कपिल सिब्बल
यह समय इलेक्ट्रानिक मीडिया की ओर से पेश किये जा रहे मनोरंजन से हटकर उन मुद्दों पर सोचने का है जो लोकपाल की स्थापना में बाधक बन रहे हैं।
श्री अन्ना हजारे और उनके द्वारा नामित लोगों की ओर से प्रस्तावित जन लोकपाल विधेयक के प्रावधानों का विश्लेषण हमारे संवैधानिक ढांचे की व्यापक विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए जरूर किया जाना चाहिए। हमारे संविधान के तहत कार्यपालिका संसद और न्यायपालिका दोनों के प्रति जवाबदेह है। जब विपक्ष के सदस्य सरकार से नीतिगत निर्णयों पर स्पष्टीकरण मांगते हैं, सरकार के प्रस्तावित विधेयकों पर प्रतिक्रिया देते हैं और उसका विश्लेषण करते हैं तथा सूचनाएं मांगते हैं, तब यह संसद के प्रति जिम्मेदार होती है। संसदीय बहसों समेत तमाम सशक्त संसदीय प्रक्रियाओं के जरिए देशवासियों को बताया जाता है कि कार्यपालिका किस तरह कार्य कर रही है।
विधायिका, नामत: संसद के दोनों सदन न्यायालय के प्रति उत्तरदायी हैं जिसके पास न्यायिक समीक्षा के जरिए किसी भी विधेयक को संविधान की कसौटी पर परखने की शक्ति है। हमारे जनप्रतिनिधि भी अपने निर्वाचकों के प्रति जवाबदेह और जिम्मेदार होते हैं जब उन्हें सदन भंग हो जाने पर फिर से चुनाव मैदान में आना होता है। न्यायपालिका विधायिका और कार्यपालिका दोनों से ही स्वतंत्र है और वह एक सार्वजनिक तथा खुली न्यायिक प्रणाली के तहत जवाबदेह है। बहुस्तरीय न्यायालयों की व्यवस्था से न्यायिक प्रणाली के सुधार में मदद मिलती है। न्यायाधीश महाभियोग की प्रक्रिया के द्वारा व्यक्तिगत रूप से भी विधायिका के प्रति जवाबदेह हैं। हालांकि इसका अब तक बहुत अच्छा परिणाम नहीं मिला है।
हमें एक ऐसे कानून के माध्यम से बड़े पैमाने पर जबावदेही सुनिश्चित करने की आवश्यकता है, जो एक तरफ तो न्यायपालिका की स्वायत्ता और स्वतंत्रता को सुरक्षित रखे, वहीं दूसरी तरफ सख्त जवाबदेही तय करे। दूसरे शब्दों में राज्य का हर एक अंग, हमारी संवैधानिक प्रणाली का हर स्तंभ किसी न किसी रूप में एक-दूसरे के प्रति जवाबदेह है। यही हमारे संसदीय लोकतंत्र का मूल तत्व है।
यह मूल तत्व आज खतरे में है और लग रहा है कि श्री अन्ना हजारे और उनके नामित व्यक्तियों द्वारा प्रस्तावित जन लोकपाल विधेयक इसे खत्म कर देना चाहता है। प्रस्तावित विधेयक के अनुसार लोकपाल स्वतंत्र जांच और अभियोजन एजेंसियों से लैस एक ऐसा अनिर्वाचित कार्यकारी निकाय होगा, जो किसी के प्रति जिम्मेदार नहीं रहेगा। सरकार में नहीं होने के कारण यह सरकार के प्रति जवाबदेह नहीं होगा, इसलिए केवल इसी के पास सभी सरकारी अधिकारियों की जांच का अधिकार होगा। यह विधायिका के भी प्रति जिम्मेदार नहीं होगा। सरकार से बाहर होने के कारण इसकी कार्यप्रणाली के बारे में सरकार को कोई जानकारी नहीं होगी, जो संसद में जानकारी दिये जाने के लिए सबसे पहली जरूरत है।
इसके अलावा, इसे संसद सदस्यों की भी जांच का अधिकार होगा। यह न्यायालय के प्रति भी तब तक जिम्मेदार नहीं है जब तक कि यह आपराधिक मुकदमों के प्रावधानों के तहत खुद कोई न्यायिक प्रक्रिया शुरु नहीं कर रहा हो। साथ ही, इसके पास न्यायपालिका के सदस्यों की जांच की अनोखी शक्ति होगी। किसी भी संवैधानिक संस्था के प्रति जवाबदेह नहीं रहने वाली इस संस्था की हैसियत संवैधानिक तौर पर न्यायसंगत नहीं ठहरायी जा सकती है।
उपरोक्त तर्कों का विरोध यह कहकर किया जाता है कि न्यायपालिका पर भी यही स्थितियां लागू होती हैं क्योंकि वह भी न तो विधायिका है और न ही कार्यपालिका के प्रति जवाबदेह है। दो कारणों से कहा जा सकता है कि यह तर्क भ्रामक है:
1. सभी न्यायिक प्रक्रियाएं सार्वजनिक होती हैं और न्यायिक फैसलों की समीक्षा के लिए अपील तथा पुनर्विचार याचिकाओं जैसी व्यवस्था है। न्यायिक भूलों को उच्चतर न्यायालयों में सुधारा जा सकता है। दूसरी तरफ लोकपाल की अपनी जांच होनी अनिवार्य है।
2. न्यायपालिका की स्वतंत्रता की तुलना लोकपाल के कार्यकारी प्राधिकारी की स्वतंत्रता से नहीं की जा सकती है, जिसका प्राथमिक कार्य जांच और अभियोजन करना है।
न्यायपालिका नागरिकों की रक्षा करने के लिए हैं। लोकपाल उन पर अभियोग चलाने के लिए है। न्यायपालिका विवादों को सुलझाती है, इसलिए इसकी स्वतंत्रता की रक्षा जरूर होनी चाहिए। यह लोगों पर अभियोग चलाने के लिए नहीं बनी है। दूसरा तर्क यह है कि लोकपाल वैसा ही है जैसे चुनाव आयोग तथा नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) स्वतंत्र संवैधानिक संस्थाएं हैं। यह तुलना भी अच्छी नहीं है। चुनाव आयोग का काम नियामक का तथा आवर्ती है और कैग का काम सरकारी विभागों और एजेंसियों के खर्चों का विश्लेषण करना है ताकि सरकार की ओर से उन्हें दी गयी राशि की बर्बादी नहीं हुई हो।
इसलिए, यह स्पष्ट है कि एक अनिर्वाचित लोकपाल जो किसी के प्रति जवाबदेह नहीं हो, हमारी संसदीय प्रणाली की अवधारणा पर अभिशाप की तरह है।
एक और चिंताजनक बात है जन लोकपाल की सामान्य पूर्वधारणा। यह इस कल्पना के आधार पर अपना काम शुरु करता है कि भ्रष्टाचार संस्थागत हो गया है और केवल बढ़ता ही जा रहा है क्योंकि भ्रष्टाचार के कारण मिलने वाले लाभ में सभी के साझीदार होने के कारण सरकारी विभागों में वरिष्ठ अधिकारी भ्रष्टाचार के आरोपी अपने अधीनस्थ कर्मचारी को पूरी तरह संरक्षण देते हैं। नतीजन, भ्रष्ट कृत्यों पर कार्रवाई नहीं होती है और यदि होती है तो उसमें काफी देरी की जाती है। उनका यही तर्क राजनीतिक प्रक्रिया पर लागू होता है कि चूंकि राजनीतिक वर्ग भ्रष्ट है इसलिए वह ऐसे कानून नहीं बनाना चाहता है जो उन्हें जवाबदेह ठहराए। ये मान्यताएं पूरी तरह से सही नहीं हैं। मूल रूप से उनका कहना यह है कि अगर सरकार के बाहर एक लोकपाल स्थापित कर दिया जाता है, तो वहां निजी हितों का कोई प्रभाव नहीं होगा और लोकपाल व्यवस्था को साफ सुथरा बनाने में सक्षम होगा। मुझे यह तर्क स्वाभाविक तौर पर दोषपूर्ण लगता है।
हम एक क्षण के लिए मान लें कि हमने एक ऐसे लोकपाल की स्थापना कर दी जिसके दायरे में केन्द्रीय सरकार के सभी (लगभग चार लाख) कर्मचारी हैं और हर राज्य में एक लोकायुक्त हो जिसके दायरे में संबद्ध राज्य सरकारों के सभी (लगभग 7-8 लाख) कर्मचारी हैं। यदि लोकपाल या लोकायुक्त को 10-12 लाख लोगों के भ्रष्ट कृत्यों पर कार्रवाई करनी है तो एक विशाल तंत्र की आवश्यकता होगी, जिसे बड़े पैमाने पर मानव संसाधन की भी जरूरत होगी और सरकारी कर्मचारियों के व्यक्तिगत भ्रष्टाचार से निपटने के लिए भी काम करना होगा।
यह तंत्र कैसे विकसित होगा ? मानव संसाधन के स्तर पर आवश्यक सुविधाएं मौजूदा जांच एजेंसियों से ही लोकपाल को हस्तांतरित करनी होंगी। सीबीआई में उपलब्ध मानव संसाधन जो भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम, 1988 के तहत भ्रष्टाचार से निपटने के लिए काम कर रहा है, कुछ हद तक उसके और सरकार की अन्य जांच एजेंसियों के कर्मियों को एक साथ लोकपाल में स्थानांतरित करना होगा। इसके अलावा लोकपाल को अपनी जरूरतों के लिए कई वर्षों तक अलग से जांच और अभियोजन अधिकारियों की भर्ती करनी होगी।
जन लोकपाल विधेयक का अधिकार क्षेत्र बेहद व्यापक है। उच्चतर न्यायालयों समेत सभी सरकारी अधिकारी इसके दायरे में हैं। यह विधेयक नयी जमीन तलाशना चाहता है। यह उच्च न्यायपालिका के अनुशासित सदस्यों पर हावी होने के एक प्रयास जैसा है। इसके बेहद दूरगामी परिणाम होंगे। प्रथमतया, कुछ वरिष्ठ विधिवेत्ताओं का मानना है कि यह संविधान के आधारभूत ढांचे के हिसाब से गलत होगा। संविधान में न्यायपालिका की स्वायत्ता और स्वतंत्रता को सुरक्षित रखा गया है जिसके तहत उच्च न्यायपालिका का कोई सदस्य केवल महाभियोग की जटिल प्रक्रिया के माध्यम से ही हटाया जा सकता है। इस व्यवस्था का मकसद यह पक्का करना था कि बिना किसी दबाव या प्रभाव के न्याय किया जा सके। हां, हमें एक सशक्त न्यायिक उत्तरदायित्व विधेयक की जरूरत है।
जन लोकपाल विधेयक एक वैकल्पिक तंत्र की व्यवस्था करता है जिसके तहत केवल 11 बुद्धिमान और अनिर्वाचित लोगों के पास ही उच्च न्यायपालिका के किसी सदस्य के खिलाफ अभियोजन का अधिकार होगा। परिणाम तो इससे भी कहीं ज्यादा खतरनाक हो जाएंगे, जब आप यह मान लें कि जन लोकपाल बिल के तहत इसके पास स्वतंत्र जांच और अभियोजन एजेंसियां होंगी। इस हालत में कोई भी न्यायाधीश जन लोकपाल के अभियोजकों के विचारों के खिलाफ जाने की जहमत नहीं उठायेगा, क्योंकि उसे अपने फैसले की गलत व्याख्या की स्थिति में खुद के खिलाफ अभियोजन का डर सताता रहेगा।
हर अदालती कार्यवाही के मामले में एक पक्ष तो हमेशा असंतुष्ट रहता ही है। इस समय, अगर असंतुष्ट वादियों में से कोई भी किसी न्यायाधीश के खिलाफ बेबुनियाद और कुत्सित आरोप लगाता है तो उसे अदालत का कोपभाजन बनना पड़ता है। जन लोकपाल के अस्तित्व में आ जाने पर ऐसे आरोप रोज लगाये जाएंगे, जो हमारी न्यायिक प्रक्रिया की स्वायत्ता को चुनौती देंगे और न्याय प्रणाली को ही ध्वस्त कर देंगे। हम ऐसा नहीं होने दे सकते हैं।
चिंता का दूसरा बिंदु यह है कि जनलोकपाल सरकारी अधिकारियों को अनुशासित करने की सारी शक्तियां खुद हथियाना चाहता है। इसके लिए संविधान में संशोधन की जरूरत होगी। वर्तमान में, सरकारी अधिकारियों का कार्यकाल संविधान के अनुच्छेद 311 में सन्निहित प्रक्रियात्मक अर्हताओं के अनुसार सुरक्षित है। इसके अलावा, उन्हें संघ लोकसेवा आयोग (यूपीएससी) द्वारा संविधान के अनुच्छेद 320 (3) (सी) के संदर्भ में ही दंडित किया जा सकता है। ऐसे संशोधन की स्थिति में, ही जन लोकपाल को सभी सरकारी अधिकारियों को अनुशासित करने का अधिकार मिल सकेगा। यह मौजूदा संवैधानिक ढांचे से विचलन जैसा है और कुशासन के मामलों में सरकारी तंत्र में सीधा हस्तक्षेप है।
यह सरकार की कार्यप्रणाली को लकवाग्रस्त कर देगी। सरकारी सेवक संभव आनुशसानिक कार्यवाही से भयभीत रहेंगे और अपने ऊपर के अधिकारियों की आज्ञा नहीं मानेंगे। कोई सरकार ऐसा नहीं कर सकती। अपनी व्यक्तिगत समस्या दूर करने के लिए सरकारी सेवक रोजाना एक-दूसरे पर शिकायत दायर करेंगे। सहकर्मियों के भय की वजह से निर्णय लेना संकट बन जाएगा। प्रशासन से दूर रहने वाले समाधान सुझा रहे हैं, जो काल्पनिक और अव्यावहारिक दोनों है। जन लोकपाल प्रधानमंत्री कार्यालय को भी अपनी हद में लेना चाहता है। लोकतंत्र में सभी लोकसेवक जवाबदेह होते हैं। कोई भी सिद्धांतत: इस प्रस्ताव पर आपत्ति नहीं कर सकता। मुद्दा यह है कि क्या 11 बुद्धिमान लोगों वाले जन लोकपाल को यह अधिकार दिया जा सकता है? एक न्यायविद् ने हाल में कहा कि पिछला अनुभव बताता है कि हमारे सभी प्रधानमंत्री देवदूत नहीं रहे हैं। मैं नम्रतापूर्वक कहता हूं कि यही हमारे न्यायधीशों का भी सच है। वे सभी देवदूत नहीं हैं। हमारा भविष्य का अनुभव भी यही साबित करेगा कि जन लोकपाल के सारे सदस्य देवदूत नहीं होंगे। स्वतंत्रता अधिकारियों को देवदूतसदृश नहीं बनाती।
स्वयं की रक्षा के लिए व्यक्तिगत स्तर पर हममें से कोई राजा से ज्यादा निष्ठावान नहीं हो सकता, सिवाए प्रधानमंत्री कार्यालय के। हमारी राजनीतिक व्यवस्था की प्रकृति देखते हुए राजनीतिक लाभ पाने के लिए आग उगलने वाले निराधार आरोप पूरे संस्थान को विकलांग बना सकते हैं। प्रधानमंत्री का कार्यालय हमारे संसदीय लोकतंत्र का प्रमुख केंद्र है। एक स्वतंत्र निरंकुश जन लोकपाल पूरी व्यवस्था को बुरी तरह अस्थिर कर सकता है और प्रधानमंत्री की जांच केवल यह साबित करने के लिए कर सकता है कि आरोप निराधार हैं। इससे संसदीय लोकतंत्र को ठेस पहुंचेगी। मौजूदा व्यवस्था के तहत प्रधानमंत्री अभियोजन से सुरक्षित नहीं है। किसी स्थिति में जब तथ्य सार्वजनिक हो जाते हैं, तब किसी भ्रष्ट प्रधानमंत्री को जनता बर्दाश्त नहीं कर पाती। एक प्रसिद्ध न्यायविद् का जैक शिराक का संदर्भ अनुचित है, क्योंकि राष्ट्रपति के पद पर रहने के चलते उनका अभियोजन पद छोड़ने के कई साल बाद शुरू हुआ था। जबकि यह मामला उनके पेरिस के मेयर रहने के दौरान (1977 से 1995) का रहा है। सिल्वियो बर्लुस्कोनी का संदर्भ भी इतना ही अनुपयुक्त है। अस्थिर पड़ोसी और आतंकवाद के वास्तविक खतरे के बीच प्रधानमंत्री की संस्था को कमजोर करना ऐतिहासिक भूल होगी।
चिंता की एक अन्य वजह जन लोकपाल द्वारा सांसदों को अभियोजन के दायरे में लाने की है, जो संविधान के अधिनियम 105(2) के तहत संसद में दिए गए संबोधन और मतदान के लिए सुरक्षित हैं। ये दो बहुमूल्य अधिकार हैं। इन्हें जांच के दायरे में लाने से सांसद हर संबोधन और मतदान के लिए गहरे राजनीतिक धुवीकरण के लिए प्रोत्साहित होंगे। इससे संविधान में पुन: संशोधन करना पड़ेगा। इससे ज्यादा पारदर्शी और कठोर समाधान संसद की नैतिक समिति के पास है। जन लोकपाल विधेयक में शामिल अन्य विवादास्पद प्रावधानों में सीवीसी और सीबीआई की भ्रष्टाचार निरोधक शाखा को जन लोकपाल को स्थानांतरित करना, भारतीय टेलीग्राफ अधिनियम की धारा 5 के तहत लोकपाल बिना किसी कानूनी कार्यवाही के टेलीफोन, इंटरनेट या अन्य किसी मीडिया माध्यम से संदेशों, वॉयस और डेटा संप्रेषण में हस्तक्षेप और निगरानी करने के लिए अधिकृत हो जाते हैं, वित्त मंत्री को उनकी बजटीय मांग से बांधना, जांच के दौरान जनहित में जन लोकपाल की सिफारिश पर निर्देश देना आदि हैं।
(लेखक केंद्रीय मंत्री और लोकपाल विधेयक पर बनी संयुक्त मसौदा समिति के सदस्य हैं)