फ़िरदौस ख़ान
औद्योगीकरण ने जहां विकास का मार्ग प्रशस्त किया है, वहीं मानव समाज के लिए कई तरह के संकट भी पैदा किए हैं। औद्योगीकरण के बढ़ोतरी के साथ पारंपरिक खेती को बेहद नुकसान पहुंचा है। इतना ही नहीं इससे जहां एक वर्ग को और अमीर बनाया है, वहीं एक बड़े तबके को बंधुआ मजदूर जैसी स्थिति में जीने को मजबूर कर दिया है।

गौरतलब है कि भारत में हर साल काम के दौरान हजारों मजदूरों की मौत हो जाती है। सरकारी, अर्ध सरकारी या इसी तरह के अन्य संस्थानों में काम करते समय दुर्घटनाग्रस्त हुए लोगों या उनके आश्रितों को देर सवेर कुछ न कुछ मुआवजा तो मिल ही जाता है, लेकिन सबसे दयनीय हालत है दिहाडी मजदूरों की। पहले तो इन्हें काम ही मुश्किल से मिलता है और अगर मिलता भी है तो काफी कम दिन। अगर काम के दौरान मजदूर दुर्घटनाग्रस्त हो जाएं तो इन्हें मुआवजा भी नहीं मिल पाता। देश में कितने ही ऐसे परिवार हैं, जिनके कमाऊ सदस्य दुर्घटनाग्रस्त होकर विकलांग हो गए हैं या फिर मौत का शिकार हो चुके हैं, लेकिन उनके आश्रितों को मुआवजे के रूप में एक नया पैसा तक नसीब नहीं हो पाता। कई बार दुर्भाग्यपूर्ण और दुख की बात यह भी रहती है कि मरने वाले मजदूरों के अंतिम संस्कार के लिए उनके परिजनों के पास पैसे तक नहीं होते। ऐसे कितने ही मामले सामने आ चुके हैं। औद्योगीकरण ने ठेका प्रथा को बढ़ावा दिया है, जिससे मजदूरों की और ज्यादा दुर्दशा हुई है। ठेकेदार मजदूरों से महीनों काम कराने के बावजूद उन्हें उनकी मेहनत के पैसे तक नहीं देते।

हरियाणा के हिसार जिले को ही लीजिए, हिसार के लघु सचिवालय स्थित श्रम उपायुक्त कार्यालय के बाहर इंसाफ की गुहार लेकर आए मजदूरों की भीड़ लगी रहती है। मजदूरों का कहना है कि ठेकेदार उनसे काम करा लेता है और फिर उन्हें उनका मेहनताना नहीं देता। एक ठेकेदार रमेश मेहता से जब इस बारे में बात की गई तो उसने कहा कि नहीं देता पैसा कोई मेरा क्या बिगाड़ लेगा। नीचे से ऊपर तक हर अधिकारी को उसका हिस्सा (रिश्वत) दे रहा हूं।

मजदूरों की स्थिति के बारे में जब हिसार के श्रम उपायुक्त आर.के. सैनी से बात की गई तो उसका कहना था कि हमारे यहां तो सारा दिन मजदूरों की भीड़ लगी रहती है। हम कम से कम उनकी शिकायत की अर्जी तो ले लेते हैं, वरना मजदूरों की कौन सुनता है। श्रम उपायुक्त यह भी कहना था कि ठेकेदार तो होते ही ऐसे हैं, हम क्या कर सकते हैं। हैरत की बात तो यह है कि जिस व्यक्ति को प्रशासन से सिर्फ इसलिए नियुक्त किया है कि वह गरीब पीड़ित मजदूरों को न्याय दिलाएगा, वही ठेकेदार की वकालत कर रहा है। ज्यादा जोर देने पर श्रम उपायुक्त मजदूरों से पूछता है कि तुम्हारे पास क्या सबूत है कि तुमने ठेकेदार के पास काम किया है। यह जगजाहिर है कि कोई भी ठेकेदार मजदूरों को काम पर लगाते समय कोई लिखा-पढ़ी नहीं करता। यह बात श्रम उपायुक्त भी जानता है। इसके बावजूद कार्य स्थल पर जाकर निरीक्षण नहीं किया जाता, वजह वही नजराना है जो ठेकेदारों द्वारा उनके घर पहुंचा दिया जाता है।

सरकार के तमाम दावों के बावजूद दिहाड़ीदार मजदूर बदहाली में जीने को मजबूर हैं। दिसंबर 2005 में दिहाड़ीदार मजदूरों के संबंध में दिए गए सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले से इस बात की जरूरत महसूस होने लगी है कि इन मजदूरों के लिए भी अलग से एक कानून बनाया जाए, ताकि किसी अनहोनी के घटने पर उनके आश्रितों को भूखे न मरना पड़े। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि श्रमिक मुआवजा कानून-1923 के तहत दिहाडीदार मजदूर 'श्रमिक' की परिभाषा के तहत नहीं आते, इसलिए वे इस कानून के अंतर्गत मुआवजा पाने के हकदार नहीं हैं। गौरतलब है कि 1986 में रामू पासी नामक मजदूर को काम के दौरान अंगुली में चोट लग गई थी। इस पर उसने धनबाद की श्रम अदालत का दरवाजा खटखटाया, जहां से उसे 4001 रुपये का मुआवजा मिला। इस मुआवजे को कम बताते हुए उसने पटना उच्च न्यायालय में अपनी याचिका दायर की। उच्च न्यायालय ने श्रम अदालत के फैसले को सही ठहराया। इस पर उसने सर्वोच्च न्यायालय में गुहार लगाई, जहां न्यायालय ने उसे मुआवजे का हकदार नहीं माना।

संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनियाभर में कार्य संबंधी हादसों और बीमारियों से हर साल करीब 22 लाख मजदूर मारे जाते हैं। इनमें करीब 40 हजार मौतें अकेले भारत में होती हैं, लेकिन भारत की रिपोर्ट में यह आंकड़ा प्रति वर्ष केवल 222 मौतों का ही है। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि दुनिया में हर साल हादसों और बीमारियों से मरने वालों की तादाद 22 लाख से अधिक हो सकती है, क्योंकि बहुत से विकासशील देशों में सतही अध्ययन के कारण इसका सही-सही अंदाजा नहीं लग पाता। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के महानिदेशक के मुताबिक कार्य स्थलों पर समुचित सुरक्षा प्रबंधों के लक्ष्य से हम काफी दूर हैं। आज भी हर दिन कार्य संबंधी हादसों और बीमारियों से दुनियाभर में पांच हजार स्त्री-पुरुष मारे जाते हैं। औद्योगिक देशों खासकर एशियाई देशों में यह संख्या ज्यादा है। रिपोर्ट में अच्छे और सुरक्षित काम की सलाह के साथ-साथ यह भी जानकारी दी गई है कि विकासशील देशों में कार्य स्थलों पर संक्र्रामक बीमारियों के अलावा मलेरिया और कैंसर जैसी बीमारियां जानलेवा साबित हो रही हैं। अमूमन कार्य स्थलों पर प्राथमिक चिकित्सा, पीने के पानी और शौचालय जैसी सुविधाओं का घोर अभाव होता है, जिसका मजदूरों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है।

हमारे कार्य स्थल कितने सुरक्षित हैं यह बताने की जरूरत नहीं है। ऊंची इमारतों पर चढ़कर काम कर रहे मजदूरों को सुरक्षा बैल्ट तक मुहैया नहीं कराई जाती। पटाखा फैक्ट्रियों, रसायन कारखानों और जहाज तोडने जैसे कामों में लगे मजदूर सुरक्षा साधनों की कमी के कारण हुए हादसों में अपनी जान गंवा बैठते हैं। भवन निर्माण के दौरान मजदूरों के मरने की खबरें आए दिन अखबारों में छपती रहती हैं। इस सबके बावजूद मजदूरों की सुरक्षा पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। अगर मामला मीडिया ने उछाल दिया तो प्रशासन और राजनेताओं की नींद टूट जरूर जाती है, लेकिन कुछ वक्त बाद फिर वही 'ढाक के तीन पात' वाली व्यवस्था बादस्तूर जारी रहती है।

दरअसल देशी मंडी में भारी मात्रा में उपलब्ध सस्ता श्रम विदेशी निवेशकों को भारतीय बाजार में पैसा लगाने के लिए आकर्षित करता है। साथ ही श्रम कानूनों के लचीलेपन के कारण भी वे मजदूरों का शोषण करके ज्यादा से ज्यादा मुनाफा बटोरना चाहते हैं। अर्थशास्त्री रिकार्डो के मुताबिक मजदूरी और उनको दी जाने वाली सुविधाएं बढ़ती हैं तो उद्योगपतियों को मिलने वाले फायदे का हिस्सा कम होगा। हमारे देश के उद्योगपति और ठेकेदार ठीक इसी नीति पर चल रहे हैं।

फिक्की द्वारा कराए गए एक सौ से ज्यादा मुनाफा कमाने वाली कंपनियों के अध्ययन के मुताबिक उदारीकरण से पहले पांच सालों में कंपनियों के शुद्ध मुनाफे में 3.12 फीसदी का इजाफा हुआ था, लेकिन मजदूरी इससे आधी यानी 15.8 फीसदी ही बढ़ पाई। यह कहना कतई गलत न होगा कि ज्यों-ज्यों आर्थिक सुधार की रफ्तार बढ़ती गई त्यों-त्यों मजदूरों की हालत भी बदतर होती गई।

आजादी के इतने सालों बाद भी हमारे देश में दिहाड़ी मजदूरों की हालत बेहद दयनीय है। शिक्षित और जागरूक न होने के कारण इस तबके की तरफ किसी का ध्यान नहीं गया। जब तक मजदूर भला चंगा होता है तो वह जैसे-तैसे मजदूरी करके अपना और अपने परिवार का पेट पाल लेता है, लेकिन दुर्घटनाग्रस्त होकर या बीमार होकर वे काम करने योग्य नहीं रहता तो उस पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ता है। सरकार को चाहिए कि वह दिहाड़ी मजदूरों को साल के निश्चित दिन रोजगार मुहैया कराए और उनका मुफ्त बीमा करे। साथ ही उनके इलाज का सारा खर्च भी वहन करे। जब तक देश का मजदूर खुशहाल नहीं होगा तब तक देश की खुशहाली की कल्पना करना भी बेमानी है।

1 Responses to रक्षक ही बने भक्षक, मजदूर अमानवीय स्थिति में जीने को मजबूर

  1. hindwaarta Says:
  2. Good Coverage !!

     

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