मौसम में बदलाव !
अब ग़रीब लोगों को कम्बल, बांटें, गिरे हुए हैं भाव !!

भारतीय युवकों पर हमले !
हमले से बोलो, कि थम ले !!

गर्मी की दस्तक !
घूम गया सर्दी का मस्तक ??

व्यापारी को धुनकर लूटा !
उसकी इनकम सुनकर लूटा ??

जागो, ग्राहक जागो !
जेब कटे, इससे ही पहले, तुम दुकान से उठकर भागो !!

सरकारी कर्मी !
जेबों में रखते रोज़ाना, ऊपर की इनकम की गर्मी !!

रिक्शा-चालक !
पुलिस-बेंत इनके संचालक !!

फंदा !
अपने फंदे में फंसकर अब, चीख रहा है, मूरख बंदा !!

दबंग ने धुना !
अपने से कमज़ोर चुना ??

शिकंजा !
कसने से पहले तू शातिर, किसी चील जैसा भी बन जा !!

कवायद !
देखो, शुरू करेंगे, शायद !!
-अतुल मिश्र

सचिन कुमार जैन
भोपाल (मध्य प्रदेश). पूरे देश-प्रदेश की भांति मंदसौर जिले ने भी पानी के गंभीर संकट को भोगा है, परन्तु इस ऐतिहासिक जिले के समाज ने जल संघर्ष की प्रक्रिया में नये-नये मुकाम हासिल करके अपनी विशेषता को सिद्ध कर दिया है। सूखे – अकाल के दौर में मंदसौर में दो सौ से ज्यादा जल संरक्षण की संरचनाओं का जनभागीदारी से निर्माण किया गया, जबकि एक हजार से ज्यादा जल स्रोतों का जीर्णोद्धार हुआ। करोड़ों रुपये का श्रमदान भी हुआ और पानी की कमी ने पानी की अद्भुद कहानी रची है। मूलतः इस गांव की जलापूर्ति का सबसे बड़ा साधन पास का ही लदुना तालाब रही है, परन्तु यहां जल संकट ने उस वक्त भीषण रूप अख्तियार कर लिया जब यह तालाब पूरी तरह सूखने लगा।

आखिरकार वर्ष के आठ माह इस तालाब के सूखे रहने से गांव में जीवन का संकट उत्पन्न हो गया, क्योंकि जल संबंधी जरूरतों को पूरा करने का यही एक मात्र साधन था। तब पंचायत के मंच से कुंओं के निर्माण के लिये निर्णय लिये गये। सबसे पहले गांव से ही सार्वजनिक भूमि पर ऐसे निर्माण के लिये प्रस्ताव आये। ताकि पेयजल आपूर्ति में आसानी हो सके और ग्रामिणों को ज्यादा दूर न जाना पड़े। इसके बाद यहां कुओं की खुदाई के निजी और पंचायती प्रयास शुरू हुए। परन्तु यह एक आश्चर्यजनक तथ्य ही है कि लदुना में 60 से 100 फीट तक खुदाई करने के बाद भी पांच कुओं में पानी की उपलब्धता सुनिश्चित नहीं हो पायी। तब ग्राम सभा में यह तय किया गया कि वर्ष में अब ज्यादातर समय सूखे रहने वाले तालाब की जमीन पर ही खुदाई करके देखा जाये, शायद जलधारा फूट पड़े। फिर पूरे अनुष्ठानों के साथ पानी की खोज में धरती की गोद की गहराई नापने के प्रयास शुरू हो गये। परन्तु दुर्भाग्यवश इन प्रयासों के भी सार्थक परिणाम नहीं निकले और अस्सी फीट गहराई तक खुदाई करने के बाद प्रयास निरर्थक ही रहे। तब पंचायत के साथ ग्रामीणों ने मिलकर सूखे तालाब के बीचों-बीच एक दांव के रूप में आखिरी प्रयास करने का निश्चय किया और अगले ही दिन काम शुरू हो गया। अब एक ओर हैरत अंगेज घटना का वक्त आ गया था क्योंकि मात्र 27 फीट की गहराई पर ही पानी की भारी उपलब्धता के संकेत मिल गये और अस्तित्व में आई भवाबां की कुईयां।

निश्चित ही इस बार लोगों ने भूमिगत जलधारा को पा लिया था। इसके बाद 37 फीट गहराई तक पहुंचते ही पानी की झिरें तो ऐसे फूट पड़ी मानों वे किसी बंधन से मुक्त हो गई हैं। वास्तव में यह लदुना और पानी की ऐसी मुलाकात थी मानों दोनों कई सालों तक एक-दूसरे से रूठे रहे सम्बन्धी हों उनके हृदय में मिलने की तमन्ना परिपक्व होती रही हो।

यह गांव इस कुईयां के निर्माण की घटना को किसी श्राप से मुक्ति का समारोह मानता है। लदुना कुंएं के सम्बन्ध में ऐसे कई वाकये हैं जिनसे प्रकृति के अचंभित कर देने वाले स्वरूप और चरित्र का प्रमाण मिलता है। यह एकमात्र जल स्रोत आज पांच हजार से ज्यादा की जनसंख्या वाले गांव का पानी की जरूरतों को अकेले पूरा कर रहा है।

वास्तव में सूर्योदय और सूर्यास्त के समय यहां आदर्श जल चौपाल का नजारा देखने को मिलता और उस जल संघर्ष की ध्वनि तरंग को महसूस ही किया जा सकता है जब गांव के लोग क्रमबद्ध तरीके से समूह में आकर लगभग 30 फीट व्यास वाले कुंए की 41 घिर्रियों के साथ पानी खींचते हैं। निश्चित ही यह कुईयां अपने रूप, संरचना और सामुदायिक उपयोगिता के सन्दर्भ में विश्व का सबसे अनूठा उदाहरण माना जा सकता है। इस कुंईया ने गांव के सारे सामाजिक भेदभाव को भुला दिया है।

लदुना की सरपंच भंवर कुंवर सिसौदिया कहती हैं कि इस बात के कोई मायने नहीं हैं कि कौन किस जाति का है। वे मानती हैं कि मुझे गांव के लोगों ने अपना प्रतिनिधि चुना, और जाति, धर्म या और किसी भी आधार पर भेदभाव करने का मुझे कोई अधिकार नहीं है। हम चाहते थे कि गांव की सूखे की समस्या हल भी हो और पंचायत को हम आदर्श रूप दे सकें। इसी सोच के मद्देनजर लदुना की संकरी गलियों में फर्शीकरण किया गया। ताकि (कुंईया) से पानी के टैंकर लाकर गांव में ही पानी उपलब्ध कराया जा सके। इस पंचायत में यह दावा भी झूठा साबित हुआ है कि पंचायत की महिला प्रतिनिधियों के अधिकारों का उपयोग उनके पति या परिवार के पुरुष सदस्य करते हैं। लदुना पंचायत की महिला सरपंच और पंचों के पति तो इस कार्यकाल में उनके कार्यालय तक ही नहीं गये, बहरहाल उनका सहयोग सदैव मिलता रहा है और मुद्दे की बात तो यह है कि गांव को जीवनदान देने वाले कुंये के निर्माण का निर्णय लेने में महिला पंचायत प्रतिनिधियों की ही सबसे अहम भूमिका रही है।

अब यह ग्रामीण समाज पानी की उपेक्षा नहीं करना चाहता है और जल व्यवस्था बेहतर बने, इसके लिये फिलहाल तीन सूत्रीय सामुदायिक कार्यक्रम यहां लागू हैं :- एक : पानी सुनियोजित और आवश्यकता आधारित उपयोग हमारी जिम्मेदारी है।
दो : कुंओं के आसपास 20 फीट के दायरे में मुरम की परत बिछाई गई, ताकि पानी का जमीन में रिसाव हो सके और गंदगी भी न हो।
तीन : कुंओं, बावड़ियों का रखरखाव हमारी अपनी जिम्मेदारी है। वर्ष के छह महीने इसी जलस्रोत से पूरे गांव की जल आपूर्ति होती है, और अचरज उस वक्त होता है जबकि हर रोज पांच हजार लोगों की जरूरतों को पूरा करके यह कुंइया दो से तीन घंटे में फिर लबालब भर जाता है। जबकि शेष छह माह यह तालाब में पानी होने के कारण लगभग 13 फीट पानी में डूबी रहती है। इसकी मेढ़ पर ग्रामीणों ने एक स्तम्भ भी बनाया है, जो तालाब के जल स्तर की जानकारी देता है। संयोगों की श्रृंखला का अगला बिन्दु यह है कि जब यह तालाब सूख जाता है, तब गांव के किसान इसकी अतिउत्पादक और बेहतरीन कृषि योग्य मिट्टी का उपयोग अपने खेतों को उपजाऊ बनाने में करते हैं। शिक्षक नारायण हरगौड़ मानते हैं कि रासायनिक उर्वरकों के कारण अनुपजाऊ होते खेतों को इस प्राकृतिक चक्र से पुर्नजीवन मिला है। लदुना देशज संस्कृति और पारम्परिक सद्भाव की अब भी एक मिसाल बना हुआ है। कभी सीतामऊ का केन्द्र रहे इस गांव में आज भी बेहतरीन हवेलियां और छोटे महल हैं, जो स्वयं शताब्दियों पहले की जल संरक्षण तकनीकों की कथा बयां करते हैं। लदुना और आस-पास के क्षेत्रों में 30 ऐसी बावड़ियां हैं। जिनका निर्माण दो सौ से ज्यादा वर्ष पूर्व हुआ था परन्तु अब उन्हें खोजना पड़ता है।

प्राचीन ग्रामीण समाज पानी के सन्दर्भ में बहुत व्यावहारिक और ठोस तकनीकी सोच रखता था। वह पानी के प्रति पूरी तरह से संवेदनशील था। उनके लिए यह उपभोग या व्यवसाय की वस्तु नहीं था बल्कि समाज के जीवन और मानवीय श्रद्धा का मूल आधार था। यही कारण है कि वह ऐसे जल स्रोतों का निर्माण करता था जिनसे न केवल वर्तमान की जरूरतें पूरी हों बल्कि भविष्य के समाज को भी प्यासा न रहना पड़े। उस समाज ने जमीन की ज्यादा गहराई में जाकर भूमिगत जलधाराओं का शोषण करने, उन्हें सुखाने का प्रयास नहीं किया। वह भूजल को चिरकालीन बनाये रखना चाहता था क्योंकि उसका विश्वास था कि – समय पर होने वाली पानी की कमी से निपटने में यह भूमिगत जलस्रोत ही मददगार साबित होंगे और मिट्टी की नमी से किसान अल्पवर्षा में भी फसल ले सकेंगे।

लदुना में बनी सास-बहू की बावड़ी भी उसी मानवीय सामाजिक सोच को प्रतिबिम्बित करती हैं। जिसमें यह विश्वास किया जाता था कि हर व्यक्ति को अपने जीवन में यथा संभव ऐसे कार्य करने चाहिए जिनसे दूसरों को सुख मिले और उनके कष्टों को कम किया जा सके। इसीलिए हर व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुरूप ऐसे निर्माण कार्यों की पहल करता था जिससे किसी न किसी को विश्राम और शांति का सुख मिल सके। सास-बहू की बावड़ी का निर्माण भी अब से तीन सौ वर्ष पूर्व एक ग्रामीण महिला द्वारा इसी विश्वास के आधार पर कराया गया था कि लदुना से गुजरने वाले राहगीरों की थकान को कम किया जा सकेगा और उनकी प्यास बुझाई जा सकेगी। सास-बहु की बावड़ी अपने आप में अदभुत कला का नमूना भी है। इसमें पानी की सतह तक पहुंचने के लिए वैज्ञानिक ढंग से सीढ़ियां बनाई गई हैं। जबकि विश्राम करने के लिये भी स्थान निर्धारित किया गया है। ये तमाम निर्माण कार्य किसी बाहरी सहायता या अनुदान से नहीं बल्कि स्वेच्छा से निजी प्रयासों से कराये गये थे। इस बावड़ी की गहराई लगभग एक सौ फीट है, और गांव में 35 इंच वर्षा होने पर यह सौ फीट की बावड़ी पानी से लबालब भरी होती है। आज यह बावड़ी निजी कृषि भूमि के दायरे में है, और इसका उपयोग खेतों की सिंचाई में किया जा रहा है। निश्चित रूप से लदुना के पानी की यह कहानी जहां एक ओर सम्पन्न अतीत से हमारा परिचय कराती है तो वहीं दूसरी और आधुनिक भीषण जल संकट से जूझ रहे समाज के भावों की भी व्याख्या करती है। निष्कर्ष यूं तो स्वयं ही निकालना चाहिए फिर भी लदुना की बावड़ियों को संरक्षित किये जाने की पहल समाज के व्यापक हित में ही होगी।

फ़िरदौस ख़ान
सुप्रीम कोर्ट की उस ऐतिहासिक टिप्पणी से मुस्लिम महिलाओं को काफ़ी राहत मिलेगी, जिसमें कोर्ट ने कहा है कि पहली पत्नी के रहते कोई भी सरकारी कर्मचारी दूसरा विवाह नहीं कर सकता. दरअसल, कोर्ट ने राजस्थान सरकार के उस फ़ैसले को सही क़रार दिया है, जिसमें एक मुस्लिम कर्मचारी लियाक़त अली को दूसरी शादी करने की वजह से नौकरी से बर्ख़ास्त कर दिया गया था. सुप्रीम कोर्ट ने मामले की सुनवाई करते हुए स्पष्ट किया है कि पहली पत्नी के रहते कोई भी सरकारी कर्मचारी दूसरा विवाह नहीं कर सकता. अगर कोई सरकारी कर्मचारी ऐसा करता है तो उसे सरकारी नौकरी से बर्ख़ास्त करना सही है.

क़ाबिले-गौर है कि राजस्थान सरकार की ओर से जारी बयान के मुताबिक़ सुप्रीम कोर्ट ने यह फ़ैसला राज्य सरकार के ख़िलाफ़ पुलिस कांस्टेबल लियाक़त अली की विशेष अनुमति याचिका पर दिया है. इससे पहले जस्टिस वी.एस.सिरपुरकर और जस्टिस आफ़ताब आलम की पीठ ने राजस्थान सरकार की इस दलील को मंज़ूर कर लिया कि राजस्थान सिविल सर्विसेज (कंडक्ट) रूल 1971 के नियम 25 (1) के अनुसार सरकारी कर्मचारी पहली पत्नी के जीवित होते दूसरा विवाह नहीं कर सकता. इस मामले में लियाक़त अली ने दलील दी थी कि उसने अपनी पहली पत्नी फ़रीदा खातून से मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत तलाक़ लेने के बाद मकसूदा खातून से दूसरा निकाह किया है, जबकि जांच में पाया गया कि उसने पहली पत्नी से तलाक़ लिए बिना मकसूदा से दूसरा निकाह किया है.

सुप्रीम कोर्ट ने 1986 के इस प्रकरण में गत 25 जनवरी को विशेष अनुमति याचिका की सुनवाई की. शीर्ष कोर्ट ने राजस्थान हाईकोर्ट की डबल बैंच के 2008 के लियाकत अली के ख़िलाफ़ दिए फैसले को बरक़रार रखा और राजस्थान सिविल सर्विसेज 1971 का संदर्भ देते हुए याचिका को ख़ारिज कर दिया. राजस्थान हाईकोर्ट ने भी लियाक़त अली की बर्ख़ास्तगी को सही ठहराया था. राजस्थान के कर्मचारियों के संबंध में बने सेवा नियमों में स्पष्ट है कि सरकारी कर्मचारी पहली पत्नी के जीवित होते हुए दूसरा विवाह नहीं कर सकता. इन नियमों में विवाह के मामले को धर्म से संबंधित नहीं माना गया. यही वजह थी कि सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के नीति निर्देशक तत्वों के संदर्भ में कामन सिविल राइट के मामले में सरकार को कॉमन सिविल कोड बनाने का निर्देश दिया था.

मुस्लिम समाज में महिलाओं की हालत बेहद बदतर है। सच्चर समिति की रिपोर्ट के आंकड़े भी इस बात को साबित करते हैं कि अन्य समुदायों के मुक़ाबले मुस्लिम महिलाएं आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से ख़ासी पिछड़ी हुई हैं. यह एक कड़वी सच्चाई है कि मुस्लिम महिलाओं की बदहाली के लिए 'धार्मिक कारण' काफ़ी हद तक ज़िम्मेदार हैं। इनमें बहुपत्नी विवाह और तलाक़ के मामले मुख्य रूप से शामिल हैं।

बहरहाल, यही कहा जा सकता है कि राजस्थान सरकार का यही नियम अगर देशभर में लागू कर दिया जाए तो मुस्लिम महिलाओं की सामजिक हालत कुछ बेहतर होने की उम्मीद की जा सकती है.

सचिन खरे
भारत माता ने अपने घर में जन-कल्याण का शानदार आंगन बनाया. उसमें शिक्षा की शीतल हवा, स्वास्थ्य का निर्मल नीर, निर्भरता की उर्वर मिट्टी, उन्नति का आकाश, दृढ़ता के पर्वत, आस्था की सलिला, उदारता का समुद्र तथा आत्मीयता की अग्नि का स्पर्श पाकर जीवन के पौधे में प्रेम के पुष्प महक रहे थे.

सिर पर सफ़ेद टोपी लगाए एक बच्चा आया, रंग-बिरंगे पुष्प देखकर ललचाया. पुष्प पर सत्ता की तितली बैठी देखकर उसका मन ललचाया, तितली को पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया, तितली उड़ गई. बच्चा तितली के पीछे दौड़ा, गिरा, रोते हुए रह गया खड़ा.

कुछ देर बाद भगवा वस्त्रधारी दूसरा बच्चा खाकी पैंटवाले मित्र के साथ आया. सरोवर में खिला कमल का पुष्प उसके मन को भाया, मन ललचाया, बिना सोचे कदम बढ़ाया, किनारे लगी काई पर पैर फिसला, गिरा, भीगा और सिर झुकाए वापस लौट गया.

तभी चक्र घुमाता तीसरा बच्चा अनुशासन को तोड़ता, शोर मचाता घर में घुसा और हाथ में हंसिया-हथौड़ा थामे चौथा बच्चा उससे जा भिड़ा. दोनों टकराए, गिरे, कांटें चुभे और वे चोटें सहलाते सिसकने लगे.

हाथी की तरह मोटे, अक्ल के छोटे, कुछ बच्चे एक साथ धमाल मचाते आए, औरों की अनदेखी कर जहाँ मन हुआ वहीं जगह घेरकर हाथ-पैर फैलाए. धक्का-मुक्की में फूल ही नहीं पौधे भी उखाड़ लाए.
कुछ देर बाद भारत माता घर में आईं, कमरे की दुर्दशा देखकर चुप नहीं रह पायीं, दुख के साथ बोलीं- ‘ मत दो झूठी सफाई, मत कहो कि घर की यह दुर्दशा तुमने नहीं तितली ने बनाई. काश तुम तितली को भुला पाते, कांटों को समय रहते देख पाते, मिलजुल कर रह पाते, ख़ुद अपने लिए लड़ने की जगह औरों के लिए कुछ कर पाते तो आदमी बन जाते.
अभी भी समय है, बड़े हो जाओ...
आदमी बन जाओ.

स्टार न्यूज़ एजेंसी
नई दिल्ली. कम डोज़ की चार दवाएं एक साथ लेने से उच्च रक्तचाप को बेहतर तरीके से काबू किया जा सकता है, बनिस्बत एक उच्च मात्रा की सिंगल डोज लेने के।

हार्ट केयर फाउंडेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. के के अग्रवाल ने एक आयरिश अध्ययन का हवाला देते हुए बताया कि अधिकतर लोग जो उच्च रक्तचाप की गिरफ्त में होते हैं, उनको दो से तीन तरह की एंटीहाइपरटेंसिव ड्रग्स की जरूरत होती है। एक साथ एंटीहाइपरटेंसिव मेडिसिन एक या दो तरह की गोलियां लेना ब्लड प्रेशर को काबू करने के लिए सिंगल डोज़ लेने से बेहतर होता है। अध्ययन में डब्लिन के डॉक्टरों के इस दृष्टिकोण पर 108 लोगों को शामिल किया जो हाइपरटेंसिव के मरीज थे। इनमें एक से चार एजेंट ड्रग्स को दिया गया - एक कैल्शियम चैनल ब्लॉकर, एक बीटा-ब्लॉकर, एक डायरेटिक या एस इनहिबिटर या फिर एक कैप्सूल जिसमें सभी चार ड्रग्स की एक चौथाई डोज़ का इस्तेमाल सिंगल ड्रग थेरेपी के तौर पर लेते हों।

चार हफ्तों के बाद एकसाथ दवा लेने वालों में प्रेशर में कमी 19 प्वाइंट दर्ज की गई जो कि सिंगल डोज़ लेने वालों के 6 से 11 प्वाइंट से कहीं ज्यादा थी। अध्ययन में 60 फीसदी को काम्बिनेशन ड्रग के मरीजों ने सामान्य ब्लड प्रेशर को हासिल कर लिया, जबकि सिंगल ड्रग लेने वालों में रीडिंग 15-45 फीसदी मरीज ही इसे हासिल कर सके। काम्बिनेशन एप्रोच से लागत में कमी आती है जिसके साइड इफैक्ट भी कम होते हैं और रोजाना आप कम दवाएं लेते हैं।

अमर सिंह के गुर्दे !
उनका है आरोप, हुए हैं, सिर्फ सपा के कारण मुर्दे !!

संसद में सवाल !
यही पूछने हैं किस हद तक, मुमकिन हैं, कर पायें बवाल !!

नियमों में बदलाव !
किसी नियम को, नियम ना माने, ऐसा निर्मित करें स्वभाव !!

कैदी की मौत से हड़कंप !
दिखला देंगे, चार दिवारी, से नीचे ले ली थी जम्प !!

घटना पर पर्दा डालने का प्रयास !
घटना चाहे कैसी भी हो, परदे के पीछे है ख़ास !!

बिग बी !
अमर सिंह के भैया जी !!

मीडिया !
किसी कांड को बार-बार, दिखलाकर यूं मशहूर किया !!

सुधार !
अगर केंद्र से मिल जाता है, हमें किसी भी तरह उधार !!

हंगामा !
इसके कारण मिल जाता है, रुके हुए वेतन का नामा !!

धुना !
मना ग़नीमत, था दबंग वो, थाने पिटता कई गुना !!

सपा !
देखो, कहीं, किसी कोने में, कोई अमर-वक्तव्य छपा ??
-अतुल मिश्र



स्टार न्यूज़ एजेंसी
नई दिल्ली. मंत्रिमंडल की नियुक्ति समित ने केरल 1976 बैच के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी एस. सुंदरेशन (केरल काडर) की पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय में सचिव पद पर नियुक्ति को अपनी मंजूरी प्रदान कर दी है। सुंदरेशन 1972 बैच के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी आर.एस. पांडेय (नगालैण्ड काडर) का स्थान लेंगे जो 31 जनवरी को सेवानिवृत्त हो रहे हैं।



स्टार न्यूज़ एजेंसी
चंडीगढ़. अपने जीवनकाल में सात सदनों के सदस्य रहने वाले प्रसिध्द स्वतंत्रता सेनानी दिवंगत रणबीर सिंह का संघर्ष व जीवनगाथा अब हरियाणवी लोक संस्कृति में भी सुनाई देगी। रणबीर सिंह के जीवन पर अखिल भारतीय स्वतंत्रता सेनानी उत्तराधिकारी संगठन ने हरियाणवी रागनियों का किस्सा तैयार कराया है जिसका लोकार्पण रविवार 31 जनवरी की शाम पांच बजे खुद मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा व उनके सांसद पुत्र दीपेंद्र सिंह एमडीयू के नवनिर्मित टैगौर थिएटर में करेंगे।

यह जानकारी देते हुए संगठन के राष्ट्रीय महासचिव सत्यानंद याजी ने बताया कि किस्से में शामिल 25 रागनियां प्रसिध्द लोककवि व सांगी पं. जगन्नाथ भारद्वाज (समचाना वाले) ने लिखी हैं। इन रागनियों को नामी लोक गायक रणबीर सिंह बड़वासनियां ने गाया है। दिवंगत रणबीर सिंह की पुण्यतिथि की पूर्वसंध्या पर आयोजित किए जा रहे लोकार्पण समारोह में भी बडवासनियां किस्से में शामिल 8 रागनियां प्रस्तुत करेंगे। याजी के मुताबिक, मुख्यमंत्री इस दिन किस्से की आडियो सीडी के साथ-साथ एमडीयू की रणबीर सिंह पीठ द्वारा प्रकाशित पुस्तिका का विमोचन भी करेंगे।

इस पुस्तिका में किस्से की सभी रागनियों के अलावा दिवंगत रणबीर सिंह के जीवन के महत्वपूर्ण छायाचित्र भी प्रकाशित किए गए हैं। करीब दो घंटे तक स्मृति संध्या के रूप में चलने वाले लोकार्पण समारोह में हुड्डा परिवार के सदस्यों के अलावा क्षेत्र के सांसद-विधायक, बुध्दिजीवी, संस्कृति कर्मी व बड़े पैमाने पर रागनी प्रेमी भाग लेंगे। समारोह में पं. जगन्नाथ व लोकगायक रणबीर सिंह बड़वासनिया को सम्मानित भी किया जाएगा।



उमर कैरानवी
पुरातत्व विभाग की लापरवाही के चलते दानवीर कर्ण की नगरी कैराना में 17वीं सदी के मुगलकालीन नवाब तालाब न केवल खंडहर बनता जा रहा है, बल्कि पूरे शहर का कूड़ेदान बनकर रह गया है. इतना ही नहीं, यहां अवैध कब्जों की भी भरमार है. हैरानी की बात यह भी है कि जहांगीर के समय की ऐतिहासिक महत्व की इमारतों पर जरा भी ध्यान नहीं रखा जा रहा है. महाबलि कर्ण और जहांगीर बादशाह से अपने रिश्‍तों पर कैराना ही नहीं पूरे देश को गर्व होना चाहिए था, लेकिन आज यह बातें ही इसे रुसवा कर रही हैं.

आज कोई उस बाग और तालाब की दुर्दशा को आसानी से आकर नहीं देख सकता, क्योंकि इसका जो आसान रास्‍ता था हाईवे से तालाब तक जाता था, वह जहांगीर के समय के बाद अब पक्‍का हो रहा था, लेकिन उस रास्‍ते के दोनों तरफ एक कब्रिस्‍तान आ रहा था. कुछ लोगों ने अपनी जमीन बताकर यहां दीवारें खड़ी कर लीं. अब कितनी ही कब्रें भी दिखाई दे रही हैं. जब तक इस बारे में कोई कार्यवाही होगी, कब्रों की नकली और असली संख्‍या बढ़ने से समस्‍या का समाधान निकलना मुश्किल है.

कैराना जो कभी कर्ण की राजधानी थी. मुजफ़्फ़रनगर से करीब 50 कि. मी. पश्चिम में हरियाणा सीमा से सटा यमुना नदी के पास करीब 90 हज़ार की आबादी वाला यह कस्बा कैराना प्राचीन काल में कर्णपुरी के नाम से विख्यात था जो बाद में बिगड़कर किराना नाम से जाना गया और फिर किराना से कैराना में परिवर्तित हो गया. कैराना में महाबली कर्ण, नकुड़ में नकुल, तथा थानाभवन में भीम आदि के शिविर थे. इसी प्रकार क अक्षर से नाम शुरू होने वाले कस्बों में करनाल, कैराना, कुरुक्षेत्र, कांधला आदि में कुरुवंश के युवराज दुर्योधन ने अंगदेश बनाकर कर्ण को सौंपा था.

जहांगीर बादशाह ने इस तालाब और बाग़ को देखकर आश्‍चर्यचकित होकर कहा था- बाग में ऐसे फल लगे पेड़ भी हैं जो कि गर्मी में या सर्दी में मिलते हैं. मेवादार दरख्त जो कि ईरान और ईराक में होते हैं यहां तक कि पिस्ता के पौधे भी सरसब्जी की शक्ल में और खुश कद और खुश बदन सर्व, सनूबर के पेड़ इस किस्म के देखे कि अब तक कहीं भी ऐसे खूबी और लताफत वाले सरू (पेड़) नहीं देखे गए. अफ़सोस की बात तो यह भी है कि मुज़फ्फरनगर जिले की सरकारी वेबसाइट के मुगलकाल की ऐतिहासिक इमारतों की सूची में इसका ज़िक्र तक नहीं है. गौरतलब है कि इस सेक्‍शन में केवल जानसठ की इमारतों के चित्र दिए गए हैं. जिस इमारत का ज़िक्र स्‍वयं मुगल बादशाह जहांगीर ने किया, उसे भी इस सेक्‍शन में स्‍थान नहीं दिया गया. हालांकि सरकार द्वारा बार-बार इस ऐतिहासिक तालाब के सौन्दर्यीकरण के लिए लाखों रुपयों की घोषणा की गई. यह अलग बात है कि अभी तक इन घोषणाओं को अमलीजामा नहीं पहनाया गया है.


सलीम अख्तर सिद्दीकी

1965 और 1971 की लड़ाई के बाद से ही पाकिस्तान हमारा दुश्मन रहा है। 1971 की जंग के बाद से ही आने-जाने के रास्ते बंद थे। 1978 में दोनों देशों के बीच आगमन का सिलसिलाशुरू हुआ था इसी दौर में क्रिकेट को दोनों देशों के बीच ताल्लुकात बेहतर करने का जरिया माना गया था। लेकिन दोनों देशों के बीच सास-बहु सरीखी नोंक-झोंक कभी बंद नहीं हुई। यह पता होने के बाद भी कि पाकिस्तान के तानाशाह जनरल जिया-उल-हक पंजाब के आतंकवादियों को शह दे रहे हैं, पाकिस्तान से सम्बन्ध बने रहे। यहां तक हुआ कि क्रिकेट मैच देखने जनरल साहब एक बार जयपुर तशरीफ लाए थे। एक बार दोनों मुल्कों ने मिलकर क्रिकेट का वर्ल्ड कप का भी आयोजन किया था। दिसम्बर 2001 में संसद पर हमले के बाद एक बार फिर दोनों मुल्कों की फौजें आमने-सामने आ गईं थीं, जो बिना लड़े ही बैरकों में वापस चली गयी थीं। इससे पहले अटल बिहारी वाजपेयी साहब बतौर प्रधानमंत्री लाहौर और दिल्ली के बीच बस चलवा चुके थे। एक बार लगा था कि दोनों मुल्कों के बीच मधुर सम्बन्ध कायम हो जाएंगे, लेकिन 26/11 के बाद दोनों देशों के बीच फिर से तनातनी चल रही है।

आईपीएल में पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाड़ियों को नहीं लिया गया। इस पर पाकिस्तान में तीखी प्रतिक्रिया हुई। आईपीएल के कर्ता-धर्ताओं का तर्क है कि 26/11 के कारण पाकिस्तान के खिलाडियों को नहीं लिया गया हैं। यदि पाकिस्तान के खिलाड़ियों को नीलामी से बाहर ही रखना था तो उन्हें भारत सरकार ने वीजा ही क्यों जारी किया था ? पाकिस्तान 20-20 क्रिकेट का वर्ल्ड चैम्पियन है। ऐसे मे पाकिस्तानी खिलाड़ियों को आईपीएल से बाहर रखने पर आईपीएल के रोमांच में न सिर्फ कमी आएगी बल्कि 26/11 के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच जो खाई पैदा हुई है, उसमें बढ़ोतरी होगी। समझ में यह नहीं आता कि आतंकवाद के बहाने क्रिकेट पर क्यों चोट की जा रही है। क्या पाकिस्तान को क्रिकेट से अलग करके आतंकवाद को खत्म किया जा सकता है ? आईपीएल में पाकिस्तान के खिलाड़ियों का बहिष्कार आतंकवादियों के मंसूबे पूरे करने में सहायता करने के बराबर है। क्योंकि आतंकवादी और उनके आका हर हाल में यह चाहते हैं कि दोनों देशों के बीच एक बार और जंग हो जाए। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री का कहना है कि वह इस बात की गारंटी नहीं दे सकते हैं कि आतंकवादी फिर कभी भारत में कोई आतंकवादी घटना को अंजाम नहीं देंगे। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के इस बयान का अर्थ यह है कि पाकिस्तान सरकार का भी आतंकवादियों पर कोई बस नहीं रहा है। इसको ऐसे ही समझिए जैसे हमारे कृषि मंत्री यह बयान दें कि मुझे नहीं पता कि दें कि चीनी कब सस्ती होगी। कभी-कभी तो लगता है कि आतंकवाद की आड़ में दोनों देशों के साथ कोई ऐसी अन्तरराष्ट्रीय साजिश की जा रही है, जिससे दोनों देश न तो दोस्त ही बनें और न ही दुश्मन।

एक सवाल और है, जो बार-बारे जेहन में आता है, आखिर भाजपा को पाकिस्तान से ताल्लुक बेहतर रखने में इतनी दिलचस्पी क्यों रहती है? आखिर भाजपा नेताओं का पाकिस्तान प्रेम का राज़ क्या है ? विपक्ष में रहते हुए उन्होंने हमेशा ही पाकिस्तान को पानी पी-पीकर कोसा। यह भी बार-बार मांग की गयी कि पाकिस्तान में चल रहे आतंकी ट्रेनिंग कैम्पों को भारतीय फौज पाकिस्तान में घुसकर तबाह करे। लेकिन जब भी भाजपा के लोग सत्ता में रहे, उन्होंने पाकिस्तान में घुसकर आतंकी ट्रेनिंग कैम्पों को तबाह करने के बजाय पाकिस्तान से दोस्ती करने की कवायद की है। 1978 में जनता पार्टी की सरकार में विदेश मंत्री रहे अटल बिहारी वाजपेयी ने ही दोनों देशों के बीच बंद पड़े रास्ते को खुलवाया था। इन्हीं अटल बिहारी वाजपेयी ने एक तानाशाह जनरल मुर्शरफ को आगरा बुलाया और लाहौर और दिल्ली के बीच चलने वाली बस को भी हरी झंडी भी अटल बिहार वाजपेयी ने ही दिखाई थी। लालकृष्ण आडवाणी साहब कराची में जिनाह की मजार पर मत्था टेकते हैं और जिनाह को सैक्यूलर होने का सर्टीफिकेट दे आते हैं।

सच तो यह है कि पाकिस्तान के साथ दुश्मनी ही निभानी चाहिए। दोनों को अपने-अपने दूतावास बंद कर देने चाहिए। यदि समझौता एक्सप्रेस से पाकिस्तानी आतंकवादी भारत में आते हैं और भारत से कुछ लोग भारत के खिलाफ जासूसी करने की ट्रेनिंग लेने पाकिस्तान जाते हैं तो समझौता एक्सप्रेस को बंद कर देना ही मुनासिब होगा। दोनों देशों की एक कदम आगे और एक कदम पीछे की नीति समझ में नहीं आती है। एक बार तय करें कि पाकिस्तान हमारा दुश्मन है या दोस्त? दोस्त?


पल्लवी चिनया
कहते हैं कि जहां चाह वहां राह। आदिला अन्सेर के मामले में ये प्रेरक शब्द कहीं अधक चरितार्थ हुए हैं। कई वर्ष पहले 9 बच्चों में सबसे बड़ी आदिला के कंधों पर उसके परिवार का सारा बोझ आन पड़ा। उसके कमजोर कंधों पर उसके पूरे परिवार की जिम्मेदारी थी, लेकिन फिर भी उसका हौसला अटल और इच्छाशक्ति दृढ़ बनी रही। यह पुरानी कहावत उस वक्त सच साबित हुई जब उसने अपने लिए तथा अपने आश्रितों के लिए भी अनेक अवसर पैदा किए। शिमोगा जिले के एक औद्योगिक कस्बे भद्रावती की यह साहसी महिला दसवीं कक्षा तक पढ़ी है। यह आज एक गैर सरकारी संगठन जीवा (जवाहर एजुकेशन, एम्पावरमेंट, विज़न इन एक्शन) की निदेशक हैं। इस एनजीओ का सकल वार्षिक कारोबार 14-17 लाख रुपए का है। वर्षों से यह एनजीओ जिले के विविध भागों में स्व सहायता समूह बनाने और चलाने में सहायता करता आया है।

आदिला ने 15 वर्ष की उम्र में दसवीं (एसएसएलसी) करते ही 1983 में आंगनबाड़ी कार्यकर्ता के रूप में कैरियर प्रारंभ किया। जब वह महिला समूह का अंग बनी तो स्व सहायता समूह को चलाने और उपयोगिता के बारे में पहले बीज बोए गए। वर्ष 1993 में जवाहर महिला मंडली नाम से इस अनौपचारिक समूह ने औपचारिक शुरूआत की। उसके बाद आदिला ने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। वह समुदाय कार्य में सक्रिय रूप से संलग्न हो गई । वह स्व सहायता समूहों को एकजुट करने तथा उन्हें बनाने में मदद करने लगी। तब से लेकर आज तक वह महिला मंडल शिमोगा और भद्रावती के विविध भागों में 286 समूहों को बनाने में मदद कर चुका है। तब का महिला मंडल आज पूर्ण सुसज्जित एनजीओ यानी गैर सरकारी संगठन है। इन 286 समूहों में से 42 पुरूषों के तथा 15 विकलांग व्यक्तियों के स्व सहायता समूह हैं। महिलाओं वाले कुल स्व सहायता समूहों में से 78 अल्पसंख्यक समूहों के हैं। करीब 4800 लोग इन विभिन्न समूहों के सदस्य बन चुके हैं।

ये स्व सहायता समूह विभिन्न गतिविधियों में संलग्न हैं जिनमें अचार और सांभर पाउडर बनाना, कसीदाकारी और दस्तकारी, साबुन एवं फिनाइल बनाना, ठोस अवशिष्ट प्रबंधनवर्मी कम्पोस्ट बनाना इत्यादि शामिल हैं। जीवा पिछड़ी जातियों, अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों, विधवाओं, बच्चों और नि:सहाय व्यक्तियों के लिए स्व रोजगार के अवसर पैदा करने के लिए रोजगारोन्मुख पाठयक्रम भी चलाता है। इस गैर सरकारी संगठन को इलैक्ट्रानिक उपकरणों की मरम्मत के लिए महिलाओं को प्रशिक्षण देने का श्रेय भी हासिल है। इस पाठयक्रम में प्रशिक्षण हासिल कर चुकी दो महिलाएं शिमोगा में अपनी दुकानें चला रही हैं।

इस गैर सरकारी संगठन की कामयाबी ने आदिला अन्सेर की उपलब्धियों में चार चांद लगा दिए हैं। आदिला ने अल्पसंख्यक प्रधान धर्म घाट्टा क्षेत्र में अल्पसंख्यकों से जो संपर्क और संबंध कायम किए हैं उससे शिमोगा जिला पंचायत को बहुत मदद मिली है। शिमोगा जिला पंचायत को सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान के तहत परिवारों के लिए व्यक्तिगत शौचालयों के निर्माण के लिए कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा था। आदिला ने सफलतापूर्वक मध्यस्थता की और वह समुदाय को सफाई एवं स्वच्छता के स्वास्थ्य संबंधी फायदे समझाने में सफल रहीं। अब गांववालों का कहना है कि इन शौचालयों से उनकी प्रतिष्ठा और हैसियत में महत्त्वपूर्ण सुधार हुआ है, तथा महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा बढ़ी है।

यह अल्पसंख्यक समुदाय की महिला की सफलता की कहानी है जिसने दूसरों की मदद करना अपना ध्येय बना लिया है। कई वर्ष पहले आदिला को जिन हालात का सामना करना पड़ा, उनमें घिरी अपने जैसी अन्य महिलाओं की मदद करना उसके जीवन का ध्येय बन गया है। वह कहती है कि यही बात उसे निरन्तर काम जारी रखने का हौसला देती है।


तालाबंदी जारी !
ताले बोले,"बात तालियों, ने ना बिलकुल सुनी हमारी !!"

हड़ताल का असर !
रोगी अस्पताल में, म्रत्यु-पूर्व कर रहे गुज़र-बसर !!

अर्थी पर रखा मुर्दा बेचा !
रिश्तेदारों ने अंगों के, संग उसका हर गुर्दा बेचा !!

पुनर्निर्माण !
जैसे किसी मरे प्राणी में, वापस डाले जाएं प्राण !!

कॉलेज में फ़ोर्स !
गयी देखने, वाकई कैसे, पूरा होता इनका कोर्स ??

कार्यक्रम !
कार्य सही होने का, जिसमें रहता है भ्रम !!

रूपरेखा !
केवल कुछ रेखाएं देखीं, उनका रूप तलक ना देखा !!

तालमेल !
ताल ठोंककर, बेचें नकली, जब थाने के सम्मुख तेल !!

तनाव !
जब ऊपर से 'ऊपर वाली', इनकम हेतु पड़े दबाव !!

छापे !
जिन्हें पता था, निकल लिए वो, जिन्हें नहीं मालूम वे नापे !!

सबूत !
हत्यारे का नाम बताने, पहुंचा कोर्ट मृतक का भूत !!
-अतुल मिश्र



स्टार न्यूज़ एजेंसी
नई दिल्ली. देशभर में आज 61वां गणतंत्र दिवस समारोह धूमधाम से मनाया गया. नई दिल्ली में आयोजित मुख्य समारोह के दौरान घने कोहरे के बीच राजपथ पर सुनाई दे रहे...'सारे जहां से अच्‍छा हिन्दोस्तां हमारा' ने सबको देशभक्ति के जज़्बे से भाव-विभोर कर दिया. क़दम से क़दम मिलाती सेना सेना की टुकड़ियों की परेड भी देश की शक्ति का प्रदर्शन कर रही थीं. विभिन्न राज्यों की संस्कृतियों को दर्शाती झांकियों ने भी सबका मन मोह लिया.

इससे पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अमर जवान ज्योति पर शहीद हुए बहादुर जवानों को देश की तरफ़ से श्रद्धासुमन अर्पित किए. राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने यहां राष्ट्रध्वज फहराकर परेड का शुभारंभ किया. समारोह में दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति ली म्युंग-बाक मुख्य अतिथि के रूप में मौजूद थीं. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, उनके मंत्रिमंडल के सदस्य और देश के तमाम शीर्ष राजनेता, सैन्य अधिकारी व विदेशी राजनयिक भी समारोह में शामिल हुए.

गणतंत्र दिवस समारोह के मद्देनज़र राजधानी क्षेत्र में सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किए गए थे. विजय चौक से लेकर लाल किले तक परेड के आठ किलोमीटर रास्ते के चप्पे-चप्पे पर निगाह रखने के लिए 15 हजार जवान तैनात किए गए थे. इसके अलावा एनी महत्वपूर्ण स्थानों की भी निगरानी की जा रही थी.

उधर, श्रीनगर के लाल चौक में 19 साल में पहली बार आज गणतंत्र दिवस पर तिरंगा नहीं फहराया गया. साल 1991 के बाद हर साल गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस पर लालचौक के घंटाघर पर तिरंगा फहराया जाता रहा है. 1991 में भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष रह चुके मुरली मनोहर जोशी ने यहां तिरंगा फहराया था. उसके बाद से सुरक्षा बल यहां ध्वजारोहण करता रहा है. इतना ही नहीं गणतंत्र दिवस के मद्देनज़र श्रीनगर में सुरक्षा के खास इंतज़ाम किए गए थे, जिससे यहां सन्नाटा पसरा रहा.


'सारे जहां से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा!'
बीच सड़क पर, खुले गटर में, गिरा आदमी देकर नारा !!

गणतंत्र-दिवस पर!
महंगाई पर भाषण देकर, हाथ रख फिर दुखती नस पर !!

प्रभातफेरी!
अलसाई छब्बीस जनवरी, ठिठुरन ने करवा दी देरी !!

नई योजनाएं!
गत वर्षों जो नई बनी थीं, कहां सो रही हैं, बतलाएं !!

ध्वजारोहण!
कमर तोड़ती महंगाई में, लिया सभी ने जीने का प्रण ??

सार्वजनिक अवकाश!
खुली दुकानें देख रहा था, भौंचक्का नीला आकाश !!

कुनबेदार!
एक-दूसरे के कष्टों से, पाते खुशियां सभी अपार !!

आयकर!
जीवन भर का टैक्स जमा कर, तब दुनिया को 'बाय' कर !!

टेलीफोन!
कभी-कभी आती है जिसमें, बातचीत को डायल टोन !!

वसूली!
रक़म अधिक हो, फिर भी उसको, सिद्ध करें, है सही, उसूली !!

हार्दिक शुभकामनाएं!
चलो, ठिठुरते नग्न तनों को, मरने से पहले दे आएं !!
-अतुल मिश्र


फ़िरदौस ख़ान
मौजूदा खाद्यान्न की जरूरत को देखते हुए देश में दूसरी हरित क्रांति पर खासा जोर दिया जा रहा है, लेकिन सवाल यह है कि जब सोना उगलने वाली धरती ही बंजर हो जाएगी तो अनाज कैसे पैदा होगा। इसलिए भूमि की उर्वरक शक्ति को बचाए रखना बेहद जरूरी है, वरना कृषि के विकास की तमाम योजनाएं धरी रह जाएंगी।

गौरतलब है कि देश में हरित क्रांति की शुरुआत वर्ष 1966-67 में हुई थी। इसकी शुरुआत दो चरणों में की गई थी, पहला चरण 1966-67 से 1980-81 और दूसरा चरण 1980-81 से 1996-97 रहा। हरित क्रांति से अभिप्राय देश के सिंचित और असिंचित कृषि क्षेत्रों में ज्यादा उपज वाले संकर और बौने बीजों के इस्तेमाल के जरिये तेजी से कृषि उत्पादन में बढ़ोतरी करना है। हरित क्रांति की विशेषताओं में अधिक उपज देने वाली किस्में, उन्नत बीज, रासायनिक खाद, गहन कृषि जिला कार्यक्रम, लघु सिंचाई, कृषि शिक्षा, पौध संरक्षण, फसल चक्र, भू-संरक्षण और ऋण आदि के लिए किसानों को बैंकों की सुविधाएं मुहैया कराना शामिल है। रबी, खरीफ और जायद की फसलों पर हरित क्रांति का अच्छा असर देखने को मिला। किसानों को थोड़े पैसे ज्यादा खर्च करने के बाद अच्छी आमदनी हासिल होने लगी।

हरित क्रांति के चलते हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडू के खेत सोना उगलने लगे। साठ के दशक में हरियाणा और पंजाब में गेहूं के उत्पादन में 40 से 50 फीसदी तक बढ़ोतरी दर्ज की गई। जिस वक्त हरित क्रांति का नारा बुलंद हुआ उस वक्त देश भुखमरी के दौर से गुजर रहा था और देश को अनाज की सख्त जरूरत थी। इसलिए सभी का ध्यान ज्यादा से ज्यादा अनाज पैदा करने में था, लेकिन जैसे-जैसे वक्त गुजरता गया रासायनिक उर्वरकों और अत्यधिक विषैले कीटनाशकों के अंधाधुंध इस्तेमाल की वजह से सोना उगलने वाली धरती बंजर होने लगी।

हरियाणा में उपजाऊ शक्ति के लगातार ह्रास से भूमि के बंजर होने की समस्या ने किसानों के सामने एक नई चुनौती पैदा कर दी है। सूखा, बाढ, लवणीयता, कीटनाशकों के अंधाधुंध इस्तेमाल और अत्यधिक दोहन के कारण भू-जल स्तर में लगातार गिरावट आने से उपजाऊ धरती अब मरूस्थल का रूप धारण करती जा रही है। हरियाणा मृदा प्रयोगशाला की एक रिपोर्ट के मुताबिक 90 के दशक तक मिट्टी की उपजाऊ शक्ति सही थी, लेकिन उसके बाद मिट्टी से जिंक, आयरन और मैगनीज जैसे पोषक तत्वों की कमी होने लगी। राज्य के दस जिलों की मिट्टी का पीएच लेवल सामान्य स्तर पर नहीं है। अम्बाला, कुरुक्षेत्र, कैथल और करनाल जिलों में कृषि भूमि में जिंक की मात्रा तेजी से घट रही है, जबकि हिसार, जींद, फतेहाबाद और सिरसा जिले की कृषि भूमि में मैगनीज की कमी है। किसान रासायनिक खादों का इस्तेमाल कर इन पोषक तत्वों की कमी को पूरा करने की कोशिश कर रहे हैं जिससे भूमि बंजर हो रही है। हरियाणा में एक साल के भीतर 291 हेक्टेयर कृषि भूमि बंजर हो गई। इसमें अम्बाला की 12 हेक्टेयर, कुरुक्षेत्र की आठ हेक्टेयर, कैथल की 17 हेक्टेयर, पानीपत की 24 हेक्टेयर, सोनीपत की 16 हेक्टेयर, जींद की 19 हेक्टेयर, हिसार की 17 हेक्टेयर, फतेहाबाद की छह हेक्टेयर, सिरसा की भी छह हेक्टेयर, गुडग़ांव की 24 हेक्टेयर, रेवाडी क़ी 23 हेक्टेयर, महेंद्रगढ क़ी भी 23 हेक्टेयर, भिवानी की 28 हेक्टेयर, फरीदाबाद की 32 हेक्टेयर, पंचकूला की 12 हेक्टेयर और यमुनानगर की 20 हेक्टेयर शामिल है।

हैरत की बात यह भी है कि अधिक उत्पादन के लिए ज्यादा खाद का उत्पादन करने वाले राज्य अब पैदावार के मामले में पिछड रहे हैं। हरियाणा 327 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर खाद के इस्तेमाल पर सिर्फ 62 हजार रुपए की प्रति हेक्टेयर पैदावार दे रहा है। इंडिकस एनालिटिक्स के मुताबिक देश के सर्वाधिक उर्वरक इस्तेमाल करने वाले जिलों की फेहरिस्त में हरियाणा को सबसे ज्यादा जगह मिली है। हरियाणा के करनाल, पानीपत, सोनीपत और कुरुक्षेत्र जिले इस रैंकिंग में क्रमश: दूसरे, तीसरे, नौवें और दसवें नंबर पर हैं। करनाल और पानीपत में एक साल के दौरान खाद का इस्तेमाल 650 से 700 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर पहुंच गया है, जबकि सोनीपत और कुरुक्षेत्र में भी खाद का इस्तेमाल 500 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से ज्यादा है। करनाल और पानीपत की प्रति हेक्टेयर उत्पादकता देश में क्रमश: 66वें और 130वें नंबर पर है। हरियाणा केंद्रीय पूल में पंजाब के बाद गेहूं देने वाला देश का दूसरा राज्य है, लेकिन पिछले लगातार कुछ सालों से यहां प्रति हेक्टेयर उत्पादन में कम दर्ज की गई है। जहां वर्ष 1999-2000 में राज्य में कुल 96.50 लाख टन का उत्पादन हुआ, वहीं वर्ष 2004-2005 में यह घटकर 88.57 लाख टन ही रह गया। इतना ही नहीं इस समयावधि में प्रति हेक्टेयर उत्पादन में बेहद कमी दर्ज की गई। जहां वर्ष 1999-2000 में गेहूं का उत्पादन औसत 41.43 क्विंटल प्रति हेक्टेयर था, वहीं वर्ष 2005-2006 में यह घटकर 38.67 क्विंटल प्रति हेक्टेयर रह गया। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक जहां 1901 में प्रति व्यक्ति 1.37 हेक्टेयर कृषि भूमि उपलब्ध थी, वह 1951 तक घटकर 0.98 हेक्टेयर रह गई है। मगर अब स्थिति और भी चिंताजनक है, क्योंकि 2001 में कृषि भूमि की यह उपलब्धता प्रति व्यक्ति मात्र 0.15 हेक्टेयर रह गई है। इसमें कोई दो राय नहीं कि अगर कृषि भूमि की उपलब्धता में आ रही इस गिरावट को नहीं रोका गया तो आने वाले समय में हमें खाद्यान्न संकट का सामना करना पड़ेगा।

इसके अलावा अत्यधिक दोहन के कारण भू-जल स्तर में गिरावट आने से भी बंजर भूमि के क्षेत्र में बढ़ोतरी हो रही है। केंद्रीय भूमि जल प्राधिकरण के मुताबिक देशभर के 18 राज्यों के 286 जिलों में पिछले दो दशकों के दौरान भू-जल स्तर चार मीटर गिरा है। हरियाणा के महेंद्रगढ अौर कुरुक्षेत्र में भू-जल स्तर हर साल क्रमश: 54 और 48 सेंटीमीटर की गति से गिर रहा है। हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय से मिली जानकारी के मुताबिक कुरुक्षेत्र, करनाल, गुडग़ांव, मेवात, पानीपत, कैथल, रेवाडी, यमुनानगर, पंचकूला, फरीदाबाद, सोनीपत और महेंद्रगढ ज़िलों में औसत भू-जल स्तर तेजी से गिर रहा है। काबिले-गौर है कि जमीन में पानी के रीचार्ज के मुकाबले टयूबवैल 40 से 50 फीसदी भू-जल का दोहन कर रहे हैं। हरियाणा स्टेट माइनर इरिगेशन टयूबवैल कॉरपोरेशन और सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड की सर्वेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 1966 में 27,957 टयूबवैल थे, लेकिन वर्ष 2000 में इनकी संख्या बढ़कर 83,705 हो गई। मौजूदा वक्त में राज्य में करीब 6,11,603 बताई जा रही है। इनमें से 2,80000 टयूबवैल डीजल और तीन लाख टयूबवैल बिजली से चलाए जा रहे हैं। पर्यावरणविदों के मुताबिक भारत में भूमि प्रबंधन का परिदृश्य बेहद निराशाजनक है। आजादी के बाद सिंचाई के परंपरागत तरीकों के बजाय आधुनिक सिंचाई प्रणालियों को अपनाया गया, जिससे भूमि की उत्पादकता में कमी आई है। भूमि के बंजर होने व अन्य कारणों से प्रति व्यक्ति कृषि भूमि क्षेत्र में कमी हो रही है।

बंजरीकरण का पता लगाने और इस समस्या से निपटने के लिए वर्ष 1997 में हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. जेवी चौधरी की अध्यक्षता में एक समिति बनाई गई थी। इस समिति में सिंचाई, कृषि और वन आदि के विशेषज्ञ भी शामिल थे। इस समिति की रिपोर्ट में कहा गया था कि बंजरीकरण की समस्या पहले सिर्फ राजस्थान में ही थी, लेकिन बाद में इसके प्रभाव क्षेत्र में हरियाणा और पंजाब भी आ गए। विशेषज्ञों का कहना है कि किसानों को रासायनिक खादों का इस्तेमाल धीरे-धीरे बंद करके पारंपरिक जैविक खाद को अपनाना चाहिए। इससे न केवल वे कृषि लागत में कई गुना कमी ला सकते हैं, बल्कि कृषि योग्य भूमि को पुन: उपजाऊ भी बना सकते हैं। गौरतलब है कि हरियाणा में कीटनाशकों के इस्तेमाल से पैदा हुई समस्याओं के चलते जैविक खाद और दूसरे संसाधन प्रयोग किए जाने को लेकर अनुसंधान का काम चल रहा है। हरियाणा में सिरसा एकमात्र ऐसा जिला है, जहां राज्य जैविक नियंत्रण प्रयोगशाला है। इस प्रयोगशाला में बायो प्रोडक्ट तैयार किए जा रहे हैं। यहां ट्राइकोट्रमा नामक जैविक दवा तैयार की गई है जिससे बीज को उपचारित किया जा सकता है। किसानों को यह दवा मुफ्त मुहैया कराई जा रही है। भूमि को उपचारित करने के लिए प्रति एकड में एक किलो दवा को खाद में मिलाकर खेत में छिडक़ा जाता है। प्रयोगशाला के अधिकारी के मुताबिक बायो प्रोडक्ट ज्यादा गर्मी में काम नहीं कर सकते, जबकि कीटनाशकों पर ज्यादा तापमान का कोई असर नहीं पडता। उनका यह भी कहना है कि वर्ष 2004 में बनी इस प्रयोगशाला के वातानुकूलित न होने के कारण बायो प्रोडक्ट के उत्पादन में रुकावट आ रही है।

अलबत्ता, बंजर भूमि की स्थिति पर नियंत्रण पाने के मकसद से 1992 में ग्रामीण विकास मंत्रालय के तहत अलग से बंजर भूमि विकास विभाग स्थापित किया गया और राष्ट्रीय बंजर भूमि विकास बोर्ड को इसके अंतर्गत रखा गया। भूमि की उत्पादकता में कमी को रोकने और बंजर भूमि के उपयुक्त उपयोग के बेहतर सुझावों की .ष्टि से बोर्ड का पुनर्गठन भी किया गया। फिलहाल सात अरब 78 करोड से 25 राज्यों में 247 समेकित कार्यक्रम चल रहे हैं। इन कार्यक्रमों के तहत 15 लाख 98 हजार हेक्टेयर बंजर भूमि को कृषि योग्य बनाने का काम हो रहा है।

चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि जैविक खाद का इस्तेमाल करके कृषि भूमि को बंजर होने से बचाया जा सकता है। उनके मुताबिक आज देश में 5.38 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में जैविक खेती हो रही है। उम्मीद है कि वर्ष 2012 तक जैविक खेती का फसल क्षेत्र 20 लाख हेक्टेयर से ज्यादा हो जाएगो। वर्ष 2003 में देश में सिर्फ 73 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में जैविक खेती हो रही थी, जो 2007 में बढ़कर 2.27 लाख हेक्टेयर हो गई।

हालांकि सरकार ने किसानों के कल्याण के लिए अनेक योजनाएं शुरू कीं, जिनमें राष्ट्रीय फसल बीमा योजना, किसान क्रेडिट कार्ड योजना, राष्ट्रीय सिंचाई योजना, कमजोर वर्ग की सहकारी समितियों को सहायता, महिला सहकारी समितियों को सहायता, गैर अतिदेय से संबध्द योजना, कृषि ऋण स्थरीकरण निधि, अनुसूचित जातिध्जनजाति के लिए विशेष योजना, धान आधारित फसल क्षेत्रों में समेकित अनाज विकास कार्यक्रम, गेहूं आधारित फसल क्षेत्रों में समेकित अनाज विकास कार्यक्रम, मोटा अनाज आधारित फसल पध्दति क्षेत्रों में समेकित अनाज विकास कार्यक्रम, विशेष जूट विकास कार्यक्रम, गन्ना आधारित फसल पध्दति क्षेत्रों में सतत् विकास, उर्वरक का संतुलित एवं समेकित प्रयोग, छोटे किसानों में कृषि यंत्रीकरण को प्रोत्साहन, उष्ण कटिबंधीय, सूखा एवं गर्म क्षेत्र के फलों का समेकित विकास, सब्जी बीजों का उत्पादन एवं आपूर्ति, वाणिज्यिक फूलों का विकास, औषधीय एवं सुगंधित पौधों का विकास, जड़ों एवं कंद फसलों का विकास, नारियल एवं काजू का विकास, मसालों के विकास के लिए समेकित कार्यक्रम, मशरूम का विकास, कृषि में प्लास्टिक का प्रयोग, मधुमक्खी पालन, बारानी क्षेत्रों के लिए राष्ट्रीय जलागम विकास परियोजना, सब्जी फसलों के आधारित और प्रमाणन बीज उत्पादन के लिए योजनाएं, नदी घाटी परियोजनाओं एवं बाढ़ प्रवण नदियों के जलागम क्षेत्र में मृदा संरक्षण, क्षारीय मृदा का विकास एवं सुधार और राज्य भूमि प्रयोग बोर्ड आदि शामिल हैं। मगर अज्ञानता और जागरूकता की कमी के चलते देश के छोटे और मझोले किसानों तक इनका लाभ नहीं पहुंच पाया है।

हरियाणा के किसानों ने कृषि की अत्याधुनिक तकनीकों के साथ पारंपरिक विधियों को अपनाकर जहां कृषि लागत को कम किया, वहीं बांगवानी, कृषि वानिकी, मछली पालन, मधुमक्खी पालन और पशुपालन को अपनाकर एक-दूसरे के जरिये लाभ को बढ़ाया। साथ ही डीप इरीगेशन, ऑर्गेनिक फार्मिंग, रो व कीट नियंत्रण, मृदा संरक्षण, उन्नत कृषि, फसल चक्र, जीरो टिलेज, कार्बनिक खाद, उन्नत बीजों का इस्तेमाल, कृषि यंत्रों का बेहतर उपयोग कर उन्होंने सराहनीय कृषि प्रदर्शन किया। इन्हीं में से एक हैं कैथल जिले के चंदाना गांव के निवासी व कैथल के प्रगतिशील किसान क्लब के प्रधान कुशलपाल सिरोही, जो जैविक खाद का इस्तेमाल कर कृषि लागत को कम कर ज्यादा मुनाफा कमाते हैं। उन्हें औषधीय पौधे, गन्ना, सोयाबीन, गुलाब, अमरूद, नींबू व मशरूम के रिकॉर्ड उत्पादन के लिए कई प्रमाण-पत्र मिल चुके हैं। अनेक राष्ट्रीय व राज्यस्तरीय पुरस्कारों से सम्मानित सिरोही कहते हैं कि हरित क्रांति का फायदा तभी होगा जब किसानों को जागरूक किया जाए और उनके कल्याण के लिए सरकार द्वारा शुरू की गई योजनाओं का सीधा लाभ उन तक पहुंचे। जैविक खेती कर रहे गुड़गांव जिले के फर्रूख़नगर के निवासी व गुड़गांव किसाल क्लब के अध्यक्ष राव मानसिंह कहते हैं कि परंपरागत जैविक खेती सर्वश्रेष्ठ और सर्वोत्तम है। वे कहते हैं कि वह अपने खेतों में उत्पन्न होने वाले पत्तियों के कचरे और गोबर से केंचुआ खाद बनाते हैं। केंचुए से ही कीटनाशक वर्मीवाश तैयार करते हैं।

यह कहना कतई गलत न होगा कि कृषि की अत्याधुनिक तकनीकों के साथ फायदेमंद पारंपरिक विधियों के इस्तेमाल से दूसरी हरित क्रांति के सपने को साकार किया जा सकता है।



स्टार न्यूज़ एजेंसी
नई दिल्ली. उपराष्ट्रपति मोहम्मद हामिद अंसारी ने कहा है कि निर्वाचन आयोग अपने उद्देश्यों को पूरा करने के लिए बदलते समाज, राजसत्ता तथा प्रौद्योगिकी के अनुसार तेजी से अपने आपको ढालता रहा है। आज यहां आयोग के हीरक जयंती समारोह को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि यह अवसर एक राष्ट्र के रूप में हमारे लिए आत्मनिरीक्षण का समय है। छह दशक बाद सबसे अच्छा निष्कर्ष यह है कि गिलास न तो खाली है और न ही भरा हुआ है, बल्कि हमने आधे से कुछ अधिक सफर तय किया है। हमने एक स्थायी व्यावहारिक लोकतंत्र की स्थापना की है। लेकिन अब भी, राजनीतिक समानता तथा सामाजिक और आर्थिक असमानता के बीच का अंतर्विरोध संबंधी डॉ. अम्बेडकर का पूर्वाभास सही जान पड़ता है- 'एक व्यक्ति एक वोट', 'एक वोट एक महत्त्व' अब भी हकीकत से दूर जान पड़ रहा है।

उपराष्ट्रपति ने निर्वाचन आयोग की सराहना करते हुए कहा कि संविधान ने जो जिम्मेदारी उसे सौंपी थी उसे उसने अच्छी तरह निभाया है। सन 1950 में चुनाव को बहुत बड़ा लोकतात्रिक प्रयोग के रूप में देखा गया था लेकिन आज इससे सम्बध्द प्रयास, इसके प्रभाव तथा समग्रता को दुनिया स्वीकारती है, लेकिन अब भी काफी कुछ किया जाना बाकी है।

उन्होंने कहा कि कड़े प्रयास के बावजूद बिना लेखा-जोखा वाले चुनावी खर्च में एक बड़ा हिस्सा राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों द्वारा किया जाने वाला खर्च होता है, जिनमें चुनाव के दौरान मुफ्त शराब, नकदी आदि शामिल हैं। छद्म विज्ञापन, धनराशि देकर अपने हिसाब की खबरें प्रकाशित करना आदि भी होता है। ये सभी हमारे लोकतांत्रिक प्रक्रिया एवं स्वतंत्र तथा निष्पक्ष चुनाव के नाम पर धब्बे हैं। ऐसे में चुनाव आयोग और राजनीतिक दलों द्वारा आवश्यक कदम उठाना अनिवार्य बन जाता है। दूसरा, विभिन्न दलों के भीतर आंतरिक लोकतंत्र भी जरूरी है।


सरफ़राज़ ख़ान
हिसार (हरियाणा). देश में खाद्य तेलों की बढ़ती मांगपूर्ति के लिए चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने सरसों जैसी रबी की प्रमुख तिलहनी फसलों पर विशेष ध्यान देने को कहा है। वैज्ञानिकों ने राया और सरसों के कम उत्पादन के लिए रबी तिलहनी फसलों पर रोग एवं कीटों के प्रकोप को मुख्य बाधक बतलाया है। किसानों को सरसों की प्रमुख बीमारियों की पहचान एवं रोकथाम के उपायों बारे जागरूक करने के लिए वैज्ञानिकों ने कुछ उपाय सुझाए हैं जिन्हें अपनाकर किसान उक्त फसलों की अच्छी पैदावार प्राप्त कर सकते हैं।

विश्वविद्यालय के अनुसंधान निदेशक डॉ. आर.पी.नरवाल के अनुसार सफेद रतुआ सरसों व राया का भयानक रोग है। उन्होंने कहा कि इस रोग के प्रारंभ में पत्तियों की निचली सतह पर उभरे हुए चमकीले सफेद फफोले दिखाई देते हैं जबकि पत्तियों की ऊपरी सतह पर फफोले वाले स्थान का रंग पीला दिखाई देता है। बाद में रोग का प्रभाव तनों, फूलों व फलियों पर पड़ता है, जिस कारण इनका रंग व आकार बदल जाता है। इसी प्रकार फुलियाडाऊनी मिल्डयू रोग के प्रकोप से पत्तियों की निचली सतह पर हल्के बैंगनी भूरे रंग के घब्बे पड़ जाते हैं तथा पत्तों का ऊपरी हिस्सा पीला पड़ जाता है। इन धब्बों पर बाद में चूर्ण सा बनने लगता है तथा पत्तियां सूखने लगती हैं। रोग के अधिक प्रकोप से पौधों पर फलियां नहीं आती।

अनुसंधान निदेशक ने कहा कि काले धब्बों का रोग (आल्टरनेरिया ब्लाइट) रोग के आक्रमण से पौधों के सभी हिस्सों पर गोल भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं तथा बाद में धब्बे काले रंग में परिवर्तित हो जाते हैं तथा इनमें गोल-गोल छल्ले नार आने लगते हैं। रोग का प्रभाव तना, शाखाओं एवं फलियों पर पड़ता है। धब्बों वाली फलियों में दाने कम बनते हैं तथा सिकुड़े हुए व हल्के होते हैं। रोग की अधिकता के कारण कई बार फलियां सड़ जाती हैं। उन्होंने कहा कि अगेती बिजाई वाली फसल पर फिलौडी या मरोड़िया रोग अक्सर देखने में आता है। ऐसे में रोगी पौधों में फूलों की बजाय हरी-हरी पत्तियों के गुच्छे बन जाते हैं। फलस्वरूप पौधों पर अत्यधिक शाखाएं बन जाती हैं तथा पौधा झाड़ीनुमा आकार का हो जाता है।

आल्टरनेरिया ब्लाइट, फुलिया और सफेद रतुआ की रोकथाम के लिए पहली फसल के बचे हुए रोगग्रस्त अवशेषों को नष्ट कर दें। रोग के लक्षण नार आते ही 600-800 ग्राम मैन्कोजेब (इंडोफिल एम-45) का 200-250 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति एकड़ छिड़काव करें तथा आवश्यकतानुसार 15 दिन के अंतर पर छिड़काव दोहराएं।

फिलौडी या मरोड़िया रोग से बचाव हेतु तोरिया की बिजाई अगेती न करें। कीड़ों को मारने वाली दवा जैसे मैटासिस्टॉक्स 25 ई.सी. या रोगोर 30 ई.सी. की 250-400 मि.ली. मात्रा को 250-400 लीटर पानी में घोल बनाकर फसल की अवस्थानुसार प्रति एकड़ छिड़काव करें ताकि रोगवाहक कीट मरते रहें।


अनवर अहसान अहमद, सचिव (सीमा प्रबंधन), गृह मंत्रालय, भारत सरकार
भारत की तटीय सीमा 7517 किलोमीटर लंबी है जिसमें से 5400 किलोमीटर से अधिक मुख्यभूमि से संबधित है। इस विशाल तटीय सीमा की सुरक्षा और उसे सुरक्षित रखने का सबसे बडा उत्तारदायित्तव तटरक्षक बल, संबंधित राज्य और नौसेना ने संभाला है। पिछले वर्ष 26/11 के मुम्बई हमले के बाद, जब आंतकी हमलावरों ने समुद्री रास्ते से शहर में प्रवेश किया था, तभी से तटीय सीमा को और भी मज़बूत करने के प्रयास किये गये साथ ही नये कदम भी उठाए गए।

तटीय सुरक्षा योजना की प्रगति
वर्ष 2005-06 से आरंभ होने वाली पांच वर्ष की अवधि के लिए जनवरी 2005 में तटीय सुरक्षा के लिए व्यापक योजना को मंजूरी प्रदान की गई थी। यह योजना राष्ट्रीय सुरक्षा व्यवस्था सुधार पर संबंधित सभी एजेन्सियों तथा राज्यों से विचार विमर्श के बाद मंत्रिसमूह की सिफारिशों के आधार पर तैयार की गई थी। तटीय सुरक्षा योजना एक अनुपूरक कदम था जिसका उद्देश्य नौ तटीय राज्यों गुजरात, महाराष्ट,्र गोवा, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, ओडिशा तथा पश्चिम बंगाल और चार संघ शासित क्षेत्रों दमण एवं दीव, लक्षद्वीप, पुडुचेरी तथा अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह के तटीय क्षेत्रों की निगरानी तथा गश्त लगाने के लिए आवश्यक बुनियादी ढांचें को मज़बूत कर इन क्षेत्रों में सतर्कता को और बढ़ाना है। इस योजना के तहत 73 तटीय पुलिस स्टेशन, 97 चैक पोस्ट, 58 आऊटपोस्ट तथा 30 ऑपरेशनल बैरकों को मंजूरी प्रदान की जा चुकी है। पुलिस स्टेशनों को 204 नौकाएं 153 जीप तथा 312 मोटरसाईकलें मुहैया कराई जाएंगी। कंम्यूटर तथा अन्य उपकरणों के लिए प्रत्येक पुलिस स्टेशन को 10 लाख रुपये की वित्तीय सहायता दी जाएगी। योजना में अगले पांच वर्षों के लिए 400 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है और 151 करोड़ रुपये का आबंटन नौकाओं के ईंधन, अनुरक्षण तथा मरम्मत और कर्मचारियों के प्रशिक्षण के लिए खर्च किए जाएंगे। इस योजना के लिए कर्मचारियों की उपलब्धता संबंधित राज्यों/संघ शासित क्षेत्रों द्वारा कराई जाएगी और इस योजना को संबंधित राज्यों#संघ शासित क्षेत्रों द्वारा ही कार्यान्वित किया जाएगा।

35 तटीय पुलिस स्टेशनों का काम पूरा हो चुका है और अन्य 16 का कार्य प्रगति पर है। इसके अतिरिक्त चैक पोस्टों, आउटपोस्टों तथा बैरकों का भी कार्य प्रगति पर है।

सभी संबंधित राज्यों/संघ शासित क्षेत्रों ने तटीय पुलिस स्टेशनों के लिए कार्यकारी अधिकारियों के पदों तथा तकनीकी पदों को मंजूरी दे दी है। भर्ती प्रक्रिया चल रही है। गृह मंत्रालय ने रक्षा मंत्रालय के साथ विचार-विमर्श के बाद राज्यों द्वारा दिशा-निर्देंशों तथा उनके अनुपालन के लिए नौकाओ की क्रू-संरचना तथा उनके वेतन के बारे में परिपत्र को अंतिम रूप दे दिया है और उसे इन राज्यों को भेज भी दिया गया है।

इंटरसेप्टर नौकाओं की खरीद केंद्र सरकार दो सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों मैसर्स जीएसएल, गोवा तथा मैसर्स जीआरएससी, कोलकाता के ज़रिए कर रही है। गृह मंत्रालय ने 5 टन की 84 नौकाएं तथा 12 टन की 110 नौंकाओं के लिए इन कंपनियों के साथ मार्च 2008 में एक समझौते पर हस्ताक्षर किये थे। इसके लिए अब तक इन कंपनियों को 122.41 करोड़ रुपये का भुगतान किया जा चुका है।

पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार इन नौकाओं की आपूर्ति अप्रैल, 2009 से आरंभ हो गई थी और इन्हें अप्रैल, 2011 तक पूरा करना था। लेकिन 26#11 के आतंकी हमले के बाद इनकी बेहद आवश्यकता महसूस की गई है इसलिए अब इनकी आपूर्ति को छह महीने पहले ही अक्तूबर, 2010 तक पूरा कर लिया जाएगा।

इंटरसेप्टर नौकाओं की आपूर्ति इन दोनों कंपनियों द्वारा दिये गये आपूर्ति कार्यक्रम के अनुसार प्रतिमाह के आधार पर अप्रैल, 2009 से ही आरंभ हो गई है। 31 दिसम्बर, 2009 तक 66 नौकाओं की आपूर्ति हो चुकी है और बकाया 138 नौकाओं की आपूर्ति इस वर्ष अक्तूबर तक कर दी जाएगी।

तटीय सुरक्षा की व्यापक समीक्षा
26/11 के मुम्बई पर आतंकी हमले के बाद सरकार ने देश की संपूर्ण तटीय सुरक्षा की नये सिरे से व्यापक समीक्षा की है। गृह मंत्रालय, रक्षा मंत्रालय और नौवहन एवं मत्स्य मंत्रालय के विभिन्न विभागों इत्यादि की देश के तटीय सुरक्षा प्रबंधों तथा उससे संबंधित समस्याओं को दूर करने के लिए अनेक उच्च स्तरीय बैठकें हो चुकी हैं। इसमें अंतर-मंत्रालयी बैठक तथा फरवरी एवं जून 2009 में केंद्रीय मंत्रिमंडल सविच द्वारा की गई दो वीडियों कॉन्फ्रेन्स भी शामिल हैं। गृह मंत्रालय के सचिव ने भी दिसम्बर 2008 और जून 2009 में देश की तटीय सुरक्षा की समीक्षा की थी। रक्षा मंत्री ने भी मार्च, मर्इ, जून तथा नवम्बर 2009 में तटीय सुरक्षा की समीक्षा की थी। इन बैठकों के दौरान देश की तटीय तथा समुद्री सीमा की सरुक्षा के लिए अनेक महत्वपूर्ण कदम उठाए गए तथा अनेक निर्णय लिए गए।

देश की तटीय सुरक्षा के बारे में सरकार द्वारा लिए गए विभिन्न निर्णयों को समय पर लागू करने को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार ने ''समुद्र की ओर से खतरे के खिलाफ तटीय तथा समुद्री सुरक्षा को मज़बूत करने के लिए राष्ट्रीय समिति'' का गठन किया है। केंद्रीय मंत्रिमंडल सचिव इसके अध्यक्ष हैं। इस समिति में संबंधित मंत्रालयों/विभागों/संगठनों के प्रतिनिधियों के अलावा तटीय राज्यों/संघ शासित क्षेत्रों के मुख्य सचिव/प्रशासक शामिल हैं। राष्ट्रीय समिति की पहली बैठक सितम्बर, 2009 को हुई थी जिसमें तटीय सुरक्षा से संबंधित निर्णयों के कार्यान्वयन में हुई प्रगति की समीक्षा की गई। इन बैठकों में लिए गए विभिन्न निर्णयों का संबंधित एजेन्सियों द्वारा पालन किया जा रहा है।

तटीय सुरक्षा योजना का निर्माण (चरण-2)
तटीय राज्यों/संघ शासित क्षेत्रों ने तटीय सुरक्षा के लिए अतिरिक्त आवश्यकताओं को जुटाने के लिए चरण-2 की तटीय सुरक्षा योजना की भूमिका के रूप में तटरक्षक बल के साथ विचार-विमर्श किया है। तटरक्षक बल अभ्यास में लगा हुआ है और उसने तटीय सीमारेखा के आस-पास 131 अतिरिक्त पुलिस स्टेशनों की स्थापना की सिफारिश की है। इसमें अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह के 20 पुलिस स्टेशनों का सुधार कार्य भी शामिल है। राज्यों तथा तटरक्षक बल से मिले सुझावों के आधार पर तटीय सुरक्षा योजना (चरण-2) की रूपरेखा को अंतिम रूप दिया जा रहा है।

नौकाओं का पंजीकरण
सरकार ने फैसला किया है कि भारतीय समुद्र में मछली पकड़ने वाली या नहीं पकड़ने वाली सभी नौकाओं को एक एकीकृत व्यवस्था के तहत पंजीकरण कराना जरूरी होगा। इसके लिए नौवहन विभाग एक नोडल विभाग होगा। जून, 2009 में नौवहन मंत्रालय ने विधि मंत्रालय के साथ विचार-विमर्श कर दो अधिसूचनाएं जारी की हैं जिसमें एक पंजीकरण के लिए संशोधित प्रारूप के साथ एमएस ( फिशिंग वेसल्स के लिए रस्ट्रिेशन ) नियम में संशोधन के लिए है और दूसरी पंजीयकों की सूची से संबंधित है।

नौकाओं पर ट्रांसपोंडरों की स्थापना
यह फैसला किया गया है कि सभी प्रकार की नौकाओं पर उनके स्थान के बारे में जानकारी प्राप्त करने तथा उनकी पहचान स्थापित करने के लिए जलयान पथ निर्देशन तथा संचार उपकरण लगाये जाएंगे। इसके लिए नौवहन विभाग एक नोडल विभाग है। नौवहन महानिदेशक ने 20 मीटर से बड़ी सभी नौकाओं पर उनके स्थान के बारे में जानकारी प्राप्त करने तथा उनकी पहचान स्थापित करने के लिए एआईएस टाईप बी ट्रांसपोंडर लगाने को सुनिश्चित करने के लिए दो परिपत्र जारी किए हैं। मछली पकड़ने वाली नौकाओं पर ट्रांसपोंडरों की स्थापना के लिए नॉटिकल एडवाइज़र की अध्यक्षता में एक समूह ने कुछ विशेषताएं तैयार की है और आगे की कार्रवाई के लिए नौवहन विभाग को सौंप दी हैं।

इसके अलावा 20 मीटर से छोटी नौकाओं पर किस प्रकार के ट्रांसपोंडरों की स्थापना की जाए - इसके लिए तटरक्षक बल के महानिदेशक के तहत एक समिति का गठन किया गया है। समिति ने 20 मीटर से छोटी नौकाओं के उचित ट्रैकिंग सिस्टम के लिए एनसीएनसी ट्रायल करने का फैसला किया है जो इस प्रकार है :-

· सैटेलाईट बेस्ड।
· एआईएस/वीएचएफ बेस्ड और
· वीएचएफ/जीपीएस बेस्ड।
इन ट्रायलों की रिपोर्टो की प्रतीक्षा की जा रही है।
नौवहन मंत्रालय तय समय के भीतर ही एक ऑटोमैटिक आईडेंन्टीफिकेशन सिस्टम की श्रृंखला स्थापित करने की प्रक्रिया में है।

मछुआरों को पहचान पत्र जारी करना
सभी मछुआरों को पहचान पत्र जारी किए जाएंगे जो एक केंद्रीयकृत डाटाबेस से जुडे होंगे। पशुपालन, दुग्ध एवं मत्स्य पालन विभाग इस कार्य में एक नोडल एजेन्सी है जो अन्य सभी संबंधित पक्षों के साथ विचार-विमर्श के बाद इस संदर्भ में सभी आवश्यक कार्रवाई कर रहा है। पहचान पत्रों के लिए डाटा संग्रहण हेतु एक एकीकृत प्रारूप तैयार कर लिया गया है और उसे सभी तटीय राज्यों/संघ शासित क्षेत्रों को डाटा एकत्रित करने के लिए भेज दिया गया है।

भारत इलैक्ट्रोनिक्स लिमिटेड के नेतृत्व में सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों के एक समूह ने मछुआरों के बायोमैट्रिक पहचान पत्रों के लिए आंकड़ों का डिजीटलीकरण, बायोमैट्रिक विवरण एकत्रित करने, डिजीटल फोटो, डिज़ाईन तथा उनके निर्माण के लिए प्रस्ताव किया है। 26 अगस्त 2009 को मत्स्य विभाग ने बीईएल का प्रस्ताव प्राप्त किया था और उसे अंतिम रूप दिया जा रहा है।

तटीय लोगों के लिए बहु-उद्देशीय राष्ट्रीय पहचान पत्र
भारत का महापंजीयक वर्ष 2011 की आम जनगणना से पहले सभी तटीय राज्यों/संघ शासित क्षेत्रों में राष्ट्रीय जनसंख्या पंजीयक (एनपीआर) बनाने के लिए अपने प्रोजेक्ट के एक भाग के रूप में तटीय गांवों में लोगों को बहु-उद्देशीय राष्ट्रीय पहचान पत्र जारी करने के एक प्रोजेक्ट पर कार्य कर रहा है। तटीय क्षेत्रों के लिए एनपीआर 2009-10 के दौरान तैयार कर लेने का प्रस्ताव है।

इस प्रोजेक्ट के लिए पहली बार प्रत्यक्ष आंकड़ा एक़त्रिक़रण विधि अपनाने का प्रस्ताव किया गया है। यह कार्य सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों जैसे बीईएल, ईसीआईएल और आईटीआई की सहायता से संयुक्त रूप में राज्य, जिला तथा ग्रामीण स्तर पर काम करने वाली अन्य संस्थाओं के ज़रिए किया जाएगा। जुलाई 2009 से 70 तटीय ज़िलों में आंकड़ों के एकत्रिकरण का कार्य आरंभ हो चुका है। अब तक 66 लाख लोगों की जैविक जानकारी प्राप्त कर ली गई है और साथ ही 19 लाख लोगों का बायोमैट्रिक विवरण पूरा कर लिया गया है। बायोमैट्रिक डाटा मार्च, 2010 तक पूरा कर लेने की आशा है। हालांकि कुछ राज्यों में यह कार्य मई, 2010 तक ही पूरा हो पाएगा।

तटीय सुरक्षा को सुदृढ़ करने के लिए किए गए उपर्युक्त उपायों से आशा है कि ये उपाय हमारे देश पर 26/11 जैसे आतंकी हमले को रोक सकेंगे।



संतोष ठाकुर
शहरी क्षेत्रों के मुकाबले हमेशा से हाशिए पर रहने वाला ग्रामीण भारत भी अब सरकार की उदारवादी नीतियों की वजह से दूरसंचार घनत्व के मामले में नया इतिहास रच रहा है। पिछले कई साल से तमाम प्रयासों के बावजूद दो से तीन प्रतिशत पर ही रहने वाला ग्रामीण टेलीफोन घनत्व वर्ष 2009 में बढक़र 16.54 प्रतिशत तक पहुंच गया है, जबकि दूसरी ओर पिछले सालों की वृध्दि दर का आकलन करते हुए केन्द्र सरकार ने वर्ष 2010 तक ग्रामीण टेलीफोन घनत्व को चार प्रतिशत तक करने का लक्ष्य तय किया था।

ग्रामीण टेलीफोन दर में आए इस उछाल को देखते हुए केन्द्रीय दूरसंचार मंत्रालय ने इस दर को और आगे ले जाने के उद्देश्य से कई अन्य महत्वपूर्ण कदमों की घोषणा की है। इसमें ग्रामीण टेलीफोन एक्सचेजों की संख्या बढ़ाने के साथ ही शहरी व ग्रामीण दूरसंचार क्षेत्र में सरकारी कंपनियों के माध्यम से 2009-10 में करीब 14,000 करोड़ रुपये से अधिक के निवेश का कार्यक्रम भी बनाया है। सरकार ने अपनी नई विस्तारित नीति और निवेश के सहारे 2012 तक ग्रामीण टेलीफोन की घनत्व दर 25 प्रतिशत करने का लक्ष्य तय किया है। यही नहीं, दूरसंचार मंत्रालय का आकलन है कि अगर इसी रपऊतार से ग्रामीण दूरसंचार घनत्व बढता रहा तो इसके अगले दो सालों में वर्ष 2014 तक ग्रामीण टेलीफोन घनत्व रिकार्ड 40 प्रतिशत के आंकड़े को पार कर सकता है। दूरसंचार मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक 31 मई, 2009 तक ग्रामीण टेलीफोन की संख्या 135.42 मिलियन यानि साढ़े तेरह करोड़ से अधिक थी।

यह दूरसंचार क्षेत्र की लगातार वृध्दि का एक नमूना मात्र है कि पिछले तीन साल में ही इस क्षेत्र में करीब सौ करोड़ रुपये से अधिक का निवेश हुआ है। यह राशि सरकारी कंपनियों बीएसएनएल और एमटीएनएल के निवेश से अलग है। अगर सरकारी कंपनियों के निवेश को भी जोड़ लिया जाए तो यह राशि करीब सवा सौ करोड़ रुपये से अधिक हो जाती है। दूरसंचार विशेषकर ग्रामीण टेलीफोन घनत्व बढाने के लिए सरकार ने वर्ष 2009-10 में दूरसंचार क्षेत्र में दोनों सरकारी कंपनियों के माध्यम से 14015 करोड़ रुपये के निवेश का कार्यक्रम तय किया है। दूरसंचार मंत्रालय के अधिकारियों को उम्मीद है कि इस निवेश से शहरी ही नहीं बल्कि ग्रामीण इलाकों में भी टेलीफोन घनत्व बढ़ेगा।

सरकार ने ग्रामीण टेलीफोन घनत्व बढाने के लिए जो कार्यक्रम तय किए हैं उनमें से सबसे प्रमुख है देश के 27 राज्यों के पांच सौ ऐसे जिलों में 7,000 से अधिक नए मोबाइल टॉवर लगाना। यह ऐसे जिलें हैं जहां स्थाई मोबाइल वायरलेस कवरेज नहीं है या फिर एक बार सिगनल मिलने के बाद तुरंत गायब हो जाते हैं। दूरसंचार मंत्रालय ने इन जिलों में दूरसंचार कंपनियों से वसूले जाने वाले यूनिवर्सल ऑब्लीगेशन फंड की राशि से करीब 7440 टॉवर लगाने के लिए नियमानुसार रियायत देने का निश्चय किया है। इन टॉवरों के अलावा मंत्रालय ने अगले चरण में करीब 10128 नए टॉवर लगाने का भी निर्णय किया है, जिससे दूरसंचार घनत्व को और मजबूती दी जा सके।

दूरसंचार मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक ग्रामीण क्षेत्रों को लेकर सरकार की संवेदनशीलता का असर यह रहा है कि यहां लगातार टेलीफोन घनत्व बढ़ा है। वर्ष 2005-06 में ग्रामीण टेलीफोन की संख्या 14.77 मिलियन थी, जबकि इसके अगले वर्ष 2006-07 में यह संख्या 47.10 मिलियन, उसके अगले साल 2007-08 में 76.50 मिलियन, 2008-09 में 123.51 मिलियन थी, जबकि 31 मई, 2009 तक यह संख्या 135.42 मिलियन हो गई थी। दूरसंचार विभाग के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में टेलीफोन घनत्व को इस कद्र उत्साहित स्तर पर ले जाने में वायरलेस ऑन लोकल लूप, जिसे डब्ल्यूएलएल सेवा भी कहते हैं, का महत्वपूर्ण स्थान रहा है।

दूरसंचार मंत्रालय ने वर्ष 2006-07 में ग्रामीण टेलीफोन घनत्व बढ़ाने के उद्देश्य से 1104200, जबकि इसके अगले साल 2007-08 में 1372000 तथा 2008-09 में 584050 डब्ल्यूएलएल कनेक्शन प्रदान किए। गांवों में टेलीफोन की घंटियों का घनत्व लगातार बढ़े। इसके लिए पिछले तीन साल में दूरसंचार मंत्रालय ने एक रणनीति के तहत पिछले तीन साल में ग्रामीण क्षेत्र में निवेश कार्यक्रम को जारी रखा। दोनों सरकारी कंपनियों एमटीएनएल और बीएसएनएल के आंकड़ों के अनुसार उन्होंने 2006-07 में ग्रामीण इलाकों में 1581.37 व ट्राइबल इलाकों में 276.24 करोड़ रुपये खर्च किए, जबकि 2007-08 में ग्रामीण व ट्राईबल इलाकों में क्रमश: 1202.17 व 206.18 तथा 2008-09 में इन क्षेत्रों में क्रमश: 1239.06 व 243.66 करोड़ रुपये खर्च किए।

बीएसएनएल ने ग्रामीण व पहाड़ी तथा वनों की सघनता वाले ऐसे क्षेत्र जहां नियमित टेलीफोन टॉवर-लाइन बिछाना संभव नहीं है वहां डिजीटल सैटैलाइट फोन टर्मिनल से सर्विस उपलब्ध कराने का कार्यक्रम भी बनाया था, जिससे इन क्षेत्रों में भी दूरसंचार क्रांति आ सके। एक आंकड़े के अनुसार इस तरह के करीब 1309 सैटेलाइट टेलीफोन सिस्टम फिलहाल कार्य कर रहे हैं। इनमें सबसे अधिक उड़ीसा में 520 हैं, जबकि सबसे कम 16 जम्मू-कश्मीर में हैं। इस तकनीक से बीएसएनएल ने सरकार की पऊलैगशिप योजना भारत निर्माण के अंतर्गत 4077 नए विलेज पब्लिक टेलीफोन या ग्रामीण सार्वजनिक टेलीफोन लगाने का कार्यक्रम भी तय किया है। इससे भी ग्रामीण क्षेत्रों में टेलीफोन घनत्व बढने क़ी उम्मीद है। सरकार के दस्तावेजों के मुताबिक इस तरह के दुगर्म क्षेत्रों में सैटैलाइट टेलीफोन सिस्टम स्थापित करने के लिए 2007-08 में 51.14 करोड़ रुपये, 2008-09 में 23.72 करोड़ रुपये व 2009-10 में 27.53 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं।

ग्रामीण क्षेत्र में टेलीफोन नेटवर्क को बढ़ाने के उद्देश्य से सरकार ने आने वाले समय में 15 नए ग्रामीण टेलीफोन एक्सचेंज भी स्थापित करने का निश्चय किया है। इस साल जनवरी से 30 जून तक 10 ऐसे एक्सचेंज स्थापित किए थे, जबकि इससे पूर्व 2006-07 में 86, 2007-08 में 53 व 2008-09 में 36 ग्रामीण टेलीफोन एक्सचेंज स्थापित किए गए थे। दूरसंचार मंत्रालय ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण निर्णय में ग्रामीण टेलीफोन घनत्व बढ़ाने हेतु ग्रामीण क्षेत्रों में वायरलेस ऑन लोकल लूप टेलीफोन की मांग को पूरा करने के लिए बीएसएनएल को एक्सचेंज से 5 किलोमीटर की दूरी तक केबल बिछाने के लिए कहा था। पहले यह मापदंड 2.5 किलोमीटर का था। इस योजना का लाभ यह होगा कि इससे न केवल कवरेज क्षेत्र बढ़ेगा, बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में कॉल ड्रॉप की समस्या में भी कमी आएगी। दूरसंचार मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों के अनुसार इन तमाम योजनाओं के इतर, मंत्रालय लगातार खराब हो रहे सार्वजनिक ग्रामीण टेलीफोन को बदलने का कार्यक्रम भी चलाता रहता है, जिससे इन फोनों की खराबी से ग्रामीण क्षेत्र में दूरसंचार संकट न उत्पन्न हो।



स्टार न्यूज़ एजेंसी
नई दिल्ली. बहुत ज्यादा खाने की समस्या समाज के लिए एक नई समस्या है। इस समस्या के शिकार कार लोग जब कम खाना चाह रहे होते हैं तब भी वे काफी खाते हैं।

हार्ट केयर फाउंडेशन ऑफ इंडिया और ई मेडिन्यूज के अध्यक्ष डॉ. केके अग्रवाल के मुताबिक ह समस्या बिंगे पर्ज सिंड्रोम (ब्यूलीमिया नर्वोसा) से अलग होती है क्योंकि ज्यादा खाने वाले लोगों में आमतौर पर उल्टी या लैक्सैटिव के इस्तेमाल की वजह से मल त्याग नहीं कर पाते हैं। लेकिन अधिकतर और गंभीर ज्यादा खाने की समस्याएं तब होती हैं जब :

कई बार खाना भले ही वह असमान्य तरीके से भी भोजन की मात्रा काफी अधिक हो।
बार-बार खाने से अपने आपको न रोक पाना या फिर कि आपने कितना खा लिया इसका हिसाब न होना।
इनमें से कई व्यवहार या अहसास होना
सामान्य तरीके से कहीं ज्यादा तेजी से खाना।
इतना खा लेना कि अपने आपको असहज महसूस करना।
भोजन ज्यादा लेना, भले ही भूख क्यों न लगी हो।
शर्मिंदगी के चलते अकेले खाना कि आप बहुत ज्यादा खाते हैं।
ज्यादा खाने के बाद के उकताना, अवसाद या खुद को दोशी महसूस करना।
ज्यादा खाने की समस्या हफ्ते में कम से कम दो बार 6 महीनों के लिए होना।

ज्यादा खाने की मुख्य जटिलता से मोटापे से सम्बंधित बीमारियां होती हैं। इनमें मधुमेह, उच्च रक्तचाप, उच्च कोलेस्ट्रॉल स्तर, गॉल ब्लैडर डिसीज़, हार्ट डिसीइज और कुछ तरह के कैंसर शामिल हैं।

ज्यादा खाने से खुद को रोक न पाना अधिक खाने की आज की सबसे बड़ी समस्या है जो एनोरैसिया और ब्यूलीमिया से कहीं ज्यादा आम है. और इससे मोटापे के मामले बढ़ते हैं। ज्यादा खाने से 3.5 फीसदी महिलाएं और 2 फीसदी पुरुश अपनी जिंदगी में कुछ बिंदुओं के हिसाब से ग्रसित हैं। ज्यादा खाने की समस्या महिलाओं में पुरुषों से थोड़ी सी ज्यादा है. हर तीन महिलाओं की तुलना में दो पुरुषों में यह समस्या है।

कॉग्नेटिव बीहैविरल थेरेपी में लोगों को बताया जाता है कि किस तरह से खाने पर काबू रखें और अपनी अस्वस्थ आदतों में सुधार लाएं। इसमें यह भी बताया जाता है कि किस तरह से कठिन परिस्थितियों से निपटा जाए। इंटरपर्सनल साइकोथेरेपी से लोगों को उनके दोस्तों और परिजनों के रिश्तों में होने वाले बदलाव और क्षेत्र की समस्याओं को दूर करने में मदद मिलती है। ड्रग थेरेपी जैसे कि एंटीडिप्रेसैंट्स से भी कुछ लोगों में मददगार हो सकती है।

ज्यादा खाना जिसमें कॉर्बोहाइड्रेट और शुगर की मात्रा अधिक हो को तेजी से कम समय में खा लिया जाता है। इसकी अधिक मात्रा कलिए महज 15 से 20 मिनट ही काफी होते हैं। सीरोटोनिन और डोपामाइन का पर्याप्त स्तर भी इसमें जुड़ जाता है। प्रोटीन सप्लीमेंट आपकी लालसा में कमी ला सकता है।

ज्यादा खाना कंपल्सिव ओवरईटिंग से अलग होता है, क्योंकि ज्यादा खाने वाला इसकी योजना नहीं बनाता है और पूरा आनंद लेता है। कंपल्सिव ओवरईटिंग वाले ऐसे भोजन के लिए लालायित होते हैं जो कार्बोहाइड्रेट, शुगर और नमक से भरपूर होते हैं।


सरफ़राज़ ख़ान
हिसार (हरियाणा). चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने किसानों को गेहूं की फसल में इन दिनों होने वाली खुली कांगियारी, पत्तों की कांगियारी तथा करनाल बंट नामक बीमारियों से फसल को बचाने का आह्वान किया है। वैज्ञानिकों के अनुसार इन रोगों के कारण पैदावार तथा गेहूं की गुणवत्ता पर कुप्रभाव पड़ता है।

विश्वविद्यालय के अनुसंधान निदेशक डॉ. आर.पी. नरवाल ने बताया कि खुली कांगियारी के कारण बालियों में दानों की बजाय काला चूर्ण बन जाता है तथा प्राय: रोगी पौधों में सभी बालियां रोगग्रस्त होती हैं। फसल में गोभ अवस्था में प्रभावित पौधों की सबसे ऊपर वाली पत्ती पीली पड़कर सूखनी शुरू हो जाती है। इसकी रोकथाम के लिए वैज्ञानिकों ने रोगग्रस्त पौधों को ध्यानपूर्वक उखाड़कर मिट्टी में दबाने की सलाह दी है ताकि रोग के बीजाणु साथ वाले स्वस्थ पौधों में बन रहे दानों तक न जा सकें।

अनुसंधान निदेशक के मुताबिक पत्तों की कांगियारी रोग प्रदेश के शुष्क क्षेत्रों भिवानी, सिरसा, रिवाड़ी, झज्जर व अम्बाला जिले के नारायणगढ़ क्षेत्र में अधिक पाया जाता है, जबकि करनाल बंट रोग प्राय: नमी वाले क्षेत्रों में अधिक होता है। उन्होंने कहा कि पत्तों की कांगियारी रोग होने पर पत्तों पर नसों के समानान्तर लम्बी व चमकीली काली धारियां बन जाती हैं। बाद में इनके फटने से काले रंग का चूर्ण निकलता है जिसमें रोग को फैलाने वाली फफूंद के असंख्य बीजाणु होते हैं।

इस रोग की रोकथाम के लिए उन्होंने रोगग्रस्त पौधों को तुरन्त उखाड़कर जला देने तथा प्रभावित खेतों में 2-3 वर्ष का फसल-चक्र अपनाये जाने की सलाह दी है। उन्होंने कहा कि करनाल बंट रोग का पता गेहूं निकालने के बाद खलिहान व मंडियों में ही चल पाता है, क्योंकि रोगग्रस्त दानों का अंदरूनी भाग आंशिक व पूर्ण रूप से काले चूर्ण में बदल जाता है। इसकी रोकथाम के लिए किसानों को बिजाई से पूर्व ही उपचार आदि की सावधानियां बरतनी चाहिएं।


सपा का प्रदर्शन !
पहले से, अब खुश होगा मन ??

मुलायम नज़रबंद !
कुछ दिन घर पर चिंतन कर लें, उनको भी था यही पसंद !!

महंगाई के ख़िलाफ !
वे अब ग़म में बोतल पीते, पहले जो पीते थे हाफ !!

रामदेव से इलाज़ करवा रहे हैं जॉर्ज फर्नान्डीज़ !
जैसे हैं खुद डॉक्टर, वैसे मिलें मरीज़ !!

घोटाले !
नेताओं ने बड़े कर लिए, छोटे अफ़सरान को टाले !!

सर्वोच्च शिखर पर !
नापी गहराई को देखें, तो शायद ज़्यादा लगता डर !!

पुरस्कार !
जाने क्यों हक़दार हमेशा, बन जाते हैं रिश्तेदार ??

विकास !
हर अफसर में दीखता, कमर, पेट के पास !!

सम्मान !
कितने कम धन में मिला, सम्मानित हैरान !!

कमजोर !
दे सरकारी फंड जो, कम खाने पर जोर !!

चाय !
"लल्ला, पीकै देख लियो तुम, बामै महंगी चीनी नाय" !!
-अतुल मिश्र



सरफ़राज़ ख़ान
हिसार (हरियाणा). चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने किसानों को गेहूं की फसल में आगामी दिनों में होने वाले पीला रतुआ नामक रोग के बारे में आगाह करते हुए समय रहते सावधानी बरतने को कहा है। गेहूं और जौ की फसल में होने वाला यह रोग वैसे तो इन दिनों में आमतौर पर ऊंची पहाड़ी क्षेत्रों या पहाड़ी क्षेत्रीय मैदानी इलाकों में ही पाया जाता है।

हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के अनुसंधान निदेशक डॉ. आर.पी. नरवाल ने कहा कि पीला रतुआ पहले पहाड़ी इलाकों तक ही सीमित रहता है जहां 15-20 दिन तक फैलने के बाद मैदानी इलाकों में पहुंचता है। तेजी से फैलने वाले इस रोग के बीजाणु बरसात आने पर मैदानी इलाकों में हवा से जल्दी पहुंचते हैं।

इसकी रोकथाम के लिए डॉ. नरवाल ने पहले पहाड़ी तलहटी में सतर्कता बरतने की आवश्यकता जताई है। इन क्षेत्रों में पीला रतुआ दिखाई देने पर रोकथाम के लिए मैन्कोजेब (डाइथेन एम-45 की 0.2 % या टिलट 0.1 %) की दर से छिड़काव करने को कहा है ताकि रोग के जीवाणु आगे न फैलें।

उन्होंने कहा कि मैदानी इलाकों में मौसम अभी शुष्क और अधिकतम तापमान से भी नीचे चल रहा है। ऐसी हालत में पीले रतुए के बीजाणु मैदानी इलाकों में नहीं आएंगे। यदि बीजाणु आ भी गए तो पहले पहाडी ऌलाकों तक ही सीमित रहेंगे जहां 2-3 सप्प्ताह तक फैलने के बाद ही मैदानी इलाकों में पहुंचेंगे । डॉ. नरवाल ने बताया कि इस रोग के प्रकोप से गेहूं की बालियों में कम दाने बनते हैं और दानों का वजन भी कम होता है जिससे पैदावार में 50 प्रतिशत तक की कमी हो सकती है और यदि पीले रतुए का प्रकोप यादा हो तो पैदावावर में 100 प्रतिशत तक का भी नुकसान हो सकता है। उन्होंने कहा कि इस रोग के प्रकोप से गेहूं की पत्तियों पर पीले या नारंगी रंग के फफोले प्राय: पतली धारियों के रूप में ऊपरी सतह पर पाए जाते हैं । इसका प्रकोप यादा होने की अवस्था में पीले रंग के फफोले पौधे के तनों, लीफसिथ व बालियों पर भी दिखाई देते हैं। अनुसंधान निदेशक ने बताया कि पीले रतुए की शुरुआत हवा द्वारा जन्य जीवाणुओं से होती है जोकि बहुत दूर से हवा में उड़कर आ सकते हैं। जब औसतन तापमान 25 डिग्री सैल्सियस से ऊपर चला जाता है तो पत्तियों की निचली सतह पर रोग के जीवाणु काले रंग की धारियां बना लेते हैं।


अमर सिंह खोल सकते हैं नए पत्ते !
इधर, मुलायम पर दो इक्के, उधर, अमर पर तीनों सत्ते !!

मुलायम ने साधा मायावती पर निशाना !
खम्भा क्यों नोंचा था उनका, इसका भी बतलाएं बहाना !!

अमर सिंह पर सवालों को टाल गए मुलायम !
हम अपने भइयों के संग हैं, वे संग ना रहने पर क़ायम !!

अमर सिंह ने कहा !
दोस्त, दोस्त ना रहा ??

अमर के समर्थक !
खुलकर तभी सामने आये, पानी पहुंच गया जब सर तक !!

आत्मरक्षा की दलील !
पतला-दुबला ही हो चाहे, साथ रखेंगे एक वक़ील !!

ठगी का मामला !
ठग को थाने में सुलवाकर, किसी और को थाम ला !!

विद्युत-विभाग !
ऊपर की इनकम करने में, लगा यहां हर एक दिमाग़ !!

मकान !
जन्म-मरण के मध्य सफ़र की, लोग मिटायें जहां थकान !!

तरक्की !
नोट अगर थाने तक पहुंचें, तभी समझ लें, होगी पक्की !!

विवाद !
अंग्रेजी में गाली देकर, भूल गया करना अनुवाद ??
-अतुल मिश्र




स्टार न्यूज़ एजेंसी
नई दिल्ली. अगले 15 वर्ष में तापमान बढ़ने से वैश्विक कृषि उत्पादन में 20 से 40 प्रतिशत की भारी कमी होगी। नीति निर्माता इसका हल तलाशने के लिए बीज निर्माताओं का मुंह ताक रहे हैं।

कृषि मंत्री शरद पवार ने आज यहां कहा कि गतिशील और टिकाऊ कृषि उपलब्ध कराने में नई पौध प्रजातियों और उच्च गुणवत्तापूर्ण बीजों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। उन्होंने कृषि क्षेत्र के चहुंमुखी विकास का आह्वान किया। पवार ने कहा कि कृषि क्षेत्र में सफलता की कुंजी है- बीज सुरक्षा- सही जगह और सही समय पर, पर्याप्त गुणवत्ता और मात्रा में समुचित किस्मों की उपलब्धता।

आज यहां राष्ट्रीय बीज कांग्रेस का उदघाटन करते हुए कृषि मंत्री ने कहा, सरकार को उच्च गुणवत्ता के बीजों के प्रजनन, उत्पादन और वितरण को प्रोत्साहन देने के लिए उचित माहौल विकसित करने और बनाए रखने की आवश्यकता है। अगर कृषि को खाद्य सुरक्षा की चुनौतियां पूरी करनी हैं तो दीर्घावधि के लिए बीज क्षेत्र में सार्वजनिक और निजी निवेश बढाने की जरूरत है।

पवार ने इस बात पर जोर दिया कि उत्पादन और उत्पादकता में वृध्दि हासिल करने के लिए आधुनिक बायोटेक्नोलॉजी और आणविक प्रजनन और संबंधित विधियों का इस्तेमाल करना चाहिए। आनुवांशिक संवर्धन के अलावा, गुणवत्तापूर्ण बीज उत्पादन और उनकी गुणवत्ता में सुधार संबंधी अन्य प्रौद्योगिकी का भी बीजों के विकास में महत्वपूर्ण योगदान है। कृषि मंत्री ने कहा कि बीज उत्पादन में निजी क्षेत्र भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।

उन्होंने कहा कि हमें सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के बीच अच्छे संबंध विकसित करने की जरूरत है। भारतीय उपमहाद्वीप और दक्षिण पूर्व एशिया को कृषि क्षेत्र में उच्च विकास दर वाला क्षेत्र माना जाता है, क्योंकि यहां सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के बीच अच्छा सहयोग है। सरकार बीज और कृषि उद्योगों में निजी क्षेत्र के निवेश को सुगम बनाने के लिए समुचित नीतियां और निवेश के अनुकूल कानूनी एवं नियामक ढांचा बनाने की इच्छुक है।

तीन दिन तक चलने वाली राष्ट्रीय बीज कांग्रेस में करीब 200 नीति-निर्माता, शोधकर्ता, पौध प्रजनक, बीज उत्पादक और बीज नियामक भाग ले रहे हैं। सरकारी विभागों, कृषि विश्वविद्यालयों और शोध संगठनों, सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की बीज कम्पनियों के प्रतिनिधि भी इस कांग्रेस में शामिल हो रहे हैं।



स्टार न्यूज़ एजेंसी
नई दिल्ली. वर्ष 2004 में राज्यों के साथ मिलकर केन्द्रीय भूजल बोर्ड द्वारा किए गए भूजल संसाधनों के मूल्यांकन के अनुसार मानसूनी वर्षा से 248 अरब घन मीटर (बीसीएम) जल संभरण होने का अनुमान किया गया है। देश में 4000 बीसीएम के वार्षिक अवक्षेपण पर विचार करने से यह पता चलता है कि देश में कुल मिलाकर मानसूनी वर्षा से जल संभरण वार्षिक अवक्षेपण का 6.2 प्रतिशत है।

इस मूल्यांकन के अनुसार देश के प्रतिपूर्ति योग्य 433 भूजल संसाधनों का अनुमान किया गया है। प्राकृतिक विसर्जन के लिए 34 बीसीएम रखते हुए कुल भूजल की 399 बीसीएम की वार्षिक उपलब्धता का अनुमान किया गया है। देश में सभी प्रकार के इस्तेमाल के लिए 231 बीसीएम वार्षिक भूजल की वापसी का अनुमान किया गया है जबकि भूजल का विकास 58 प्रतिशत माना गया है। सिंचाई के लिए 212 बीसीएम भूजल की वापसी का अनुमान है जो कुल भूजल वापसी का 92 प्रतिशत है।



स्टार न्यूज़ एजेंसी
नई दिल्ली. अवसाद, गंभीर मानसिक बीमारी और अकेलेपन का सम्बंध हृदय बीमारी और डीमेंशिया (याददाश्त में कमी वाली बीमारी) से है। हार्ट केयर फाउंडेशन ऑफ इंडिया और ई मेडिन्यूज के अध्यक्ष डॉ. के के अग्रवाल ने यूनिवर्सिटी ऑफ पिट्सबर्ग स्कूल ऑफ मेडिसिन के पूर्व डॉ. जेसी स्टीवर्ट के अध्ययन का हवाला देते हुए बताया कि अवसाद और धमनियों के सख्त होने का आपस में सम्बंध है।

अध्ययन के मुताबिक, जो व्यक्ति सबसे ज्यादा डिप्रेशन में होते हैं, उनकी धमनियां दोगुना ज्यादा सिकुड़ जाती हैं बनिस्बत उन लोगों के जो सबसे कम डिप्रेशन की अवस्था में रहते हैं। धमनियों का सिकुड़ना भविष्य में हार्ट अटैक या स्ट्रोक को दर्शाता है। अवसाद से शरीर की ग्रंथियों पर भी असर हो सकता है जिनसे रसायन निकलते हैं जो एनर्जी लेवल और उनकी वृध्दि को संचालित करते हैं और बाद में ब्लड क्लॉटिंग (रक्त के थक्के) के लिए जिम्मेदार होते हैं। धमनियों के सिकुड़ने से इम्यून सिस्टम पर ओवररिएक्शन होता है और इसकी वजह से इनफ्लेमेश होता है जिसको रसायन के निकलने के तौर पर जाना जाता है जो बीमारी की वजह बन सकता है।

एक अन्य अध्ययन का हवाला देते हुए डॉ. अग्रवाल ने कहा कि गंभीर तरीके से मानसिक समस्या से ग्रसित लोगों में कोरोनरी हार्ट डिसीज और स्ट्रोक से तीन गुना ज्यादा मौत का खतरा रहता है बनिस्बत उन लोगों को जो मानसिक बीमारी के शिकार नहीं होते हैं। मानसिक बीमारी से 75 की उम्र तक हृदय बीमारी का खतरा दो गुना ज्यादा हो जाता है। हृदय बीमारी से मौत का खतरा उन लोगों में ज्यादा होता है जो लोग एंटीसाइकोटिक मेडिकेशन लेते हैं।

एक अन्य अध्ययन का हवाला देते हुए डॉ. अग्रवाल ने बताया कि बूढ़े लोगों में लगातार अकेलेपन के अहसास से उनमें अल्झाइमर जैसी बीमारी का खतरा दोगुना बढ़ जाता है बनिस्बत उन लोगों के जो ऐसा महसूस नहीं करते हैं।


सी.एम के जन्म-दिवस पर !
मातहतों को बिना डराए, गिफ़्ट लिए फ़ोटो में हंसकर !!


भारतीयों से नफ़रत !
बाहर जाकर करते क्यों हों, खुलेआम यह देशी कसरत ??

समस्या पर विचार !
पिछले साल इसी पर तो हम, करके अभी चुके हैं, यार !!

छुरा दिखाकर धमकाया !
रपट लिखाने थाने पहुंचा, वहां बेंत द्वारा हड़काया !!

चढ़ा पारा !
कुदरत ख़ार खाए बैठी है, नीचे ना आ जाए दुबारा !!

रिश्तेदारी !
दौलतमंद बने कोई तो, खोजे उससे दुनिया सारी !!

नौकरशाह !
नौकर होकर भी, नौकर रखते हैं, वाह !!

ज़हरखुरानी !
पुलिसजनों की यारी, इनसे बहुत पुरानी !!

शातिर !
केवल बदमाशी की ख़ातिर ??

उद्योग !
भीख और चंदे को सबसे, बड़ा मानते हैं कुछ लोग !!

सपा !
अमरसिंह के इस्तीफे के, बारे में कुछ नया छपा ??
-अतुल मिश्र


संतोष
केन्द्र सरकार ने देश के शहरों में वाहनों के बढ़ते रेलमपेल और उनकी वजह से रास्तों पर उत्पन्न होते नए संकटों को देखते हुए शहरी परिवहन को सुदृढ़ करने की दिशा में तेजी से कदम बढ़ाने शुरू कर दिए हैं। सरकार की चिंता और चिंतन को इस बात से समझा जा सकता है कि अब तक शहरी परिवहन को लेकर उदासीनता बरतने वाली केन्द्र सरकार इसे सुधारने के लिए हाई-स्पीड कॉरीडोर में दाखिल हो गई है। सरकार अपनी जेएनएनयूआरएम योजना (जवाहर लाल नेहरू शहरी नवीकरण योजना) से न केवल सड़कों पर साइकिल लेन बनाने के लिए राज्य सरकारों को मदद दे रही है बल्कि विशेषीकृत या डेडीकेटेट बस कॉरीडोर बनाने के लिए मदद देने के साथ ही मेट्रो के संजाल को भी बढ़ाने में जुटी हुई है। केन्द्र सरकार ने यह समझ लिया है कि शहरी परिवहन को सुधारना है तो सबसे पहले शहरों की सार्वजनिक परिवहन प्रणाली को इस तरह विकसित करना होगा कि लोग अपने वाहन की जगह सार्वजनिक परिवहन प्रणाली को प्राथमिकता दें। सरकार की यह कोशिश दिल्ली में उन रूटों पर सफल होती भी दिखती है जहां मेट्रो की पहुंच है। एक अनुमान के मुताबिक ऐसे रूट पर करीब 30 से 40 प्रतिशत लोगों ने अपने वाहनों से दैनिक यात्रा करने की जगह मेट्रो को प्राथमिकता देनी शुरू कर दी है।

केन्द्र सरकार जानती है कि आम आदमी या फिर दैनिक यात्रा करने वाले सभी यात्रियों के लिए प्रतिदिन मेट्रो की सवारी करना आसान नहीं है। यही वजह है कि जेएनएनयूआरएम योजना का संचालन कर रहे केन्द्रीय शहरी विकास मंत्रालय ने सभी शहरों को भी कहा है कि वे सार्वजनिक परिवहन सुधारने के लिए सिर्फ मेट्रो को ही विकल्प ना मानें। शहरों को चाहिए कि पहले से चल रही बस सेवा को सुव्यवस्थित करें। उनकी चाल तेज करने और यात्रा समय को सुनिश्चित करने के लिए ऐसे विशेषीकृत या डेडीकेटेड कॉरीडोर बनाएं जिसमें सिर्फ बस चले। अन्य वाहनों को उसमें और बस द्वारा अन्य लेन में प्रवेश किए जाने पर पाबंदी हो । ऐसे विशेषीकृत कॉरीडोर बनाने के लिए केन्द्र सरकार ने अपनी पऊलैगशिप योजना जवाहर लाल नेहरू शहरी नवीनीकरण योजना (जेएनएनयूआरएम) के अंतर्गत शहरों को आर्थिक मदद देने की भी पहल की है। इस तरह का एक कॉरीडोर इंदौर व एक कॉरीडोर पुणे में इसकी उपयोगिता को सिध्द कर रहा है। दोनों ही जगह ऐसे विशेषीकृत बस कॉरीडोर वाले रूट पर यात्रा-समय में बीस से तीस मिनट की कमी आई है। केन्द्रीय शहरी विकास मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी के मुताबिक इस समय दस शहरों पुणे, पिंपरी चिंचवाड़, इंदौर, भोपाल, अहमदाबाद, राजकोट, सूरत, जयपुर, विजयवाड़ा और विजाग में ऐसे कॉरीडोर को मंजूरी दी गई है। इन कॉरीडोर पर 4770.86 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे, जबकि इन दस रूट पर कॉरीडोर की कुल लम्बाई 422.35 किलोमीटर होगी। मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार पुणे में कुल 101.77 किलोमीटर,पिंपरी चिंचवाड़ 42.22 किलोमीटर, इंदौर में 11.45 किलोमीटर, भोपाल में 21.71 किलोमीटर, अहमदाबाद में 88.50 किलोमीटर, राजकोट में 29.00 किलोमीटर, सूरत में 29.90 किलोमीटर, जयपुर में 39.45 किलोमीटर, विजयवाड़ा में 15.50 किलोमीटर, विजाग में 42.80 किलोमीटर के डेडीकेटेट बस कॉरीडोर पर क्रमश: 1051, 738.16, 98.45, 237.76, 981.35, 110,469, 479.55, 152.64, 452.93 करोड़ रुपये खर्च किए जा रहे हैं। मंत्रालय के अधिकारियों के मुताबिक विशेषीकृत बस कॉरीडोर के अलावा विभिन्न शहरों को लो पऊलोर, सेमि लो पऊलोर व लो पऊलोर एसी बसें भी दी जा रही है, जिससे आम आदमी को सुविधाजनक यात्रा का अहसास हो और वे अपने वाहनों को छोड़कर सार्वजनिक परिवहन को प्राथमिकता दें। इन बसों में आने वाले स्टैंड की पूर्व सूचना देने के लिए उद्धोषणा यंत्र भी लगे होंगे। साथ ही सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए बसों में कैमरे लगाए जाने की भी योजना है। मंत्रालय सूत्रों के मुताबिक विभिन्न शहरों को 15260 बस उपलब्ध कराई जा रही हैं। इनमें से हैदराबाद को 1000, तिरुपति को 50, विजयवाड़ा को 240, विशाखापट्टनम को 250, इटानगर को 25, गुवाहाटी को 200, बोधगया को 25, पटना को 100, रायपुर को 100,दिल्ली को 1500, दिल्ली मेट्रो को 100, पणजी को 50, अहमदाबाद को 730, फरीदाबाद-इलाहाबाद को 150-150, शिमला-जम्मू-कश्मीर-अगरतला को 75-75, धनबाद को 100, जमशेदपुर को 50, रांची को 100, बंगलुरू को 1000, मैसूर को 150, कोची को 200, त्रिवेंद्रम को 150, भोपाल को 225, इंदौर को 175, जबलपुर को 75, उज्जैन को 50, महानगर रोडवेज-वेस्ट को 1000, नवी मुम्बई को 150, मीराभांयदर-कल्याणडोंबली-पुड्डुचेरी को 50-50, नागपुर-लखनऊ को 300-300, नांदेड को 30, पीएमपीएमएल पुणे को 500, पीएमपीएमएल पीसीबएमसी को 150, भोपाल को 225, इंदौर को 175, जबलपुर को 75, उज्जैन को 50, महाराष्ट्र महानगर रोडवेज-वेस्ट को 1000, नवी मुम्बई को 150 नासिक को 100, इंफाल को 25, शिलांग को 120, आईजवल व कोहिमा-पुरी-गंगटोक को 25-25, भुवनेश्वर को 100, अमृतसर को 150, लुधियाना-आगरा को 200, अजमेर को 35, जयपुर को 400, चैन्नई को 1000, कोयम्बटूर-मदुरई को 300-300, कानपुर को 304, मथुरा-देहरादून-नैनीताल को 60-60, मेरठ को 150, वाराणसी को 146, चंडीगढ़ को 100, हरिद्वार को 25, आसनसोल को 100 और कोलकाता को 1200 बस दी जाएंगी।

मंत्रालय के अधिकारियों के अनुसार डेडीकेटेड बस कॉरीडोर, लो पऊलोर बसों के साथ ही शहरी परिवहन को सुधारने के लिए मेट्रो की लाइनों का भी विस्तार किया जा रहा है। दिल्ली की लाइनों के अलावा चैन्नई में मेट्रो विस्तार के लिए 14,600 करोड़ रुपये कैबिनेट ने मंजूर किए हैं । इसके अलावा केन्द्र सरकार ने बंगलुरू मेट्रो के लिए 9.3 किलोमीटर रूट के विस्तार को भी मंजूरी दी है। इनके अलावा देश में पहली निजी मेट्रो चलाने के लिए रिलायंस कंपनी आगे आई है और उसके नेतृत्व में एक समूह को मुम्बई के बर्सोवा-घाटकोपर लाइन के लिए 471 करोड़ रुपये और चारकोप-मनखुर्द लाइन के लिए 1532 करोड़ रुपये की अंतर राशि के लिए सरकारी सहायता (वाइबलिटी गैप फंडिंग) या केन्द्र सरकार द्वारा इतनी राशि वहन की भी सैध्दांतिक मंजूरी दी है। केन्द्र सरकार ने यह भी कहा है कि अगर अन्य निजी कंपनियां भी मेट्रो परिचालन में रुचि रखती हों तो उन्हें आगे आना चाहिए, जिससे सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था दुरुस्त करने में उनकी मदद सरकार को हासिल हो सके। सरकार ने ऐसी कंपनियों की कुल लागत का एक हिस्सा वाइबलिटी गैप फंडिंग के तौर पर उपलब्ध कराने का भी आश्वासन दिया है। शहरी परिवहन को दुरुस्त करने और सार्वजनिक परिवहन को गति देने के लिए इन उपायों को करने के साथ ही केन्द्रीय शहरी विकास मंत्रालय ने हाल ही में दिल्ली, गोवाहाटी आईआईटी के साथ ही दो अन्य संस्थानों में यातायात विषय पर उत्कृष्टता केन्द्र(सेंटर आफ एक्सिलेंसी) स्थापित किए हैं। ये चारों केन्द्र तय समय सीमा में सरकार को सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को सुदृढ करके शहरी परिवहन को दुरस्त करने के लिए अपनी विशेषीकृत राय देगी। केन्द्रीय शहरी विकास मंत्री जयपाल रेड्डी और शहरी विकास सचिव एम. रामचंद्रन के मुताबिक केन्द्र सरकार शहरी परिवहन व्यवस्था के सुधार के लिए प्रतिबध्द है। इन उपायों के साथ ही परिवहन व्यवस्था को मजबूत करने के लिए आने वाले समय में कम्प्यूटर आधारित परिवहन व्यवस्था (इंटेलिजेंट ट्रांसपोर्ट सिस्टम) भी लागू किया जाएगा। मंत्रालय शहरी परिवहन सुधारने के अन्य आयामों को भी देख रहा है।


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