मैं परिन्दा बन
अम्बर को छू लूं
तेज़ हवा के संग
उड़ जाऊं
और
किसी फल से भरे-भरे
पेड़ पे बैठकर एक-एक
करके अनेक फल का
मजा चख
उड़ जाऊं ची चूं का शोर
मचाऊं और
परिन्दों को इकट्ठा कर
तोता ढोलक बजाता है
का गीत सूना सब
परिन्दों को पेड़ पर बुला के
मन चाही बातें कर अम्बर की
सैर पर जाएं चलो आओ
हम पंख लहराएं
अम्बर की ओर उड़ जाएं
-सरफ़राज़ ख़ान
Bahut sundar vichar.
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क्या आपने लोहे को तैरते देखा है?
पुरुषों के श्रेष्ठता के 'जींस' से कैसे निपटे नारी?
बहुत ही अच्छा लिखा है आपने. लगता है आपका कैद मन आज भी आजादी को तड़पता है...
http://www.dafaa512.blogspot.com/
सपनों के पँख परिन्दों से भी बडे होते हैं जब जी चाहे चले चलो सुन्दर कविता धन्यवाद्
अच्छी रचना। बधाई।
बढ़िया...
काश हम उड़ पाते ऐसे उन्मुक्त!!