मुसलमानों के लिए अछूत मानी जाने वाली भारतीय जनता पार्टी राष्ट्रवाद के नाम पर मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगाने की कवायद में जुटी है। अपने मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तर्ज़ पर भाजपा भी यही राग अलापती है कि हिन्दुत्व का मतलब हिन्दू धर्म से न होकर इस धरती से और इसकी प्राचीन संस्कृति से है। भारत में रहने वाला हर व्यक्ति हिन्दू है, भले ही उसकी पूजा पध्दति कोई भी हो। भाजपा राष्ट्रवाद के बूते देश के सभी संप्रदायों को साथ लेकर चलने की बात करती है, जबकि अन्य दल तुष्टिकरण को महत्व देते हैं। तुष्टिकरण को देश के लिए घातक मानने वाली भाजपा को क्या मुसलमान स्वीकार कर पाएंगे? यह सवाल हमेशा बना रहता है, क्योंकि अधिकांश मुसलमान शरीयत के नाम पर ख़ुद को अलग-थलग रखना पसंद करते हैं। ऐसी अनेक मिसालें मिल जाएंगी जब मुसलमानों ने इस देश के संविधान तक को मानने से साफ़ इंकार कर दिया और 'मुस्लिम वोट बैंक' के कारण सरकार व सियासी दलों ने भी मुस्लिम नेताओं के सामने घुटने टेके।
शाहबानो प्रकरण तुष्टिकरण की सबसे बड़ी मिसाल है कि किस तरह एक विशेष संप्रदाय को ख़ुश करने के लिए तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश तक को पलट दिया था। वर्ष 1978 में 62 वर्षीय शाहबानो को उसके पति ने तलाक़ दे दिया था। पांच बच्चों की मां शाहबानो ने इंसाफ़ के लिए अदालत का दरवाज़ा खटखटाया। सात साल की लंबी क़ानूनी लड़ाई के बाद वह सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गई। कोर्ट ने अपराध दंड संहिता की धारा-125 के तहत फ़ैसला सुनाया कि शाहबानो को गुज़ारा भत्ता दिया जाए। यह धारा देश के सभी नागरिकों पर लागू होती है, भले ही वे किसी भी धर्म के क्यों न हों। कोर्ट के इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ मुस्लिम नेता लामबंद हो गए और उन्होंने इस फ़ैसले को शरीयत में हस्तक्षेप क़रार दे दिया। सैयद शाहबुद्दीन व अन्य मुस्लिम नेताओं ने 'ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड' बनाकर आंदोलन की धमकी दी। इस पर केंद्र की तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने उनकी तमाम मांगें मान लीं। इसके बाद 1986 में कांग्रेस (आई) ने शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को पलटने के लिए मुस्लिम महिला (तलाक़ अधिकार संरक्षण)-1986 क़ानून पास किया। इस क़ानून के तहत जब एक तलाक़शुदा महिला इद्दत के बाद अपना गुज़ारा नहीं कर सकती तो अदालत उन रिश्तेदारों को उसे गुज़ारा भत्ता देने का आदेश दे सकती है, जो उसकी जायदाद के उत्तराधिकारी हैं। अगर ऐसे रिश्तेदार नहीं हैं या वे गुज़ारा भत्ता देने की हालत में नहीं हैं तो अदालत उस प्रदेश के वक्फ़ बोर्ड को गुज़ारा भत्ता देने का आदेश देगी, जिस राज्य में महिला रहती है। इस क़ानून से जहां मुस्लिम पुरुषों को फ़ायदा हुआ, वहीं महिलाओं की हालत और भी बदतर हो गई, क्योंकि शरीयत के मुताबिक़ पुरुष चार-चार विवाह करने और अपनी पत्नियों को कभी भी तलाक़ देने के लिए स्वतंत्र हैं। इतना ही नहीं, उन पर अपनी तलाक़शुदा पत्नियों के प्रति कोई ज़िम्मेदारी भी नहीं है।
अगर देश में 'समान नागरिक संहिता' लागू होती तो शाहबानो के साथ इतनी बड़ी नाइंसाफ़ी नहीं होती। भाजपा देश में समान नागरिक संहिता लागू करने के पक्ष में है, जबकि अन्य सियासी दल यह नहीं चाहते, क्योंकि उन्हें आशंका है कि ऐसा करने से उनके मुस्लिम मतदाता खिसक जाएंगे। जब 23 जुलाई 2004 को सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति वीएन खरे, न्यायमूर्ति बीएस सिन्हा और न्यायमूर्ति एआर लक्ष्मण की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने एक पादरी की याचिका पर टिप्पणी की कि आज़ादी के 50 वर्षों बाद भी भारतीय संविधान का अनुच्छेद-44 लागू नहीं हो पाया है तो उस वक्त देश की सियासत में बवाच मच गया था। मौक़े की नज़ाकत को समझते हुए कांग्रेस ने इस पर टिप्पणी करने की असर्मथता जताते हुए अदालत से कुछ मोहलत मांग ली थी। मगर मुस्लिम संगठनों के नेताओं ने अदालत की टिप्पणी के ख़िलाफ़ बयानबाज़ी शुरू कर दी। उनका यहां तक कहना था कि 'समान नागरिक संहिता' लागू कराना भाजपा का एजेंडा रहा है। यह बात अलग है कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के दबाव के चलते भाजपा को इसे ठंडे बस्ते में डालना पड़ा।
दरअसल, समान नागरिक संहिता किसी सियासी दल या संगठन की परिकल्पना नहीं है, बल्कि यह स्वयं भारतीय संविधान का अपना लक्ष्य है, जो अनुच्छेद-44 के रूप में संविधान में मौजूद है। नीति निर्देशक सिध्दांतों के पहले हिस्से में 'सरकारी नीति के लिए प्रेरक सिध्दांत' शीर्षक के तहत अनुच्छेद-44 है, जिसमें साफ़ लिखा है-''सरकार नागरिकों के लिए एक ऐसी 'समान नागरिक संहिता' बनाएगी, जो भारत की समूची धरती पर लागू होगी। मगर जब-जब अनुच्छेद-44 के इस्तेमाल की बात आई तो देशभर में विरोधी स्वर मुखर होने लगे, जिससे साबित होता है कि इस देश का एक बड़ा तबक़ा भारतीय संविधान में यक़ीन नहीं करता।
समान नागरिक संहिता के पक्ष में कहा जाता है कि भारत एक धर्म निरपेक्ष देश है, इसलिए संविधान का कोई भी हिस्सा किसी भी धर्म पर आधारित नहीं होना चाहिए। इस लिहाज़ से समान नागरिक संहिता बेहद ज़रूरी है। देश में विभिन्न धर्मों के लोग रहते हैं। इसलिए राष्ट्रीय एकता के लिए यह ज़रूरी है कि जनता सभी पारिवारिक मामलों में एक संघीय संविधान का पालन करे। अलग-अलग धर्मों के क़ानून आपसी विवाद को बढ़ावा देते हैं और इससे देश की एकता और अखंडता पर बुरा असर पड़ता है। सबसे अहम बात यह भी है कि धार्मिक क़ानून रूढ़िवादी और पुराने हैं, जो मौजूदा सामाजिक ज़रूरत को पूरा करने नहीं करते। इसलिए भी समान नागरिकता संहिता की ज़रूरत महसूस की जा रही है। समान नागरिक संहित लागू होने से मुस्लिम महिलाओं की हालत में सुधार होगा और उन्हें कई वो अधिकार मिल जाएंगे जिससे वे अभी तक वंचित हैं।
वहीं, इसके विरोध में कहा जाता है कि मुसलमान शरीयत को अपने मज़हब का ज़रूरी हिस्सा मानते हैं। हक़ीक़त यह है कि शरीया क़ानून मुस्लिम पुरुषों की सुविधा के लिए है और इनसे उन्हें अनेक फ़ायदे हैं, भले ही इसके चलते मुस्लिम महिलाओं को इंसाफ़ न मिलता हो। मसलन, शरीया बहुविवाह की छूट देता है, जबकि हिन्दू, सिक्ख, इसाई और पारसी आदि धर्मों के लोग केवल एक ही विवाह कर सकते हैं। शरीया के तहत मुसलमान व्यक्ति कभी भी बिना वजह अपनी पत्नी को तलाक़ देकर घर से निकाल सकता है, जबकि अन्य धर्मों के पुरुष ऐसा नहीं कर सकते। उन्हें तलाक़ के लिए ठोस वजह देनी होगी और अपनी पत्नी को गुज़ारा भत्ता भी देना होगा जब तक वह जीवित है या दूसरा विवाह नहीं कर लेती। हिन्दू महिला अपने पति के देहांत के बाद अपने बच्चों की संरक्षक है, लेकिन मुस्लिम महिला को संरक्षक बनने के लिए जनपद न्यायाधीश को अर्ज़ी देनी होगी और उसके आदेश के बाद ही वह संरक्षक बन सकती है। हिन्दू महिला अपने ससुर के जीवनकाल में अपने पति के निधन के बाद उसकी जायदाद की हक़दार है, लेकिन मुस्लिम महिला अपने पति के जीते जी अपने पति की मौत के बाद उसके परिवार की सदस्य नहीं मानी जाती। इसलिए अपने पति की संपत्ति पर उसका कोई हक़ नहीं होगा।
हैरत की बात तो यह भी है कि शरीया के नाम पर दीवानी मामलों (विवाह, ज़मीन-जायदाद और विरासत आदि) में 'विशेष' सुविधाएं भोगने वाले मुसलमान फ़ौजदारी मामलों (चोरी, लूट, डकैती, हत्या और बलात्कार आदि) में धर्म निरपेक्ष हो जाते हैं और भारतीय संविधान में उनकी आस्था जाग उठती है। इन मामलों में उन्हें शरीया क़ानून याद नहीं आता, क्योंकि ऐसा करने पर उन्हें सख्त सज़ा भुगतनी पड़ेगी। मुसलमानों के इस दोहरे मानदंड ने भी अनेक समस्याएं पैदा की हैं।
इसी तरह भाजपा एक देश में दो विधान को भी स्वीकार नहीं करती। भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी जम्मू-कश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाना चाहते थे। उस वक्त ज़म्मू-कश्मीर का अलग ध्वज और अलग संविधान था। इतना ही नहीं वहां का मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री कहलाता था। उन्होंने इसका कड़ा विरोध करते हुए नारा दिया-'एक देश में दो निशान, एक देश में दो प्रधान, एक देश में दो विधान नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगे।' उन्होंने अगस्त 1952 में जम्मू में रैली कर धारा-370 का विरोध किया और 1953 में बिना परमिट के जम्मू-कश्मीर की यात्रा पर निकल गए। जम्मू-कश्मीर में उन्हें गिरफ्तार कर नज़रबंद कर लिया गया। बाद में 23 जून 1953 को रहस्यमयी हालत में उनकी मौत हो गई।
भाजपा धारा-370 को जम्मू-कश्मीर और भारतीय संघ के बीच एक संवैधानिक अवरोध मानती है। पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव अरूण जेटली का कहना है कि धारा-370 जम्मू-कश्मीर को एक विशेष दर्जे के बजाय अलगाव की तरफ़ लेकर जा रही है। धारा-370 ने उद्यमियों को निवेश से रोककर राज्य के आर्थिक विकास को बाधित किया है। वर्ष 1947-48 में पाकिस्तान ने हमला कर जम्मू-कश्मीर के एक तिहाई हिस्से पर क़ब्ज़ा कर लिया था। तब से दो बार 1965 और 1971 में भारत और पाकिस्तान के बीच युध्द हो चुका है। इस कोशिश में पाकिस्तान भारत पर तो क़ब्ज़ा नहीं कर पाया, बल्कि अपने ही देश के एक हिस्से से भी हाथ धो बैठा। इसलिए उसने जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद को बढ़ावा देकर भारत के लिए मुश्किलें पैदा कर दीं। भाजपा मानती है कि भेदभाव जम्मू-कश्मीर व अन्य राज्यों के बीच ही नहीं, जम्मू-कश्मीर के विभिन्न इलाक़ों के बीच भी है। जम्मू-कश्मीर में जम्मू, कश्मीर और लद्दाख़ प्रमुख इलाक़े हैं। आज़ादी के बाद से सरकार में जम्मू और लद्दाख़ इलाक़ों की भागीदारी सीमित रही है। कश्मीर घाटी के मुक़ाबले जम्मू की आबादी ज्यादा होने के बावजूद प्रदेश में तैनात 4.5 लाख सरकारी कर्मचारियों में से 3.3 लाख कश्मीर घाटी के हैं। विधानसभा में कश्मीर से 46 और जम्मू से 37 सदस्य चुने जाते हैैं लद्दाख़ से महज़ चार ही सदस्य चुने जाते हैं। जहां तक विकास की बात है, इस मामले में भी जम्मू और लद्दाख़ से भेदभाव किया जाता है।
ग़ौरतलब है कि धारा-370 जम्मू-कश्मीर को 'विशेष राज्य' का दर्जा प्रदान करती है। 1947 में देश के बंटवारे के वक्त ज़म्मू-कश्मीर के राजा हरि सिंह पहले आज़ादी चाहते थे, मगर बाद में उन्होंने अपने राज्य को भारत में शामिल होने की मंज़ूरी दे दी। जम्मू-कश्मीर में अंतरिम सरकार बनाने वाले नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता शेख़ अब्दुल्ला ने राज्य को भारतीय संविधान से बाहर रखने का प्रस्ताव रखा। इसके चलते भारतीय संविधान में धारा-370 का प्रावधान किया गया। इसके बाद 1951 में संविधान सभा अलग से बुलाने को मंज़ूरी दी गई और नवंबर 1956 में इसका काम पूरा हुआ। आख़िरकार 26 जनवरी 1957 को जम्मू-कश्मीर को 'विशेष राज्य' का दर्जा हासिल हो गया। इस धारा के तहत संसद जम्मू-कश्मीर के लिए रक्षा, विदेश और संचार संबंधी क़ानून तो बना सकती है, लेकिन इससे अलग कोई और क़ानून बनाने के लिए उसे प्रदेश की अनुमति लेनी होगी। जम्मू-कश्मीर पर भारतीय संविधान की धारा-356 लागू नहीं होती, जिसके कारण राष्ट्रपति के पास प्रदेश के संविधान को बर्ख़ास्त करने का अधिकार नहीं है। साथ ही 1956 का शहरी भूमि क़ानून भी यहां लागू नहीं होता। इसके भारतीय नागरिकों को विशेषाधिकार प्राप्त प्रदेशों के अलावा देश में कहीं भी ज़मीन ख़रीदने का अधिकार है। इसी तरह भारतीय संविधान की धारा 360 भी यहां लागू नहीं होती, जिसमें देश में वित्तीय आपातकाल लगाने का प्रावधान है।
भाजपा मज़हब के आधार पर मुसलमानों को आरक्षण देने का भी पुरज़ोर विरोध कर रही है। हालांकि केंद्र सरकार की अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमानों को आरक्षण देने की कवायद जारी है। ग़ौरतलब है कि रंगनाथ मिश्र आयोग ने पिछले साल दिसंबर में संसद में रिपोर्ट पेश कर मुसलमानों को सरकारी नौकरियों में 10 फ़ीसदी और अन्य अल्पसंख्यकों को पांच फ़ीसदी आरक्षण देने की सिफ़ारिश की थी। आयोग ने यह भी सलाह दी थी कि अगर इस 15 फ़ीसदी आरक्षण को अलग से लागू करने में दिक्क़त आती है तो इसके लिए वैकल्पिक रास्ता अपनाया जा सकता है। रिपोर्ट में कहा गया था कि संपूर्ण अन्य पिछड़ा वर्ग जनसंख्या का 8.4 फ़ीसदी अल्पसंख्यकों का है। इसके आधार पर कुल पिछड़ा वर्ग आरक्षण के 27 फ़ीसदी में से 8.4 फ़ीसदी सभी अल्पसंख्यकों के लिए और उसमें से 6 फ़ीसदी मुसलमानों के लिए रखा जाना चाहिए। इसलिए इसे 15 फ़ीसदी के हिसाब से दिया जा सकता है या फिर 27 फ़ीसदी के हिसाब से। क़ाबिले-ग़ौर है कि तमिलनाडु में पिछड़ा वर्ग के 27 फ़ीसदी आरक्षण में से 3.5 फ़ीसदी आरक्षण मुसलमानों को दिया गया है, जबकि आंध्र प्रदेश में यह दर 4 फ़ीसदी है। पश्चिम बंगाल सरकार ने भी आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े मुसलमानों को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल कर उन्हें दस फ़ीसदी आरक्षण देने का फ़ैसला किया था, जिसका भाजपा ने भारी विरोध किया। भाजपा नेताओं का मानना है कि इससे विधानसभाओं, संसद व अन्य निर्वाचित संस्थाओं में मुसलमानों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व अपने आप बढ़ जाएगा। इससे देश के समक्ष एक और विभाजन का ख़तरा पैदा हो सकता है। कहा जाता है कि जब मुसलमान अल्पसंख्यक होते हैं तो वे बराबरी का दर्जा चाहते हैं और जब बहुसंख्यक होते हैं तो अलगाव को बढ़ावा देते हैं। जम्मू-कश्मीर का उदाहरण सबके सामने है।
वंदे मातरम् बंकिम चंद्र चटर्जी द्वारा रचित गीत वंदे मातरम को लेकर भी भाजपा और मुस्लिम संगठनों में भारी मतभेद हैं। जहां भाजपा वंदे मातरम् को देशप्रेम का गीत मानती है, वहीं मुस्लिम संगठन इसे 'हराम' (वर्जित) क़रार देते हुए गाने से इंकार करते हैं। उनका मानना है कि ऐसा कोई भी गीत उनके लिए हराम है, जिसमें ईश्वर के अलावा किसी और की स्तुति की गई हो। वर्ष 2006 में तत्कालीन केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह ने वंदे मातरम् शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में 7 सितंबर को सभी स्कूलों में वंदे मातरम् गाने के आदेश दिए थे। मुस्लिम नेताओं और सांसदों ने इसका कड़ा विरोध किया। देवबंद ने तो फ़तवा तक जारी कर मुसलमानों से वंदे मातरम् न गाने की अपील कर डाली। विरोध के चलते अर्जुन सिंह ने अपने आदेश में बदलाव करते हुए कहा कि वंदे मातरम् गाना अनिवार्य नहीं है। हैरत की बात यह भी रही कि वंदे मातरम् गाने का आदेश जम्मू-कश्मीर को नहीं भेजा गया, जिसके चलते प्रदेश में राष्ट्रगीत गाने या इसकी जन्मशताब्दी मनाने की सरकार ने कोई व्यवस्था नहीं की। इस पर भाजपा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद, शिवसेना और पैंथर्स पार्टी आदि दलों व अन्य संगठनों ने इसे तुष्टिकरण का नाम देकर सरकार पर निशाना साधा।
गौरतलब है कि सबसे पहले 1896 में रवीन्द्र नाथ टैगोर ने कलकत्ता के कांग्रेस अधिवेशन में इस गीत को गाया था। इसके बाद दिसंबर 1905 में कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में इसे राष्ट्रगीत का दर्जा दिया गया। बाद में बंग-भंग आंदोलन में 'वंदे मातरम्' राष्ट्रीय नारा बना। कुछ अरसे बाद 1923 में कांग्रेस अधिवेशन में वंदे मातरम् का विरोध शुरू हो गया। देश की आज़ादी के वक्त 14 अगस्त 1947 की रात को संविधान सभा की पहली बैठक की शुरुआत वंदे मातरम् से हुई और समापन 'जन गण मन' के साथ हुआ। आज़ादी के बाद मुसलमानों के विरोध के मद्देनज़र 1950 में वंदे मातरम् को राष्ट्रीय गीत और 'जन गण मन' को राष्ट्रीय गान का दर्जा दिया गया।
धर्मांतरण के मुद्दे पर भाजपा चिंता ज़ाहिर करते हुए इस पर रोक लगाने की मांग करती रही है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और इससे जुड़े संगठन भी धर्मांतरण का विरोध करते रहे हैं। आंकड़ों के मुताबिक़ 1991 से पहले ईसाइयों की वृध्दि दर 17 से 18 फ़ीसदी के बीच थी, जबकि 1991-2001 के दरम्यान यह बढ़कर 23 फ़ीसदी तक पहुंच गई। हिमाचल प्रदेश और हरियाणा में ईसाइयों की वृध्दि दर 75 फ़ीसदी, बिहार और पश्चिम बंगाल में 72 फ़ीसदी, गुजरात और राजस्थान में 50 फ़ीसदी, झारखंड, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा में 30 फ़ीसदी रही। पिछली एक सदी में पूर्वोत्तर भारत में ईसाइयों का अनुपात दो फ़ीसदी से बढ़कर 80 फ़ीसद तक पहुंच गया। भाजपा का कहना है कि ईसाई मिशनरियां लालच व छल-कपट का सहारा लेकर हिन्दुओं को ईसाई बना रही हैं।
अल्पसंख्यक समुदाय के नेता धर्मांतरण को जायज़ ठहराते हुए कहते हैं कि धर्मांतरण नागरिकों का मौलिक अधिकार है। वह अपनी मर्ज़ी से कोई भी धर्म स्वीकार कर सकते हैं। जस्टिस पार्टी के प्रमुख उदित राज का भी मानना है कि दलितों को तभी सम्मान मिलेगा, जब वे मौजूदा सामाजिक वर्ण व्यवस्था से बाहर निकलेंगे।
भाजपा अवैध घुसपैठ को देश के लिए ख़तरनाक मानती है, क्योंकि इससे स्वदेशी नागरिकों के संसाधनों का बंटवारा हो जाता है। पूर्वोत्तर में बांग्लादेशियों की अवैध घुसपैठ बदस्तूर जारी है। गृह मंत्रालय में राज्यमंत्री मुल्लापल्ली रामचंद्रन ने लोकसभा व राज्यसभा में स्वीकार किया है कि सीमापार से घुसपैठ जारी है और आतंकवादी गतिविधियों के कारण आम जनजीवन प्रभावित है। उधर, बांग्लादेश के विधि एवं न्याय राज्यमंत्री कमरूल इस्लाम का कहना है कि भारत में बांग्लादेशी नागरिकों की घुसपैठ की बात ही बेमानी है, क्योंकि सीमापर से बांग्लादेशी नागरिकों की अवैध आवाजाही को लेकर भारत ने अभी तक पुख्ता सबूत नहीं दिए हैं।
क़ाबिले-ग़ौर है कि ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन और अखिल असम गण संग्राम परिषद् ने प्रदेश में भारी तादाद में बांग्लादेशियों के आगमन के विरोध में 1976 से 1985 तक आंदोलन चलाया था।
इसके बाद राजीव गांधी की पहल पर 15 अगस्त 1985 को असम सहमति-पत्र पर दस्तख़त किए थे। इसके तहत यह फ़ैसला लिया गया था कि एक जनवरी 1966 आधार दिवस व आधार साल होगा। जो लोग इस दिन या इस तारीख़ के बाद 24 मार्च 1971 तक भारत आए हैं, उनको खोजकर उनके नाम मतदाता सूचियों से काट दिए जाएंगे। जो लोग 25 मार्च 1971 के बाद भारत आए हैं, उन्हें खोजकर भारत से निष्कासित कर दिया जाएगा।
हालांकि घुसपैठ रोकने के लिए सरकार ने अवैध प्रवासी (अधिकरणों द्वारा अवधारणा) अधिनियम बनाया। मगर इस प्रक्रिया में कई झोल होने की वजह से बुध्दिज़ीवियों ने इसे 'काला क़ानून' क़रार दिया। उनका कहना था कि यह असम के साथ भेदभाव है, क्योंकि अन्य राज्यों में विदेशियों से संबंधित अधिनियम 1946 लागू था। अवैध प्रवासी (अधिकरणों द्वारा अवधारणा) अधिनियम के तहत नागरिकता साबित करने की ज़िम्मेदारी शिकायतकर्ता पर होती है, जबकि विदेशी विषयक अधिनियम के तहत यह भार ख़ुद उस व्यक्ति पर होता है, जिस पर संदेह है। इसलिए इसे ख़त्म करने के लिए असम सरकार ने अदालत की शरण ली। 20 सितंबर 1999 को सुप्रीम कोर्ट ने विभिन्न पूर्वोत्तर राज्यों में बांग्लादेशियों के बेरोक प्रवास पर चिंता ज़ाहिर करते हुए केंद्र सरकार से कहा था कि वह इस जनप्रवाह को रोकने के लिए ईमानदार और गंभीर प्रयास करे। ग़ौरतलब है कि सीमा प्रबंधन पर गठित कार्यबल ने वर्ष 2000 में पाया कि हर साल क़रीब तीन लाख बांग्लादेशी नागरिक अवैध रूप से भारत में दाख़िल हो रहे हैं और देश में क़रीब डेढ़ करोड़ बांग्लादेशी निवास कर रहे हैं।
इसके अलावा अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण, गुजरात दंगे, संसद हमले के आरोपी अफ़ज़ल को फांसी देना और आतंकवाद आदि ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर भाजपा और मुस्लिम संगठन हमेशा आमने-सामने रहते हैं। सबसे अहम बात यह भी है कि भाजपा के पास नजमा हेपतुल्ला, मुख्तार अब्बास नक़वी और शाहनवाज़ हुसैन जैसे मुस्लिम मुखौटों के सिवा कोई दमदार मुस्लिम नेता नहीं है। नजमा हेपतुल्ला ने कभी कोई चुनाव नहीं लड़ा। मुख्तार अब्बास नक़वी अपने इलाक़े से लोकसभा चुनाव हार गए और शाहनवाज़ हुसैन को अपनी किशनगंज सीट छोड़कर भागलपुर से चुनाव लड़ना पड़ा। पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान मुसलमानों के बारे में दिए गए वरुण गांधी के आपत्तिजनक बयान पर इन तीनों नेताओं में से कोई भी अपनी बात मुसलमानों के सामने नहीं रख पाया, जिससे मुसलमानों में भाजपा की छवि धूमिल हुई। जनाधारहीन ये नेता केवल मुख्यालय की राजनीति करने तक ही सीमित हैं।
बहरहाल, भाजपा को इस वक्त एक ऐसे मुस्लिम चेहरे की ज़रूरत है, जो भाजपा की राष्ट्रवाद से सराबोर नीतियों को दमदार तरीक़े से मुसलमानों के समक्ष रख सके और पार्टी व मुस्लिम समुदाय के बीच सेतु की भूमिका निभाने में भी सक्षम हो।
बहुत विस्तृत आलेख, कुछ छोटा होता तो तसल्ली से पढा जाता। मेरा यह मानना है कि इस देश में यदि राजनैतिक या सामाजिक क्रान्ति का कभी सूत्रपात होगा तो वह मुस्लिम महिलाओं से होगा। अब देखना यह है कि वह कब होगा?