पंकज झा
राजनीति का मतलब ही यही होता है कि आप उतने ही सफल होते हैं जितना निशाना एक तीर से साध सकते हों. अभी बिहार में हूँ और तीर निशान वाले जनता दल यू के बीजेपी के साथ किये जा रहे नूरा-कुश्ती को देख रहा हू. यूं तो भाजपा नीत गठबंधन का नेतृत्व करते हुए अटल जी ने गठबंधन को ‘धर्म’ की संज्ञा दी थी. लेकिन देखा जाय तो विभिन्न गठबंधनों के साथ भाजपा को जितने तरह का जिल्लत का सामना करना पड़ा है, जितना अपमान इसको झेलना पड़ा है वह इतिहास ही है.
अगर बिहार की बात की जाय तो पिछले पांच साल के दौरान हर वक्त नितीश ने यही सन्देश देने की कोशिश की कि मजबूरी केवल भाजपा की है. जबकि किसी रिश्ते का यही अर्थ होना चाहिए कि वह बराबरी का दिखे.
वर्तमान घटनाक्रम की बात करे तो कोई विशिष्ट समझ वाला व्यक्ति जान सकता है कि यह केवल और केवल चुनावी लाभ के लिए छोड़ा गया शिगूफा है. आखिर यह कौन भरोसा कर सकता है कि कुछ दिन पहले ही जिस नरेन्द्र मोदी के साथ गलबहियां कर नितीश गौरवान्वित महसूस कर रहे थे आज वह उनके जी का जंजाल बन जाएँ? बात महज़ इतनी है कि यह एक सामान्य समझ विकसित हो गया है कि अगर आपको मुसलमानों का वोट चाहिए तो नरेन्द्र मोदी को गाली देना ही होगा. अगर आप गौर करेंगे तो पता चलेगा कि खुद भाजपा के शाहनवाज़ हुसैन जैसे नेता जो चुकि भागलपुर जैसे मुस्लिम बहुल क्षेत्र से चुनकर आते हैं तो वे भी नरेन्द्र मोदी की आलोचना करने का कोई मौका कही नहीं चूकते. और यही उनके सफलता का भी राज है. लेकिन सवाल तो यह है कि इस तरह कब-तक आप अवाम को बेवकूफ बनाने की कसरत करते रहेंगे? अगर आप एक गुजरात दंगों की बात छोड़ दें तो निश्चय ही नरेन्द्र मोदी का शासन काल एक मॉडल के रूप में विकसित हुआ है. नितिश का भी उनके साथ दिखना दो विकास के लिए समर्पित नेता का साथ आना ही दिखना चाहिए था. निश्चित रूप से ‘गोधरा’ ने मोदी के चेहरे पर कुछ आरोप की कालिख पोती है जिसको साफ़ करना अभी शेष है. लेकिन आप हाल के ही एक रिपोर्ट पर गौर करेंगे तो यह भी तथ्य स्वीकार करना होगा कि देश में सबसे ज्यादा समृद्ध अल्पसंख्यक गुजरात के ही हैं. भाजपा शासन द्वारा शुरू किये गए सभी विकासमूलक योजनाओं का लाभ बिना किसी भेद-भाव के वहाँ के सभी वर्गों को मिला है. जबकि विकास की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले और अल्पसंख्यकों का हितैषी होने का राग अलापने वाले दलों के शासन में अल्पसंख्यकों के हालत का अंदाजा आप केवल सच्चर कमिटी के रिपोर्ट में ही देख सकते हैं. तो सवाल यह है कि केवल उनके हित की बड़ी-बड़ी बात कर, ढेर सारे वादों से उन्हें बहला देना ठीक है या बिना कोई इस तरह की बात किये चुपचाप विकास की धारा में उनको भी शामिल करते जाना सही है? निश्चित ही आपको दूसरा विकल्प ही उचित लगेगा. तो राजनीति तो अपने ही राह चलेगा लेकिन अल्पसंख्यकों को यह समझना होगा कि उन्हें ना बातों से पेट भरना है और ना ही भरकाऊ भाषणों से. दैनिक ज़रूरतों की पूर्ति, बच्चों का भविष्य भी केवल दीनी चीज़ों से भरने वाला नहीं है. ज़मीन पर विशुद्ध भौतिक तरीके से ही उनकी ज़रूरतों को पूरा किया जा सकता है. आप देखेंगे की गोधरा के बाद भलेही नर्मदा में पानी ला कर कच्छ के रणक्षेत्र को भली ही जलाप्लावित कर दिया गया हो लेकिन अपने फायदे के लिए सियाशतदार गोधरा से आगे अध्ने को तैयार ही नहीं है. अगर विपक्षियों के बात को एक बारगी मान भी लिया जाय तो आप किस किस्से अछूत का व्यवहार करेंगे इस कारण. क्या कभी कांग्रेस के किसी नेताओं का आपने इस कारण बहिष्कार किया कि उन तमाम लोगों के हाथ चौरासी के दंगों में सिक्खों के कत्लेआम से जुड़े हुए हैं. क्या राज्य के लिए वैसे प्रधान मंत्री के पास मदद के लिए जाते समय फोटो खिचवाने में भी कभी शर्मिंदगी व्यक्त की है नितीश ने? या अभी-अभी भोपाल के गैस हादसे में कांग्रेस का ही नकाब नोच दिया गया है. अब यह साबित हो गया है कि उस समय पचीस हज़ार लोगों के सामूहिक नरसंहार के आरोपी वारेन ऐन्डरसन को ससम्मान निकल जाने में तात्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गाँधी से लेकर मुख्यमंत्री रहे अर्जुन सिंह तक की मिलीभगत थी. या बिहार में ही भागलपुर दंगे के समय में सत्ताधीश अहे लोगों के प्रति ऐसा हिकारत तो कभी भी नितीश समेत किसी नेता ने व्यक्त नहीं किया है. तो क्या यह नहीं समझा जाना चाहिए कि जान ओझ कर नेताओं का दोहरा मानदंड केवल वोट कबारने का बहाना छोड़ कुछ नहीं है? चुने हुए प्रतिनिधियों की सबसे ज्यादा यह जिम्मेदारी है कि वह भारतीय संविधान और क़ानून व्यवस्था में भरोसा कायम रखने का सन्देश दें. अगर किसी मामले में दोषी मोदी भी हों तो उन्हें भी दंड मिलेगा ही ऐसा भरोसा जताने के बदला किसी व्यक्ति को क़ानून से ऊपर समझ लेना या एक चुने हुए मुख्यमंत्री के साथ अछूत जैसा व्यवहार कर तो आप संविधान के मौलिक अधिकार पर ही प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं. लेकिन नेतागण तो अपने तरीके से ही शह और मात का खेल खेलते रहेंगे. सोचना यह आम मतदाता खासकर अल्पसंख्यकों को है कि वह इनका मोहरा नहीं बनें. साथ ही नितिश को यह भरोसा रखना चाहिए कि उनने जिस तरह से बिहार में विकास कार्यों को अंजाम दिया है वही काफी होगा उनको समर्थन के लिए. इस तरह की भौंडी राजनीति कर वह अपने ही छवि को ही नुकसान पहुचायेंगे. इस तरह के कोंग्रेसी तरीका अपना कर या लालू शैली की राजनीति कर वह भले ही तात्कालिक रूप से लाभ में रहे लेकिन जिस तरह के महानायक बनने की उनकी आकांक्षा है वाहइस तरह से है पूरा की जा सकती है. गठवन्धन ‘धर्म’ का रूप अभी ले सकता है जब उसमें परस्पर सम्मान और विश्वास का भाव हो. लोकसभा चुनाव परिणाम से पहले भी एक बार उन्होंने इस भरोसे को नुक्सान पहुचाने का काम किया था जब कहा था कि वो बिहार को विशेष दर्ज़ा देने वालों को समर्थन देंगे. यानी अगर इनके समर्थन की ज़रूरत कांग्रेस को होती तो शायद ये भी ‘सौदा’करने से बाज़ नहीं आते…बहरहाल.
इसी तरह दूसरा मामला प्रादेशिक स्वाभिमान से जुदा हुआ है. लोग लाख कहें लेकिन बिहार में कभी भी क्षेत्रीयता की भावना नहीं रही. अगर ऐसा होता तो जब जबलपुर से आने वाले जेडीयू के वर्तमान अध्यक्ष शरद यादव जब तब के महारथी लालू के विरुद्ध मधेपुरा से पठकहानी देने में सफल हुए थे तब ना किसी आरती ने और ना ही जनता ने यह सोचा था कि वे किसी कथित माटीपुत्र वाले मुद्दे पर ध्यान दें. तो जब अभी देश के है कोने में क्षेत्रीयता की आग लगा कर रोटी सकने वाले राज ठाकरे जैसे लोग हों तब कम से कम बिहार जहा के लोग पूरे देश में जा कर रोजी-रोटी कमाते हैं वहाँ के अगुआ को ऐसे किसी भरकाने वाले बयान दे कर राष्ट्रवाद की हार को कुंद नहीं करना चाहिए.नरेन्द्र मोदी निश्चित ही कई मामले में अपनी हावी होने वाली आदत के कारण अपनी पार्टीजनों को भी कई बार नाराज़ कर देते हैं. लेकिन हमें यह समझना होगा कि न वह गुजरात के मालिक हैं और ना ही नितीश बिहार के. अपने भाइयों का संकट के समय काम आना हमारी संस्कृति हैं. न ऐसी मदद लेने वाले को हेठी दिखाना चाहिए और ना ही देने वाले को इसका उपकार जताना चाहिए. अगर बात जितना दिख रही है वैसा ही हो, लोगों को बांटने या भरकाने का कोई छुपा अजेंडा इन लोगों का हो तो कहा नहीं जा सकता. लेकिन अगर बात इतनी ही है तो सभी नेताओं को देश या राज्य का हित सर्वोपरि रखना चाहिए ना कि अपना व्यक्तिगत अहंकार. बिहार में फिलहाल राजग गठवन्धन का कायम रहना ना केवल दोनो दलों के लोइए ज़रूरी है अपितु प्रदेश की जनता के लिए भी यह वैसे ही आवश्यक है. क्योंकि यही वह गठवन्धन है जिससे लालू के पन्द्रह साल के कुशासन से बिहारियों को मुक्ति दिलाने में सफलता प्राप्त की थी. और अभी भी वे तत्व सर उठाये खड़े हैं. थोड़ी सी भी चूक बिहार को पुनः जंगलराज की और धकेल सकता है. नितीश के जिस सुशाशन बाबू कि छवि अभी प्राप्त की है उसे कायम रखने के लिए थोड़ा बड़ा दिल भी अपने अंदर ले आये यही उचित होगा. या फिर भाजपा के लिए यही विकल्प कि "जिस रिश्ते को अंजाम तक पहुंचाना न हो मुमकिन, उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा.”
राजनीति का मतलब ही यही होता है कि आप उतने ही सफल होते हैं जितना निशाना एक तीर से साध सकते हों. अभी बिहार में हूँ और तीर निशान वाले जनता दल यू के बीजेपी के साथ किये जा रहे नूरा-कुश्ती को देख रहा हू. यूं तो भाजपा नीत गठबंधन का नेतृत्व करते हुए अटल जी ने गठबंधन को ‘धर्म’ की संज्ञा दी थी. लेकिन देखा जाय तो विभिन्न गठबंधनों के साथ भाजपा को जितने तरह का जिल्लत का सामना करना पड़ा है, जितना अपमान इसको झेलना पड़ा है वह इतिहास ही है.
अगर बिहार की बात की जाय तो पिछले पांच साल के दौरान हर वक्त नितीश ने यही सन्देश देने की कोशिश की कि मजबूरी केवल भाजपा की है. जबकि किसी रिश्ते का यही अर्थ होना चाहिए कि वह बराबरी का दिखे.
वर्तमान घटनाक्रम की बात करे तो कोई विशिष्ट समझ वाला व्यक्ति जान सकता है कि यह केवल और केवल चुनावी लाभ के लिए छोड़ा गया शिगूफा है. आखिर यह कौन भरोसा कर सकता है कि कुछ दिन पहले ही जिस नरेन्द्र मोदी के साथ गलबहियां कर नितीश गौरवान्वित महसूस कर रहे थे आज वह उनके जी का जंजाल बन जाएँ? बात महज़ इतनी है कि यह एक सामान्य समझ विकसित हो गया है कि अगर आपको मुसलमानों का वोट चाहिए तो नरेन्द्र मोदी को गाली देना ही होगा. अगर आप गौर करेंगे तो पता चलेगा कि खुद भाजपा के शाहनवाज़ हुसैन जैसे नेता जो चुकि भागलपुर जैसे मुस्लिम बहुल क्षेत्र से चुनकर आते हैं तो वे भी नरेन्द्र मोदी की आलोचना करने का कोई मौका कही नहीं चूकते. और यही उनके सफलता का भी राज है. लेकिन सवाल तो यह है कि इस तरह कब-तक आप अवाम को बेवकूफ बनाने की कसरत करते रहेंगे? अगर आप एक गुजरात दंगों की बात छोड़ दें तो निश्चय ही नरेन्द्र मोदी का शासन काल एक मॉडल के रूप में विकसित हुआ है. नितिश का भी उनके साथ दिखना दो विकास के लिए समर्पित नेता का साथ आना ही दिखना चाहिए था. निश्चित रूप से ‘गोधरा’ ने मोदी के चेहरे पर कुछ आरोप की कालिख पोती है जिसको साफ़ करना अभी शेष है. लेकिन आप हाल के ही एक रिपोर्ट पर गौर करेंगे तो यह भी तथ्य स्वीकार करना होगा कि देश में सबसे ज्यादा समृद्ध अल्पसंख्यक गुजरात के ही हैं. भाजपा शासन द्वारा शुरू किये गए सभी विकासमूलक योजनाओं का लाभ बिना किसी भेद-भाव के वहाँ के सभी वर्गों को मिला है. जबकि विकास की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले और अल्पसंख्यकों का हितैषी होने का राग अलापने वाले दलों के शासन में अल्पसंख्यकों के हालत का अंदाजा आप केवल सच्चर कमिटी के रिपोर्ट में ही देख सकते हैं. तो सवाल यह है कि केवल उनके हित की बड़ी-बड़ी बात कर, ढेर सारे वादों से उन्हें बहला देना ठीक है या बिना कोई इस तरह की बात किये चुपचाप विकास की धारा में उनको भी शामिल करते जाना सही है? निश्चित ही आपको दूसरा विकल्प ही उचित लगेगा. तो राजनीति तो अपने ही राह चलेगा लेकिन अल्पसंख्यकों को यह समझना होगा कि उन्हें ना बातों से पेट भरना है और ना ही भरकाऊ भाषणों से. दैनिक ज़रूरतों की पूर्ति, बच्चों का भविष्य भी केवल दीनी चीज़ों से भरने वाला नहीं है. ज़मीन पर विशुद्ध भौतिक तरीके से ही उनकी ज़रूरतों को पूरा किया जा सकता है. आप देखेंगे की गोधरा के बाद भलेही नर्मदा में पानी ला कर कच्छ के रणक्षेत्र को भली ही जलाप्लावित कर दिया गया हो लेकिन अपने फायदे के लिए सियाशतदार गोधरा से आगे अध्ने को तैयार ही नहीं है. अगर विपक्षियों के बात को एक बारगी मान भी लिया जाय तो आप किस किस्से अछूत का व्यवहार करेंगे इस कारण. क्या कभी कांग्रेस के किसी नेताओं का आपने इस कारण बहिष्कार किया कि उन तमाम लोगों के हाथ चौरासी के दंगों में सिक्खों के कत्लेआम से जुड़े हुए हैं. क्या राज्य के लिए वैसे प्रधान मंत्री के पास मदद के लिए जाते समय फोटो खिचवाने में भी कभी शर्मिंदगी व्यक्त की है नितीश ने? या अभी-अभी भोपाल के गैस हादसे में कांग्रेस का ही नकाब नोच दिया गया है. अब यह साबित हो गया है कि उस समय पचीस हज़ार लोगों के सामूहिक नरसंहार के आरोपी वारेन ऐन्डरसन को ससम्मान निकल जाने में तात्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गाँधी से लेकर मुख्यमंत्री रहे अर्जुन सिंह तक की मिलीभगत थी. या बिहार में ही भागलपुर दंगे के समय में सत्ताधीश अहे लोगों के प्रति ऐसा हिकारत तो कभी भी नितीश समेत किसी नेता ने व्यक्त नहीं किया है. तो क्या यह नहीं समझा जाना चाहिए कि जान ओझ कर नेताओं का दोहरा मानदंड केवल वोट कबारने का बहाना छोड़ कुछ नहीं है? चुने हुए प्रतिनिधियों की सबसे ज्यादा यह जिम्मेदारी है कि वह भारतीय संविधान और क़ानून व्यवस्था में भरोसा कायम रखने का सन्देश दें. अगर किसी मामले में दोषी मोदी भी हों तो उन्हें भी दंड मिलेगा ही ऐसा भरोसा जताने के बदला किसी व्यक्ति को क़ानून से ऊपर समझ लेना या एक चुने हुए मुख्यमंत्री के साथ अछूत जैसा व्यवहार कर तो आप संविधान के मौलिक अधिकार पर ही प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं. लेकिन नेतागण तो अपने तरीके से ही शह और मात का खेल खेलते रहेंगे. सोचना यह आम मतदाता खासकर अल्पसंख्यकों को है कि वह इनका मोहरा नहीं बनें. साथ ही नितिश को यह भरोसा रखना चाहिए कि उनने जिस तरह से बिहार में विकास कार्यों को अंजाम दिया है वही काफी होगा उनको समर्थन के लिए. इस तरह की भौंडी राजनीति कर वह अपने ही छवि को ही नुकसान पहुचायेंगे. इस तरह के कोंग्रेसी तरीका अपना कर या लालू शैली की राजनीति कर वह भले ही तात्कालिक रूप से लाभ में रहे लेकिन जिस तरह के महानायक बनने की उनकी आकांक्षा है वाहइस तरह से है पूरा की जा सकती है. गठवन्धन ‘धर्म’ का रूप अभी ले सकता है जब उसमें परस्पर सम्मान और विश्वास का भाव हो. लोकसभा चुनाव परिणाम से पहले भी एक बार उन्होंने इस भरोसे को नुक्सान पहुचाने का काम किया था जब कहा था कि वो बिहार को विशेष दर्ज़ा देने वालों को समर्थन देंगे. यानी अगर इनके समर्थन की ज़रूरत कांग्रेस को होती तो शायद ये भी ‘सौदा’करने से बाज़ नहीं आते…बहरहाल.
इसी तरह दूसरा मामला प्रादेशिक स्वाभिमान से जुदा हुआ है. लोग लाख कहें लेकिन बिहार में कभी भी क्षेत्रीयता की भावना नहीं रही. अगर ऐसा होता तो जब जबलपुर से आने वाले जेडीयू के वर्तमान अध्यक्ष शरद यादव जब तब के महारथी लालू के विरुद्ध मधेपुरा से पठकहानी देने में सफल हुए थे तब ना किसी आरती ने और ना ही जनता ने यह सोचा था कि वे किसी कथित माटीपुत्र वाले मुद्दे पर ध्यान दें. तो जब अभी देश के है कोने में क्षेत्रीयता की आग लगा कर रोटी सकने वाले राज ठाकरे जैसे लोग हों तब कम से कम बिहार जहा के लोग पूरे देश में जा कर रोजी-रोटी कमाते हैं वहाँ के अगुआ को ऐसे किसी भरकाने वाले बयान दे कर राष्ट्रवाद की हार को कुंद नहीं करना चाहिए.नरेन्द्र मोदी निश्चित ही कई मामले में अपनी हावी होने वाली आदत के कारण अपनी पार्टीजनों को भी कई बार नाराज़ कर देते हैं. लेकिन हमें यह समझना होगा कि न वह गुजरात के मालिक हैं और ना ही नितीश बिहार के. अपने भाइयों का संकट के समय काम आना हमारी संस्कृति हैं. न ऐसी मदद लेने वाले को हेठी दिखाना चाहिए और ना ही देने वाले को इसका उपकार जताना चाहिए. अगर बात जितना दिख रही है वैसा ही हो, लोगों को बांटने या भरकाने का कोई छुपा अजेंडा इन लोगों का हो तो कहा नहीं जा सकता. लेकिन अगर बात इतनी ही है तो सभी नेताओं को देश या राज्य का हित सर्वोपरि रखना चाहिए ना कि अपना व्यक्तिगत अहंकार. बिहार में फिलहाल राजग गठवन्धन का कायम रहना ना केवल दोनो दलों के लोइए ज़रूरी है अपितु प्रदेश की जनता के लिए भी यह वैसे ही आवश्यक है. क्योंकि यही वह गठवन्धन है जिससे लालू के पन्द्रह साल के कुशासन से बिहारियों को मुक्ति दिलाने में सफलता प्राप्त की थी. और अभी भी वे तत्व सर उठाये खड़े हैं. थोड़ी सी भी चूक बिहार को पुनः जंगलराज की और धकेल सकता है. नितीश के जिस सुशाशन बाबू कि छवि अभी प्राप्त की है उसे कायम रखने के लिए थोड़ा बड़ा दिल भी अपने अंदर ले आये यही उचित होगा. या फिर भाजपा के लिए यही विकल्प कि "जिस रिश्ते को अंजाम तक पहुंचाना न हो मुमकिन, उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा.”
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