रत्नेश त्रिपाठी

वर्तमान में विज्ञान शब्द सुनते ही सबकी गर्दन पश्चिम की ओर मुड़ जाती है। ऐसा लगता है कि विज्ञान का आधार ही पश्चिम कीदेन हो तथा भविष्य भी उनके वैज्ञानिकों के ऊपर टिका हो! परन्तु क्या हमने यह जानने का प्रयास किया है कि ऐसा क्यों है? याहमारी मनोदशा ऐसी क्यों है कि जब भी विज्ञान या अन्वेषण की बात आयी है तो हम बरबस ही पश्चिम का नाम ले लेते हैं।इसका सबसे बड़ा कारण जो हमें नजर आता है वह यह है कि, 'अपने देश व संस्कृति के प्रति हमारी अज्ञानता व उदासीनता काभाव। या यूं कहें कि सैकड़ो वर्षों की पराधीनता नें हमारे शरीर के साथ-साथ हमारे मन को भी प्रभावित किया जिसका परिणामयह हुआ कि हम शारीरिक रुप से तो स्वतंत्र हैं किन्तु अज्ञानतावश मानसिक रुप से आज भी परतंत्र हैं। थोड़ा विचार करने परयह पता चलता है कि हीनता की यह भावना यूँ ही नही उत्पन्न हुई ! बल्कि इसके पीछे एक समुचित प्रयास दृष्टिगत होता है, जोहमारे वर्तमान पाठयक्रम के रुप में उपस्थित है। प्राइमरी शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक सभी पाठयक्रमों में वर्णित विषय पूरीतरह से पश्चिम की देन लगते हैं, जो हमारी मानसिकता को बदलने का पूरा कार्य करते हैं। आजादी के बाद से आज तक इसीपाठ्क्रम को पढ़ते-पढ़ते इतनी पीढ़ीयाँ बीत चुकीं हैं कि अगर सामान्य तौर पर देश के वैभव की बात किसी भारतीय से की जायतो वह कहेगा कि कैसा वैभव? किसका वैभव? हम तो पश्चिम को आधार मानकर अपना विकास कर रहे हैं। हमारे पास क्या है? ऐसी बात नही कि यह मनोदशा केवल सामान्य भारतीय की हो बल्कि देश  का तथाकथित विद्वान व बुध्दिजीवी वर्ग भी यहीसोचता है। इसका मूल कारण है कि आजादी के बाद भी अंग्रजों के द्वारा तैयार पाठ्क्रम का अनवरत् जारी रहना, अपने देश  केगौरवमयी इतिहास को तिरस्कृत का पश्चिमी सोच को विकसित करना। और उससे भी बड़ा कारण रहा हमारी अपनी संस्कृति, वैभव, विज्ञान, अन्वेषण, व्यापार आदि के प्रति अज्ञानता।

इस मानसिकता के संदर्भ में दो बड़े रोचक उदाहरणों को प्रस्तुत किया जा सकता है :- जिसका वर्णन 'भारत में विज्ञानकी उज्जवल परम्परा' नामक पुस्तक में रा0 स्व0 से0 संघ के सह सरकार्यवाह मा. श्री सुरेश जी सोनी नें की है।

प्रथम तो यह कि भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम नें अपनी पुस्तक 'इण्डिया-2020 : ए विजन फॉर न्यू मिलेनियम' में बताते हैं कि मेरे घर की दीवार पर एक कलैण्डर टँगा है, इस बहुरंगी कलैण्डर में सैटेलाइट के द्वारा यूरोप, अफ्रीका आदिमहाद्वीपों के लिए गये चित्र छपे हैं। ये कलैण्डर जर्मनी में छपा था। जब भी कोई व्यक्ति मेरे घर में आता था तो दीवार पर लगेकलैण्डर को देखता था, तो कहता था कि वाह! बहुत सुन्दर कलैण्डर है तब मैं कहता था कि यह जर्मनी में छपा है। यह सुनते हीउसके मन में आनन्द के भाव जग जाते थे। वह बड़े ही उत्साह से कहता था कि सही बात है, जर्मनी की बात ही कुछ और हैउसकी टेक्नालॉजी बहुत आगे है। उसी समय जब मैं उसे यह कहता कि कलैण्डर छपा तो जरुर जर्मनी में है किन्तु जो चित्र छपे हैंउसे भारतीय सैटेलाइट नें खींचे हैं, तो दुर्भाग्य से कोई भी ऐसा आदमी नही मिला जिसके चेहरे पर वही पहले जैसे आनन्द के भावआये हों। आनन्द के स्थान पर आश्चर्य के भाव आते थे, वह बोलता था कि अच्छा! ऐसा कैसे हो सकता है? और जब मै उसका हाथपकड़कर कलैण्डर के पास ले जाता था और जिस कम्पनी ने उस कलैण्डर को छापा था, उसने नीचे अपना कृतज्ञता ज्ञापन छापाथा ''जो चित्र हमने छापा है वो भारतीय सैटेलाइट नें खींचे हैं, उनके सौजन्य से हमें प्राप्त हुए हैं।'' जब व्यक्ति उस पंक्ति को पढ़ता थातो बोलता था कि अच्छा! शायद, हो सकता है।

दूसरी घटना भी इन्ही से सम्बन्धित है जब वे सिर्फ वैज्ञानिक थे। दुनिया के कुछ वैज्ञानिक रात्रिभोज पर आये हुए थे, उसमेंभारत और दुनिया के कुछ वैज्ञानिक और भारतीय नौकरशाह थे। उस भोज में विज्ञान की बात चली तो राकेट के बारे में चर्चा चलपड़ी। डॉ. कलाम नें उस चर्चा में भाग लेते हुए कहा कि कुछ समय पूर्व मैं इंलैण्ड गया था वहाँ एक बुलिच नामक स्थान है, वहाँरोटुण्डा नामक म्युजियम है। जिसमे पुराने समय के युध्दों में जिन हथियारों का प्रयोग किया गया था, उसकी प्रदर्शनी भी लगायीगयी थी। वहाँ पर आधुनिक युग में छोड़े गये राकेट का खोल था। और आधुनिक युग के इस राकेट का प्रथम प्रयोग श्रीरंगपट्टनममें टीपूसुल्तान पर जब अंग्रेजों ने आक्रमण किया था, उस युध्द में भारतीय सेना नें किया था। इस प्रकार आधुनिक युग में प्रथमराकेट का प्रक्षेपण भारत नें किया था। डॉ. कलाम लिखते हैं कि, जैसे ही मैने यह बात कही एक भारतीय नौकरशाह बोला मि. कलाम! आप गलत कहते हैं, वास्तव में तो फ्रेंच लोगों ने वह टेक्नोलॉजी टीपू सुल्तान को दी थी। डॉ. कलाम नें कहा ऐसा नही है, आप गलत कहते हैं! मैं आपको प्रमाण दूंगा। और सौभाग्य से वह प्रमाण किसी भारतीय का नही था, नही तो कहते कि तुम लोगोंने अपने मन से बना लिया है। एक ब्रिटिश वैज्ञानिक सर बर्नाड लावेल ने एक पुस्तक लिखी थी ''द ओरिजन एण्ड इंटरनेशनलइकोनॉमिक्स ऑफ स्पेस एक्सप्लोरेशन'' उस पुस्तक में वह लिखते हैं कि 'उस युध्द में जब भारतीय सेना नें राकेट का उपयोगकिया तो एक ब्रिटिश वैज्ञानिक विलियम कांग्रेह्वा ने राकेट का खोल लेकर अध्ययन किया और उसका नकल करके एक राकेटबनाया। उसने उस राकेट को 1805 में तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री विलियम पिट के सामनें प्रस्तुत किया और उन्होने इसे सेनामें प्रयुक्त करनें की अनुमति दी।' जब नैपोलियन के खिलाफ ब्रिटेन का युध्द हुआ तब ब्रिटिश सेना नें राकेट का प्रयोग किया।अगर फ्रेंचो के पास वह टेक्नोलॉजी होती तो वे भी सामने से राकेट छोड़ते, लेकिन उन्होने नही छोड़ा। जब यह पंक्तियाँ डॉ. कलामनें उस नौकरशाह को पढ़ाई तो उसको पढ़कर  भारतीय नौकरशाह बोला, बड़ा दिलचस्प मामला है। डॉ. कलाम नें कहा यह पढ़करउसे गौरव का बोध नही हुआ बल्कि उसको दिलचस्पी का मामला लगा|


यहाँ ध्यान देने योग्य बात है कि जिस ब्रिटिश वैज्ञानिक नें नकल कर के राकेट बनाया उसे इंलैण्ड का बच्चा-बच्चा जानता है।किन्तु जिन भारतीय वैज्ञानिकों ने भारत के लिए  पहला राकेट बनाया उन्हे कोई भारतीय नही जानता। यह पूरी तरह से प्रदर्शितकरता है कि हम क्या पढ़ रहे हैं? और हमे क्या पढ़ना चाहिए? जबतक प्रत्येक भारतीय पश्चिम की श्रेष्ठता और अपनी हीनता केबोध की प्रवृत्ति को नही त्यागता तब तक भारत विश्व के सर्वोच्च शिखर पर नही पहुँच सकता। ऐसे में हमे आवश्यकता है यहजानने की कि विज्ञान के क्षेत्र में भारत नें इस विश्व को क्या दिया। इसके बारे में बताने के लिए सर्वप्रथम भारत की प्राचीनस्थिति को स्पष्ट करना आवष्यक हो जाता है। क्यों कि प्राचीन भारत के प्रतिमानों के नकारने के कारण हम वर्तमान में पश्चिम की नकल करने पर मजबूर हैं। जबकि हमारे प्राचीन ज्ञानों का नकल एवं शोध करके पश्चिम, विज्ञान के क्षेत्र में उन्नति के शिखर पर विराजमान है।

प्राचीन भारत :

जब प्राचीन भारत का नाम आता है तो कम से कम हम यह तो अवश्य ही कहते हैं कि प्राचीन काल में भारत जगद्गुरु था, तथायहाँ दूध की नदियाँ बहती थीं। तो यह निश्चित रुप से कहा जा सकता है कि जहाँ सभ्यता इतनी विकसित थी कि हम जगद्गुरु कहेजाते थे तो स्वभाविक रुप से आविष्कार भी इस भूमि पर अन्यों की अपेक्षा अधिक हुए होंगे क्योंकि जहाँ व्यक्ति बुध्दिजीवी होगावहाँ आविष्कार की संभावना अधिक होगी फिलहाल य यहाँ यह जानने की आवश्यकता है कि प्राचीन काल में कौन-कौन सेप्रमुख वैज्ञानिक हुए और उन्होने विश्व को क्या दिया।

सर्वप्रथम हम चिकित्सा का क्षेत्र लेते हैं, हमारे यहाँ एक श्लोक प्रचलित है जिसे सामान्यत: सभी लोग सुनें होंगे वह है कि'सर्वेभवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कष्चिद दु:खभाग्भवेत॥' अर्थात् सभी लोग सुखी हों, सभी लोगस्वस्थ रहें ऐसी कामना की गयी है। आज के आधुनिक पढ़े लिखे शिक्षित नौजवानों को यह जानने की आवश्यकता है जो मन मेंयह बैठाये हैं या षणयन्त्र पूर्वक यह बैठाया गया है कि विज्ञान पश्चिम की देन है और सभ्यता भारत की देन है। जबकि दोनों हीभारत की देन है। यूरोपिय यह मानते हैं कि हम (भारतीय) हर दृष्टि से उनसे श्रेष्ठ हैं और वर्तमान में भी हो सकते हैं, किन्तु यह वहप्रकट नही करते क्योंकि उन्हे यह मालूम है कि हम भारतीय कुत्सित हो चुके हैं, और यही उनकी सफलता है। एक यूरोपियप्रोफेसर मैकडोनाल का कहना है कि 'विज्ञान पर यह बहस होनी चाहिए कि भारत और यूरोप में कौन महत्वपूर्ण है। वह आगेकहता है कि यह पहला स्थान है जहाँ भारतीयों ने महान रेखागणित की खोज की जिसे पूरी दुनिया नें अपनाया और दशमलव कीखोज नें गणित व विश्व को नया आयाम दिया। उसने कहा कि यहाँ बात सिर्फ गणित की नही है, यह उनके विकसित समाज काप्रमाण है जिसे हम अनदेखा करते हैं।' 8वीं से 9वीं शताब्दी में भारत अंकगणित और बीजगणित में अरब देशों  का गुरू थाजिसका अनुसरण यूरोप नें किया।

भारतीय चिकित्सा विज्ञान को 'आयुर्वेद' नाम से जाना जाता है। और यह केवल दवाओं और थिरैपी का ही नही अपितुसम्पूर्ण जीवन पध्दति का वर्णन करता है। डॉ. कैरल जिन्होने मेडिसिन के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार जीता है तथा वह लगभग 35 वर्षों तक रॉक फेल्टर इन्स्टीटयूट ऑफ मेडिकल रिसर्च, न्यूयार्क में कार्यरत रहै हैं उनका कहना है कि 'आधुनिक चिकित्सामानव जीवन को और खतरे में डाल रही है। और पहले की अपेक्षा अधिक संख्या में लोग मर रहे हैं। जिसका प्रमुख कारणनई-नई बिमारियाँ हैं जिनमें इन दवाओं का भी हाथ है। भारतीय चिकित्सा विज्ञान एक विकसित विज्ञान रहा है। और यह उससमय रहा है जब पृथ्वी पर किसी अन्य देश को चिकित्सा विषय की जानकारी ही नही थी। 'चरक' जो महान चिकित्सा शास्त्री थेनें कहा है '' आयुर्वेद विज्ञान है और सर्वोत्तम् जीवन जीने की स्वतंत्रता प्रदान करता है''। आधुनिक चिकित्सा वर्तमान में बहुत हीविकसित हो चुकी है, लेकिन इसका श्रेय भारत को देना चाहिए जिसनें सर्वप्रथम इस शिक्षा से विश्व को अवगत कराया और विश्वगुरु बना। यह किसी भारतीय के विचार नही हैं, इससे हम यह समझ सकते हैं कि हमें अपनी शिक्षा का ही ज्ञान नही रहा तो हमइसका प्रचार व प्रसार कैसे कर सकते हैं। ऐसा नही है कि केवल भारत व इसके आस-पास ही भारतीय चिकित्साशास्त्र काबोलबाला रहा है। यद्यपि ऐसे अनेकों प्रमाण हमारे पास उपलब्ध हैं जिससे यह जानकारी प्राप्त होती है कि भारतीयचिकित्साशास्त्र व भारतीय चिकित्साशास्त्रियों नें पूरे एशिया यहाँ तक कि मध्य पूर्वी देशों, इजिप्ट, इज्रराइल, जर्मनी, फ्रांस, रोम, पुर्तगाल, इंलैण्ड एवं अमेरिका आदि देशों को चिकित्सा ज्ञान का पाठ पढ़ाया।

आयुर्वेद को श्रीलंका, थाइलैण्ड, मंगोलिया और तिब्बत में राष्ट्रीय चिकित्सा शास्त्र के रुप में मान्यता प्राप्त है। चरक संहिता वसुश्रुत संहिता का अरबी में अनुवाद वहाँ के लोगों नें 7वीं शताब्दी में ही कर डाला था। फरिस्ता नाम के मुस्लिम (इतिहास लेखक) लेखक नें लिखा है, ''कुछ 16 अन्य भारतीय चिकित्सकीय अन्वेषणों की जानकारी अरब को 8वीं शताब्दी में थी।'' पं. नेहरुजिन्होनें इतिहास में आर्य समस्या उत्पन्न करनें की भारी भूल की थी वही भी आयुर्वेद को नही नकार पाये और अपनी पुस्तक'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' में लिखा है - '' अरब का राजा हारुन-उल-राशिद जब बीमार पड़ा तो उसनें 'मनक' नाम के एक भारतीयचिकित्सक को अपने यहाँ बुलाया। जिसे बाद में अरब के शासक नें मनक को राष्ट्रीय चिकित्सालय का प्रमुख बनाया। अरबलेखकों नें लिखा है कि मनक से समय बगदाद में ब्राह्मण छात्रों को बुलाया गया जिन्होनें अरब को चिकित्सा, गणित, ज्योतिषशास्त्र तथा दर्शन शास्त्र की शिक्षा दी। बगदाद की पहचान ही हिन्दू चिकित्सा एवं दर्शन के लिए विख्यात हुआ। और अरब भारतीय चिकित्सा, गणित तथा दर्शन में पश्चिम देशों  (युरोप) का गुरु बना। इससे साफ पता चलता है कि भारत सेअरब व अरब से यूरोप इन विद्याओं में शिक्षित हुआ। सबकी जननी यह मातृभूमि ही रही।

यूरोपीय डॉ. राइल नें लिखा है- 'हिप्पोक्रेटीज (जो पश्चिमी चिकित्सा का जनक माना जाता है) नें अपनें प्रयोगों में सभीमूल तत्वों के लिए भारतीय चिकित्सा का अनुसरण किया। डॉ. ए. एल. वॉशम नें लिखा है कि 'अरस्तु भी भारतीय चिकित्सा का कायल था।'

चरक संहिता और सुश्रुत संहिता का गहराई से अध्ययन करनें वाले विदेशी वैज्ञानिक (जैसे- वाइस, स्टैन्जलर्स, रॉयल, हेजलर्स, व्हूलर्स आदि) का मानना है कि आयुर्वेद माडर्न चिकित्सा के लिए वरदान है। कुछ भारतीय डॉक्टरों ने भी इस पर शोधपरक कार्यकिया है जिनमें प्रमुख हैं- महाराजा ऑफ गोंदाल, गणनाथ सेन, जैमिनी भूषण राय, कैप्टन श्री निवास मूर्ति, डी. एन. बनर्जी, अगास्टे, के एस. भास्कर व आर. डब्ल्यू चोपड़ा आदि। इन सभी देशी -विदेशी आधुनिक डॉक्टरों ने चिकित्सा क्षेत्र में आयुर्वेद कीमहत्ता पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि 'भविष्य का विज्ञान तभी सुरक्षित प्रतीत होगा जब हम प्राचीन भारतीय व्यवस्था को अपनायेगें।'             

विज्ञान के अन्य क्षेत्र :-             
यहाँ यह बताना आवश्यक होगा कि हमारे पास जितना भी विस्तृत ज्ञान आयुर्वेद एवं जीवन पद्धति के बारे में है उतना ही विज्ञानके अन्य क्षेत्रों में भी अन्यान्य ग्रन्थो में मिलता है। विज्ञान के इन क्षेत्रों में प्राचीन भारतीय मनीषियों नें अपने अनुसंधानों द्वाराअकाटय प्रमाण प्रस्तुत किये हैं। आज जब पूरी दुनिया परमाणु के खतरे व सम्बर्धन की राजनीति कर रही है, और इसकी आड़में अमेरिका जैसे यूरोपीय देश अपना गौरव बढ़ा रहे हैं। ऐसे में यह जानना होगा कि सर्वप्रथम परमाणु वैज्ञानी कहीं और नहीबल्कि इस भारतभूमि में पैदा हुए, जिनमें प्रमुख हैं:- महर्षि कणाद, ऋषि गौतम, भृगु, अत्रि, गर्ग वशिष्ट, अगत्स्य, भारद्वाज, शौनक, शुक्र, नारद, कष्यप, नंदीष, घुंडीनाथ, परशुराम, दीर्घतमस, द्रोण आदि ऐसे प्रमुख नाम हैं जिन्होनें विमान विद्या (विमानविद्या), नक्षत्र विज्ञान (खगोलशास्त्र), रसायन विज्ञान (कमेस्ट्री), जहाज निर्माण (जलयान), अस्त्र-शस्त्र विज्ञान, परमाणु विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, प्राणि विज्ञान, लिपि शास्त्र इत्यादि क्षेत्रों में अनुसंधान किये और जो प्रमाण प्रस्तुत किये वह वर्तमान विज्ञानसे उच्चकोटि के थे। जो मानव समाज के उत्थान के मार्ग को प्रशस्त करनें वाले हैं न कि आज के विज्ञान की तरह, जो निरन्तरही मानव सभ्यता के पतन का बीज बो रहा है।

प्राचीन काल से वर्तमान काल तक भारत की वैज्ञानिक देन :-(अन्यान्य क्षेत्रों के माध्यम से)

अब हम यह जानने का प्रयास करेगें कि वर्तमान में जो आविष्कार मानव जीवन को सुविधायुक्त बनाये हुए हैं उनमेंप्राचीन काल से लेकर वर्तमान काल तक भारत का क्या दृष्टिकोण रहा है, तथा इन विविध क्षेत्रों में भारतीय मनिषियों का क्यायोगदान रहा है।

सर्वप्रथम हम बात करते हैं विद्युतशास्त्र की। अगस्त ऋषि की संहिता के आधार पर कुछ विद्वानों नें उनके द्वारा लिखेगये सूत्रों की विवेचना प्रारम्भ की। उनके सूत्र में वर्णित सामग्री को इकट्ठा करके प्रयोग के माध्यम से देखा गया तो यह वर्णनइलेक्ट्रिक सेल का निकला। यही नही इसके आगे के सूत्र में लिखा है कि सौ कुंभो की शक्ति का पानी पर प्रयोग करेगें तो पानीअपने रुप को बदलकर प्राणवायु (ऑक्सीजन) तथा उदानवायु (हाईड्रोजन) में परिवर्तित हो जायेगा। उदानवायु कोवायुप्रतिबन्धक यन्त्र से रोका जाय तो वह विमान विद्या में काम आता है। प्रसिध्द भारतीय वैज्ञानिक राव साहब वझे जिन्होनेभारतीय वैज्ञानिक ग्रन्थों और प्रयोगों को ढूढ़नें में जीवन लगाया उन्होने अगत्स्य संहिता एवं अन्य ग्रन्थों के आधार पर विद्युतके भिन्न-भिन्न प्रकारों का वर्णन किया। अगत्स्य संहिता में विद्युत का उपयोग इलेक्ट्रोप्लेटिंग के लिए करने का भी विवरणमिलता है।

जब हम 'यंत्र विज्ञान' अर्थात् मैकिनिक्स पढ़ते हैं तो सर्वप्रथम न्यूटन के तीनो नियमों को पढ़ाया जाता है। यदि हममहर्षि कणाद वैशेषिक दर्शन में कर्म शब्द को देखें तो Motion  निकलता है। उन्होने इसके पाँच प्रकार बताये हैं - उत्क्षेपण(Opword Motion), अवक्षेपण (Downword Motion), आकुंचन (Motion due to tensile stress), प्रसारण (Sharing Motion)  वगमन  (Genaral type of Motion)। डॉ. एन. डी. डोगरे अपनी पुस्तक ‘The Physics’  में महर्षि कणाद व न्यूटन के नियम कीतुलना करते हुए कहते हैं कि कणाद के सूत्र को तीन भागों में बाँटे तो न्यूटन के गति सम्बन्धी नियम से समानता होती है।

'धातु विज्ञान' यह ऐसा विज्ञान है जो प्राचीन भारत में ही इतना विकसित था कि आज भी उसकी उपादेयता उतनी ही है।रामायण, महाभारत, पुराणों, श्रुति ग्रन्थों में सोना, लोहा, टिन, चाँदी, सीसा, ताँबा, काँसा आदि का उल्लेख आता है। इतना ही नहीचरक, सुश्रुत, नागार्जुन नें स्वर्ण, रजत, ताम्र, लौह, अभ्रक, पारा आदि से औषधियाँ बनाने का आविष्कार किया। यूरोप के लोग1735 तक यह मानते थे कि जस्ता एक तत्व के रुप में अलग से प्राप्त नही किया जा सकता। यूरोप में सर्वप्रथम विलियमचैंपियन नें ब्रिस्टल विधि से जस्ता प्राप्त करनें के सूत्र का पेटेन्ट करवाया। और उसने यह नकल भारत से की क्योंकि 13वीं सदीके ग्रन्थ रसरत्नसमुच्चय में जस्ता बनाने की जो विधि दी है, ब्रिस्टल विधि उसी प्रकार की है। 18वीं सदी में यूरोपीय धातुविज्ञानियों ने भारतीय इस्पात बनाने का प्रयत्न किया, परन्तु असफल रहे। माइकल फैराडे ने भी प्रयत्न किया पर वह भी असफलरहा। कुछ नें बनाया लेकिन उसमें गुणवत्ता नही थी। सितम्बर 1795 को डॉ. बेंजामिन हायन नें जो रिपोर्ट ईस्ट इण्डिया कम्पनीको भेजी उसमें वह उल्लेख करता है कि 'रामनाथ पेठ एक सुन्दर गांव बसा है यहाँ आस-पास खदानें है तथा 40 भट्ठियाँ हैं। इनभट्ठियों में इस्पात निर्माण के बाद कीमत 2रु. मन पड़ती है। अत: कम्पनी को इस दिशा में सोचना चाहिए।' नई दिल्ली में विष्णुस्तम्भ (कुतुबमीनार) के पास स्थित लौह स्तम्भ विष्व धातु विज्ञानियों  के लिए आश्चर्य का विषय रहा है, ''क्योंकि लगभग1600 से अधिक वर्षों से खुले आसमान के नीचे खड़ा है फिर भी उसमें आज तक जंग नही लगा।

विज्ञान की अन्य विधाओं में वायुयान o जलयान भी विश्व को तीव्रगामी बनानें में सहायक रहे हैं। वायुयान का विस्तृतवर्णन हमारे प्राचीन ग्रन्थों में भरा पड़ा है उदाहरणत: विद्या वाचस्पति पं0 मधुसूदन सरस्वती के 'इन्द्रविजय' नामक ग्रन्थ मेंऋग्वेद के सूत्रों का वर्णन है। जिसमें वायुयान सम्बन्धी सभी जानकारियाँ मिलती हैं। रामायण में पुष्पक विमान, महाभारत में, भागवत में, महर्षि भारद्वाज के 'यंत्र सर्वस्व' में। इन सभी शास्त्रों में विमान के सन्दर्भ में इतनी उच्च तकनिकी का वर्णन है कियदि इसको हल कर लिया जाय तो हमारे ग्रन्थों में वर्णित ये सभी प्रमाण वर्तमान में सिध्द हो जायेगें। आपको यह जानकरआश्चर्य होगा कि विश्व की सबसे बड़ी अन्तरिक्ष शोध संस्था 'नासा' नें भी वहीं कार्यरत एक भारतीय के माध्यम से भारत से महर्षिभारद्वाज के 'विमानशास्त्र' को शोध के लिए मँगाया था। इसी प्रकार पानी के जहाजों का इतिहास व वर्तमान भारत की ही देन है।यह सर्वत्र प्रचार है कि वास्कोडिगामा नें भारत आने का सामुद्रिक मार्ग खोजा, किन्तु स्यवं वास्कोडिगामा अपनी डायरी मेंलिखता है कि, ''जब मेरा जहाज अफ्रीका के जंजीबार के निकट आया तो अपने से तीन गुना बड़ा जहाज मैनें वहाँ देखा। तब एकअफ्रीकन दूभाषिये को लेकर जहाज के मालिक से मिलने गया। जहाज का मालिक 'स्कन्द' नाम का गुजराती व्यापारी था जोभारतवर्ष से चीड़ व सागवन की लकड़ी तथा मसाले लेकर वहाँ गया था। वास्कोडिगामा नें उससे भारत जाने की इच्छा जाहिर कीतो भारतीय व्यापारी ने कहा मैं कल जा रहा हँ, मेरे पीछे-पीछे आ जाओ।'' इस प्रकार व्यापारी का पीछा करते हुए वह भारतआया। आप स्वयं अंदाजा लगा सकते हैं कि भारत का एक सामान्य व्यापारी वास्कोडिगामा से अधिक जानकार था।


आविष्कारों की दृष्टि से और आगे बढ़ते हैं तो गणित शास्त्र की तरफ ध्यान आकृष्ठ होता है। इस क्षेत्र में भारत की देन हैकि विश्व आज आर्थिक दृष्टि से इतना विस्तृत हो सका है। भारत इस शास्त्र का जन्मदाता रहा है। शून्य और दशमलव की खोजहो या अंकगणित, बीजगणित तथा रेखागणित की, पूरा विष्व इस क्षेत्र में भारत का अनुयायी रहा है। इसके विस्तार में न जाकरएक प्रमाण द्वारा इसकी महत्ता को समझ सकते हैं। यूरोप की सबसे पुरानी गणित की पुस्तक 'कोडेक्स विजिलेंस' है जो स्पेन कीराजधानी मेड्रिड के संग्रहालय में रखी है। इसमें लिखा है ''गणना के चिन्हो से हमे यह अनुभव होता है कि प्राचीन हिन्दूओं कीबुध्दि बड़ी पैनी थी अन्य देश गणना व ज्यामितीय तथा अन्य विज्ञानों मे उनसे बहुत पीछे थे। यह उनके नौ अंको से प्रमाणितहो जाता है। जिसकी सहायता से कोई भी संख्या लिखी जा सकती है।'' भारत में गणित परम्परा कि जो वाहक रहे उनमें प्रमुख हैं, आपस्तम्ब, बौधायन, कात्यायन, तथा बाद में ब्रह्मगुप्त, भाष्काराचार्य, आर्यभट्ट, श्रीधर, रामानुजाचार्य आदि। गणित के तीनोंक्षेत्र जिसके बिना विश्व कि किसी आविष्कार को सम्भव नही माना जा सकता, भारत की ही अनुपन देन है।

कालगणना अर्थात् समय का ज्ञान जो पृथ्वी की उत्पत्ति से लेकर इसके विनाष तक के निर्धारित अवधि तक का वर्णनकरता है। सत्यता व वैज्ञानिक दृष्टि से भारतीय कालगणना अधिक तर्कयुक्त व प्रमाणिक मानी जाती है। खगोल विद्या वेद का नेत्रकहा जाता है। अत: प्राचीन काल से ही खगोल वेदांग का हिस्सा रहा है। ऋग्वेद, शतपथ ब्राह्मण आदि ग्रन्थों मे नक्षत्र, चान्द्रमास, सौरमास, मलमास (पुरुषोत्तम मास), ऋतु परिवर्तन, उत्तरायण, दक्षिणायन, आकाषचक्र, सूर्य की महत्ता आदि के विस्तृत उल्लेखमिलते हैं। यजुर्वेद के 18वें अध्याय में यह बताया गया है कि चन्द्रमा सूर्य के किरणों के कारण प्रकाशमान है। यंत्रो का उपयोगकर खगोल का निरीक्षण करने की पध्दति प्राचीन भारत में रही है। आर्यभट्ट के समय आज से लगभग 1500 वर्ष पूर्व पाटलीपुत्रमें वेधशाला थी, जिसका प्रयोग करके आर्यभट्ट नें कई निष्कर्ष निकाले। हम जिस गुरुत्वाकर्षण के खोज की बात करते हुएन्यूटन को इसका श्रेय देते हैं उससे सैकड़ो वर्ष पूर्व (लगभग 550 वर्ष) भाष्कराचार्य नें यह बता दिया था। भाष्कराचार्य ने हीसर्वप्रथम बताया कि पृथ्वी गोल है जिसे यूरोपीय चपटा समझते थे।

रसायन विज्ञान हो या प्राणि विज्ञान या  वनस्पिति विज्ञान इन सभी क्षेत्रों में भारतीय यूरोप की अपेक्षा अग्रणी रहे हैं। रसायन विज्ञान के क्षेत्र में प्रमुख वैज्ञानिक नागार्जुन, वाग्भट्ट, गोविन्दाचार्य, यशोधर, रामचन्द्र, सोमदेव आदि रहे हैं। जिन्होनें खनिजों, पौधों, कृषिधान्य आदि के द्वारा विविध वस्तुओं का उत्पादन, विभिन्न धातुओं का निर्माण व इनसे औषधियाँ बनाने का कार्य किया। वनस्पति विज्ञान में पौधों का वर्गीकरण अथर्ववेद में विस्तृत रुप में मिलता है। चरक संहिता में, सुश्रुत संहिता में, महर्षि पराशर व वाराहमिहिर के वृहत्ता संहिता में, वर्तमान (आधुनिक युग में) जगदीष चन्द्र वसु के प्रयोगो में कहाँ-कहाँ नही इन विधाओं का वर्णन मिलता है! जरुरत है तो इन्हे जानकर शोध करने की। इसी प्रकार प्राणि विज्ञान में प्राचीन से लेकर वर्तमान तक भारतीय मनिषियों ने अपना लोहा मनवाया है।

जहाँ तक आधुनिक भारतीय विज्ञान के परिदृष्य की बात है तो इस भूमि में जन्में मनिषियों नें पूरे विश्व को अनवरत अपने ज्ञान से सींचना जारी रखा है। देश में ही नही विदेशों मे भी भारतीय वैज्ञानिक फैले हुए हैं। इनमें से कुछ ऐसे नाम लेना आवश्यक है जिन्होने भारतवर्ष के मस्तक को ऊँचा रखा है। उनमें प्रमुख हैं :- राना तलवार जो Stanchart  के CEO हैं, अजय कुमार (जो नासा के एयरोडायनामिक्स के प्रधान हैं), सी.के. प्रह्लाद (इनको मैनेजमैन्ट गुरु माना जाता है)। वर्तमान स्पेश व मिसाइल विज्ञान में जो प्रमुख हैं वह विक्रम साराभाई (जिन्हे भारतीय स्पेस टेक्नालॉजी का पिता कहा जाता है), डॉ. सतीष धवन, डॉ. अब्दुल कलाम (जिन्हे मिसाइल मैन की उपाधि मिली हुई है), डॉ. माधवन नॉयर (भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान केन्द्र के अध्यक्ष), डॉ. कस्तूरी रंगन, डॉ. होमी जहांगीर भाभा (आधुनिक भारतीय आणविक विज्ञान के प्रणेता), डॉ. पी. के. अयंगर, डॉ. चितंबरम, डॉ. अनिक काकोदकर, डॉ. राजारमण ये आधुनिक विज्ञान के परामाणु विज्ञानी हैं। ऐसे भारतीय मनिषियों का नाम भी बताना आवश्यक है जो विभिन्न देशों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं उनमें प्रमुख हैं :- याल्लप्रागदा सुब्बाराव (Yallaprangada Subbarao) जिन्होने 1948 में चिकित्सा के क्षेत्र में योगदान दिया, डॉ. रंगास्वामी श्रीनिवासन (इन्होने लेसिक ऑई सर्जरी का आविष्कार किया जिन्हे अमेरिका नें US National inventers hall of fame का खिताब दिया) डॉ. प्रवीण चौधरी इन्होने कम्प्यूटर के क्षेत्र में रिराइटेबल काम्पेक्ट डिस्क(CD-RW) का आविष्कार किया, डॉ. शिव सुब्रमण्यम (ये अमेरिका के स्पेस प्रोजेक्ट के प्रमुख रहे) जिनको अमेरिका नें उच्चतम् राष्ट्रीय अवार्ड से नवाजा था, कल्पना चावला (दिवंगत अंतरिक्ष यात्री), सुनीता विलियम्स (इन्होने सबसे अधिक अंतरिक्ष में चलने का रिकार्ड बनाया है, यह रिकार्ड है 22 घंटे और 27 मिनट) इनका मूल नाम सुनीता पाण्डया है, डॉ. सी.वी.रमन (इन्हे रमन इफेक्ट के लिए फिजिक्स का नोवेल पुरस्कार दिया गया), डॉ. हरगोविन्द खुराना (इन्हे आनुवंशिकी का पिता कहा जाता है, इन्हे 1968 में नोवेल पुरस्कार मिला), अर्मत्य सेन (इन्हे अर्थशास्त्र के क्षेत्र में 1998 में नोवेल पुरस्कार मिला)। कम्प्यूटर के क्षेत्र में डॉ. विजय भटनागर (इन्होनें 'परम' 10000 का आविष्कार किया, जिसे मल्टीमीडिया डिजिटल लाइब्रेरी के नाम से जाना जाता है), डॉ. नरेन्द्र करमाकर (ये कम्प्यूटर को वर्तमान की अपेक्षा 50 से 100 गुना तेज बनाने की खोज कर रहे हैं जिसके लिए टाटा नें फण्ड की भी व्यवस्था की है)।

इन आधुनिक वैज्ञानिकों के बाद इनके आविष्कारों के फल को भी जानना आवश्यक प्रतीत होता है जो क्रमश: इस प्रकार हैं :- हमारे मिसाइल, अग्नि, आकाश, पृथ्वी, त्रिशूल, नाग, ब्रह्मोस, पृथ्वी II, अग्नि II । ये सभी मिसाइल हैं जो दुश्मन के सभी आक्रमणों को नेस्तानाबूत करने मे सक्षम हैं। हमारे सैटेलाइट- आर्यभट्ट, रोहिणी, भाष्कर, ASLV (इसकी उड़ान क्षमता 4000 कि.मी. प्रति घंटे है।), PSLV (यह पोलर सैटेलाइट है इसकी रेन्ज 8000 कि.मी. प्रति घंटा है तथा यह 1200 किलोग्राम भार ले जाने में सक्षम है।) GSLV     (यह भी अत्याधुनिक लांचर है) आदि प्रमुख हैं जो तकनिकी दृष्टि से अत्यन्त सफल हैं। हमारा परमाणु परीक्षण, जो प्रथम बार 1974 में किया गया था, तथा 1998 में जब दूसरी बार इसका 5 बार परीक्षण किया गया तो इतनी उच्च तकनिकी का प्रयोग किया गया कि इतने बड़े परीक्षण को अमेरिका जैसे देश ट्रेस नही कर पाये। इस प्रकार भारत उन 9 शक्तिशाली देशों  में शामिल हो गया जिनके पास परमाणु बनाने की क्षमता है।

इतने उच्चतम् श्रेणि का विज्ञान भारत कि गौरव का बखान करते हैं। आज आवश्यकता इस बात की नही है कि हम केवल इसका गान करें अपितु आवश्यकता इस बात की अधिक है कि हम इन सभी विषयों पर ज्यादा से ज्यादा शोध करें तथा प्राचीन से लेकर वर्तमान तक के शुध्द भारतीय ज्ञान का अध्ययन करें और इसे समस्त विश्व के सामने प्रमाण रुप में उदघाटित  करें। ताकि हम अपनें अतीत के गौरव को वर्तमान में ढ़ालकर पूरे ब्रह्माण्ड के भविष्य को सुरक्षित व संवर्धित कर सकें।

11 Comments

  1. आनंद जी.शर्मा Says:
  2. आदरणीय रत्नेश त्रिपाठी जी
    ज्ञानवर्धक लेख के लिए धन्यवाद |
    प्रत्येक समस्या का एक मूलभूत कारण (Root-cause) होता है |
    भारत की समस्त वर्त्तमान समस्याओं के भी मूलभूत कारण हैं |
    आप भारत के जिस प्राचीन ज्ञान की चर्चा कर रहें हैं - उसे इस देश के अति चालाक शत्रुओं ने अपना शाशन स्थापित होने के साथ ही एकाग्रचित्त हो कर "Conspiracy of Systematic De-programming of Young and Immature Minds" का अनवरत प्रयोग कर के - पिछली एवं वर्तमान पीढ़ी का मानस परिवर्तन कर दिया है - एवं इस नीच कर्म में उन्हें अप्रत्याशित सफलता प्राप्त हुई है |
    अभी की नई पीढ़ी तो जैसे माता के गर्भ से ही अभिमन्यु सीख कर पैदा हुआ था - उस तरह पूर्णतया पश्चिमोन्मुख एवं पतानोंमुख है - एवं उन्ही के मिथ्याचार के रंग ढंग में जी रही है |
    अपनी अक्षम्य भूलों के लिए शत्रु को दोष देना अपनी ही भूलों में वृद्धि करना है |
    किसी को मधुमेह - दमा - राजयक्ष्मा - एड्स - कैंसर का रोग हो जाये तो वह रोगी पहले मूलभूत कारण का निवारण एवं चिकित्सक द्वारा निर्दिष्ट उपचार न कर के - मधुमेह के लिए शक्कर को - दमा के लिए बीडी चिलम सिगरेट को - राजयक्ष्मा के लिए दूषित वातावरण एवं आहार को - एड्स के लिए नगरवधुओं से संसर्ग को - कैंसर के लिए तम्बाकू के पत्तों को कोसता रहे - तो इस मूर्खतापूर्ण कार्य से वह रोगी तो कदापि स्वस्थ नहीं हो सकता है |
    कोसते रहने से समस्या का समाधान कदापि नहीं हो सकता है |
    भूतकाल में जो भूल हो चुकी हैं उनकी पुनार्वृत्ति न हो - यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है |
    इसके साथ साथ हमें अपने देश में Talent Management की एवं Proper Documentation की सोच की स्थापना की तीव्र एवं त्वरित आवश्यकता है |
    जिस बालक की जिस काम में रूचि हो - उसे उसी में अग्रसर एवं निष्णात होने देने में समस्त सहायता प्रदान करना - यह समाज एवं शाशन का कर्तव्य है |
    हमारे देश में वैज्ञानिक प्रतिभा की कोई कमी नहीं है - परन्तु जब उन्हें प्रोत्साहन देने के स्थान पर अवहेलना - उपहास एवं तदुपरांत शाशन द्वारा नाना प्रकार से मार्ग अवरुद्ध किये जाने से मानसिक प्रताड़ना मिलती है तो वे देश से दुबारा यहाँ नहीं आने की प्रतिज्ञा के साथ पलायन करते हैं | हमारे देश भारत के सर्वथा विपरीत - पश्चिमी देशों की यह विशेषता है कि वे विद्वान् एवं प्रतिभाशालियों के आदर सत्कार एवं उन्हें मनचाही सुविध्यें देने में बहुत उदार हैं |
    हमें सर्वप्रथम यह सुनिश्चित करना है कि क्या श्रेयस है एवं क्या प्रेयस |
    हम लोगों ने प्रेयस का अन्धानुकरण कर के श्रेयस को भुला दिया है एवं हमारी दुर्दशा उसी की परिचायक है |
    हमारे समाज को भांड - नगरवधुओं - रुपजिवाओं - धन लोलुप नेताओं चाटुकारों एवं खिलाड़ियों को सर्वथा त्याग कर - विद्वान् - अनुसंधानकर्ता एवं वैज्ञानिक को विशिष्ठ स्थान एवं समुचित सम्मान देने कि नीति अपनानी होगी - तभी देश का कल्याण हो सकता है अन्यथा कदापि नहीं |
    पुनः - आपके इस श्रमसाध्य एवं देशप्रेम से ओतप्रोत अनुसंधानात्मक लेख के लिए साधुवाद |
    _ आनन्द जी. शर्मा - मुंबई

     
  3. Anonymous Says:
  4. manyvar ji apka lekh bahut hi ghyan vardhak & atulaniy hai
    anurudha deshbandhu


    [email protected]

     
  5. दिगम्बर नासवा Says:
  6. पुरातन भारत में सब कुछ था पर शायद कोई तो वजह थी जो हम उसे संभाल नही सके ... फिर धीरे धीरे १००० से भी अधिक वर्षों की गुलामी ने हमें और भी भीरू बना दिया .... आज सबसे अधिक आवश्यकता अपने आप को पहचानने की है ... आपने चरित्र को उठाने की, कुछ नेतिक और सामाजिक नियमों को दुबारा स्थापित करने की ...

     
  7. आदरणीय रत्नेश त्रिपाठी जी
    ज्ञानवर्धक लेख के लिए धन्यवाद |
    प्रत्येक समस्या का एक मूलभूत कारण (Root-cause) होता है |
    भारत की समस्त वर्त्तमान समस्याओं के भी मूलभूत कारण हैं |
    आप भारत के जिस प्राचीन ज्ञान की चर्चा कर रहें हैं - उसे इस देश के अति चालाक शत्रुओं ने अपना शाशन स्थापित होने के साथ ही एकाग्रचित्त हो कर "Conspiracy of Systematic De-programming of Young and Immature Minds" का अनवरत प्रयोग कर के - पिछली एवं वर्तमान पीढ़ी का मानस परिवर्तन कर दिया है - एवं इस नीच कर्म में उन्हें अप्रत्याशित सफलता प्राप्त हुई है |
    अभी की नई पीढ़ी तो जैसे माता के गर्भ से ही अभिमन्यु सीख कर पैदा हुआ था - उस तरह पूर्णतया पश्चिमोन्मुख एवं पतानोंमुख है - एवं उन्ही के मिथ्याचार के रंग ढंग में जी रही है |
    अपनी अक्षम्य भूलों के लिए शत्रु को दोष देना अपनी ही भूलों में वृद्धि करना है |
    किसी को मधुमेह - दमा - राजयक्ष्मा - एड्स - कैंसर का रोग हो जाये तो वह रोगी पहले मूलभूत कारण का निवारण एवं चिकित्सक द्वारा निर्दिष्ट उपचार न कर के - मधुमेह के लिए शक्कर को - दमा के लिए बीडी चिलम सिगरेट को - राजयक्ष्मा के लिए दूषित वातावरण एवं आहार को - एड्स के लिए नगरवधुओं से संसर्ग को - कैंसर के लिए तम्बाकू के पत्तों को कोसता रहे - तो इस मूर्खतापूर्ण कार्य से वह रोगी तो कदापि स्वस्थ नहीं हो सकता है |
    कोसते रहने से समस्या का समाधान कदापि नहीं हो सकता है |
    भूतकाल में जो भूल हो चुकी हैं उनकी पुनार्वृत्ति न हो - यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है |
    इसके साथ साथ हमें अपने देश में Talent Management की एवं Proper Documentation की सोच की स्थापना की तीव्र एवं त्वरित आवश्यकता है |
    जिस बालक की जिस काम में रूचि हो - उसे उसी में अग्रसर एवं निष्णात होने देने में समस्त सहायता प्रदान करना - यह समाज एवं शाशन का कर्तव्य है |
    हमारे देश में वैज्ञानिक प्रतिभा की कोई कमी नहीं है - परन्तु जब उन्हें प्रोत्साहन देने के स्थान पर अवहेलना - उपहास एवं तदुपरांत शाशन द्वारा नाना प्रकार से मार्ग अवरुद्ध किये जाने से मानसिक प्रताड़ना मिलती है तो वे देश से दुबारा यहाँ नहीं आने की प्रतिज्ञा के साथ पलायन करते हैं | हमारे देश भारत के सर्वथा विपरीत - पश्चिमी देशों की यह विशेषता है कि वे विद्वान् एवं प्रतिभाशालियों के आदर सत्कार एवं उन्हें मनचाही सुविधाएँ देने में बहुत उदार हैं |
    हमें सर्वप्रथम यह सुनिश्चित करना है कि क्या श्रेयस है एवं क्या प्रेयस |
    हम लोगों ने प्रेयस का अन्धानुकरण कर के श्रेयस को भुला दिया है एवं हमारी दुर्दशा उसी की परिचायक है |
    हमारे समाज को भांड - नगरवधुओं - रुपजिवाओं - धन लोलुप नेताओं चाटुकारों एवं खिलाड़ियों को सर्वथा त्याग कर - विद्वान् - अनुसंधानकर्ता एवं वैज्ञानिक को विशिष्ठ स्थान एवं समुचित सम्मान देने कि नीति अपनानी होगी - तभी देश का कल्याण हो सकता है अन्यथा कदापि नहीं |
    पुनः - आपके इस श्रमसाध्य एवं देशप्रेम से ओतप्रोत अनुसंधानात्मक लेख के लिए साधुवाद |
    _ आनन्द जी. शर्मा - मुंबई

     
  8. aarya Says:
  9. सादर !
    आनंद जी,
    आपने बिलकुल सही कहा | जब तक हम अपने वैज्ञानिकों को उचित प्रोत्साहन नहीं देंगे तबतक हम दुनिया से आगे नहीं निकल सकते | मैंने अपने लेख में कुछ प्रमुख वैज्ञानिको के नाम लिखे हैं जो हैं तो भारत के लेकिन उनसे यूरोप समृद्ध हो रहा हैं| स्वाभाविक है भारत की अपेक्षा उनको सम्मान, पैसा, सुविधा और काम करने की छूट यूरोप दे रहा है |
    पुनः आपकी इस आशीर्वाद के लिए धन्यवाद |
    रत्नेश

     
  10. Suresh Chiplunkar Says:
  11. बहुत उम्दा लेख, भारत की प्रतिभा, शिक्षा, और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को एक योजनाबद्ध तरीके से खत्म किया गया है। मैकाले की संतानों ने दिमागों को कुन्द करके रख दिया है, आज भारत पश्चिम के "नौकर" तैयार करने की फ़ैक्ट्री बनकर रह गया है।

     
  12. Jambudwip Says:
  13. Respected Ratneshji
    I read your very illuminating article about the scientific achievements of Bharata. No doubt there is no comparasion of Bharatiya talent. But how long we will live on such claims that are more theoritical and rhetoric. We can claim Agasta Rishi having created electricity but how many from us have repeated that experement in their lab. I do not know a single scientist or scholar who has worked on a formula of any ancient texts.
    However your article is very informative and I must congratulate you for bringing to the notice of people. Regards
    T.P. Verma

     
  14. सुनील दत्त Says:
  15. बौद्दिक गुलाम व सेकुलर गद्दारों को जगाने में आपका लेख बहुत सहायक सिद्ध होगा ऐसी हमें आशा है आपने मेहनत कर ये जानकारी हम सब तक पहुंचाई इसके लिए आप बधाई के पात्र हैं।

     
  16. aarya Says:
  17. परम आदरणीय
    ऋषितुल्य वर्मा जी,
    आपका आशीर्वाद मिला मेरा लिखना सफल हुआ | आपकी चिन्ता ही समाधान है जिसके तरफ ध्यान ना देने का परिणाम हम सब भुगत रहे हैं |
    @ सुरेश जी और दत्त जी आपके राष्ट्र जागरण अभियान के प्रयासों की ही मै एक कड़ी हूँ |
    आप सभी का धन्यवाद |
    रत्नेश त्रिपाठी

     
  18. Abhaya Vishwa Says:
  19. सादर वन्दे

    रत्नेश जी
    वाह क्या बात है ,, थोडा कहा लेकिन सच कहा
    आपके द्वारा लिखा गया लेख भारतीय युवाओ एवं राष्ट्र को जागृत करने के लिए अतुलनीय है. आगे भी आप से आशा है कि आप इस प्रकार के लेखो के द्वारा युवाओ एवं राष्ट्र को प्रोत्साहित करेंगे..

    जबरजस्त लेगे रहो

    मुकेश कुमार उपाध्याय
    दिल्ली

     
  20. संजय बेंगाणी Says:
  21. हम क्या पढ़ रहे हैं? और हमे क्या पढ़ना चाहिए?

    हमें कुछ भे पढ़ना पड़ा हो, सचेत अभिभावक के रूप में शिक्षा दे पाए तो आने वाला भारत जरूर स्वाभिमानी होगा.

     

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5 सितंबर 2010, रविवार, 14 भाद्रपद (सौर) शक 1932, भाद्रपद मास 21 प्रविष्टे 2067, 25 रमज़ान सन हिजरी 1431, भाद्रपदा कृष्ण एकादशी प्रात: 5 बजकर 56 मिनट तक उपरान्त द्वादशी रात्रि 3 मिनट तक तदनन्तर पुष्य नक्षत्र, वरीयान योग रात्रि 11 बजकर 22 मिनट तक तदनन्तर परिघ योग, बालव करण,चन्दमा कर्क राशि में(दिन-रात). जया एकादशी व्रत व्रत वैष्णव. गोवत्स पूजा द्वादशी. त्रिस्पर्शा महा द्वादशी. द्वादशी तिथि क्षय. पर्युषण पर्वारम्भ (जैन) पंचमी पक्ष. सर्वपल्ली डॉ.राधा कृष्ण जयंती. शिक्षक दिवस. सूर्य : सिंह राशि में, चंद्रमा : कर्क राशि में, बुध : सिंह (वक्री) राशि में, शुक्र : तुला राशि में, मंगल : कन्या राशि में, वृहस्पति : मीन (वक्री) राशि में, शनि : कन्या राशि में, राहु : धनु राशि में, केतु : मिथुन राशि में (ज्योतिषाचार्य वेदप्रकाश जाबाली)

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