अम्बरीश कुमार
अन्ना हजारे अपनी टीम से निजात तो नहीं पाना चाहते है, यह आशंका उन ताकतों को है जो शुरूआती दौर में में अन्ना हजारे के आंदोलन से जुडी थी। इन ताकतों में जयप्रकाश आंदोलन के कार्यकर्ताओं से लेकर गाँधीवादी कार्यकर्त्ता शामिल है। खास बात यह है कि ये सब अब बाबा रामदेव के आंदोलन की तरफ काफी उम्मीद से देख रही है और सक्रिय पहल भी कर चुकी है। बाबा रामदेव को उत्तर प्रदेश से कई जन संगठनों और कार्यकर्ताओं का समर्थन मिलता नजर आ रहा है दूसरी तरफ अन्ना हजारे का उत्तर प्रदेश का न तो कोई कार्यक्रम है और न ही भविष्य की कोई योजना। अन्ना हजारे के आंदोलन से जुड़े सर्व सेवा संघ के मंत्री राम धीरज ने कहा -दिल्ली में जो हो रहा है उससे इसी तरह का संकेत मिल रहा है खासकर मीडिया में जिस तरह की खबरे आई है ।

गौरतलब है कि अन्ना हजारे ने बाबा रामदेव के साथ आंदोलन का एलान अपनी टीम को साथ लेकर नहीं किया जिसके बाद यह मामला सार्वजनिक हुआ पर परदे के पीछे यह पहले से चल रहा था जिसकी एक नहीं कई वजहें बताई जा रही है। बाबा रामदेव के साथ जाने का फैसला जिस तरह अन्ना ने अकेले किया उसी तरह उन्होंने आगे का फैसला भी अपनी मर्जी से किया है । ध्यान रहे अब अन्ना हजारे एक मई से महाराष्ट्र के शिर्डी से यात्रा की शुरुआत करेंगे। अन्ना महाराष्ट्र के 35 जिलों का दौरा करेंगे। इसके आलावा वे देश में कई जगहों पर बाबा रामदेव के साथ सभा करेंगे। महाराष्ट्र में अन्ना हजारे को टीम के किसी सदस्य की जरुरत भी नहीं है क्योकि वहा उनका खुद का आधार रहा है है और वे मराठी के जरिए इस आंदोलन को व्यापक बनाएंगे। ऐसे में महाराष्ट्र में भूमिका बनेगी भी तो सिर्फ अन्ना हजारे की किसी और की नहीं । इसका राजनैतिक संदेश समझा जा सकता है। दरअसल कुछ महत्वकांक्षी सदस्य हजारे के जन आंदोलन से अपनी राजनैतिक जमीन तलाशने लगे थे और दो ने तो लोकसभा की सीट भी चिन्हित कर ली । पर अब आंदोलन का जो हाल है वही हाल उनकी राजनैतिक संभावनाओं का भी हो गया है।

दूसरी तरफ बाबा रामदेव की तैयारी ज्यादा व्यापक और ठोस है। दिक्कत सिर्फ यह है कि उनके आंदोलन पर दक्षिण पंथी ताकतों का ठप्पा न लग जाए वर्ना उसे ज्यादा बड़ा समर्थन मिल सकता है। जयप्रकाश आंदोलन के कार्यकर्त्ता राम धीरज ने आगे कहा -बाबा रामदेव की तैयारी कई मायनों में महत्वपूर्ण है। वे नौजवानों से लेकर महिलाओं को अलग अलग संगठित कर रहे है इनमे आंदोलन वाली जमात भी शामिल है। दूसरे काला धन का मुद्दा ऐसा है जिसमे राजनैतिक दल से लेकर राष्ट्रिय अंतराष्ट्रीय मीडिया का भी समर्थन मिल सकता है। इस मामले में यह ज्यादा व्यापक आंदोलन बन सकता है।

गौरतलब है कि बाबा रामदेव की तैयारी सिर्फ तीन जून तक की ही नहीं है, बल्कि उसका विस्तार 2014  का चुनाव है जो पहले भी हो सकता है। पर उनकी राजनैतिक ताकत जून से लेकर अगस्त तक दिख जाएगी। दूसरी तरफ अब बाबा रामदेव के साथ अन्ना हजारे के आ जाने से हजारे टीम के उन सदस्यों की दिकत बढ़ सकती है जो रामदेव के विरोधी रहे है। हजारे आंदोलन से जुड़े एक नेता ने कहा -टीम अन्ना के लोग यह बात कभी समझ ही नहीं पाए कि जब तक आप खुद की कोई व्यवस्था नहीं बना सकते तो बड़ी व्यवस्था का सपना कैसे देखेंगे। न कोई संगठन न कोई कार्यक्रम खाली मीडिया का ग्लैमर कबतक चलेगा । कुछ्ह देर चल भी जाए पर जिस अहंकार से ये लोग बोलते है उससे कोई आंदोलन नहीं चल सकता एनजीओ ही चल सकता है।
(लेखक जनसत्ता से जुड़े हैं)

अहमद नूर खान
विकास के प्रति अपने मौजूदा दृष्टिकोण से हमने मूल वनों को साफ करने, आर्द्र भूमि को नष्ट करने, मत्स्य भंडार के तीन चौथाई को निगलने तथा आगामी कई शताब्दियों तक इस ग्रह को गर्म रखने वाली गैसों का उत्सर्जन किया है।

फलस्वरूप, हम अपने अस्तित्व की आधारशिला को ही नुकसान पहुंचाकर उसे खतरे में डाल रहे हैं। हमारे ग्रह पर जीवन की विविधता, जिसे जैवविविधता के नाम से जाना जाता है, से हमे भोजन, कपड़े, ईंधन, दवाइयां और उससे भी कहीं ज्यादा चीजें मिलती हैं। जीवन के इस जटिल जाल से जब एक भी प्रजाति बाहर निकाल ली जाती है तो उसका परिणाम बहुत भयावह हो सकता है। इसी वजह से संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2010 को जैव विविधता वर्ष घोषित किया है और दुनियाभर में लोग अहस्तांतरणीय प्राकृतिक संपदा की सुरक्षा एवं जैवविविधता क्षय को कम करने में जुटे हैं।

विश्व पर्यावरण दिवस 2010 की मेजबानी रवांडा करेगा और यह समारोह वहां के न्न क्विता इजिना (बेबी गोरिल्ला का नामकरण)न्न समारोह के साथ मनाया जाएगा। इसका ध्येयवाक्य न्न कई प्रजातियां, एक ग्रह, एक भविष्य न्न है और यह कार्यक्रम विरूंगा पहाड़ियों के पास मनाया जाएगा जो रवांडा, डीआरसी और उगांडा तीनों क्षेत्रों में स्थित है। रवांडा दुनिया के 750 संकटापन्न पहाड़ी गोरिल्लों के एक तिहाई हिस्से का आवास है। सन् 2005 से अबतक 103 गोरिल्लों को नाम दिया गया है और इस दिवस के अवसर पर 11 गोरिल्ला को नाम दिया जाएगा।

जैविक विविधता में पेड़ों, जीव-जंतुओं एवं सूक्ष्मजीवों की सभी प्रजातियां, पारिस्थितिकी तंत्र तथा पारिस्थितिकी प्रक्रियाएं, जिनका वे हिस्सा हैं, आती हैं। यह पृथ्वी पर जीवन का आधार प्रदान करती हैं। इन संसाधनों के मौलिक, सामाजिक, नैतिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक महत्व को धर्म, कला और अबतक के साहित्यों में स्वीकार किया गया है। जंगली प्रजातियों और इनकी जेनेटिक विविधता कृषि, औषधि एवं उद्योग के विकास में अहम योगदान देती हैं। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इनमें से कई प्रजातियां जलवायु परिवर्तन के स्थिरीकरण, आर्द्रक्षेत्रों की सुरक्षा, नर्सरियों एवं प्रजनन आधार की सुरक्षा में काफी मायने रखती हैं। ऐसा माना जाता है कि विश्व के मौजूदा सूक्ष्मजीव संसाधनों जैसे शैवाल, बैक्टीरिया, कवक, लाइकन, विषाणु और प्रोटोजोवा के मात्र 13 प्रतिशत हिस्से ही ज्ञात हैं। सूक्ष्मजीवों की जैवविविधता का संरक्षण कल्चर संग्रहण के माध्यम से किया जाता है और यह धातुओं के खान, कोयला खानों से मिथेन निकालने, ऑयल रिसाव को दूर करने, इत्र बनाने, वायु प्रदूषण की निगरानी, कीट और पतंगों पर नियंत्रण और जमीन में कीटनाशक को नष्ट करने आदि कार्यों में काफी उपयोगी है।

इसके बाद भी, देश की तीन से पांच करोड़ प्रजातियों में 100 प्रजातियां हर दिन कृषि योजनाओं,  शहरों, औद्योगिक विकास और बांधों के निर्माण या प्रदूषण या अपरदन आदि में नष्ट हो जाती हैं। फिलहाल 17,291 प्रजातियों के बारे में कहा जा रहा है कि वे विलुप्त होने के कगार पर हैं, इनमें बहुत कम ज्ञात पेड़ों और कीटों से लेकर पक्षी और स्तनधारी शामिल हैं। कुछ ऐसी भी प्रजातियां हैं जो पता चलने से पहले ही विलुप्त हो गयीं। मानव उन गिनी चुनी प्रजातियों में से है जिनकी जनसंख्या बढती ज़ा रही है, जबकि अधिकतर जीव जंतु और पेड़ पौधे दुर्लभ और घटते जा रहे हैं।

मानव को हमेशा से जैवविविधता आकर्षित करती रही है। आदिम काल में शिकारी मानव गुफाओं में तस्वीर बनाते थे। गौतम बुध्द का जन्म पवित्र शाल वन में हुआ था और उन्हें पीपल पेड़ के नीचे ध्यान योग से ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। राजस्थान के बिश्नोई समुदाय ने हिरण को अपना भाई समझकर उनके संरक्षण की योजना चलाई और राष्ट्रपति थियोडोर रूजवेल्ट ने नेशनल पार्कों के माध्यम से अमेरिकी वन्यभूमि के संरक्षण का अभियान चलाया। इसके साथ ही लोगों ने विविध प्रकार के जीवों का बड़ी निर्दयता से सफाया भी कर दिया। अंतिम हिम युग के दौरान शिकारी मानव ने विशालकाय हाथी को समूल नष्ट कर दिया और श्वेत वासियों ने अमेरिकी प्रेयरियों से गवल का सफाया कर दिया।

लोगों ने युगों तक जैवविविधता का उपयोग और दुरूपयोग दोनों किया लेकिन विविधता पर दुनियाभर में कभी भी उपयुक्त ध्यान नहीं दिया गया। वैश्विक समुदाय में धनी और शक्तिशाली ने इसके व्यापक आर्थिक क्षमता का पूरा दोहन किया।

प्राचीन ग्रंथों में सभी जीवों के अस्तित्व के बारे में सर्वत्र कहा गया और उसे उचित ठहराया गया है। सम्राट अशोक की पर्यावरण के प्रति चेतना, राजस्थान के बिश्नोई समुदाय की परंपरा तथा चिपको आंदोलन की भावना ये सभी आम आदमी की जागरूकता प्रदर्शित करती हैं। हालांकि लोगों की पर्यावरण जागरूकता पर अक्सर गरीबी और जीवन जीने की मूल आवश्यकताओं का प्रतिकूल असर भी पड़ता है। उनकी ईंधन की दैनन्दिन आवश्यकता के कारण वनों की कटाई होती है। बाघ, हिरण, मगरमच्छ, रिनसेरा तथा अन्य वन्यजीव नष्ट होते जा रहे हैं।  संकटापन्न जीवों का व्यापार कुछ लोगों की संजने संवरने की इच्छा की वजह से लगातार जारी है।

जैवविविधता पर लगातार बढता दबाव मानव की बढती ज़नसंख्या को परिलक्षित करता है। जबतक जनसंख्या स्थिर न हो जाती , तबतक यह दबाव बढता ही रहेगा। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार सन् 2050 से सन् 2070 के बीच जनसंख्या का 10 अरब पर स्थिर हो जाने का अनुमान है। यह स्थिरीकरण तभी हासिल किया जा सकता है जब जनसंख्या वृध्दि को रोकने का मौजूदा प्रयास पूरे लगने से जारी रहे।

विश्व पर्यावरण दिवस-2010 का ध्येयवाक्य कई प्रजातियां, एक ग्रह, एक भविष्य हमारे ग्रह पर जीवन की विविधता के संरक्षण की आवश्यकता पर बल देता है। जैवविविधता के बगैर दुनिया का भविष्य  बहुत ही क्षीण है। इस ग्रह पर लाखों लोग तथा प्रजातियां रहती हैं और साथ मिलकर ही हम सुरक्षित एवं समृध्द भविष्य की आशा कर सकते हैं।


एम एल धर
जम्मू और कश्‍मीर में करीब दो लाख खानाबदोश गुज्जर और बकरवाल परिवारों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के अंतर्गत लाया जा रहा है। राज्य के उपभोक्ता मामले और सार्वजनिक वितरण मंत्री श्री कमर अली अख्खून ने बताया कि उनको अस्थाई राशनकार्ड जारी किए जाएंग़े ताकि एक स्थान से दूसरी जगह जाने के दौरान उन्हें बिना किसी कठिनाई के राषन मिल सके। मंत्री महोदय ने कहा कि अपनी प्रवासी प्रवृत्ति के कारण वे बीपीएल परिवारों के लिए शुरू की गईं सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं उठा पा रहे थे, इससे उनकी लंबे समय से चली आ रही मांग पूरी होगी।
इन खानाबदोश लोगों के प्रवास के दौरान खाद्य वस्तुओं की कमी ही सबसे प्रमुख समस्या रही है। उन्हें पीडीएस के अंतर्गत लाने से प्रवास के दौरान उनकी यह समस्या काफी हद तक कम होगी।
वर्तमान में, जम्मू और कश्‍मीर में गुज्जरों और बकरवालों की एक बड़ी जनसंख्या मौसमी प्रवास के दौरान हिमालय की उत्तरपश्चिमी ऊंची चोटियों से पैदल ही जम्मू क्षेत्र के मैदानी इलाकों में आती हैं। आजकल के दिनों में उन्हें अपने पशुओं के झुंड के साथ विभिन्न राजमार्गो और सड़कों पर चलते हुए देखना एक आम नजारा है। ऐसा माना जाता है कि मूल रूप से गुज्जर और बकरवाल राजपूत हैं जो विभिन्न कारणों से गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र से कश्‍मीर में चले गये थे। प्राचीन कश्‍मीर के इतिहास कल्हाना में, राजतरंगणिनी में इन लोगों का 9वीं और 10वीं शताब्दी में कश्‍मीर की सीमा पर रहने का उल्लेख मिलता है। यह कहा जाता है कि कुछ शताब्दी पहले उन्होंने मुस्लिम धर्म को स्वीकार कर लिया और फिर वे दो अलग-अलग सम्प्रदायों गुज्जर और  बकरवाल में विभाजित हो गए। गुज्जरों के पुंछ में उच्च अधिकारी बनने से पूर्व 17वीं शताब्दी तक वे गुमनामी में रहे। इन अधिकारियों में से एक राह-उल्लाह-खान ने इस क्षेत्र में 18वीं शताब्दी में गुज्जरों के सांगो राजवंष की स्थापना की लेकिन यह भी अल्पकालिक रही।
जनसंख्या
गुज्जर और बकरवाल जम्मू और कश्‍मीर में तीसरा सबसे बड़ा जातीय समूह है जो राज्य की 20 प्रतिषत से ज्यादा जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करता है। 2001 की जनगणना के अनुसार, 7,63,806 की जनसंख्या के साथ वे राज्य की सबसे अधिक आबादी वाली अनुसूचित जनजाति है। उनका प्रवास अधिकतर अनंतनाग, उधमपुर, डोडा, राजौरी और पुंछ सीमावर्ती जिलों में केन्द्रित रहा है। गुज्जरों और बकरवालों के बीच आपसी विवाह संबंध आम हैं।
बकरवाल और गुज्जर अपनी स्वयं की समाजिक, सांस्कृतिक और भाषाई पहचान लिए हुए हैं। वे गर्मी के अधिकांश मौसम में अपना बसेरा ऊंची पीर पंजाल पहाड़ियों के प्राकृतिक हरे-भरे सुरम्य पहाड़ी मैदानों और खूबसूरत पर्वतमालाओं के बीच डालते हैं। हालांकि दूर-दराज और दुर्गम क्षेत्रों में रहने से उनका सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक सशक्तिकरणप्रभावित होता है और यह उन्हें पिछड़ेपन की ओर भी ले जाता है।
जीवन शैली     
अधिकांश गुज्जर भैंसों के चरवाहे हैं। उनमें से कुछ की पहाड़ों की तलहटी में कुछ भूमि भी है। उनमें से बहुतों के ऊंची पहाड़ियों पर लकड़ी के लठ्ठों से बने बैरक टाईप के घर भी है जिन्हें धोक्स कहा जाता है। बकरवाल भी ऐसी ही दिनचर्या के साथ आमतौर पर अपनी आजीविका के लिए भेड़ और बकरियों पर निर्भर हैं। भूमिहीन और बेघर होने के कारण वे हरे भरे मैदानों की तलाश में अपने खूंखार कुत्तों की देखरेख में अपनी बकरियों और भेड़ों के झुंड के साथ घोड़ों पर अपने साजो-सामान को लिए खानाबदोशी का जीवन जीते हैं। पं. जवाहरलाल नेहरू ने दक्षिण कष्मीर के पहलगांव में बकरवालों के एक झुंड को देखकर उन्हें जंगल का राजा के रूप में वर्णित किया था।
केन्द्र सरकार ने 1991 में जम्मू और कश्‍मीर के गुज्जरों और बकरवालों को अनुसूचित जनजाति के रूप में अधिसूचित किया । आरक्षण के विशेष लाभ के साथ समान अवसर मिलने से उन्हें शैक्षिक और आर्थिक रूप से सशक्त करने में काफी मदद मिली ताकि वे अपने आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक पिछड़ेपन से मुकाबला कर सकें। सरकार इन खानाबदोश समुदायों को आरक्षण का लाभ उठाने में समर्थ बनाने हेतु उनके बच्चों को  ज्ञान से परिपूर्ण करने के लिए शिक्षा दिलाने की पहल कर चुकी है। गुज्जरों और बकरवालों के लिए 12वीं कक्षा तक नि:शुल्क आवास और सुविधाओं से युक्त हॉस्टल जिला स्तर पर प्रदान कर चुकी है। बहुत सी सुविधाएं पूर्ण होने को हैं। गुज्जर और बकरवाल छात्र शैक्षिक रूप से पिछड़े इलाकों में स्थापित लड़कियों के छात्रावास और मॉडल विद्यालयों से भी लाभ उठा रहे हैं। पिछले वित्तीय वर्ष के दौरान केन्द्र द्वारा 4206 अनुसूचित जाति और जनजाति के छात्राओं को 3000 रूपए की छात्रवृत्ति दी गई। रोजगार और पेशेवर संस्थानों में आरक्षण का लाभ वे तभी उठा सकते हैं जब वे शैक्षिक रूप से समर्थ हों।
इससे अलावा, इसने गुज्जर पहचान को बनाए रखने में उनकी मदद भी की है। आधिकारिक और गैर-आधिकारिक दोनों स्तरों पर दशकों से गोजरी भाषा को बढ़ावा देने के प्रयासों को भी उल्लेखनीय योगदान मिला है। गोजरी को 12वीं कक्षा तक के विद्यालयों के पाठयक्रमों में शामिल कर लिया गया है। जम्मू और कश्‍मीर सांस्कृतिक अकादमी और रेडियो कश्‍मीर के गोजरी कार्यक्रमों के अतिरिक्त, गुर्जर देश चैरिटेबल ट्रस्ट, जनजातीय फाउंडेशन, सांस्कृतिक विरासत के लिए गुज्जर केन्द्र और अन्य गुज्जर संगठनों जैसे गैर-सरकारी संगठनों के दीर्घकालीन योगदान ने जम्मू और कश्‍मीर में गुज्जरों की जातीय और भाषाई पहचान के संरक्षण और प्रोत्साहन में अहम योगदान दिया है।
लेकिन इसके समकक्ष पाक अधिकृत कश्‍मीर (पीओके) में इस मामले में ऐसा नहीं है। नवम्बर, 2005 से पुंछ और उरी सैक्टरों में लोगों से लोगों के संपर्क के लिए नियंत्रण रेखा खोलने के बाद, पीओके में रहने वाले गुज्जर समुदाय के सदस्यों की भारतीय क्षेत्र में रह रहे अपने परिजनों से मिलने के लिए हुई यात्रा के बाद यह तथ्य सामने आया। पीओके के त्रार- खाल से आये आगन्तुकों में से एक अब्दुल गनी ने बताया कि जम्मू और कष्मीर में सरकारी और राजनीतिक दलों में महत्वपूर्ण पदों पर कार्य कर रहे अपने परिजनों को देखकर मैं बहुत खुश हूं। त्रार खाल से ही एक अन्य गुज्जर चौधरी मौहम्मद शरीफ  ने कहा कि हमारी संस्कृति के प्रतीक जैसे लोक गीत, लोक संगीत, परम्पराएं और सदियों पुरानी हमारी रस्में हमारी तरह खो चुकी हैं जबकि यह जम्मू और कश्‍मीर में दिखाई पड़ती हैं।
गुज्जर और बकरवाल बहादुर और साहसी लोग हैं और इन्होंने हमेशा से भारतीय सेना की मदद की है। 1965 में, कश्‍मीर घाटी में तंगमार्ग क्षेत्र के निकट तोसमैदान इलाके का एक गुज्जर मौ. दीन पहला व्यक्ति था जिसने अधिकारियों को पाकिस्तानी घुसपैठियों की उपस्थिति की जानकारी दी थी। उनकी भूमिका की प्रषंसा करते हुए यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा है कि गुज्जर 1965 और 1971 के युध्दों के दौरान पहले ही जंग लड़ चुके हैं और आज वे जम्मू और कश्‍मीर में आतंकवाद और तोड़फोड़ के खिलाफ लड़ रहे हैं। 


फ़िरदौस ख़ान
'कुछ लोगों' की वजह से पूरी मुस्लिम क़ौम को शक की नज़र से देखा जाने लगा है... इसके लिए जागरूक मुसलमानों को आगे आना होगा... और उन बातों से परहेज़ करना होगा जो मुसलमानों के प्रति 'संदेह' पैदा करती हैं... कोई कितना ही झुठला ले, लेकिन यह हक़ीक़त है कि हिन्दुस्तान के मुसलमानों ने भी देश के लिए अपना खून और पसीना बहाया है. हिन्दुस्तान मुसलमानों को भी उतना ही अज़ीज़ है, जितना किसी और को... यही पहला और आख़िरी सच है... अब यह मुसलमानों का फर्ज़ है कि वो इस सच को 'सच' रहने देते हैं... या फिर 'झूठा' साबित करते हैं...

इस देश के लिए मुसलमानों ने अपना जो योगदान दिया है उसे किसी भी हालत में नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता। कितने ही शहीद ऐसे हैं जिन्होंने देश के लिए अपनी जान तक कुर्बान कर दी, लेकिन उन्हें कोई याद तक नहीं करता। हैरत की बात यह है कि सरकार भी उनका नाम तक नहीं लेती। इस हालात के लिए मुस्लिम संगठन भी कम ज़िम्मेदार नहीं हैं. वे भी अपनी क़ौम और वतन से शहीदों को याद नहीं करते.

हमारा इतिहास मुसलमान शहीदों की कुर्बानियों से भरा पड़ा है। मसलन, बाबर और राणा सांगा की लडाई में हसन मेवाती ने राणा की ओर से अपने अनेक सैनिकों के साथ युध्द में हिस्सा लिया था। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की दो मुस्लिम सहेलियों मोतीबाई और जूही ने आखिरी सांस तक उनका साथ निभाया था। रानी के तोपची कुंवर गुलाम गोंसाई ख़ान ने झांसी की रक्षा करते हुए अपने प्राणों की आहूति दी थी। कश्मीर के राजा जैनुल आबदीन ने अपने राज्य से पलायन कर गए हिन्दुओं को वापस बुलाया और उपनिषदों के कुछ भाग का फ़ारसी में अनुवाद कराया। दक्षिण भारत के शासक इब्राहिम आदिल शाह द्वितीय ने सरस्वती वंदना के गीत लिखे। सुल्तान नांजिर शाह और सुल्तान हुसैन शाह ने महाभारत और भागवत पुराण का बंगाली में अनुवाद कराया। शाहजहां के बड़े बेटे दारा शिकोह ने श्रीमद्भागवत और गीता का फ़ारसी में अनुवाद कराया और गीता के संदेश को दुनियाभर में फैलाया।

गोस्वामी तुलसीदास को रामचरित् मानस लिखने की प्रेरणा कृष्णभक्त अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना से मिली। तुलसीदास रात को मस्जिद में ही सोते थे। 'जय हिन्द' का नारा सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिन्द फ़ौज के कप्तान आबिद हसन ने 1942 में दिया था, जो आज तक भारतीयों के लिए एक मंत्र के समान है। यह नारा नेताजी को फ़ौज में सर्वअभिनंदन भी था।

छत्रपति शिवाजी की सेना और नौसेना के बेड़े में एडमिरल दौलत ख़ान और उनके निजी सचिव भी मुसलमान थे। शिवाजी को आगरे के क़िले से कांवड़ के ज़रिये क़ैद से आज़ाद कराने वाला व्यक्ति भी मुसलमान ही था। भारत की आजादी के लिए 1857 में हुए प्रथम गृहयुध्द में रानी लक्ष्मीबाई की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी उनके पठान सेनापतियों जनरल गुलाम गौस खान और खुदादा खान की थी। इन दोनों ही शूरवीरों ने झांसी के क़िले की हिफ़ाज़त करते हुए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। गुरु गोबिन्द सिंह के गहरे दोस्त सूफी बाबा बदरुद्दीन थे, जिन्होंने अपने बेटों और 700 शिष्यों की जान गुरु गोबिन्द सिंह की रक्षा करने के लिए औरंगंजेब के साथ हुए युध्दों में कुर्बान कर दी थी, लेकिन कोई उनकी कुर्बानी को याद नहीं करता। बाबा बदरुद्दीन का कहना था कि अधर्म को मिटाने के लिए यही सच्चे इस्लाम की लडाई है।

अवध के नवाब तेरह दिन होली का उत्सव मनाते थे। नवाब वाजिद अली शाह के दरबार में श्रीकृष्ण के सम्मान में रासलीला का आयोजन किया जाता था। नवाब वाजिद शाह अली ने ही अवध में कत्थक की शुरुआत की थी, जो राधा और कृष्ण के प्रेम पर आधारित है। प्रख्यात नाटक 'इंद्र सभा' का सृजन भी नवाब के दरबार के एक मुस्लिम लेखक ने किया था। भारत में सूफी पिछले आठ सौ बरसों से बसंत पंचमी पर 'सरस्वती वंदना' को श्रध्दापूर्वक गाते आए हैं। इसमें सरसों के फूल और पीली चादर होली पर चढ़ाते हैं, जो उनका प्रिय पर्व है। महान कवि अमीर ख़ुसरो ने सौ से भी ज्यादा गीत राधा और कृष्ण को समर्पित किए थे। अमृतसर के स्वर्ण मंदिर की बुनियाद मियां मीर ने रखी थी। इसी तरह गुरु नानकदेव के प्रिय शिष्य साथी मियां मरदाना थे, जो हमेशा उनके साथ रहा करते थे। वह रबाब के संगीतकार थे। उन्हें गुरुबानी का प्रथम गायक होने का श्रेय हासिल है। बाबा मियां मीर गुरु रामदास के परम मित्र थे। उन्होंने बचपन में रामदास की जान बचाई थी। वह दारा शिकोह के उस्ताद थे। रसखान श्रीकृष्ण के अनन्य भक्तों में से एक थे जैसे भिकान, मलिक मोहम्मद जायसी आदि। रसखान अपना सब कुछ त्याग कर श्रीकृष्ण के प्रेम में लीन हो गए। श्रीकृष्ण की अति सुंदर रासलीला रसखान ने ही लिखी। श्रीकृष्ण के हज़ारों भजन सूफ़ियों ने ही लिखे, जिनमें भिकान, मलिक मोहम्मद जायसी, अमीर ख़ुसरो, रहीम, हज़रत सरमाद, दादू और बाबा फरीद शामिल हैं। बाबा फ़रीद की लिखी रचनाएं बाद में गुरु ग्रंथ साहिब का हिस्सा बनीं।

बहरहाल, मुसलमानों को ऐसी बातों से परहेज़ करना चाहिए, जो उनकी पूरी क़ौम को कठघरे में खड़ा करती हैं...
जान हमने भी गंवाई है वतन की ख़ातिर,
फूल सिर्फ़ अपने शहीदों पे चढ़ाते क्यों हो...


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