पेशकश : चांदनी
मेष : इस राशि व्यक्ति भीड़ में भी अलग नंजर आते हैं। इनमें दिखावे की आदत अधिकहोती है। लोगों केबीच अपनी उपस्थिति का अहसास कराना ये बखूबी जानते हैं। यदि इनकेसाथ विचारों का तालमेल आसान काम नहीं है। यदि इनकेसाथ अपनी ताल मिलानी है तो आपको भी रहना होगा एक्टिव और उर्जावान।

वृषभ : यदि आप वफादार जीवनसाथी चाहती हैं तो इन पर आंख बंद करकेभरोसा कर सकती हैं। थोड़े जिद्दी जरूर होते हैं, लेकिन इनके रोमांटिक होने मे कोई शकनही है। इन्हें रिझाने केलिए आपको नारी केसारे गुण अपनाने होंगे।

मिथुन : इस राशि केपुरुष बुद्विजीवी होते हैं। हो सकता है आप पहली बार में इन्हें बोर समझें, लेकिन इनका व्यवहार कुछ ऐसा होता है किलोग जल्दी इनकेप्रति आकर्षित नहीं होते, लेकिन इन सबकेसे परे इनका एकसंवेदनात्मक कोना भी है।

कर्क : ये सबसे ज्यादा संवेदनशील व्यक्ति होते हैं। यदि आप बहुत विनम्र और दयालु पति चाहती हैं तो ये आपके लिए सही साबित होते हैं। साथ ही इनमें अंडरस्टैंडिंग बहुत होती है। साथ ही इनपर असानी से भरोसा किया जा सकता है। ईमानदारी में ये हमेशा खरे उतरते हैं। इसलिए ये अच्छे पति साबित होते हैं।

सिंह : इस राशि के व्यक्ति बहुत बड़े समहू से घिरा होने दिखाई देने तो समझ लिजिए किवह सिंह राशि केहै। ये स्पष्टवादी है। किसी उदेश्य को लेकर ये इरादा भी उचाईयो को पाने का है तो आपका सिंह राशि के व्यक्ति है।

कन्या :  इसे राशि व्यक्ति हकिकत से जूड़े होते है, ये अपने व्यक्तित्व से बखूबी परिचित होते है और ये आलोचकहोते है। हर बात का बारिकी से विश्लेषण करते है। ये जानते है कि आपके लिये क्या ठीक है क्या नही इसलिय ऐसे लोगों से सोच समझ कर ही इन्हें चुनिएगा।

तुला : सभी राशियों में तुला राशि ही ऐसी है जिसकेव्यक्ति बेहद रोमांटिकहोते हैं। खूबसूरती इन्हें पसंद होती है। ये शांत स्वभाव के होते हैं। इसलिए खुद को उस तरह प्रस्तुत नहीं कर पाते जैसे ये हकीकत में होते हैं। इन्हें बच्चों की तरह प्यार से समझाकर रखें। ये हमेशा के लिए आपके होकर रह जाते हैं। इसलिए ये आपके साथ वफदार साबित होते हैं।

वृश्चिक : जैसे किइनकी राशि से पता चलता है, ज्यादा छेड़छाड़ इन्हें पसंद नहीं वरना डंकमारने में पीछे नही रहेंगे। दिखने में आपको थोडे रिजर्व लग सकते हैं, लेकिन ऐसा नहीं, सही जीवनसाथी मिलने पर यह उनसे खुल जाते हैं। यह मन के गहरे होते हैं। जीवनसाथी बनाने के लिए आपको इन्हें गभीरता से लेना पड़ेगा।

धनु : ये घुमक्कड़ प्रवृति के होते हैं। प्रकृति से इन्हें ज्यादा लगाव होता है। इन्हें घर के अंदर रखना मुश्किल होता है। एडवेंचर से जुड़ी चीजें जैसे ट्रेंकिंग, स्विमिंग आदि इनके शौक होते हैं। यदि आप खेल प्रेमी हैं तो इनका साथ आपको लुभाएगा।

मकर : मकर राशि के लोगों को पढ़ने में काफी रूचि होती है। फुररत के क्षणों में ये आपको बुक-स्टोर या किताबों के बीच मिलेंगे। ये जीवन में अपना लक्ष्य निर्धारित करके चलते हैं। यदि आप सुरक्षित भविष्य चाहते हैं तो इस राशि के पुरुष आपके लिए बेहतर साबित होंगे।

कुंभ : यदि आपको भी सपनों की दुनिया में रहना पसंद है तो कुंभ पुरुष केसाथ आपकी अच्छी जमेगी। ये भविष्य के सुनहरे सपने तो बुनते रहते हैं, अपनी अलग-अलग दुनिया भी बसा लेते हैं। समाज की भी इन्हें परवाह नहीं होती। इनके सपने आपका भी भविष्य संवार सकते हैं।

मीन : चूंकि इन्हें कई क्षेत्रों में रूचि होती है। इनसे आपका तालमेल होना आसान है, क्योंकिकहीं न कहीं आप दोनों की पसंद मिल ही जाएगी। आप इनसे किसी भी विषय पर बात कर सकते हैं। ये हर बात समान दिलचस्पी से सुनेंगे।




एस. सिवकुमार 
नशीली दवाओं का उपयोग ऐसा विकार है जिसमें हानिकारक तरीके से वस्‍तु का उपयोग होता है जिससे कि अलग तरह की समस्याएँ और परेशानियां उत्‍पन्‍न होती हैं।  किशोर तेजी से नशीली दवाओं का उपयोग कर रहे हैं, विशेषकर ऐसे नशीले पदार्थ (जो तेज दर्द में राहत देने के लिए निर्धारित होते हैं) और ऐसी उत्‍तेजक दवाईयां जो किसी खास देखरेख के अभाव से आए मानसिक अवसाद से जुड़ी समस्‍याओं के इलाज में काम आती है।

     प्रारंभ में नशीली दवाओं के उपयोगकर्ताओं को ऐसे व्‍यक्तियों के तौर पर देखा जाता था जिनमें नैतिक मूल्‍यों की कमी होती है आमतौर पर यह माना जाता था कि इस लत को वे स्‍वयं नहीं छोड़ सकते। इसे पहली बार अन्‍य रोगों की तरह एक रोग के रूप में एल्‍कोहोलिक्‍स एनोनिमस द्वारा पहचाना गया। एल्‍कोहोलिक्‍स एनोनिमस संगठन ने इस क्षेत्र में अग्रणी भूमिका निभाई। इन कारणों का पता लगाया कि एक व्‍यक्ति बेहद कम समय मे इस तरह की दवाइयों के उपयोग से खुद पर क्‍यों नियंत्रण खो देता है। डॉक्‍टर जेली नेक के गहन अध्‍ययन ने शराब/नशीली दवाओं का उपयोग करने वालों के प्रति अब तक की धारणा को बदलने में मदद की। इसके बाद तंत्रिका शारीरिक विज्ञान की प्रगति के बाद, विशेषकर 1956 के बाद ये निष्‍कर्ष निकाला गया कि नशीली दवाओं का उपभोग एक दीर्घकालिक बीमारी है जो व्‍यक्ति को पूरे जीवन भर परेशान करती रहती है और अंतत: उचित उपचार द्वारा इसका इलाज हो सकता है।  नशे की लत के रोग को पुराने समय की तुलना में बेहतर ढंग से समझा जाने लगा है। ऐसे मामलों में उचित उपचार के लिए सहानुभू‍ति की तुलना में रोग की पहचान और नियमित उपचार की जरूरत है। इस रोग का इलाज उन रोगियों के उपचार के समान करना पड़ता है जो मधुमेह पर नियंत्रण या उच्‍च रक्‍तचाप जैसी स्‍वास्‍थ्‍य संबंधी समस्‍याओं से जूझ रहे हैं।

दवाओं के प्रकार

     गलत रूप से इस्‍तेमाल की जाने वाली दवाओं में ब्राउन शूगर, (इसका निम्‍न रूप हीरोइन है), कैनाविस  (गांजा, भांग और ऐसी अन्‍य श्रेणियां)शामिल हैं। शराब भी नशीली दवाओं की श्रेणी में आती है क्‍योंकि ये एक तरल उत्‍तेजना देने वाला रसायन है। पेंट और अन्‍य सामग्री में प्रयोग किया जाने वाला थिनर को भी नशीला पदार्थ कहा जा सकता है। ऐसे मामले भी नशीली दवाओं के दुरुपयोग के हो सकते है, जहां पर चिकित्‍सक द्वारा निर्धारित की गई दवाओं का अधिक मात्रा अथवा नियत मात्रा से अधिक रूप में सेवन हो। नशे के आदी व्‍यक्ति ये मानते है कि उन्‍हें इससे एक विशेष अनुभूति होती है और इसलिए वे इसका निरंतर इस्‍तेमाल करने लगते हैं, जबकि वास्‍तव में दवा के रूप में जबकि इसकी जरूरत नहीं होती है।

विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन (डब्‍ल्‍यू एच ओ) की रिपोर्ट
     विश्‍व स्वास्‍थ्‍य संगठन जैसे निकायों द्वारा जारी की गई वार्षिक रिपोर्ट सामान्‍यतौर पर प्रयोग की जाने वाली नशीली दवाओं के स्‍वरूप में बढोत्‍तरी/कमी को दर्शाती है, कभी हेरोइन समोकिंग का प्रयोग ज्‍यादा देखने को मिलता है तो कभी भांग का सेवन ज्‍यादा पाया जाता है। इन सभी स्‍वरूपों को किसी और चीज की तुलना में नशीली दवाओं के दुरूपयोग में उतार-चढाव के रूप में ज्‍यादा देखा जाना चाहिए। कोई व्‍यक्ति नशीली दवाओं का आदी है या नहीं, यह तय करने के लिए अनेक मापदंड हैं। ये शारीरिक चेतावनी संकेतों, भावनात्‍मक संकेतों से लेकर पारिवारिक गतिविधियों में अचानक या धीरे-धीरे आए बदलाव हो सकते हैं, जो सामाजिक व्‍यवहार में स्‍पष्‍ट बदलाव लाते हैं। नशीली दवाओं का सेवन करने वाले व्‍यक्ति का भोजन कम हो जाता है और उनको नींद कम आती है, जिससे उनकी आंखें लाल और चमकती हुई दिखती हैं। ऐसा व्‍यक्ति अपनी आम रूचि भी खो सकता है और मनोदशा में अचानक बदलाव का पीडित हो सकता है। वह छुपकर अकेला रहना चाहता है और परिवार से दूर रहने की कोशिश करता है। सामाजिक पक्ष पर वह कुल मिलाकर नकारात्‍मक रवैये के साथ कामचोर बनने की कोशिश करता है। लेकिन अंगूठे के नियम के रूप में यह बेहतर होगा यदि ऐसा व्‍यक्ति एक चिन्‍ह के रूप में एक ही नशीली दवा के प्रयोग से जुडा रहता है, जहां प्रयोग करने वाले को परिणामों की पूरी जानकारी होती है, लेकिन मात्रा और अंतराल के आधार पर मादक द्रव्‍य के उपभोग को खत्‍म करने की विचित्र अक्षमता को रोका जाता है और नशीली दवाओं के दुरूपयोग को छोडने के प्रति एक दुर्गम प्रेरणा के प्रति मोडा जाता है।
दुर्बलता
     नशीली दवाओं का आदी होने के कारणों पर नजर डालने के बदले इसे आदी होने के प्रति दुर्बलता के रूप में समझना बेहतर है। इस आदत के बनने में अनुवांशिक संरचना एक महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाती है। पीडि़त व्‍यक्ति के परिवार के सदस्‍य और मित्र एक अवरोधक के रूप में काम कर सकते हैं या नशीली दवाओं के सेवन की आदत को और बढा सकते हैं ताकि इससे प्राप्‍त होने वाली सकारात्‍मक उम्‍मीद बढ़ सके। अगर उसके आसपास के लोगों की मौन स्‍वीकृति है तो इसे एक सामान्‍य आदत के रूप में लिया जाता है। यह अब नशीली दवाओं का दुरूपयोग नहीं है बल्कि यह सिर्फ यथोचित प्रयोग माना जाएगा। उपरोक्‍त दुर्बलता के लिए मनोवैज्ञानिक-सामाजिक घटक, बचने की क्षमता का अभाव, अत्‍यधिक भावनात्‍मक पीडा के दौरान मित्रों के सहयोग की प्रक्रिया में से कोई एक या सभी जिम्‍मेदार कारण हो सकते हैं।
वापसी के संकेत
     वापसी के संकेत एक असहज भावना उत्‍पन्‍न करते हैं और उस मादक द्रव्‍य पर निर्भर करते हैं जिसका सेवन किया गया है। शरीर और मस्तिष्‍क अशांत हो जाता है, काफी चिड़चिड़ा हो जाता है, शरीर के सभी अंग प्रभावित हो सकते हैं और नींद में बाधा आती है। यह शारीरिक संतुलनों के उस जोड़े के समान है, जिसमें एक मापदंड अपनी चरम सीमा पर है और जो भी नियम पूर्वक हो रहा है, वह पुनर्संतुलन की एक प्रक्रिया है। अगर रोगी कम मात्रा में मादक द्रव्‍य का सेवन करना चाहता है तो उसका मस्तिष्‍क उसके पिछले अनुभवों को फिर से याद कर लेता है और पूर्ण संतुष्टि पाने तक उसे ज्‍यादा से ज्‍यादा मादक द्रव्‍य का सेवन करने के लिए उसे बाध्‍य करता है। यह एक ऐसी स्थिति है जिससे पूरी तरह बचना चाहिए। यह याद रखना जरूरी है कि एक नशीली दवा के विकल्‍प के रूप में दूसरी नशीली दवा लेना न तो कोई समाधान है और न ही उपचार।
उपचार

     नशीली दवाओं का सेवन शारीरिक और मानसिक बीमारी है। हालांकि इसका इलाज चिकित्‍सा के तौर पर शुरू किया जा सकता है लेकिन यह पर्याप्‍त नही है इसके लिए रोगी को अत्‍यधिक मनोवैज्ञानिक मदद की आवश्‍यकता होती है। यदि कोई व्‍यक्ति अवसाद की स्थिति में तीन वैलियम गोलियां लेता है तो उसे इनके बिना भी अपना समय गुजारने के लिए समझाने की जरूरत है। इसके लिए लंबे समय के इलाज की जरूरत होती है जिसमें जीवन स्‍तर में बदलाव, परिवार का शामिल होना और कई तरह के उपचार होते हैं।

रोकथाम

     रोकथाम एक सामुदायिक प्रक्रिया है और यह एक समय अथवा एक दिन का मामला नहीं है बल्कि एक लंबी प्रक्रिया है। इस बारे में सिर्फ यह जानकारी देने से काम नहीं चलेगा कि नशीली दवाएं स्‍वास्‍थ्‍य के लिए खराब होती हैं, इसके लिए उनसे बचने की क्षमता का विकास करना, नशीली दवाओं के सेवन के न कहना सीखना, एक अच्‍छा सहयोग तंत्र और समय-समय पर नशीली दवाओं की लत के खिलाफ संदेशों का लगातार प्रचार करना और एक समग्र प्रयास की जरूरत है।

सरकारी पहल

     केन्द्रीय सामाजिक न्‍याय और अधिकारिता मंत्रालय वर्ष 1985-86 से नशीली दवाओं के उपयोग पर रोक और निषेध के लिए योजना का कार्यान्‍वयन कर चुका है जिसका मुख्‍य उद्देश्‍य देश में नशीली दवाओं की मांग में कमी लाने से जुडे कार्यक्रम चलाना है। नशीली दवाओं की लत को छुड़ाना और इसके आदी लोगों के पुनर्वास के लिए कार्यक्रमों के कार्यान्‍वयन के लिए ऐसे दीर्घकालिक और समर्पित स्‍तर के समन्वित प्रयासों की जरूरत है जिन्‍हें स्थिति के अनुरूप ढाला जा सके और यह प्रेरक भी हों। इस मामले में सेवा प्रदान करने के लिए एक मजबूत तंत्र के तौर पर राज्‍य-समुदाय (स्‍वैच्छिक) साझेदारी खासतौर पर सामने आई है। इसके अनुसार, योजना के तहत सेवाओं की लागत का मुख्‍य हिस्‍सा सरकार द्वारा वहन किया जाता है जबकि स्‍वैच्छिक संगठन परामर्श, जागरूकता कार्यक्रम केन्‍द्र, नशामुक्ति और पुनर्वास केन्‍द्र, नशा छुड़ाने से संबंधित शिविर और जागरूकता कार्यक्रमों के माध्‍यम से मूल सेवाएं प्रदान करते हैं। मंत्रालय देश भर में 376 नशामुक्ति और पुनर्वास केन्‍द्रों तथा 68 परामर्श और जागरूकता केन्‍द्रों को चलाने के लिए 361 स्‍वैच्छिक संगठनों की मदद कर रहा है। स्‍वैच्छिक संगठनों के माध्‍यम से चलाये जा रहे इन केन्‍द्रों में इलाज की सुविधा को प्रदान करने का मूल उद्देश्‍य परिवार और समुदाय की मदद को सुनिश्चित करना और इसे अधिकतम स्‍तर तक ले जाना है। लंबे समय तक गहन चिकित्‍सा की जरूरत वाले नशीली दवाओं के आदी रोगियों के चिकित्‍सा उपचार की सुविधा प्रदान करने के लिए सरकारी अस्‍पतालों, प्राथमिक स्‍वास्‍थ्‍य केन्‍द्र आदि में 100 नशामुक्ति केन्‍द्र संचालित किए जा रहे हैं। सरकार की इन पहलों में सेवाओं के न्‍यूनतम मानकों को विकसित करते हुए गुणवत्‍ता आश्‍वासन और न्‍यूनतम मानकों को सुनिश्चित करने के साथ-साथ पेशेवर मानव श्रम विकास शामिल हैं। एक शीर्ष संस्‍थान के तौर पर नशीली दवाओं की रोकथाम के लिए राष्‍ट्रीय केन्‍द्र ने औषधि क्षेत्र में प्रशिक्षण, अनुसंधान और विकास को अनिवार्य कर दिया है जहां अतिसंवेदनशील लक्ष्‍यों के लिए केन्द्रित हस्‍तक्षेप, कार्यस्‍थल रोकथाम कार्यक्रम, सरकार, आई.एल.ओ. गैर सरकारी संगठन तथा कॉरपोरेट क्षेत्र के समन्वित प्रयास परिणाम के रूप में सामने आए हैं। इस सहयोग में विभिन्‍न हितधारकों और ए.आर.एम.ए.डी.ए. के नाम से जाने जाने वाली एल्‍कोहल एवं नशीली दवाओं के दुरूपयोग के खिलाफ संसाधन प्रबंधकों की एसोसिएशन के एक प्रभावी समूह का गठन शामिल है।




संत बहादुर
भारत के डेयरी क्षेत्र ने नौंवी योजना के बाद से पर्याप्त विकास गति हासिल की है। वर्ष 2010-11 के दौरान दुग्ध उत्पादन 121.8 मिलियन टन रहा। 2010-11 में ही प्रति व्यक्ति दुग्ध की उपलब्धता 269 ग्राम प्रतिदिन के स्तर पर पहुंच गयी। इससे देश न सिर्फ दुनिया के प्रमुख दुग्ध उत्पादक राष्ट्रों की श्रेणी में पहुंच गया, बल्कि बढती हुई जनसंख्या के लिए दूध और दुग्ध उत्पादों की उपलब्धता में अनवरत वृद्धि भी दर्ज की गयी।
     देश में दूध की मांग तेजी से बढ़ रही है। इसका कारण मुख्य रूप से बढ़ती हुई जनसंख्या और विभिन्न क्षेत्रों में आजीविका और रोजगार सृजन के लिए प्रारंभ की गयी योजनाओं से होने वाली आय है। यदि हम उभरते हुए रूझानों को देखते हैं तो 12वीं पंचवर्षीय योजना (216-17) के अंत तक दूध की मांग करीब 155 मिलियन टन होने की संभावना है और 2021-22 में इसकी मात्रा 200 से 210  मिलियन टन के करीब होगी। पिछले दस वर्षों में दूध के उत्पादन में प्रतिवर्ष करीब 3.5 मिलियन टन की वार्षिक औसत वृद्धि रही है जबकि बढ़ती हुई मांग को पूरा करने के लिए इसे अगले 12 वर्षों में प्रतिवर्ष 6 मिलियन टन के औसत तक पहुंचाने की जरूरत है।
     लाखों ग्रामीण परिवारों के लिए डेयरी आय का एक महत्वपूर्ण द्वितीयक स्रोत बन चुका है और रोजगार प्रदान करने तथा आय सृजन के अवसरों में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। भारत में दूध उत्पादन और इसकी विपणन प्रणाली अनूठी है। अधिकांश दूध का उत्पादन छोटे और सीमांत किसानों तथा भूमि रहित श्रमिकों के द्वारा किया जाता है। दूध उत्पादन में शामिल करीब सात करोड़ ग्रामीण परिवारों में से अधिकांश छोटे और सीमांत किसान तथा भूमि रहित श्रमिक हैं। करीब 1.45 करोड़ किसानों को 1.45 लाख ग्रामीण स्तर की डेयरी सहकारी संस्थाओं की परिधि के अंतर्गत लाया जा चुका है। डेयरी संस्थाएं छोटे धारकों और खासतौर पर महिलाओं के लिए समग्रता को सुनिश्चित करती हैं। यह आवश्यक है कि वर्तमान में विपणन का 50 प्रतिशत संगठित क्षेत्र द्वारा संचालित किया जाए।
राष्ट्रीय डेयरी योजना - 1
    सरकार दुधारू पशुओं की उत्पादकता और देश में दूध की उपलब्धता को बढ़ाने के लिए एक महत्वाकांक्षी कार्यक्रम का शुभारंभ कर चुकी हैं। राष्ट्रीय डेयरी योजना केन्द्रीय क्षेत्र की एक योजना है। वर्ष 2012-17 हेतु इस परियोजना के पहले चरण का परिव्यय 2,242 करोड़ रुपये के करीब होने का अनुमान है। परियोजना के कुल परिव्यय में से 1584 करोड़ रुपये ऋण के रूप में अंतर्राष्ट्रीय विकास एजेंसी से प्राप्त किये जाएंगे जबकि इसमें केन्द्र सरकार की भागीदारी 176 करोड़ रुपये हैं।  कार्यान्वयन एजेंसियों की भागीदारी 282 करोड़ रुपये और परियोजना में तकनीकी और कार्यान्वयन सहायता के लिए एनडीडीबी से 200 करोड़ रुपये प्राप्त किये जाएंगे।
     राष्ट्रीय डेयरी योजना निधि के 715 करोड़ रुपये को नस्ल सुधार पर और 425 करोड़ रूपये को पशु-पोषण पर व्यय किया जाएगा। 488 करोड़ रुपये का व्यय ग्राम आधारित दुग्ध खरीद प्रणाली को मजबूत बनाने में किया जाएगा और 132 करोड़ रुपये परियोजना के प्रबंधन और शिक्षण पर व्यय किये जाएंगे।

उद्देश्‍य
    इस योजना का उद्देश्‍य उत्‍पादकता में वृद्धि‍, दुग्‍ध खरीद के लि‍ए ग्राम स्‍तरीय बुनि‍यादी ढांचे में मजबूती एवं वि‍स्‍तार तथा उत्‍पादकों को बाजारों की व्‍यापक उपलब्धता प्रदान करने के साथ-साथ अगले पांच वर्षो में 150 मि‍लि‍यन टन की लक्षि‍त मांग को पूरा करना है। एनडीपी का उद्देश्‍य दुधारी पशुओं की उत्‍पादकता और दूध उत्‍पादन को बढ़ाने में मदद करने के अलावा देश में तेजी से बढ़ रही दूध की मांग को पूरा करना है। योजना के अंतर्गत ग्रामीण दूध उत्‍पादकों को एक योजान्‍वि‍त वैज्ञानि‍क बहु-आयामी पहल के माध्‍यम से संगठि‍त दुग्‍ध-प्रसंस्‍करण क्षेत्र तक व्‍यापक पहुँच बनाना भी शामिल है।
     यह वि‍श्‍व बैंक की अंतर्राष्‍ट्रीय वि‍कास एसोसि‍एशन (आईडीए) के माध्‍यम से व्‍यापक स्‍तर पर वि‍त्‍त पोषि‍त की जाने वाली एक छ: वर्षीय योजना है। इसका कार्यान्‍वयन राज्‍यों में स्‍थि‍त एंड कार्यान्‍वयन एजेन्‍सि‍यों के माध्‍यम से राष्‍ट्रीय डेयरी वि‍कास बोर्ड (एनडीडीबी) द्वारा कि‍या गया है। सरकार की सहभागि‍ता के साथ आईडीए के ऋण के माध्‍यम से पशुपालन, डेयरी और मतस्य विभाग के द्वारा एनडीडीबी को अनुदान प्रदान किया जाएगा और इसके उपरान्त उपयुक्त ईआईए को वितरित किया जाएगा।
     ईआईए में राज्य सरकार, राज्य पशुधन बोर्ड, राज्य सरकारी डेयरी संघ, जिला सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ, सांविधिक निकायों के सहायक , आईसीएआर संस्थान, पशुचिकित्सा, डेयरी संस्थान, विश्वविद्यालय और अन्य शामिल सहभागियों का निर्णय राष्ट्रीय संचालन समिति द्वारा किया गया है और इसे राष्ट्रीय डेयरी योजना के अंतर्गत गठित किया जाएगा। ईआईए पात्रता मानदंडो के आधार पर विभिन्न घटकों के अंतर्गत अनुदान के लिए पात्र होंगे, जिसमें भौगोलिक, तकनीकी, वित्तीय और प्रशासनिक मानदंड शामिल होंगे। योजना के अंतर्गत वित्त पोषण की प्रणाली पोषण और प्रजनन गतिविधियों के लिए सौ प्रतिशत अनुदान सहायता के तौर पर होगी।

केन्द्रित राज्य
     एनडीपी- 1 को उन राज्यों में लागू किया जाना है जहां कि संबंधित सरकारें योजना के सफल कार्यान्वयन के लिए एक वातावरण तैयार करने हेतु आवश्यक नियामक, नीति सहायता में समर्थन के प्रति वचनबद्ध हैं। इस योजना का केन्द्र बिंदु 14 प्रमुख दुग्ध उत्पादक राज्यों के उच्च उत्पादन क्षमता वाले क्षेत्रों पर रहेगा। इन राज्यों में आन्ध्र प्रदेश, बिहार, गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल शामिल हैं। यह राज्य देश के दुग्ध उत्पादन में 90 प्रतिशत का योगदान करते हैं। हालांकि योजना का लाभ देश भर में होगा।
ग्राम आधारित खरीद प्रणालियों को मजबूत बनाना
    मौजूदा सहकारी संस्थाओं को मजबूत बनाते हुए ग्राम आधारित खरीद प्रणाली का विस्तार किया जाएगा। इसके अलावा उत्पादक कंपनियों और नवीन उत्पादन सहकारी कंपनियों के गठन में सुविधा प्रदान की जाएगी। इस योजना 23,800 अतिरिक्त ग्रामों में करीब 13 लाख दूध उत्पादकों को शामिल किये जाने की उम्मीद है। इसके साथ-साथ ग्राम स्तर पर तकनीकियों और बेहतर कार्य प्रणालियों को प्रोत्साहन देने के लिए क्षमता संवर्धन, प्रशिक्षण और शिक्षा कार्यक्रमों को बढ़ावा दिया जाएगा।

लाभ
     समग्र लाभ के संदर्भ में, एनडीपी एक ऐसी वैज्ञानिक और व्यवस्थित प्रक्रिया को सामने लाने में सहायक सिद्ध होगी जिससे दुधारी पशुओं की नस्ल सुधार के मामले में देश को एक सुसंगत और निरन्तर उन्नति के मार्ग में जाया जा सकेगा। यह देश के संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग के साथ-साथ मीथेन उत्सर्जन में कमी लाएगी। यह योजना विपणन किये जाने वाले दूध की गुणवत्ता में सुधार, नियामक और नीतिगत उपायों को मजबूत बनाने में सहायता के साथ-साथ देश की दूध उत्पादन प्रणाली के मूलाधार छोटे दूध उत्पादकों की आजीविका में योगदान के अलावा डेयरी क्षेत्र की भविष्यगत उन्नति हेतु अनुकूल वातावरण भी प्रदान करेगी।



कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी एक ऐसी शख्सियत के मालिक हैं, जिनसे शायद ही कोई मुतासिर हुए बिना रह सके... मुल्क की एक बड़ी सियासी पार्टी के एक नेता ने हमसे कहा था कि राहुल का विरोध करना उनकी पार्टी की नीति का एक अहम हिस्सा है, लेकिन ज़ाती तौर पर वो राहुल को बहुत पसंद करते हैं...पिछले विधानसभा चुनाव में राहुल ने जितनी मेहनत की, शायद ही किसी और पार्टी के नेता ने की हो...लेकिन कांग्रेस के उन नेताओं ने ही राहुल की मेहनत पर पानी फेर दिया, जिन्हें राहुल ने अपना समझा...
बहरहाल, कुछ अरसा पहले दैनिक भास्कर में राहुल के बारे में एक लेख शाया हुआ था, पेश है वही तहरीर...

साल 2008 की गर्मियों में भारत के बेहतरीन बॉक्सिंग कोच और द्रोणाचार्य पुरस्कार से सम्मानित ओमप्रकाश भारद्वाज के फोन की घंटी बजी. फोन भारतीय खेल प्राधिकरण से आया था. उन्हें बताया गया कि 10 जनपथ से कोई उनसे संपर्क करेगा. कुछ समय बाद नेहरू-गांधी परिवार के निजी स्टाफ में दो दशकों से ज़्यादा समय से कार्यरत पी माधवन ने उन्हें फ़ोन किया और एक असामान्य-सी गुज़ारिश की- राहुल गांधी बॉक्सिंग सीखना चाहते हैं. क्या भारद्वाज उन्हें सिखाएंगे? ‘मुझे बड़ा ताज्जुब हुआ.’ तब 70 की उम्र को छू रहे भारद्वाज बताते हैं. ‘राहुल बॉक्सिंग रिंग में उतरने की योजना तो नहीं ही बना रहे होंगे. मैंने सोचा वह शायद आत्मरक्षा के गुर सीखना चाहते होंगे.’ हाथ आया मौक़ा गंवाने से पहले ही भारद्वाज फ़ौरन राज़ी हो गए. फ़ीस के तौर पर वह कुल इतना चाहते थे कि उन्हें घर से लाने-ले जाने की व्यवस्था करवा दी जाए. कक्षाएं 12 तुगलक लेन में होनी थीं, जहां राहुल रहते थे. भारद्वाज के लिए यह राहुल को क़रीब से जानने-समझने का भी मौक़ा था. न सिर्फ़ बॉक्सिंग सीख रहे छात्र के रूप में, बल्कि उस शख्स के रूप में भी जिसे भारत का भावी प्रधानमंत्री कहा जा रहा था. ‘वह हमेशा ज़्यादा के लिए तैयार रहते थे. वार्म अप के लिए अगर मैंने लॉन का एक चक्कर लगाने को कहा, तो वे तीन चक्कर लगा लेते.’

बॉक्सिंग सत्र 12 तुगलक लेन के लॉन पर हफ्ते में तीन दिन होते. कभी-कभी प्रियंका और उनके बच्चे भी राहुल को मुक्केबाज़ी के हुनर सीखते देखने आते. कई बार सोनिया भी वहां बैठकर देखतीं. ‘एक दिन प्रियंका ने मुझसे कहा कि मुझे भी सिखाइए.’ भारद्वाज बताते हैं. उन्होंने उतनी ही चुस्त-दुरुस्त छोटी बहन को भी मुक्केबाज़ी  की कुछ चालें समझाईं और उनके एक पंच पर दंग रह गए. ‘यह बहुत ख़ूबसूरत पंच था, उस शख्स से तो इसकी उम्मीद ही नहीं की जा सकती थी जो पहली बार मुक्केबाज़ी  में हाथ आज़मा रहा था.

जिस दिन इंदिरा गांधी की हत्या हुई, वह आख़िरी दिन जब राहुल और प्रियंका स्कूल गए. अगले पांच वर्ष उनकी पढ़ाई-लिखाई घर पर ही हुई. राजीव गांधी के शब्दों में ‘घूमने-फिरने और खेलकूद के शौक़ीन व्यक्ति होने के नाते राहुल ने खेलकूद में अपनी अभिरुचि को आगे बढ़ाने के रास्ते खोज लिए. उन्होंने तैराकी, साईलिंग और स्कूबा-डायविंग की और स्वैश खेला. अपने पिता की तरह उन्होंने दिल्ली के नज़दीक अरावली की पहाड़ियों पर एक शूटिंग रेंज में निशानेबाज़ी का प्रशिक्षण लिया और हवाई जहाज़ उड़ाना भी सीखा. खेलों में अभिरुचि की वजह से ही 1989 में उन्हें दिल्ली के बेहतरीन सेंट स्टीफेंस कॉलेज में दाख़िला मिला. नंबरों के बल पर तो उन्हें इस कॉलेज में प्रवेश नहीं मिल सका, अलबत्ता पिस्टल शूटिंग में अपने हुनर की बदौलत स्पोर्ट्स कोटे में प्रवेश मिल गया. उन्होंने इतिहास ऑनर्स में नाम लिखवाया. वह सुरक्षा गार्डो के साथ कॉलेज आते और अक्सर क्लास में पीछे बैठते. रैगिंग के दौरान वह काफ़ी मज़े लेते, लेकिन कॉलेज में बाक़ी समय बहुत कम मौक़ों पर ही बोलते. एक साल और तीन महीने बाद उन्होंने सेंट स्टीफेंस कॉलेज छोड़ दिया. कॉलेज के प्रिंसीपल डॉ. अनिल विल्सन भी राहुल के अधबीच में कोर्स छोड़ देने के कारणों के बारे में अन्य लोगों की तरह सिर्फ़ अनुमान ही लगा पाते हैं.

उन्होंने पाया कि राहुल ज़मीन से जुड़े व्यक्ति थे और गांधी परिवार का सदस्य होने के नाज़-नख़रों से मुक्त थे. उन्हें लगा कि राहुल हर कहीं साये की तरह साथ चलती कड़ी सुरक्षा से असहज महसूस करते थे और संभवत: इसी वजह से उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी. सेंट स्टीफेंस कॉलेज छोड़ने के फ़ौरन बाद राहुल अमेरिका चले गए और इकॉनोमिक्स के छात्र के तौर पर हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में प्रवेश लिया. वह बीस साल के थे. हार्वर्ड में अभी मुश्किल से एक साल ही बिताया था कि उनके पिता की हत्या हो गई. त्रासदी का असर उनकी पढ़ाई पर पड़ा. राहुल हार्वर्ड छोड़कर लिबरल आर्ट्स के एक निजी संस्थान रॉलिन्स कॉलेज में पढ़ने के लिए विंटर पार्क, लोरिडा आ गए. इसकी वजह भी एक बार फिर सुरक्षा चिंताओं को ही बताया गया. अब तक सुरक्षा गार्डो की सतत पहरेदारी में ज़िन्दगी बिताते आ रहे नौजवान को इस उपनगरीय शहर ने, जिसे अमीर उद्योगपतियों ने प्रारंभ में रिसॉर्ट डेस्टिनेशन की तौर पर बसाया था, आदर्श माहौल मुहैया किया. यहां राहुल ने वह कोर्स पूरा किया, जिसमें दाख़िला लिया था और 1994 में कॉलेज में पढ़ाए जाने वाले छह मुख्य विषयों में से एक, इंटरनेशनल रिलेशंस में डिग्री के साथ ग्रेजुएट किया.

इसके बाद राहुल कैंब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज में पढ़ने गए. उनके परदादा जवाहरलाल नेहरू भी 1907 से 1910 तक इसी कॉलेज में पढ़े थे और क़ानून की डिग्री ली थी. राजीव गांधी ने भी ट्रिनिटी से मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई की थी. राहुल ने डेवलपमेंट स्टडीज में एम फिल करने का विकल्प चुना, जिसे 1995 में पूरा किया.

ट्रिनिटी कॉलेज से उत्तीर्ण होकर राहुल फौरन भारत नहीं लौटे. वह लंदन चले गए, जहां उन्होंने एक ग्लोबल मैनेजमेंट एंड स्ट्रैटजी कंसल्टेंसी फर्म, मॉनीटर ग्रुप, में काम किया. इसके सह-संस्थापक थे हार्वर्ड बिजनेस स्कूल के प्रोफेसर माइकल यूजीन पोर्टर, जिन्हें ब्रैंड स्ट्रैटजी का अग्रणी आधिकारिक विद्वान माना जाता है. राहुल ने वहां तीन साल काम किया, लेकिन फ़र्ज़ी नाम से. उनके सहयोगियों को अंदाज़ तक नहीं था कि इंदिरा गांधी का पौत्र उनके बीच काम कर रहा है. प्रायवेसी की ज़रूरत के बारे में, जिससे वह हमेशा वंचित रहे, राहुल ने कहा, ‘अमेरिका में पढ़ाई के बाद मैंने जोखिम उठाया  और अपने सुरक्षा गार्डो से छुटकारा पा लिया, ताकि इंग्लैंड में सामान्य ज़िन्दगी बिता सकूं.’ उनके पिता ने भी कभी ऐसी ही ज़रूरत महसूस की थी. प्रधानमंत्री बनने के बाद जब अपने और परिवार के लिए वक़्त निकालना मुश्किल हो गया और राजनीति की रफ़्तार ने उड़ान के जज़्बे को नेपथ्य में धकेल दिया, तब उन्होंने कहा था, ‘कभी-कभी मैं कॉकपिट में चला जाता हूं, बिल्कुल अकेला, और दरवाज़ा  बंद कर लेता हूं. मैं उड़ भले न सकूं, कम से कम कुछ देर के लिए दुनिया से अपने को अलग तो कर पाता हूं.’

उधर, राहुल इंग्लैंड में सामान्य जीवन जीने की कोशिश कर रहे थे, इधर भारत में उनकी मां सोनिया गांधी राजनीति में गहरे और गहरे उतरती जा रही थीं. 1997 में राजनीति में प्रवेश के बाद अब वह कांग्रेस का नेतृत्व कर रही थीं. इस दौरान प्रियंका उनके साथ खड़ी थीं, शक्तिस्रोत बनकर. कांग्रेस के भीतर शोर-शराबा बढ़ रहा था कि प्रियंका पार्टी में शामिल हों. राहुल को देश से बाहर रहते दस साल से ज़्यादा हो चुके थे, लेकिन राजनीति उन्हें पुकार रही थी और यह संकेत था कि उनके लौटने का वक़्त आ गया है. वह लौटे, 2002 में. भारत में आउटसोर्सिग इंडस्ट्री उछाल पर थी. पश्चिम की मल्टीनेशनल कंपनियां भारत का रुख़ कर रही थीं, ताकि काम तेज़ी से और सस्ते में करवाए जा सके.  राहुल ने देश की व्यावसायिक राजधानी मुंबई में एक इंजीनियरिंग और टेक्नोलॉजी आउटसोर्सिग फर्म,   बेकॉप्स सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड, बनाई. इस बीपीओ उद्यम में सिर्फ़ आठ लोग काम करते थे और रजिस्ट्रार ऑफ कंपनीज में दर्ज आवेदन के मुताबिक़ इसका लक्ष्य था घरेलू और अंतरराष्ट्रीय ग्राहकों को सलाह व सहायता मुहैया करना, सूचना प्रौद्योगिकी में परामर्शदाता और सलाहकार की भूमिका निभाना और वेब सॉल्यूशन देना. राहुल, अपने पारिवारिक मित्र मनोज मट्टू के साथ, इसके निदेशकों में से एक थे. अन्य दो निदेशक थे - कांग्रेस नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री रामेश्वर ठाकुर के बेटे अनिल ठाकुर और दिल्ली में रहने वाले रणवीर सिन्हा. दोनों ने 2006 में ‘निजी कारणों’ का हवाला देते हुए इस्तीफ़ा  दे दिया. 2004 के आम चुनाव से पहले चुनाव आयोग को दिए हलफ़नामे के मुताबिक़ बेकॉप्स सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड में राहुल की हिस्सेदारी 83 फ़ीसदी थी. कंपनी की बैलेंस शीट से पता चलता था कि यह एक छोटा व्यावसायिक उद्यम था.

2004 में राहुल के राजनीति में प्रवेश के कुछ समय बाद उनकी कंपनी ने सीईओ की तलाश के लिए विज्ञापन निकाला. ‘हम एक सीईओ की खोज में हैं, हालांकि मैं समय-समय पर कर्मचारियों के साथ मीटिंग करता हूं और बड़े मुद्दे सुलझाता हूं.’ जून 2004 में राहुल ने बिजनेस स्टैंडर्ड से कहा था. उस वक़्त कंपनी के पास तीन विदेशी ग्राहक थे और राहुल ने माना कि पहले साल कोई रेवन्यू नहीं आया. 2009 में, लोकसभा चुनाव से कुछ पहले, राहुल ने अपने को इस उद्यम से बाहर कर लिया. कांग्रेसियों के मुताबिक़ राजनीति के तक़ाज़ों में उन्हें बिजनेस चलाने के लिए वक़्त ही नहीं मिलता था.

राहुल की पढ़ाई-लिखाई में जैसे अवरोध आए, वैसे ही उनके कॅरियर में भी. लेकिन शारीरिक चुस्ती और रोमांचक खेलों को लेकर उनके जज़्बे में कभी कमी नहीं आई. दिन में कितनी भी व्यस्तता क्यों न हो, वह व्यायाम के लिए वक़्त निकाल ही लेते. जिस साल उन्होंने बॉक्सिंग में क्रैश कोर्स किया, उसी साल पैराग्लाइडिंग में भी हाथ आज़माया.  अपनी मैनेजमेंट ट्रेनिंग का अच्छा इस्तेमाल करते हुए वह अमेठी से सात-आठ लोगों की एक टीम को महाराष्ट्र के कामशेट स्थित निर्वाणा एडवेंचर्स नामक एक लाइंग क्लब में ले गए. यह तीन दिनों का पैराग्लाइडिंग कोर्स था, जो 28 से 30 जनवरी 2008 तक चला. इसने टीम बिल्डिंग का भी काम किया. पश्चिमी घाट में पुणो से 85 किलोमीटर दूर कामशेट ऐसी जगह नहीं थी, जहां कोई राजनीतिज्ञ अपने पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ एकत्र हो और काम पर चर्चा करे. लेकिन राजनीतिज्ञों की बंधी-बधाई लीक से हटकर चलने वाले राहुल के लिए असामान्य बात नहीं थी. सरसों के खेतों, शांत झीलों और प्राचीन बौद्घ गुफ़ा मंदिरों से सजी-धजी पहाड़ियों के बीच राहुल की अमेठी टीम सुबह पैराग्लाइडिंग के पाठ सीखती और शामें धुआंधार बहसों में बीततीं. कामशेट में उन्हें देखने वाले बताते हैं कि चर्चाएं हरेक के साथ सीधे होतीं. कौन छोटा है और कौन बड़ा यह सिर्फ़ तब पता चलता जब टीम राहुल को संबोधित करती. सभी उन्हें राहुल भैया कहते. राहुल और उनकी टीम के कामशेट पहुंचने से पहले उनकी मेज़बान एस्ट्रिड राव अपने इस शांत और मनोरम अंचल में एक हाईप्रोफाइल राजनेता के आगमन को लेकर ख़ासी आशंकित थीं. अपने शौहर संजय राव के साथ मिलकर निर्वाणा एडवेंचर्स की स्थापना करने वाली एस्ट्रिड मुतमईन थीं कि इस आगमन से इलाक़े की शांति भंग हो जाएगी. उन्होंने कहा, ‘मुझे यक़ीन था कि राहुल के साथ आने वाली कड़ी सुरक्षा व्यवस्था पूरे इलाक़े की घेराबंदी कर देगी.’ ऐसा कुछ नहीं हुआ. ‘हमारे कहे बग़ैर राहुल ने सुनिश्चित कर दिया कि गेस्ट हाउस के आसपास कोई भी वर्दीधारी या बंदूक़ धारी दिखाई न दे.

उनकी मौजूदगी से एक बार भी हमारी दिनचर्या में ख़लल नहीं पड़ा.’ वे किसी भी दूसरे मेहमान की तरह वहां रहे. पहली रात राव दंपती ने आगंतुकों के लिए मेमना पकाया. बुफ़े सजा दिया गया. एस्ट्रिड बताती हैं, ‘मुझे देखकर ताज्जुब हुआ कि राहुल अपने साथियों को प्लेटें दे रहे थे. अपनी प्लेट भी वह ख़ुद किचन में रखकर आए.’ अगले दिन खाने के वक़्त राहुल रसोइये के पास गए और पूछा कि क्या कल रात का मेमना बचा हुआ है. कोच भारद्वाज भी राहुल को ग़ुरूर से मुक्त बताते हैं. ‘जब मैंने उन्हें सिखाना शुरू किया, मैं उन्हें सर या राहुल जी कहता.’ लेकिन दो दिन बाद राहुल ने अपने कोच से गुज़ारिश की, ‘मुझे सर मत कहिए. राहुल कहिए. मैं आपका शिष्य हूं.’ भारद्वाज बताते हैं, एक बार उन्होंने राहुल से कहा कि वह पानी पीना चाहते हैं. ‘पास ही सेवक खड़े थे, लेकिन उन्हें बुलाने की बजाय राहुल ख़ुद किचन में गए और गिलास में मुझे पानी लाकर दिया.’ और सीखने के बाद वह अपने गुरु को गेट तक छोड़ने आते.

कामशेट के पैराग्लाइडिंग स्कूल में राहुल ने पहला दिन लाइट ट्रैनर संजय राव के साथ बिताया, जिन्होंने उन्हें मैदानी प्रशिक्षण दिया. असली लाइट बाद के दो दिनों में सिखाई गई. ‘राहुल का परफॉर्मेस बहुत अच्छा था. उन्होंने ग्लाइडर उठाया और बस उड़ गए.’ संजय ने बताया. वह राहुल को अपने टॉप 10 फ़ीसदी छात्रों में शुमार करते हैं. ‘वह बहुत ध्यान से सुनते हैं, इसीलिए तेज़ी से सीखते हैं.’ जिन्होंने उन्हें देखा है, वे उन्हें ऐसा शख्स बताते हैं जो ‘हमेशा अपना एंटीना खुला रखता है.’ कामशेट में रहने के दौरान राहुल पड़ोस की झील में तैरने जाना चाहते थे, लेकिन उनके सुरक्षा गार्डो ने उन्हें ऐसा न करने की सलाह दी. उन्होंने उनकी बात मानी. ‘यह बड़े दुख की बात थी, ख़ासकर जब वह बहुत एथलेटिक शख्स हैं और रोज़ 10 किलोमीटर जॉगिंग करते हैं.’ एस्ट्रिड बताती हैं.
वह ऐसे शख्स भी नहीं हैं, जो वादा करके भूल जाएं. एस्ट्रिड को यह बात राहुल और उनकी टीम के कामशेट से जाने के एक महीने बाद पता चली. जब वह उन्हें अपना बगीचा दिखा रही थीं, राहुल ने उनसे कहा कि उनकी मां को भी बाग़वानी बहुत प्रिय है. उन्होंने बताया कि सोनिया के पास एक ख़ास किताब है जिसका वह अकसर  ज़िक्र करती हैं, लेकिन उस वक़्त वह उसका नाम याद नहीं कर सके. उन्होंने वादा किया कि दिल्ली जाकर वह किताब भेजेंगे. एक महीने बाद एस्ट्रिड को एक अप्रत्याशित पार्सल मिला. इसमें बाग़वानी की वही किताब थी, जिसकी राहुल ने चर्चा की थी. राहुल न तो भूलते नहीं हैं और न ही वह माफ़ करते हैं. यह बात कुछ पत्रकारों को ख़ासी क़ीमत चुकाकर समझ आई. 22 जनवरी 2009 को एनएसयूआई ने राहुल के कहने पर पुलिस में एक शिकायत दर्ज की. दरअसल एक सभा स्थल से लंच ब्रेक के दौरान राहुल के भाषण और प्रेजेंटेशन के लिए तैयार नोट्स ग़ायब हो गए थे. घटना दिल्ली के कॉंस्टिट्यूशन क्लब में घटी, जहां पार्टी की एक वर्कशॉप आयोजित की गई थी. शक एक टीवी क्रू के सदस्यों पर था जो उस वक़्त हॉल में दाख़िल हुए थे, जब बाक़ी सब लोग खाना खाने चले गए थे. वहां क़रीब पच्चीस पत्रकार मौजूद थे. एनएसयूआई प्रमुख हिबी ईडन ने पार्लियामेंट स्ट्रीट पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज की. कहा जाता है कि यह क़दम  तभी उठाया गया जब राहुल ने ज़ोर डाला कि मामला पुलिस में दिया जाए. पत्रकार ज़्यादा से ज़्यादा सूचनाएं जुटाने के लिए अक्सर किसी भी हद तक चले जाते हैं, लेकिन सार्वजनिक नहीं की गई जानकारी हासिल करने की ग़रज़ से किसी के काग़ज़ उठा लेना, राहुल के लिए यह चोरी से कम नहीं था. दो दिनों तक पुलिस ने अलग-अलग चैनलों के तीन पत्रकारों को बुलाकर ग़ायब काग़ज़ों  के बारे में पूछताछ की. हालांकि राहुल की टीम के सदस्यों ने भी उन्हें समझाने की कोशिश की कि आख़िरकार ये प्रेजेंटेशन के काग़ज़ात कागजात ही थे और उनमें कोई गोपनीय जानकारी नहीं थी, लेकिन वह पत्रकारों के ख़िलाफ़ कार्रवाई पर ज़ोर देते रहे.

19 जून 2011 को राहुल इकतालीस साल के हो गए. राजनेता की व्यस्त ज़िन्दगी जीने के बावजूद वह अपने शौक़ पूरे करते हैं और अपने माता-पिता की तरह सामान्य जीवन बिताने के रास्तों की तलाश में रहते हैं. जब उनके पति पायलट थे और इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं, तब सोनिया को अक्सर दिल्ली की खान मार्केट में सब्ज़ियां ख़रीदते देखा जाता था. उन्हें खाना पकाना बहुत प्रिय था. प्रियंका भी इसी बाज़ार से अपनी ख़रीदारी करना पसंद करती हैं. दुनिया की सबसे महंगी खुदरा हाई स्ट्रीट में शुमार खान मार्केट दिल्ली में राहुल का भी सबसे प्रिय हैंगआउट है. उन्हें बरिस्ता में कॉफी पीते या बाज़ार की बाहरी तरफ़ बुक शोप्स में किताबें पलटते देखा जा सकता है. उन्हें अपनी भांजी, मिराया और भांजे रेहान के साथ वक़्त बिताना भी बहुत अच्छा लगता है. 'ज़ाहिर तौर पर वह प्रियंका के बच्चों को बहुत स्नेह करते हैं.' कामशेट में उनके मेज़बान बताते हैं. पैराग्लाइडिंग यात्रा के दौरान वह हमेशा उनके और प्रियंका के बारे में बात करते थे. एस्ट्रिड बताती हैं, ‘वह अक्सर कहते थे कि प्रियंका को यहां आना चाहिए, लेकिन वह आलसी है.’

ख़ामोश शामें राहुल को जितनी अपील करती हैं, उतना ही फास्ट ट्रैक जीवन. यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल में मनमोहन सिंह के साथ घनिष्ठ रूप से काम कर चुके एक अधिकारी ने कहा कि हाई-ऑ टेन ग्रां प्री सीजन के दौरान जब सिंगापुर की सड़कें फॉर्मूला वन रेसिंग ट्रैक में बदल जातीं, तब राहुल चुपचाप वहां के लिए उड़ जाते. वे दिनभर संगीत सभाओं और पार्टियों में शिरकत करते. उत्सुक बाइकर होने के साथ-साथ राहुल को अपने क़रीबी दोस्तों के समूह के साथ गो-कार्टिंग में भी बहुत आनंद आता है. अप्रैल 2011 में मुंबई में वर्ल्ड कप क्रिकेट मैच के दौरान एक दोपहर 1.30 बजे के आसपास राहुल पिज्जा, पास्ता और मैकिसकन  तोस्तादा सलाद की दावत के लिए चौपाटी बीच पर न्यू यॉर्कर रेस्त्रां पहुंच गए. उन्होंने वेटर से गपशप की और खाने का ख़र्च वहन करने के मैनेजर के आग्रह को ठुकरा दिया. फिर राहुल और उनके दोस्तों ने 2,233 रुपये का बिल आपस में बांट लिया.

फ़िरदौस ख़ान
हिन्दुस्तानी मुसलमानों में दहेज का चलन तेज़ी से बढ़ रहा है. हालत यह है कि बेटे के लिए दुल्हन तलाशने वाले मुस्लिम वाल्देन लड़की के गुणों से ज़्यादा दहेज को तरजीह (प्राथमिकता) दे रहे हैं. हालांकि 'इस्लाम' में दहेज की प्रथा नहीं है. एक तरफ जहां बहुसंख्यक तबक़ा दहेज के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद कर रहा है, वहीं शरीयत के अलमबरदार मुस्लिम समाज में पांव पसारती दहेज प्रथा के मुद्दे पर आंखें मूंदे बैठे हैं.

क़ाबिले-गौर है कि दहेज की वजह से मुस्लिम लड़कियों को उनके पैतृक संपत्ति के हिस्से से भी अलग रखा जा रहा है. इसके लिए तर्क दिया जा रहा है कि उनके विवाह और दहेज में काफ़ी रक़म ख़र्च की गई है, इसलिए अब जायदाद में उनका कोई हिस्सा नहीं रह जाता. ख़ास बात यह भी है कि लड़की के मेहर की रक़म तय करते वक़्त सैकड़ों साल पुरानी रिवायतों का वास्ता दिया जाता है, जबकि दहेज लेने के लिए शरीयत को 'ताक़' पर रखकर बेशर्मी से मुंह खोला जाता है. उत्तर प्रदेश में तो हालत यह है कि शादी की बातचीत शुरू होने के साथ ही लड़की के परिजनों की जेब कटनी शुरू हो जाती है. जब लड़के वाले लड़की के घर जाते हैं तो सबसे पहले यह देखा जाता है कि नाश्ते में कितनी प्लेटें रखी गईं हैं, यानी कितने तरह की मिठाई, सूखे मेवे और फल रखे गए गए हैं. इतना ही नहीं दावतें भी मुर्ग़े की ही चल रही हैं, यानि चिकन बिरयानी, चिकन कोरमा वगैरह. फ़िलहाल 15 से लेकर 20 प्लेटें रखना आम हो गया है और यह सिलसिला शादी तक जारी रहता है. शादी में दहेज के तौर पर ज़ेवरात, फ़र्नीचर, टीवी, फ़्रिज, वाशिंग मशीन, क़ीमती कपड़े और ताम्बे- पीतल के भारी बर्तन दिए जा रहे हैं. इसके बावजूद दहेज में कार और मोटर साइकिल भी मांगी जा रही है, भले ही लड़के की इतनी हैसियत न हो कि वो तेल का ख़र्च भी उठा सके. जो वाल्देन अपनी बेटी को दहेज देने की हैसियत नहीं रखते, उनकी बेटियां कुंवारी बैठी हैं.

मुरादाबाद की किश्वरी उम्र के 45 बसंत देख चुकी हैं, लेकिन अभी तक उनकी हथेलियों पर सुहाग की मेहंदी नहीं सजी. वह कहती हैं कि मुसलमानों में लड़के वाले ही रिश्ता लेकर आते हैं, इसलिए उनके वाल्देन रिश्ते का इंतज़ार करते रहे. वो बेहद ग़रीब हैं, इसलिए रिश्तेदार भी बाहर से ही दुल्हनें लाए. अगर उनके वाल्देन दहेज देने की हैसियत रखते तो शायद आज वो अपनी ससुराल में होतीं और उनका अपना घर-परिवार होता. उनके अब्बू कई साल पहले अल्लाह को प्यारे हो गए. घर में तीन शादीशुदा भाई, उनकी बीवियां और उनके बच्चे हैं. सबकी अपनी ख़ुशहाल ज़िन्दगी है. किश्वरी दिनभर बीड़ियां बनाती हैं और घर का काम-काज करती हैं. अब बस यही उनकी ज़िन्दगी है. उनकी अम्मी को हर वक़्त यही फ़िक्र सताती है कि उनके बाद बेटी का क्या होगा? यह अकेली किश्वरी का क़िस्सा नहीं है. मुस्लिम समाज में ऐसी हज़ारों लड़कियां हैं, जिनकी खुशियां दहेज रूपी लालच निग़ल चुका है.

राजस्थान के बाड़मेर की रहने वाली आमना के शौहर की मौत के बाद पिछले साल 15 नवंबर को उसका दूसरा निकाह बीकानेर के शादीशुदा उस्मान के साथ हुआ था, जिसके पहली पत्नी से तीन बच्चे भी हैं. आमना का कहना है कि उसके वाल्देन ने दहेज के तौर पर उस्मान को 10 तोले सोना, एक किलो चांदी के ज़ेवर कपड़े और घरेलू सामान दिया था. निकाह के कुछ बाद ही उसके शौहर और उसकी दूसरी बीवी ज़ेबुन्निसा कम दहेज के लिए उसे तंग करने लगे. यहां तक कि उसके साथ मारपीट भी की जाने लगी. वे उससे एक स्कॉर्पियों गाड़ी और दो लाख रुपए और मांग रहे थे. आमना कहती हैं कि उनके वाल्देन इतनी महंगी गाड़ी और इतनी बड़ी रक़म देने के क़ाबिल नहीं हैं. आख़िर ज़ुल्मो-सितम से तंग आकर आमना को पुलिस की शरण लेनी पड़ी.

राजस्थान के गोटन की रहने वाली गुड्डी का क़रीब एक साल पहले सद्दाम से निकाह हुआ था. शादी के वक़्त दहेज भी दिया गया था, इसके बावजूद उसका शौहर और उसके ससुराल के अन्य सदस्य दहेज के लिए उसे तंग करने लगे. उसके साथ मारपीट की जाती. जब उसने और दहेज लाने से इंकार कर दिया तो पिछले साल 18 अक्टूबर को उसके ससुराल वालों ने मारपीट कर उसे घर से निकाल दिया. अब वो अपने मायके में है. मुस्लिम समाज में आमना और गुड्डी जैसी हज़ारों औरतें हैं, जिनका परिवार दहेज की मांग की वजह से उजड़ चुका है.

यूनिसेफ़ के सहयोग से जनवादी महिला समिति द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ दहेज के बढ़ रहे मामलों के कारण मध्य प्रदेश में 60 फ़ीसदी, गुजरात में 50 फ़ीसदी और आंध्र प्रदेश में 40 फ़ीसदी लड़कियों ने माना कि दहेज के बिना उनकी शादी होना मुश्किल हो गया है. दहेज को लेकर मुसलमान एकमत नहीं हैं. जहां कुछ मुसलमान दहेज को ग़ैर इस्लामी क़रार देते हैं, वहीं कुछ मुसलमान दहेज को जायज़ मानते हैं. उनका तर्क है कि हज़रत मुहम्मद साहब ने भी तो अपनी बेटी फ़ातिमा को दहेज दिया था. ख़ास बात यह है कि दहेज की हिमायत करने वाले मुसलमान यह भूल जाते हैं कि पैग़ंबर ने अपनी बेटी को विवाह में बेशक़ीमती चीज़ें नहीं दी थीं. इसलिए उन चीज़ों की दहेज से तुलना नहीं की जा सकती. यह उपहार के तौर पर थीं. उपहार मांगा नहीं जाता, बल्कि देने वाले पर निर्भर करता है कि वो उपहार के तौर पर क्या देता है, जबकि दहेज के लिए लड़की के वाल्देन को मजबूर किया जाता है. लड़की के वाल्देन अपनी बेटी का घर बसाने के लिए हैसियत से बढ़कर दहेज देते हैं, भले ही इसके लिए उन्हें कितनी ही परेशानियों का सामना क्यों न करना पड़े.

हैरत की बात यह भी है कि बात-बात पर फ़तवे जारी करने मज़हब के ठेकेदारों को समाज में फैल रहीं दहेज जैसी बुराइयां दिखाई नहीं देतीं. शायद इनका मक़सद सिर्फ़ बेतुके फ़तवे जारी कर मुस्लिम औरतों का जाना हराम करना ही होता है. इस बात में कोई दो राय नहीं कि पिछले काफ़ी अरसे से आ रहे ज़्यादातर फ़तवे महज़ 'मनोरंजन' का साधन ही साबित हो रहे हैं. भले ही मिस्र में जारी मुस्लिम महिलाओं द्वारा कुंवारे पुरुष सहकर्मियों को अपना दूध पिलाने का फ़तवा हो या फिर महिलाओं के नौकरी करने के ख़िलाफ़ जारी फ़तवा. अफ़सोस इस बात का है कि मज़हब की नुमाइंदगी करने वाले लोग समाज से जुड़ी समस्याओं को गंभीरता से नहीं लेते. हालांकि इसी साल मार्च में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने मुस्लिम समाज में बढ़ती दहेज की कुप्रथा पर चिंता ज़ाहिर करते हुए इसे रोकने के लिए मुहिम शुरू करने का फ़ैसला किया था. बोर्ड के वरिष्ठ सदस्य ज़फ़रयाब जिलानी के मुताबिक़ मुस्लिम समाज में शादियों में फ़िज़ूलख़र्ची रोकने के लिए इस बात पर भी सहमति जताई गई थी कि निकाह सिर्फ़ मस्जिदों में ही करवाया जाए और लड़के वाले अपनी हैसियत के हिसाब से वलीमें करें. साथ ही इस बात का भी ख़्याल रखा जाए कि लड़की वालों पर ख़र्च का ज़्यादा बोझ न पड़े, जिससे ग़रीब परिवारों की लड़कियों की शादी आसानी से हो सके. इस्लाह-ए-मुआशिरा (समाज सुधार) की मुहिम पर चर्चा के दौरान बोर्ड की बैठक में यह भी कहा गया कि निकाह पढ़ाने से पहले उलेमा वहां मौजूद लोगों बताएं कि निकाह का सुन्नत तरीक़ा क्या है और इस्लाम में यह कहा गया है कि सबसे अच्छा निकाह वही है जिसमें सबसे कम ख़र्च हो. साथ ही इस मामले में मस्जिदों के इमामों को भी प्रशिक्षित किए जाने पर ज़ोर दिया गया था

सिर्फ़ बयानबाज़ी से कुछ होने वाला नहीं है. दहेज की कुप्रथा को रोकने के लिए कारगर क़दम उठाने की ज़रूरत है. इस मामले में मस्जिदों के इमाम अहम किरदार अदा कर सकते हैं. जुमे की नमाज़ के बाद इमाम नमाज़ियों से दहेज न लेने की अपील करें और उन्हें बताएं कि यह कुप्रथा किस तरह समाज के लिए नासूर बनती जा रही है. इसके अलावा औरतों को भी जागरूक करने की ज़रूरत है, क्योंकि देखने में आया है कि दहेज का लालच मर्दों से ज़्यादा औरतों को होता है.

अफ़सोस की बात तो यह भी है कि मुसलिम समाज अनेक फ़िरकों में बंट गया है. अमूमन सभी तबक़े ख़ुद को 'असली मुसलमान' साबित करने में ही जुटे रहते हैं और मौजूदा समस्याओं पर उनका ध्यान जाता ही नहीं है. बहरहाल, यही कहा जा सकता है कि अगर मज़हब के ठेकेदार कुछ 'सार्थक' काम भी कर लें तो मुसलमानों का कुछ तो भला हो जाए.




डॉ. वेदप्रताप वैदिक
                आस्ट्रेलियाई सरकार ने कहा है कि भारत जानेवाले उसके राजनयिकों को हिंदी सीखने की जरूरत नहीं है, क्योंकि वहां सारा काम-काज अंग्रेजी में होता है| प्रधानमंत्री जूलिया गिलार्ड ने तो यहां तक कहा है कि ''भारत एक अंग्रेजीभाषी लोकतंत्र है|'' आस्ट्रेलिया के विदेशी मामलों के एक प्रमुख विशेषज्ञ इयान हाल ने अपनी सरकार को सलाह दी थी कि भारत में नियुक्ति किए जानेवाले राजनयिकों को हिंदी इसलिए भी सिखाई जाए कि ऐसा करने से भारत का सम्मान होगा| जब जापान, चीन, कोरिया, इंडोनेशिया, ईरान और तुर्की जैसे देशों में भेजे जानेवाले राजनयिकों को उन देशों की भाषा सीखना अनिवार्य है तो भारत की उपेक्षा क्यों? इस पर आस्ट्रेलिया के विदेश व्यापार सचिव का कहना था कि जब भारत ही अपना सारा काम-काज अंग्रेजी में करता है तो आस्ट्रेलियाई राजनयिकों को क्या पड़ी है कि वे हिंदी सीखें?
            बात तो ठीक ही मालूम पड़ती है| विदेशी राजनयिकों का दायरा बहुत सीमित होता है| उनका ज्यादातर काम हमारे बड़े बाबुओं से पड़ता है| भारत सरकार में अंग्रेजी पढ़े बिना कोई बाबू बन ही नहीं सकता| विदेशी राजनयिकों का दूसरा बड़ा संपर्क राजधानी के पत्रकारों से होता है| वे अंग्रेजी अखबारों को पढ़ते हैं और उन्हीं के पत्रकारों से संपर्क रखते हैं| हिंदी व अन्य भाषाओं के पत्रकारों से उनका संपर्क नगण्य होता है| कुछ महत्वपूर्ण देशों के राजदूतों का संपर्क हमारे विदेश मंत्री तथा अन्य नेताओं से भी होता है| ये नेतागण भी टूटी-फूटी अंग्रेजी में अपनी बात कह लेते हैं और अब तो हमारे कई बड़े नेता शुद्घ बाबू ही हैं| वे अंग्रेजी में ही अधिक सलीके से बात कर पाते हैं| इसीलिए विदेशी राजनयिक भारतीय भाषाओं पर मगजपच्ची क्यों करें? और सबसे बड़ी बात यह है कि ज्यादातर विदेशी राजनयिक भी तो बाबू लोग ही होते हैं| बाबू का काम मक्खी पर मक्खी बिठाना है| अफसरों,पत्रकारों और नेताओं से मिलकर अपने विदेश मंत्रालय को रपट भेजकर वे छुट्टी पा जाते हैं| उनका काम वे यह नहीं मानते कि उनके अपने देश और भारत के लोगों के आपसी संबंध मजबूत बनें, एक-दूसरों को पारस्परिक जीवन की ज़रा गहरी जानकारी मिले और एक-दूसरे की संस्कृति के प्रति गहरा सम्मान पैदा हो|
            यदि विदेशी राजनयिकों में यह दूसरा भाव हो तो वे जिस देश में नियुक्त होते हैं, सबसे पहले उसकी भाषा सीखेंगे| भाषा वह पगडंडी है, जो सीधे लोगों के दिलों तक जाती है| यदि आप लोगों की भाषा नहीं समझते तो आप लोगों को भी नहीं समझ सकते| क्या आपने कभी सोचा कि अमेरिका जैसे महाबली राष्ट्र ने वियतनाम में मार क्यों खाई, एराक़ में वह क्यों फंस गया है, ईरान से वह फिजूल क्यों उलझ गया है, अफगानिस्तान से अपना पिंड क्यों नहीं छुड़ा पा रहा है? क्या वजह है कि अमेरिका और ब्रिटेन जैसे राष्ट्र अपने दूतावासों पर करोड़ों डॉलर खर्च करके भी अंधेरे में ही लट्ठ चलाते रहते हैं| कई देशों में तख्ता-पलट हो जाते हैं और कइयों में आम जनता बगावत पर उतर आती है और इन राष्ट्रों के राजदूतों को आखिरी वक्त तक भनक नहीं लग पाती| वाशिंगटन और लंदन उन तानाशाहों को सूली पर लटकने तक समर्थन देते रहते हैं| इसका कारण स्पष्ट है| उनके राजनयिक आस्ट्रेलियाई सरकार की तरह यह मानकर चलते हैं कि सारी दुनिया में अंग्रेजी चलती है और अंग्रेजी के बिना किसी का काम नहीं चलता| उन्हें स्थानीय भाषा सीखने की जरूरत नहीं है|
            लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि किसी भी देश में जब तख्ता-पलट होता है तो उसकी भाषा में होता है| जब जनता बगावत करती है तो वह अपने नारे विदेशी भाषा में नहीं गढ़ती| व्लादिमार पुतिन के विरूद्घ लाल चौक में जो प्रदर्शन हो रहे हैं, उनमें नारे किस भाषा में लगाए जा रहे हैं, वहां जो भाषण हो रहे हैं, वे अंग्रेजी में हो रहे हैं या रूसी में हो रहे हैं? मिस्र के तहरीर चौक पर बगावत का जो बिगुल बजा, वह किस भाषा में था? अंग्रेजी में था या मिस्री में था? जनता की बगावत तो हमेशा स्थानीय भाषा में ही होती है लेकिन जब हिंसक सैन्य तख्ता-पलट होते हैं तो उनके षडयंत्र भी प्राय: स्थानीय भाषा में ही रचे जाते हैं| 1978 में अफगानिस्तान में सरदार दाऊद का तख्ता उलटनेवाले तीन प्रमुख फौजी अफसरों में से एक भी अंग्रेजी नहीं जानता था| उनमें से एक को फारसी समझने में भी कठिनाई होती थी| वह सिर्फ पश्तो ठीक से जानता था| जो-जो देश अंग्रेज के गुलाम नहीं रहे हैं, उनके ऊंचे से ऊंचे अफसर भी अंग्रेजी नहीं जानते| ऐसे देशों की संख्या लगभग 150 है| अंग्रेजों के गुलाम रहे देशों की संख्या 50 भी नहीं है| भारत जैसे इन 50 देशों में भी अंदर ही अंदर और नीचे-नीचे क्या चल रहा है, यह अंग्रेजी के जरिए नहीं जाना जा सकता| याने उनके अंदर की बात जानने के लिए आपको उनकी भाषा जाननी होगी| करोड़ों रू. खर्च करके भी बड़े राष्ट्रों की जासूसी क्यों फेल हो जाती है? वह ऊपर-ऊपर की बात पर नज़र जरूर रखती है लेकिन अंदर पैठने की राह उसने बनाई ही नहीं| एराक़ में मार खाने के बाद जार्ज बुश को कुछ अक्ल आई| उन्होंने अरबी-फारसी सिखाने के लिए तो बड़ा बजट बनाया ही, अपने राजनयिकों को हिंदी सिखाने के लिए 20 करोड़ डॉलर का प्रावधान किया|
            किसी भी देश के अफसरों, पत्रकारों और कुछ नेताओं से विदेशी भाषा के दम पर चलनेवाली कूटनीति तब तक सामान्य होती है जब तक कि उस देश में सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा होता है लेकिन जब मामले गंभीर हों, बुनियादी हों और जनता से जुड़े हों तो विदेशी भाषा का माध्यम बिल्कुल असंगत हो जाता है| आस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री का यह कहना कि भारत अंग्रेजीभाषी लोकतंत्र है, अपने आप में विरोधी बात है| वह लोकतंत्र ही क्या है, जो लोकभाषा में न चले? भाषाई दृष्टि से देखें तो भारत लोकतंत्र पर सबसे बड़ा व्यंग्य है| भारत को उत्तम लोकतंत्र तो तब कहा जाए जबकि उसकी लोकसभा में सिर्फ लोकभाषाएं बोली जाएं और विदेशी भाषा पर पूर्ण प्रतिबंध हो| उसकी सर्वोच्च अदालत विदेशी भाषा में न तो बहस करने दे और न ही कोई फैसले करे| सरकार का कोई भी मौलिक काम विदेशी भाषा में न हो| लेकिन जब भारत के पवित्र मंदिरों में ही भारत माता की जुबान कटती हो तो विदेशियों से कैसे आशा करें कि वे हमारी भाषाओं का सम्मान करें? यदि हम अपना सारा काम-काज हिंदी में करें तो विदेशी राजनयिक तो अपने आप हिंदी सीखेंगे| वे रूस में रूसी और चीन में चीनी सीखते हैं या नहीं? हम न अपनी भाषा का सम्मान करते है और न ही विदेशी भाषाओं का| हमने अंग्रेजी का गोल पत्थर अपने गले में लटका रखा है| सिर्फ साढ़े चार देशों की भाषा है, अंग्रेजी! अमेरिका, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और आधे कनाडा की| लेकिन हम दुनिया के 200 देशों को इसी गोरे चश्मे से देखते हैं| जब हम उनकी आंखों से उन्हें देखने लगेंगे तो हमारी कूटनीति पर चार चांद चमचमाने लगेंगे|


सपना
     अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए प्रधानमंत्री का नया 15 सूत्री कार्यक्रम अल्पसंख्यक समुदायों के लोगों को विकास की मुख्य धारा में शामिल करने का सरकार का प्रयास है।
     अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए इस कार्यक्रम की घोषणा अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय के अंतर्गत जून, 2006 में की गयी थी ताकि अल्पसंख्यकों से संबंधित मामलों पर अधिक ध्यान केन्द्रित किया जा सके। इसका प्रयोजन समग्र नीति एवं योजना, समन्वय, मूल्याकंन एवं नियामक रूपरेखा की समीक्षा तथा अल्पसंख्यक समुदायों के लाभ के लिए विकास कार्यक्रमों को सरल बनाना था।
      नये कार्यक्रम का महत्वपूर्ण उद्देश्य निर्धनों के लिए बनायी गयी विभिन्न सरकारी योजनाओं का लाभ अल्पसंख्यक समुदायों के अलाभ में रहे व्यक्तियों तक पहुंचे।  इन योजनाओं का लाभ अल्पसंख्यकों को समान रूप से मिले, नए कार्यक्रमों को अल्पसंख्यकों के ही क्षेत्रों में विकास परियोजनाओं का निश्चित भाग संचालित करने का निश्चय किया गया है। इसमें यह भी प्रावधान रखा गया है कि जहां संभव हो विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत लक्ष्य तथा परिव्यय का 15 प्रतिशत अल्पसंख्यकों के लिए निश्चित किया जाना चाहिए।
     शिक्षा के लिए अवसरों को बढ़ाना; वर्तमान तथा नयी योजनाओं के माध्यम से आर्थिक गतिविधियों तथा रोजगार में अल्पसंख्यकों के लिए समान हिस्सा सुनिश्चित करना; स्वरोजगार के लिए ऋण सहायता बढ़ाना तथा राज्य तथा केन्द्रीय सरकार की नौकरियों में भर्ती; ढ़ांचागत विकास परियोजनाओं में उन्हें उपयुक्त हिस्सा देते हुए अल्पसंख्यकों के जीवनयापन में सुधार लाना; सामुदायिक हिंसा एवं असंगति का नियंत्रण तथा प्रतिबंधित करना कार्यक्रम का उद्देश्य है।
     राष्ट्रीय आयोग अल्पसंख्यक अधिनियम, 1992  के अनुभाग 2(c) के अंतर्गत मुस्लिम, सिक्ख, क्रिश्चियन, बौद्ध, और जोरोस्टीयन्श (पारसियों) को अल्पसंख्यक समुदायों के रूप में अधिसूचित किया गया  है।
 
अल्पसंख्यक समुदायों के छात्रों के लिए छात्रवृत्ति योजनाएं
अल्पसंख्यक समुदायों के लिए तीन छात्रवृत्ति योजनाएं शुरू की गयी हैं जिनके नाम हैं, कक्षा 1 से 10वीं, मैट्रिक पूर्व छात्रवृत्ति, कक्षा 11 से पीएचडी मैट्रिकोत्तर छात्रवृत्ति एवं अंडर ग्रेजुऐट एवं स्नात्कोतर स्तर पर तकनीकी तथा पेशेवर पाठ्यक्रमों के लिए गुणवत्ता व साधन छात्रवृत्ति। यह महसूस किया गया है कि छात्रवृत्ति से अल्पसंख्यक समुदायों के अभिभावक अपने बच्चों को शिक्षा देने के लिए प्रोत्साहित होगें। योजना से उनकी शिक्षा की बुनियाद पक्की होगी तथा प्रतिस्पर्धात्मक रोजगार क्षेत्र में स्थान मिलेगा। शिक्षा के माध्यम से सशक्त होना योजना का उद्देश्य है जिससे अल्पसंख्यक समुदाय की सामाजिक- आर्थिक स्थिति का उत्थान होगा।
     छात्रवृत्तियां उन छात्रों को प्रदान की जाती हैं जिन्होंने अपने पूर्व अंतिम परीक्षा में 50 प्रतिशत से कम अंक प्राप्त न किये हों एवं उनके अभिभावकों/संरक्षक की सभी स्रोतों से वार्षिक आय स्कूल और उच्च शिक्षा के अंतर्गत क्रमशः 1 लाख एवं 2 लाख रूपये से अधिक न हो।  30 प्रतिशत छात्रवृत्तियां, छात्राओं के लिए निर्धारित की गयी हैं। यदि पात्र छात्राओं की उपयुक्त संख्या उपलब्ध न हो तो निर्धारित किये गए में से शेष छात्रवृत्तियां पात्र छात्रों को प्रदान की जाए। वर्ष में उपलब्ध अल्पसंख्यकों के लिए छात्रवृत्तियों की संख्या सीमित तथा निश्चित है। यह आवश्यक है कि चयन के लिए प्राथमिकता अंकों के बजाय गरीबी पर जोर दिया जाए।
     अल्पसंख्यक समुदायों के छात्रों के लिए गुणवत्ता व साधन आधारित छात्रवृत्ति की अन्य योजना में  पेशेवर तथा तकनीकी पाठ्यक्रमों को अपनाने पर बल दिया है। हर वर्ष पूरे देश में 20 हजार छात्रवृत्तियां अल्पसंख्यक समुदाय के छात्रों के बीच वितरित की जाती हैं।

आनलाइन छात्रवृत्ति प्रबंधन योजना(ओएसएमएस)
गुणवत्ता व साधन आधारित छात्रवृत्ति योजना के लिए आनलाइन छात्रवृत्ति प्रबंधन योजना चालू वित्तीय वर्ष 2011-12 से अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय की वेबसाइट www.minorityaffairrs.gov.in  के माध्यम से प्रायोगिक परियोजना के रूप में शुरू की गयी है। छात्र आनलाइन आवेदन कर सकते हैं। इसके लिए वे वेबसाइट URL www.momascholarship.gov.in का माध्यम अपनाएं। उपभोक्ता तथा हितधारकों दोनों की दृष्टि से ओएसएमएस लाभदायक सिद्ध हुआ है। यह पहली बार है कि सरकारी छात्रवृत्ति योजना में इस प्रकार की प्रणाली अपनायी गयी है।

अल्पसंख्यक मामलों में उल्लेखनीय उपलब्धियां
धार्मिक तथा भाषा संबन्धी अल्पसंख्यकों के राष्ट्रीय आयोग (एनसीआरएलएम)की सिफारिशों के अनुसरण में सरकार ने अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) के 27  प्रतिशत कोटे में से अल्पसंख्यकों की पिछड़ी जातियों के लिए  1 जनवरी 2012  से 4.5 प्रतिशत का उप कोटा निर्धारित किया है। यह आरक्षण उन अल्पसंख्यक समुदायों के लिए मुहैय्या कराया गया है जो समय-समय पर सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय द्वारा प्रकाशित अन्य पिछड़ी जातियों की केन्द्रीय सूची में शामिल हैं।  यह आरक्षण केन्द्रीय सरकारी नौकरियों तथा सेवाओं एवं केन्द्रीय सरकारी शिक्षण संस्थानों में प्रवेश लेने के लिए भी होगा।
     अल्पसंख्यक समुदायों को शैक्षणिक अधिकार देने के लिए अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय ने  चार वर्षो के अल्प अंतराल के भीतर 11वीं योजना में एक करोड़ से अधिक छात्रवृत्तियां अल्पसंख्यकों को प्रदान की, इनमें से 50.34 प्रतिशत छात्राओं को प्रदान की गयी। वर्ष 2011-12 के दौरान अन्य उपलब्धियों के अंर्तगत 29.23 लाख मैट्रिक-पूर्व छात्रवृत्तियां प्रदान की गयी इनमें से 53.80 प्रतिशत छात्राओं को दी गयी;  मैट्रिक के बाद की 4.38 लाख छात्रवृत्तियां प्रदान की गयी, इनमें से 55.65 प्रतिशत छात्राओं को मिली; एवं 29,579 गुणवत्ता एवं साधन छात्रवृत्तियां प्रदान की गयी इनमें से 38.06 प्रतिशत छात्राओं को प्राप्त हुयी।

बजट में बढ़त
     केन्द्रीय बजट 2012-13 में अल्पसंख्यक समुदाय के विद्यार्थियों के उत्थान के लिए और  प्रोत्साहन दिया गया है।  अल्पसंख्यकों से संबन्धित विद्यार्थियों की छात्रवृत्तियों के लिए परिव्यय में उल्लेखनीय वृद्धि की गयी है। केन्द्रीय सामान्य बजट 2012-13 में अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय को केन्द्रीय योजना परिव्यय के रूप में 3,135 करोड़ का परिव्यय मिला है। यह वित्तीय वर्ष 2011-12 (जो 2750 करोड़ रूपये रहा) के संशोधित बजट अनुमानों से 385 करोड़ रूपये अधिक है।
     मैट्रिक से पूर्व छात्रवृत्ति की राशि 540 करोड़ रूपये से बढ़ाकर 810 करोड़ रूपये;  मैट्रिक के बाद की छात्रवृत्ति की राशि 405 करोड़ रूपये से बढ़ाकर 450 करोड़ रूपये;  गुणवत्ता एवं साधन छात्रवृत्ति योजना के अंतर्गत 2011-12 के लिए संशोधित बजट अनुमान 126 करोड़ रूपये के मुकाबले 198 करोड़ रूपये का प्रावधान रखा गया है। अल्पसंख्यक छात्रों के लिए मौलाना आजाद राष्ट्रीय फैलोसिप की राशि को 47 करोड़ रूपये से बढ़कर 63 करोड़ रूपये का प्रावधान रखा गया है।
     
नये पहल कदम
     2012-13 के बजट में कक्षा 9 की छात्राओं को निशुल्क साइकिल देने के लिए नयी योजना शुरू की गयी है। इसके लिए 4.50 करोड़ रूपये का प्रावधान रखा गया है। इसका उद्देश्य कक्षा 9 से आगे की अल्पसंख्यक छात्राओं  की शिक्षा को जारी रखना है।
     कौशल विकास के प्रयासों की अन्य नयी योजना के अंतर्गत 18 करोड़ रूपये का प्रावधान रखा गया है। इसमें अल्पसंख्यक समुदायों को ग्रामीण एवं शहरी जीवन यापन में सुधार करने के लिए उनका कौशल विकास करना शामिल  है जिससे कि वे  रोजगार प्राप्त कर सकें।
     100 अल्पसंख्यक घनत्व वाले नगरों/शहरों एवं अल्पसंख्यक घनत्व वाले ब्लाकों/ अल्पसंख्यक संघठित जिलों के अंतर्गत शामिल नहीं किये गये 1 हजार गांवों के लिए ग्रामीण विकास कार्यक्रम में शिक्षा को बढ़ावा देने की योजना के लिए प्रत्येक में 45 करोड़ रूपये का प्रावधान रखा गया है।
     अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय को गैरयोजना के रूप में 19.70 करोड़ रूपये का भी प्रावधान रखा गया है जिससे कि मंत्रालय के पास वित्तीय वर्ष 2012-13 में कुल वित्त 3154.70 करोड़ रूपये का हो जाए।


मनोहर कुमार जोशी
      राजस्थान के मेवाड़ अंचल में सोलहवीं शताब्दी में तत्कालीन महाराणा राजसिंह ने भीषण अकाल, पेयजल की आपूर्ति, नगर के सौन्दर्यकरण एवं रोजगार को ध्यान में रखकर राजसमन्द झील का निर्माण कराया था। चार मील लम्बी, डेढ मील चौड़ी एवं 45 फुट गहरी तथा पौने चार हजार एमसीएफटी जल भराव क्षमता वाली यह झील बाद में स्थानीय लोगों की जीवन रेखा बन गई। लेकिन पिछले तीन दशक में मार्बल खनन एवं प्रसंस्करण उद्योग के कचरे ने झील के जलागम क्षेत्र को अवरूद्ध कर दिया। नतीजतन यह जलाशय लगभग सूख गया। इस स्थिति में कुछ  बुद्धिजीवियों ने झील की सफाई एवं गोमती नदी के जल प्रवाह में अवरोध हटाने का बीड़ा उठाया, जो अभियान बनकर सामने आया और सामूहिक प्रयास से झील में फिर से पानी आया तथा नदी में भी जल बहने लगा। इसके लिये अभियान के सूत्रधार श्री दिनेश श्रीमाली को हाल ही केन्‍द्रीय जल संसाधन मंत्रालय ने दिल्ली में राष्ट्रीय भूमि जल संवर्द्धन पुरस्कार से सम्मानित किया। श्री श्रीमाली ने इस सम्मान को झील एवं गोमती नदी संरक्षण में लगे प्रत्येक व्यक्ति का सम्मान बताया है।
      झील की सफाई में अहम भूमिका अदा करने वाले श्रीमाली किसान. मज़दूर और आम आदमी के लिये प्रेरणा श्रोत बन गये हैं। राजस्थान के राजसमन्द जि़ले के मजां गांव में 12 दिसम्बर 1965 में जन्मे दिनेश श्रीमाली कहते हैं, मुझे अपने नाना स्वतंत्रता सेनानी ओंकारलाल से संस्कार विरासत में मिले । इन्ही संस्कारों ने विश्व प्रसिद्ध राजसमंद झील और गोमती नदी के जलग्रहण क्षेत्र में हुये खनन के विरोध में 1989 में वैचारिक जन जागरूकता में सक्रिय भागीदारी अदा करने की शक्ति प्रदान की।
      उन्होंने कहा कि स्थानीय समाचार पत्रों में लेख प्रकाशित होने पर मुझे खदान मालिकों एवं उनके लोगों से धमकियां भी कम नहीं मिली, लेकिन मैंने इसकी परवाह किये बिना  अभियान चालू रखा। 1991 और 1992 में लिखे लेखों का असर सामने आया और तत्कालीन जि़ला कलैक्टर ने मामले की गंभीरता को देख मार्बल अपशिष्ट एवं स्लरी निस्तार के लिये पहली बारी डम्पिंग यार्ड निर्धारित किये। इस बीच सांस्कृतिक एवं साहित्यिक रंगमंचों के माध्यम से तथा पत्र-पत्रिकाओं और समूह चर्चा कर जनमानस तैयार करने का अभियान भी जारी रखा। आखिर बीसवीं सदी का अंतिम दशक व्यावहारिक आंदोलन बना।
      वर्ष 2000 में ऐतिहासिक राजसमंद झील अपने निर्माण के 324 साल बाद पूरी सूख गई। मार्बल खनन एवं प्रसंस्करण से निकलने वाली स्लरी ने पारिस्थितिकी तंत्र को बुरी तरह से प्रभावित किया। जमीन बंजर होने से पशुपालकों के लिये चारे तक का संकट पैदा हो गया। हमने गायत्री परिवार के साथ मिल कर झील की गाद निकाली गई और सफाई अभियान चलाया गया, जिसमें नगर के सभी लोगों ने श्रमदान किया । इसमें किसानों ने भी पूरी भागीदारी निभायी। झील से निकली गाद काश्तकारों के लिये खाद के रूप में काम आयी।
      आंदोलन के दौरान झील जलागम क्षेत्र का जायजा लेने प्रसिद्ध पर्यावरणविद् एवं राजस्थान की रजत बूंदें जैसे उत्कृष्ट लेख देने वाले अनुपम मिश्र, सामाजिक कार्यकर्ता अरूणा राय, मेघा पाटकर, डा. महेश भट्ट सहित अनेक नामचीन हस्तियां यहां आई और हमारे अभियान को अपना नैतिक समर्थन प्रदान किया । बाद में ज़िला प्रशासन भी जागरूक हुआ । ऑपरेशन भागीरथ के तहत वर्ष 2004 से 2006 तक झील एवं नदी के जलागम क्षेत्र में सफाई कर अपशिष्ट हटाये एवं जलमार्ग ठीक किये । इस कार्य में सभी का भरपूर सहयोग मिला । वह कहते हैं आखिर हमारी मेहनत रंग लाई और बारह साल बाद गोमती नदी में पानी बहा। राजसमंद झील जो पूरी तरह सूख चुकी थी, उसमें में भी 2006 में 19 फुट पानी आया । इससे क्षेत्र के 70 से 80 गांव खेती से जुड़ गये । नदी. झील तालाब में पानी रहने से भूमिगत जल का स्तर भी नीचे गिरने से बचा रहा । हमारे अभियान में जून 2006 सबसे सुखद रहा ।
       बचे अवरोधों को हटाने के लिये 2009 से 2011 के दरमियान हमने फिर अभियान चलाया और जलागम क्षेत्र की बंद पुलियाओं को खोला गया । कई पक्के चैम्बर एवं नाली बना जलप्रवाह झील की ओर मोडे़ गये। इस अभियान में मुझे फिर अग्रिम पंक्ति में रहने का अवसर मिला । गोमती नदी की सफाई के बाद खनन अपशिष्ट वापस नदी के जल प्रवाह में न डालें, इसके लिये आस-पास के गांवों में ग्रामीण चौपालें की गई तथा स्थानीय लोगों को चौकसी की जिम्मेदारी सौंपी गई। उन्होंने कहा हमें अब तक 60 से 65 प्रतिशत सफलता मिली है, लेकिन सृजन और विनाश का दौर लगातार जारी है तथा रहेगा, इसलिये हमें हरदम सजग रहना पडे़गा, ताकि जल की खेती सही दिशा में होती रहे ।

-फ़िरदौस ख़ान
हिंदी फ़िल्में हमारी ज़िन्दगी का एक अहम हिस्सा बन चुकी हैं. ये मनोरंजन का एक सशक्त माध्यम होने के साथ-साथ विभिन्न दौर के सामाजिक परिवेश को भी ब़खूबी पेश करती हैं. ये ज़िन्दगी के कई रंगों को अपने में समेटे रहती हैं. ऐसी ही एक फिल्म है  'कभी-कभी'.  27 फ़रवरी, 1976 को प्रदर्शित इस फ़िल्म का निर्देशन यश चोपड़ा ने किया था. रूमानियत और सुमधुर गीतों से सजी यह फ़िल्म काफ़ी रही थी. सागर सरहदी की लिखी कहानी पर आधारित फ़िल्म की पटकथा पामेला चोपड़ा और यश चोपड़ा ने लिखी. फ़िल्म में अभिताभ बच्चन, शशिकपूर, वहीदा रहमान, राखी गुलज़ार, नीतू सिंह, ऋषि कपूर और परीक्षित साहनी साहनी की यादगार भूमिकायें थीं. कहा जाता है कि यह फ़िल्म राखी को ध्यान में रख कर ही बनी थी, लेकिन इसी बीच राखी ने गुलज़ार से विवाह कर लिया. गुलज़ार नहीं चाहते थे कि राखी फ़िल्मों में काम करें. मगर आख़िर में यश चोपड़ा के समझाने पर वह मान गए. इस फ़िल्म के लिए ख़्य्याम को सर्वश्रेष्ठ संगीत का पुरस्कार मिला था. 'कभी कभी मेरे दिल में ख़्याल आता है'... गीत के लिए सर्वश्रेष्ठ गीतकार का साहिर लुधियानवी और सर्वश्रेष्ठ गायक का पुरस्कार मुकेश को मिला था. यह गीत उस साल रेडियो सीलोन पर आने वाले प्रोग्राम में शीर्ष पर रहा था. इसके अलावा सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए अमिताभ, अभिनेत्री के लिए राखी, सर्वश्रेष्ठ सह-अभिनेत्री के लिए वहीदा रहमान और सर्वश्रेष्ठ सह-अभिनेता के लिए शशि कपूर और सर्वश्रेष्ठ पटकथा के लिए सागर सरहदी को नामांकित किया गया था.

दरअसल, हिंदी फ़िल्में हमारी ज़िन्दगी का एक अहम हिस्सा बन चुकी हैं. ये मनोरंजन का एक सशक्त माध्यम होने के साथ-साथ विभिन्न दौर के सामाजिक परिवेश को भी ब़खूबी पेश करती हैं. पिछले दिनों राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित प्रहलाद अग्रवाल की किताब रेशमी ख्वाबों की धूप-छांव पढ़ी. इसमें फ़िल्म निर्देशक यश चोपड़ा की फ़िल्मों के विभिन्न पहलुओं को इतने रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है कि पाठक ख़ुद को इन फ़िल्मों के किरदारों के बेहद क़रीब पाता है. इसमें यश चोपड़ा की 1959 में आई फ़िल्म 'धूल का फूल' से लेकर 2004 में आई फ़िल्म 'वीर ज़ारा' तक के बारे में दिलचस्प जानकारी दी गई है. यश चोपड़ा ने हिंदी सिनेमा में निर्देशकों की तीन पीढ़ियों के साथ काम किया है. जब उनकी पहली फ़िल्म 'धूल का फूल' प्रदर्शित हुई, तब महमूद, बिमल राय, राजकपूर, गुरुदत्त, विजय आनंद आदि का दौर था. 1973 में जब उन्होंने दाग़ के साथ यशराज फ़िल्म फिल्म्स की शुरुआत की, तब व्यापारिक परिदृश्य में मनमोहन देसाई, प्रकाश मेहरा, मनोज कुमार, श्याम बेनेगल, गुलज़ार, बासु चटर्जी, बासु भट्टाचार्य, गोविंद निहलानी और सई परांजपे आदि फिल्मकारों की बहुआयामी पीढ़ी थी, जो हिंदी सिनेमा को एक नया मोड़ देने की कोशिश कर रही थी.

अब वह सूरज बड़जात्या, करण जौहर, संजय लीला भंसाली, राम गोपाल वर्मा और आशुतोष गोवारिकर की पीढ़ी के साथ सृजनरत हैं. वह दर्शकों को रेशमी ख़्वाबों की दुनिया में ले जाते हैं. उनके प्रेम संबंध तर्क की सीमाओं से बाहर खड़े हैं. उनका कौशल यह है कि वह इस अतार्किकता को ग्राह्य बना देते हैं. वह समाज में हाशिये पर पड़े रिश्तों को गहन मानवीय संवेदना और जिजीविषा की अप्रतिम ऊर्जा से संचारित कर देते हैं. वह अपनी पहली फ़िल्म 'धूल का फूल' से लेकर 'वीर ज़ारा' तक अनाम रिश्तों की मादकता से अपने दर्शकों को मंत्रमुग्ध करते रहे हैं. यश चोपड़ा संपूर्ण मानवीय चेतना के मुक़ाबले प्रेम की अनन्ता को अपने समूचे सिनेमा में स्थापित करते हैं. उन्होंने अपने लंबे निर्देशकीय रचनाकाल में विभिन्न भावभूमिकाओं पर आधारित कथानकों पर फ़िल्में बनाईं, तब भी वह मूल रूप से मानवीय रिश्तों की उलझनों और उनके बीच गुंथी संवेदनाओं को उकेरने वाले फ़िल्मकार सबसे पहले हैं.

1976 में प्रदर्शित फ़िल्म 'कभी-कभी' यश चोपड़ा की शहद से मीठी फ़िल्म है. कहा गया कि इसके नायक के व्यक्तित्व का आधार साहिर लुधियानवी थे. यही बात गुरुदत्त की कालजयी कृति प्यासा के लिए भी कही गई थी, पर इन दोनों ही संदर्भों में सच्चाई यह है कि दोनों फ़िल्मों के नायक साहिर की तरह कवि और शायर थे. वे भी अपने प्यार को पाने में नाकाम रहे थे. इसके आगे साहिर की निजी ज़िंदगी और इन फ़िल्मों का शायद ही कोई संबंध हो. चूंकि इन दोनों फ़िल्मों के गीत भी साहिर ने ही लिखे थे और इनमें उनकी पहले से लिखी नज़्मों का बहुत ख़ूबसूरत इस्तेमाल किया गया था, इसलिए इस तरह की संभावनाएं खोज लेना आम बात थी. साहिर का अस्तित्व सिर्फ़ सिनेमा में ही नहीं था, बल्कि वह उर्दू अदब की एक बड़ी शख्सियत थे. साहिर ज़िंदगी भर अविवाहित रहे और उन्होंने अपना दबदबा फ़िल्मी दुनिया में क़ायम रखा. उनका नाम जिस फ़िल्म से जुड़ता था, उसमें वह सर्वोपरि होते थे. वह सिनेमा स्टार की तरह रहे, कवि या शायर की तरह नहीं. साहिर ने कभी घुटने नहीं टेके, न कविता में और न सिनेमा के ऐर्श्व के बीच. पीढ़ियों को लांघने वाली इस प्रेमकथा में यश चोपड़ा ने अमिताभ बच्चन को उनकी स्थापित छवि एंग्री यंगमैन के बिल्कुल विरुद्ध एक संवेदनशील प्रेमी में तब्दील कर दिया था, उसे आमजन के बीच स्वीकार्य भी बना दिया था. 1975 से 1992 तक इस तरह की भूमिका में कोई अन्य निर्देशक जनमानस के बीच अमिताभ बच्चन को स्वीकार्य नहीं बना सका. यश चोपड़ा ख़ुद भी यह सिर्फ़ एक ही बार कर सके. अमिताभ और रेखा के अविस्मरणीय प्रणय दृश्यों के बावजूद सिलसिला को वह सहज लोकप्रिता नहीं मिली, जो कभी-कभी के हिस्से आई थी. सिलसिला का दिल को छू लेने वाला मधुर संगीत लोकप्रिय और श्रेष्ठ होने के बाद भी उस तरह जन-जन तक मन की हूक बनकर नहीं घुला-मिला, जैसे कभी-कभी मेरे दिल में ख़्याल आता है...

फ़िल्म 'दिल' की कहानी में कुछ भी ऐसा नहीं था, जिसे नया कहा जा सके. कॉलेज में लड़का-लड़की मिलते हैं, प्रेम होता है, शेर-ओ-शायरी चलती है, फिर लड़की के मां-बाप उसकी शादी कहीं और कर देते हैं. प्रेमी-प्रेमिका की अलग-अलग शादियां हो जाती हैं और उनके बच्चे आपस में प्यार करने लगते हैं. फ़िल्म की पूरी ताक़त उसके शुरुआती दस मिनट हैं. अगर उन्हें निकाल दिया जाए तो पूरी फ़िल्म नीरस हो जाएगी. इन दस मिनटों के सृजन में साहिर लुधियानवी, लता-मुकेश और खय्याम, अमिताभ बच्चन और राखी, यश चोपड़ा और सागर सरहदी के साथ ही सिनेमैटोग्राफर केजी की अप्रतिम प्रतिभाओं के समायोजन का कमाल देखा जा सकता है. नदी की कलकल धारा की तरह बहते हुए हंसते-खिलखिलाते-गुनगुनाते-मुस्कराते और मौन बनकर भी गूंजते दस मिनट ऊंचे-ऊंचे वृक्षों के बीच से गुज़रता नायक और सुबह, दोपहर, शाम, रात को एक-दूसरे से मिलते और बाहर निकलते नज़ारे और गुनगुनाहटों में फूटता हुआ स्वर:-
कल नई कोपलें फूटेंगी
कल नए फूल मुस्कराएंगे
और नई घास के नए फ़र्श पर
नये पांव इठलाएंगे
वो मेरे बीच नहीं आए
मैं उनके बीच में क्यूं आऊं
उनकी सुबहों और शामों का
मैं एक भी लम्हा क्यूं पाऊं
मैं पल दो पल का शायर हूं
पल दो पल मेरी कहानी है
पल दो पल मेरी हस्ती है
पल दो पल मेरी जवानी है...
इन गुनगुनाहटों में डूबा नायक अब कॉलेज की सोशल गैदरिंग के मंच पर पहुंच कर गीत गा रहा है. अमिताभ बच्चन की आवाज़ अब मुकेश की आवाज़ में घुल-मिल गई है. सामने नायिका बैठी हुई है और वाहवाहियों के बीच गीत जारी है.

नायिका नायक के गीत पर मुग्ध है और उससे ऑटोग्राफ मांगती है. नायक हतप्रभ है. शायद इसलिए कि ऐसा अवसर उसकी ज़िंदगी में पहली बार आया है कि कोई उससे ऑटोग्राफ मांगे. जब वह ऑटोग्राफ देते हुए उसका नाम पूछता है तो नायिका कहती है कि उसका नाम पूजा है. नायक का जवाब होता है, तो मुझे पुजारी समझिए. इसी तरह विवाह के बाद नायिका का पति भी कहता है कि क मेरा पुजारी नहीं हो सकता? नायिका के लिए एक नहीं, दो मुक़ाम हैं, जहां वह ईश्वरी पवित्रता का रूप रखती है. प्रेमी और पति दोनों के लिए वह पवित्रता और अपनत्व की पराकाष्ठा है. नायक आरंभ में कहता है:-
हम किए जाएंगे चुपचाप तुम्हारी पूजा
कोई कल दे के न दे हमको हमारी पूजा...

वे लगातार मिलते हैं और अनगिनत ख़्वाब बुन डालते हैं. प्रेमियों का इरादा है कि वे कभी नहीं बिछड़ेंगे. ज़िंदगी भर ऐसे ही हसीन मंज़र रहेंगे. इसी ख्वाहिश के बीच यह गीत गूंजता है:-

कभी-कभी मेरे दिल में ख़्याल आता है...
के जैसे तुझको बनाया गया है मेरे लिये 
तू अबसे पहले सितारों में बस रही थी कहीं 
तुझे ज़मीं पे बुलाया गया है मेरे लिये 
कभी कभी मेरे दिल में, ख़याल आता है
कभी कभी मेरे दिल में, ख़याल आता है
के ये बदन ये निगाहें मेरी अमानत हैं
ये गेसुओं की घनी छांव हैं मेरी ख़ातिर
ये होंठ और ये बाहें मेरी अमानत हैं
कभी कभी मेरे दिल में, ख़्याल आता है
कभी-कभी मेरे दिल में, ख़याल आता है
के जैसे तू मुझे चाहेगी उम्र भर यूं ही 
उठेगी मेरी तरफ़ प्यार की नज़र यूं ही 
मैं जानता हूं के तू ग़ैर है मगर यूं ही
कभी कभी मेरे दिल में, ख़्याल आता है
कभी-कभी मेरे दिल में, ख़्याल आता है
के जैसे बजती हैं शहनाइयां सी राहों में
सुहाग रात है घूंघट उठा रहा हूं मैं 
सिमट रही है तू शरमा के मेरी बाहों में
कभी-कभी मेरे दिल में,ख़्याल आता है...

इसके बाद हम देखते हैं कि राखी और शशि कपूर की शादी हो रही है और नायक दूर एक पेड़ से टिका हुआ दोनों हाथ अपनी जेब में डाले मानो आसमान से सवाल-जवाब कर रहा है. यह बिछड़ना उसका ख़ुद का चुना हुआ है. उसने तो लड़की के मां-बाप के सामने एक बार भी अपना पक्ष तक नहीं रखना चाहा. वह प्रेमिका से ही नहीं, उस काव्यात्मकता से भी दूर हो गया है, जो उसके जीवन का आधार थी. हम यह भी देखते हैं कि फ़िज़ां में शादी की ख़ुशियों के गीत गूंज रहे हैं:-
सुर्ख़ जोड़े की यह जगमगाहट
शोख़ बिंदिया की यह झिलमिलाहट
चूड़ियों का यह रंगीन तराना
धडकनों का यह सपना सुहाना
जागा-जागा कजरे का जादू
धीमी-धीमी सी गजरे की ख़ुशबू...
यह काव्यात्मकता ही पूरी फ़िल्म महक का आधार है. यह एक ऐसी फ़िल्म है, जिसे बार-बार देखने को जी चाहता है...




ए.एन.खान
      इस वर्ष विश्‍व पर्यावरण दिवस का विषय है ‘’हरित अर्थव्‍यवस्‍था’’। हरित अर्थव्‍यवस्‍था वह है जिसमें पर्यावरण को होने वाले खतरों और पारिस्थितिक कमियों को दूर करते हुए लोगों की भलाई हो सके और सामाजिक समानता कायम हो सके। हरित अर्थव्‍यवस्‍था वह है जिसमें सार्वजनिक और निजी निवेश करते समय इस बात को ध्‍यान में रखा जाए कि कार्बन उत्‍सर्जन और प्रदूषण कम से कम हो, ऊर्जा और संसाधनों की प्रभावोत्‍पादकता बढ़े और जो जैव विविधता और पर्यावरण प्रणाली की सेवाओं के नुकसान को रोकने में मदद करे।

    अगर हरित अर्थव्‍यवस्‍था सामाजिक समानता और सभी को मिलाकर बनती है तो तकनीकी तौर पर आप भी इसमें शामिल हैं। इसलिए हमें एक ऐसी आर्थिक प्रणाली बनानी चाहिए जिसमें यह सुनिश्चित हो सके कि सभी लोगों की एक संतोषजनक जीवन स्‍तर तक पहुंच हो और व्‍यक्तिगत तथा सामाजिक विकास का अवसर मिले।

    दुनिया पहले ही अपनी जैव विविधता का बहुत सा अंश खो चुकी है। वस्‍तुओं और खाद्य वस्‍तुओं की कीमतों पर दबाव समाज पर इसके नुकसान को बताते हैं। इसका जल्‍द से जल्‍द निदान किया जाना चाहिए क्‍योंकि प्रजातियों को नुकसान और पर्यावरण की दुर्दशा का सीधा सम्‍बन्‍ध मानवता की भलाई से है। आर्थिक वृद्धि और प्राकृतिक पारिस्थि‍की तंत्र का कृषि उत्‍पादन में रूपांतरण जारी रहेगा, लेकिन यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि इस तरह का विकास प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र के वास्‍तविक मूल्‍य को ध्‍यान में रखकर किया जाए।

   द इकोनॉमिक्‍स ऑफ इकोसिस्‍टम एंड बायोडायवर्सिटी (टीईईडी) की रिपोर्ट के मुख्‍य निष्‍कर्ष थे कि कृषि के लिए रूपांतरण, बुनियादी ढांचे के विस्‍तार और जलवायु परिवर्तन के परिणामस्‍वरूप 2000 में बचे हुए प्राकृतिक क्षेत्र का 11 प्रतिशत हम गंवा सकते हैं। इस समय जमीन का करीब 40 प्रतिशत कृषि के कम प्रभाव वाले स्‍वरूप में है। हो सकता है कि जैव विविधता के कुछ और नुकसान के साथ इसे गहन खेती में रूपांतरित कर दिया जाए। एक अनुमान के मुताबिक अकेले संरक्षित क्षेत्र में 45 अरब अमरीकी डॉलर का वार्षिक निवेश किया जाएगा।

    कुछ क्षेत्रों में शहरों का तेजी से विकास हो रहा है, जबकि अन्‍य में, ग्रामीण इलाके शहरों का रूप ले रहे हैं। शहरों के भीतर प्राकृतिक वृद्धि और नौकरियों तथा अवसरों की तलाश में बड़ी संख्‍या में गांवों से शहरों की और पलायन का महत्‍वपूर्ण हिस्‍सा विकासशील देशों में देखने को मिल रहा है।

    समृद्ध अर्थ्‍व्‍यवस्‍थाओं में शहरी इलाके धन-दौलत और संसाधनों के उपभोग और कार्बनडाइक्‍साइड के उत्‍सर्जन पर संकेन्द्रित रहे हैं। विश्‍व भर में सिर्फ 50 प्रतिशत आबादी पृथ्‍वी के 2 प्रतिशत से भी कम भाग पर रह रही है, शहरी इलाके 60 से 80 प्रतिशत ऊर्जा के इस्‍तेमाल और 75 प्रतिशत कार्बनडाइक्‍साइड उत्‍सर्जन पर संकेन्द्रित कर रहे हैं। इमारतें, परिवहन और उद्योग जिनसे शहर और शहरी इलाके बनते हैं- वैश्विक ऊर्जा-सम्‍बद्ध जीएचजी उत्‍सर्जनों का 25,22 और 22 प्रतिशत योगदान देते हैं।

    कम घने शहर-जो कम प्रति व्‍यक्ति उत्‍सर्जन में मदद करते हैं- आर्थिक वृद्धि के लिए अच्‍छे हैं। विश्‍व की सबसे महत्‍वपूर्ण महानगरीय अर्थव्‍यवस्‍थाएं मात्र 12 प्रतिशत वैश्विक आबादी के साथ वैश्विक जीडीपी का 45 प्रतिशत बनाती है। घनीकरण पूंजी और बुनियादी सुविधाओं सड़कों, रेलवे, पानी और सीवेज प्रणाली की संचालन लागत को कम करती है। हरित शहरी कृषि में नगर निगम के बेकार पानी और अपशिष्‍ट का दोबारा इस्‍तेमाल किया जा सकता है, परिवहन लागत को कम किया जा सकता है, जैव विविधता और आर्द्र भूमि को संरक्षित किया जा सकता है और हरित पट्टी का बेहतर इस्‍तेमाल किया जा सकता है।

     लेकिन शहरों के विकास ने स्‍थानीय पर्यावरण की गुणवत्‍ता पर असर डाला है, साफ पानी और स्‍वच्‍छता के अभाव के कारण गरीब लोग प्रभावित हुए हैं। इसके परिणामस्‍वरूप बीमारियां बढ़ी हैं और आजीविका पर असर पडा है।

     जोखिम को कम करने के उपायों में पारिस्थितिकी तंत्र सेवाएं महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। मुंबई में 2005 में आई बाढ़ का कारण शहर की मीठी नदी का पर्यावरण संरक्षण नहीं करना माना जा रहा था। बाढ़ में 1000 से ज्‍यादा लोग मारे गए थे और शहर का जनजीवन अस्‍त-व्‍यस्‍त हो गया था।

     गांवों से शहरी इलाकों की तरफ पानी भेजने के दौरान पानी का लीकेज गंभीर चिंता का विषय है। पाइपों के उन्नयन और उन्‍हें बदल देने से अनेक औद्योगिक शहरों में 20 प्रतिशत पीने का पानी बचाया जा सकता है। दिल्‍ली में पानी की जबरदस्‍त किल्‍लत से निपटने के लिए नगर निगम ने उन इमारतों में बारिश का पानी जमा करना अनिवार्य बना दिया जिनकी छत का क्षेत्र 100 वर्ग मीटर से ज्‍यादा है। अनुमान लगाया गया है कि प्रति वर्ष 76,500 मिलियन लीटर पानी जमीन पुर्नभरण के लिए उपलब्‍ध हो सकेगा। चेन्‍नई में शहरी जमीन के पानी के पुर्नभरण ने 1988 से 2002 के बीच जमीन के पानी का स्‍तर चार मीटर बढ़ा दिया।

    हरित अर्थव्‍यवस्‍था में नवीकरणीय ऊर्जा उत्‍पादन और बिजली ऊर्जा वितरण, ऊर्जा दक्षत और भंडारण, आर्गेनिक खेती, हरित परिवहन और हरित इमारत जैसे विविध उद्यम शामिल हैं। ऊर्जा दक्ष विद्युत से लेकर बिजली से चलने वाली यात्री ट्रेनों, जैव ईंधन सभी कुछ इसमें सम्मिलित है। यह विभिन्‍न उद.यमों का विविध समूह है जो कम नुकसान पहुंचाने वाले हैं और अधिक समय तक टिक सकते हैं।


एम.वी.एस. प्रसाद
विश्व पर्यावरण दिवस हर वर्ष 5 जून को मनाया जाता है। इसका उद्देश्य पर्यावरण से संबंधित मामलों के बारे में विश्व में जागरूकता पैदा करना और इसके प्रति राजनीतिक ध्यान आकर्षित करना और कार्यवाई को प्रोत्साहित करना है। अतीत में आयोजित विश्व पर्यावरण दिवस विषयक समारोहों में भूमि और जल, ओजोन परत, जलवायु परिवर्तन, मरूस्थलीकरण और टीकाऊ विकास आदि के प्रति विशेष ध्यान आकृष्ट करना शामिल है।
विश्व पर्यावरण दिवस संयुक्त राष्ट्र द्वारा 1972 में स्थापित किया गया था। यह स्टाकहोम में मानवीय पर्यावरण पर आयोजित सम्मेलन के उद्घाटन के उपलक्ष्य में घोषित किया गया था। सन् 2012, संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम और विश्व पर्यावरण दिवस की 40वीं वर्षगांठ है। साथ ही, ब्राजील में टीकाऊ विकास पर हुए प्रथम संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (पृथ्वी शिखर सम्मेलन) को अब 20 वर्ष पूरे हो गए हैं।
विश्व पर्यावरण दिवस क्यों मनाएं
     जब हम जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक प्रभावों और पर्यावरण में गिरावट देखते हैं तो उसके लिए आसानी से अन्य लोगों को दोष देने लगते हैं। जैसा कि पर्यावरण संबंधी नीति को प्राथमिकता न देना; कार्पोरेट संगठनों को ग्रीन हाऊस गैस उत्सर्जन जैसे मामले उठाने के लिए; पर्यावरण के लिए जोरदार आवाज न उठाने के लिए गैर सरकारी सगंठनों को; और कोई कार्यवाही न करने के लिए व्यक्ति विशेष को आदि। तथापि, विश्व पर्यावरण दिवस एक ऐसा दिन है जब हमें अपने मतभेदों को भुलाकर पर्यावरण सुरक्षा के क्षेत्र में प्राप्त उपलब्धियों को मनाना चाहिए।
     विश्व पर्यावरण दिवस मना कर हम अपने आपको और अन्य लोगों को पर्यावरण की देखरेख के महत्व की याद दिलाते हैं। पर्यावरण दिवस समूचे विश्व में अनेक प्रकार से मनाया जाता है जैसे रैलियां, साइकिल यात्रा परेड, हरित संगीत समारोह, स्कूलों में निबंध और विज्ञापन प्रतियोगिताओं का आयोजन, वृक्षारोपण, चीजों को फिर से प्रयोग में लाने के प्रयास, स्वच्छता अभियान आदि। सन् 2012 के लिए विश्व पर्यावरण दिवस का विषय है- हरित अर्थ व्यवस्था : क्या आप इसमें शामिल हैं?
     सरलतम शब्दों में हरित अर्थ व्यवस्था वह है जिसमें कार्बन उत्सर्जन कम हो, संसाधन कुशल हो और सामाजिक रूप में समग्र हो। व्यवहारिक रूप में हरित अर्थ व्यवस्था वह है जिसका आय और रोजगार का विकास ऐसे सार्वजनिक और निजी निवेश से संचालित हो जो कार्बन उत्सर्जन और प्रदूषण कम करें, ऊर्जा और संसाधन कुशलता बढ़ाएं और जैव विविधता तथा परिस्थितिकी प्रणालियों के नुकसान को रोकें। यदि हरित अर्थ व्यवस्था, सामाजिक समानता और समग्रता के बारे में है तो तकनीकी रूप में यह सब हमारे बारे में है।
     हरित अर्थ व्यवस्था हमारे जीवन के लगभग सभी पहलुओं को छूती है और हमारे विकास के बारे में है। यह टिकाऊ ऊर्जा, हरित रोजगार, निम्न कार्बन अर्थ व्यवस्थाओं, हरित नीतियों, हरित भवनों, कृषि, मत्स्य पालन, वानिकी, उद्योग, ऊर्जा कौशल, टिकाऊ पर्यटन, टिकाऊ परिवहन, कचरा प्रबंधन, जल कौशल और अन्य सभी संसाधनों की कुशलता। ये सभी कारक हरित अर्थ व्यवस्था के सफलतापूर्ण कार्यान्वयन से संबद्ध हैं।
     विश्व आज एक बड़े संकट का सामना कर रहा है और हाल के वर्षों में हमने वैश्विक वित्तीय संकट, अनाज संकट, तेल की कीमतों में उतार-चढ़ाव, परिस्थितिकरण व्यवस्था की गिरावट और जलवायु परिवर्तन में असाधारण परिवर्तन के समन्वय को देखा है। एक-दूसरे से संबद्ध ये संकट मानव जाति की इस ग्रह पर शांतिपूर्ण और निरंतर रहने की योग्यता के लिए चुनौती हैं और इसके प्रति विश्व की सरकारों और नागरिकों को तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि जैसे-जैसे विश्व के देश गंभीर आर्थिक मंदी से उबर रहे हैं, यह हरित अर्थ व्यवस्था की आवश्यकता पर जोर दे रहे हैं।
क्या किया जा सकता है?
भवन
     निर्माण और भवन,  संसाधनों और जलवायु को काफी नुकसान पहुंचाते हैं। ऊर्जा की बचत के इस नुकसान को कम किया जा सकता है।
मत्‍स्‍य पालन
     विश्‍व के अनेक भागों में मछलियों के अत्‍यधिक दोहन से मछलियों के भावी भंडारों के समाप्‍त होने का खतरा है। हम मछली पकड़ने के टिकाऊ प्रणालियों को बढ़ावा देकर इस खतरे को टाल सकते हैं।  इसलिए टिकाऊ समुद्री खाद्य पदार्थों का दोहन करना चाहिए।
वानिकी
     वनों के कटाव से विश्‍व में ग्रीन हाउस गैस  के 20 प्रतिशत तक उत्‍सर्जन होता है।  वनों के टिकाऊ प्रबंधन से पर्यावरण और जलवायु को नुकसान पहुंचाए बिना समुदायों और पारिस्‍थितिकीय प्रणालियों का समर्थन जारी रखा जा सकता है।  कागज के उत्‍पादों की मांग को कम करने के लिए इलैक्‍ट्रॉनिक फाइलों को प्रयोग में लाएं। जब आप वनों के  प्रमाणित, टिकाऊ उत्‍पादों का समर्थन करते हैं तो एक प्रकार से आप स्‍वस्‍थ पर्यावरण और टिकाऊ आजीविका का समर्थन करते हैं।  
परिवहन
     अपनी कार में अकेले यात्रा करना पर्यावरण की दृष्टि से उचित नहीं है आर्थिक रूप से भी यह अकुशल है। कार को आपस में मिलकर प्रयोग में लाने से अथवा सार्वजनिक परिवहन में यात्रा करने से पर्यावरण के प्रभाव कम होते हैं और आर्थिक रूप से भी किफायती होने के साथ-साथ यह समाज को भी सुदृढ़ करता है। थोड़ी दूरी तक जाने के लिए पैदल चलना अथवा साइकिल की सवारी करना आपके स्वास्थ्य के साथ-साथ पर्यावरण के लिए भी अच्छा है। जब आप सामान लाने ले जाने के वैकल्पिक तरीकों को अपनाते हैं तो परिवहन क्षेत्र में आप हरित अर्थ व्यवस्था का समर्थन करते हैं।
जल
     विश्व में अरबों लोगों को पीने का स्वच्छ पानी अथवा स्वच्छता की उन्नत सेवाएं उपलब्ध नहीं हैं और जनसंख्या वृद्धि इस समस्या को और भी जटिल बना देती है। पानी का समझदारी से प्रयोग जैसे छोटे-छोटे उपाय इस अमूल्य संसाधन की बचत करने में सहायक हो सकते हैं। जब आप इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं तो पानी के नल को बंद कर दें, अपनी वाशिंग मशीन का उस समय तक प्रयोग न करें जब तक आपके पास धोने के लिए पूरे कपड़े न हो जाएं, नहाते समय फव्वारे का प्रयोग सीमित समय तक करें और वर्षा होने के तुरंत बाद अपने आँगन (लॉन) को न सीचें। संसाधनों का कुशलता पूर्वक प्रयोग हरित अर्थ व्यवस्था की कुंजी है और जल हमारे सर्वाधिक महत्वपूर्ण संसाधनों में से एक है।
कृषि
     विश्व की जनसंख्या 7 बिलियन है और सन् 2050 तक यह 9 बिलियन से भी बढ़ जाएगी। इसका अर्थ हुआ पहले से भीड़ भाड़ वाले शहरों पर और अधिक दबाव। इन शहरों में अब हमारे आधे से भी अधिक लोग रहते हैं और इसका प्राकृतिक संसाधनों पर भी दबाव बढ़ेगा, क्योंकि आबादी के बढ़ने के साथ-साथ अनाज, पानी और बिजली की मांग भी बढ़ेगी। इसलिए, समय आ गया है कि प्रत्येक व्यक्ति को भोजन उपलब्ध कराने की अपनी योग्यता सुनिश्चित करने के लिए टिकाऊ कृषि का समर्थन करें। अपनी सब्जियां उगाएं और किसानों के स्थानीय बाजारों से खरीदारी करें। जब आप स्थानीय, आर्गेनिक और टिकाऊ खाद्य उत्पाद खरीदते हैं तो आप उत्पादकों को यह संदेश भेजते हैं कि आप कृषि के लिए हरित अर्थ व्यवस्था का समर्थन करते हैं।

ऊर्जा
     ऊर्जा के वर्तमान मुख्य स्रोत जैसे तेल, कोयला और गैस आदि न केवल स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए हानिकारक है। वे ऊर्जा की बढ़ती हुई आवश्यकताओं के जगत में टिकाऊ भी नहीं हैं। आप ऐसे कारोबार और उत्पादों में निवेश करके स्वच्छ, अक्षय ऊर्जा के विकास का समर्थन कर सकते हैं। ऊर्जा की व्यक्तिगत किफायत में सुधार के उपायों पर विचार करते हुए हम अक्षय ऊर्जा को अपनाने के लिए काम कर सकते हैं। जब आप प्रयोग में नहीं ला रहे हैं तो बत्तियां बुझा दीजिए और उपकरणों के पलग हटा दीजिए।
कचरा
     बचे हुए सामान को फिर से काम में लाने योग्य बनाने और बचे हुए भोजन का कम्पोस्ट तैयार करने से हमारे प्राकृतिक संसाधनों की मांग को कम किया जा सकता है।
     पर्यावरण और टिकाऊ विकास के इस महत्वपूर्ण वर्ष में विश्व के नेता 1992 में रियो डी जनेरियो में हुए ऐतिहासिक पृथ्वी शिखर सम्मेलन के 20 वर्ष बाद अब फिर संयुक्त राष्ट्र के टिकाऊ विकास संबंधी शिखर सम्मेलन में मिलेंगे।
     टिकाऊपन, विकास के सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय आयामों को संतुलित करके सभी के लिए एक अवसर प्रदान करना है। हमें इस धारणा को गलत सिद्ध करना है कि आर्थिक स्वास्थ्य और पर्यावरण के बीच विरोधाभास है। सही नीतियों और सही निवेश अपना कर हम अपने पर्यावरण की सुरक्षा कर सकते हैं, अर्थव्यवस्था में सुधार ला सकते हैं, रोजगार के अवसर पैदा कर सकते हैं और सामाजिक प्रगति को गति प्रदान कर सकते हैं।
     हरित अर्थ व्यवस्था में टिकाऊ विकास प्राप्त करने और असाधारण रूप से गरीबी समाप्त करने की क्षमता है। विश्व के नेताओं, सिविल सोसायटी और उद्योग को इस परिवर्तन के लिए सहयोग से काम करने की आवश्यकता है। संपदा, समृद्धि और खुशहाली के परम्परागत उपायों पर पुनर्विचार करने और पुन: परिभाषित करने के लिए नीति-निर्माताओं और नागरिकों को निरंतर प्रयास करना चाहिए।




उपाध्‍याय
      देश में 14 करोड़ हेक्‍टेयर क्षेत्र में खेती होती है, जिसमें से 9 करोड़ हेक्‍टेयर क्षेत्र बारानी (शुष्‍क या असिंचित) है, जो पूरी तरह बरसात पर निर्भर है। बरसात पर निर्भरता की मार सबसे अधिक छोटे और मझोले किसानों को झेलनी पड़ती है। वर्षा पर निर्भर क्षेत्र अनिश्चित वर्षा और सूखे से प्रभावित रहते हैं, जिससे उत्‍पादकता कम होती है। अर्द्ध शुष्‍क क्षेत्रों में वर्षा की अनिश्चितता और  असमान वितरण की समस्‍या तो रहती ही है, सूखे की संभावना से उबर पाना भी ऐसे क्षेत्रों के किसानों के लिए आसान नहीं होता। अब बारानी खेती से दूसरी हरित क्रांति की नींव मजबूत की जा रही है, ताकि आने वाले दशकों में बढ़ती हुई आबादी की खाद्यान्‍न समस्‍या को हल किया जा सकें।
       वर्षा आधारित क्षेत्रों की समस्‍याओं को हल करने के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के कई संस्‍थानों में कार्य चल रहा है। हैदराबाद स्थित केन्‍द्रीय बारानी कृषि अनुसंधान संस्‍थान (क्रीडा) में सस्‍य विज्ञान, मृदा भौतिकी, मृदा रसायन विज्ञान, जल विज्ञान, सूक्ष्‍म जीव विज्ञान, पादप सुरक्षा, पादप कार्यिकी, आणविक जीव विज्ञान, पशु विज्ञान एवम् कृषि वानिकी से संबंधित प्रयोगशालाएं है, जिनमें तमाम आधुनिकतम सुविधाएं उपलब्‍ध है। संस्‍थान के अधीन हयातनगर में 280 हेक्‍टेयर क्षेत्र और गुनेगल में 80 हेक्‍टेयर का अनुसंधान फार्म है, जहां तैयार ढांचागत और क्षेत्रीय प्रयोगों व प्रदर्शनों में सहायक सुविधाएं उपलब्‍ध हैं। इन फार्मों की सबसे बड़ी विशेषता है कि इनकी मिट्टी मुख्‍य रूप से एल्‍फीसाल हैं, जो कि देश के अधिकांश वर्षा निर्भर कृषि क्षेत्रों में आमतौर पर मिलती है। इन दोनों अनुसंधान फार्मों की औसतन वार्षिक वर्षा 750 मिमी (हयातनगर) और 690 मिमी (गुनेगल) आंकी गई है।
       संस्‍थान के संसाधन प्रबंध डिवीजन के प्रमुख डॉ. जी. आर. कोरवार के अनुसार संस्‍थान में देश भर में फैले अपने 25 केन्‍द्रों के लिए स्‍थानीय स्थिति के अनुसार भूमि एवम् फसल को लेकर कार्यक्रम निर्धारित किये जाते हैं। उसके बाद हर केन्‍द्र में प्रौद्योगिकी विकसित की जाती है और संबंधित राज्‍य सरकार के सहयोग से उसका प्रसार किया जाता है। देश भर में फैले 610 कृषि विज्ञान केन्‍द्रों में से 100 को संस्‍थान से जोड़ा गया है, जिनमें जलवायु परिवर्तन के बारे में किसानों को सप्‍ताह भर पूर्व जानकारी देने की योजना को संचालित किया जाएगा। अब तक ऐसे 90 स्‍वचालित मौसम केन्‍द्र स्‍थापित हो चुके हैं। वर्तमान वित्‍तीय वर्ष से 100 स्‍वचालित मौसम केन्‍द्र आपस में जुड़कर और कार्य करना शुरू कर देंगे।
       समूचे विश्‍व में कृषि पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पड़ रहा है, लेकिन भारत जैसे देशों के लिए यह अधिक हानिकारक हो सकता है, जहां अधिकांश आबादी खेती पर निर्भर है। हाल के वर्षो में यह प्रभाव और गहरा हुआ है। एक ही क्षेत्र में जहां बाढ़ का प्रकोप होता है, वहीं दूसरी ओर भयंकर सूखे की मार पड़ती है। जलवायु परिवर्तन के कारण फसलों और पशु संपदा पर तो प्रभाव पड़ ही रहा है, पानी का संकट भी गहराता जा रहा है। मिट्टी के स्‍तर में गिरावट, जैव विविधता की क्षति, उत्‍पादन और उत्‍पादकता में कमी जैसी अनेक समस्‍याएं खेती के लिए चुनौती बनकर उभर रही हैं। इन चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने फरवरी 2011 में जलवायु प्रतिरोधक कृषि पर राष्‍ट्रीय पहल (एनआईसीआरए) की शुरूआत की। परिषद के 21 संस्‍थानों को इन पर रणनीतिक अनुसंधान का दायित्‍व सौंपा गया है। इस पूरी परियोजना को क्रीडा संचालित कर रहा है, जिसका सम्‍पूर्ण निरीक्षण आईसीएआर का प्राकृतिक संसाधन प्रबंध डिवीजन करता है। 11वीं योजना में इसके लिए 350 करोड़ रूपये का बजट प्रावधान था, जिसमें से 200 करोड़ रूपये 2010-11 में तथा 150 करोड़ रूपये 2011-12 में आवंटित किये गये। पिछले आठ महीने में परियोजना के अंतर्गत अनुसंधान, प्रौद्योगिकी प्रदर्शन, क्षमता निर्माण एवम् प्रायोजक/प्रतियोगी अनुसंधान में कार्य किया गया।
       कृषि विज्ञान केन्‍द्रों के माध्‍यम से करीब 1 लाख तथा अखिल भारतीय बारानी कृषि अनुसंधान परियोजना के नेटवर्क के माध्‍यम से 20 हजार किसानों को इसकी गतिविधियों से जोड़ा गया। फरवरी-मार्च 2011 में आयोजित आठ क्षेत्रीय कार्यशालाओं में सभी 100 कृषि विज्ञान केन्‍द्र शामिल हुए। पूर्वोत्‍तर राज्‍यों और जम्‍मू-कश्‍मीर में जलवायु परिवर्तन अनुसंधान के ढ़ांचागत एवम् क्षमता में सुधार, औद्योगिक प्रदर्शन का 200 जिलों में विस्‍तार, राज्‍य कृषि विश्‍वविद्यालयों के माध्‍यम से महत्‍वपूर्ण क्षेत्र के विशिष्‍ट मुदृों पर कार्य और कुछ अधिक महत्‍वपूर्ण फसलों को शामिल करने आदि का लक्ष्‍य 12वीं योजना के लिए निर्धारित किया गया है।
       वरिष्‍ठ वैज्ञानिक डॉ. वी. यू. एम. राव के अनुसार मौसम आधारित कृषि मौसम सलाह सेवाएं (एएएस) तथा स्‍वचालित मौसम स्‍टेशन (एडब्‍ल्‍यूएस) नेटवर्क के लिए देश भर में 100 कृषि विज्ञान केन्‍द्र चुने गये। 20 फरवरी, 2012 तक 91 स्‍थानों पर निर्माण कार्य पूरा हो चुका है, इनमें से 86 केन्‍द्रों (स्‍थानों) में उपकरण लगाने का कार्य भी पूरा हो चुका है। इस पूरे नेटवर्क को क्रीड़ा, हैदराबाद के सेन्‍ट्रल सर्वर से जोड़ा जा चुका है। इनसे सं‍बंधित आंकड़े एनआईसीआरए की वेबसाइट पर उपलब्‍ध हैं।
       जल संग्रहण और पुनर्उपयोग : राष्‍ट्रीय कृ्षि नवोन्‍मेष परियोजना (एनएआईपी) के अंतर्गत फार्म तालाब परियोजना को बढ़ावा दिया गया है। वरिष्‍ठ वैज्ञानिक डॉ. एम. उस्‍मान के अनुसार गोंडवाना क्षेत्र और दक्षिण भारत में इसके अंतर्गत 30 लाख तालाब बनाये गये, जिनसे 50 हेक्‍टेयर क्षेत्र की सिंचाई हुई। कई किसानों को प्रति एकड़ 10,500 रूपये की अतिरिक्‍त आय हुई। क्रीडा ने फसल कटाई के बाद उसके अवशेष की कटाई के लिए उपकरण तैयार किया है। इससे 2 से 3 टन बायोमास को प्रति हेक्‍टेयर रि-साइकिल कर 10 से 20 किलो तक नाइट्रोजन की बचत हो सकती है।

ग्रामीण पशु पालन :- राष्‍ट्रीय कृषि नवोन्‍मेष परियोजना के अंतर्गत बरसात पर निर्भर क्षेत्रों में कृषि उत्‍पादकता में वृद्धि के जरिये ग्रामीण पशुपालन का कार्य 2007 में शुरू किया गया था। क्रीडा ने आन्‍ध्रप्रदेश के आठ पिछड़े जिलों में 10 संगठनों के समूह के माध्‍यम से इसे लागू किया। इससे नई कृषि तकनीक का इस्‍तेमाल करने से फसलों से मुनाफे में 20 प्रतिशत वृद्धि हुई, जिसमें मक्‍का में जीरो टिल का प्रयोग किया गया। करीब 250 तालाब बनाये गये या उनकी मरम्‍मत की गई, जिससे औसत फसल वृद्धि 152 प्रतिशत तक हुई। पानी की बचत करते हुए सिंचाई तकनीक, भू-जल साझीदारी तथा नवीनीकृत ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा दिया गया। कार्यक्रमों के माध्‍यम से करीब 15 लाख रूपये की अतिरिक्‍त आमदनी अर्जित की गई तथा मौसम आधारित बीमा का लाभ 240 कपास किसानों ने उठाया, जबकि कस्‍टम-हायरिंग केन्‍द्रों की स्‍थापना और जरूरत पर आधारित कृषि उपकरण एवम् मशीनरी का लाभ करीब 11 हजार किसानों ने उठाया।
ग्रीन हाऊस गैस उत्‍सर्जन :- सामुदायिक स्‍तर पर ग्रीन हाऊस गैस उत्‍सर्जन में कमी के लिए वारंगल जिले के तीन गांवों में 1945 परिवारों को परियोजना के दायरे में लाया गया। पेड़ों पर आधारित प्रणाली को सबसे अच्‍छा पाया गया और इससे मिट्टी की गुणवत्‍ता में गिरावट को रोकने में मदद मिली। ग्रीन हाऊस गैस उत्‍सर्जन कम करने के लिए पेड़ों पर आ‍धारित, कृषि आधारित, ऊर्जा आधारित और घरेलू स्‍तर पर काम किये गये।
किसान हितैषी उपकरण :- क्रीडा ने अनेक किसान हितैषी उपकरण तैयार किए हैं जो वर्षा आश्रित खेती के लिए बहुत उपयोगी हैं। क्रीडा इन उपकरणों को किराये पर किसानों को उपलब्‍ध कराने की योजना भी चला रही हैा रो राइजर प्‍लांटर, खेत में बीज और खाद की मात्रा को सही तरीके से पहुंचाने के साथ बरसाती पानी को संरक्षित करने में सहायक है। डॉ. कोरवार ने बताया कि इसकी मार्केटिंग के लिए 28 समझौता ज्ञापनों पर हस्‍ताक्षर हुए हैं। चुने हुए कृषि विज्ञान केन्‍द्र भी इसका इस्‍तेमाल कर रहे हैं। आन्‍ध्रप्रदेश सरकार ने 140 कस्‍टम हायरिंग सेंटर खोले हैं और ओडिशा में 1500 की बिक्री हुई है। इसकी लागत करीब 60 हजार रूपये है। मांग अधिक होने पर कीमत और कम हो सकती हैा मिट्टी और जल संरक्षण के लिए यह बहुत उपयुक्‍त है। इसके उपयोग से किसानों को 30-35 दिन का अधिक समय मिल जाता है और लागत भी कम आती है।
       डॉ. कोरवार के अनुसार कर्नाटक में वैदर एडवाइजरी से कीटनाशकों के उपयोग में 30 प्रतिशत बचत हुई है और उत्‍पादन में 25 प्रतिशत वृद्धि हुई है। इनमें बागवानी फसलें अधिक हैं।  अगले चार वर्षो के भीतर गेंहू की कम अवधि वाली और ताप सहन पांच किस्‍में किसानों तक पहुंच जायेंगी। उन्‍होंने बताया कि क्रीडा ने हरबीसाइड एप्‍लीकेटर सह-प्‍लांटर तैयार किया है। यह किसानों के लिए फायदेमंद है, क्‍योंकि इसमें एक साथ बुआई, खाद का छिड़काव तथा स्‍प्रे करने की सुविधा है। दो फसलों के लिए भी यह उपयुक्‍त है।
कृषि विज्ञान केन्‍द्र(केवीके) की उपलब्धियां :- केन्‍द्रीय बारानी कृषि अनुसंधान संस्‍थान के साथ रंगारेड्डी जि़ले में स्थित कृषि विज्ञान केन्‍द्र पिछले 35 वर्ष में किसानों को कृषि तथा इससे संबंधित क्षेत्रों में सहायता एवं मार्गदर्शन प्रदान कर रहा हैं। डॉ. बी.एम.के. रेड्डी ने केवीके की उपलब्धियों की चर्चा करते हुए बताया कि 2000 से अधिक प्रशिक्षण कार्यक्रम एवं कौशल आधारित व्‍यावसायिक प्रशिक्षण देकर 55,000 से अधिक लोगों को लाभान्वित किया। कृषि, पशुपालन एवम् गृह विज्ञान के क्षेत्र में विभिन्‍न प्रौद्योगिकयों के 6000 फ्रंटलाइन प्रदर्शन किसानों के खेतों में किये गये, जिसके अंतर्गत 2400 हेक्‍टेयर खेती में लाभ पहुंचा। पिछले एक वर्ष में विस्‍तार गतिविधियों में 35 प्रशिक्षण कार्यक्रमों का 750 किसानों ने लाभ उठाया।
       केन्‍द्रीय बारानी कृषि अनुसंधान संस्‍थान (क्रीडा) जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का सामना करते हुए भविष्‍य के लिए अनेक अनुसंधान कार्यक्रमों पर कार्य कर रहा है। इनमें कस्‍टम हायरिंग सेवा केन्‍द्रों को प्रोत्‍साहन एवं ग्रामीण युवाओं के प्रशिक्षण द्वारा छोटे फार्म यांत्रिकीकरण को बढ़ावा, वर्षा आधारित फसलों में अकाल सहिष्‍णुता को प्रो‍त्‍साहित करने के लिए जैव-प्रौद्योगिकी उपकरणों का प्रयोग, जैविक कृषि को प्रोत्‍साहन, फार्मस्‍तर पर कृषि उत्‍पादों का मूल्‍य संवर्धन और समेकित कृषि प्रणाली का विकास प्रमुख हैं।
       संस्‍थान बारानी कृषि को बढ़ावा देने के लिए उपलब्‍ध जल संसाधनों के सही उपयोग एवं प्रभावी सूखा प्रबंधन पर विशेष ध्‍यान दे रहा है। राष्‍ट्रीय कृषि नवोन्‍मेष परियोजना के माध्‍यम से बारानी भूमि को हरित भूमि में बदलने और किसानों तक प्रौद्योगिकी को पहुंचाने का कार्य कर रहा है। अतिरिक्‍त सिंचाई की सुविधा उपलब्‍ध  कराने के लिए आन्‍ध्र प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु में 1.40 लाख तालाबों का निर्माण किया गया, जिससे 50 से 60 लाख हेक्‍टेयर बारानी क्षेत्र को फायदा पहुंचा और इसके साकारात्‍मक परिणाम सामने आ रहे है। देश भर में बारानी धरती का चेहरा बदलने की दिशा में सतत प्रयास जारी है।




महेश राठी
गंगा की स्‍वच्‍छता, प्रदूषण रहित निर्मल अविरल प्रवाह फिर से चर्चाओं में है। अपने अस्तित्‍व पर लगातार खतरे झेल रही भारत की इस जीवन रेखा को बचाने की मुहिम संभवतया अभी तक के अपने सबसे गंभीर मुकाम पर है।    
दरअसल गंगा अस्तित्व को खतरा पैदा करने वाले कारणों को हम तीन भागों में बांट सकते है, गंगा के उद्भव की अवस्‍था के मूल कारण, औद्योगिक विकास जनित और जनसंख्‍या विस्‍फोट के कारण बढ़ता दबाव। गंगा को अपने उद्गम स्‍थल और पूरे उत्‍तराखण्‍ड में अभी तक भी एक स्‍वच्‍छ और निर्मल जलधारा के रूप में जाना जाता है। यदि प्रत्‍यक्ष रूप से देखें तो गंगा की सभी सहयोगी जलधाराऐं स्‍वच्‍छ और निर्मल दिखाई देती हैं परन्‍तु उत्‍तराखण्‍ड के किसी मूल निवासी से इसके बारे में जानने की कोशिश की जाए तो इस स्‍वच्‍छता की वास्‍तविकता और पिछले वर्षो में इसमें आई गिरावट को आसानी से समझा जा सकता है। वास्‍तव में यदि देखा जाए तो गंगा एक मैदानी नदी ही है क्‍योंकि गंगा देवप्रयाग में संगम के बाद ऋषिकेश में प्रकट होने के समय ही गंगा कहलाती है। इससे पहले गंगा अपनी सहयोगी जलधाराओं भगीरथी, नन्‍दाकिनी, पिण्‍डार, अलकनन्‍दा या मंदाकिनी के नाम से ही जानी जाती है। परन्‍तु अपने बेसिन में संभवतया दुनिया की सबसे बड़ी आबादी को आश्रय देने वाली आस्‍था और जीवन की प्रतीक इस नदी की यह सबसे बड़ी विडम्‍बना ही कही जाएगी कि यह महानदी गंगा बनने से पहले ही भारी प्रदूषण का शिकार हो रही है। गंगा का उद्गम स्‍थल पहाड़ी राज्‍य उत्‍तराखंड विकास के नाम पर अवैध खनन और अतिक्रमण का शिकार होकर भारी पर्यावरण क्षति का शिकार हो रहा है और इसका दुष्‍प्रभाव लगातार घटते ग्‍लेशियरों और दरकते हुए पहाड़ों में साफ तौर पर दिखाई देता है, जिस कारण गंगा और उसकी सहायक नदियों में लगातार पानी में कमी हो रही है पिछले पांच दशक में गंगा की समुंद्र में पानी की हिस्‍सेदारी में 20 प्रतिशत से भी अधिक गिरावट आई है। पानी की इस कमी के लिए विकास के नाम पर उत्‍तराखंड में हो रहे अंधाधुंध बांध निर्माण की भी एक महत्‍वपूर्ण भूमिका रही है। इस समय उत्‍तराखंड में तैयार हो चुके, निर्माणाधीन और छोटे-बड़े प्रस्‍तावित बांधों की संख्‍या 300 से भी अधिक है। उत्‍तराखंड जैसे छोटे से पहाड़ी राज्‍य के लिए बेशक ये आंकड़ा हैरान देने वाला है। हालांकि अभी प्रस्‍तावित बांधों की बड़ी संख्‍या न्‍यायालय के हस्‍तक्षेप के कारण वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की वन सलाहकार कमेटी के पास विचाराधीन है। फिर भी अभी तक बन चुके छोटे-बड़े अनेकों बांधों ने इस प्रदेश के सामाजिक, सांस्‍क़तिक और पर्यावरणीय जीवन और परिस्थितिकी को बुरी तरह प्रभावित करके इस पूरे क्षेत्र पर निर्णायक अमिट छाप छोड़ दी है।
गंगा के प्रदूषण का दूसरा मुख्‍य स्रोत औद्योगिक इकाईयों द्वारा छोड़े जाने वाला औद्योगिक कूड़ा और भारी मल है। गंगा नदी के किनारे कम से कम 29 बडे शहर, 70 कस्‍बे और हजारों गांवों स्थित है, जिनसे लगातार इस मल एवं अपव्‍यय का उत्‍सर्जन होता रहता है। एक रिपोर्ट के अनुसार 2010 तक गांव और शहरों के द्वारा छोड़े जाने वाले इस मल अपव्‍यय की मात्रा 13 करोड़ लिटर रोजाना आंकी गई थी। इसके अलावा इस रिपोर्ट में औद्यो‍गिक अपव्‍यय का अनुमान भी 260 मिलियन के आसपास किया गया था। गंगा के प्रदूषण में नगर निकायों की हिस्‍सेदारी सबसे बड़ी 80 प्रतिशत थी, तो वहीं औद्योगिक इकाईयों की हिस्‍सेदारी 15 प्रतिशत ही मानी गई थी। दुनिया की सबसे बड़ी आबादी को आश्रय देने वाली इस महानदी के बेसिन में औद्योगिक इकाईयों की संख्‍या भी बेहद विशाल और बेतरतीब है। एक अनुमान के अनुसार ऋषिकेश से प्रयागराज तक विभिन्‍न प्रकार की 146 औद्योगिक इकाईयों विद्यमान थी, जिसमें 144 उत्‍तरप्रदेश में और 2 उत्‍तराखंड में  स्थित थी। गंगा को बड़े स्‍तर पर प्रदूषित करने वाली इन इकाईयों में कानपुर में स्थित चमड़ा उद्योग का एक बड़ा योगदान रहा है। हालांकि उत्‍तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण् बोर्ड ने पिछले कई सालों में कई इकाईयों को बंद करवाया या बंद करवाने की प्रक्रिया शुरू की है। इसके अलावा इन औद्योगिक इकाईयों की सघनता को कन्‍नौज और वाराणसी के बीच में स्थित 170 कारखानों और चर्मशोधन संयंत्रों की संख्‍या से ही समझा जा सकता है। इन औद्योगिक इकाईयों द्वारा पैदा किया जा रहा रसायनिक अपव्‍यय लगातार गंगा के पानी को प्रदूषित कर रहा है और इस बढ़़ते प्रदूषण के कारण भारत की इस धार्मिक आस्‍थाओं की प्रतीक पौराणिक नदी का पानी ना लोगों के पीने योग्‍य बचा है, ना ही स्‍नान करके पाप धोने लायक ही। इसके अतिरिक्‍त लगातार बढ़ती जनसंख्‍या का दबाव और लोगों की जीवन शैली में आ रहा परिवर्तन भी गंगा प्रदूषण को बढ़ा रहा है। बढ़ते शहरीकरण के कारण गंगा में गिरने वाले मल अपव्‍यय की मात्रा रोजाना बढ़ रही है। इस तेज होते शहरीकरण में नदी तट पर होने वाले अतिक्रमण और नदी में से अवैध रेत खनन जैसे कारोबार अराजक ढंग से बढ़ावा दिया है। इसके साथ ही भारतीय जीवन में गंगा नदी की धार्मिक महत्‍ता भी गंगा के अस्तित्‍व के लिए संकट का कारण बन रही है। गंगा किनारे अंतिम संस्‍कार इस दृष्टि से एक बड़ा संकट है, जिससे गंगा के प्रदूषण में इजाफा होता है। यदि वाराणसी को इसका एक उदाहरण माने, तो इस संकट को आसानी से समझा जा सकता है। वाराणसी में ही हर साल 40 हजार से अधिक शवों का अंतिम संस्‍कार हो रहा है और गंगा का हर किनारा इस धार्मिक और सामाजिक विधान के लिए महत्‍वपूर्ण है। अब एक शहर के उदाहरण से शव दहन की इस प्रक्रिया की विशालता को समझा जा सकता हैं। यह एक ऐसे प्रमुख कारक हैं जो लगातार गंगा के अस्तित्‍व को चुनौती दे रहा हैं।
भारत सरकार ने गंगा के निर्मल, स्‍वच्‍छ और निर्बाध प्रवाह को बनाए रखने के लिए 1986 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कार्यकाल में गंगा एक्‍शन प्‍लान की शुरू हुई, जिसमें 25 प्रथम श्रेणी शहरों में गंगा को प्रदूषण मुक्‍त करने का अभियान चलाया गया बाद में 2000 में आधिकारिक रूप से दस गंगा एक्‍शन प्‍लान को बंद कर दिया, परन्‍तु उससे पहले उस एक्‍शन प्‍लान के अनुभवों के आधार पर 1993 में एक्शन प्‍लान फेज 2 को अनुमति प्रदान की गई जिसके तहत गंगा और उसकी सहायक नदियों यमुना, दामोदर, गोमती और महानंदा को भी इसके दायरे में लाया गया। इसके अलावा सरकार ने गंगा और उसके महत्‍व को ध्‍यान में रखते हुए पर्यावरण सुरक्षा कानून 1986 के अंतर्गत प्रधानमंत्री की अध्‍यक्षता में नेशनल रिवर गंगा बेसिन ऑथोरिटी का 20 फरवरी 2009 को निर्माण किया गया। इस ऑथोरिटी में संबंधित सभी राज्‍यों के मुख्‍यमंत्रियों को भी शामिल किया गया। इसी के साथ भारत सरकार ने गंगा को राष्‍ट्रीय नदी भी घोषित किया गया। हाल ही में 17 अप्रैल को संपन्‍न नेशनल रिवर गंगा बेसिन ऑथोरिटी की तीसरी बैठक में प्रधानमंत्री ने सभी संबंधित राज्‍य सरकारों से कहा कि वह सभी अपने राज्‍यों में प्रदूषण की स्थिति पर रिपोर्ट जमा करायें ताकि शीघ्र ही गंगा को प्रदूषण मुक्‍त करने के लिए प्रभावी कदम उठाए जा सकें। नेशनल रिवर गंगा बेसिन ऑथोरिटी ने गंगा को प्रदूषण मुक्‍त बनाने और संरक्षित करने के लिए स्‍पष्‍ट तौर पर अपने लक्ष्‍य निर्धारित किए। इसमें प्रमुखतया गंगा बेसिन प्रबंधन योजना तैयार करना, गंगा बेसिन राज्‍यों में नदी के पर्यावरण की रक्षा के उपाय करने के साथ ही वहां पर पानी की शुद्धता बनाए रखने और प्रदूषण रोकने के लिए गंगा बेसिन में गतिविधियों का नियमांकन, गंगा नदी में पर्यावरणीय बहाव को बनाए रखना, नदी में प्रदूषण की रोकथाम के लिए सीवरेज शोधन ढ़ांचे का निर्माण करना, बाढ़ आशंका वाले क्षेत्रों की सुरक्षा और लोगों में जागरूकता लाने के लिए आवश्‍यक योजना बनाने और उसको कार्यरूप देने के लिए वित्‍त की व्‍यवस्‍था करना, गंगा में प्रदूषण से संबंधित जानकारी जुटाना और उनका विश्‍लेषण करना, नदी में प्रदूषण के कारणों और उनसे बचाव के उपायों की जांच एवं उस पर शोध करना, जल संरक्षण और उसके पुनर्प्रयोग को बढ़ावा देना, प्रदूषण को रोकने और उससे बचाव के लिए जारी कार्यक्रमों की निगरानी करना आदि है।
वर्तमान संसद सत्र में सांसदों के प्रश्‍नों को जवाब देते हुए पर्यावरण मंत्री जयंती नटराजन ने कहा कि 714 ऐसी औद्योगिक इकाईयों की पहचान की गई है, जो मुख्‍य रूप से गंगा में प्रदूषण के लिए दोषी है और राज्‍य सरकार ऐसे प्रदूषण फैलाने वाले दोषी लोगों के खिलाफ कार्यवाही कर रही हैं अथवा नहीं उसकी निगरानी के लिए केन्‍द्र सरकार एक निगरानी व्‍यवस्‍था तैयार कर रही है। पर्यावरण मंत्री ने कहा है कि गंगा में प्रदूषण का 20 प्रतिशत औद्योगिक इकाईयों के कारण, जबकि 80 प्रतिशत प्रदूषण शहरी सीवेज के कारण है और केन्‍द्र ने सीवेज ट्रीटमेंट प्‍लांट स्‍थापित करके अपने जवाबदेही पूरी कर दी हैं परन्‍तु इन शहरों में सीवर व्‍यवस्‍था ही नहीं, जिसके बनाने की जिम्‍मेदारी स्‍थानीय शहरी निकायों की है, राज्‍य सरकारों को चाहिए की शहरों में सीवर व्‍यवस्‍था का निर्माण करायें। साथ ही उन्‍होंने यह भी कहा कि गंगा एक्‍शन प्‍लान विफल नही रहा है और गंगा की स्थिति उतनी भी खराब नही हैं जैसे आंकड़े सांसद दे रहे है। सांसदों ने कहा है कि गंगा पर 400 बांध परियोजनाओं का कार्य चल रहा है जबकि वास्‍तविकता यह है कि इनकी संख्‍या केवल 70 ही हैं, जिसमें से 17 निर्मित हो चुके हैं, 14 निर्माणधीन हैं और 39 केवल कागजी योजनाओं तक ही सीमित हैं। पर्यावरण मंत्री ने कहा कि गंगा गौमुख से लेकर बंगाल में अंतिम मुहाने त‍क पर्यावरणीय संवेदनशील क्षेत्र है और सरकार उसकी रक्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं परन्‍तु राज्‍य सरकारों को गंगा संरक्षण के लिए आवंटित धन सही ढ़ंग से और समय पर खर्च करना चाहिए क्‍योंकि उनका मंत्रालय भी आव‍ंटित धन को एक सीमा से अधिक अपने पास नही रख सकता हैा इसके अतिरिक्‍त लोकसभा अध्‍यक्ष मीरा कुमार ने भी लोकसभा को आश्‍वस्‍त किया कि गंगा की रक्षा की जाएगी और उसका निर्मल अविरल बहाव कायम रखा जाएगा।


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