स्टार न्यूज़ एजेंसी
लखनऊ (उत्तर प्रदेश). मुल्लाओं के "कारनामों" से परेशान मुस्लिम महिलाएं अब खुलकर अपना विरोध दर्ज कराने लगी हैं.  ऐसे ही तलाक़ के एक मामले में ग़लत फ़ैसले से गुस्साई  मुस्लिम महिलाओं ने सुल्तानुल मदारिस के एक मौलाना और कर्मचारियों को पीटा. शहर में इस मामले की चर्चा है. 

इस मामले में मौलाना ने पीटने वाली महिलाओं के खिलाफ़ वजीरगंज पुलिस थाने में शिकायत दर्ज कराई है. पुलिस के मुताबिक़ एक महिला के विरुद्ध एकतरफ़ा तलाक़ से उत्तेजित हिना और उसकी दो बहनों निशात फ़ातिमा और आर्शी ने सुल्तानुल मदारिस के मौलाना अली इमरान को पीटा और उसे बचाने आए कर्मचारियों व अन्य मौलानाओं की भी पिटाई की. 

 इस मामले को लेकर  कायनात का कहना है इन महिलाओं ने ठीक किया. अगर उनकी जगह वो होती तो शायद यही करतीं. आखिर कब तक महिलाएं मुल्लों के आतंक को बर्दाश्त करेंगी. देखने में यही आता है कि मुल्ला पुरुषों के पक्ष में ही फ़ैसला करते हैं. हालांकि कई लोगों का यह भी कहना है कि महिलाओं को क़ानून अपने हाथ में नहीं लेना चाहिए.    

स्टार न्यूज़ एजेंसी
नैनीताल (उत्तराखंड). तमाम सरकरी दावों के बावजूद भारत में कुपोषण समस्या बनी हुई है। आज पांच वर्ष से कम आयु वाले 42 प्रतिशत बच्चे कम वजन के हैं और 69.5 प्रतिशत बच्चे खून की कमी का शिकार हैं और 15-49 वर्ष की 35.6 प्रतिशत महिलाएं सामान्य रूप से स्वस्थ नहीं हैं और 55 प्रतिशत महिलाओं में रक्त की कमी है।

महिलाओं और बच्चों में कुपोषण -समस्याएं और समाधान पर संसदीय सलाहकार समिति की बैठक यहां आयोजित हुई। बैठक की अध्यक्षता महिला एवं बाल विकास राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) कृष्णा तीरथ ने की। इस अवसर पर उन्होंने कहा कि भारत ने विभिन्न क्षेत्रों में भारी आर्थिक प्रगति की है। उन्होंने कहा कि कई कायक्रमों का लक्ष्य महिलाओं और बच्चों का समसुचित विकास है।

उन्होंने सलाहकार समिति के सदस्यों को बताया कि उन्होंने कुपोषण का जायजा लेने और राज्य सरकारों को नियमित निगरानी तथा जांच के लिए प्रेरित करने के विचार से मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, असम, केरल और सिक्किम का दौरा किया था। उन्होंने कहा कि वह कुपोषण के खिलाफ जेहाद को आगे बढाने के लिए सभी राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों का दौरा करेंगी। उन्होंने बताया कि वे जल्द ही संबंधित युवा सांसदों की एक बैठक 2 से 9 जून को बुलाएंगी और उनके साथ चर्चा करेंगी। उसके बाद प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में भारत की पोषण चुनौतियों पर राष्ट्रीय परिषद की बैठक होगी।

इस अति महत्वपूर्ण बैठक में सांसदों ने भी अमूल्य सुझाव दिए। चर्चा में हिस्सा लेने वाले लोकसभा के तीन सांसद निखिल कुमार चौधरी, झांसी लक्ष्मी बोट्चा और सुस्मिता बौरी थे। सांसदों ने ग्रामीणों को भी खाद्य सुरक्षा के साथ -साथ स्वच्छता और सुरक्षित पेयजल उपलब्ध कराने की आवश्यकता पर बल दिया।

फ़िरदौस ख़ानप्लास्टिक कचरा पर्यावरण के लिए एक गंभीर संकट बना हुआ है। हर परिवार हर साल क़रीब तीन-4 किलो प्लास्टिक थैलों का इस्तेमाल करता है। बाद में यही प्लास्टिक के थैले कूड़े के रूप में पर्यावरण के लिए मुसीबत बनते हैं। पिछले साल देश में 29 लाख टन प्लास्टिक कचरा था, जिसमें से करीब 15 लाख टन कचरा सिर्फ़ प्लास्टिक का ही था। एक रिपोर्ट के मुताबिक़ देश में हर साल 30-40 लाख टन प्लास्टिक का उत्पादन किया जाता है। इसमें से क़रीब आधा यानी 20 लाख टन प्लास्टिक रिसाइक्लिंग के लिए मुहैया होता है। हालांकि हर साल क़रीब साढ़े सात लाख टन कूड़े की रिसाइक्लिंग की जाती है। कूड़े की रिसाइक्लिंग को उद्योग को दर्जा हासिल है और सालाना क़रीब 25 अरब रुपये का कारोबार है। देश में प्लास्टिक का रसाइक्लिंग करने वाली छोटी-बड़ी 20 हज़ार इकाइयां हैं।

देश के करीब 10 लाख प्लास्टिक संग्रह के काम में लगे हैं, जिनमें महिलाएं और बच्चे भी बड़ी तादाद में शामिल हैं। इन महिलाओं और बच्चों को कूड़े से कागज और प्लास्टिक बीनते हुए देखा जा सकता है। ये लोग अपने स्वास्थ्य को दांव पर लगाकर कूड़ा बीनते हैं इसके बावजूद इन्हें वाजिब मेहनताना तक नहीं मिल पाता। हालांकि इस धंधे में बिचौलिये (कबाड़ी) चांदी कूटते हैं।

केन्द्र सरकार ने भी प्लास्टिक कचरे से पर्यावरण को होने वाले नुकसान का आकलन कराया है। इसके लिए कई समितियां और कार्यबल गठित किए गए हैं। दरअसल, प्लास्टिक थैलों के इस्तेमाल से होने वाली समस्याएं ज़्यादातर कचरा प्रबंधन प्रणालियों की खामियों की वजह से पैदा हुई हैं। प्लास्टिक का यह कचरा नालियों और सीवरेज व्यवस्था को ठप कर देता है। इतना ही नहीं नदियों में भी इनकी वजह से बहाव पर असर पड़ता है और पानी के दूषित होने से मछलियों की मौत तक हो जाती है। इतना ही नहीं कूड़े के ढेर पर पड़ी प्लास्टिक की थैलियों को खाकर आवारा पशुओं की भी बड़ी तादाद में मौतें हो रही हैं।

रि-साइकिल किए गए या रंगीन प्लास्टिक थैलों में ऐसे रसायन होते हैं जो जमीन में पहुंच जाते हैं और इससे मिट्टी और भूगर्भीय जल विषैला बन सकता है। जिन उद्योगों में पर्यावरण की दृष्टि से बेहतर तकनीक वाली रि-साइकिलिंग इकाइयां नहीं लगी होतीं। उनमें रिसाइक्लिंग के दौरान पैदा होने वाले विषैले धुएं से वायु प्रदूषण फैलता है। प्लास्टिक एक ऐसा पदार्थ है जो सहज रूप से मिट्टी में घुल-मिल नहीं सकता। इसे अगर मिट्टी में छोड़ दिया जाए तो भूगर्भीय जल की रिचार्जिंग को रोक सकता है। इसके अलावा प्लास्टिक उत्पादों के गुणों के सुधार के लिए और उनको मिट्टी से घुलनशील बनाने के इरादे से जो रासायनिक पदार्थ और रंग आदि उनमें आमतौर पर मिलाए जाते हैं, वे भी अमूमन स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं।

स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि प्लास्टिक मूल रूप से नुकसानदायक नहीं होता, लेकिन प्लास्टिक के थैले अनेक हानिकारक रंगों/रंजक और अन्य तमाम प्रकार के अकार्बनिक रसायनों को मिलाकर बनाए जाते हैं। रंग और रंजक एक प्रकार के औद्योगिक उत्पाद होते हैं जिनका इस्तेमाल प्लास्टिक थैलों को चमकीला रंग देने के लिए किया जाता है। इनमें से कुछ रसायन कैंसर को जन्म दे सकते हैं और कुछ खाद्य पदार्थों को विषैला बनाने में सक्षम होते हैं। रंजक पदार्थों में  कैडमियम जैसी जो धातुएं होती हैं, जो स्वास्थ्य के लिए बेहद नुक़सानदेह हैं। थोड़ी-थोड़ी मात्रा में कैडमियम के इस्तेमाल से उल्टियां हो सकती हैं और दिल का आकार बढ़ सकता है। लम्बे समय तक जस्ता के इस्तेमाल से मस्तिष्क के ऊतकों का क्षरण होने लगता है।

हालांकि पर्यावरण और वन मंत्रालय ने रि-साइकिंल्ड प्लास्टिक मैन्यूफैक्चर ऐंड यूसेज रूल्सए 1999 जारी किया था। इसे 2003 में पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम-1968 के तहत संशोधित किया गया है, ताकि प्लास्टिक की थैलियों और डिब्बों का नियमन और प्रबंधन सही तरीके से किया जा सके। भारतीय मानक ब्यूरो (बीआईएस) ने धरती में घुलनशील प्लास्टिक के 10 मानकों के बारे में अधिसूचना जारी की है। मगर इसके बावजूद हालात वही 'ढाक के तीन पात' वाले ही हैं।

प्लास्टिक के कचरे से निपटने के लिए अनेक राज्यों ने तुलनात्मक दृष्टि से मोटे थैलों का उपाय सुझाया है। ठोस कचरे की धारा में इस प्रकार के थैलों का प्रवाह काफी हद तक कम हो सकेगा, क्योंकि कचरा बीनने वाले रिसाइकिलिंग के लिए उनको अन्य कचरे से अलग कर देंगे। अगर प्लास्टिक थैलियों की मोटाई बढ़ा दी जाए तो इससे वे थोड़े महंगे हो जाएंगे और उनके इस्तेमाल में कुछ कमी आएगी।

जम्मू एवं कश्मीर, सिक्किम व पश्चिम बंगाल ने पर्यटन केन्द्रों पर प्लास्टिक थैलियों और बोतलों के इस्तेमाल पर पाबंदी लगा दी है। हिमाचल प्रदेश सरकार ने एक कानून के तहत प्रदेश में प्लास्टिक के इस्तेमाल पर पाबंदी लगा दी है। इतना ही नहीं हिमाचल प्रदेश राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने लोक निर्माण विभाग (पीडब्ल्यूडी) के सहयोग से नमूने के तौर पर शिमला के बाहरी हिस्से में प्लास्टिक कचरे के इस्तेमाल से तीन सड़कों का निर्माण किया है। इस कामयाबी से उत्साहित हिमाचल सरकार ने अब सड़क निर्माण में प्लास्टिक कचरे का इस्तेमाल करने का फैसला किया है।

एक सरकारी प्रवक्ता के मुताबिक राज्य में 'पॉलीथिन हटाओ, पर्यावरण बचाओ' मुहिम के तहत करीब 1381 क्विंटल प्लास्टिक कचरा जुटाया गया है। पूरे प्लास्टिक कचरे का इस्तेमाल राज्य में प्लास्टिक-कोलतार मिश्रित सड़क के निर्माण्ा में किया जाएगा। यह कचरा 138 किलोमीटर सड़क के निर्माण के लिए काफी है। अगर मिश्रण में 15 प्रतिशत प्लास्टिक मिलाया जाए तो इससे कोलतार की इतनी ही मात्रा की बचत होगी और इससे प्रति किलोमीटर सड़क निर्माण में 35 से 40 हजार रुपये की बचत होगी।

मध्य प्रदेश में प्लास्टिक के कचरे को सीमेंट फैक्ट्रियों में ईंधन के तौर पर इस्तेमाल करने की कवायद जारी है। बताया जा रहा है कि विभिन्न प्रयोगों और परीक्षणों में पाया गया है कि रिसाइकिल न होने वाला प्लास्टिक कचरा एक हजार डिग्री से ज्यादा तापमान पर नष्ट हो जाता है। अधिक तापमान होने की वजह से इससे विषैली गैसें भी नहीं निकलतीं और यह कोयले से भी ज्यादा ऊर्जा पैदा करता है। हालांकि अभी इस पर अमल नहीं हो पाया है, इसलिए यह कहना मुश्किल है कि इसका नतीजा क्या होगा।

अन्य राज्यों को भी हिमाचल प्रदेश से प्रेरणा लेकर प्लास्टिक कचरे का इस्तेमाल सड़क निर्माण आदि में करना चाहिए। प्लास्टिक के कचरे की समस्या से निजात पाने के लिए ज़रूरी है कि प्लास्टिक थैलियों के विकल्प के रूप में जूट से बने थैलों का इस्तेमाल ज़्यादा से ज़्यादा किया जाए। साथ ही प्लास्टिक कचरे का समुचित इस्तेमाल किया जाना चाहिए। जैविक दृष्टि से घुलनशील प्लास्टिक के विकास के लिए अनुसंधान कार्य जारी है और उम्मीद की जा सकती है कि जल्द ही वैज्ञानिकों को इसमें कामयाबी ज़रूर मिलेगी।

सरफ़राज़ ख़ान
नई दिल्ली. जो लोग सक्रिय जीवन शैली को अपनाते हैं, उनमें बैठकर जिन्दगी बिताने वालों की तुलना में कैंसर होने का खतरा कम होता है। हार्ट केयर फाउंडेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. के के अग्रवाल के मुताबिक़ जापान के स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा कराये गए एक शोध में यह खुलासा किया गया है कि जो पुरुश सबसे ज्यादा सक्रिय रहे, उनमें सबसे कम सक्रिय रहने वालों की तुलना में कैंसर का खतरा 13 फीसदी कम हुआ। जबकि महिलाओं में सक्रिय वालों की तुलना में बैठकर जीवन बिताने वालों की तुलना में कैंसर का खतरा 16 फीसदी कम दर्ज किया गया।

यह अध्ययन जो अमेरिकन जर्नल ऑफ एपिडमियालॉजली में प्रकाशित हुआ है जिसमें षोधकर्ताओं ने जापान के नौ प्रीफेक्चर के करीब 80,000 पुरुश और महिलाओं पर जो 45 से 74 साल की थीं। उन्होंने काम करने के हिसाब से आबादी को चार समूहों में बांटा और व्यक्तिगत मेटाबॉलिक रेट या एमईटी (मेटाबॉलिक इक्विवैलेंट) को देखा जिसमें बैठने, टहलने, खड़े रहने, सोने और व्यायाम करने का वक्त नोट किया गया।

यह ट्रेंड जापानी महिलाओं में खासकर देखने लायक रहा जिन्होंने नियमित व्यायाम किया और सक्रिय जीवन शैली को अपनाया, उनमें कैंसर का खतरा बहुत कम पाया गया।

सरफ़राज़ ख़ान
नई दिल्ली. महिलाएं मधुमेह से बचाव के लिए हरी सब्जियों और साबुत फलों का सेवन अधिक करें साथ ही फ्रूट जूस से बचें। हार्ट केयर फाउंडेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. के के अग्रवाल के मुताबिक़ रोजाना एक साबुत फल तीन बार लेना चाहिए साथ ही एक हरी पत्ती वाली सब्जी अतिरिक्त लें, क्योंकि इससे 18 की उम्र के बाद होने वाली मधुमेह की समस्या का खतरा कम होता है। यह खुलासा नर्सेज हेल्थ स्टडी के एक अध्ययन में किया गया है जिसमें 71,346 महिलाओं पर इसे अपनाया गया।

टयूलेन यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ एंड ट्रॉपिकल मेडिसिन, न्यू ऑश्रलीन्स के डॉ. लीडिया ए बजानो ने नर्सेज हेल्थ स्टडी का विश्लेषण किया। इसमें हिस्सा लेने वाली महिलाओं में से 4,529 महिलाओं में टाइप 2 डायबिटीज हुई। अध्ययन में महिलाओं को सब्जी और फलों के सेवन के हिसाब से पांच समूहों में बांटा साथ ही फ्रूट जूस लेने वालों को भी विशेष समूह में रखा।

उन्होंने पाया कि जिन्होंने रोजाना तीन दफा साबुत फल लिये उनमें टाइप 2 डायबिटीज का खतरा 18 फीसदी कम हुआ और साथ में अगर एक पत्ती वाली सबजी भी साथ में ली तो इस खतरे में 9 फीसदी की कटौती और हुई, लेकिन रोजाना फ्रूट जूस लेने से डायबिटीज का खतरा 18 फीसदी बढ़ जाता है।

जूस में शुगर काफी होता है और यह तरल पदार्थ के रूप में तेजी से जज्ब हो जाता है। कुछ पेयों में जो बेहतर स्वास्थ्य के लिए दिये जाते हैं, उनमें फ्रूट जूस होता से जिस्से परहेज करना चाहिए। फ्रूट जूस 100 फीसदी फल लेने जैसा नहीं होता।

स्टार न्यूज़ एजेंसी
नई दिल्ली.
पूर्वी राजस्थान और दिल्ली तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश एवं उत्तरी मध्य प्रदेश के कुछ भागों में लू का प्रकोप जारी है। मौसम विभाग के अनुसार उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक तापमान आगरा में 46.5 सेल्सियस रहा।

ताजा पश्चिमी विक्षोभ से कल पश्चिमी हिमालय क्षेत्र के प्रभावित होने का अनुमान है। 26 जून तक देश के दक्षिणी भागों और उप-हिमालयी, पश्चिमी बंगाल और सिक्किम में व्यापक वर्षा हो सकती है। कोंकण एवं गोवा, तटीय कर्नाटक, अंडमान-निकोबार द्वीप समूह, केरल, लक्षद्वीप में व्यापक वर्षा या तेज बौछार पड़ सकती हैं। अगले चौबीस घंटों के दौरान आंध्र प्रदेश, ओडिशा, झारखंड, बिहार और गंगा के मैदान (पश्चिम बंगाल) में छिटपुट वर्षा की संभावना है।

जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश तथा उत्तराखंड में अगले 24 घंटों में छिटपुट  वर्षा या तेज बौछार पड़ने का अनुमान है।

स्टार न्यूज़ एजेंसी
नई दिल्ली.
केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने फलों  को पकाने के लिए कार्बाइड गैस के इस्तेमाल की कड़ी निगरानी को कहा है। खाद्य अपमिश्रण निवारण नियम 1955 के विनियम 44 एए के तहत फलों को पकाने के लिए कार्बाइड गैस का इस्तेमाल प्रतिबंधित है। सभी राज्यों के खाद्य (स्वास्थ्य) अधिकारियों को भेजे परिपत्र में भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण ने कानून के उल्लंघन के लिए कानूनी कार्रवाई करने की आवश्यकता पर बल दिया है।

केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण राज्य मंत्री दिनेश त्रिवेदी ने अधिकारियों को निर्देश दिया है कि वे राज्यों के साथ यह मामला उठाएं। त्रिवेदी ने इसे लाखों उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य के लिए जरूरी मसले के रूप मे उठाने को कहा है। वे महसूस करते हैं कि कारोबारी, खुदरा व्यापारी और कभी-कभी उत्पादक भी फलों की नियमित आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए उन्हें पकाने के वास्ते हर तरह की अनैतिक और अस्वास्थ्यकर विधियां अपनाते हैं।

अशोक हांडू
एक जाने माने आर्थिक विचार-मंडल भारतीय अर्थव्यवस्था निगरानी केंद्र (सीएमआईई) ने अनुमान लगाया है कि मौजूदा वित्त वर्ष में भारतीय अर्थव्यवस्था 9.2 फीसदी की दर से वृध्दि करेगी। यह अनुमान सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक के अनुमानों से कहीं बहुत ज्यादा है। सीएमआईई का कहना है कि उसका यह अनुमान औद्योगिक तथा उससे संबध्द क्षेत्रों के साथ साथ कृषि क्षेत्र के बेहतर निष्पादन की आशा पर आधारित है। हालांकि उसने साथ ही यह भी कहा है कि बहुत कुछ इस वर्ष मानसून अच्छा रहने पर निर्भर करेगा।

यह आकलन सरकार द्वारा जारी प्राथमिक आंकड़ों के अनुरूप ही है। वित्त मंत्रालय ने मौजूद वित्त वर्ष की पहली तिमाही में 8.9 फीसदी की वृध्दि की आशा व्यक्त की थी। यह मार्च 2010 में समाप्त हुए पिछले वित्त वर्ष की पहली तिमाही की तुलना में 0.3 फीसदी अधिक है। उद्योग जगत ने अप्रैल में 17.6 फीसदी वृध्दि दर्ज की जो पिछले 20 वर्ष में दिसंबर, 2009 में दर्ज 17.7 फीसदी की रिकार्ड वृध्दिदर के लगभग बराबर है। यह सशक्त वृध्दि पूंजीगत और उपभोक्ता दोनों तरह के जींसों में देखी गयी है।

मई में निर्यात 35 फीसदी बढक़र 16.1 अरब डालर तक पहुंच गया। हालांकि आयात में भी 19.8 फीसदी की वृध्दि हुई और वह 27.4 अरब डालर हो गया है।  आयात और निर्यात में 11.3 अरब डालर का अंतर है। अप्रैल में भी निर्यात में करीब 35 फीसदी की बढोत्तरी हुई थी। इन सभी बातों से उम्मीद की किरण दिखती है। कुछ अर्थशास्त्रियों ने भारतीय अर्थव्यवस्था की मौजूदा स्थिति को सुहाना बताया है। उन्होंने इसे कम अस्थिरता के साथ ठोस वित्तीय क्षेत्र की संज्ञा दी है।

हालांकि मुद्रास्फीति और वित्तीय घाटे के मोर्चे पर चिंता भी है। मई के आंकड़े बताते हैं कि मुद्रास्फीति दर 10.2 फीसदी  थी। इसका हल किया जाना बहुत जरूरी है लेकिन यह रातोंरात नहीं हो सकता। सरकार आपूर्ति और मांग दोनों पक्षों पर ध्यान देते हुए सुव्यवस्थित ढंग से स्थिति से निबट रही है। रिजर्व बैंक ने खाद्य मुद्रास्फीति को थामने एवं उसे विनिर्मित वस्तुओं तक फैलने से रोकने के लिए इस वर्ष दो बार महत्त्वपूर्ण दरों में वृध्दि की है। सौभाग्य से, खाद्य मुद्रास्फीति दिसंबर की 20 फीसदी से घटकर अब 16 फीसदी हो गयी है। रिजर्व बैंक 27 जुलाई को स्थिति की समीक्षा करेगा।

आपूर्ति पक्ष के लिए राष्ट्र ने इस वर्ष अच्छे मानसून पर अपनी उम्मीदें टिका रखी हैं। मौसम विभाग ने भी इस वर्ष सामान्य मानसून का अनुमान व्यक्त किया है। अबतक के मानसून की स्थिति पर गौर करने से यह अनुमान सही जान पड़ता दिख रहा है।
सरकार ने बाजार में अपनी आपूर्ति बढाने के लिए कुछ जींसों के शुल्कमुक्त आयात की भी अनुमति दी है।

लेकिन अंतत: कृषि क्षेत्र ही वृध्दि लक्ष्यों को साकार करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की हाल की कृषि उत्पाद वृध्दि दो फीसदी से बढाक़र चार फीसदी करने की अपील को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए। योजना आयोग ने वर्ष 2012 से शुरू होने वाली 12 वीं पंचवर्षीय योजना पर काम करना शुरू कर दिया है और वह 12 फीसदी की वृध्दि लक्ष्यों पर ध्यान केंद्रित कर रहा है। यह ग्यारहवीं योजना में 8.1 फीसदी की लक्षित वृध्दि की पृष्ठभूमि में ही होगा। पहले ग्यारहवीं योजना के लिए वृध्दि दर 9 फीसदी तय की गयी थी लेकिन वैश्विक आर्थिक संकट के मद्देनजर इसे नीचे लाना पड़ा।

कृषि क्षेत्र में मंद वृध्दि के कारणों में एक उसकी वर्षों तक सतत उपेक्षा भी है। पिछले दो योजनाएं कृषि क्षेत्र में वांछित वृध्दि हासिल करने में विफल रहीं। योजना आयोग के उपाध्यक्ष डॉ. मोंटेक सिंह अहलूवालिया भी इस बात से सहमत हैं कि हमें इस क्षेत्र में अभी काफी कुछ करना है। सरकार ने भी इस बात को समझा है। इसकी पुष्टि हाल ही में कृषि उत्पादों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में भारी वृध्दि से होती है। सरकार ने यह फैसला किसानों के हित में लिया है। हालांकि कुछ लोगों की यह दलील है कि इससे पहले से मंहगे कृषि जींसों के दाम और बढेंग़े। लेकिन ऐसा कुछ समय तक ही होगा। दीर्घकाल में जैसे ही कृषि कार्य लाभकारी बन जाएगा, आपूर्ति पक्ष सुधरेगा और कीमतें नीचे आएंगी।

आपको यह स्वीकारना होगा कि उच्च मुद्रास्फीति भारत के लिए कोई अजीब बात नहीं है। चीन में 19 महीनों में मई में सर्वाधिक मुद्रास्फीति रही। लेकिन यह हमारे लिए तसल्ली वाली बात नहीं है। मुद्रास्फीति पांच फीसदी के अंदर लाया जाना है तथा वित्तीय घाटा भी काफी कम किया जाना है।

यह संतोष की बात है कि सरकार को विश्वास है कि वह इस साल के अंत तक उच्च वृध्दि और निम्न मुद्रास्फीति दोनों मोर्चे पर सफल रहेगी और नया वित्त वर्ष की शुरूआत काफी अच्छी होगी। यदि ऐसा होता है तो देश और उसकी जनता के लिए आर्थिक विकास का नया परिदृश्य सामने आ जाएगा।



फ़िरदौस ख़ान
यह बात सुनने में ज़रूर अजीब लगे, मगर है सोलह आने सच.  हालांकि सऊदी अरब इस्लाम,  तेल के कुंओंअय्याश शेखों और जंगली क़ानून के लिए जाना जाता हैलेकिन पिछले कुछ बरसों में यहां की जीवन शैली में ख़ासा बदलाव आया है. यहां की महिलाएं भी अब इंसान होने का हक़ मांगने लगी हैं. वे ऐसी ज़िन्दगी की अभिलाषा करने लगी हैं, जिसमें उनके साथ ग़ुलामों जैसा बर्ताव न किया जाए.  शायद इसलिए ही वे तनख्वाह पर शौहर रखने लगी हैं.

मैमूना का कहना कि यहां की महिलाएं बंदिशों के बीच ज़िन्दगी गुज़ारती हैं. उन्हें हर बात के लिए अपने पिता, भाईशौहर या बेटे पर निर्भर रहना पड़ता हैलेकिन अब बदलाव की हवा चलने लगी है. जो लड़कियां यूरोपीय देशों में पढ़कर आती हैंवे इस माहौल में नहीं रह पातीं. उनकी देखा-देखा देखी यहां की लड़कियों में भी बदलाव आया है. यहां की महिलाएं विदेशी लड़कों को पसंद करने लगी हैं, क्योंकि वो उन पर ज़ुल्म  नहीं करते. उनके जज़्बात को समझते हैं. उनके साथ जंगलियों जैसा बर्ताव नहीं करते.  वे हिन्दुस्तान और पाकिस्तान से रोज़गार के लिए आने वाले बेरोज़गार  लड़कों को एक समझौते के तहत अपना शौहर बनाती हैं और इसके लिए बाक़ायदा उन्हें तनख्वाह देती हैं. उनका मानना है कि ऐसे रिश्तों में महिलाएं  अपनी बात रख सकती हैं और उनकी ज़िन्दगी ग़ुलामों जैसी नहीं होती. 

अरब न्यूज़ के मुताबिक़ कुछ अरसे पहले ही ऐसी शादी करने वाली रिग़दा का कहना है कि इस विवाह से उसकी कई परेशानियां दूर हो गई हैं. उसने बताया कि अपनी पहली नाकाम और तल्ख़ अनुभव वाली शादी के बाद उसने तय कर लिया था कि अब वह कभी शादी नहीं करेगीलेकिन एक दिन उसकी एक सहेली ने उसे सलाह दी कि वह किसी बेरोज़गार लड़के से शादी कर ले. उसने बताया कि पहले तो उसे यह बात मज़ाक सी लगी, लेकिन जब मिसालें सामने आईं तो ऐसा लगा जैसे यह 'सौदा' दोहरे फ़ायदे का है यानी एक तो क़ानूनी सरपरस्त (संरक्षक) मिल जाएगा और वह हुक्म देने वाले के बजाय हुक्म मानने वाला होगा. उसने बताया कि वह जब भी किसी बात की इजाज़त मांगती थी तो उसका शौहर उसे बहुत प्रताड़ित और परेशान किया करता था और इस तरह उसके हर काम में महीनों की देर हो जाती थी, लेकिन अब हालत यह है कि उसका तनख्वाह वाला शौहर उसे हर काम की फ़ौरन इजाज़त दे देता है.

इसी तरह का विवाह करने वाले माजिद ने बताया कि शादी से पहले वो टैक्सी ड्राइवर था. एक दिन उसे वह सवारी मिल गई, जो अब उसकी बीवी है. उसने बताया कि बतौर ड्राइवर जहां वह बड़ी मुश्किल से दो हज़ार रियाल (अरब की मुद्रा) कमा पाता था, वहीं अब उसे बीवी से छह हज़ार रियाल मिल जाते हैं. माजिद ने बताया कि उसकी बीवी ने तो यहां तक कह दिया है कि अगर वो उच्च शिक्षा हासिल करना चाहता है तो उसका ख़र्च भी वह उठाने के लिए तैयार है. उसकी बीवी उम्र में उससे 14 साल बड़ी है. माजिद ने कहा कि उसकी बीवी ने उससे यह भी वादा किया है कि कुछ साल बाद वो किसी जवान लड़की से उसकी शादी करा देगी.

रीम नाम की एक महिला ने बताया कि उसने भी एक बेरोज़गार लड़के से शादी की थी. इसके लिए बाक़ायदा वो अपने शौहर को तनख्वाह देती है, लेकिन उसने यह काम अपने घर वालों से छुपकर किया. जब लड़के को इस बात का पता चला तो वो उससे ज़्यादा पैसों की मांग करने लगा.  इसके बावजूद यह रिश्ता फ़ायदे का ही रहा.

हाल ही में सऊदी अरब से हिन्दुस्तान आए मुबीन (हंसते हुए) कहते हैं कि मैं भी सोच रहा हूं कि क्यों न एक निकाह वहां भी कर लूं. आख़िर चार निकाह का 'विशेषाधिकार' जो  मिला हुआ है. वे बताते हैं कि उनके शादीशुदा पाकिस्तानी दोस्त अबरार  ने वहां की महिला से शादी कर ली. उसे अपनी बीवी से हर माह सात हज़ार रियाल मिल जाते हैं.  इसके अलावा उसे रहने को अच्छा मकान भी मिल गया है. कपड़े और खाने का ख़र्च तो उसकी बीवी ही उठाती है.  वे  यह भी  बताते हैं कि शादी का यह सौदा दोनों के लिए फ़ायदेमंद साबित हो रहा है. जहां बेरोज़गार लड़कों को  शादी रूपी  नौकरी से अच्छी तनख्वाह   मिल जाती है, वहीं महिलाओं को भी उनकी पसंद के कम उम्र के लड़के मिल जाते हैं.

जयपुर की शायदा इस मुद्दे पर हैरानी जताते हुए कहती हैं कि क्या सचमुच सऊदी अरब में ऐसा हो रहा है. शायदा के शौहर परवेज़ को अरब गए पांच साल हो गए. उनके तीन बच्चे भी हैं. मगर पलभर ही वे उदास होते हुए कहती हैं कि कहीं उनके शौहर ने भी तो वहां नया घर नहीं बसा लिया. अगर ऐसा हुआ तो उसका क्या होगायह सब कहते हुए उसकी आंखें भीग जाती हैं और गला रुंध जाता है. शायदा का सवाल उन औरतों के दर्द को बयां करता है, जिनके शौहर रोज़ी-रोटी के लिए परदेस गए हैं और लालच या मजबूरी में वहां अपने घर बसाए बैठे हैं.   
     
क़ाबिले-गौर है कि सऊदी अरब में शरिया (इस्लामी क़ानून) लागू है. यहां की महिलाओं पर तरह-तरह की बंदिशें हैं.  शायद इसलिए अमीर औरतें शादी का 'सौदा' कर रही हैं. इनमें ज़्यादातर वे अमीर महिलाएं शामिल हैं, जिनकी शादीशुदा ज़िन्दगी अच्छी नहीं है और वो बेहतर ज़िन्दगी जीने की हिम्मत रखती हैं. वरना यहां ऐसी औरतों की कमी नहीं है, जिनका अपना कोई वजूद नहीं है. बस वह एक मशीनी ज़िन्दगी गुज़ार रही हैंजिसमें उनकी ख़ुशी या गम कोई मायने नहीं रखता.  वैसे ऐसी औरतें हर जगह पाई जाती हैं, जो सारी उम्र सिर्फ़ औरत होने की सज़ा झेलती हैं.    

सऊदी अरब के न्याय मंत्रालय की 2007 की वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक़ सऊदी अरब में हर रोज़ क़रीब 357 निकाह होते हैं, लेकिन 78 जोड़े रोज़ तलाक़ भी ले लेते हैं.  तलाक़ के कुल 28 हज़ार 561 मामलों में से 25 हज़ार 697 में तो पति और पत्नी दोनों ही सऊदी अरब के थे, जबकि अन्य मामलों में दंपति में सिर्फ़ एक ही इस देश का था. रिपोर्ट में बताया गया है कि इस दौरान मुल्क में एक लाख 30 हज़ार 451 निकाह हुए.  मक्का में सबसे ज़्यादा 34 हज़ार 702 निकाह हुए और 8318 तलाक़ हुए, जबकि 28 हज़ार 269 शादियों और 9293 तलाक़ के मामलों के साथ रियाद दूसरे स्थान पर था. एक हज़ार 892 दंपत्तियों ने अदालत में तलाक़ की अर्जी दाख़िल करने के बावजूद समझौता कर लिया और उनकी शादी बच गई.

क़ाबिले-गौर यह भी है कि सऊदी अरब में विवाह के लिए लड़कियों की न्यूनतम उम्र भी निर्धारित नहीं है. इसका फ़ायदा उठाते हुए बूढ़े शेख़ गरीब घरों की कम उम्र की बच्चियों से शादी कर लेते हैं. कुछ साल बाद समझदार होने पर ये अमीर हुई लड़कियां अपने लिए शौहर खरीद लेती हैं. तब तक कुछ विधवा हो चुकी होती हैं और कुछ तलाक़ ले लेती हैं. 

इसी साल अप्रैल में  रियाद के बुराइधा क़स्बे की एक अदालत ने 12 साल की एक लड़की को उसके 80 साल के शौहर से तलाक़ दिलाया था.  पिछले इस लड़की की मर्ज़ी के खिलाफ़ उसके परिवार वालों ने उसकी शादी उसके पिता के 80 वर्षीय चचेरे भाई से कर दी गई थी. बदले में उसके परिवारवालों को क़रीब साढ़े 14 हज़ार डॉलर मिले थे. इस ज़ुल्म के खिलाफ़ लड़की ने आवाज़ उठाई और रियाद के बुराइधा क़स्बे की एक अदालत में तलाक़ के लिए अर्ज़ी दाख़िल कर दी. लड़की की क़िस्मत अच्छी थी उसे तलाक़ मिल गया. राहत की बात यह भी है कि अब वहां की सरकार इस मसले पर पहली बार लड़कियों की शादी की न्यूनतम उम्र तय करने पर गौर कर रही है. मानवाधिकारों संगठनों ने भी लड़कियों की शादी की न्यूनतम उम्र 16 साल निश्चित करने की सिफ़ारिश की है. अब सरकार ने इस बारे में फ़ैसला लेने के लिए तीन समितियों का गठन किया है.

यह खुशनुमा अहसास है कि सऊदी अरब में भी बदलाव की बयार बहने लगी है. कभी न कभी वहां की महिलाओं को वे सभी अधिकार मिल सकेंगे, जो सिर्फ़ मर्दों को ही हासिल हुए हैं.  बहरहाल एक नई सुबह की उम्मीद तो की ही जा सकती है.  

सरफ़राज़ ख़ान
नई दिल्ली. लौकी या कद्दू के रस का असर इन्सुलिन जैसा होता है। इससे मधुमेह के मरीज को अपने ब्लड शुगर को काबू रखने में मदद मिलती है। 

हार्ट केयर फाउंडेशन   ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. के के अग्रवाल  ने चीन के शोधकर्ताओं का हवाला देते हुए बताया कि पशुओं पर मधुमेह में ड्रग के तौर पर लौकी या कद्दू के रस को दिया गया ओर इससे उनमें ब्लड ग्लूकोज स्तर कम हुआ, इन्सुलिन सीक्रीशन बढ़ा व बीटा कोषिकाओं से इन्सुलिन अधिक बनता है बनिस्बत उन मधुमेह ग्रसित चूहों के जिनको यह रस नहीं दिया गया।

लौकी या कद्दू का रस मधुमेह होने वाले और जो मधुमेह से ग्रसित हैं, दोनों में ही यह बहुत अधिक फायदेमंद है। लौकी या कद्दू के रस को एषिया में मधुमेह और हाई ब्लड ग्लूकोज में उपचार के तौर पर काफी प्रयोग किया जाता है। पशुओं पर किये गये अध्ययन में दिखाया गया है कि मधुमेह से ग्रसित चूहों के रक्त में सामान्य चूहों की तुलना में 41 फीसदी इन्सुलिन कम पाया गया, उन्हें लौकी या कद्दू के रस को 30 दिन तक दिया गया जिससे ब्लड शुगर रेगुलेटिंग हार्मोन का स्तर 36 फीसदी बढ़ गया और लौकी या कद्दू का रस 30 दिन तक देने के बाद मधुमेह से ग्रसित चूहों का ब्लड ग्लूकोज स्तर गैर मधुमेह वाले चूहों जितना हो गया।


आज झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की पुण्य तिथि है. उन्होंने 17 जून 1858 को मध्य प्रदेश के ग्वालियर में अंतिम सांस ली थी.  रानी  लक्ष्मीबाई का असली नाम मनिकर्णिका उर्फ़ मनु था. उनका जन्म19 नवंबर 1835 को  उत्तर प्रदेश के वाराणसी ज़िले के भदैनी नामक नगर में हुआ था. उनके बचपन का नाम मणिकर्णिका था पर प्यार से मनु कहा जाता था. इनकी माता का नाम भागीरथी बाई और पिता का नाम मोरोपंत तांबे था. सन 1842 में इनका विवाह झांसी के राजा गंगाधर राव निवालकर के साथ हुआ, और ये झांसी की रानी बनीं. विवाह के बाद इनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया. सन 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया पर चार महीने की उम्र में ही उसकी मौत हो गई.  सन 1853 में राजा गंगाधर राव की सेहत बिगड़ने पर उन्हें दत्तक पुत्र लेने की
आज झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की पुण्य तिथि है. उन्होंने 17 जून 1858 को मध्य प्रदेश के ग्वालियर में अंतिम सांस ली थी.  रानी  लक्ष्मीबाई का असली नाम मनिकर्णिका उर्फ़ मनु था. उनका जन्म 17 अक्टूबर 1828 को  उत्तर प्रदेश के वाराणसी ज़िले के भदैनी नामक नगर में हुआ था. उनके बचपन का नाम मणिकर्णिका था पर प्यार से मनु कहा जाता था. इनकी माता का नाम भागीरथी बाई और पिता का नाम मोरोपंत तांबे था. सन 1842 में इनका विवाह झांसी के राजा गंगाधर राव निवालकर के साथ हुआ, और ये झांसी की रानी बनीं. विवाह के बाद इनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया. सन 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया पर चार महीने की उम्र में ही उसकी मौत हो गई.  सन 1853 में राजा गंगाधर राव की सेहत बिगड़ने पर उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गई. पुत्र गोद लेने के बाद राजा गंगाधर राव की 21 नवंबर 1853 में हो मौत हो गई.  दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया. रानी लक्ष्मीबाई 1857 के स्वतंत्रता  संग्राम की वीरांगना थीं.  
रानी लक्ष्मीबाई को समर्पित  सुभद्रा कुमारी चौहान की रचना 
  
सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी

चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

कानपुर के नाना की, मुंहबोली बहन छबीली थी
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी
नाना के संग पढ़ती थी वह, नाना के संग खेली थी
बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी

वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद ज़बानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

लक्ष्मी थी या दुर्गा थी, वह स्वयं वीरता की अवतार
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार
नकली युद्ध व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवाड़

महाराष्टर कुल देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झांसी में
ब्याह हुआ रानी बन आयी लक्ष्मीबाई झांसी में
राजमहल में बजी बधाई खुशियां छायी झांसी में
सुघट बुंदेलों की विरुदावलि सी वह आयी झांसी में

चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव से मिली भवानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजयाली छायी
किंतु कालगति चुपके चुपके काली घटा घेर लायी
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियां  कब भायी
रानी विधवा हुई, हाय विधि को भी नहीं दया आयी

निसंतान मरे राजाजी रानी शोक समानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

बुझा दीप झांसी का तब डलहौज़ी मन में हर्षाया
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया
फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झांसी आया

अश्रुपूर्ण रानी ने देखा झांसी हुई बिरानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट फिरंगी की माया
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया
डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया

रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों बात
कैद पेशवा था बिठुर में, हुआ नागपुर का भी घात
उदैपुर, तंजौर, सतारा, कर्नाटक की कौन बिसात?
जबकि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात

बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

रानी रोयीं रनवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार
उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार
सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार
नागपूर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार

यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान
बहिन छबीली ने रण चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान

हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी
यह स्वतंत्रता की चिन्गारी अंतरतम से आई थी
झांसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी
मेरठ, कानपूर, पटना ने भारी धूम मचाई थी

जबलपूर, कोल्हापुर में भी कुछ हलचल उकसानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुंवरसिंह सैनिक अभिराम
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम

लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

इनकी गाथा छोड़, चले हम झांसी के मैदानों में
जहां खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुंचा, आगे बड़ा जवानों में
रानी ने तलवार खींच ली, हुआ द्वंद्व असमानों में

ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

रानी बढ़ी कालपी आयी, कर सौ मील निरंतर पार
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खायी रानी से हार
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार

अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

विजय मिली पर अंग्रेज़ों की, फिर सेना घिर आई थी
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुंह की खाई थी
काना और मंदरा सखियां रानी के संग आई थी
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी

पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय घिरी अब रानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार
घोड़ा अड़ा नया घोड़ा था, इतने में आ गये सवार
रानी एक शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार पर वार

घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीरगति पानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

रानी गयी सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुष नहीं अवतारी थी
हमको जीवित करने आयी, बन स्वतंत्रता नारी थी

दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

जाओ रानी याद रखेंगे हम कृतज्ञ भारतवासी
यह तेरा बलिदान जगायेगा स्वतंत्रता अविनाशी
होये चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फांसी

हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झांसी

तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

फ़िरदौस ख़ान
ये इल्म का सौदा, ये रिसालें, ये किताबें
इक शख्स की यादों को भुलाने के लिए हैं

शायद जां निसार अख्तर साहब ने किताबों को जो अहमियत दी है, उसे किसी भी सूरत में नकारा नहीं जा सकता। यह हकीकत है कि अच्छे दोस्तों के न होने पर किताबें ही हमारी सबसे अच्छी दोस्त साबित होती हैं। यह कहना गलत न होगा कि किताबें ऐसी पारसमणि की तरह होती हैं, जिसकी छुअन से अज्ञानी भी ज्ञानी बन जाता है। बाल गंगाधर ने कहा था-अच्छी किताबों के साथ, मैं नर्क में रहने के प्रस्ताव का भी स्वागत करूंगा। यह कहना कतई गलत न होगा कि मानव की ज्ञान पिपासा का एकमात्र साधन पुस्तकालय हैं। अमूमन हर पुस्तक प्रेमी का अपना निजी पुस्तकालय होता है, जिसमें दहाई अंक से लेकर सैकड़ों पुस्तकें हो सकती हैं, लेकिन फिर भी लोगों को सरकारी या सामुदायिक (स्वयंसेवी संस्थाओं आदि के) पुस्तकालयों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। सामुदायिक पुस्तकालयों की देखरेख संबंधित संस्थाएं करती हैं, इसलिए इनकी हालत बेहतर होती है, जबकि सरकारी पुस्तकालयों की हालत महानगरों में तो अच्छी होती है, लेकिन छोटे कस्बों और गांवों में इनके रख-रखाव की दशा बेहतर नहीं कही जा सकती। हालत यह है कि इन पुस्तकालयों में रखी किताबों को दीमक चट कर जाती है।

राजीव गांधी ग्रामीण पुस्तकालय योजना के तहत विभिन्न राज्यों के देहाती इलाकों में खोले गए पुस्तकालयों की हालत खुद अपनी कहानी बयान करती है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की याद में हरियाणा के झज्जर जिले के बेरी हलके में खोली गई 51 लाइब्रेरी डेढ़ साल में ही बंद हो चुकी हैं और कुछ बंद होने के कगार पर हैं। किताबें बंद कमरों में धूल फांक रही हैं। बेरी हलके में अगस्त 2008 में बेरी के विधायक डा. रघुबीर सिंह कादियान के एच्छिक कोष से हलके के लोगों को जागरूक करने और मानसिक विकास के लिए 51 राजीव गांधी मैमोरियल पुस्तकालय बनाए गए। सोच अच्छी थी युवा भी कुसंगति से बचने के लिए पढ़ने-पढ़ाने से जुड़ सकें और बुजुर्गों र्को भी समय काटने के लिए अध्ययन के लिए अच्छा स्थान मिल सके, लेकिन बेरी उपमंडल की 42 पुस्तकालयों को आनन-फानन में चालू कर दिया गया। इसके लिए एक लाख रुपए प्रति पुस्तकालय के हिसाब से 51 लाख रुपए का अनुदान भी दिया गया। जल्दबाजी में किताबें और फर्नीचर मंगाकर पुस्तकालय खोल दिए गए। उद्धाटन से एक दिन पहले रातों रात ही पुस्तकालय के बोर्ड भी बनवा दिए गए। यही कारण है कि आज कई गांवों में किताबें अलमारियों में बंद पड़ी हैं और कई जगह पुस्तकालयों के कमरों को ही रेस्ट हाउस बना दिया गया है, जिनमें मजदूर व आने-जाने वाले आराम करते हैं। कुछ पुस्तकालयों की इमारतें भी बदल दी गई हैं। अधिकतर पुस्तकालयों में अखबार आने भी बंद हो गए हैं, क्योंकि कई माह से भुगतान न होने से एजेंटों ने भी इन पुस्तकालयों में अख़बार डलवाना बंद कर दिया है। दुजाना गांव के पुस्तकालय में मज़दूरों का रैन बसेरा बना है, तो गुढ़ा गांव के पुस्तकालय मुख्य सड़क से अंदर चौपाल में चला गया है, जहां पहले से ही आंगनबाड़ी भी है। गांव बिरधाना में तो पुस्तकालय कर्मी ने किताबें अपने मकान के स्टोर में रख ली हैं और उन पर धूल चढ़ रही है। गांव जौंधी में तो पुस्तकालय के नाम पर सिर्फ एक इमारत ही है। ग्रामीणों को किताबों का कोई अता-पता नहीं है। अन्य गांवों के पुस्तकालयों की हालत भी कमोबेश ऐसी ही है।

बेरी उपमंडल के मेन बाजार में दुकान कर रहे पेंटर सुरेश का कहना क़रीब डेढ़ साल पहले अगस्त 2008 में राजीव गांधी मैमोरियल पुस्तकालय के उदघाटन के लिए सांसद दीपेंद्र व पूर्व स्पीकर डा. रघुबीर सिंह कादयान को आना था तो बीडीओ व एडीसी कार्यालय के अफसर आए। उन्होंने रात को ही नींद से जगाकर कहा कि राजीव गांधी मैमोरियल पुस्तकालय का उदघाटन करने के लिए सुबह सांसद दीपेंद्र आ रहे हैं। पुस्तकालय के बाहर बोर्ड लगाना है और दीवारों पर भी प्रचार लिखना है। मैं रातभर काम में लगा रहा। दोपहर कार्यक्रम के बाद जब अधिकारियों से पैसे मांगे तो बोले कि ऑफ़िस में बिल भिजवा देना, अभी साहब को जाने दो। सुरेश जब 6 अगस्त 2008 को बिल काटकर सुबह ही विभाग में जब 2200 रुपए का बिल भिजवाया तो अधिकारी कहने लगे कि रख जाओ पास कराकर देंगे, लेकिन आज इस पेंटर को मात्र 2200 रुपए के लिए सैकड़ों चक्कर कटवा चुके हैं।

इसी तरह मध्य प्रदेश के विदिशा में ग्रामीण जनता को ज्ञानवर्घक पुस्तकें पढ़ाने, पढ़ाई के प्रति रूचि बढ़ाने और साक्षरता के उद्देश्य से अंचलों में खोले गए पुस्तकालय सह-संस्कृति केंद्र बंद हो गए हैं। इन पुस्तकालयों सह-संस्कृत केंद्र के लिए खरीदी गई क़रीब 82 लाख रुपये की सामग्री कहीं नष्ट हो गई और कहीं गायब होने लगी है।

शिक्षा योजना के तहत वर्ष 2003 में ग्रामीण अंचलों में पुस्तकालय सह-संस्कृति केंद्रों की स्थापना की गई थी। यह केंद्र प्राथमिक स्कूलों, आंगनबाड़ी केंद्रों, जन शिक्षा केंद्रों एवं संकुल केंद्रों में खोले गए थे। ज़िला  शिक्षा केंद्र के सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार ज़िले  में इनकी संख्या 950 थी। इनमें सामग्री खरीदने के लिए प्रति पुस्कालय 8 हजार 600 रुपये प्रदान किए गए थे। इस लिहाज से इन केंद्रों पर 81 लाख 70 हजार रुपये की राशि खर्च की गई थी। मगर बाद में केंद्र सरकार के आदेश पर इन केंद्रों को बंद कर दिया गया जिससे यह राशि व्यर्थ चली गई।

हालांकि पिछले साल सरकार ने देशभर में नए पुस्तकालय खोलने की योजना बनाई थी। इंटरनेट सुविधा से युक्त ऐसे ज्यादातर पुस्तकालय देश के ग्रामीण हिस्सों में स्थापित किए जाने थे। नए पुस्तकालय खोलने की यह योजना नेशनल मिशन ऑन लाइब्रेरीज (एनएमएल) कार्यक्रम के तहत बनाई थी। इसके तहत नए आधुनिक पुस्तकालय स्थापित किए जाएंगे। यह पुस्तकालय आधुनिक गैजेटस और इंटरनेट सुविधा से युक्त होंगे, साथ ही इनमें दूसरे पुस्तकालयों के साथ ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी भी होगी। यह पुस्तकालय अन्य पुस्तकालयों, शैक्षणिक और सांस्कृतिक संस्थानों से भी जुड़े होंगे। इन पुस्तकालयों का मकसद आधुनिक तकनीकी संबंधी सुविधाओं से वंचित ग्रामीण बच्चों तक यह सुविधाएं मुहैया कराना है। इस योजना के लिए ग्रामीण इलाकों में स्कूलों के पास पुस्तकालय नहीं हैं, वहां इन्हें स्कूलों के नजदीक खोलने की भी सिफारिश की गई है।

बताया गया है कि संस्कृति मंत्रालय पूरे देश के सार्वजनिक पुस्तकालयों को भी नया रूप देने की योजना बना रहा है। देश के सभी सार्वजनिक पुस्तकालयों को आधुनिक उपकरणों से युक्त बनाया जाएगा। इस कोशिश को कब अमलीजामा पहनाया जाएगा, यह तो आने वाला वक़्त ही बताएगा।

सरफ़राज़ ख़ान
नई दिल्ली :
आमतौर पर लगातार एसिडिटी पेट में से एसिड के कुछ पाईप में जाने से होता है। हल्के मामलों में एसिडिटी को एन्टीएसिड्स, एच2 ब्लॉकर्स और प्रोटान पम्प इनहिबिटर्स व जीवन षैली और खाने की आदतों में बदलाव के जरिए काबू किया जा सकता है।

फिर भी अगर जीवन षैली प्रबंध और उपचार जिन मरीजों में कारगर नहीं होता या जिन पर जटिल बीमारियों के लक्षण नजर आएं तो उनमें फूड पाइप के कैंसर का पता लगाने के लिए एन्डोस्कोपी करानी चाहिए, क्योंकि ऐसे लक्षण का संबंध लगातार एसिडिटी के होने से होता है।

हार्ट केयर फाउंडेशन   ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. के के अग्रवाल  के मुताबिक़ जटिल समस्या के दौरान के लक्षणों में भूख में कमी, वज़न कम होना, खाना निगलने में परेशानी, रक्तस्राव और सिस्टमिक बीमारी के सूचक शामिल हैं। रीफ्लक्स के लिए जीवन षैली के बदलाव में शामिल हैं- सिर और शरीर का उन्नयन, सोने से पहले खाना लेने से परहेज और ऐसे भोजन से बचना जिससे फूड पाइप वाल्व ढीली हो जाती है  ऐसे भोजन के कुछ उदाहरण हैं- वसायुक्त भोजन, चॉकलेट, पिपरमिंट और बहुत ज्यादा शराब लेना।

ईएमएस नम्बूदिरीपाद के जन्मशताब्दी के समापन पर विशेष
(जन्म 13 जून 1909 मृत्यु 12 मई 1998)

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी
ई.एम.एस. नम्बूदिरीपाद विश्व में विरल कम्युनिस्टों में गिने जाते हैं। आम तौर पर कम्युनिस्टों की जो इमेज रही है उससे भिन्न इमेज ईएमएस की थी। मुझे निजी तौर पर ईएमएस से सन् 1983 की मई में मिलने और ढ़ेर सारी बातें करने का पहली बार मौका मिला था। मैं उन दिनों जेएनयू में भारत का छात्र फेडरेशन का अध्यक्ष था।

जेएनयू को अधिकारियों ने अनिश्चतकाल के लिए बंद कर दिया था मैं दिल्ली में ही माकपा के किसी सांसद के वी पी हाउस स्थित एम पी फ्लैट में रहता था, पैसे नहीं थे इसलिए माकपा के केन्द्रीय दफ्तर की रसोई में खाना खाता था। इस रसोई में सभी केन्द्रीय दफ्तर के कर्मचारी खाना खाते थे और सभी पोलिट ब्यूरो सदस्य भी खाना खाते थे। जेएनयू में विख्यात मई आंदोलन चल रहा था। 450 से ज्यादा छात्र तिहाड़ जेल में बंद थे। सैंकड़ों छात्रों को विश्वविद्यालय प्रशासन ने निष्कासित कर दिया था। इस अवस्था में आंदोलन को बीच में छोड़कर घर नहीं जा सकता था।

माकपा के केन्द्रीय दफ्तर में और आम सभाओं में मैंने कईबार ईएमएस को देखा और सुना था लेकिन करीब से देखने और बात करने का मौका इस बार ही मिला था। मैं उस क्षण को आज भी भूल नहीं सकता जब ईएमएस, हरिकिशन सुरजीत, वासव पुन्नैया, बी.टी. रणदिवे एक साथ खाना खा रहे थे और मैं खाना खाने के लिए हॉल में घुसा। मेरे साथ केन्द्रीय दफ्तर के एक कॉमरेड थे।

भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन के इन चार महापुरूषों को मैंने पहलीबार करीब से देखा, मेरे साथ आए कॉमरेड ने इन सभी से मेरा परिचय कराया और बातों ही बातों में मेरे साथी कॉमरेड ने सुरजीत से कहा कि मैं ज्योतिषाचार्य हूँ और पार्टी मेम्बर हूँ, संभवतः युवाओं में संस्कृत की पृष्टभूमि से कम्युनिस्ट पार्टी में आया अकेला सदस्य था। जेएनयू के कॉमरेड मुझे पंडित कहकर पुकारते थे।

उस समय ईएमएस ने मजाक में सवाल किया क्या तुम यह बता सकते हो भारत में क्रांति कब होगी? कम से कम पार्टी को तुम्हारे ज्ञान का खुछ लाभ तो मिले। मैंने तुरंत मजाक में कहा आप मुझे सटीक समय बताएं जब आप लोग भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी से वाकआउट करके बाहर आए थे मैं आपको क्रांति की सटीक भविष्यवाणी बता दूँगा। मेरे इस कथन के बाद क्रांति और ज्योतिष पर वहां उपस्थित सभी ने अपने बड़े ही रोचक विचार रखे।

मैंने पहली बार देखा कि माकपा के दफ्तर में सभी एक जैसा खाना खा रहे थे, सभी कॉमरेड अपने जूठे बर्तन धो रहे थे, सभी पोलिट ब्यूरो सदस्य भी अपने बर्तन स्वयं साफ कर रहे थे। इतने बडे कम्युनिस्ट नेताओं की इस सादगी और अनौपचारिकता का मेरे ऊपर गहरा असर पड़ा। उसके बाद ईएमएस से मुझे कई बार लंबी बातें करने का मौका मिला।

ईएमएस बेहतरीन इंसान, महान देशभक्त, लोकतंत्र के पुजारी और गंभीर बुद्धिजीवी थे। उनके पास किसी भी जटिल बात को सरलतम ढ़ंग से कहने की कला थी। वे प्रत्येक बात को जीवनानुभवों की कसौटी पर कसते थे। भारत के स्वाधीनता संग्राम में उन्होंने सक्रिय भाग लिया था।

हमारे देश में नेता अनेक हुए हैं, लेकिन देश निर्माता कम नेता हुए हैं। भारत में आधुनिक केरल के निर्माता के रूप में ईएमएस की केन्द्रीय भूमिका रही है। ईएमएस के पास भारत के साथ केरल का विज़न था। वे केरल के जर्रे-जर्रे से वाकि़फ थे। केरल में कम्युनिस्टों की पहली सरकार 1957 में उनके नेतृत्व में बनी। यह वह जमाना था जब कांग्रेस के पास नेहरू,पटेल आदि सभी दिग्गज नेता थे, देश की आजादी के नेतृत्व का विजय मुकुट इनके माथे पर रखा था। ऐसे में कम्युनिस्टों का किसी पूंजीवादी मुल्क में मतपत्रों के जरिए सत्ता में आना विश्व की विरल घटना थी।

कांग्रेस का सारा नेतृत्व ईएमएस और उनके साथी कॉमरेडों की आभा के सामने फीका पड़ चुका था। आजादी मिलने के मात्र 10 साल के अंदर कांग्रेस को देश और राज्य के अप्रासंगिक सिद्ध करना महान घटना थी। उस समय आम जनता में कांग्रेस को हराना अकल्पनीय काम था। लेकिन ईएमएस की मेधा, जनता के प्रति वचनवद्धता, राजनीतिक साख और लोकतांत्रिक राजनीतिक कार्यक्रम के आगे कांग्रेस बुरी तरह विधानसभा चुनाव में हारी। ईएमएस पहलीबार केरल के मुख्यमंत्री बने।

उनके मंत्रिमंडल की कार्यप्रणाली और पंडित नेहरू और कांग्रेसी नेताओं की कार्यप्रणाली में जमीन आसमान का अंतर था। उन दिनों प्रधानमंत्री, केन्द्रीय मंत्री और राष्ट्रपति दिल्ली के बंगलों में शानदार जिंदगी जी रहे थे। कारों के काफिले से चलते थे और गांधी के विचारों के राही होने का दावा कर रहे थे। राष्ट्रपति से लेकर केन्द्रीय मंत्रियों तक के लिए आए दिन शानदार नई कारें खरीदी जा रही थीं।

इसके विपरीत ईएमएस ने जो मंत्रीमंडल बनाया था वह सही मायने में क्रांतिकारी-गांधीवादी था। स्वयं ईएमएस साईकिल से मुख्यमंत्री कार्यालय जाते थे, साईकिल के पीछे उनका टाइपराइटर बंधा रहता था, सभी मंत्री किराए के मकानों में रहते थे। पार्टी के द्वारा निर्धारित जीवनयापन के खर्चे में गुजारा करते थे। केरल के मुख्यमंत्री और मंत्रियों की इस सादगी के सामने देश के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की सादगी की चमक फीकी थी। सारी दुनिया के कॉमरेड अचम्भित थे कि चुनाव के जरिए केरल में कॉमरेड शासन चला रहे हैं।

भारत के कम्युनिस्टों और क्रांतिकारियों ने आजादी की जंग में जबर्दस्त कुर्बानियां दीं और बाद में लोकतंत्र के निर्माण के लिए सबसे ज्यादा कुर्बानियां दीं। भारत के कम्युनिस्टों ने ईएमएस जैसे क्रांतिकारी की लोकतंत्र की महान सेवाओं के जरिए यह दिखाया है कि राज्य का मुख्यमंत्री कैसा होता है।

आधुनिक केरल के निर्माण में कम्युनिस्टों की भूमिका को देखें और आज के मुख्यमंत्रियों की भूमिका और राजनीति देखें तो सही ढ़ंग से समझ सकते हैं कि मुख्यमंत्री को सीईओ नहीं राज्य निर्माता होना चाहिए। पूंजीपतियों-सामंतों का चाकर नहीं जनता का सेवक-संरक्षक और मार्गदर्शक होना चाहिए।

ईएमएस के व्यक्तित्व की खूबी थी कि वे बेहद सरल, ईमानदार और सहज इंसान थे। उन्हें पार्टी से जितना प्यार था लेखन और अध्ययन से भी उतना ही प्यार था। वे प्रतिदिन लिखते और पढ़ते थे। संभवतः भारत के वे अकेले राजनेता हैं जिन्होंने भारत की राजनीति, संस्कृति, इतिहास, साहित्य, मार्क्सवाद आदि पर सबसे ज्यादा लिखा है। उनके द्वारा लिखित सामग्री 100 से ज्यादा खंड़ों में मलयालम में है, जो क्रमशः प्रकाशित हो रही है। यह सामग्री उन्होंने नियमित लेखक के नाते लिखी है। देश-विदेश की समस्याओं और नीतिगत सवालों पर ईएमएस का विज़न, कर्म और लेखन आज भी हमारे लिए नई रोशनी देता है।
(लेखक वामपंथी चिंतक और कलकत्‍ता वि‍श्‍ववि‍द्यालय के हि‍न्‍दी वि‍भाग में प्रोफेसर हैं)


रत्नेश त्रिपाठी

वर्तमान में विज्ञान शब्द सुनते ही सबकी गर्दन पश्चिम की ओर मुड़ जाती है। ऐसा लगता है कि विज्ञान का आधार ही पश्चिम कीदेन हो तथा भविष्य भी उनके वैज्ञानिकों के ऊपर टिका हो! परन्तु क्या हमने यह जानने का प्रयास किया है कि ऐसा क्यों है? याहमारी मनोदशा ऐसी क्यों है कि जब भी विज्ञान या अन्वेषण की बात आयी है तो हम बरबस ही पश्चिम का नाम ले लेते हैं।इसका सबसे बड़ा कारण जो हमें नजर आता है वह यह है कि, 'अपने देश व संस्कृति के प्रति हमारी अज्ञानता व उदासीनता काभाव। या यूं कहें कि सैकड़ो वर्षों की पराधीनता नें हमारे शरीर के साथ-साथ हमारे मन को भी प्रभावित किया जिसका परिणामयह हुआ कि हम शारीरिक रुप से तो स्वतंत्र हैं किन्तु अज्ञानतावश मानसिक रुप से आज भी परतंत्र हैं। थोड़ा विचार करने परयह पता चलता है कि हीनता की यह भावना यूँ ही नही उत्पन्न हुई ! बल्कि इसके पीछे एक समुचित प्रयास दृष्टिगत होता है, जोहमारे वर्तमान पाठयक्रम के रुप में उपस्थित है। प्राइमरी शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक सभी पाठयक्रमों में वर्णित विषय पूरीतरह से पश्चिम की देन लगते हैं, जो हमारी मानसिकता को बदलने का पूरा कार्य करते हैं। आजादी के बाद से आज तक इसीपाठ्क्रम को पढ़ते-पढ़ते इतनी पीढ़ीयाँ बीत चुकीं हैं कि अगर सामान्य तौर पर देश के वैभव की बात किसी भारतीय से की जायतो वह कहेगा कि कैसा वैभव? किसका वैभव? हम तो पश्चिम को आधार मानकर अपना विकास कर रहे हैं। हमारे पास क्या है? ऐसी बात नही कि यह मनोदशा केवल सामान्य भारतीय की हो बल्कि देश  का तथाकथित विद्वान व बुध्दिजीवी वर्ग भी यहीसोचता है। इसका मूल कारण है कि आजादी के बाद भी अंग्रजों के द्वारा तैयार पाठ्क्रम का अनवरत् जारी रहना, अपने देश  केगौरवमयी इतिहास को तिरस्कृत का पश्चिमी सोच को विकसित करना। और उससे भी बड़ा कारण रहा हमारी अपनी संस्कृति, वैभव, विज्ञान, अन्वेषण, व्यापार आदि के प्रति अज्ञानता।

इस मानसिकता के संदर्भ में दो बड़े रोचक उदाहरणों को प्रस्तुत किया जा सकता है :- जिसका वर्णन 'भारत में विज्ञानकी उज्जवल परम्परा' नामक पुस्तक में रा0 स्व0 से0 संघ के सह सरकार्यवाह मा. श्री सुरेश जी सोनी नें की है।

प्रथम तो यह कि भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम नें अपनी पुस्तक 'इण्डिया-2020 : ए विजन फॉर न्यू मिलेनियम' में बताते हैं कि मेरे घर की दीवार पर एक कलैण्डर टँगा है, इस बहुरंगी कलैण्डर में सैटेलाइट के द्वारा यूरोप, अफ्रीका आदिमहाद्वीपों के लिए गये चित्र छपे हैं। ये कलैण्डर जर्मनी में छपा था। जब भी कोई व्यक्ति मेरे घर में आता था तो दीवार पर लगेकलैण्डर को देखता था, तो कहता था कि वाह! बहुत सुन्दर कलैण्डर है तब मैं कहता था कि यह जर्मनी में छपा है। यह सुनते हीउसके मन में आनन्द के भाव जग जाते थे। वह बड़े ही उत्साह से कहता था कि सही बात है, जर्मनी की बात ही कुछ और हैउसकी टेक्नालॉजी बहुत आगे है। उसी समय जब मैं उसे यह कहता कि कलैण्डर छपा तो जरुर जर्मनी में है किन्तु जो चित्र छपे हैंउसे भारतीय सैटेलाइट नें खींचे हैं, तो दुर्भाग्य से कोई भी ऐसा आदमी नही मिला जिसके चेहरे पर वही पहले जैसे आनन्द के भावआये हों। आनन्द के स्थान पर आश्चर्य के भाव आते थे, वह बोलता था कि अच्छा! ऐसा कैसे हो सकता है? और जब मै उसका हाथपकड़कर कलैण्डर के पास ले जाता था और जिस कम्पनी ने उस कलैण्डर को छापा था, उसने नीचे अपना कृतज्ञता ज्ञापन छापाथा ''जो चित्र हमने छापा है वो भारतीय सैटेलाइट नें खींचे हैं, उनके सौजन्य से हमें प्राप्त हुए हैं।'' जब व्यक्ति उस पंक्ति को पढ़ता थातो बोलता था कि अच्छा! शायद, हो सकता है।

दूसरी घटना भी इन्ही से सम्बन्धित है जब वे सिर्फ वैज्ञानिक थे। दुनिया के कुछ वैज्ञानिक रात्रिभोज पर आये हुए थे, उसमेंभारत और दुनिया के कुछ वैज्ञानिक और भारतीय नौकरशाह थे। उस भोज में विज्ञान की बात चली तो राकेट के बारे में चर्चा चलपड़ी। डॉ. कलाम नें उस चर्चा में भाग लेते हुए कहा कि कुछ समय पूर्व मैं इंलैण्ड गया था वहाँ एक बुलिच नामक स्थान है, वहाँरोटुण्डा नामक म्युजियम है। जिसमे पुराने समय के युध्दों में जिन हथियारों का प्रयोग किया गया था, उसकी प्रदर्शनी भी लगायीगयी थी। वहाँ पर आधुनिक युग में छोड़े गये राकेट का खोल था। और आधुनिक युग के इस राकेट का प्रथम प्रयोग श्रीरंगपट्टनममें टीपूसुल्तान पर जब अंग्रेजों ने आक्रमण किया था, उस युध्द में भारतीय सेना नें किया था। इस प्रकार आधुनिक युग में प्रथमराकेट का प्रक्षेपण भारत नें किया था। डॉ. कलाम लिखते हैं कि, जैसे ही मैने यह बात कही एक भारतीय नौकरशाह बोला मि. कलाम! आप गलत कहते हैं, वास्तव में तो फ्रेंच लोगों ने वह टेक्नोलॉजी टीपू सुल्तान को दी थी। डॉ. कलाम नें कहा ऐसा नही है, आप गलत कहते हैं! मैं आपको प्रमाण दूंगा। और सौभाग्य से वह प्रमाण किसी भारतीय का नही था, नही तो कहते कि तुम लोगोंने अपने मन से बना लिया है। एक ब्रिटिश वैज्ञानिक सर बर्नाड लावेल ने एक पुस्तक लिखी थी ''द ओरिजन एण्ड इंटरनेशनलइकोनॉमिक्स ऑफ स्पेस एक्सप्लोरेशन'' उस पुस्तक में वह लिखते हैं कि 'उस युध्द में जब भारतीय सेना नें राकेट का उपयोगकिया तो एक ब्रिटिश वैज्ञानिक विलियम कांग्रेह्वा ने राकेट का खोल लेकर अध्ययन किया और उसका नकल करके एक राकेटबनाया। उसने उस राकेट को 1805 में तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री विलियम पिट के सामनें प्रस्तुत किया और उन्होने इसे सेनामें प्रयुक्त करनें की अनुमति दी।' जब नैपोलियन के खिलाफ ब्रिटेन का युध्द हुआ तब ब्रिटिश सेना नें राकेट का प्रयोग किया।अगर फ्रेंचो के पास वह टेक्नोलॉजी होती तो वे भी सामने से राकेट छोड़ते, लेकिन उन्होने नही छोड़ा। जब यह पंक्तियाँ डॉ. कलामनें उस नौकरशाह को पढ़ाई तो उसको पढ़कर  भारतीय नौकरशाह बोला, बड़ा दिलचस्प मामला है। डॉ. कलाम नें कहा यह पढ़करउसे गौरव का बोध नही हुआ बल्कि उसको दिलचस्पी का मामला लगा|


यहाँ ध्यान देने योग्य बात है कि जिस ब्रिटिश वैज्ञानिक नें नकल कर के राकेट बनाया उसे इंलैण्ड का बच्चा-बच्चा जानता है।किन्तु जिन भारतीय वैज्ञानिकों ने भारत के लिए  पहला राकेट बनाया उन्हे कोई भारतीय नही जानता। यह पूरी तरह से प्रदर्शितकरता है कि हम क्या पढ़ रहे हैं? और हमे क्या पढ़ना चाहिए? जबतक प्रत्येक भारतीय पश्चिम की श्रेष्ठता और अपनी हीनता केबोध की प्रवृत्ति को नही त्यागता तब तक भारत विश्व के सर्वोच्च शिखर पर नही पहुँच सकता। ऐसे में हमे आवश्यकता है यहजानने की कि विज्ञान के क्षेत्र में भारत नें इस विश्व को क्या दिया। इसके बारे में बताने के लिए सर्वप्रथम भारत की प्राचीनस्थिति को स्पष्ट करना आवष्यक हो जाता है। क्यों कि प्राचीन भारत के प्रतिमानों के नकारने के कारण हम वर्तमान में पश्चिम की नकल करने पर मजबूर हैं। जबकि हमारे प्राचीन ज्ञानों का नकल एवं शोध करके पश्चिम, विज्ञान के क्षेत्र में उन्नति के शिखर पर विराजमान है।

प्राचीन भारत :

जब प्राचीन भारत का नाम आता है तो कम से कम हम यह तो अवश्य ही कहते हैं कि प्राचीन काल में भारत जगद्गुरु था, तथायहाँ दूध की नदियाँ बहती थीं। तो यह निश्चित रुप से कहा जा सकता है कि जहाँ सभ्यता इतनी विकसित थी कि हम जगद्गुरु कहेजाते थे तो स्वभाविक रुप से आविष्कार भी इस भूमि पर अन्यों की अपेक्षा अधिक हुए होंगे क्योंकि जहाँ व्यक्ति बुध्दिजीवी होगावहाँ आविष्कार की संभावना अधिक होगी फिलहाल य यहाँ यह जानने की आवश्यकता है कि प्राचीन काल में कौन-कौन सेप्रमुख वैज्ञानिक हुए और उन्होने विश्व को क्या दिया।

सर्वप्रथम हम चिकित्सा का क्षेत्र लेते हैं, हमारे यहाँ एक श्लोक प्रचलित है जिसे सामान्यत: सभी लोग सुनें होंगे वह है कि'सर्वेभवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कष्चिद दु:खभाग्भवेत॥' अर्थात् सभी लोग सुखी हों, सभी लोगस्वस्थ रहें ऐसी कामना की गयी है। आज के आधुनिक पढ़े लिखे शिक्षित नौजवानों को यह जानने की आवश्यकता है जो मन मेंयह बैठाये हैं या षणयन्त्र पूर्वक यह बैठाया गया है कि विज्ञान पश्चिम की देन है और सभ्यता भारत की देन है। जबकि दोनों हीभारत की देन है। यूरोपिय यह मानते हैं कि हम (भारतीय) हर दृष्टि से उनसे श्रेष्ठ हैं और वर्तमान में भी हो सकते हैं, किन्तु यह वहप्रकट नही करते क्योंकि उन्हे यह मालूम है कि हम भारतीय कुत्सित हो चुके हैं, और यही उनकी सफलता है। एक यूरोपियप्रोफेसर मैकडोनाल का कहना है कि 'विज्ञान पर यह बहस होनी चाहिए कि भारत और यूरोप में कौन महत्वपूर्ण है। वह आगेकहता है कि यह पहला स्थान है जहाँ भारतीयों ने महान रेखागणित की खोज की जिसे पूरी दुनिया नें अपनाया और दशमलव कीखोज नें गणित व विश्व को नया आयाम दिया। उसने कहा कि यहाँ बात सिर्फ गणित की नही है, यह उनके विकसित समाज काप्रमाण है जिसे हम अनदेखा करते हैं।' 8वीं से 9वीं शताब्दी में भारत अंकगणित और बीजगणित में अरब देशों  का गुरू थाजिसका अनुसरण यूरोप नें किया।

भारतीय चिकित्सा विज्ञान को 'आयुर्वेद' नाम से जाना जाता है। और यह केवल दवाओं और थिरैपी का ही नही अपितुसम्पूर्ण जीवन पध्दति का वर्णन करता है। डॉ. कैरल जिन्होने मेडिसिन के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार जीता है तथा वह लगभग 35 वर्षों तक रॉक फेल्टर इन्स्टीटयूट ऑफ मेडिकल रिसर्च, न्यूयार्क में कार्यरत रहै हैं उनका कहना है कि 'आधुनिक चिकित्सामानव जीवन को और खतरे में डाल रही है। और पहले की अपेक्षा अधिक संख्या में लोग मर रहे हैं। जिसका प्रमुख कारणनई-नई बिमारियाँ हैं जिनमें इन दवाओं का भी हाथ है। भारतीय चिकित्सा विज्ञान एक विकसित विज्ञान रहा है। और यह उससमय रहा है जब पृथ्वी पर किसी अन्य देश को चिकित्सा विषय की जानकारी ही नही थी। 'चरक' जो महान चिकित्सा शास्त्री थेनें कहा है '' आयुर्वेद विज्ञान है और सर्वोत्तम् जीवन जीने की स्वतंत्रता प्रदान करता है''। आधुनिक चिकित्सा वर्तमान में बहुत हीविकसित हो चुकी है, लेकिन इसका श्रेय भारत को देना चाहिए जिसनें सर्वप्रथम इस शिक्षा से विश्व को अवगत कराया और विश्वगुरु बना। यह किसी भारतीय के विचार नही हैं, इससे हम यह समझ सकते हैं कि हमें अपनी शिक्षा का ही ज्ञान नही रहा तो हमइसका प्रचार व प्रसार कैसे कर सकते हैं। ऐसा नही है कि केवल भारत व इसके आस-पास ही भारतीय चिकित्साशास्त्र काबोलबाला रहा है। यद्यपि ऐसे अनेकों प्रमाण हमारे पास उपलब्ध हैं जिससे यह जानकारी प्राप्त होती है कि भारतीयचिकित्साशास्त्र व भारतीय चिकित्साशास्त्रियों नें पूरे एशिया यहाँ तक कि मध्य पूर्वी देशों, इजिप्ट, इज्रराइल, जर्मनी, फ्रांस, रोम, पुर्तगाल, इंलैण्ड एवं अमेरिका आदि देशों को चिकित्सा ज्ञान का पाठ पढ़ाया।

आयुर्वेद को श्रीलंका, थाइलैण्ड, मंगोलिया और तिब्बत में राष्ट्रीय चिकित्सा शास्त्र के रुप में मान्यता प्राप्त है। चरक संहिता वसुश्रुत संहिता का अरबी में अनुवाद वहाँ के लोगों नें 7वीं शताब्दी में ही कर डाला था। फरिस्ता नाम के मुस्लिम (इतिहास लेखक) लेखक नें लिखा है, ''कुछ 16 अन्य भारतीय चिकित्सकीय अन्वेषणों की जानकारी अरब को 8वीं शताब्दी में थी।'' पं. नेहरुजिन्होनें इतिहास में आर्य समस्या उत्पन्न करनें की भारी भूल की थी वही भी आयुर्वेद को नही नकार पाये और अपनी पुस्तक'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' में लिखा है - '' अरब का राजा हारुन-उल-राशिद जब बीमार पड़ा तो उसनें 'मनक' नाम के एक भारतीयचिकित्सक को अपने यहाँ बुलाया। जिसे बाद में अरब के शासक नें मनक को राष्ट्रीय चिकित्सालय का प्रमुख बनाया। अरबलेखकों नें लिखा है कि मनक से समय बगदाद में ब्राह्मण छात्रों को बुलाया गया जिन्होनें अरब को चिकित्सा, गणित, ज्योतिषशास्त्र तथा दर्शन शास्त्र की शिक्षा दी। बगदाद की पहचान ही हिन्दू चिकित्सा एवं दर्शन के लिए विख्यात हुआ। और अरब भारतीय चिकित्सा, गणित तथा दर्शन में पश्चिम देशों  (युरोप) का गुरु बना। इससे साफ पता चलता है कि भारत सेअरब व अरब से यूरोप इन विद्याओं में शिक्षित हुआ। सबकी जननी यह मातृभूमि ही रही।

यूरोपीय डॉ. राइल नें लिखा है- 'हिप्पोक्रेटीज (जो पश्चिमी चिकित्सा का जनक माना जाता है) नें अपनें प्रयोगों में सभीमूल तत्वों के लिए भारतीय चिकित्सा का अनुसरण किया। डॉ. ए. एल. वॉशम नें लिखा है कि 'अरस्तु भी भारतीय चिकित्सा का कायल था।'

चरक संहिता और सुश्रुत संहिता का गहराई से अध्ययन करनें वाले विदेशी वैज्ञानिक (जैसे- वाइस, स्टैन्जलर्स, रॉयल, हेजलर्स, व्हूलर्स आदि) का मानना है कि आयुर्वेद माडर्न चिकित्सा के लिए वरदान है। कुछ भारतीय डॉक्टरों ने भी इस पर शोधपरक कार्यकिया है जिनमें प्रमुख हैं- महाराजा ऑफ गोंदाल, गणनाथ सेन, जैमिनी भूषण राय, कैप्टन श्री निवास मूर्ति, डी. एन. बनर्जी, अगास्टे, के एस. भास्कर व आर. डब्ल्यू चोपड़ा आदि। इन सभी देशी -विदेशी आधुनिक डॉक्टरों ने चिकित्सा क्षेत्र में आयुर्वेद कीमहत्ता पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि 'भविष्य का विज्ञान तभी सुरक्षित प्रतीत होगा जब हम प्राचीन भारतीय व्यवस्था को अपनायेगें।'             

विज्ञान के अन्य क्षेत्र :-             
यहाँ यह बताना आवश्यक होगा कि हमारे पास जितना भी विस्तृत ज्ञान आयुर्वेद एवं जीवन पद्धति के बारे में है उतना ही विज्ञानके अन्य क्षेत्रों में भी अन्यान्य ग्रन्थो में मिलता है। विज्ञान के इन क्षेत्रों में प्राचीन भारतीय मनीषियों नें अपने अनुसंधानों द्वाराअकाटय प्रमाण प्रस्तुत किये हैं। आज जब पूरी दुनिया परमाणु के खतरे व सम्बर्धन की राजनीति कर रही है, और इसकी आड़में अमेरिका जैसे यूरोपीय देश अपना गौरव बढ़ा रहे हैं। ऐसे में यह जानना होगा कि सर्वप्रथम परमाणु वैज्ञानी कहीं और नहीबल्कि इस भारतभूमि में पैदा हुए, जिनमें प्रमुख हैं:- महर्षि कणाद, ऋषि गौतम, भृगु, अत्रि, गर्ग वशिष्ट, अगत्स्य, भारद्वाज, शौनक, शुक्र, नारद, कष्यप, नंदीष, घुंडीनाथ, परशुराम, दीर्घतमस, द्रोण आदि ऐसे प्रमुख नाम हैं जिन्होनें विमान विद्या (विमानविद्या), नक्षत्र विज्ञान (खगोलशास्त्र), रसायन विज्ञान (कमेस्ट्री), जहाज निर्माण (जलयान), अस्त्र-शस्त्र विज्ञान, परमाणु विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, प्राणि विज्ञान, लिपि शास्त्र इत्यादि क्षेत्रों में अनुसंधान किये और जो प्रमाण प्रस्तुत किये वह वर्तमान विज्ञानसे उच्चकोटि के थे। जो मानव समाज के उत्थान के मार्ग को प्रशस्त करनें वाले हैं न कि आज के विज्ञान की तरह, जो निरन्तरही मानव सभ्यता के पतन का बीज बो रहा है।

प्राचीन काल से वर्तमान काल तक भारत की वैज्ञानिक देन :-(अन्यान्य क्षेत्रों के माध्यम से)

अब हम यह जानने का प्रयास करेगें कि वर्तमान में जो आविष्कार मानव जीवन को सुविधायुक्त बनाये हुए हैं उनमेंप्राचीन काल से लेकर वर्तमान काल तक भारत का क्या दृष्टिकोण रहा है, तथा इन विविध क्षेत्रों में भारतीय मनिषियों का क्यायोगदान रहा है।

सर्वप्रथम हम बात करते हैं विद्युतशास्त्र की। अगस्त ऋषि की संहिता के आधार पर कुछ विद्वानों नें उनके द्वारा लिखेगये सूत्रों की विवेचना प्रारम्भ की। उनके सूत्र में वर्णित सामग्री को इकट्ठा करके प्रयोग के माध्यम से देखा गया तो यह वर्णनइलेक्ट्रिक सेल का निकला। यही नही इसके आगे के सूत्र में लिखा है कि सौ कुंभो की शक्ति का पानी पर प्रयोग करेगें तो पानीअपने रुप को बदलकर प्राणवायु (ऑक्सीजन) तथा उदानवायु (हाईड्रोजन) में परिवर्तित हो जायेगा। उदानवायु कोवायुप्रतिबन्धक यन्त्र से रोका जाय तो वह विमान विद्या में काम आता है। प्रसिध्द भारतीय वैज्ञानिक राव साहब वझे जिन्होनेभारतीय वैज्ञानिक ग्रन्थों और प्रयोगों को ढूढ़नें में जीवन लगाया उन्होने अगत्स्य संहिता एवं अन्य ग्रन्थों के आधार पर विद्युतके भिन्न-भिन्न प्रकारों का वर्णन किया। अगत्स्य संहिता में विद्युत का उपयोग इलेक्ट्रोप्लेटिंग के लिए करने का भी विवरणमिलता है।

जब हम 'यंत्र विज्ञान' अर्थात् मैकिनिक्स पढ़ते हैं तो सर्वप्रथम न्यूटन के तीनो नियमों को पढ़ाया जाता है। यदि हममहर्षि कणाद वैशेषिक दर्शन में कर्म शब्द को देखें तो Motion  निकलता है। उन्होने इसके पाँच प्रकार बताये हैं - उत्क्षेपण(Opword Motion), अवक्षेपण (Downword Motion), आकुंचन (Motion due to tensile stress), प्रसारण (Sharing Motion)  वगमन  (Genaral type of Motion)। डॉ. एन. डी. डोगरे अपनी पुस्तक ‘The Physics’  में महर्षि कणाद व न्यूटन के नियम कीतुलना करते हुए कहते हैं कि कणाद के सूत्र को तीन भागों में बाँटे तो न्यूटन के गति सम्बन्धी नियम से समानता होती है।

'धातु विज्ञान' यह ऐसा विज्ञान है जो प्राचीन भारत में ही इतना विकसित था कि आज भी उसकी उपादेयता उतनी ही है।रामायण, महाभारत, पुराणों, श्रुति ग्रन्थों में सोना, लोहा, टिन, चाँदी, सीसा, ताँबा, काँसा आदि का उल्लेख आता है। इतना ही नहीचरक, सुश्रुत, नागार्जुन नें स्वर्ण, रजत, ताम्र, लौह, अभ्रक, पारा आदि से औषधियाँ बनाने का आविष्कार किया। यूरोप के लोग1735 तक यह मानते थे कि जस्ता एक तत्व के रुप में अलग से प्राप्त नही किया जा सकता। यूरोप में सर्वप्रथम विलियमचैंपियन नें ब्रिस्टल विधि से जस्ता प्राप्त करनें के सूत्र का पेटेन्ट करवाया। और उसने यह नकल भारत से की क्योंकि 13वीं सदीके ग्रन्थ रसरत्नसमुच्चय में जस्ता बनाने की जो विधि दी है, ब्रिस्टल विधि उसी प्रकार की है। 18वीं सदी में यूरोपीय धातुविज्ञानियों ने भारतीय इस्पात बनाने का प्रयत्न किया, परन्तु असफल रहे। माइकल फैराडे ने भी प्रयत्न किया पर वह भी असफलरहा। कुछ नें बनाया लेकिन उसमें गुणवत्ता नही थी। सितम्बर 1795 को डॉ. बेंजामिन हायन नें जो रिपोर्ट ईस्ट इण्डिया कम्पनीको भेजी उसमें वह उल्लेख करता है कि 'रामनाथ पेठ एक सुन्दर गांव बसा है यहाँ आस-पास खदानें है तथा 40 भट्ठियाँ हैं। इनभट्ठियों में इस्पात निर्माण के बाद कीमत 2रु. मन पड़ती है। अत: कम्पनी को इस दिशा में सोचना चाहिए।' नई दिल्ली में विष्णुस्तम्भ (कुतुबमीनार) के पास स्थित लौह स्तम्भ विष्व धातु विज्ञानियों  के लिए आश्चर्य का विषय रहा है, ''क्योंकि लगभग1600 से अधिक वर्षों से खुले आसमान के नीचे खड़ा है फिर भी उसमें आज तक जंग नही लगा।

विज्ञान की अन्य विधाओं में वायुयान o जलयान भी विश्व को तीव्रगामी बनानें में सहायक रहे हैं। वायुयान का विस्तृतवर्णन हमारे प्राचीन ग्रन्थों में भरा पड़ा है उदाहरणत: विद्या वाचस्पति पं0 मधुसूदन सरस्वती के 'इन्द्रविजय' नामक ग्रन्थ मेंऋग्वेद के सूत्रों का वर्णन है। जिसमें वायुयान सम्बन्धी सभी जानकारियाँ मिलती हैं। रामायण में पुष्पक विमान, महाभारत में, भागवत में, महर्षि भारद्वाज के 'यंत्र सर्वस्व' में। इन सभी शास्त्रों में विमान के सन्दर्भ में इतनी उच्च तकनिकी का वर्णन है कियदि इसको हल कर लिया जाय तो हमारे ग्रन्थों में वर्णित ये सभी प्रमाण वर्तमान में सिध्द हो जायेगें। आपको यह जानकरआश्चर्य होगा कि विश्व की सबसे बड़ी अन्तरिक्ष शोध संस्था 'नासा' नें भी वहीं कार्यरत एक भारतीय के माध्यम से भारत से महर्षिभारद्वाज के 'विमानशास्त्र' को शोध के लिए मँगाया था। इसी प्रकार पानी के जहाजों का इतिहास व वर्तमान भारत की ही देन है।यह सर्वत्र प्रचार है कि वास्कोडिगामा नें भारत आने का सामुद्रिक मार्ग खोजा, किन्तु स्यवं वास्कोडिगामा अपनी डायरी मेंलिखता है कि, ''जब मेरा जहाज अफ्रीका के जंजीबार के निकट आया तो अपने से तीन गुना बड़ा जहाज मैनें वहाँ देखा। तब एकअफ्रीकन दूभाषिये को लेकर जहाज के मालिक से मिलने गया। जहाज का मालिक 'स्कन्द' नाम का गुजराती व्यापारी था जोभारतवर्ष से चीड़ व सागवन की लकड़ी तथा मसाले लेकर वहाँ गया था। वास्कोडिगामा नें उससे भारत जाने की इच्छा जाहिर कीतो भारतीय व्यापारी ने कहा मैं कल जा रहा हँ, मेरे पीछे-पीछे आ जाओ।'' इस प्रकार व्यापारी का पीछा करते हुए वह भारतआया। आप स्वयं अंदाजा लगा सकते हैं कि भारत का एक सामान्य व्यापारी वास्कोडिगामा से अधिक जानकार था।


आविष्कारों की दृष्टि से और आगे बढ़ते हैं तो गणित शास्त्र की तरफ ध्यान आकृष्ठ होता है। इस क्षेत्र में भारत की देन हैकि विश्व आज आर्थिक दृष्टि से इतना विस्तृत हो सका है। भारत इस शास्त्र का जन्मदाता रहा है। शून्य और दशमलव की खोजहो या अंकगणित, बीजगणित तथा रेखागणित की, पूरा विष्व इस क्षेत्र में भारत का अनुयायी रहा है। इसके विस्तार में न जाकरएक प्रमाण द्वारा इसकी महत्ता को समझ सकते हैं। यूरोप की सबसे पुरानी गणित की पुस्तक 'कोडेक्स विजिलेंस' है जो स्पेन कीराजधानी मेड्रिड के संग्रहालय में रखी है। इसमें लिखा है ''गणना के चिन्हो से हमे यह अनुभव होता है कि प्राचीन हिन्दूओं कीबुध्दि बड़ी पैनी थी अन्य देश गणना व ज्यामितीय तथा अन्य विज्ञानों मे उनसे बहुत पीछे थे। यह उनके नौ अंको से प्रमाणितहो जाता है। जिसकी सहायता से कोई भी संख्या लिखी जा सकती है।'' भारत में गणित परम्परा कि जो वाहक रहे उनमें प्रमुख हैं, आपस्तम्ब, बौधायन, कात्यायन, तथा बाद में ब्रह्मगुप्त, भाष्काराचार्य, आर्यभट्ट, श्रीधर, रामानुजाचार्य आदि। गणित के तीनोंक्षेत्र जिसके बिना विश्व कि किसी आविष्कार को सम्भव नही माना जा सकता, भारत की ही अनुपन देन है।

कालगणना अर्थात् समय का ज्ञान जो पृथ्वी की उत्पत्ति से लेकर इसके विनाष तक के निर्धारित अवधि तक का वर्णनकरता है। सत्यता व वैज्ञानिक दृष्टि से भारतीय कालगणना अधिक तर्कयुक्त व प्रमाणिक मानी जाती है। खगोल विद्या वेद का नेत्रकहा जाता है। अत: प्राचीन काल से ही खगोल वेदांग का हिस्सा रहा है। ऋग्वेद, शतपथ ब्राह्मण आदि ग्रन्थों मे नक्षत्र, चान्द्रमास, सौरमास, मलमास (पुरुषोत्तम मास), ऋतु परिवर्तन, उत्तरायण, दक्षिणायन, आकाषचक्र, सूर्य की महत्ता आदि के विस्तृत उल्लेखमिलते हैं। यजुर्वेद के 18वें अध्याय में यह बताया गया है कि चन्द्रमा सूर्य के किरणों के कारण प्रकाशमान है। यंत्रो का उपयोगकर खगोल का निरीक्षण करने की पध्दति प्राचीन भारत में रही है। आर्यभट्ट के समय आज से लगभग 1500 वर्ष पूर्व पाटलीपुत्रमें वेधशाला थी, जिसका प्रयोग करके आर्यभट्ट नें कई निष्कर्ष निकाले। हम जिस गुरुत्वाकर्षण के खोज की बात करते हुएन्यूटन को इसका श्रेय देते हैं उससे सैकड़ो वर्ष पूर्व (लगभग 550 वर्ष) भाष्कराचार्य नें यह बता दिया था। भाष्कराचार्य ने हीसर्वप्रथम बताया कि पृथ्वी गोल है जिसे यूरोपीय चपटा समझते थे।

रसायन विज्ञान हो या प्राणि विज्ञान या  वनस्पिति विज्ञान इन सभी क्षेत्रों में भारतीय यूरोप की अपेक्षा अग्रणी रहे हैं। रसायन विज्ञान के क्षेत्र में प्रमुख वैज्ञानिक नागार्जुन, वाग्भट्ट, गोविन्दाचार्य, यशोधर, रामचन्द्र, सोमदेव आदि रहे हैं। जिन्होनें खनिजों, पौधों, कृषिधान्य आदि के द्वारा विविध वस्तुओं का उत्पादन, विभिन्न धातुओं का निर्माण व इनसे औषधियाँ बनाने का कार्य किया। वनस्पति विज्ञान में पौधों का वर्गीकरण अथर्ववेद में विस्तृत रुप में मिलता है। चरक संहिता में, सुश्रुत संहिता में, महर्षि पराशर व वाराहमिहिर के वृहत्ता संहिता में, वर्तमान (आधुनिक युग में) जगदीष चन्द्र वसु के प्रयोगो में कहाँ-कहाँ नही इन विधाओं का वर्णन मिलता है! जरुरत है तो इन्हे जानकर शोध करने की। इसी प्रकार प्राणि विज्ञान में प्राचीन से लेकर वर्तमान तक भारतीय मनिषियों ने अपना लोहा मनवाया है।

जहाँ तक आधुनिक भारतीय विज्ञान के परिदृष्य की बात है तो इस भूमि में जन्में मनिषियों नें पूरे विश्व को अनवरत अपने ज्ञान से सींचना जारी रखा है। देश में ही नही विदेशों मे भी भारतीय वैज्ञानिक फैले हुए हैं। इनमें से कुछ ऐसे नाम लेना आवश्यक है जिन्होने भारतवर्ष के मस्तक को ऊँचा रखा है। उनमें प्रमुख हैं :- राना तलवार जो Stanchart  के CEO हैं, अजय कुमार (जो नासा के एयरोडायनामिक्स के प्रधान हैं), सी.के. प्रह्लाद (इनको मैनेजमैन्ट गुरु माना जाता है)। वर्तमान स्पेश व मिसाइल विज्ञान में जो प्रमुख हैं वह विक्रम साराभाई (जिन्हे भारतीय स्पेस टेक्नालॉजी का पिता कहा जाता है), डॉ. सतीष धवन, डॉ. अब्दुल कलाम (जिन्हे मिसाइल मैन की उपाधि मिली हुई है), डॉ. माधवन नॉयर (भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान केन्द्र के अध्यक्ष), डॉ. कस्तूरी रंगन, डॉ. होमी जहांगीर भाभा (आधुनिक भारतीय आणविक विज्ञान के प्रणेता), डॉ. पी. के. अयंगर, डॉ. चितंबरम, डॉ. अनिक काकोदकर, डॉ. राजारमण ये आधुनिक विज्ञान के परामाणु विज्ञानी हैं। ऐसे भारतीय मनिषियों का नाम भी बताना आवश्यक है जो विभिन्न देशों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं उनमें प्रमुख हैं :- याल्लप्रागदा सुब्बाराव (Yallaprangada Subbarao) जिन्होने 1948 में चिकित्सा के क्षेत्र में योगदान दिया, डॉ. रंगास्वामी श्रीनिवासन (इन्होने लेसिक ऑई सर्जरी का आविष्कार किया जिन्हे अमेरिका नें US National inventers hall of fame का खिताब दिया) डॉ. प्रवीण चौधरी इन्होने कम्प्यूटर के क्षेत्र में रिराइटेबल काम्पेक्ट डिस्क(CD-RW) का आविष्कार किया, डॉ. शिव सुब्रमण्यम (ये अमेरिका के स्पेस प्रोजेक्ट के प्रमुख रहे) जिनको अमेरिका नें उच्चतम् राष्ट्रीय अवार्ड से नवाजा था, कल्पना चावला (दिवंगत अंतरिक्ष यात्री), सुनीता विलियम्स (इन्होने सबसे अधिक अंतरिक्ष में चलने का रिकार्ड बनाया है, यह रिकार्ड है 22 घंटे और 27 मिनट) इनका मूल नाम सुनीता पाण्डया है, डॉ. सी.वी.रमन (इन्हे रमन इफेक्ट के लिए फिजिक्स का नोवेल पुरस्कार दिया गया), डॉ. हरगोविन्द खुराना (इन्हे आनुवंशिकी का पिता कहा जाता है, इन्हे 1968 में नोवेल पुरस्कार मिला), अर्मत्य सेन (इन्हे अर्थशास्त्र के क्षेत्र में 1998 में नोवेल पुरस्कार मिला)। कम्प्यूटर के क्षेत्र में डॉ. विजय भटनागर (इन्होनें 'परम' 10000 का आविष्कार किया, जिसे मल्टीमीडिया डिजिटल लाइब्रेरी के नाम से जाना जाता है), डॉ. नरेन्द्र करमाकर (ये कम्प्यूटर को वर्तमान की अपेक्षा 50 से 100 गुना तेज बनाने की खोज कर रहे हैं जिसके लिए टाटा नें फण्ड की भी व्यवस्था की है)।

इन आधुनिक वैज्ञानिकों के बाद इनके आविष्कारों के फल को भी जानना आवश्यक प्रतीत होता है जो क्रमश: इस प्रकार हैं :- हमारे मिसाइल, अग्नि, आकाश, पृथ्वी, त्रिशूल, नाग, ब्रह्मोस, पृथ्वी II, अग्नि II । ये सभी मिसाइल हैं जो दुश्मन के सभी आक्रमणों को नेस्तानाबूत करने मे सक्षम हैं। हमारे सैटेलाइट- आर्यभट्ट, रोहिणी, भाष्कर, ASLV (इसकी उड़ान क्षमता 4000 कि.मी. प्रति घंटे है।), PSLV (यह पोलर सैटेलाइट है इसकी रेन्ज 8000 कि.मी. प्रति घंटा है तथा यह 1200 किलोग्राम भार ले जाने में सक्षम है।) GSLV     (यह भी अत्याधुनिक लांचर है) आदि प्रमुख हैं जो तकनिकी दृष्टि से अत्यन्त सफल हैं। हमारा परमाणु परीक्षण, जो प्रथम बार 1974 में किया गया था, तथा 1998 में जब दूसरी बार इसका 5 बार परीक्षण किया गया तो इतनी उच्च तकनिकी का प्रयोग किया गया कि इतने बड़े परीक्षण को अमेरिका जैसे देश ट्रेस नही कर पाये। इस प्रकार भारत उन 9 शक्तिशाली देशों  में शामिल हो गया जिनके पास परमाणु बनाने की क्षमता है।

इतने उच्चतम् श्रेणि का विज्ञान भारत कि गौरव का बखान करते हैं। आज आवश्यकता इस बात की नही है कि हम केवल इसका गान करें अपितु आवश्यकता इस बात की अधिक है कि हम इन सभी विषयों पर ज्यादा से ज्यादा शोध करें तथा प्राचीन से लेकर वर्तमान तक के शुध्द भारतीय ज्ञान का अध्ययन करें और इसे समस्त विश्व के सामने प्रमाण रुप में उदघाटित  करें। ताकि हम अपनें अतीत के गौरव को वर्तमान में ढ़ालकर पूरे ब्रह्माण्ड के भविष्य को सुरक्षित व संवर्धित कर सकें।


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