फ़िरदौस ख़ान
जब भी घर का ज़िक्र आता है तो आंखों के सामने क्यारियों में खिले ज़ाफ़रान के फूल महकने लगते हैं. बरसों पहले अब्बू ज़ाफ़रान के पौधे लाए थे. अब अब्बू इस दुनिया में नहीं हैं, बस उनकी यादगार के तौर पर ज़ाफ़रान के पौधे हैं, उनके फूल हैं, और अब्बू की नसीहतों से महकती उनकी यादें हैं. हमारे यहां बरसों से ग़ुलाम मुहम्मद आ रहे हैं. हर साल सर्दियों में हम उन्हीं से गर्म कपड़े और शालें ख़रीदते हैं. उन्हें भी ज़ाफ़रान के पौधे बहुत अज़ीज़ हैं, कहते हैं कि इन्हें देखकर अपने वतन की याद आ जाती है.
ज़मीं की जन्नत माने जाने वाले कश्मीर की ख़ूबसूरत वादियों में महकते ज़ाफ़रान के फूल फ़ारसी से इस शेअर की याद दिला देते हैं-
गर फ़िरदौस बररू-ए- ज़मीं अस्त हमीं अस्तो हमीं अस्तो हमीं अस्त
यानी अगर धरती पर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है यहीं है यहीं है...
सदियों से कश्मीर में ज़ाफ़रान की खेती हो रही है. कहा जाता है कि क़रीब आठ सौ साल पहले ख्वाजा मसूद और हज़रत शे़ख शरी़फ़ुद्दीन मध्य-पूर्वी एशिया से ज़ाफ़रान का पौधा अपने साथ लाए थे. यहां आकर वे बीमार हो गए और तब एक हकीम ने उनका इलाज किया. इस पर ख़ुश होकर उन्होंने ज़ाफ़रान का पौधा हकीम को दे दिया. इसलिए ज़ाफ़रान की पैदावार के वक़्त पंपोर की इन सूफ़ियों के मक़बरे वाली मस्जिद में नमाज़ भी अदा की जाती है. हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि यहां ज़ाफ़रान की खेती का सिलसिला दो हज़ार साल से भी ज़्यादा पुराना है.
ज़ाफ़रान को केसर भी कहा जाता है. इसका मूल स्थान दक्षिण यूरोप है. हालांकि दुनिया के कई देशों में इसकी खेती होती है. इनमें भारत, चीन, तुर्किस्तान, ईरान, ग्रीस, स्पेन, इटली फ्रांस, जर्मनी, जापान, रूस, आस्ट्रिया और स्विटज़रलैंड शामिल हैं. स्पेन दुनिया का सबसे बड़ा ज़ाफ़रान उत्पादक देश है, जबकि ईरान दूसरे दर्जे पर है. इन दोनों देशों में सालाना क़रीब तीन सौ टन ज़ाफ़रान का उपादान होता है, जो कुल उत्पादन का 80 फ़ीसदी है. भारत में इसकी खेती जम्मू-कश्मीर में होती है. जम्मू कश्मीर के कृषि मंत्री ग़ुलाम हसन के मुताबिक़ 2009-2010 के दौरान प्रदेश में 83 क्विंटल ज़ाफ़रान का उत्पादन हुआ. इसमें से 80 क्विंटल का उत्पादन जम्मू डिवीजन के पम्पोर में और 3.60 क्विंटल का उत्पादन कश्मीर के किस्तवार ज़िले में हुआ. ज़ाफ़रान की खेती का रक़बा भी साल 2000 के 2931 हेक्टेर के मुक़ाबले 2010-11 में ब़ढकर 3785 हो गया है.
साल के अगस्त-सितंबर माह में इसके कंद रोपे जाते हैं. अक्टूबर-दिसंबर तक इसमें पत्तियां आ जाती हैं और फूल खिलने लगते हैं, जो अपनी भीनी-भीनी महक से माहौल को ख़ुशनुमा बना देते हैं. ज़ाफ़रान की खेती के लिए समुद्रतल से क़रीब दो हज़ार मीटर ऊंचे पहाड़ी इलाक़े और शीतोष्ण सूखी जलवायु की ज़रूरत होती है. पौधे के लिए दोमट मिट्टी अच्छी रहती है. ज़ाफ़रान का पौधा बहुवर्षीय होता है और यह 15 से 25 सेमी ऊंचा होता है. पत्तियां घास तरह लंबी, पतली और नोकदार होती हैं. इसमें बैगनी रंग की फूल खिलते हैं. फूल में ज़ाफ़रान के तंतु होते हैं. इसके बीज आयताकार, तीन कोणों वाले होते हैं. ज़ाफ़रान के फूलों को चुनकर छायादार जगह पर बिछा दिया जाता है. सूख जाने पर फूलों से ज़ाफ़रान को अलग कर लिया जाता है. ज़ाफ़रान के रंग और आकार के हिसाब से उन्हें मागरा, लच्छी, गुच्छी आदि हिस्सों में बांट दिया जाता है. क़रीब डेढ़ लाख फूलों से एक किलो ज़ाफ़रान मिलता है, जिसकी क़ीमत डेढ़ लाख रुपये से ज़्यादा है.
ग़ुलाम मुहम्मद बताते हैं कि ज़ाफ़रान के पौधे का हर हिस्सा इस्तेमाल में लाया जाता है. ज़ाफ़रान की पंखड़ियों की सब्ज़ी बनाई जाती है. इसके डंठल जानवरों को खाने के लिए दे दिए जाते हैं. वह कहते हैं कि ज़ाफ़रान के फूल खिलने के दौरान यहां के बाशिंदों की ज़िन्दगी में काफी बदलाव आ जाता है. फ़िज़ां में बिखरी ज़ाफ़रान की ख़ुशबू, और हर जगह ज़ाफ़रान की ही बातें. इस दौरान तो भिखारी भी ज़ाफ़रान के फूलों का ही सवाल करते हैं. बाग़बां भी ज़ायक़ेदर फलों के बदले ज़ाफ़रान के महकते फूल ही लेना पसंद करते हैं.
ज़ाफ़रान एक औषधीय पौधा है और दवाओं में इसका इस्तेमाल होता है. वैज्ञानिकों के मुताबिक़ ज़ाफ़रान में तेल 1.37 फ़ीसदी आर्द्रता 12 फ़ीसदी, पिक्रोसीन नामक तिक्त द्रव्य, शर्करा, मोम, प्रोटीन, भस्म और तीन रंग द्रव्य पाएं जाते हैं. अनेक खाद्य पदार्थों ख़ासकर मिठाइयों में ज़ाफ़रान का इस्तेमाल किया जाता है.
इटली की यूनिवर्सिटी ऑफ एल अकीला और ऑस्ट्रेलिया की सिडनी यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक शोध में कहा गया है कि बुढ़ापे में ज़ाफ़रान की मदद से अंधेपन को रोका जा सकता है. हर रोज़ ज़ाफ़रान खाने से बीमारियों के ख़िलाफ़ आंखों की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है. शोध दल के प्रमुख प्रोफेसर सिलविया बिस्ती का कहना है कि केसर में कई गुण होते हैं जो रोशनी के लिए रक्षक का काम करते हैं.
बाज़ार में नक़ली ज़ाफ़रान की भी भरमार है. इसलिए असली ज़ाफ़रान की पहचान ज़रूरी है. असली ज़ाफ़रान पानी में पूरी तरह घुल जाता है. ज़ाफ़रान को पानी में भिगोकर कपड़े पर रगड़ने से अगर ज़ाफ़रानी रंग निकले तो उसे असली ज़ाफ़रान समझना चाहिए और और पहले लाल रंग निकले और बाद में पीला पड़ जाए तो वह नक़ली ज़ाफ़रान होगा.
बहरहाल, राजधानी दिल्ली में हम ज़ाफ़रान के पौधे तलाश रहे हैं. शायद कहीं मिल जाएं...
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