी न हो, इसलिए बादशाह हिंदशाह जलालुद्दीन अकबर ने राजा बीरबल और टोडरमल की राय से इजाजत बख्श दी और हुक्म दिया कि कोई शख्स इनके पूजा-पाठ में किसी तरह की रोक-टोक न करे।” बाबर युगीन स्थापत्य पर शोधरत इतिहासकार श्री शेरसिंह ने इस संदर्भ में कई महत्वपूर्ण बातें कही हैं।
शेरसिंह ने पहली बात यह कही कि अकबर पढ़ा-लिखा नहीं था। अत: उसके द्वारा दीवान-ए-अकबरी का लिखना गलत है। आईन-ए-अकबरी में अबुल फजल ने लिखा है कि अकबर के लिए प्रतिदिन कुछ विद्वान जुटते थे और उसके लिए पाठ करते थे, बादशाह बेहद गौर से शुरू से आखिर तक सुनता था और पाठ करने वालों को पन्नों के हिसाब से भुगतान करता था।
इतिहासकार शेरसिंह ने दूसरी बात यह बताई है कि दीवान-ए का मतलब है संपूर्ण रचनावली, जब लिखना-पढ़ना ही नहीं जानता था तो संपूर्ण रचनावली कैसी?
इस प्रसंग में डी.एन.मार्शल की कृति मुगल इन इंडिया महत्वपूर्ण सूचना देती है, इस पुस्तक में उस समय की दो पुस्तकों का जिक्र है:
1. दीवान-ए-अली अकबर, जो हिजरी 1194 यानी सन 1784 में लिखी गई, इसका लेखक है अली अकबर बिन असद अल्लाह, इस पुस्तक में सूफी कविताओं का संकलन है।
2. दीवान-ए-अली अकबर, इसके लेखक हैं मुहियाल दीन अली अकबर मोइदी चिश्ती। इसकी रचना 12वीं हिजरी के आखिर में हुई या 18वीं सदी में। यह भी सूफी कविताओं का संकलन है।
डी.एन.मार्शल की सूची में दीवान-ए-अकबरी का कहीं कोई नाम नहीं है, अगर इस नाम से कोई ग्रंथ है तो वह धोखे से अधिक कुछ नहीं है। अकबर के प्रधानमंत्री अबुल फजल अलामी ने ‘आईन-ए-अकबरी’ जरूर लिखा था, जो सन् 1857 में प्रकाशित हुआ था। इस पुस्तक में ‘अयुध्या’ का जिक्र है, अबुल फजल लिखता है ‘अयुध्या (अयोध्या) पवित्र जगह है, यह अवध में है, जहां चैत में शुक्ल पक्ष की नवमी को बड़ा भारी मेला जुटता है,
‘हिंदू त्यौहारों’ पर भी उसने अलग से लिखा है। पर, कहीं भी उसने जन्मस्थान, राम जन्म मंदिर का जिक्र नहीं किया है। अगर उस जमाने में बाबरी मस्जिद को लेकर विवाद रहा होता तो अबुल फजल उसका जिक्र जरूर करता। अत: दीवान-ए-अकबरी धोखे से ज्यादा महत्व नहीं रखता।
हिंदू सांप्रदायिक संगठनों की तरफ से जिन ऐतिहासिक साक्ष्यों का उपयोग किया है, वे सबके सब ब्रिटिश इतिहासकारों ने तैयार किए हैं जिनमें सोची-समझी योजना के तहत हिंदू-मुस्लिम विवाद के बीज बोए गए हैं। इसका कोई भी ऐतिहासिक साक्ष्य पेश नहीं किया गया है जिससे इस बात का पता चले कि बाबरी मस्जिद की जगह ही राम मंदिर था।
दूसरी बात यह है कि अगर ऐसा साक्ष्य हो भी तो क्या मध्ययुग की गलती को एक दूसरी गलती करके दोहराना तर्कसंगत होगा? बाबर ने अगर कोई काम किया तो उसकी भरपाई सारे देश की जनता एवं लोकतांत्रिक राज्य क्यों करें? यह मध्ययुग की गलती सुधारने के लिए मध्ययुग में जाने जैसा ही होगा और आज के दौर में मध्ययुग में जाने का मतलब एक भयानक स्वप्न जैसा ही हो सकता है।
यहां स्मरणीय है कि अयोध्या माहात्म्य नामक संस्कृत ग्रंथ के बारे में बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी के सन् 1875 के अंकों से यह बात प्रमाणित होती है कि राम का जन्मस्थान विवादास्पद जगह से दक्षिणपूर्व की ओर था।
अवध एवं अयोध्या के इतिहास का गंभीर अध्ययन करने वाले इतिहासकार सुशील श्रीवास्तव ने प्रोब इंडिया में 19 जनवरी 1988 में लिखा कि राम जन्मभूमि स्थान बाबरी मस्जिद की जगह ही था, यह स्थानीय लोकविश्वासों एवं लोकगीतों में वर्णित धाराणाओं पर आधारित है इसके पक्ष में कोई ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं हैं, वे यह भी कहते हैं कि इसके कोई प्रमाण नहीं हैं कि बाबर ने मंदिर तोड़ा था।
प्रोब इंडिया पत्रिका ने एक अन्य इतिहासकार आलोक मित्र को भी अयोध्या भेजा था, जिनका सुशील श्रीवास्तव से अनेक मसलों पर मतभेद था। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में निष्कर्ष देते हुए लिखा-’विवादास्पद स्थान पर ही राम जन्मभूमि थी यह एक झूठी कहानी है।’
एक अन्य शोधटीम इतिहाकसार शेर सिंह, इतिहासकार सुशील श्रीवास्तव एवं शोध छात्र इंदुधर द्विवेदी के नेतृत्व में अयोध्या गई थी। इस टीम ने अयोध्या माहात्म्य पुस्तक के आधार पर यह पता लगाने की कोशिश की थी कि वास्तविक जन्मस्थान कहां है? इस टीम ने पाया कि अयोध्या में सात ऐसी जगह हैं, जिन्हें जन्मस्थान कहा जाता है। इनमें से कोई भी जगह बाबरी मस्जिद स्थान को स्पर्श तक नहीं करती।
हाल ही में विश्व हिंदू परिषद् के तर्कों के पक्ष में कुछ इतिहासकारों ने वी.वी.लाल की पुरातात्विक खुदाई के बारे में चौंकने वाले तथ्य दिए हैं जिनका पिछले 15 वर्षों से कहीं अता-पता नहीं था और न ही वी.वी.लाल की खुदाई संबंधी रिपोर्ट में उनका जिक्र है। यह बात इतिहासकारों प्रो.के.एन. पन्निकर, प्रो.रोमिला थापर, प्रो.एस.गोपाल ने बताई है। हिंदू सांप्रदायिक तत्वों के बाबरी मस्जिद प्रकरण के ऐतिहासिक सूत्र ज्यों-ज्यों झूठे साबित होते जा रहे हैं, वे नए-नए झूठ एवं तथ्य गढ़ते जा रहे हैं। उनमें नवीनतम है इस विवाद का गांधी फॉर्मूला, भाजपा के महामंत्री कृष्णलाल शर्मा ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर इस फॉर्मूले की जानकारी दी है। अंग्रेजी दैनिक टाइम्स ऑफ इंडिया ने तथाकथित गांधी फार्मूले की प्रामाणिकता की गहराई से छानबीन की और पाया कि न तो ऐसा कोई अखबार छपता था और न ही गांधी ने ऐसा कोई लेख लिखा था। हिंदू सांप्रदायिक संगठनों की इतिहास गढ़ने की ये कुछ बानगियां हैं, असल में उनका समूचा साहित्य तो सैकड़ों टन में है। उस सबका विवेचन इस लेख में असंभव है।
इस समूचे प्रकरण में सबसे त्रासद पक्ष यह भी है कि हिंदी साहित्य के अनेक लेखकों पर मध्ययुगीन इतिहास का प्रभाव पड़ा है, खासकर आधुनिक युगीन लेखकों के ऊपर, यहां मैं सिर्फ एक उदाहरण दे रहा हूं-अमृतलाल नागर कृत उपन्यास है ‘मानस का हंस’। यह तुलसीदास के कृतित्व एवं व्यक्तित्व पर प्रकाश डालने वाला उपन्यास है। इस उपन्यास में वे सभी तथ्य हैं जो तथाकथित इतिहास लेखक रामगोपाल पांडे की कृति राम जन्मभूमि का रोमांचकारी इतिहास में हैं या जो ‘तथ्य ’परिव्राजकजी के मॉर्डन रिव्यू वाले शाही फरमान तथा लेख में हैं, और विश्व हिंदू परिषद् द्वारा प्रकाशित अतीत की आहुतियां: वर्तमान का संकल्प में उद्धृत तथाकथित दीवान-ए-अकबरी में है। ये सभी कृतियां गढ़ी गई हैं।
अमृतलाल नागर ने ‘मानस का हंस’ 23 मार्च 1972 को लिखकर पूरा किया। यहां उस उपन्यास के कुछ अंश दिए जा रहे हैं जो सांप्रदायिक प्रचार सामग्री से हूबहू मिलते हैं। वे एक जगह लिकते हैं: रामनवमी की तिथि निकट थी। अयोध्या में उसे लेकर हलचल भी आरंभ हो गई थी, जब से जन्मभूमि के मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाई गई है, तब से भावुक भक्त अपने आराध्य की जन्मभूमि में प्रवेश करने से रोक दिए गए हैं। प्रतिवर्ष यों तो सारे भारत में रामनवमी का पावन दिन आनंद से आता है, पर अयोध्या में वह तिथि मानो तलवार की धार पर चलकर ही आती है। भावुक भक्तों की विह्वलता और शूरवीरों का रणबांकुरापन प्रतिवर्ष होली बीतते ही बढ़ने लगता है। गांव दर-गांव लड़के न्योते जाते हैं, उनकी बड़ी-बड़ी गुप्त योजनाएं बनती हैं, आक्रमण होते हैं, राम जन्मभूमि का क्षेत्र शहीदों के लहू से हर साल सींचा जाता है। ऐसी मान्यता है कि विजेताओं के हाथों से अपने पर-ब्रह्म की पावन अवतार भूमि को मुक्त कराने में जो अपने प्राण निछावर करते हैं, उनके लिए स्वर्ग के द्वार खुल जाते हैं।… रामजी का जन्मदिन भक्तों के घरों में गुपचुम मनाया जाता है, पहले तो किसी भी समय नगर में खुले आम कोई धार्मिक कृत्य करना एकदम मना था, पर शेरशाह के पुत्र के समय जब हेमचंद्र बक्काल उनके प्रमुख सहायक थे तब से अयोध्यावासियों को छूट मिल गई थी। …राम की जन्मभूमि में रामकथा न कही जाए यह अन्याय उन्हें सहन नहीं होता था।
एक अन्य जगह वे लिखते हैं:
तुलसीदास के कानों में आगामी रामनवमी के दिन होने वाले संघर्ष की बातें पड़ने लगीं। उस दिन अयोध्या में बड़ा बखेड़ा होगा। ऐसा लगता था कि अब की या तो रामजी की अयोध्या में उनकी भक्त जनता ही रहेगी या फिर बाबर की मस्जिद ही। लोग बाग अकसर निडर और मुखर होकर यह कहते सुनाई पड़ते थे कि उन्हें इस बार कोई भी शक्ति राम जन्मभूमि में जाकर पूजा करने से रोक नहीं सकेगी।
बस्ती में फैली हुई यह दबी-दबी अफवाहें तुलसीदास को एक विचित्र स्फूर्ति देती थीं। वे प्रतिदिन ठीक मध्याह्न के समय बाबरी मस्जिद की ओर अवश्य जाया करते थे। एक जगह वे लिखते हैं-
मध्याह्न बेला के लगभग आधी-पौन घड़ी पहले ही अयोध्या में जगह-जगह डौंढी पिटी मुल्क खुदा का, मुल्क हिंदोस्थान का, अमल शहंशाह जलालुद्दीन अकबर शाह का…। अयोध्या की गली-गली में आनंद छा गया था।…
अमृतलाल नागर के उद्धृत अंशों की तुलना तथाकथित दीवान-ए-अकबरी में वर्णित अंशों से सहज ही की जा सकती है जिसका पर्दाफाश इतिहासकार शेरसिंह ने किया है।
उल्लेखनीय है इतिहास एवं साहित्य के क्षेत्र में विद्रूपीकरण की कोशिश सांप्रदायिक शक्तियों के द्वारा वर्षों से अंदर ही अंदर चल रही थी। अमृतलाल ने जिस सच का वर्णन किया है अगर वह सच था तो उसका जिक्र तुलसीदास ने अपनी रचनाओं में क्यों नहीं किया? उनके समकालीन किसी भी हिंदू लेखक-कवि ने क्यों नहीं किया? तुलसीदास रचित बारह ग्रंथ हैं। इनमें विनयपत्रिका रामजी के दरबार में फरियाद के रूप में लिखी गई रचना है। बाबरी मस्जिद प्रकरण एवं मुस्लिम शासकों के द्वारा हिंदुओं के उत्पीड़न के बारे में तुलसी ने कही भी कुछ क्यों नहीं लिखा? क्या तुलसी का हिंदुत्व निकृष्ट श्रेणी का था? जो वे ऐसा सोच एवं लिख नहीं पाए और नागरजी को 500 वर्ष बाद दिखाई दे गया! तुलसीदास का रहीम के साथ पत्र-व्यवहार दोहों में चलता था। इस पत्र-व्यवहार में भी इस सबका जिक्र नहीं है। तब तुलसी को क्या मुसलमानों ने खरीद लिया था? या नागरजी को हिंदू सांप्रदायिक तत्वों ने खरीद लिया? तुलसी का यथार्थ तुलसी न लिखे। तुलसी को दिखाई न दे। हठात् सैकड़ों वर्ष बाद नागरजी को दिखाई दे। सांप्रदायिकीकरण का कमाल।
खैर, हो सकता है, तुलसीदास से भूल हो गई और वे बाबरी मस्जिद प्रकरण एवं हिंदुओं के उत्पीड़न पर वह सबकुछ नहीं लिख पाए जो नागरजी ने लिका है, पर दूसरे लेखकों का क्या करेंगे जिन्होंने इसका जिक्र तक नहीं किया। स्वामी अग्रदास (सन 1575), नाभादास (सन 1600) और प्राणचंद चौहान (1610 ई.) ये तीनों ही रामाश्रयी हैं, ये भी तथाकथित मुस्लिम बर्बरता पर चुप हैं। इसके अलावा कृष्णाश्रयी शाखा के भी कवियों की परंपरा थी जो बाबर के ही युग की है जिनमें सूरदास, नंददास, कृष्णदास, कुंभनदास, छीतस्वामी, मीराबाई इन सबने बाबरी मस्जिद के संदर्भ में उन सब बातों को नहीं उठाया, जिनका नागरजी ने मानस का हंस में जिक्र किया है।
बाबर अगर मूर्ति तोड़क, हिंदू विरोधी एवं मंदिर तोड़क था तो अपनी राजधानी आगरा के पास मथुरा में मौजूदा मंदिरों को उसने क्यों नहीं तोड़ा? बाबर जब भारत आया था कृष्णाश्रयी शाखा के संतों का आंदोलन चरमोत्कर्ष पर था, अगर उसने हिंदुओं पर अत्याचार किए थे, मंदिर तोड़े थे तो उन सबका जिक्र तत्कालीन लेखकों की रचनाओं में क्यों नहीं है? यहां तक वैष्णव संप्रदाय के प्रवर्तक महाप्रभु बल्लभाचार्य की रचनाओं में म्लेच्छों के प्रभाव बढ़ने का कोई जिक्र है, पर, राम जन्मस्थान मंदिर तोडे ज़ाने और बाबरी मस्जिद बनाये जाने का कोई जिक्र नहीं है। क्या आज के हिंदुत्ववादी महाप्रभु वल्लभाचार्य से बड़े हिंदू हैं? सिखों के गुरू गोविंद सिंह ने जफरनामा काव्य में कहीं भी राममंदिर तोड़े जाने का जिक्र नहीं किया है। यह काव्य औरंगजेब को चिट्ठी की शैली में लिखा गया था।
हिंदुत्ववादी संगठन शिवाजी को अपना हीरो मानते हैं। शिवाजी ने औरंगजेब को जो पत्र लिखा था, उसमें भी अयोध्या के राममंदिर को तोड़कर बाबरी मस्जिद बनाए जाने का जिक्र नहीं है। ये सब हिंदू थे और हिंदू होने के कारण स्वाभिमान महसूस भी करते थे। इनके अलावा राष्ट्रवादी हिंदू नेताओं बालगंगाधार तिलक, बंकिम, दयानंद, लाला लाजपत राय, रामकृष्ण परमहंस, महर्षि अरविंद, महात्मा गांधी आदि ने कहीं भी अयोध्या के बारे में वह कुछ नहीं कहा और लिखा जिसकी नागरजी ने चर्चा की है।
(लेखक वामपंथी चिंतक और कलकत्‍ता वि‍श्‍ववि‍द्यालय के हि‍न्‍दी वि‍भाग में प्रोफेसर हैं)


फ़िरदौस ख़ान
भारतीय संस्कृति का प्रतिबिंब लोककलाओं में झलकता है। इन्हीं लोककलाओं में कठपुतली कला भी शामिल है। यह देश की सांस्कृतिक धरोहर होने के साथ-साथ प्रचार-प्रसार का सशक्त माध्यम भी है, लेकिन आधुनिक सभ्यता के चलते मनोरंजन के नित नए साधन आने से सदियों पुरानी यह कला अब लुप्त होने के कगार पर है।
 
कठपुतली का इतिहास बहुत पुराना है। ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में पाणिनी की अष्टाध्यायी में नटसूत्र में पुतला नाटक का उल्लेख मिलता है। कुछ लोग कठपुतली के जन्म को लेकर पौराणिक आख्यान का जिक्र करते हैं कि शिवजी ने काठ की मूर्ति में प्रवेश कर पार्वती का मन बहलाकर इस कला की शुरुआत की थी। कहानी 'सिंहासन बत्तीसी' में भी विक्रमादित्य के सिंहासन की बत्तीस पुतलियों का उल्लेख है। सतवध्दर्धन काल में भारत से पूर्वी एशिया के देशों इंडोनेशिया, थाईलैंड, म्यांमार, जावा, श्रीलंका आदि में इसका विस्तार हुआ। आज यह कला चीन, रूस, रूमानिया, इंग्लैंड, चेकोस्लोवाकिया, अमेरिका व जापान आदि अनेक देशों में पहुंच चुकी है। इन देशों में इस विधा का सम-सामयिक प्रयोग कर इसे बहुआयामी रूप प्रदान किया गया है। वहां कठपुतली मनोरंजन के अलावा शिक्षा, विज्ञापन आदि अनेक क्षेत्रों में इस्तेमाल किया जा रहा है।
 
भारत में पारंपरिक पुतली नाटकों की कथावस्तु में पौराणिक साहित्य, लोककथाएं और किवदंतियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। पहले अमर सिंह राठौड़, पृथ्वीराज, हीर-रांझा, लैला-मजनूं और शीरी-फरहाद की कथाएं ही कठपुतली खेल में दिखाई जाती थीं, लेकिन अब साम-सामयिक विषयों, महिला शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा, परिवार नियोजन के साथ-साथ हास्य-व्यंग्य, ज्ञानवर्ध्दक व अन्य मनोरंजक कार्यक्रम दिखाए जाने लगे हैं। रीति-रिवाजों पर आधारित कठपुतली के प्रदर्शन में भी काफी बदलाव आ गया है। अब यह खेल सड़कों, गली-कूचों में न होकर फ्लड लाइट्स की चकाचौंध में बड़े-बड़े मंचों पर होने लगा है।  
 
छोटे-छोटे लकड़ी के टुकड़ों, रंग-बिरंगे कपड़ों पर गोटे और बारीक काम से बनी कठपुतलियां हर किसी को मुग्ध कर लेती है। कठपुतली के खेल में हर प्रांत के मुताबिक भाषा, पहनावा व क्षेत्र की संपूर्ण लोक संस्कृति को अपने में समेटे रहते हैं। राजा-रजवाड़ों के संरक्षण में फली-फूली इस लोककला का अंग्रेजी शासनकाल में विकास रुक गया। चूंकि इस कला को जीवित रखने वाले कलाकार नट, भाट, जोगी समाज के दलित वर्ग के थे, इसलिए समाज का तथाकथित उच्च कुलीन वर्ग इसे हेय दृष्टि से देखता था।
 
म्हाराष्ट्र को कठपुतली की जन्मभूमि माना जाता है, लेकिन सिनेमा के आगमन के साथ वहां भी इस पारंपरिक लोककला को क्षति पहुंची। बच्चे भी अब कठपुतली का तमाशा देखने के बजाय ड्राइंग रूम में बैठकर टीवी देखना ज्यादा पसंद करते हैं। कठपुतली को अपने इशारों पर नचाकर लोगों का मनोरंजन करने वाले कलाकर इस कला के कद्रदानों की घटती संख्या के कारण अपना पुश्तैनी धंधा छोड़ने पर मजबूर हैं। अनके परिवार ऐसे हैं, जो खेल न दिखाकर सिर्फ कठपुतली बनाकर ही अपना गुजर-बसर कर रहे हैं। देश में इस कला के चाहने वालों की तादाद लगातार घट रही है, लेकिन विदेशी लोगों में यह लोकप्रिय हो रही है। पर्यटक सजावटी चीजों, स्मृति और उपहार के रूप में कठपुतलियां भी यहां से ले जाते हैं, मगर इन बेची जाने वाली कठपुतलियों का फायदा बड़े-बड़े शोरूम के विक्रेता ही उठाते हैं। बिचौलिये भी माल को इधर से उधर करके चांदी कूट रहे हैं, जबकि इनको बनाने वाले कलाकर दो जून की रोटी को भी मोहताज हैं।
 
बीकानेर निवासी राजा, जो कठपुतली व अन्य इसी तरह की चीजें बेचने का काम करते हैं, का कहना है कि जीविकोपार्जन के लिए कठपुतली कलाकारों को गांव-कस्बों से पलायन करना पड़ रहा है। कलाकरों ने नाच-गाना व ढोल बजाने का काम शुरू कर  लिया है। रोजगार की तलाश ने ही कठपुतली कलाकरों की नई पीढ़ी को इससे विमुख किया है। जन उपेक्षा व उचित संरक्षण के अभाव में नई पीढ़ी इस लोक कला से उतनी नहीं जुड़ पा रही है जितनी जरूरत है। उनके परिवार के सदस्य आज भी अन्य किसी व्यवसाय के बजाय कठपुतली बनाना पसंद करते हैं। वह कहते हैं कि कठपुतली से उनके पूर्वजों की यादें जुड़ी हुई हैं।


उन्हें इस बात का मलाल है कि प्राचीन भारतीय संसकृति व कला को बचाने और प्रोत्साहन देने के तमाम दावों के बावजूद कठपुतली कला को बचाने के लिए सरकारी स्तर पर कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है। 

पुरानी फ़िल्मों और  दूरदर्शन के  कई कार्यक्रमों में कठपुतलियों का  अहम किरदार  रहा हैमगर वक़्त के साथ-साथ कठपुतलियों का वजूद ख़त्म होता जा रहा है। इन विपरीत परिस्थितियों में सकारात्मक बात यह है कि कठपुतली कला को समर्पित कलाकारों ने उत्साह नहीं खोया है। भविष्य को लेकर इनकी आंखों में इंद्रधनुषी सपने सजे हैं। इन्हें उम्मीद है कि आज न सही तो कल लोककलाओं को समाज में इनकी खोयी हुई जगह फिर से मिल जाएगी और अपनी अतीत की विरासत को लेकर नई पीढ़ी अपनी जड़ों की ओर लौटेगी।


जगदीश्‍वर चतुर्वेदी
‘रथयात्रा’ के कारण जगह-जगह सांप्रदायिक उन्माद पैदा हुआ और दंगे हुए जिनमें सैकड़ों निरपराध व्यक्ति मारे गए जिनका ‘रथयात्रा’ से कोई लेना-देना नहीं था, क्या ये मौतें आडवाणी की यात्रा का लक्ष्य स्पष्ट नहीं करतीं ?
आडवाणी ने यह भी कहा था ‘मंदिर बनाने की भावना के पीछे बदला लेने की भावना नहीं है!’ अगर ऐसा नहीं था तो फिर अधिकांश स्थानों पर मुसलमानों के खिलाफ नारे क्यों लगाए गए? क्यों निरपराध मुसलमानों पर हमले किए गए उनके जानो-माल का नुकसान किया (इस क्रम में हिंदू भी मारे गए)।
दूसरी बात यह है कि इतिहास की किसी भी गलती के लिए आज की जनता से चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान से उत्तर और समर्थन क्यों मांगा जा रहा है? आरएसएस के पूर्व सरसंघचालक स्व. बाला साहब देवरस ने 29 दिसंबर 1990 को कहा था कि मैं मुसलमानों से सीधा प्रश्न पूछता हूं कि क्या वे अतीत में ‘मंदिर को तोड़े जाने की स्वीकृति देते हैं’ अगर नहीं तो ‘वे क्या इस पर खेद व्यक्त करते हैं’ यानी कि जो मुसलमान इस प्रश्न का सीधा उत्तर ‘ना’ में दे? उसका भविष्य …? क्या होगा इस पर सोचा जा सकता है। मैं यहां एक प्रश्न पूछता हूं कि क्या आरएसएस के नेतागण हिंदू राजाओं के द्वारा मंदिर तोड़े जाने खासकर कल्हण की राजतरंगिणी में वर्णित राजा हर्ष द्वारा मंदिर तोड़े जाने की बात के लिए ‘हिंदुओं से सीधा प्रश्न करके उत्तर चाहेंगे?’ क्या वे ‘हिंदुओं से बौद्धों एवं जैनों के मंदिर तोड़े जाने का भी सीधा उत्तर लेने की हिमाकत कर सकते हैं?’ असल में, यह प्रश्न ही गलत है तथा सांप्रदायिक विद्वेष एवं फासिस्ट मानसिकता से ओतप्रोत है।
आडवाणी एवं आरएसएस के नेताओं ने इसी तरह के प्रश्नों को उछाला है और फासिस्ट दृष्टिकोण का प्रचार किया है। आडवाणी ने कहा था कि वे हिंदू सम्मान को पुनर्स्थापित करने के लिए रथयात्रा लेकर निकले हैं। 30 सितंबर को मुंबई में उन्हें 101 युवाओं के खून से भरे कलश भेंट किए गए थे। इन कलशों में बजरंग दल के युवाओं का खून भरा था। यहां यह पूछा जा सकता है कि ‘युवाओं के खूनी कलश’ क्या सांप्रदायिक सद्भाव के प्रतीक थे? या सांप्रदायिक एवं फासिस्ट विद्वेष के? आखिर बजरंग दल के ‘मरजीवडों’ को किस लिए तैयार किया गया? क्या उन्होंने राष्ट्रीय एकता में अवदान किया अथवा राष्ट्रीय सद्भाव में जहर घोला?
आडवाणी एवं अटल बिहारी वाजपेयी ने जो घोषणाएं ‘राम जन्मस्थान’ की वास्तविक जगह के बारे में की थीं, वह भी सोचने लायक हैं। अंग्रेजी दैनिक हिंदुस्तान टाइम्स के 18 मई 1989 के अंक में अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि ‘उस वास्तविक जगह को रेखांकित करना मुश्किल है, जहां हजारों वर्ष पूर्व राम पैदा हुए थे,’ जबकि इन्हीं वाजपेयीजी ने 24 सितंबर 1990 को हिंदुस्तान टाइम्स से कहा कि ‘राम का एक ही जन्मस्थान’ है। यहां सोचा जाना चाहिए कि 18 मई 1989 तक कोई वास्तविक जगह नहीं थी, वह 24 सितंबर 1990 तक किस तरह और किस आधार पर जन्मस्थान की जगह खोज ली गई ? इसी तरह लालकृष्ण आडवाणी ने कहा कि ‘यह कोई साबित नहीं कर सकता कि वास्तविक जन्मस्थान की जगह कौन-सी है। पर यह ‘आस्था’ का मामला है जिसको सरकार नजरअंदाज नहीं कर सकती’ (द इंडिपेंडेंट 1 अक्टूबर 1990) यानी मामला आस्था का है, वास्तविक सच्चाई से उसका कोई संबंध नहीं है।
आडवाणी ने लगातार यह प्रचार किया कि बाबर हिंदू विरोधी था, हिंदू देवताओं की मूर्ति तोड़ता था, वगैरह-वगैरह। इस संदर्भ में स्पष्ट करने के लिए दस्तावेजों में ‘बाबर की वसीयत’ दी है, जो बाबर के हिंदू विरोधी होने का खंडन करती है। वे तर्क देते हैं कि ‘देश बाबर और राम में से किसी एक को चुन ले’। आडवाणी के इससे तर्क के बारे में पहली बात तो यह है कि इसमें से किसी एक को चुनने और छोड़ने का सवाल ही पैदा नहीं होता। बाबर राजा था, यह इतिहास का हिस्सा है। राम अवतारी पुरूष थे, वे सांस्कृतिक परंपरा के अंग हैं। अत: इन दोनों में तुलना ही गलत है। दूसरी बात यह कि हिंदुस्तान के मुसलमानों में आज कोई भी बाबर को अपना नेता नहीं मानता, आडवाणी स्पष्ट करें कि किस मुस्लिम नेता ने बाबर को अपना नायक कहा है ? अगर कहा भी है तो क्या उसे देश के सभी मुसलमान अपना ‘नायक’ कहते हैं ?
एक अन्य प्रश्न यह है कि आडवाणी हिंदुओं को एक ही देवता राम को मानने की बात क्यों उठा रहे हैं? क्या वे नहीं जानते कि भारतीय देवताओं में तैंतीस करोड़ देवता हैं, चुनना होगा तो इन सबमें से हिंदू कोई देवता चुनेंगे? सिर्फ एक ही देवता राम को ही क्यों मानें? आडवाणी कृत इस ‘एकेश्वरवाद’ का फासिज्म के ‘एक नायक’ के सिद्धांत से गहरा संबंध है।
हाल ही में जब पत्रकारों ने आडवाणी से पूछा कि वह कोई राष्ट्रीय संगोष्ठी मंदिर की ऐतिहासिकता प्रमाणित करने के लिए आयोजित क्यों नहीं करते? जिसमें समाजविज्ञान, पुरातत्त्व, साहित्य आदि के विद्वानों की व्यापकतम हिस्सेदारी हो तो उन्होंने कहा कि ऐसे सेमीनार तो होते रहे हैं। पत्रकारों ने जब उत्तर मांगा कि कहां हो रहे हैं? तो आडवाणीजी कन्नी काटने लगे। 16 दिसंबर 1990 के स्टेट्समैन अखबार की रिपोर्ट के मुताबिक आडवाणी ने कहा कि कुछ महीने पहले मैंने महत्वपूर्ण दस्तावेजों से युक्त एक पुस्तक जनता के लिए जारी की है जिसे बेल्जियम के स्कॉलर कोनार्ड इल्स्ट ने लिखा है। नाम है- राम जन्मभूमि वर्सेंज बाबरी मस्जिद। मैंने इस पुस्तक को कई बार गंभीरता से देखा-पढ़ा एवं आडवाणीजी के बयानों से मिलाने की कोशिश की तो मुझे जमीन आसमान का अंतर मिला।
आडवाणी इस पुस्तक को महत्वपूर्ण मानते हैं तथा बाबरी मस्जिद विवाद पर यह पुस्तक उनके पक्ष को पेश भी करती है, यह उनका बयान है। आइए, हम आडवाणी के दावे और पुस्तक के लेखक के दावे को देखें।
आडवाणी का मानना है कि राम का जन्म वहीं हुआ है जहां बाबरी मस्जिद है, राम मंदिर तोड़कर बाबर ने मस्जिद बनाई, अत: ‘राष्ट्रीय’ सम्मान के लिए मस्जिद की जगह मंदिर बनाया जाना चाहिए। बेल्यिजम के इस तथाकथित ‘स्कॉलर’ या विद्वान ने अपनी पुस्तक में बहुत सी बातें ऐसी लिखा हैं, जिनसे असहमत हुआ जा सकता है, यहां मैं समूची पुस्तक की समीक्षा के लंबे चक्कर में नहीं जा रहा हूं, सिर्फ लेखक का नजरिया समझाने के लिए एक-दो बातें रख रहा हूं। लेखक ने अपने बारे में कहा है कि वह ‘कैथोलिक पृष्ठभूमि’ से आता है पर उसने यह नहीं बताया कि आजकल उसकी पृष्ठभूमि या पक्षधरता क्या है? क्या इस प्रश्न की अनुपस्थिति महत्वपूर्ण नहीं है?
एक जमाने में आरएसएस के गुरू गोलवलकर ने बंच ऑफ पॉटस में हिंदुत्व के लिए तीन अंदरूनी खतरों का जिक्र किया था, ये थे-पहला मुसलमान, दूसरा ईसाई और तीसरा कम्युनिस्ट। क्या यह संयोग है कि बेल्जियम के विद्वान महाशय ने बाबरी मस्जिद वाली पुस्तक में लिखा है कि ‘हिंदू विरोधी प्रचारक हैं ईसाई, मुस्लिम और मार्क्सवादी’! क्या लेखक के दृष्टिकोण में और गोलवलकर के दृष्टिकोण में साम्य नहीं है? क्या इससे उसकी मौजूदा पृष्ठभूमि का अंदाजा नहीं लगता। खैर, चूंकि आडवाणी इस विद्वान की पुस्तक का समर्थन कर रहे हैं तो यह तो देखना होगा कि आडवाणी क्या पुस्तक की बातों का समर्थन करते हुए अपना फैसला बदलेंगे। बेल्जियम के विद्वान ने प्राचीन मार्गदर्शक अयोध्या माहात्म्य में राम मंदिर का जिक्र नहीं है- इस प्रश्न का उत्तर खोजते हुए लिखा है कि -’यह बताया जा सकता है, पहली बात तो
यह कि अयोध्या माहात्म्य से संभवत: राम मंदिर का नाम लिखने से छूट गया हो, यह तो प्रत्यक्ष ही है। अपने इस प्रश्न का उत्तर खोजते हुए विद्वान लेखक ने इस बात को रेखांकित किया है कि ‘बाबर के किसी आदमी ने जन्मभूमि मंदिर’ नहीं तोड़ा। सवाल उठता है क्या आडवाणी अपने फैसले को वापस लेने को तैयार हैं? क्योंकि उनके द्वारा जारी पुस्तक उनके तर्क का समर्थन नहीं करती। इस पुस्तक में साफ तौर पर
विश्व हिंदू परिषद् के तर्कों से उस सिद्धांत की धज्जियां उड़ जाती हैं कि राम मंदिर तोड़कर बाबरी मस्जिद बनाई गई थी। चूंकि, आडवाणी इस पुस्तक पर भरोसा करते हैं, अत: वे इसके तथ्यों से भाग नहीं सकते। आडवाणी का मानना है कि बाबरी मस्जिद में 1936 से नमाज नहीं पढ़ी गई, बेल्जियम का विद्वान इस धारणा का भी खंडन करता है और कहता है कि ‘हो सकता है, नियमित नमाज न पढ़ी जाती हो, यदा-कदा पढ़ी जाती हो, पर 1936 से नमाज जरूर पढ़ी जाती थी।’ एक अन्य प्रश्न पर प्रकाश डालते हुए लेखक ने लिखा है कि ‘यह निश्चित है कि विहिप द्वारा ‘हिंदुत्व’ को राजनीतिक चेतना में रूपांतरित करने की कोशिश की जा रही है, उसे इसमें पर्याप्त सफलता भी मिली है। यह भी तय है कि राम जन्मभूमि का प्रचार अभियान इस लक्ष्य में सबसे प्रभावी औजार है, ‘विहिप’ अपने को सही साबित कर पाएगी: यह भविष्य तय करेगा, पर उसने कोई गलती नहीं की। हम हिंदू राष्ट्र बनाएंगे और इसकी शुरूआत 9 नवंबर 1989 से हो चुकी है।’ यानी कि आडवाणी के द्वारा बतलाए विद्वान महाशय का यह मानना है कि यह सिर्फ राम मंदिर बनाने का मसला नहीं है, बल्कि यह हिंदू राष्ट्र निर्माण की कोशिश का सचेत प्रयास है। क्या यह मानें कि आडवाणी अब इस पुस्तक से अपना संबंध विच्छेद करेंगे? या फिर बेल्जियम के विद्वान की मान्यताओं के आधार पर अपनी नीति बदलेंगे। असल में, बेल्जियम के लेखक की अनैतिहासिक एवं सांप्रदायिक दृष्टि होने के बावजूद बाबरी मस्जिद बनाने संबंधी धारणाएं विहिप एवं आडवाणी के लिए गले की हड्डी साबित हुई हैं। वह उस प्रचार की भी पोल खोलता है कि विहिप एवं भाजपा तो सिर्फ राम मंदिर बनाने के लिए संघर्ष कर रहें हैं। यह वह बिंदु है जहां पर आडवाणी अपने ही बताए विद्वान के कठघरे में खड़े हैं।
(लेखक वामपंथी चिंतक और कलकत्‍ता वि‍श्‍ववि‍द्यालय के हि‍न्‍दी वि‍भाग में प्रोफेसर हैं)


सतीश सिंह
सुशासन बाबू के नाम से विख्यात बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के गृह जिले नालंदा के हिलसा प्रखंड के गांवों में आजकल पारंपरिक पद्धति की जगह अधतन एवं विविधतापूर्ण तरीके से खेती करने का चलन जोर पकड़ता चला जा रहा है। आय में वृध्दि के लिए इस प्रखंड के किसान पारंपरिक फसलों धान व गेंहूं की जगह नगदी फसलों मसलन सूरजमुखी, सब्जी और मसालों की खेती करने लगे हैं। गौरतलब है कि सूरजमुखी के फूलों से तेल निकाला जाता है और वह पारंपरिक अनाजों से महंगा बिकता है। मौसमी सब्जियों और मसालों से भी इस प्रखंड के किसानों को अच्छी आमदनी हो रही है। पखनपुर, बलवापुर, कावा, धर्मपुर, मजीतपुर इत्यादि गांवों के किसानों जोकि ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं ने बिना किसी सरकारी मदद के अपने बलबूते पर सभी लोगों के सामने एक नई मिसाल पेष की है। हिम्मत और कुछ नया करने की जिजीविषा की वजह से धीरे-धीरे इस प्रखंड के किसानों की जिंदगी बदल रही है।
पखनपुर गांव के अरविंद महत्तो बताते हैं कि उन्हें अपने पिताजी के इंतकाल के बाद एक लंबा संघर्ष करना पड़ा। पिताजी तीन भाई थे। दादा के पास लगभग 15 बीघा जमीन थी। बंटवारा के बाद पिताजी के हिस्से 5 बीघा जमीन आई। श्री महत्तो 4 भाई और 2 बहन हैं। पिताजी के देहांत के समय श्री महत्तो बहुत छोटे थे, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। कम जमीन होने के कारण श्री महत्तो बटाई पर खेती करने लगे। दोनों चाचा नौकरी करते थे। इस कारण उनकी जमीन भी श्री महत्तो को मिल गई। बावजूद इसके श्री महत्तो का बमुकल गुजर-बसर हो पाता था। फिर श्री महत्तो ने घर और गांववालों के विरोध के बावजूद सूरजमुखी की खेती करना शुरु किया। थोड़ी-बहुत शुरुआती दिक्कतों के बाद श्री महत्तो की जिंदगी सूरजमुखी के कारण बदल गई। सूरजमुखी के साथ-साथ श्री महत्तो छिट-पुट तरीके से सब्जियों तथा मसालों की भी खेती कर रहे हैं। श्री महत्तो से प्रेरित होकर हिलसा प्रखंड के दूसरे गांवों में भी आज सूरजमुखी की खेती की जा रही है।
श्री महत्तो की सफलता के पीछे गांवों का सड़क मार्ग से जुड़ा रहना भी रहा है। इस प्रखंड में स्टोरेज की व्यवस्था भी ठीक-ठाक है। साथ ही जिला मुख्यालय बिहारषरीफ में सब्जियों की बहुत बड़ी मंडी भी है। वहां से झारखंड और दूसरे आस-पास के राज्यों में सब्जियों का निर्यात किया जाता है।
ज्ञातव्य है कि बिहार के नालंदा जिले में मसालों की बहुतायात मात्रा में खेती किया जाना संभव नहीं है, क्योंकि यहाँ की जलवायु प्रतिकूल है। फिर भी पारंपरिक खेती की तुलना में कम उत्पादन होने के बाद भी मसालों से इस प्रखंड के किसानों को अच्छी-खासी आमदनी हो रही है।
इस प्रखंड में अरविंद महत्तो सरीखे कई किसान हैं जो रोज एक नये मुकाम की ओर अग्रसर हैं। जागरुकता की नई हवा ने प्रखंड के गांवों की फिजा ही बदल दी है। यहाँ के किसानों ने कठिन और प्रतिकूल परिस्थितियों में सफलता की नई इबारत लिखना सीख लिया है। श्री अरविंद महत्तो  की सफलता आज के प्ररिप्रेक्ष्य में इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि महंगाई डायन के वाणों से आज भारत की 40 फीसदी गरीब जनता आहत है।
खाद्य पदार्थों की लगातार बढ़ती कीमत महंगाई डायन को और भी खतरनाक बना रही है। सरकार इसे काबू करने में नाकाम हो चुकी है। भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा रेपो और रिवर्स रेपो दरों में बारम्बार बढ़ोतरी के बाद भी मंहगाई की दर कम नहीं हो पा रही है। अगस्त के महीने में हालांकि थोक मूल्य सूचकांक में गिरावट आई है, फिर भी महंगाई की दर अभी भी 11.50 फीसदी पर बनी हुई है।
अब जानकारों का मानना है कि किसान ही इस महंगाई को कम कर सकते हैं, क्योंकि महंगाई के बेकाबू होने में मुख्य भूमिका खाद्य पदार्थों की लगातार बढ़ती कीमत की रही है।
योजना आयोग के मुख्य सलाहकार श्री प्रणव सेन भी कहते हैं कि भारत के किसानों को फसलों के उत्पादन के बरक्स में अपने रुझान को बदलना चाहिए। दरअसल अभी तक किसानों की सोच पारंपरिक फसलों के उत्पादन तक ही सीमित है। हो सकता है किसानों की इसतरह की सोच के पीछे सरकार की न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने की नीति रही हो या फिर यह भी हो सकता है कि देष के दूसरे हिस्से के किसानों में अरविंद महत्ताो के समान नई चुनौतियों का सामना करने का माद्दा न हो।
इसमें दो मत नहीं है कि यदि फसलों के उत्पादन में विविधता लाई जाती है तो मंहगाई पर काबू पाना आसान हो जाएगा। इससे जुड़ा दूसरा पहलू यह है भी है कि विविधतापूर्ण कृषि से किसानों की आर्थिक स्थिति में भी जबर्दस्त सुधार आएगा।
मुख्य फसलों की तरफ किसानों द्वारा सिर्फ ध्यान देने के कारण ही आज हमारे देश में सब्जी, मीट, मछली, फल, दूध इत्यादि का कम उत्पादन हो रहा है। इन विकल्पों के अभाव में किसान आत्महत्या करने के लिए भी विवश हो रहे हैं।
महंगाई को बढ़ाने में दूसरी महत्वपूर्ण कमी स्टोरेज और ट्रांसर्पोटेशन की समस्या का होना भी है। आज भी भारत में पंचायत, तहसील और जिला स्तर पर स्टोरेज का भारी अभाव है। पूरे देश में सड़क मार्ग जर्जर अवस्था में है, जबकि सड़क मार्ग को देश की धमनी माना जाता है। इसके कारण अनाज आम आदमी तक पहुँचने से पहले ही सड़ जा रहा है।
कृषि के तकनीक में आते निरंतर बदलाव और आधारभूत संरचना में लगातार आते सुधार के माहौल में किसानों को बिहार के नालंदा जिले के हिलसा प्रखंड के किसानों से प्रेरणा लेकर अपनी पारंपरिक खेती करने की शैली में जरुर बदलाव लाना चाहिए। इससे महंगाई पर भी काबू पाया जा सकेगा तथा किसानों की आर्थिक स्थिति में भी उल्लेखनीय सुधार आयेगा।


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