फ़िरदौस ख़ानप्लास्टिक कचरा पर्यावरण के लिए एक गंभीर संकट बना हुआ है। हर परिवार हर साल क़रीब तीन-4 किलो प्लास्टिक थैलों का इस्तेमाल करता है। बाद में यही प्लास्टिक के थैले कूड़े के रूप में पर्यावरण के लिए मुसीबत बनते हैं। पिछले साल देश में 29 लाख टन प्लास्टिक कचरा था, जिसमें से करीब 15 लाख टन कचरा सिर्फ़ प्लास्टिक का ही था। एक रिपोर्ट के मुताबिक़ देश में हर साल 30-40 लाख टन प्लास्टिक का उत्पादन किया जाता है। इसमें से क़रीब आधा यानी 20 लाख टन प्लास्टिक रिसाइक्लिंग के लिए मुहैया होता है। हालांकि हर साल क़रीब साढ़े सात लाख टन कूड़े की रिसाइक्लिंग की जाती है। कूड़े की रिसाइक्लिंग को उद्योग को दर्जा हासिल है और सालाना क़रीब 25 अरब रुपये का कारोबार है। देश में प्लास्टिक का रसाइक्लिंग करने वाली छोटी-बड़ी 20 हज़ार इकाइयां हैं।
देश के करीब 10 लाख प्लास्टिक संग्रह के काम में लगे हैं, जिनमें महिलाएं और बच्चे भी बड़ी तादाद में शामिल हैं। इन महिलाओं और बच्चों को कूड़े से कागज और प्लास्टिक बीनते हुए देखा जा सकता है। ये लोग अपने स्वास्थ्य को दांव पर लगाकर कूड़ा बीनते हैं इसके बावजूद इन्हें वाजिब मेहनताना तक नहीं मिल पाता। हालांकि इस धंधे में बिचौलिये (कबाड़ी) चांदी कूटते हैं।
केन्द्र सरकार ने भी प्लास्टिक कचरे से पर्यावरण को होने वाले नुकसान का आकलन कराया है। इसके लिए कई समितियां और कार्यबल गठित किए गए हैं। दरअसल, प्लास्टिक थैलों के इस्तेमाल से होने वाली समस्याएं ज़्यादातर कचरा प्रबंधन प्रणालियों की खामियों की वजह से पैदा हुई हैं। प्लास्टिक का यह कचरा नालियों और सीवरेज व्यवस्था को ठप कर देता है। इतना ही नहीं नदियों में भी इनकी वजह से बहाव पर असर पड़ता है और पानी के दूषित होने से मछलियों की मौत तक हो जाती है। इतना ही नहीं कूड़े के ढेर पर पड़ी प्लास्टिक की थैलियों को खाकर आवारा पशुओं की भी बड़ी तादाद में मौतें हो रही हैं।
रि-साइकिल किए गए या रंगीन प्लास्टिक थैलों में ऐसे रसायन होते हैं जो जमीन में पहुंच जाते हैं और इससे मिट्टी और भूगर्भीय जल विषैला बन सकता है। जिन उद्योगों में पर्यावरण की दृष्टि से बेहतर तकनीक वाली रि-साइकिलिंग इकाइयां नहीं लगी होतीं। उनमें रिसाइक्लिंग के दौरान पैदा होने वाले विषैले धुएं से वायु प्रदूषण फैलता है। प्लास्टिक एक ऐसा पदार्थ है जो सहज रूप से मिट्टी में घुल-मिल नहीं सकता। इसे अगर मिट्टी में छोड़ दिया जाए तो भूगर्भीय जल की रिचार्जिंग को रोक सकता है। इसके अलावा प्लास्टिक उत्पादों के गुणों के सुधार के लिए और उनको मिट्टी से घुलनशील बनाने के इरादे से जो रासायनिक पदार्थ और रंग आदि उनमें आमतौर पर मिलाए जाते हैं, वे भी अमूमन स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं।
स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि प्लास्टिक मूल रूप से नुकसानदायक नहीं होता, लेकिन प्लास्टिक के थैले अनेक हानिकारक रंगों/रंजक और अन्य तमाम प्रकार के अकार्बनिक रसायनों को मिलाकर बनाए जाते हैं। रंग और रंजक एक प्रकार के औद्योगिक उत्पाद होते हैं जिनका इस्तेमाल प्लास्टिक थैलों को चमकीला रंग देने के लिए किया जाता है। इनमें से कुछ रसायन कैंसर को जन्म दे सकते हैं और कुछ खाद्य पदार्थों को विषैला बनाने में सक्षम होते हैं। रंजक पदार्थों में कैडमियम जैसी जो धातुएं होती हैं, जो स्वास्थ्य के लिए बेहद नुक़सानदेह हैं। थोड़ी-थोड़ी मात्रा में कैडमियम के इस्तेमाल से उल्टियां हो सकती हैं और दिल का आकार बढ़ सकता है। लम्बे समय तक जस्ता के इस्तेमाल से मस्तिष्क के ऊतकों का क्षरण होने लगता है।
हालांकि पर्यावरण और वन मंत्रालय ने रि-साइकिंल्ड प्लास्टिक मैन्यूफैक्चर ऐंड यूसेज रूल्सए 1999 जारी किया था। इसे 2003 में पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम-1968 के तहत संशोधित किया गया है, ताकि प्लास्टिक की थैलियों और डिब्बों का नियमन और प्रबंधन सही तरीके से किया जा सके। भारतीय मानक ब्यूरो (बीआईएस) ने धरती में घुलनशील प्लास्टिक के 10 मानकों के बारे में अधिसूचना जारी की है। मगर इसके बावजूद हालात वही 'ढाक के तीन पात' वाले ही हैं।
प्लास्टिक के कचरे से निपटने के लिए अनेक राज्यों ने तुलनात्मक दृष्टि से मोटे थैलों का उपाय सुझाया है। ठोस कचरे की धारा में इस प्रकार के थैलों का प्रवाह काफी हद तक कम हो सकेगा, क्योंकि कचरा बीनने वाले रिसाइकिलिंग के लिए उनको अन्य कचरे से अलग कर देंगे। अगर प्लास्टिक थैलियों की मोटाई बढ़ा दी जाए तो इससे वे थोड़े महंगे हो जाएंगे और उनके इस्तेमाल में कुछ कमी आएगी।
जम्मू एवं कश्मीर, सिक्किम व पश्चिम बंगाल ने पर्यटन केन्द्रों पर प्लास्टिक थैलियों और बोतलों के इस्तेमाल पर पाबंदी लगा दी है। हिमाचल प्रदेश सरकार ने एक कानून के तहत प्रदेश में प्लास्टिक के इस्तेमाल पर पाबंदी लगा दी है। इतना ही नहीं हिमाचल प्रदेश राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने लोक निर्माण विभाग (पीडब्ल्यूडी) के सहयोग से नमूने के तौर पर शिमला के बाहरी हिस्से में प्लास्टिक कचरे के इस्तेमाल से तीन सड़कों का निर्माण किया है। इस कामयाबी से उत्साहित हिमाचल सरकार ने अब सड़क निर्माण में प्लास्टिक कचरे का इस्तेमाल करने का फैसला किया है।
एक सरकारी प्रवक्ता के मुताबिक राज्य में 'पॉलीथिन हटाओ, पर्यावरण बचाओ' मुहिम के तहत करीब 1381 क्विंटल प्लास्टिक कचरा जुटाया गया है। पूरे प्लास्टिक कचरे का इस्तेमाल राज्य में प्लास्टिक-कोलतार मिश्रित सड़क के निर्माण्ा में किया जाएगा। यह कचरा 138 किलोमीटर सड़क के निर्माण के लिए काफी है। अगर मिश्रण में 15 प्रतिशत प्लास्टिक मिलाया जाए तो इससे कोलतार की इतनी ही मात्रा की बचत होगी और इससे प्रति किलोमीटर सड़क निर्माण में 35 से 40 हजार रुपये की बचत होगी।
मध्य प्रदेश में प्लास्टिक के कचरे को सीमेंट फैक्ट्रियों में ईंधन के तौर पर इस्तेमाल करने की कवायद जारी है। बताया जा रहा है कि विभिन्न प्रयोगों और परीक्षणों में पाया गया है कि रिसाइकिल न होने वाला प्लास्टिक कचरा एक हजार डिग्री से ज्यादा तापमान पर नष्ट हो जाता है। अधिक तापमान होने की वजह से इससे विषैली गैसें भी नहीं निकलतीं और यह कोयले से भी ज्यादा ऊर्जा पैदा करता है। हालांकि अभी इस पर अमल नहीं हो पाया है, इसलिए यह कहना मुश्किल है कि इसका नतीजा क्या होगा।
अन्य राज्यों को भी हिमाचल प्रदेश से प्रेरणा लेकर प्लास्टिक कचरे का इस्तेमाल सड़क निर्माण आदि में करना चाहिए। प्लास्टिक के कचरे की समस्या से निजात पाने के लिए ज़रूरी है कि प्लास्टिक थैलियों के विकल्प के रूप में जूट से बने थैलों का इस्तेमाल ज़्यादा से ज़्यादा किया जाए। साथ ही प्लास्टिक कचरे का समुचित इस्तेमाल किया जाना चाहिए। जैविक दृष्टि से घुलनशील प्लास्टिक के विकास के लिए अनुसंधान कार्य जारी है और उम्मीद की जा सकती है कि जल्द ही वैज्ञानिकों को इसमें कामयाबी ज़रूर मिलेगी।
देश के करीब 10 लाख प्लास्टिक संग्रह के काम में लगे हैं, जिनमें महिलाएं और बच्चे भी बड़ी तादाद में शामिल हैं। इन महिलाओं और बच्चों को कूड़े से कागज और प्लास्टिक बीनते हुए देखा जा सकता है। ये लोग अपने स्वास्थ्य को दांव पर लगाकर कूड़ा बीनते हैं इसके बावजूद इन्हें वाजिब मेहनताना तक नहीं मिल पाता। हालांकि इस धंधे में बिचौलिये (कबाड़ी) चांदी कूटते हैं।
केन्द्र सरकार ने भी प्लास्टिक कचरे से पर्यावरण को होने वाले नुकसान का आकलन कराया है। इसके लिए कई समितियां और कार्यबल गठित किए गए हैं। दरअसल, प्लास्टिक थैलों के इस्तेमाल से होने वाली समस्याएं ज़्यादातर कचरा प्रबंधन प्रणालियों की खामियों की वजह से पैदा हुई हैं। प्लास्टिक का यह कचरा नालियों और सीवरेज व्यवस्था को ठप कर देता है। इतना ही नहीं नदियों में भी इनकी वजह से बहाव पर असर पड़ता है और पानी के दूषित होने से मछलियों की मौत तक हो जाती है। इतना ही नहीं कूड़े के ढेर पर पड़ी प्लास्टिक की थैलियों को खाकर आवारा पशुओं की भी बड़ी तादाद में मौतें हो रही हैं।
रि-साइकिल किए गए या रंगीन प्लास्टिक थैलों में ऐसे रसायन होते हैं जो जमीन में पहुंच जाते हैं और इससे मिट्टी और भूगर्भीय जल विषैला बन सकता है। जिन उद्योगों में पर्यावरण की दृष्टि से बेहतर तकनीक वाली रि-साइकिलिंग इकाइयां नहीं लगी होतीं। उनमें रिसाइक्लिंग के दौरान पैदा होने वाले विषैले धुएं से वायु प्रदूषण फैलता है। प्लास्टिक एक ऐसा पदार्थ है जो सहज रूप से मिट्टी में घुल-मिल नहीं सकता। इसे अगर मिट्टी में छोड़ दिया जाए तो भूगर्भीय जल की रिचार्जिंग को रोक सकता है। इसके अलावा प्लास्टिक उत्पादों के गुणों के सुधार के लिए और उनको मिट्टी से घुलनशील बनाने के इरादे से जो रासायनिक पदार्थ और रंग आदि उनमें आमतौर पर मिलाए जाते हैं, वे भी अमूमन स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं।
स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि प्लास्टिक मूल रूप से नुकसानदायक नहीं होता, लेकिन प्लास्टिक के थैले अनेक हानिकारक रंगों/रंजक और अन्य तमाम प्रकार के अकार्बनिक रसायनों को मिलाकर बनाए जाते हैं। रंग और रंजक एक प्रकार के औद्योगिक उत्पाद होते हैं जिनका इस्तेमाल प्लास्टिक थैलों को चमकीला रंग देने के लिए किया जाता है। इनमें से कुछ रसायन कैंसर को जन्म दे सकते हैं और कुछ खाद्य पदार्थों को विषैला बनाने में सक्षम होते हैं। रंजक पदार्थों में कैडमियम जैसी जो धातुएं होती हैं, जो स्वास्थ्य के लिए बेहद नुक़सानदेह हैं। थोड़ी-थोड़ी मात्रा में कैडमियम के इस्तेमाल से उल्टियां हो सकती हैं और दिल का आकार बढ़ सकता है। लम्बे समय तक जस्ता के इस्तेमाल से मस्तिष्क के ऊतकों का क्षरण होने लगता है।
हालांकि पर्यावरण और वन मंत्रालय ने रि-साइकिंल्ड प्लास्टिक मैन्यूफैक्चर ऐंड यूसेज रूल्सए 1999 जारी किया था। इसे 2003 में पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम-1968 के तहत संशोधित किया गया है, ताकि प्लास्टिक की थैलियों और डिब्बों का नियमन और प्रबंधन सही तरीके से किया जा सके। भारतीय मानक ब्यूरो (बीआईएस) ने धरती में घुलनशील प्लास्टिक के 10 मानकों के बारे में अधिसूचना जारी की है। मगर इसके बावजूद हालात वही 'ढाक के तीन पात' वाले ही हैं।
प्लास्टिक के कचरे से निपटने के लिए अनेक राज्यों ने तुलनात्मक दृष्टि से मोटे थैलों का उपाय सुझाया है। ठोस कचरे की धारा में इस प्रकार के थैलों का प्रवाह काफी हद तक कम हो सकेगा, क्योंकि कचरा बीनने वाले रिसाइकिलिंग के लिए उनको अन्य कचरे से अलग कर देंगे। अगर प्लास्टिक थैलियों की मोटाई बढ़ा दी जाए तो इससे वे थोड़े महंगे हो जाएंगे और उनके इस्तेमाल में कुछ कमी आएगी।
जम्मू एवं कश्मीर, सिक्किम व पश्चिम बंगाल ने पर्यटन केन्द्रों पर प्लास्टिक थैलियों और बोतलों के इस्तेमाल पर पाबंदी लगा दी है। हिमाचल प्रदेश सरकार ने एक कानून के तहत प्रदेश में प्लास्टिक के इस्तेमाल पर पाबंदी लगा दी है। इतना ही नहीं हिमाचल प्रदेश राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने लोक निर्माण विभाग (पीडब्ल्यूडी) के सहयोग से नमूने के तौर पर शिमला के बाहरी हिस्से में प्लास्टिक कचरे के इस्तेमाल से तीन सड़कों का निर्माण किया है। इस कामयाबी से उत्साहित हिमाचल सरकार ने अब सड़क निर्माण में प्लास्टिक कचरे का इस्तेमाल करने का फैसला किया है।
एक सरकारी प्रवक्ता के मुताबिक राज्य में 'पॉलीथिन हटाओ, पर्यावरण बचाओ' मुहिम के तहत करीब 1381 क्विंटल प्लास्टिक कचरा जुटाया गया है। पूरे प्लास्टिक कचरे का इस्तेमाल राज्य में प्लास्टिक-कोलतार मिश्रित सड़क के निर्माण्ा में किया जाएगा। यह कचरा 138 किलोमीटर सड़क के निर्माण के लिए काफी है। अगर मिश्रण में 15 प्रतिशत प्लास्टिक मिलाया जाए तो इससे कोलतार की इतनी ही मात्रा की बचत होगी और इससे प्रति किलोमीटर सड़क निर्माण में 35 से 40 हजार रुपये की बचत होगी।
मध्य प्रदेश में प्लास्टिक के कचरे को सीमेंट फैक्ट्रियों में ईंधन के तौर पर इस्तेमाल करने की कवायद जारी है। बताया जा रहा है कि विभिन्न प्रयोगों और परीक्षणों में पाया गया है कि रिसाइकिल न होने वाला प्लास्टिक कचरा एक हजार डिग्री से ज्यादा तापमान पर नष्ट हो जाता है। अधिक तापमान होने की वजह से इससे विषैली गैसें भी नहीं निकलतीं और यह कोयले से भी ज्यादा ऊर्जा पैदा करता है। हालांकि अभी इस पर अमल नहीं हो पाया है, इसलिए यह कहना मुश्किल है कि इसका नतीजा क्या होगा।
अन्य राज्यों को भी हिमाचल प्रदेश से प्रेरणा लेकर प्लास्टिक कचरे का इस्तेमाल सड़क निर्माण आदि में करना चाहिए। प्लास्टिक के कचरे की समस्या से निजात पाने के लिए ज़रूरी है कि प्लास्टिक थैलियों के विकल्प के रूप में जूट से बने थैलों का इस्तेमाल ज़्यादा से ज़्यादा किया जाए। साथ ही प्लास्टिक कचरे का समुचित इस्तेमाल किया जाना चाहिए। जैविक दृष्टि से घुलनशील प्लास्टिक के विकास के लिए अनुसंधान कार्य जारी है और उम्मीद की जा सकती है कि जल्द ही वैज्ञानिकों को इसमें कामयाबी ज़रूर मिलेगी।
0 Comments