राजीव जैन
भारत की अर्थव्यवस्था कृषि आधारित है। देश के 43 प्रतिशत लोग कृषि और उससे जुड़ी गतिविधियों में रोजगार पा रहे हैं। कृषि और वानिकी तथा लकड़ी कटाई जैसे संबंधित क्षेत्रों में देश की जनसंख्या के 60 प्रतिशत लोग काम कर रहे हैं। देश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का हिस्सा 19 प्रतिशत के करीब है और कुल निर्यात का 9 प्रतिशत कृषि जनित सामग्री का होता है। भारत की कृषि के अनुकूल जलवायु और प्रचुर प्राकृतिक संपदा कृषि के मोर्चे पर बहुत अच्छा प्रदर्शन करने की पृष्ठभूमि बनाती हैं। आज अनेक कृषि जिन्सों यथा नारियल, आम, केला, दुग्ध और दुग्ध उत्पाद, काजू, दालें, अदरक, हल्दी और काली मिर्च का उत्पादन सबसे अधिक भारत में ही होता है। गेहूं, चावल, चीनी, कपास, फल और सब्जियों के उत्पादन के मामले में भारत का दूसरा नम्बर है। आर्थिक प्रगति और आत्मनिर्भरता के लिये भारत को कृषि उत्पादन की अपनी क्षमता को बढ़ाना होगा। घरेलू खपत की मांग को पूरा करने के लिये भी यह जरूरी है।
देश में कृषि को बढावा देने और कृषक समुदाय को निरंतर कृषि उपज का लाभकारी मूल्य दिलाने के उद्देश्य से कृषि निर्यात क्षेत्रों की परिकल्पना सामने आई। राज्य सरकार की विभिन्न एजेंसियों, सभी कृषि विश्व विद्यालयों और केन्द्रीय सरकार की सभी संस्थाओं एवं एजेंसियों द्वारा प्रदान की जाने वाली सेवाओं के व्यापक पैकेज के आधार पर इन कृषि निर्यात क्षेत्रों को चिन्हित किया जाना है। इन क्षेत्रों में ये सभी सेवायें सघन रूप से प्रदान की जाएंगी। कृषि निर्यात को बढावा देने के लिये भरोसे वाली कंपनियों को पहले से ही चिन्हित कृषि निर्यात क्षेत्रों अथवा ऐसे क्षेत्रों के एक हिस्से को लेने या नए क्षेत्र के प्रयोजन के लिये प्रोत्साहित किया जाता है। सेवाओं का प्रबंधन और समन्वयन राज्य सरकारकार्पोरेट क्षेत्र द्वारा किया जाएगा और इनमें फसल के पूर्व और बाद की उपचार और प्रचालन, पौध संरक्षण, प्रसंस्करण, पैकेजिंग, भंडारण और संबंधित अनुसंधान एवं विकास आदि जैसे कार्य शामिल होंगे। कृषि व्यापार संवर्धन की सरकारी संस्था कृषि एवं प्रसंस्कृत खाद्योत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण का केन्द्र सरकार की ओर से इन प्रयासों के समन्वयन के लिये नामांकित किया गया है।
कृषि निर्यात क्षेत्र का समूचा प्रयास संभावित उत्पादों और उन उत्पादों से जुड़े भौगोलिक क्षेत्रों की पहचान तथा उत्पादन से लेकर बाजार तक पहुंचने की पूरी प्रक्रिया को अपनाने के संकूल (कलस्टर) दृष्टिकोण पर केन्द्रित है। इसके प्रत्येक चरण पर आनेवाली कठिनाइयों और समस्याओं की पहचान कर उनकी सूची तैयार करने की भी आवश्यकता होगी । ये कठिनाइयां या तो प्रक्रिया संबंधी हो सकती हैं या फिर गुणवत्ता के किसी विशेष मानक से जुड़ी हो सकती हैं। कृषि निर्यात क्षेत्र से बाजारोन्मुखी नजरिये से पृष्ठभूमि संपर्कों को सुदृढ़ बनाने, विदेशी और स्वदेशी बाजारों में उत्पाद की स्वीकार्यता और स्पर्धात्मकता बढ़ाने , मितव्ययिता के जरिये उत्पादन लागत में कमी लाने, कृषि उपज का बेहतर मूल्य दिलाने, उत्पाद गुणवत्ता एवं पैकेजिंग में सुधार लाने, व्यापार संबधित अनुसंधान एवं विकास को बढावा देने और रोजगार के अवसरों में वृध्दि में लाभ हो सकता है।
किसी राज्य की परियोजना को समिति की मंजूरी मिलने के बाद राज्य सरकार और एपेडा के बीच एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किये जाते हैं, ताकि परियोजना के प्रत्येक चरण पर आवश्यक सहायता यथासंभव प्रदान की जा सके। राज्य सरकार के दायित्वों का उल्लेख समझौते में स्पष्ट कर दिया जाता है। अवधारणा के उद्देश्यों को हासिल करने के लिये कृषि निर्यात क्षेत्रों को समर्थ और परियोजनाओं को व्यावहारिक रूप में संभव बनाने के लिये यह आवश्यक है कि केन्द्र और राज्य सरकारें एक दूसरे के साथ मिलकर काम करें। इसके लिये राज्यों को स्वयं आगे आकर कुछ कदम उठाने होंगे। उन्हें समूची गतिविधि के कार्यान्वयन और समन्वयन के लिये उत्तरदायी राज्य सरकार की संस्थाओंएजेंसी को चिन्हित करना होगा, कृषि निर्यात के क्षेत्रीय दृष्टिकोण का संवर्धन करने वाले कार्यालयों में तमाम समस्याओं के निराकरण हेतु एकल खिड़की प्रकोष्ठ कायम करना होगा, बुनियादी सुविधाओं, बिजली आदि की पर्याप्त व्यवस्था करनी होगी और निर्यात क्षेत्रों में ऐसे विस्तार अधिकारियों की पुनर्बहाली करनी होगी, जो नियमित रूप से एपेडा के साथ संवाद बनाए रखें और एक निश्चित कार्यक्रम के तहत नियमित रूप से प्रशिक्षण गतिविधियां चला सकें।
चाय, कॉफी,मसाले और कपास ऐसी अन्य फसलें हैं, जिनमें भारत भौगोलिक और संसाधन के नजरिये से लाभ की स्थिति में है। कपास के उत्पादन के मामले में भारत का विश्व में दूसरा स्थान है। इस फसल पर यदि ध्यान दिया जाए तो वर्ष 2009-10 में इसके उत्पादन में 10 प्रतिशत यानि 3 करोड़ 20 लाख गांठों (बेल्स) (एक गांठ 170 कि.ग्रा. के बराबर होता है ) की वृध्दि हो सकती है, इसके लिये जरूरी शर्त यह है कि समर्थन खरीद मूल्य अधिक हो और बुवाई के लिये अधिक उपज वाले बीटी बीज का उपयोग किया जाए। कॉफी बोर्ड द्वारा किये गए आकलन के अनुसार वर्ष 2009-10 में भारत का काफी उत्पादन 3.1 लाख टन के आसपास रहने की संभावना है, जो 2008-09 की तुलना में 4.4 प्रतिशत अधिक है। यदि अनुमानों के अनुसार वास्तविक रूप से उत्पादन होता है तो वर्ष 2009-10 में भारत विश्व के शीर्ष 10 कॉफी उत्पादक देशों में शामिल हो जाएगा।
एक और क्षेत्र, जिसके विकास में एईजेड उत्प्रेरक का काम कर सकता है, वह है खाद्य प्रसंस्करण उद्योग। सकल घरेलू उत्पाद में 9 प्रतिशत का योगदान देने वाला खाद्य प्रसंस्करण उद्योग वर्तमान में 13.5 प्रतिशत की दर से विकास कर रहा है, जबकि वर्ष 2003-04 में यह क्षेत्र केवल 6.5 प्रतिशत की दर से वृध्दि कर रहा था। भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास में यह क्षेत्र महत्वपूर्ण भूमिका निभाने जा रहा है। इस क्षेत्र में रोजगार के भारी अवसर हैं और यह सामान्य वस्तुओं और सेवाओं का बेहतर मूल्य दिलाने में मदद करता है। एपेडा और निर्यात निरीक्षण परिषद (ईआईसी) कृषि निर्यात के संवर्धन हेतु गुणवत्ता विकास की अवस्थापना विकास योजना के जरिये आवश्यक तकनीक जानकारी और वितीय सहायता प्रदान कर रहे हैं। फूलों के निर्यात के विस्तार
के लिये बाजार विकास और अनुसंधान एवं विकास की योजनायें भी प्रयास कर रही हैं। इन उपायों के फलस्वरूप वर्ष 2008-09 के दौरान (फरवरी 2009 तक) फूलों का निर्यात वर्ष 2007-08 के 48.75 करोड़ रूपये से बढक़र 65.63 करोड़ रूपये का हो गया।
केन्द्र और राज्यों द्वारा मिलकर कृषि निर्यात को बढावा देने के प्रयास, वैश्विक मंदी के बावजूद अच्छे नतीजे दे रहे हैं। देश के कृषि उत्पादों का निर्यात, मूल्यानुसार, पिछले तीन वर्षों के दौरान करीब 40 प्रतिशत से बढ़कर 8 खरब 6 अरब रूपये तक पहुंच गया है। खाद्यान्न, खली, फलों और सब्जियों की विदेशों में काफी मांग है। अगले पांच वर्षों में भारत के कृषि निर्यात में दोगुनी वृध्दि होने की संभावना है। एपेडा के अनुसार 2014 तक कृषि निर्यात 9 अरब अमेरिकी डालर से बढ़कर 18 अरब अमेरिकी डालर तक पहुंच जाने की आशा है। वर्तमान में देश के कुल कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों के निर्यात का 70 प्रतिशत पश्चिमी एशिया, एशिया अफ्रीका और दक्षिणी अमेरिका के विकासशील देशों को होता है। जनसंख्या और संसाधनों के बीच बढ़ते असंतुलन और खाद्य एवं आजीविका की बढ़ती आवश्यकता को देखते हुए कृषि निर्यात क्षेत्रों की स्थापना की पहल एक बुध्दिमानी भरा सामयिक निवेश है।